Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
- 'गोयमा !' हे गौतम ! ' अत्थेगइया जीवा' सन्त्येके जीवाः 'आयारंभावि परारंभावि तदुभयारंभावि' आत्मारम्भा अपि परारम्भा अपि, तदुभयारम्भा अपि, किन्तु ' नो अणारंभा' नो अनारम्भाः ' अत्थेगइया जीवा' सन्त्येके जीवा 'नो आयारंभा नो परारंभा नो तदुभयारंभा' नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः नो तदुभयारम्भाः, अतएव ' अणारंभा' अनारम्भाः आरम्भवर्जिताः सन्तीति । ननु उपयोगवत्वात्मके कधर्मस्य सर्वजीवेषु विद्यमानतया सर्वेऽपि जीवा समाना एव तत्कथं केचनात्मारम्भाः केचन परारम्भाः ? इत्यादि विषमता ? इत्याशयेन
अनारंभी हैं। आत्मारंभ - आत्मारंभी भी हैं, परारंभ- परारम्भी भी हैं, उभयारंभ - उभयारंभी भी हैं, जो इन पदों के साथ 'भी' लगाया गया है, वह भिन्नाश्रयत्व और एकाश्रयत्वका प्रतिपादक है। अर्थात् इन पदों के साथ जो " अपि " शब्द लगा हुआ है वह इन पदोंमें भिन्नाश्रयत्वका और एकाश्रयत्वका प्रतिपादन करता है । यहां काल भेदसे एकाश्रयता होती है । वह इस प्रकार से है कि आत्मारंभादिक जो ये धर्म कहे गये हैं वे कालभेदकी अपेक्षासे एक ही जीव किसी कालमें आत्मारंभी होता है, किसी कालमें परारंभी होता है, किसी कालमें उभयारंभी होता है इसलिये जीव आरंभ रहित नहीं । इस तरहसे maraी बने रहते हैं । भिन्नाश्रयता इनमें इस प्रकारसे बनती है कि कितनेक जीव-असंयत जीव- आत्मारंभी होते हैं, कितनेक असंयत जीव परारम्भी होते हैं और कितनेक असंयत जीव उभयारंभी होते हैं इसलिये वे आरंभ रहित नहीं होते हैं। अनेक जीवोंकी अपेक्षा यह भिन्नाश्रयता है। कितनेक जीव आत्मारंभी, परारंभी और उभया
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यहोने ? 'भी' 'गु' सगाड्यो छे ते लिन्नाश्रयत्व भने भेाश्रयत्वना अतिथाह छे. भेटले ते पहानी साथै यावेतो 'अपि' शब्द ते होभां लिन्नाશ્રયત્ન અને એકાશ્રયત્વનું પ્રતિપાદન કરે છે. અહીં કાળભેદથી એકાશ્રયતા થાય છે. તે આ રીતે છે-કાળભેદની અપેક્ષાએ એક જ જીવ કોઇ કાળે આત્માર’ભી હાય છે, કાઇ કાળે પરારંભી હાય છે, કાઇ કાળે ઉભયાર'ભી હાય છે. તેથી કાઈ પણ કાળે જીવ આર‘ભરહિત હાતા નથી, એ રીતે તેએ એકાશ્રયીખની રહે છે. તેમનામાં ભિન્નાશ્રયતા આ રીતે ઘટાવી શકાય છે—કેટલાક અસયત જીવા આત્મારભી હાય છે, કેટલાક અસયત જીવા પરારંભી હાય છે, અને કેટલાક અસયત જીવા ઉભયાર ભી હાય છે; તેથી તેઓ કદી પણ આર‘ભ રહિત હાતા નથી. અનેક જીવાની અપેક્ષાએ આ ભિનાશ્રયતા છે.
કેટલાક જીવા આત્મારલી, પરારભી અને ઉભયાર’ભી હાતા નથી પણુ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧