Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्र लक्षणया ऋणजन्यदुःवं, तद् अतीतम् अतिक्रान्तम् , ऋणे मनुष्याणां यद् दुःखमुत्पद्यते ततोऽप्यधिक दुःखयुक्तमिति । अथवा-' अणातीतम् ' इतिच्छायापक्षे -अणं पापं, तत् अति-अतिशयेन इतं प्राप्तम् अणातीतम् अत्यन्त पापयुक्तमिति। 'अणवयग्गं ' 'अवयग्गं' इति देशी शब्दोऽन्तवाचकः, न अवयग्गं अणवयग्गं अनन्तमित्यर्थः । अथवा 'अनवताग्रम्' इतिच्छायापक्षे-अवनतम् आसन्नम् अग्रम् अन्तो यस्य तत् अवनताग्रम् , न तथा 'न' वर्णलोपाद् अनवनताग्रम्-आसन्नान्तरहितमित्यर्थः। अथवा 'अनवगताग्रम् ' इतिच्छायापक्षे-अनवगतम् अपरिच्छिऋणातीत है-लक्षणासे यहां ऋण शब्दका अर्थ ऋणभारसे उत्पन्न दुःख है-इससे भी अधिक दुःखवाला है-अर्थात् ऋण अवस्था में मनुष्यों को जो दुःख होता है उससे भी अधिक दुःखयुक्त है, अथवा अणातीत है -अण-जो पाप उसे अतिशय से प्राप्त है-अर्थात्-अत्यन्त पापयुक्त है। पुनः यह संसार कान्तार कैसा है ? " अणवयग्गं" अनवदन है। जो अवदन नहीं वह अनवदन है। “अवयग्ग" यह देशीय शब्द है और अन्त का वाचक है । यह अन्त से रहित है अर्थात् अनन्त है । अथवा"अणवयग्ग" की संस्कृतच्छाया ( अनवतान ) ऐसी भी होती है ।सो इस पक्ष में अनवत अर्थात् आसन्न, अग्र-अर्थात् अन्त-जिसका अन्त आसन्न निकट होता है वह अनवताग्र है । और जो ऐसा नहीं है वह अनवनतान है । यहाँ निषेध अर्थ में नन तत्पुरुष समास हुआ है। और "न" वर्ण का लोप हुआ है। जिसका अन्त निकट नहीं है-ऐसा ત્રણ શબ્દને લાક્ષણિક અર્થ “ત્રણ જન્ય દુઃખ છે.” તેથી પણ વધારે દુઃખવાળું આ સંસારકાંતાર છે. દેણદાર માણસને જે દુઃખ અનુભવવું પડે છે તેના કરતાં પણ વધારે દુઃખ આ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરનારને અનુભવવું ५ छ. अथवा 'अणातीत' छ-मत्यत पापयुक्त छ. जी ते ससा२ वो छ ते मावा सूत्र४२ ४ छ -“ अणवयग्गं" मनवय छे. 'मानव' मेटो सवय नही मे. “ अवयग्ग” आमही २०५४ छ भने ते 'मन्त'! पाय छ मेटले तेने। म ' मन्त२डित' थाय छे. अथवा “ अणवयग्ग" नी २४त छाया “ अनवदन" ५५ थाय छे. मेष्टि विन्या२ ४२di अनवत (निट), अग्र (अन्त) रेनो-टोरेनसन्त निट डाय छ तेने अनवता' हे छे. अने र सेवा नथी तेने अनवनता छ. मही निषेधार्थ भा 'न' तत्पुरुष समास थय। छ. अने "न" नो यो५ થયો છે. જેને અન્ત નિકટ નથી એવું આ સંસારરૂપી વન છે. અથવા–આ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧