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અહો રતનાના
ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર
300
000000
1000000
-: સંયોજક :
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૯૧
સ્યાદ્વાદ રત્નાકર ભાગ-૧
: દ્રવ્ય સહાયક :
પ.પૂ. આગમોદ્ધારક આનંદસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના સમુદાયના
પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી જીતેન્દ્રશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી ઇન્દ્રિયદમાશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા
પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી આત્મજયાશ્રીજી મ.સા., પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી મુક્તિરત્નાશ્રીજી મ.સા., પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી વિરાગરત્નાશ્રીજી મ.સા., પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી ભક્તિરત્નાશ્રીજી મ.સા.
આદિ ઠાણા-૪ ની પ્રેરણાથી શ્રી હીરાલાલ મણીલાલના, બંગલામાં, ગીરધરનગર, શાહીબાગ આરાધના કરતી શ્રાવિકાઓની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
દસંયોજક . શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧
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"Aho Shrut Gyanam"
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પૃષ્ઠ
238
286
54
007
810
850
322
280
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાસંપાદક 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
| पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा
| श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम्
| श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक
| श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली
| श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१
| श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२
| श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः
श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री
156
352
120
88
110
018
498
019
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454 188
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054
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय?
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर
श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय३ (१) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय (२) (३) श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय ५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્માન મહાકાવ્યમ્
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
સામાન્યનિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजीम. सा.
પૂ. ભાવબ્યસૂરિનીમ.સા.
પૂ. ભાવન્યસૂરિનીમ.સા.
पू. लावण्यसूरिजीम. सा.
પૂ. ભાવબ્યસૂરિનીમ.સા.
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
414
192
824
288
520
578
278
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286
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532
113
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પાદક | પૃષ્ઠ !
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि
। 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुद्रिनi iय jथी
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
374
420
406
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076 | જન વિને
જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧
080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧
114
08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં
| ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ
238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ
194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ
192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ
260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ
238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ
260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી
910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा
436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી
336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી |
230 સં. | પૂ. મે વિનયની
પૂ.સવિનયન, પૂ.
पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560
088 .
322
114
089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
272
92
240
93
254
282
95
118
466
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम
कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव
टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी
342
98
362
134
70
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316
224
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307
250
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सं./हि
337
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सं./हि
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372
112
सं./हि सं./हि सं./हि
142
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336
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सं./गु सं./गु
पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा | फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा
218
116
656
122
जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी प्राचिन लेख संग्रह-१ ।
विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा 117
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __ इन मुंबई सर्कल-१
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन । इन मुंबई सर्कल-५
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन
__ इन्स्क्रीप्शन्स | 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
764
सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु
404
404
121
540
रॉयल एशियाटीक जर्नल
274
रॉयल एशियाटीक जर्नल
41
124
400
अं.
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
125
320
148
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आहतमतप्रभाकरस्य
चतुर्थो मयूखः श्रीमद्वादिदेवसूरिविरचितः प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
तयाख्या च स्याद्वादरत्नाकरः
पुण्यपत्तनस्थ सवालवंशजश्रेष्ठिलाधाजीतनूजमोतीलाल इत्येतैः टिप्पणी
भिरुपोद्घातेन च परिष्कृत्य संशोधितः ।
वीरसंवत २४
प्रमेयमकनावृत्तिः।
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इदं पुस्तक ' मोतीलाल लाधाजी' इत्येतैः पुण्यपत्तने ( १९६ भवानी पेठ ) प्रकाशितम् । ( अस्य सर्वेऽधिकाराः प्रकाशकेन स्वायत्त कृताः)
तच्च, पुण्यपत्तने सदाशिवश्रेण्यां लक्ष्मण भाऊराव कोकाटे' इत्यनन __ स्वकीये ' हनुमान प्रिंटिंग प्रेस ' मुद्रणालये मुद्रितम् ।।
"Aho Shrut Gyanam"
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श्रीः
प्रास्ताविकं किंचित् ।
वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो । वीरे श्रीधुतिकीर्तिकान्तिनिचयः श्रीवीर ! भद्रं दिश ॥ १ ॥ आईतमतप्रभाकरसंस्थायाश्चतुर्थो मयूखः स्याद्वादरत्नाकराभिधशासनदेवकृपया प्रकाश्यते । सोऽयं ग्रन्थः ( ८४००० ) चतुरशीतिसहस्रग्रः न्थसंख्यात्मको निरमाथि श्रीवादिदेवसूरिभिरिति कर्णपरम्परातः समागता प्रथितिः । बहुशः प्रयतमानैरस्माभिस्तत्तज्जैनाचार्याणां सूरीणां च कृपयालाम्भि सप्तपरिच्छेदात्मको भागो ग्रन्थराजस्यास्य । अस्मन्मुद्रापित ग्रन्थान्तरक्रमेण संमुद्यते चेदयं तर्हि व्याप्नुयादू द्वादशशतीं पृष्ठानामिति संभावयामः । संपूर्णो ग्रन्थ एकस्मिन् विभागे संग्रथ्यते चेद्भवेद् वैरस्याय पिपठिषूणामतो विभागशः संमुय प्रकाशयितुमारब्ध एषः । तत्र प्रथमो भागः प्रथमपरिच्छेदात्मको मुद्रितः । प्राय इयतैव प्रमाणेन भागान्तराणां प्रत्येकं प्रतिमासं मुद्रणं स्यादिति समीहामहे । ग्रन्थराजोऽयं बौद्ध यौगादिमतानां परामर्शकोऽतोऽवश्यमध्ययनाहों न केवलं स्याद्वादमतानुयायिनां किंतु भिन्नमतस्थानामपि स्याद्वाद मतजिशा सूनाम् । अतः पूर्वमयूखवदस्यापि मूल्याल्पत्वपरिशिष्ट विस्तारग्रन्थान्तर्बहिः परिचयादिकं सविस्तरमाहतम् । सन्ति चास्य ग्रन्थस्य द्वादशपरिशिष्टानि । किंतु परिशिष्टादिकमन्तिमे विभाग एव मुद्रयितुमर्हम् । अग्रेतनपत्राणां मुद्रयिष्यमाणां निर्देशस्य पूर्वं कर्तुमशक्यत्वात् । केवलं टिप्पन्यादिकमर्थावसायोपयोगि तत्तत्स्थलेऽधोभागे निरदोश । प्रतिपत्रं पङ्गक्त्यङ्का निर्दिष्टा येषामुपयोगः परिशिष्टदर्शन सौकर्याय । अन्यच पुस्तकानां वस्त्रात्मकं बन्धनमस्तु न पत्रात्मकमिति सूचयन्ति केचिन्महाभागाः परं तद्यक्तिशो ग्राहकैः स्वयमनुष्ठेयम् । अस्माभिस्तथा संपादने यैर्नाभिमतस्तदर्थं द्रव्याधिक्यव्ययस्तै सुधैव पीडितवेतसो भवेयुरिति यथापूर्व सरणिराहता । इतिविनिवेदकः । _ विद्वद्वशेषदःमोतीलाल लाधाजी
आईतमतप्रभाकर कार्यालयः पुण्यपत्तनम् वी. सं. २४५३ संवत्सरीपर्व ।
" Aho Shrut Gyanam".
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"Aho Shrut Gyanam"
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ॐ नमः सर्वज्ञाय । श्रीवादिदेवसरिविरचितः प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
तद्वथाख्या च
॥ स्याद्वादरत्नाकरः ॥
ROOOOOOOO
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नमः परमविज्ञानदर्शनानन्दशक्तये ॥
श्रीयुगादिजिनेन्द्राय स्वायत्तीकृतमुक्तये ॥ १॥ एकस्यापि तुरङ्गमस्य कमपि ज्ञात्वोपकार सुर
श्रेणीभिः सह पष्टियोजनमितामाक्रम्य यः काश्यपीम् ।। आरामे समवासरद् भृगुपुरस्येशानदिमण्डने । ___ स श्रीमान् मयि सुव्रतः प्रकुरुतां कारुण्यसान्द्रे दृशौ ॥ २॥
१ अनुष्टुप् । २ शार्दूलविक्रीडितम् । ३ गूर्जरप्रदेशेऽपुना भडोच ' इति यातस्य । ४ विशस्तीर्थंकरः । ५ श्रीमुनिसुव्रतस्वामितीर्थे लाटदेशमंडनभृगु• कच्छपुराधिपो जितशत्रुनामा राजा आसीत् । एकदा तेन राज्ञा यझे स्वतुरंग ६ भालब्धव्य इति निश्चयः कृतः । एतदभिज्ञानपूर्णा सम्प्राप्तकेवलज्ञानदर्शनाः ससुर
रा: श्रीमन्तो भगवन्तो मुनिसुव्रतस्वामिनः एकस्यां रात्रौ योजनानां षष्ठिमुल्लंध्य भृगुकच्छे कोरण्टवनं सम्प्राप्ता देशनान्ते तत्र अश्वेन सह राजाजितशत्रुः समागत: भगवन्तं वन्दित्वा सम्मुखमुपविष्टः । भगवद्भिरपि तत्प्रबोधाय तस्य अश्वस्य आत्मनश्च पूर्वभवः कथितः । तत्समाकर्ण्य जातजातिस्मृतिस्तुरंगमः सम्यक्त्वमूलं दश. विरतिधर्म सचित्ताहारवर्जनं स्वीकृतवान् । अयमश्वः षण्मासान्ते मृत्वा सौधर्मावतंसके महर्षिको देवः संजातः । ततस्तेनावधिज्ञानद्वारा स्यपूर्वभवो ज्ञातः । अथ च तेन स्वामिसमवसरणस्थाने रत्नमयश्चैत्यः प्रभुप्रतिमाश्वर्तिश्च कारिता प्रतिष्ठापिता च । तत्कालात्तत्स्थानं ' अवावबोधतीर्थ' इति ख्यातिमदभूत् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १ प्रांशुप्राकारकान्तां त्रिदशपरिवृढव्यूहरुद्धावकाशा
वाचालां केतुकोटिकणदनणुमणीधोरणीभिः समन्तात् ॥ यस्य व्याख्यानभूमीमहह किमिदमित्याकुलाः कौतुकेन ।
प्रेक्षन्ते प्राणभाज: स भुवि विजयतां तीर्थकृत् पार्श्वनाथः ॥३॥ ५ दत्त्वा कर्णं सुरेशे स्थितवति भवति स्मेरवारविन्दे ।
वृन्दे वृन्दारकाणामनुसरति मुदं मन्त्रिाण स्वर्गिणां च ॥ आयातान् वादबुद्धया झटिति गणभृतः प्रौढयुक्तिप्रपञ्चै
नि:शङ्कानादधानो जयति जिनपतिर्वर्द्धमानः सभायाम् ॥ ४॥ प्रत्यक्षद्वयदीप्तनेत्रयुगलस्तर्कस्फुरत्केसरः । १० शाब्दव्यात्तकरालवऋकुहरः सद्धेतुगुञ्जारवः ।। प्रक्रीडन्नयकानने स्मृतिनखश्रेणीशिखाभीषणः ।
संज्ञावालधिबन्धुरो विजयते स्याद्वादपञ्चाननः ॥ ५॥ यन्नामस्मृतिमात्रतोऽपि कृतिनांवाचां विलासाः क्षणात् ।
जायन्ते प्रतिवादिकोविदमदध्वंसक्षमाः सर्वतः ।। १५ तां त्रैलोक्यगृहप्ररूढकुमतध्वान्तप्रदीपप्रभा ।
वन्दे शारदचन्द्रसुन्दरमुखीं श्रीशारदां देवताम् ॥ ६ ॥ येषां हन्त पिबन्ति कर्णपुटकैरद्यापि रोमान्चिताः।
किश्चित्कूणितलोचनाश्च सुधियः सुस्वादुशास्त्रामृतम् ।। निःसाधारणभक्तिभाजनजने विध्वस्य विघ्नावली । २० सन्तु श्रीमुनिचन्द्रसूरिगुरवस्तेऽभीप्सितप्राप्तये ॥ ७॥ श्रीसिद्धसेनहरिभद्रमुखाः प्रसिद्धा
स्ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः ॥ १ सम्धरा २ 'किंकिणी' इति प. पुस्तके पाठः । ३ त्रयोविंशतितमस्तीर्थकरः। ४ श्रीवर्धमानेन एकादशानां गणधराणां संशया निराकृताः । तद्विषय. सविस्तरं वर्णनमस्मन्मुद्रापितस्याद्वादमार्या १७८ पृछे २१४ टिप्पन्योईष्टव्यम ५ सांव्यवहारिकं पारमार्थिक चेति द्विभेदं प्रत्यक्षम् । ६ वसन्ततिलका।
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परि. १ सू. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः येषां विमृश्य सततं विविधान् निबन्धान __ शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादृक् ॥ ८॥ अधिकतरमनीषोल्लासिनस्तुल्यबुद्धे
र्मदविषधरदष्टस्वान्तदेहस्य चास्ति ॥ उपकृतिरिह शास्त्रेणामुना नैव किन्तु
प्रकृतिसरलचित्तस्याल्पबोधस्य मत्तः ॥ ९ ॥ इह कृतज्ञतामवलम्बमानः शास्त्रकारस्तत्सिद्धिनिबन्धनं परापरगुरुप्रवाहं स्मृत्यौदर्श सङ्क्रमयन्निमं प्रथमतः श्लोकमाह--- रागद्वेषविजेतारं ज्ञातारं विश्ववस्तुनः। शक्रपूज्यं गिरामीशं तीर्थेशं स्मृतिमानये ॥ १-॥ १० तत्र तीर्यते भवाम्भोधिर्भव्यैरनेनेति तीर्थं चतुर्वर्णः श्रमणमसङ्घः
र तस्य ईशः स्वामी तीर्थेशः प्रत्यासन्नोपकारिश्लोकस्य वाच्योऽर्थः ।
५ स्वादिह श्रीवर्द्धमानस्तम् । स्मृतिं स्मरणमानये प्रापयामि । अपश्चिमतीर्थाधिनाथं श्रीमहावीरमहमिह ग्रन्थारम्भे स्मरामीत्यर्थः । कथंभूतम् । रागोऽभिष्वङ्गात्मा । द्वेषः परसम्पत्त्यसहन- १५ स्वभावस्तौ विशेषेणापुनर्जेयतया जेतुं विक्षेप्तुं शीलं यस्यासौ रागद्वेषविजेता तम् । पुनः कीदृशम् । ज्ञातारमवबोद्धारम् । कस्य । विश्ववस्तुनः कालत्रयवर्तिसामान्यविशेषात्मकपदार्थस्य भूयः किं विशिष्टम्। शनैः शतमन्युभिः पूज्यः कमनीयाशोकाद्यष्टमहाप्रांतिहार्य
१ श्रीसिद्धसेनस्य संमतितकदियो ग्रन्थाः। हरिभद्रस्य अनेकान्तजयपताकादयो अन्याः । २ मालिनी । ३ 'स्मृत्यात्मदर्श' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः । ४ 'वउविहे संघे पं. त.-१ समणा २ समणीओ ३ सावगा ४ सावियाओ (१ श्रमण: २ श्रमणी ३ श्रावकः ४ श्राविका ) इति स्था. सू. ३६३. ५ पूर्वदिक्स्थम् । अविद्यमानः पश्चिमः पश्चाद्भावी तीर्थकरो यस्येत्यपश्चिमः तमन्तिम तीर्थकरामिति वा । ६ 'अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहाणि जिनेश्वराणाम् ।' इति ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. १ सू. १ विरचनेनार्चनीयः शक्रपूज्यस्तम् । पुनरपि कीदृक्षम्, गिरां वाचामीशं यथावस्थितवस्तुगोचरत्वेन तासां प्रयोक्तृत्वान्नायकम् । अनेन च विशेषणचतुष्टयेनामी यथाक्रमं भगवतो मूलातिशयाश्चत्वारः स्मृति
मुकुरभूमिकामानीयन्ते । तद्यथा अपायापगमातिशयो ज्ञानातिशयः ५ पूजातिशयो वागतिशयश्चेति । एतेषां चातिशयानामित्थमुपन्यासे तथोत्पत्तिरेव निमित्तम् । तथा हि नाविजितरागद्वेषो विश्ववस्तुज्ञाता भवति । न चाविश्ववस्तुज्ञः शक्रपूज्यः सम्पद्यते । न च शक्रपूजाविरहे भगवांस्तथागिरः प्रयुक्त इति श्लोकस्य वाच्योऽर्थः ॥
प्रतीयमानस्त्वयम् । इह ये किलाविदलितदृढतररागद्वेषद्विषदत्ताश्लोकस्य प्रतीयमानोऽर्थः। शवदुःखावशाः .... शेषदुःखविशेषाः अविदितहेयोपादेयोपेक्षणीय
आवदितहयापादयो ताख्यापितजीवन्मृततुल्यभावाः सकललोकस्यापि अनवलोकनीयाः विषयाविसंवादसमुदितपरमानन्दप्रसादितहृदयसहृदयस्पृहणीयशब्दप्रयोगाशक्ताः अथ च परमसुखविज्ञानपूज्यत्वसम्यक्शब्द
प्रयोक्तृत्वाभिलाषिणस्तान् प्रति तत्समीहितगुणाधीशस्य भगवतः १५ समाश्रयणीयत्वं वस्त्वमुना श्लोकेन व्यञ्जनव्यापारगोचरतामावेदयतो
ग्रन्थकृतोऽस्माभिरेतत्स्मरणशरणप्रपन्नैरिदं शास्त्रमुपदिश्यते । तदहो जना यूयमप्यमुमेवासाधारणगुणाधिकरणं स्मरणकरणेन शरणं प्रपद्यध्वमिति परहितप्रयन्नत्वमुपदेशदानदक्षत्वं च वस्तु भगवत्समाश्रयणाथै परप्रोत्साहनायामुत्साहप्रतीतेर्दयावीररसो भगवद्विषयो रत्याख्यो भावश्च ध्वन्यते । यो हि दुर्जयमप्यान्तरमैरातिनिकर परितः पराकर्तुं प्रवीणस्तस्य बहिरहितसम्भावनैव नाविर्भवतीत्यतिशयोक्तिरैलङ्कारः । अत एव चान्येभ्यो विजयिभ्यो व्यतिरेकावगमाद् व्यतिरेकालङ्कारश्च ।
२०
- १ 'दन्ताशेष' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः । २ परस्परास्थाबन्धात्मिक रतिः स्थायिभावेऽवयं प्रथमो भावः । ३ शत्रुसमुदायम् । ४ विशेषविवक्षय । भेदाभेदयोगायोगव्यत्ययोऽतिशयोक्तिः । काव्यानुशासने अ. ६ । ५ उत्कर्ष. पकर्षहेतोः साम्यस्य चोक्तावनुक्तौ चोपमेयस्याधिक्यं व्यतिरेकः । का. अ. ६
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परि. १ सू. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः नित्योद्युक्तत्वेन प्रतिपक्षक्षेपकत्वेनासन्मोहाध्यवसायित्वेन चोत्साहप्रतीतेवीररसश्च भगवतोऽरागवतो रागद्वेषेति विशेषणेन व्यज्यते । विशेषणचतुष्टयेन चान्यतीर्थिकतीर्थेशेभ्यो भगवतः समधिकत्वावगतेर्व्यतिरेकालङ्कारो ध्वन्यते । एवं चासाधारणगुणाधिकरणतया भगवतः परमगुरुत्वं ख्यापितं भवति । तथाहि परमो गुरुभगवान् बर्द्धमानो ५ रागद्वेषविजेतृत्वात् विश्ववस्तुज्ञातृत्वात् शक्रपूज्यत्वात् वागीशत्वाच यः पुनर्नाभिहितसाध्यसम्पन्नः स न यथोक्तसाधनाधारो यथा सम्प्रतिपन्नः । एतेनापरगुरुरपि गणधरादिरस्मद्गुरुपर्यन्तो व्याख्यातः । तस्यैकदेशेन निगदितसाधनाधिकरणत्वादपरगुरुत्वोपपत्तेः ।
अत्राह कश्चिद्, भवतु नामैवं परापरगुरुप्रवाहस्य प्रसिद्धिः । तथापि १० परापरगुरुप्रवाहस्मरण कथमसौ प्रकृतशास्त्रस्य सिद्धिनिबन्धनं येन शास्त्रसिद्धिनिबन्धनमस्ति तदारम्भे तस्य स्मृतिः श्रेयसीति तत्रैके समाद
प ' धते परापरगुरुप्रवाहस्य स्मरणाद् धर्मविशेषोत्पत्तेरधर्मध्वंसात् तद्धेतुकविघ्नोपशान्तरभीप्सितशास्त्रपरिसमाप्तितः स तसिद्धिनिबन्धनमिति तन्न तर्कानुकूलम् । एवं हि तेषां प्रस्तुतशास्त्रा- १५ रम्भे पात्रदानादिकमपि कर्तव्यकक्षामास्कन्देत् । पराफ्स्गुरुप्रवाहस्मरणवत् तस्यापि धर्मविशेषोत्पत्तिहेतुत्वाविशेषादभिहितशास्त्रसिद्धिनिबन्धनत्वोपपत्तेः । मङ्गलत्वात् आप्तस्मरणं शास्त्रसिद्धिनिवन्धनमित्यपरे । तदपि त्रपापात्रम् । स्वाध्यायादेरपि मङ्गलत्वाविरोधात् न खलु परापरगुरुपरम्परास्मरणमेव मङ्गलमिति क्षितिपतिशासन समस्ति । २०. परापरशुरुषबन्धानुध्यानाद् ग्रन्थकारस्य नास्तिकतापरिहारसिद्धितस्तद्वचनस्यास्तिकैरादरणीयत्वेन सर्वत्र ख्यात्युपपत्तेस्तदनुध्यानं तात्सद्धिनिबन्धनमिति कतिपये । तदपि न चतुरचेतोहरम् । आत्मादिपदार्थ
न
१ नयादिविभावः स्थैर्याद्यनुभावो धृत्यादिव्यभिचार्युत्साहो धर्मदानयुद्धभेदो वीरः । धर्मवीरो नागानन्दे जीमूतवाहनस्य । दानवीरः परशुरामबलिप्रभृतीनाम् । युद्धीरो वीरचरिते रामस्य । का. अ. २ । २ गणधरात् श्रीमुनिचन्द्रसूरिः ४१तमः।
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प्रमाणनयतत्त्वालाकालङ्कारः [परि. १ स. १ समर्थनादेव शास्त्रकर्तुर्नास्तिकतापरिहारघटनात् । तदन्तरेण शास्त्रादौ परापरगुरुप्रबन्धानुध्यानवचने सत्यपि नास्तिकतापरिहारानुपपत्तेः । शिष्टाचारपरिपालनसाधनत्वात् तत्स्मरणं तत्सिद्धिनिबन्धनमित्यन्ये ।
नैतदपि साधीयः । स्वाध्यायादेरपि सकलशिष्टाचारपरिपालनसाधनत्वे५ नावधारणात् । ततः प्रस्तुतशास्त्रोत्पादनिमित्तचिरन्तनशास्त्रस्योत्पत्ति
कारणत्वात् तदर्थनिर्णयसाधनत्वाच्च परापरगुरुप्रवाहस्तत्सिद्धिनिबन्धनमित्येतदेव सहृदयसंवेद्यमिति ।
ननु यथावद्विज्ञानमेवं कर्तुस्तत्सिद्धिनिबन्धनमिति चेत् । मैवम् ।
परापराप्तनिर्मितशास्त्रं तस्य गुरूपदेशपरतन्त्रत्वात् । श्रुतज्ञानावरण१० प्रकृतशास्त्रे हेतुभूतमिति क्षयोपशमात् गुरूपदेशविरहेऽपि श्रुतज्ञानस्योत्पाशङ्कासमाधानाभ्यां व्यव
स्थापनम । दान्न तत्तत्परतन्त्रमिति चेत् । तदप्यवद्यम् । दुव्यभावश्रुतस्याप्तोपदेशापाये कस्याप्यभावात् । तथाहि द्रव्यश्रुतं द्वादशावचनात्मकम् । तदर्थज्ञानं तु भावश्रुतम् । तद्वितयमपि गण
धराणां भगवदहद्वचनातिशयप्रसादात् स्वमतिश्रुतज्ञानोवरणवीर्यान्त१५ रायक्षयोपशमातिशयाञ्चोपजायमानं कथमाप्तायत्तं न भवेत् । तथा च
परापराप्तप्रवाह निबन्धन एव परापरशास्त्रप्रवाहस्तन्निबन्धनं च यथावद्विज्ञानं शास्त्रकर्तुरभिमतशास्त्रकरणलक्षणफलसिद्धेरप्युपाय इति तत्कामेनाप्तः समस्तोऽपि तदारम्भे स्मरणीय एव । यथोक्तम् ।
" अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः ।।
प्रभवति स च शास्त्रात् तस्य चोत्पत्तिरातात् ।। झंत भवति स पूज्यस्तत्प्रसादप्रबुद्धे
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥१॥" अथ यथा गुरूपदेशः शास्त्रसिद्धेर्निबन्धनं तथाप्तस्मरणनिर्मितधर्मविशेषमङ्गलनास्तिकतापरिहारशिष्टाचारपरिपालनान्यपि तसिद्धौ १ अस्मन्मुद्रापितस्याद्वादमजयाँ पृ. १५६ टि. ३. २ अस्मन्मुद्रापिततस्वार्थाधिगमसूत्रेषु अ. ८ सू. ७, १४. अ. १ सु. ५.
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परि. १ सू. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तेषां सहकारित्वाविशेषात् । अवितथमेतत् केवलमाप्तस्मरणनिर्मितान्येव तानि शास्त्रसिद्धौ सहकारीणीत्यवधारणं प्रतिषिध्यते । सत्पात्रदानादिना निमित्तान्तरेणापि निर्मितानां तेषां तस्यां सहकारित्वसम्भवात् । कदाचित्तदभावेऽपि पूर्वोपार्जितधर्मविशेषेभ्य एव शास्त्रनिष्पत्तेश्च । परापरगुरूपदेशस्तु न तद्वदनियतः शास्त्रकरणे तस्यावश्यमपेक्षणीय- ५ त्वादितरथा तदनुपपत्तेः । ततः परापरगुरुप्रवाहस्य शास्त्रसिद्धिनिबन्धनत्वात् तदारम्भसमये तत्स्मृतिरुपपन्नैवेति ॥ कथं पुनः प्रमाणनयतत्त्वालोकः शास्त्रं येन तदारम्भे परापरगुरु
का प्रवाहः स्मर्यत इति चेत् । उच्यते । तल्लक्षणयोप्रमाणनयतत्त्वालोकस्यगात । तथाहि वर्णात्मकं पदम् । पदात्मकं सूत्रम् । १० शास्त्रत्वसिद्धिः।
- सूत्रसमूहः प्रकरणम् । प्रकरणसमूहो यथासमय परिच्छेदो वा पादो वा आहिकं वा अध्यायो वा तत्समूहश्च शास्त्रमिति शास्त्रलक्षणम् । तच्चाष्टपरिच्छेदीरूपस्य प्रमाणनयतत्त्वालोकस्यास्तीति सोऽपि शास्त्रम् । यद्वा विश्वव्यापकाप्रमाणनयतत्त्वशासनाच्छास्त्रत्वमस्य मनीषिभिर्मन्तव्यम् । प्रसिद्धे चास्य शास्त्रत्वे तद्विवरणस्यापि शास्त्रत्वं १५ सिद्धमवबोद्धव्यम् । तदर्थत्वात् । एवं च सिद्धमिदम् यः सूत्रार्थपवित्रशास्त्रपटली निर्वर्तनप्रौढता
हेतुत्वात् परमोपकारकतया विश्वत्रये विश्रुतः । प्रारम्भेऽत्र कृतज्ञता प्रकटयन्नात्मन्यसौ सूत्रकृत्
तामेतामकरोत् परापरगुरुस्तोमस्य तस्य स्मृतिम् ॥ १० ॥ २० ननु शक्यानुष्ठानाभिधेयेनाभिमतप्रयोजनेन सम्बन्धेन च सहिता
न्येव शास्त्राणि प्रेक्षावद्भिराद्रियन्ते नान्यथा । प्रमाणनयतत्त्वेति सूत्रमवतारयितुं शास्त्रेऽनुब- प्रेक्षावत्त्वक्षतेः । तत्किमिदं प्रस्तूयमानं शास्त्रन्धचतुष्टयस्यावश्यकत्व- मभिधेयप्रयोजनसंबन्धैः सहितं रहितं वा प्रदर्शनम्।
" स्यात् । रहितं चेत् तर्हि तदारम्भार्थमभियोगो २५ निरुपयोगः स्यात् । अहिलेप्रलापवायसदशनस्वरूपोपवर्णनदर्शदाडिमा
१ विषयः, संबन्धः, प्रयोजनं, अधिकारीत्यनुबन्धचतुष्टयम् । २ अहिलस्य पिशाचाविष्टस्य प्रलापाः। ३'काकस्य कति वा दन्ता मेषस्याण्डं कियत्पलम् ।गर्दभे कति रोमाणीत्येषा मुर्खविचारणा' इति वचनानुसारं वायसदन्तस्वरूपोपवर्णनं निरर्थकम् ।४ 'दशदाडिमानि षडपूपाः' इत्यादिकं निरर्थकवाक्योदाहरणं पातालभाष्ये।
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स्य वि
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. १ सू. १ दिवाक्यवत् प्रज्ञाभिमानिनामवज्ञास्पदत्वात् । अथ तैः सहितम् । तथापि यत्तत्राभिधेयं तद्यद्यशक्यानुष्ठानम् । तदा सर्वव्याधिहरविषधराधीशशिरोरत्नादानोपदेशवत्कथमिव कस्यचिदपि तत्रोपादेयबुद्धिः प्रादु:प्यात् । प्रयोजनमप्यनभिमतं चेत् जननीपाणिग्रहणोपदेशवत् तत्रातितरामनादरश्चतुराणां स्यादित्यनेकशङ्काशङ्कुसमुद्धरणार्थमिदमादिवाक्यमाहप्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिदमुपक्रम्यत इति।१॥ प्रकर्षेण सन्देहाद्यपनयनस्वरूपेण मीयते परिच्छिद्यते वस्तु येन
__ तत्प्रमाणम् । नीयते गम्यते श्रुतप्रमाणपरिच्छिप्रमाणनयतत्त्वेति सूत्र
र नार्थकदेशोऽनेनेति नयः प्रमाणं च नयश्चेति
प्रमाणनयौ तयोस्तत्त्वमसाधारणं स्वरूपम् । तस्य विशेषेणावस्थापनं व्यवस्थापनम् । तदेवार्थः प्रयोजनं यत्र तदर्थम् । ननु द्वयमिह प्रकृतम् । इदमर्थः शास्त्रम् । उपक्रम्यत इति च क्रिया ।
तत्र किं प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमित्यत्र शास्त्रं संबध्यते यदुत १५ प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिदं शास्त्रमुपकम्यते। अथ क्रियाविशेषण
मेतत् प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमित्यत्र उपक्रम्यते योऽस्योपक्रम : स प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थ इति । भवति चामूदृशि प्रोक्ते संदेहः । यथा शोभनं पचतीत्युक्ते किं पाक्यं तण्डुलादि शोभनमथ
पाक इति । उच्यते । क्रियाविशेषणमेवैतत् । व्यावस्थापनं हि शास्त्र२० कारव्यापारो न तु शास्त्रव्यापारः । आचार्यो हि मुख्यतया व्यवस्थापयति
न शास्त्रम् । तत्तूपचारात् भिक्षा वासयतीति यथा । तस्माच्छास्त्रस्य यो व्यापारः स्वाभिधेयप्रतिपादनं नाम तत् सूचितमेव प्रमाणनयतत्त्वेत्यवयवेन । व्यवस्थापनार्थमित्यनेन तु प्रयोजनमुक्तम् । अतो यस्म तत्प्रयोजनमाचार्यस्य तदीय एव व्यापारस्तेन विशिष्यते । व्यवस्थापनार्थ
१ उपचारो लक्षणा । यथा यतेनगरनिवासे भिक्षालाभो हेतुः ।
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परि. १ सू. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः आचार्यस्योपक्रमः शिष्यनिष्ठ इति । यथा घटशब्दःपृथुबुध्नोदराकारार्थः । तदर्थस्तु घट उदकाहरणार्थः । तदुच्चारयिता तु तेन शब्देन तदर्थव्यवस्थापनार्थ इति । स इहापि न्यायः । शास्त्रं प्रमाणनयतत्त्वार्थम् । प्रमाणनयतत्त्वं हेयोपादेयोपेक्षणीयेष्वर्थेषु हानोपादानोपेक्षार्थम् । आचार्यस्तु तत्कर्ता तेन शास्त्रेण तदर्थव्यवस्थापनार्थ इति । एवं ५ व्यवस्थापनार्थत्वमुपक्रमस्याचार्यव्यापारस्य यथोचित न तथा शास्त्रस्य । तस्य करणभावेन तथोपयोगादिति । एवं प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनायेदं प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमित्येवं तत्पुरुषोऽपि यदि क्रियते । तत्रापि क्रियाविशेषणतैव व्याख्यया । इदं स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणान्तस्तत्त्वरूपतया प्रतिभासमानं प्रमाणनयतत्त्वालोकाख्यं शास्त्रम् । उप- १० क्रम्यते बहिः शब्दरूपतया प्रारभ्यते प्रणीयत इति यावत् ।
ननु प्रमाणं च नयश्चेति द्वन्द्वे नयनशब्दस्य पूर्व निपातः प्राप्नो
माणनोतिद्वन्यात त्यल्पाच्तरत्वान्न पुनःप्रमाणशब्दस्य बह्वचत्वादिति प्रमाणशब्दस्य पूर्वनिपात-चेत् । तन्न । अभ्यर्हितत्वेन बह्वचोऽपि प्रमाण. विचारः ।
शब्दस्याल्पान्तरात् नयशब्दात् पूर्वं निपातने १५ कृते दोषाभावात् । नह्यल्पाच्तरादभ्यर्हितं पूर्व निपतीति कस्यचिदप्रसिद्धम् । लक्षणहेत्वोरित्यत्र हेतुशब्दादल्पाच्तरादपि लक्षणपदस्य बह्वचोऽभ्यर्हितस्य पूर्व प्रयोगदर्शनात् । कथं पुनः प्रमाणशब्दो नयशब्दादभ्यर्हित इति चेत् । उच्यते । प्रमाणस्य सकलादेशित्वेन विकलादेशिनो नयादभ्यर्हितत्वात् । तद्वाचकः प्रमाणशब्दोऽपि नयशब्दा- १०
१ स्थापनार्थम् 'शति भ. म. पुस्तकयोः पाठः । २ 'व्यापारात्' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः। ३ 'तत्रोपयोगात्' इति प. पुस्तके पाठः । ४ 'अल्पाच्तर' इति पा. सू. २-२-३४. ! ५ ' अभ्यर्हितं च ' इति का. वार्तिकम् २-२-३४. ६ ' लक्षणहेत्वोः क्रियायाः' इति पा.सू. ३-२-१२६. । ७ सकलादेशः प्रमाणवाक्यं, तल्लक्षणं चेदम् -प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा योगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः तद्विपरीतस्तु विकलादेशो नयवाक्यमित्यर्थः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. १ दभ्यर्हित एव । ननु कथमभ्यर्हि तत्वानभ्यर्हि तत्वाभ्यां सकलादेशित्वविकलादेशित्वे व्याप्ते सिद्धे यतः प्रमाणनययोस्ते सिद्धयेते इति चेत् । प्रकृष्टापकृष्टविशुद्धिलक्षणत्वादभ्यर्हितत्वानहितत्वयोस्तद्व्यापकत्वमिति ब्रूमः । नहि प्रकृष्टां विशुद्धिमन्तरेण प्रमाणमनेकधर्म५ धर्मिस्वभावं सकलमर्थमादिशति । नयस्यापि सकलादेशित्वप्रसंगात् ।
नापि विशुद्धथपकर्षमन्तरेण नयो धर्ममात्रं धम्मिमात्रं वा। विकलमादिशति । प्रमाणस्यापि विकलादोशत्वप्रसङ्गात् । ननु नयोऽभ्यर्हितः प्रमाणात् तद्विषयांशे विप्रतिपत्तौ सम्प्रत्ययहेतुत्वादिति चेत् । न ।
कस्यचित् प्रमातुः प्रमाणादेवाशेषवस्तुनिर्णयात् तद्विषयांशे विप्रति१० पत्तरसम्भवात् नयात् सम्प्रत्ययासिद्धेः कस्यचित् प्रतिपत्तुस्तत्सम्भवे
नयात् सम्प्रत्ययसिद्धिरिति चेत् । सकलवस्तुनि विप्रतिपत्तौ प्रमाणात् किन्न सम्प्रत्ययसिद्धिः । सोऽयं सकलवस्तुविप्रतिपत्तिनिराकरणसमर्थात् प्रमाणाद्वस्त्वेकदेशे विप्रतिपत्तिनिरसनसमर्थं सन्नयमभ्यार्हितं
ब्रुवाणो न न्यायवादी। १५ इदं च वाक्यं मुल्यवृत्त्या प्रयोजनमेव प्रतिपादयितुमुपन्यस्तम् ।
तस्यैव प्राधान्येन प्रवृत्यङ्गत्वात् । अभिधेय
" सम्बन्धौ तु सामर्थ्याद् गमयति । तथा हि प्रमाणनयतत्त्वमभिधेयं प्रमाणनयतत्त्वेत्यवयवेन लक्षितम् इत्यभिधेय
विधुरत्वारेका निराकृता । अमुष्य चाभिधेयस्य सुखानुष्ठेयत्वादशक्यानु२० ष्ठानत्वशङ्का दूरत एव निरस्ता। प्रयोजनं द्वेधा कर्तुः श्रोतुश्च ।
पुनर्द्विविधम् अनन्तरं सान्तरञ्च । तत्र कर्तुरनन्तरं प्रयोजनं प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनं प्रमाणेत्माद्यवयवेन ण्यन्तेन साक्षनिर्दिष्टम् । श्रोतुस्तु व्यवस्थेत्युपसर्गधातुसमुदायेनैव तदन्तर्गतं प्रत्याय्यते । सान्तरप्रयोजनं तु द्वेधा प्रधानमप्रधानञ्च तत्र अप्रधानं कर्तुस्सत्त्वानुग्रहख्यात्यादि
१ अभिधावृत्त्या न तु लक्षणया । २ आरेका-शङ्का । ३ णिचप्रत्ययान्तेन ।
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पाटनम ।
परि. १ सू. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः स्वभावम् । श्रोतुस्तु हेयोपादेयोपेक्षणीयप्वर्थेषु हानोपादानोपेक्षालक्षणम् । प्रधानं त्वभ्युदयनिःश्रेयसावाप्तिस्वरूपमुभयोरपि । एतच्चानन्तरप्रयोजनफलत्वात् तेनैवाक्षिप्तमवसेयम् । अतो निष्प्रयोजनत्वानभिमतत्वशङ्के सुतरामेव व्युदस्ते । सम्बन्धस्त्वभिधेयेन सह वाच्यवाचकभावलक्षणः शास्त्रस्यावश्यंभावीत्यनुक्तोऽप्यर्थाद् गम्यत इति सम्बन्ध. ५ रहितत्वाशङ्कानुत्थानोपहतैवेति । ननु प्रमाणनयतत्त्वस्यावस्थापनार्थमिदमायुष्मद्भिः शास्त्रमुपक्रम्यते ।
___तदवस्थापनं च "प्रमाणनयरधिगम" इत्यापूर्वशास्त्रेणास्यागता
दिना प्रबन्धेन पूर्वाचार्यैरुमास्वातिवाचकमुख्यैः
कृतमेव । अवस्थापितस्य चावस्थापनं पिष्टैं- १० पेषणवन्निरुपयोगम् । अत्रोच्यते । चिरन्तनाचार्यैरवस्थापितमपि प्रमाणनयतत्त्वमतिगम्भीरत्त्वान्न दुर्विदग्धाकुलितचेतोवृत्तिरयं लोकः प्रतिपद्यते। तत्प्रतिपादनाय चायमुपक्रमः । अत एव व्यवस्थापनेत्यत्र विशेषद्योतको विशब्दः प्रयुक्तः । धात्वर्थमात्रवृत्तेरवशब्दस्य योगेऽपि हि म्यन्तस्य तिष्ठतेः स्थापनमात्रमेवार्थः । न च सुश्लिष्टलक्ष्यलक्षणादि- १५ विभागप्रकल्पनलक्षणविशेष विना विनेयानां तावन्मात्रेण प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनहेतुरनाकुलता कल्पत इति ।
अत्राह कश्चित् । इदमादिवाक्यं प्रमाणमप्रमाणं वा । प्रमाणमित्याप्रमाणनयेत्यादिवा- चक्ष्महे । कतमत्प्रमाणमिति चेत् । परार्थाक्यस्य प्रामाण्य- गमः परार्थानुमानं चेति ब्रूमः । माभूदनादेय- २०
स्थापनम् । वचनतास्माकमित्यागमानुकूलं हि शास्त्रकारास्तत्परिकीर्तयन्ति । तत्राप्तपरम्पराधिगतार्थप्रतिपादनपरत्वादिदमादिवाक्यमागममूलः परार्थागमः प्रतिपाद्यते । प्रामाण्यं पुनरस्याभ्यस्त
१ तत्वा. स. १-६. २ पिष्टस्य पेषणं नास्ति मृतस्य मरणं नहि । कृतस्य करणं नास्ति नास्ति दीर्घस्य दीर्घता ॥ इत्युक्तेः । ३ पूर्वाचार्यैः । सिद्धसेनदिवा. करप्रभृतिभिः। ४ विनेया:-शिष्याः। ५'अनाकुलताम्' इति म.म. पुस्तकयोः पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. १ सू. १
१० च
प्रवक्तगुणान् प्रतिपाद्यान् प्रति स्वत एवाभ्यस्तकारणगुणान् प्रति प्रत्यक्षादिवत् । अनभ्यस्ततद्गुणांस्तु कांश्चित्तान, प्रति सुनिश्चितासम्भवबाधकत्वरूपाद्नुमानात् । अपरांस्तु प्रतिपन्नातान्तरोपदेशादपि तथा स्वयं स्वार्थानुमानेन निश्चितमर्थं प्रकृत्य शास्त्रार्थिनां प्रतिपादयितुं शास्त्रकृतां युक्तमेतदिति स्वार्थानुमानमूलं परार्थानुमानमिदमामनन्ति । तात्पर्य खल्वस्य प्रवर्तितव्यमत्र शास्त्रे प्रमाणनयतत्त्वप्रतिपित्सुभिस्तदूव्यवस्थापनार्थत्वादिति प्रतीयते । न चास्य हेतोरसिद्धिः । उत्तरग्रन्थेन प्रसाधयिष्यमाणत्वात् । अथ यथा ग्रन्थकर्तुः प्रवर्ततेऽनुमानं तथा तदर्थिनः श्रोतुरपि तत्प्रवर्तिष्यत इत्यलमेतदुपन्यासेनेति चेत् । अस्थाने स्पर्द्धाबन्धः । शास्त्रकर्ता ह्यन्तःकरणेन सकलमपि . निवर्तयिष्यमाणशास्त्रार्थं यथाकथञ्चित्समधिगतं सम्यक्परामृशन् प्रेक्षावतः प्रवर्त्तयितुमादिवाक्यं प्रयुक्त इति न किञ्चिदचतुरस्त्रम् । तदितरस्तु कथामिव प्रस्तुतशास्त्रार्थमवगच्छेदिति चिन्त्यम् । प्रवर्त्तनेन
चेत् कथं न तर्हि परस्पराश्रयः । नहि प्रयोजनमजानानः प्रवर्तते । १५ न चाप्रवृत्तः प्रयोजनं जानातीति । समस्तपरार्थानुमानमुद्रोपद्रवकारिणी
चेयमाशङ्का । शवयत एव हि वक्तुमेवं धूमानुमानेऽपि । यत्प्रतिपादकवत् प्रतिपाद्यस्यापि स्वत एवोत्पत्स्यते प्रकृतमनुमानमिति किमेतदुपन्यासेनेति । अथ भवेत् कश्चिद्धिपर्ययसंशयानध्यवसायवशीकृतात्मा
तं प्रति तत्प्रतीकारायोपयुज्यत एवैतत्प्रयोग इति चेत् । इतरत्रापि २० किं न तथा समर्थयसे । अथादिवाक्यकृतावेकान्तोऽनेकान्तो वेति अनेकान्त इत्याचक्ष्महे ।
. तथाहि ये प्रेक्षापूर्वकारिणः सर्वथैवाप्रतिपन्नाप्ताः आदिकरणवाक्येऽनेकान्तवादस्य स्थापनम् । प्रतिपन्नप्रकृतमात्राप्ता वा भवेयुर्नामी प्रमाण
प्रदर्शनमन्तरेण प्रवर्त्तयितुं शक्या इत्यमून् प्रति २५९ प्रयोक्तव्यमेव यथासम्भवमागमानुमानोभयस्वभावमादिवाक्यम् । तथा
हि यः प्रेक्षापूर्वकारी कुतश्चिद्वयामोहात् कञ्चनाप्तं प्रतिपेदे तं प्रत्यनु
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परि. १ सु. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः । मानमिति । यश्च तं प्रकृतमेव प्रत्यपद्यत तं प्रति प्रवचनमनुमानं चेति नियमाद्विरचनीयमादिवाक्यम् । यस्तु प्रेक्षापूर्वकारी प्रतिपन्नाsप्रतिनियताप्तस्तं प्रत्येतत्करणाकरणयोर्यदृच्छैव विराजते । शास्त्रकृतैवोपन्बस्ते हि तस्मिन्नमूदृशप्रयोजनपात्रं शास्त्रमेतदित्येवं रूपमातान्तरोपदेशं प्रेक्षावान् नापेक्षतेऽपेक्षते चानुपन्यस्ते तम् इत्युभयथापि प्रेक्षावतः प्रवृत्तिरनिवृत्तैव । अथेतरथाऽप्यत्र पक्षे प्रेक्षावतः प्रवृत्तिसिद्धेरकरणैकान्त एव रमणीय इति चेत् । कः खलु विशेषोऽशेषशेमुषीशालिना सम्भावितः शास्त्रकृदाप्तोपज्ञादुपदेशात् तदितराप्तप्रणीतोपदेशे ग्रन्थलाधवमिति चेत् किमर्थमेतद्विशिष्यत इति प्रकाश्यम् । शिष्यस्य प्रवर्तमानस्य स्वल्पप्रयासार्थमिति चेत् । तहस्तराप्तप्रणीतमुपदेशमनु- १०. सरतः किं न तावान् प्रयासः स्यात् । तदुभयव्यापिशिष्यप्रयाससाम्ये निर्निबन्धनः शास्त्रकृदादिवाक्योपदेशप्राप्तिबन्धः निबंधः किञ्च शास्त्रकृतैव कृतमेतत् सर्वथैवाप्रतिपन्नाप्तान् प्रतिपन्नप्रकृतमात्राप्तांश्चापि प्रेक्षावतः प्रवर्तयति । येऽपि चाप्रेक्षापूर्वकारिणोऽर्थसंशयात्कृप्यादौ प्रवर्तन्ते तेषामपीह शास्त्रे तस्मादेव प्रवर्तमानानामपाम्य हठाद्प्रेक्षाराक्षसी घटयन्ति १५ प्रेक्षाप्रणयिनीमिति के न पश्यसि विशेषलाभम् । तस्माद् अवस्थितमिदं यदत्र पक्षे यहच्छैवेति । ये च प्रत्यक्षमेव प्रमाणमाचक्षते तान्प्रति न प्रयोक्तव्यमेवेति । तदयं संक्षेपः । यद्यादिवाक्यमुपकल्प्यते तदा कस्यचित्तस्मादेव प्रमाणादितरस्य पुनरर्थसंशयात् प्रवृत्तिः । यदा तु नोपकल्प्यते तदाप्तान्तरोपदेशरूपात् प्रमाणादर्थसंशयाद्वेति सर्वत्र २०. सर्वस्यापि प्रवृत्तिसिद्धरादिवाक्योपकल्पनेऽनेकान्तो व्यवतिष्ठते । सविस्तरशास्त्रेप्वादिवाक्यस्याभिधानमनभिधानमन्यत्रेत्येवमादिवाक्यानेकान्तं ये केचिदास्थिषत न तेऽनवद्यया विद्ययानन्दयन्ति सहृदयान् । आदिवाक्यभात्रोपन्यासे हि न समासस्य व्युदासं विस्तरस्य वाऽवतरणं गण
१ प्रतिपन्नो' इलि प. पुस्तके पाठः। २ उपज्ञोपक्रम तदाद्याचिख्यासायाम् ' इति पा. स. २-४-२१ । ३. प्रत्यक्षमेवं' इति भ. पुस्तके पाठः । ४ समासः संक्षेपः । व्युदासो निराकरणम् । आप्तमूलकादित्यर्थः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. १ यन्ति मनीषिणः । संक्षिप्तेप्वपि केषुचिच्छास्त्रेषु तदुपन्यासस्य तदितरेप्वपि तदनुपन्यासस्य दर्शनात् ।
आदिवावये कृते तस्मादर्थसंशयतोऽपि वा ॥ अकृते वृत्तिरन्याप्तादर्थसंशयतोऽपि वा ॥११॥ व्यासात् समासतो वापि शास्त्रे कर्तुः समीहिते ॥ तदेवमादिवाक्यस्यानेकान्तोऽसौ व्यवस्थितः ॥ १२॥ ये त्वेकान्तवादिनः सौगतादयस्तेषां न कथञ्चिदप्यादिवाक्यं सौगतादीनामादि- प्रकाशयितुमवकल्पते । तस्य प्रामाण्यमस्वीकरणवाक्यस्यासा- कुर्वतां समर्थयितुमसमर्थानां वा वैयर्थ्यात् ।
मञ्जस्यम् ।
अत्राहुरेकान्तकृताभिमानाः परे प्रयोक्तव्यमवश्यमादौ ॥ शास्त्रस्य वाक्यं न विना ह्यनेन प्रेक्षावतां सिध्यति वृत्तिरत्र॥१३॥
तथाहि प्रयोजनप्रतिपत्तिनान्तरीयकत्वात् प्रेक्षावतां प्रवृत्तेरनभिहितप्रयोजनशास्त्रस्य तैः काकदन्तपरीक्षादिवदनादरणीयत्वमेव भवेदतः
प्रयोजनप्रदर्शनेन तेषां प्रवर्तनाय शास्त्रस्यादौ वाक्यं प्रयोजनप्रकाशन१५ परमुपन्यसनीयमेव । अभ्यधायि च ।
" अनिर्दिष्टफलं सर्वं न प्रेक्षापूर्वकारिभिः । शास्त्रमाद्रियते तेन वाच्यमग्रे प्रयोजनम् ॥१॥ शास्त्रस्य हि फले ज्ञाते तत्प्राप्त्याशावशीकृताः।
प्रेक्षावन्त प्रवर्त्तन्ते तेन वाच्यं प्रयोजनम् ॥२॥ इति अत्रोच्यते । तावदेव लभते प्रतिष्ठितं प्रोक्तमतदखिलं कुतीर्थिकैः ॥ यावदेव न जिनेन्द्रसूनवो व्यञ्जयन्ति दृढयुक्तिडम्बरम् ॥ १४ ॥
तथाहि प्रेक्षापूर्वकारिणां प्रवर्तनाय किल शास्त्रादौ प्रयोजनप्रतिपादकं वाक्यमुपादीयते । तेच प्रमाणप्रदीपप्रयोतितन्यायमार्गप्रसर्पण२५ प्रवृत्तान्वर्थप्रेक्षापूर्वकारिव्यपदेशाः प्रमाणत एव प्रवर्तन्ते । न चादिवाक्यप्रभवं ज्ञानमध्यक्षं बौद्वैस्तावदभिधानीयम् अस्पष्टत्वात् । नापि
१ उपेन्द्रवज्रा । २ रथोद्धता ३ प्रत्यक्षम् ।।
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परि. १ सू. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः परार्थानुमानम् । साध्यसाधनयोर्व्याप्तिप्रतिपत्तौ तर्कप्रमाणस्य तैरनङ्गीकारात् । प्रत्यक्षस्यानुमानस्य वा तत्रासमर्थत्वेन साधयिष्यमाणत्वात् । अप्रमाणादेव विकल्पज्ञानात् तयोर्व्याप्तिप्रतिपत्तिरिति त्वसमीचीनम् । प्रत्यक्षानुमानप्रमाणत्वसमर्थनस्य वैयर्थ्यापत्तरप्रमाणादेव प्रत्यक्षानुमेयार्थ प्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । स्यान्मतम् । उपलब्धप्रयोजनवाक्यानां प्रयोजनार्थिनां वाक्योपदर्शितप्रयोजनविषयभावाभावपरामर्शपरः संशयः समाविर्भवति । आविर्भूतप्रयोजनविषयसंशयानां च कदाचित्तत्प्राप्त्या वशीकृतान्तरात्मनामर्थसंशयस्य प्रवर्तकत्वात् । संशयितसस्यसम्पत्त्यादिफला न : बलादीनां कृष्यादाविव प्रवर्तमानानां श्रोतृणां विमृश्यकारिणां विस्मृश्यकारित्वाविरोध इति तेषां संशयोत्पादनार्थः प्रयोजन- १० वाक्योपन्यास इति । अत्रोच्यते । वाक्योपन्यासः शास्त्रप्रयोजनविषयसंशयोत्पिपादयिषया । संशयोऽपि च निश्चयविरुद्धोऽनुत्पन्ने च निश्चये तत्राप्रतिबद्धवृत्तिकतया वाक्योपन्यासात् प्रागप्यसौ प्रादुर्भवन् केन निवार्यते येन तदर्थं वाक्यमुपन्यस्येत । स्यादेतत् अश्रुतप्रयोजनवाक्यानां प्रयोजनसामान्ये तत्सत्त्वेतराभ्यां संशयो जायते किमिदं १५ चिकित्साशास्त्रवत् सप्रयोजनमुत काकदन्तपरीक्षादिवन्निष्प्रयोजनमिति। तस्माच्च संशयाद्नुपन्यस्तेऽपि प्रयोजनवाक्ये प्रयोजनसामान्यार्थिनः प्रवर्त्तन्ताम् । प्रयोजनविशेषे तु कथमश्रुतप्रयोजनवाक्यानां संशयोत्पत्तिः प्रायेण च प्रयोजनविशेषविषयस्यैव संशयस्य प्रवृत्तिकारणत्वात् तदु. स्पादनाय वाक्यं प्रयोक्तव्यमेवेति । तदसाम्प्रतम् । कुतश्चिच्छास्त्रानु- २० भूतपूर्वप्रयोजनविशेषं श्रोतारं प्रति तावद्वाक्यस्यानुपयोगात् । स हि किञ्चिच्छास्त्रमुपलभ्य प्रागनुभूतप्रयोजनविशेषेण शास्त्रेणास्य वर्णपदवाक्यकृतं साधर्म्यमवधार्य किमिदमपि सफलं निष्फलं वा । सफलमपि किमनेनैवान्येन वा फलेन फलवादिति संदिहानो विनाऽपि प्रयोजनवाक्येन प्रवर्तत एव । अननुभूतपूर्वप्रयोजनविशेषोऽपि श्रोता २५ शास्त्रमिदमनेन प्रयोजनेन तद्वदित्युपन्यस्तेऽपि वाक्ये प्रयोजनविशेषमे
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. १ स. १
वाजानानः पृच्छति शास्त्रमिदमनेन प्रयोजनेन तद्वदित्येन किमुक्तं भवतीति न पुनस्तदतो भविष्यत्युत नेति संदिग्धे । प्रागनधिगततत्स्वरूपस्य तद्भातराभ्यां संशयायोगात् । अप्रतिपत्तिस्तु स्यात् ततो वाक्यात् न जानेऽहं किमनेनोक्तमिति । अनुभूतविस्मृतप्रयोजनविशेषोऽपि च कस्यचिच्छास्त्रस्य परिसमाप्तितः परिज्ञातप्रयोजनविशेषः समुत्पन्नतद्विषयस्मृतिनिबन्धकप्रत्ययः सन् श्रोता तदानेन वाक्येन शास्त्रतः समुपजालप्रयोजनविशेषविषयस्मृतिकः क्रियते यदि तदन्तरेणापि कुतश्चिदतिसमाहितान्तःकरणादिप्रत्ययकलापात् तदुत्पत्तिर्न स्यात् । तदेव वा शास्त्रं प्रागनुभूतप्रयोजनविशेषशास्त्रसादृश्यादुपलभ्यमानं स्मृति नाविर्भावयेदित्यलं वाक्यकल्पनया । नहि वाक्यतोऽपि विस्मृतप्रयोजनविशेषस्य नियमेन स्मृतिर्भवति । ततोऽपि कदाचित् तम्या उत्पत्तिरिति चेत् । तर्हि कदाचिच्छास्त्रमात्रादपि तदुत्पत्तिदृश्यत एवेति कः शास्त्राद्वाक्यस्यातिशयः । नियमेन तु नोभाभ्यामप्यनुस्मरणं भवति ।
अन्येऽपि वा तद्धेतवस्तत्रोपन्यस्यरेन्निति त्यज्यतां तदास्थानिर्बन्धः । १५ सामान्यविशेषयोश्च दर्शनादर्शनाभ्यां विशेषम्मरणसहकारिभ्यां संशयः
समुपजायते । न च वाक्यं प्रयोजनविशेषस्य भावाभावयोः सामान्यम् । ननु विवक्षापरतन्त्रत्वेन स्वार्थतथाभावातथाभावयोरपि प्रयोगसम्भवात् सामान्यमेव वाक्यमिति चेत् । तर्हि शास्त्रमपि शास्त्रान्तरसादृश्यात्
प्रयोजननिर्वृत्त्युपायत्वानुपायत्वयोःसामान्यमन्यतरनिश्चयनिमित्ताभावात् २० तत एव संशयतैः प्रवर्ततामिति शास्त्रेण कृतकृत्यत्वादकिंचित्कर
वाक्यम् । नापि संशयात् प्रवर्त्तमानः प्रेक्षापूर्वकारी भवितुमर्हति प्रमाणपुरःसरप्रवृत्तिप्रसादप्राप्यत्वात् तद्वयपदेशस्येति । स्यान्मतं माभूत् संशयोत्पादनेनादिवाक्यस्य प्रवृत्तौ सामर्थ्य किन्तु नारब्धव्यमिदं शास्त्रं
प्रयोजनरहितत्वात् काकदन्तपरीक्षादिवदिति शास्त्रपारम्भप्रतिषेधाय २५ प्रयुज्यमानाया व्यापकानुपलब्धेरसिद्धतोद्भावनार्थं तत्प्रयोगोऽवकल्प्यत
१ 'संशयानः' इति प. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. १] स्याद्वादरत्नाकरसहितः एवेति । तदपि मामूढभाषितम् । वाक्यस्य प्रमाणत्वेनानवस्थिततया प्रयोजनविशेषसद्भावप्रकाशनसामर्थ्यविरहतस्तदसिद्धिमुद्भावयितुमशक्तत्वात् । नापि सप्रयोजनत्वेतरयोःपरस्परपरिहारस्थितयोः कुतश्चित्प्रमाणादेकभावाप्रतीतावितराभावप्रतिपत्तिः । येन वाक्यमात्रस्योपक्षेपेण परकीयाया व्यापकानुपलब्धेरसिद्धिः स्यात् । नापि कुतश्चित्प्रयोजनविशेषं ५ स्वयं प्रतिपन्नवता परस्य तत्प्रकाशनोपायमनुपदर्शयता शास्त्रारम्भनिषेधकस्य हेतोरसिद्धिरुद्भावयितुं शक्यते । वाक्यस्याप्रमाणस्य हेतुप्रतिपक्षभूतार्थप्रत्युपस्थापनासमर्थस्योपक्षेपमात्रेणासिद्धेरयोगात् । नापि निष्प्रमाणिका तत्प्रतिपक्षप्रतिपत्तिः । अतिप्रसङ्गात् । नाप्यन्तःकरणसमाधानमात्रवशवर्तिविकल्पोपरचितस्य प्रयोजनविशेषस्य परमार्थतोऽ- १० सतोऽनेन वाक्येनोपदर्शनेऽपि तदसिद्धतोद्भावनं न्याय्यम् । परिकल्पितव्यापकोपलम्भलक्षणसाधनस्थ स्वप्रत्यनीकतथाविधव्यापकानुपलम्भव्यापारविमर्दानुपपत्तेः । उपपत्तौ वा कथमर्थादर्थगतिरिति सन्धा वन्ध्यास्तनन्धयपराक्रमवर्णनावन्न वन्ध्या भवेत् । कथमेतत् यद्यपीद वाक्यमप्रमाणत्वाद्विपरीतपदार्थोपस्थापनामुखेनासिद्धतां नोद्भावयति । १५ तथापि शास्त्रस्य निष्प्रयोजनत्वं सन्देहदोलामधिरोहयत्येव । सन्दिग्धनियोजनत्वस्य च शास्त्रस्यैकान्तेन निश्चितं प्रयोजनाभावं प्रेक्षावदारम्भप्रतिषेधहेतुं प्रयुंजानोऽनेन वाक्येन प्रतिचिक्षिप्सितो न पुनः प्रयोजनविशेषविषयनिश्चय एवोत्पिपादयिषितः । नहि प्रतिपक्षाक्षेपेणैव साधनधर्माणामसिद्धिरपि तु स्वग्राहिविज्ञानविकलतया धर्मिणि सन्दिग्धत्व- २० मप्यसिद्धत्वमेव । तस्मात् सन्दिग्धासिद्धतोद्भावनाय वाक्यप्रयोग इति । तदपि न साधिमानमाधत्ते । यथाहि सप्रयोजनत्वे सन्देहोत्पादने वाक्यस्यानुपयोगित्वं शास्त्रमात्रादपि भावात्, तथा निष्प्रयोजनत्वेऽपि । अथायमाशयः । समुपन्यस्ते परेण व्यापकानुपलम्भे प्रयोजनवाक्येनासिद्धतां प्रतिपाद्य कथमासद्धिः साधनस्येति प्रत्यवतिष्ठमानं परं शास्त्र- २५
१ 'विरहितस्य' इति प. पुस्तके पाठः। २ सन्धा-प्रतिज्ञा । ३ खण्डयितुमिष्टः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १सू.१ परिसमाप्तितः प्रयोजनमनुगमयिष्यन् शास्त्रं श्रावयति । ततः समधिगते तेन प्रयोजने तदुपक्षिप्तस्य साधनस्यासिद्धिरिति । नायमप्याशयः साधीयान् । नहि शास्त्रश्रवणतः प्रयोजने समधिगन्तव्ये शास्त्रादौ
तद्वाक्यमुपादीयमानं कञ्चनार्थं पुष्णाति । तत्रावगन्तव्यप्रयोजन.५ स्यानुपयोगादिति यत्किञ्चिदेतत् । नन्वसिद्धतोद्भावनप्रकारोऽनेन
न्यायेन प्रलयमेव गत इति चेत् । मैवम् । न खलु वयमसिद्धतोद्भावनपरं न्यायमेव प्रतिक्षिपामोऽपि तु प्रमाणशक्तिसम्पत्सम्पर्कविरहात् वाङ्मात्रमेवेदमिति वदामः । नहि न्यायानुसारितामात्मसात् कुर्वन् कश्चिदनुपप्लवमानसो न्यायमेव प्रतिक्षिपति । वाङ्मानं तु विवक्षितार्थप्रकाशनानुपयोगितया प्रतिक्षिपदपि । तन्नेदमसिद्धतोद्भावनार्थमपि प्रयोजनवाक्यं शाक्यैरादावुपन्यसनीयम् । आगमप्रमाणरूपं प्रेक्षावतां प्रवृत्तये तदंवश्यं विधेयमित्यन्ये । तदपि
न्यायशून्यम् । यतोऽयमागमः पौरुषेयो वाऽपौरुषे- यो वा । प्रथमकल्पनायां कुतोऽस्य प्रामाण्यनिश्चय
__इत्यभिधेयम् । स्वत एवेति चेत् । मैवम् । प्रामाण्यनिश्चर्यकान्तस्य प्रामाण्यगोचरसंशयानुत्पत्तिप्रसङ्गादिदोषोपहतत्वेन प्रतिक्षेप्स्यमानत्वात् । परत एवेत्यप्यसत्यम् । परतः प्रामाण्यनिश्चयैकान्तस्यानवस्थादिदोषदूषितत्वेन निराकरिष्यमाणत्वात् । अपौरुषेयत्वमप्यस्य पुरस्तात् पराकरिष्यमाणत्वेन भणितुमननुगुणम् । केचिदाहुः 'शास्त्रस्य प्रस्तावकमुपक्रमवाक्यं तदन्तरेण तत्प्रारम्भानुपपत्तेः' इति । तदप्पसुन्दरम् । अनवस्थानुषङ्गात् । यथैव हि प्रस्तावकं वाक्यमन्तरेण न शास्त्रमवतरति तथा तदपि वाक्यान्तराद्विना नेति । प्रस्तावकत्वं चाभिसन्धाय प्रयोजनवाक्येऽवश्योपन्यसितव्ये शास्त्रस्य गुणनिमित्तपरिमाणादयः कथं नोपन्यस्येरन् । ततो व्याख्यातृवशादवतरन् ग्रन्थ
आगमप्रामाण्यविचारः।
१ नोपन्यसेरन्' इति प. भ. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः एव स्वात्मनः प्रस्तावकोऽस्तु किं प्रयोजनवाक्योपन्यासप्रयासेन । एतेन शास्त्रप्रतिज्ञाख्यापनफल: संक्षेपतः शास्त्रशरीरख्यापनफलश्च तदादौ वाक्योपन्यास इत्येवमादयोऽसत्कल्पना न्यायोपदर्शनाननुकूलतया निरुपयोगित्वेन निर्वर्णितोत्तराः प्रतिपत्तव्याः । वामालेण प्रकृतार्थनिश्चयायोगात् । नहि तत्र शब्दगडुमात्रव्यतिरेकेण कश्चन न्यायो विपश्चितामविपरीतप्रतिपत्तौ प्रतीयते । तस्मात् प्रेक्षावतां प्रतिपत्तिनिमित्तं वाङ्मात्रव्यतिरेकेण न्याय एव दर्शनीयो येन निरोरेक प्रवर्तेरन् । एवं च शास्त्रस्येष्टफलप्रतीतिकृतये कर्तव्यमादौ वचो।
नो वेति स्थितमत्र जैनसमये सन्न्यायसामर्थ्यतः ।। एकान्तस्तु न सिद्धिपद्धतिमितस्तत्साधनार्थं ततो।
व्यर्थं दर्शनपक्षपाततरलाः क्लिश्यन्ति तीर्थ्याः परे ॥१५॥१॥ प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिति प्रत्यपादि । तत्र प्रमाणं तावलक्षयितुमाह
स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमिति ॥२॥ १५ प्रमाणमिति लक्ष्यम् । स्वपरव्यवसायिज्ञानमिति लक्षणम् । लक्षणं च परस्परं व्यतिरेके सति विजातीयेभ्यो व्यवच्छिन्नं लक्ष्यतेऽवधार्यते येन तदुच्यते असाधारणो धर्म इति यावत् । यथा तपनीयतदाभासयोर्वर्णविशेषः । तत्र प्रतिपाद्यानुसारेण यथायोगं लक्ष्यं वा लक्षणं वा द्वयमपि वा विधीयते ।
परप्रतिपत्तये हि वाक्यं कीर्तयन्ति कृतिनः। परे चापरिमितप्रकारा दुर्वारप्रसरो ह्यसौ मोहमहाराजः प्रतिविषयमनेकाभिर्भङ्गीभिरुज्जम्भते ।
१ व्याख्यापन' इति प. पुस्तके पाठः । २ नहि प्रतिज्ञामात्रेण कार्यसिद्धिरित्युक्तः । ३ 'न्यायपथ' इति भ. पुस्तके पाठः । ४ निःशंकम् । ५ ' लक्ष्य' इत्यधिक प. पुस्तके ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. २ ततश्च कश्चित् क्वचित् संशेते नाध्यवस्यति विप्रतिपद्यते चेति । तदनुसारेण लक्षणवाक्ये लक्षणादीनां विधिरविरुद्धोऽभिधीयत इति । अत्राह धर्मोत्तरः। ' लक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये लक्ष्यमनूद्य
लक्षणमेव विधीयते । लक्ष्यं हि प्रसिद्ध धर्मोत्तरमतस्य सविस्तरं खण्डनम् !
भवति ततस्तदनुवाद्यम् । लक्षणं पुनरप्रसिद्धमा
मिति तद्विधेयम् । अज्ञातज्ञापनं विधिरित्यभिधानात् । सिद्धे तु लक्ष्यलक्षणभावे लक्षणमन्य लक्ष्यमेव विधीयते' इति । तदेतदबन्धुरम् । लक्ष्यवल्लक्षणस्यापि प्रसिद्धिर्नहि
न सिद्धति कुतस्तस्याप्यज्ञातत्वनिबन्धनो विधिरप्रतिबद्धः सिद्धयेत् । १० विवक्षितलक्ष्यास्पदत्वेनाज्ञानाल्लक्षणस्य तत्त्वेन विधिरप्रतिबद्धः सिद्ध
एवेति चेत् तर्हि लक्ष्यस्यापि विवक्षितलक्षणलक्षितत्वेनाज्ञानात् तत्त्वेन किं न विधिः साधीयान् । अथ सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्कामत' इति न्यायात् विवक्षितलक्षणलक्षितत्वेन
लक्ष्यस्य विधिरित्यभिधीयमाने लक्षणस्यैवासौ पर्यवस्यति । वहिमत्त्वेन १५ पर्वतः साध्य इति अभिधीयमाने वह्निवत् । हंत तर्हि विवक्षित
लक्ष्यास्पदत्वेन लक्षणस्य विधिरित्यभिधीयमाने लक्ष्यस्यैवासौ पर्यवस्यतीत्यपि किन्न पश्यसि । न चायं सार्वत्रिको न्यायः । रक्तं पर्ट वयेत्यादौ कदाचिद्विशेषणविशेष्ययोरुभयोरपि विधेयत्वप्रसिद्धेः । अदग्धदहनन्यायेन यावदप्राप्तं तावद्विघीयत इति हि तद्विदः । अथ यथा कांश्चित्प्रति संशयानध्यवसायनिरासाय तत्परान् तीर्थान्तरीयान् प्रति विप्रतिपत्तिपर्यायविपर्ययप्रतिक्षेपायापि तद्विलक्षणं कक्षीकरणीयम् । न वैतेषां
१. सविशेषणौ' इति प. पुस्तके पाठः। २ सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेष्ये बाधे सति विशेषणमुपसङ्कामतः । इति न्यायस्वरूपम् । तदर्थश्च-यत्र सविशेषणे विशेध्ये विशेष्यमात्रे विधेर्निषेधस्य वा आधस्तत्र तौ विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्कामतः । ३ अभियावददग्धं तावद्दहति । ४ ' तथा ' इति प. पुस्तके पाठः ।
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परि. । सू. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः स्वपरव्यवसायिज्ञानमद्यापि प्रसिद्धम् । न चाप्रसिद्धस्यानुवादो निरपवादः । तदेवमनुवादः सर्वनाम्ना यच्छब्देन स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य विशेषणमेतान् प्रत्यप्रातीतिकमेवेति चेत् । तर्हि समस्तप्रमाणप्रमेयापलापिनःशून्यतावादिनः प्रत्यक्षानुमाने । प्रत्यक्षैकपक्षपातिनो नास्तिकस्य चाऽनुमानं न प्रतीतमेवेत्येतौ प्रति लक्ष्ययोः प्रत्यक्षानुमानयोरपि कुतोऽ- ५ नुवादसर्वनाम्ना विशेषणं रमणीयमिति तल्लक्षणसूत्रेष्वदूषणं स्यात् । अथ विशेषशब्दार्थमात्रतः प्रत्यक्षादेस्तयोरपि प्रतीतिसम्भवादनुवादसर्वनाम्ना तस्य विशेषणं रमणीयमिति चेत् । इतरत्रापि तथाप्रतीतिमास्थाय किं न तत्समर्थयसे । अथ तौ प्रति प्रथमं लक्ष्य प्रसाध्य तस्य यच्छब्देन विशेषणमिति चेत्- साधो सौगत भूभर्तुर्द्धर्मकीर्तेनिकेतने ।। ___व्यवस्थां कुरुषे नूनमस्थापितमहत्तमः ॥ १६ ॥
स हि महात्मा विनिश्चये प्रत्यक्षमेकम् ' न्यायविन्दौ तु 'प्रत्यक्षांनुमाने द्वे ' अप्यप्रसाध्यैव तल्लक्षणानि प्रणयति स्म । किञ्च शब्दानित्यत्वसिद्धये कृतकत्वमसिद्धमपि सर्वमुपन्यस्य पश्चात् १५ तत्सिद्धिमभिदधानोऽपि न लक्षणस्य तामनुमन्यसे इति स्वाभिमानमात्रम् । अपि च प्रत्यक्षलक्षणव्याख्यालक्षणे 'लक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये' इत्यादिना लक्षणस्यैव विधिमभिधत्से विधेरैवापराधान्न बुद्धः । यतो न्यायविनिश्चयटीकायां स्वार्थानुमानस्य लक्षणे, 'तत्कथं त्रिरूपलिङ्गग्राहिण एव दर्शनस्य नानुमानत्वप्रसङ्ग' इति पर्यनुयुञ्जान एतदेव सामर्थ्यप्राप्तं दर्शयति यदनुमेयेऽर्थे ' ज्ञानं तत्स्वामिति' इतीत्यनुमन्यमानश्चानुमापयसि स्वयमेव लक्ष्यस्यापि विधिम् । स्पष्टमेवाभिदधासि च न्यायविन्दुवृत्तौ एतस्यैव लक्षणे 'त्रिरुपाच्च लिङ्गाद्यदनुमेयालम्बनं ज्ञानं तत्स्वार्थमनुमानम्' इति, विनिश्चयटी
१ धर्मकीर्तिकृतः प्रमाणविनिश्चयनामको ग्रन्थोऽयम् । अस्य धर्मोत्तराचार्येण व्याख्या कृता । २ न्या. बि. परि. १ सु. ३. ३ न्या. बि. परि. २ सू. ३.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १ कायामेव च परार्थानुमानलक्षणे 'त्रिरूपस्य लिङ्गस्य यदाख्यानं तत्परार्थमनुमानम्' इति च व्याचक्षाण इत्यक्षुण्णं ते वैचक्षण्यमिति । किञ्च असम्भवाव्याप्त्यतिव्याप्तयस्त्रयो दोषा निषेधनीया लक्षणे विचक्षणैः । न च प्रत्यक्षशब्दावाच्ये सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि ५ निर्विकल्पकत्वाभ्रान्तत्वे सम्भवत इत्यसम्भवातिव्याप्त्योरसम्भवेऽप्यव्याप्तिः प्राप्तैव प्रत्यक्षलक्षणस्य । तथागतमेकमन्तरेणापरेषां सविकल्पक ज्ञानेऽपि प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वस्य प्रसिद्धेः । न च तत्र सविकल्पकत्वं पराकृत्य निर्विकल्पकत्वकल्पनां भवानप्यातिष्ठते । अथ यत्तद्भवतामस्माकं चेत्यादेस्तत्र तत्राभिधानाद्यत्परेषामस्माकं च प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धं स्यात् तस्यैव कल्पनापोढत्वादिविधिरभिधीयते । न चास्माकं सविकल्पकज्ञानं तच्छब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धमित्यव्याप्तेरप्राप्तिरेवेति चेत् । तर्हि परेषां शब्दब्रह्माद्वैतवादिनां च न किञ्चिन्निर्विकल्पकं ज्ञानं प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धमिति तत्राप्युभयप्रसिद्धयसिद्धेर्न तद्विधिरविरुद्धः स्यात् । अथ केषांचित् परेषामपि निर्विकल्पकमपि ज्ञानं तच्छब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धमेवेति चेत् तर्हि कस्यचित्परस्यापि स्वपरव्यवसाय्यपि ज्ञानं किं न प्रसिद्धमवबुध्यसे । अपि च भिक्षो विप्रतिपन्नान् प्रति लक्षणं प्रणीयते इत्याचक्षाणोऽप्यविप्रतिपन्नेभ्य एव तदुपदिशसि सिद्धसाध्यतां च नावधारयसीति किमभिदध्महे । ननु सम्यग्ज्ञानस्य ज्ञापयितुमुपक्रान्तत्वात् तद्भेद एवेदं प्रत्यक्षं ततश्च प्रत्यक्षमिति यत्प्रसिद्धं सम्यग्ज्ञानं तस्यैव कल्पनापोढत्वादिविधिः । नच परप्रतीतं सविकल्पकं प्रत्यक्षं सम्यग्ज्ञानं विसंवादकत्वादिति चेत् । तर्हि कुकारुकस्येवैकं सन्धित्सतोऽन्यत्प्रच्यवते । भवति ह्येवमभ्रान्तपदस्यापार्थकत्वं सम्यग्ज्ञानस्य भ्रान्तत्वायोगात् । अथ समर्थित एवाभ्रान्तपदस्थार्थो विप्रतिपत्तिप्रतिक्षेपो नाम ! गच्छवृक्षादिर्दशनस्य हि
१'तक्षा च तन्तुवायश्च नापितो रजकस्तथा ! पञ्चमश्चर्मकारश्च कारवः शिल्पिनो मताः ॥ कुत्सिताः कारवः कुकारवः ।
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परि. १ सू. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः ग्राह्ये विपर्यस्तस्यापि कल्पनापोढत्वं पश्यन्नवश्यमध्यवस्येत् प्रत्यक्षत्वं कश्चिदिति तत्प्रतिक्षपायाविपर्यस्तार्थप्रतिपादकमभ्रान्तपदमुपादेयमिति चेत् । हन्त बौद्धोऽपि नट इव केवलवाक्प्रपञ्चेन वञ्चयसि । गच्छवृक्षादिवेदनं हि तत्र तत्र मिथ्याज्ञानं मिथ्याज्ञानमिति सर्वत्रांशे विसंवादकमिति प्रपञ्चतः प्रतिपायेदानी ग्राह्ये विपर्यस्तमिति पर्याया- ५ न्तरं परिकल्प्याभ्रान्तपदेन व्यपोहसि नतु सम्यग्ज्ञानपदेनेति व्यक्तं ते वाग्व्यंसकत्वम् । अपि च भगवद्भवनसूत्रणासूत्रधारो धर्मकीर्तिरपि न्यायविनिश्चयस्याद्यद्वितीयतृतीयपरिच्छेदेषु यथाक्रमं 'प्रत्यक्ष कल्पना पोढमभ्रान्तम्' इति । ' तत्र स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गतोऽर्थकू' इति । 'परार्थमनुमानं तु स्वदृष्टार्थप्रकाशनम्' इति त्रीणि लक्षणानि 'तिमिराशुभ्रमणनौयानसझोभाधनाहितविभ्रममविकल्पकं ज्ञानं प्रत्यक्षम्' इति । 'त्रिलक्षणाल्लिङ्गाद्यदनुमेयेऽर्थे ज्ञानं तत्स्वार्थमनुमानम् ' इति । ' यथैव हि स्वयं त्रिरूपाल्लिङ्गतो लिङ्गिनि ज्ञानमुत्पन्नं तथैव परत्र लिङ्गिज्ञानोत्पिपादयिषया त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थमनुमानम्' इति च व्याचक्षाणो लक्ष्यस्यैव विधिमन्वकीर्तयत् । १५ तथा ' लक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये' इत्युपक्रम्य ‘लक्षणमेव विधीयते' इत्यभिदधानः कथं न स्ववचनविरोधमवबुध्यसे । तथाहि कार्यकारणभाववदुमयाधारः सम्बन्धो लक्ष्यलक्षणभावस्तायत्तस्य च विधानमित्युक्ते लक्ष्यस्य लक्षणस्य च विधिः पर्यवस्यति । तथा च लक्षणमेव विधीयत इति दुर्निरोधो विरोधः । अथ परे परिकीर्त्तयन्ति लक्ष्य- २० लक्षणभावविधानमिति तदनुवादादयमदोष एवेति ब्रूषे साधो ‘सिद्ध तु लक्ष्यलक्षणभावे ' इत्यत्र कस्ते कुशलोपायः । पूर्ववाक्यव्यवस्था
१ व्यंसकः- धूर्तः । २ अधुना धर्मकीर्तिकृतन्यायबिन्दौ एवमुपलभ्यते सूत्रव्याख्यानम् । तथा च-तत्र कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् ( न्या. बि. परि. १ सू. ४), तत्र स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानम् (न्या. बि. परि २ सू. ३) त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानम् (न्या. बि. परि, ३ स. १) अत्र विष्वपि लिङ्गेषु पाठभेदः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. २ पितार्थानुवादप्रतिपादनपरं हीदं वाक्यखण्डलकं न च पूर्ववाक्येन लक्ष्यलक्षणभावो व्यवस्थाप्यते त्वदास्थयेत्यसम्बद्धमिदं स्यात् । सम्बद्धत्वे वा पूर्वत्र तदुभयविधिः सिध्येत् । तथा च न तस्मिन् स्ववाविरोधः प्रतिरोधमधिवसति । लक्ष्यस्य लक्षणं तस्य भाव इति तु ५ व्याख्यानम् । प्रसिद्धार्थहान्यप्रसिद्धार्थपरिकल्पनलक्ष्यपदानर्थकत्वदोषकदर्थितमिति सहृदयोद्वेजकम् । अथात्र प्रसिद्धस्यार्थस्यासम्भवात् तद्धानिस्तद्विरुद्धपरिकल्पनं च गङ्गायां घोषः प्रतिवसतीत्यादाविवाविरुद्धमेवेति चेत् । मैवम् । लक्ष्यलक्षणयोरुभयोर्भावस्तदत्र प्रसिद्धोऽर्थस्तस्य च सम्भवः समर्थितः समर्थयिष्यते चेति ।
बलदेवबलं स्वीयं दर्शयन्न निदर्शनम् ।
वृद्धधर्मोत्तरस्यैव भावमत्र न्यरूपयत् ॥ १७ ॥ इहान्यो व्युत्पत्तिकालोऽन्यश्च व्यवहारकालः । तत्र व्यवहारकाले लक्षणस्य लक्ष्यसिद्धये व्यापारणेति भवतु तदा यत्पदपरामर्शनीयता व्युत्पन्नस्य सतः । यदा तु व्युत्पत्तिसमयस्तदा लक्षणमेव ज्ञाप्यमस्येदं लक्षणमिति यदेव च ज्ञाप्यं तदेवानूद्यते इति विरुद्धमेतत् । ज्ञाप्यं विधेयत्वादविज्ञातं सत्कथमनूद्यते । अत एवास्य लक्ष्यवत् भूतविभक्त्या निर्देशस्तदा न युज्यते । यद्यपि हि कदाचित् क्रियेत । यथा शिखया परिवाजकः कमण्डलुना छात्र इति । तत्रापि फलमुखेनैव लक्षणविधेराक्षेपो न तु लक्षणविधिरेव । तेन वाक्यान्तरार्थ एवोपप्लवते परिव्राजकस्य शिखा लिङ्गं छात्रस्य कमण्डलुरिति । अतस्तेन तस्य प्रतीतिसिद्धिरिति । तस्माल्लक्षणविधानावसरे तत्पदपरामर्श एवास्योचितः । यत्तूच्यते कथमप्रसिद्धस्य लक्षणत्वं भवति प्रसिद्ध वा कथं नानूयेतेति सेयमन्याऽप्रसिद्धिर्या लक्षणत्वविधानावसर उपयुज्यते। अन्या च प्रसिद्धि
र्या लक्ष्यावबोधनाय । शब्दार्थमात्रेण हि ज्ञातं सल्लक्षणत्वेन विधातुं २५ शक्यम् । अत्यन्ताप्रसिद्धस्य धर्मस्यालक्षणत्वात् नतु तया प्रसिद्धया
१ 'मनूयेत' इति प. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२५ विधेयतासामर्थ्यायातं तत्पदपरामर्शयोग्यत्वमस्य निवर्तते । विहितस्य तु या लक्ष्यावबोधनाय व्यापारणा सान्याप्रसिद्धिर्यासौ लक्षणव्युत्पत्तिवाक्याल्लक्षणत्वनावगतौ सत्यां तदनुसन्धानरूपा तत्रास्य भवत्वनूद्यमानता । स ह्यस्य व्यवहारकाल इत्युक्तमेवैतत् । यः कुण्डली स देवदत्त इत्येवमादावपि यदा कुण्डलित्वं विधेयतया प्रक्रम्यते तदा ५ यस्तत्र देवदत्तस्तस्य कुण्डलित्वं लक्षणम् । योऽग्निस्तस्य धूमो लक्षणम्। अतो यः कुण्डली यत्र वा धूमो भवता दृश्यते तत्रं स देवदत्तस्तत्र वा बहिरिति भवता प्रतिपत्तव्यमित्ययमेव न्यायः । एवं यः परिव्राजकस्तस्य शिखा लिङ्गमित्ययं व्युत्पत्तिकालः । अत्र च परिव्राजकस्यैवानुवादः । व्यवहारकाले तु विपर्ययः । यतोऽस्य शिखा लिङ्गमतो यः शिखी स १० परित्राजकस्त्वया व्यवहर्त्तव्य इति । ततो यद्यप्येकधैवोच्यते तथाप्युक्तिसङ्केपमात्रमेतत् । व्युत्पत्तिव्यवहारकालापेक्षया तु विध्यनुवादविभागोऽत्र द्रष्टव्य इति ।
वृद्धसेवाप्रसिद्धोऽपि ब्रुवन्नेवं विशङ्कितः ॥
बालवत्स्यादुपालभ्यस्त्रै विद्यविदुषामयम् ॥ १८॥ तथाहि सोयं वृद्धधर्मोत्तरानुसार्य्यप्यलीकवाचालतया तुल्यस्वरूपयोरपि व्युत्पत्तिव्यवहारकालयोरतुल्यतामुपकल्पयन् बाल इवैकामप्यङ्गुलिं वेगवत्तया चलयन् द्वयीकृत्य दर्शयतीत्येवमुपालभ्यते त्रैविद्यकोविदैः । व्युत्पत्तिस्वरूपापरिहारेण हि व्यवहारोऽपि सम्पद्यते । न खलु नालिकेरद्वीपादायातः पुमान् वहिमानयानय नीरं क्षीरं चेत्या- २० द्युत्तमवृद्धनियोगात्तत्र तत्र प्रवर्तमान कञ्चनापि मध्यमवृद्धं पुमांस पश्यंस्तत्तत्पदावापोद्वापं च परिभावयन्नयं वह्निरयमस्य वाचक इत्येवं वर्तेः स्वरूपे प्रतिनियतवाचकवाच्यत्वे च व्युत्पत्तिं प्रतिपद्य तत्स्वरूपपरिहारेण व्यवहारमवतारयत्यपि । तर्हि लक्षणसिद्धये लक्ष्यस्यापि
१ 'तत्र' इति नास्ति प. पुस्तके । २ संपश्यं' इति प. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. २ व्यापारणायाः प्रसिद्धेः । यथा हि मोहमहापिशाचपारवश्यात् स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य प्रमाणत्वे विपर्ययसंशयानध्यवसायाः कस्यचित् प्रादुःप्यन्तीति तं प्रति तत्प्रतिक्षेपाय विवादास्पदं ज्ञानं मानं स्वपरव्यवसायित्वादित्येवमनुमानमारभ्यते । तथा तत एव प्रमाणस्य स्वपरव्यवसा५ यिज्ञानत्वे कस्यचित्ते समुत्पद्यन्त इति । तदपनोदाय विवादाधिकरणं प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणत्वादित्येवमपि तदवश्यमुपदेश्यम् । तथा हि ताथागताः केचन कलशादिप्रत्यक्षसंवेदनं प्रमाणतया प्रतिपधन्ते न च स्वपरव्यवसायितया । तन्मते प्रत्यक्षस्य व्यवसायशून्यत्वात्
परस्य चाप्रामाणिकत्वेनापारमार्थिकत्वात् । ततश्चैते तस्मिन् ज्ञाने स्वैक१० ज्ञापकतया निर्व्यवसायतया च प्रत्यवस्थिताः सन्तः प्रतिपादितानुमानेन स्वपररूपोभयार्थज्ञापकत्वं कथञ्चिद्व्यवसायं च प्रतिपादनीयाः येऽपि रैकव्यवसायिज्ञानमानिनो नैयायिकादयस्तानपि प्रतिपादितानुमानेनैव स्वपव्यवसायित्वं सिद्धिपद्धतिमारोपणीयम् । तथा कदाचिल्लक्षणांशसिद्धथे लक्षणांशस्यैव व्यापारणा यथा ज्ञानं स्वव्यवसायि परव्यवसायित्वान्यथानुपपत्तेरिति । यच्च यदा तु व्युत्पत्तिसमयस्तदेत्यादि । तदपि नावदातम् । यतो विप्रतिपत्तिप्रतिक्षेपाय लक्षणं प्रणीयत इति व्यक्तं भवतामेव तत्र तत्र जयवैजयन्ती । न च वचनमात्रेण तत्प्रतिक्षेपः सम्पद्यते । नापि वचनं परार्थानुमानादन्यत् प्रमाण
भवितुमर्हति । भवद्भवनेऽवश्यतया लक्षणवाक्यानि परार्थानुमान२० रूपाण्यभ्युपेयान्यपरथा तदभिधानानर्थक्यप्रसक्तेः । अत एवोद्योतकर
वाचस्पतिप्रभृतयः परेऽपि ' लक्षणवाक्यं केवलव्यतिरेक्यनुमानम्' इत्यामनन्ति । न चैवं व्युत्पत्तिकाल एवायं लक्षणप्रणयनं नामेत्येकान्तः कान्तो भवेत् । विप्रतिपत्तिपराकरणाय प्रयुक्तस्य लक्षणवाक्यस्य परार्था
नुमानरूपत्वेन व्यवहारस्वरूपत्वात् । अन्यथा वहिविप्रतिपत्तिव्युदा२५ साय प्रयुक्तस्य धूमानुमानस्यापि व्युत्पत्तिकाललिङ्गितत्वप्रसङ्गात् । एवं
१ ‘भवद्भवना' इति प. भ. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू. २३ स्याद्वादरत्नाकरसहितः चावतीर्णो व्यवहारकालस्य विलयः । विनेयापेक्षया तु लक्षणप्रणयनस्य व्युत्पत्तिकालाभिधाने ध्वस्तो लक्षणस्यैव विधिः । विनेयान् प्रति लक्ष्यस्यापि कदाचिद् विधेयत्वात् । विगलितश्च विप्रतिपन्नानेवाश्रित्य लक्षणं प्रणीयत इति मनोराज्याभिनिवेशः । यदेव च ज्ञाप्यं तदेवेत्यादिना च शब्दमात्रतः प्रतीतत्वाविशेषेऽपि लक्षणस्यानुवाद्यत्वं ५ प्रत्याचक्षाणो लक्ष्यस्य च कक्षीकुर्वाणो न परीक्षकः । यच्चावाचि अत एवेत्यादि तत्रायमाशयः । लक्ष्यं हि प्रसिद्धमनुवाद्यं भवतीत्यस्मात् भूतविभक्तयो द्वितीयाद्याः समुपादीयन्ते । लक्षणं पुनरप्रसिद्ध विधेयमित्यतो भव्यविभक्तिः प्रथमैव प्रयुज्यत इति सोऽयं साहित्यज्ञताभिमानात् तत्र वृद्धधर्मोत्तरमधरयति । स्वयं त्वेवं व्याचष्ट इति १० किमन्यदस्य देवानांप्रियस्य श्लाघनीयता प्रज्ञायाः । सुप्रसिद्धा हि साहित्ये लोके वेदे च *'कृतककुपितैर्वाष्पाम्भोभिः सदैत्य विलोकितै
वनमसि गता यस्य प्रीत्या धृतापि तथाम्मया । नवजलधरश्यामाः पश्यन् दिशो भवती विना। १५
कठिनहृदयो जीवत्येव प्रिये स तव प्रियः ॥१॥ इति 'आलोकमार्ग सहसा व्रजन्त्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमाल्यः। बद्ध न सम्भावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि हि केशपाशः ॥२॥'
इति
* पौलस्त्यः स्वयमेव याचत इति श्रुत्वा मनो मोदते ।
देयो नैष हरप्रसादपरशुर्मानाधिकं ताम्यति ॥ तद्वाच्यः स दशाननो मम गिरा दत्ता द्विजेभ्यो मही।
तुभ्यं ब्रूहि रसातलत्रिदिवयोनिर्जित्य किं दीयताम् ।।३॥'
इति
२५
__ *एतत् श्लोकद्वयं काव्यानुशासने स्वोपज्ञप्राचीनटीकायां शिवदत्तकृतार्वाचीनटीकायां च किञ्चित्पाठभेदेन समुपलभ्यते का. अ. टी. पृ. १७८ पं. १०, पृ. १७८ पं. २२, परन्तु काव्यानुशासनकर्तुहेमचन्द्रादस्य प्राचीनत्वम् ।
१ रघुवंशमहाकाव्ये ७ सगै ६ श्लो। २'न' इति प. पुस्तके 'च' इति र. काव्ये च पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू.२ * ताताजन्म वपुर्विलचित्तवियत् क्रौर्य कृतान्ताधिकम् ।
शक्तिः कृत्स्नसुरासुरोष्मशमनी तातादयोः पदम् ।। सर्व वत्स तवातिशायिनिधनं क्षुद्रात्तु यत्तापसात् ।
तेनाहं त्रपया शुचा च विवशः कष्टां दशामागतः॥४॥' इति 'द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः । कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी॥५॥'
इति
*'तपस्विभिर्या सुचिरेण लभ्यते प्रयत्नतः सत्रिमिरिष्यते च या ॥ १० प्रयान्ति तामाशु गतिं यशस्विनो रणाश्वमेधे पशुतामुपागताः ॥६॥'
इत्यादौ।रक्तं पटं वयेत्यादौ, ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम' इत्यादौ च, यथाक्रमं वनमिति करेणेति द्विजेभ्य इति क्षुद्रात्तापसादिति कपालिन इति रणाश्वमेधे इत्यादेः रक्तं पटामित्यादेरग्निहोत्रमित्यादेश्वांशाद्विधेयादपि पुरो द्वितीयाद्या विभक्तयः ।
तथा तेप्वेव 'कारणगुणानुवृत्त्या द्वौ ज्ञाने तपसि चातिशयमाप्तौ ॥ व्यासः पाराशर्यः स च रामो जामदग्न्य इह ॥ १॥" इति
'सूर्याचन्द्रमसौ यत्र चित्रं खद्योतपोतको । -२० नित्योदयजुषे तस्मै परस्मै ज्योतिषे नमः' ॥२॥
इति *' आज्ञा शक्रशिखामणिप्रणयिनी शास्त्राणि चक्षुर्नवम् ।
भक्तिभूतपतौ पिनाकिनि पदं लङ्केति दिव्या पुरी ॥ उत्पत्ति हिणान्वये च तदहो नेदृग्वरो लभ्यते ।
स्याचेदेष न रावणः क नु पुनः सर्वत्र सर्वे गुणाः ॥३॥' *एतानि त्रीणि पद्यानि काव्यानुशासने स्वोपज्ञप्राचीनटीकायां शिवदत्तकृता. चीनटीकायां च किश्चित्पाठभेदेन समुपलभ्यन्ते । पृ. १७९ पं. २, का. प्रा. टी. पृ. १६७ पं. १५, पृ. २. पं, ५१.
१ कुमारसम्भवमहाकाव्ये २ सर्गे श्लो. ७१. २ मैन्युपनिषदि ६-३.
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परि. १ सु. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः इत्यादौ 'खलेवाली भवेन्मेधिः । इत्यादौ लोहितोष्णीषा रुत्विजः संचरन्तीत्यादौ च व्यास इति, राम इति, सूर्याचन्द्रमसाविति, शास्त्राणीत्यादेः, ऋत्विज इत्यादेश्वांशादनुवाद्यादपि साध्य. विभक्तिः प्रथमा प्रसिद्धैवेति । यथा चात्रामीषामंशानामनुवाद्यत्वं पूर्वत्र च तत्तदंशानां विधेयत्वं तथा श्रीमदम्बाप्रसादसचिवप्रवरेण ५ कल्पलतायां तत्सङ्केते कल्पपल्लवे च प्रपञ्चितमस्तीति तत एवावसेयम् । अपि च भवदभिप्रायेण 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढम्' इत्यत्रापि प्रत्यक्षमिति लक्ष्यांशात् सिद्धादपि साध्यविभक्तिर्दृश्यत एव । भवान् पुनस्तस्मात् सिद्धविभक्तिमेवामस्त तत् 'यस्यामेव शाखायां स्थितस्तामेव छिनत्ति' इति नीतिं नातिवर्त्तते । अथ कथितमपि १० कथं नानुसंधत्से अभ्यधिष्महि यदा लक्षणमिति अयमाशयो यथा शिखया परिव्राजक इत्युक्तेऽपि परित्राजकस्य शिखा लिङ्गमिति वाक्यान्तरार्थ एवोपप्लवते तथेहापि प्रत्यक्षं कल्पनापोढमित्याधुक्तेऽप्यस्य प्रत्यक्षस्य लक्ष्यस्येदं कल्पनापोढत्वादि लक्षणमिति चेत् । अत्र पर्यनुयुमहे महोपाध्यायम् । तत्रापि हि वाक्यान्तरे कस्ते १५ समाश्वासः । शक्यमेव ह्येवं वक्तुं यथा परिव्राजकस्य शिखा लिङ्गमित्यत्र शिखया परिव्राजको लक्ष्य इत्यादिक्यान्तरार्थ एवोपप्लवते तथा प्रत्यक्षस्य कल्पनापोढत्वादि लक्षणमित्यत्रापि कल्पनापोढत्वादिना प्रत्यक्षं लक्ष्यत इति कल्पनापोढत्वादिलक्षणस्य प्रत्यक्षं लक्ष्यमित्यादिः । नहि किमप्यस्ति तद्वाक्यं यस्य वाच्यं न वाक्यान्तरेणावतारायितुं शक्यत इत्यभिमतविपरतिव्यवस्थानवस्था च दुर्निवारा भवेदिति । एवं च तिमिराशुभ्रमणेत्यादिव्याख्यावाक्यानां व्यत्ययेनार्थं समर्थयमानो निवारणीयो विपश्चिदिति । यत्तु यत्तूच्यते कथमप्रसिद्धस्य लक्षणत्वमित्याद्याशक्य सेथमन्याऽप्रसिद्धिर्या लक्षणत्वे
१ व्युत्पत्तिसमयस्तदा' इत्यधिकं प. पुस्तके । २ 'परिव्राजको लक्ष्यत इति.. शिखायाः' इत्यधिकं प. पुस्तके । ' ३ लक्षणश्चे ' इति प. पुस्तके पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. २ त्यादिनोक्तमेवैतदित्यन्तेन समाहितम् । तत्सर्वं लक्ष्यविधिसिद्धयेऽपि शक्यानुसन्धानम् । तथाहि सेयमन्याऽप्रसिद्धिर्या लक्ष्यत्वविधानावसरे उपयुज्यतेऽन्या च सा प्रसिद्धिर्या लक्षणावबोधनाय । शब्दार्थमात्रेण हि ज्ञातं सल्लक्ष्यत्वेन विधातुं शक्यम् । अत्यन्ताप्रसिद्धस्य लक्ष्यत्वेन विधातुमशक्यत्वात् । नतु तया प्रसिद्धथा विधेयतासामर्थ्यायातं तत्पद. परामर्शनीयत्वमस्य निवर्त्तते । तस्य तु या लक्षणावबोधनाय व्यापारणा सा अन्या प्रसिद्धिर्यासौ लक्षणवाक्याल्लक्ष्यत्वेनावगतौ सत्यां प्रमाणं चैतदित्येवं तदनुसन्धानरूपा तत्रास्यानूद्यमानता । स ह्यस्य
व्यवहारकाल इति । यदपि प्रत्यपादि यः कुण्डली स देवदत्त इत्यादि। २०. तदपि तत्रापि हि वाक्यान्तर इत्यादिना निवेदितोत्तरप्रायम् ।
अथान्यच्चिन्त्यते द्विविधं लक्षणमात्मभूतं अनात्मभूतं च । तत्रात्मलक्षणं द्विविधमात्मभूतम- भूतं लक्षणमाशुशुक्षणेरोष्ण्यवत् । अनात्मभूतं नात्मभूतं चेति व्यवस्था- तु देवदत्तस्य दण्डवत् । तत्रेह प्रमाणस्य स्वपर
व्यवसायिज्ञानमात्मभूतं लक्षणं लक्षणीयम् । १५ अत्राह कश्चित् । नन्वेवं लक्ष्यलक्षणयोस्तादाम्यादप्रसिद्ध लक्षणे
लक्ष्यस्याप्यप्रसिद्धत्वात् कस्य लक्षणं लक्षणीयम् । लक्ष्यलक्षणयोस्तादात्म्यमिति मतखण्डनम् । प्रसिद्ध वा लक्ष्ये लक्षणस्यापि प्रसिद्धत्वान्निष्प्रयो
जनं तदभिधानमिति । तदचतुरस्रम्, लक्ष्यलक्षणयोः सर्वथा तादात्म्यस्यासिद्धत्वात् कथंचित्तादात्म्यस्य तु प्रसिद्धयप्रसिद्धी प्रत्यनैकान्तिकत्वात् । क्षयोपशमभावाभावयोरेव तत्र कारणत्वात् । अथाभिदधीथाः सर्वथा भिन्न लक्ष्याल्लक्षणं दण्डवदिति। नैतदवितथं अनवस्थापत्तिदुःस्थत्वात् । तथा हि सर्वथा पृथग्भूताद्विवक्षितलक्षणाल्लक्ष्यं कथं सिद्धयेत् । लक्षणान्तराच्चेत् तदपि यद्य
मुष्मादेकान्तेन पृथग्भूतं तदा लक्षणान्तरादेव लक्ष्यं सिध्येदिति अन२५ वस्था । सुदूरमपि गत्वा यद्यपृथग्भूताल्लक्षणात् कुतश्चिल्लक्ष्यसिद्धिरभि
धीयते तर्हि न सर्व लक्षणं लक्ष्याद्भिन्नमेव । तथैकान्तपृथग्भूतं लक्षणं
' पनम् ।
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परि. १ सू. २ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
प्रसिद्धमप्रसिद्धं वा सल्लक्ष्यस्य प्रज्ञापकं भवेत् । प्रसिद्धं चेत् तदा कुतस्तत्प्रसिद्धिः । स्वकीयलक्षणादिति चेत् तर्हि तस्यापि प्रसिद्धिः स्वकीयलक्षणान्तरादित्यनास्था । अथ गत्वापि सुदूरं स्वरूपत एव कस्यापि लक्षणस्य प्रसिद्धिः स्वीक्रियते तर्हि न सकलं भिन्नमेव लक्षणस्य स्वात्मभूतलक्षणत्वात् । अथाप्रसिद्धं लक्षणमाख्यायते नन्वेकान्तेन कथंचिद्वा । न तावदेकान्तेन अतिप्रसङ्गपराहतत्वात् । अथ कथंचिदप्रसिद्धं लक्षणमुच्यते शब्दार्थमात्रेण हि प्रसिद्धं लक्षणं विवक्षितलक्ष्यास्पदत्वेन त्वप्रसिद्धमिति । सत्यमेवमेतत् । किन्तु लक्ष्यादेकान्तेन लक्षणस्य पार्थक्येऽतिप्रसङ्गो दुष्परिहर एव । विन्ध्यमहीधरन्धवतिदूर्वा पल्लवतानामपि तथाभूतानां विवक्षितलक्ष्यं प्रति लक्षणत्व- १० प्राप्तेः । अस्तु तर्ह्यभिन्नमेव लक्ष्याल्लक्षणमाशुशुक्षणे रौष्ण्यवदिति चेत् । अयमपि न प्रमाणपरतन्त्रस्योल्लापः । नियमहेत्वभावेन विपर्ययस्यापि प्रसक्तेः । तादात्म्याविशेषेऽपि पावकोष्णयोरौष्ण्यमेव पावकस्य लक्षणं न पुनरभिरौष्ण्यस्येति हि कुतस्त्या नियतिः । अप्रसिद्धत्वादयं कृष्णवर्त्मनो लक्षणमिति चेत् तत्किं कृष्णवर्त्मापि १५ महात्मा नोऽप्रसिद्धः । एवमिति चेत् । अहह महासाहसिकत्वं ते यच्चाक्षुषप्रत्यक्षोपलक्ष्यमप्याशुशुक्षणिमप्रसिद्धं ब्रवीषि । प्रसिद्ध एवायं धर्ममात्ररूप इति चेत् कथं तर्हि दहनौष्ण्ययोस्तादात्म्यं समर्थयिष्यते । प्रसिद्धाप्रसिद्धयोः सर्वथा तादात्म्यविरोधात् । ततः कथंचिद्भिन्नयोरभिन्नयोश्च लक्ष्यलक्षण भावप्रतीतिसद्भावात् सर्वथा विरोधाभावात् । २० अन्यथा लक्ष्यलक्षणभावशून्यतापत्तेः ।
३१
संवृत्त्या लक्ष्यलक्षणभाव इति चेत् केयं संवृत्तिर्नाम | उपचार संवृत्त्या लक्ष्यलक्षणभाव इति चेत् अस्ति तर्हि मुख्यः क्वचिल्लक्ष्यलक्षण- इति मतस्य खण्डनम् । भावः। क्वचिन्मुख्यस्यासत्तायामुपचारस्याप्रवृत्तेः ।
तथा विकल्पस्य सद्वेिषय
कत्वव्यवस्थापनम् । विचारतोऽनुपपद्यमाना विकल्पबुद्धिः संवृत्तिरिति २५ चेत् कथं तया लक्ष्यलक्षणभावः । तस्य तत्रावभासनादिति चेत् ।
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३
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. २ सिद्धस्तर्हि बौद्धो लक्ष्यलक्षणभावस्तद्वबौद्धोऽपि किं न सिध्येत् । विकल्पाबहिर्भूतस्य तस्यासम्भवादिति चेत् । न तस्यासम्भवे तादृन्विकल्पविषयत्वायोगात् । न च सकलो विकल्पविषयोऽसम्भवन्नेव । सम्भवतोऽपि विकल्पविषयत्वोपपत्तेः प्रत्यक्षविषयवत् । सर्वो विकल्पोऽसम्भवद्विषयो विकल्पत्वात् मनोराज्यादिविकल्पवदिति चेत् । सर्वं प्रत्यक्षमसम्भवद्विषयं प्रत्यक्षत्वात् केशोन्दुकप्रत्यक्षवदिति किं न स्यात् । प्रत्यक्षाभासोऽसम्भवद्विषयो दृष्टो न प्रत्यक्षमिति चेत् । तर्हि विकल्पाभासोऽसम्भवद्विषयो न विकल्प इति समानः परिहारः । कः पुनः सत्यो विकल्पः प्रत्यक्षं किं सत्यमिति समः पर्यनुयोगः । यतः प्रवर्त्तमानोऽर्थक्रियायां न विसंवाद्यते तत्सम्यक्प्रत्यक्षमिति चेत् । यतो विकत्पादर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽर्थक्रियायां न विसंवाद्यते स सत्य इति किं नानुमन्यसे । किं पुनर्विकल्पस्यार्थपरिच्छेदकत्वं प्रत्यक्षस्य किमिति वाच्यम् । अविचलितस्पष्टार्थावभासित्वमिति चेत् । कस्यचिद् विकल्पस्यापि तदेव कस्यचित्तु बाधकविधुरास्पष्टार्थावभासित्वमपीति मन्यामहे । अस्पष्टोऽर्थ एव न भवतीति चेत् कुतस्तस्यानर्थत्वम् । पुनरस्पष्टतथाऽनवभासनादिति चेत् स्पष्टोऽप्येवमनर्थः स्यात् पुनः स्पष्टतयाऽनवभासनात् यथैव हि दूरात्पादपादिसामान्यमस्पष्टतया प्रतिभाति पुनर्निकटदेशवर्तितायां तदेवास्पष्टं न प्रतिभाति तद्विशेषस्य तदा प्रतिभासनात्
तथैव सन्निहितस्य विशिष्टं पादपादिरूपं स्पष्टतया प्रतिभातं पुनर्द्वरतर२० देशवर्तितायां न तदेव स्पष्टं प्रतिभासते । यदि पुनः सन्निहितज्ञानग्राह्य
मेव तद्रूपं विशिष्टमिति मतिस्तदा दविष्ठादिज्ञानग्राह्यमेव तद्रूपं सामान्यमिति किं न मतम् । यथा च विशिष्टं पादपादिरूपं स्वार्थक्रियां निवर्तयति तथा पादयादिसामान्यरूपमपि प्रतिपत्तुः परितोष
करणं हि यद्यर्थक्रिया तदा तत्सामान्यस्यापि सा समस्त्येव कस्यचित्ता२५ वता परितोषात् । अथ स्वविषयज्ञानजनकत्वमर्थक्रिया तदपि सामान्य
१ केशोन्दुकं केशग्रन्थिः।
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परि. १ स. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः स्यास्त्येव । सजातीयार्थकरणमर्थक्रियेति चेत् सापि सदृशपरिणामस्यास्ति विसदृशपरिणामस्येव । सदृशेतरपरिणामात्मकाद्धि बालपादपात् सदृशेतरपरिणामात्मक एव तरुणपादपः प्रादुर्भवन्नुपलभ्यते । तत्र यथा विसदृशपरिणामाद्विशेषाद्विसदृशपरिणामस्तथा सदृशपरिणामात् सामा- .. न्यात् सदृशपरिणाम इति । सजातीयार्थकरणमर्थक्रिया सिद्धा सामा- . ५ न्यस्य विशेषतश्चैतद्विषयपरिच्छेदे निश्चेष्यते । ततो वस्त्वेवे सामान्य विशेषवत् तत्र च प्रवर्त्तमानो विकल्पो वस्तुनिर्भासः संवादकत्वादनुपप्लव एव प्रत्यक्षवत् । तादृशाच्च विकल्पाल्लक्ष्यलक्षणभावो व्यवस्थाप्यमानो न बुद्धयारूढ एव । यतः सांवृतः स्यादिति सिद्धः पारमार्थिको लक्ष्यलक्षणभाव इति । इदानीमक्षरार्थः । तत्र प्रमाणमिति पूर्ववन्निर्वचनीयम् । स्वमात्मा
... ज्ञानस्यैव स्वरूपमित्यर्थः । परः स्वस्मादन्यः स्वपरव्यवसायिज्ञानमिति MATH अर्थ इति यावत् । तौ व्यवस्यति यथावस्थि
'तत्वेन निश्चिनोतीत्येवं शीलं यत्तत्स्वपरव्यवसायि। ज्ञायते बुद्धयते वस्त्वनेनेति ज्ञानं प्राधान्येन विशेषग्राहको बोधः। १५ इह च व्यवच्छेद्यापेक्षया लक्षणविशेषणप्रवृत्तिरिति ज्ञानमिति प्रमाणस्य विशेषणमज्ञानस्वभावस्य व्यवहारानंगस्य सन्मात्रगोचरस्य स्वसमय. प्रसिद्धस्य दर्शनस्य सन्निकर्षकारकसाकल्यादेश्व नैयायिकादिपरिकल्पितस्य प्रामाण्यप्रतिषेधार्थमुपन्यस्तम्। ज्ञानस्यापि स्वसंवेदनेन्द्रियजमानसयोगिप्रत्यक्षरूपतया चतुर्विकल्पस्य निर्विकल्पतया प्रामाण्यं यत्ताथा- २० गतैः पर्यकल्पि तन्निरासार्थ सन्देहविपर्ययानव्यवसायानां प्रमाणतापरिहारार्थं च व्यवसाथिपदोपादानम् । पारमार्थिकबाह्यार्थापलापिनां विज्ञानाद्यद्वैतवादिनां मिथ्याभिनिवेशव्युदासाथ परपदप्रणयनम् । नित्यपरोक्षबुद्धिवादिनां मीमांसकानामेकार्थसमवाविज्ञानान्तरप्रत्यक्ष
१ 'वस्तुवत् इति प. भ. पुस्तकयोः पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. २ ज्ञानवादिनां नैयायिकवैशेषिकाणां प्रधानविवर्तत्वेनाचेतनज्ञानवादिनां कापिलानां च मतमपाकर्तुं स्वशब्दसंशब्दनम् ।
संपूर्ण प्रमाणलक्षणवाक्यं पुनः परपरिकल्पितस्यार्थोपलब्धिहेतुत्वस्यासम्पूर्णप्रमाणलक्षणे पदक- विसंवादकत्वस्यानधिगतार्थाधिगन्तृत्वादेश्व प्रमात्यप्रदर्शनम् । णलक्षणताप्रतिक्षेपार्थम् । तथाहि ।
आचक्षते लक्षणमक्षपादपक्षे सदाऽक्षुण्णनिबद्धकक्षाः।
सर्वप्रमाणानुगुणं यदत्र क्षणं तदेतर्हि विचारयामः ॥ १९ ॥ 'अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्' इति तत्पक्षः । स न परीक्षां क्षमते ।
____ प्रमातृप्रमेययोरपि द्रोणकुसुमरसनिषेकसौवीरा: प्रमाणलक्षणे न्यायमतस्य खण्डनम् ।
पञ्जनशरीराहारादेरपि चार्थोपलब्धिहेतुत्वेन प्रमा
णताप्रसंगात् । अत्राह वाचस्पतिः, सर्वः कर्ता करणगोचरव्यापारो न तु
__ साक्षात्फले व्याप्रियते । करणं च द्वेधा सिद्धमवाचस्पतिमतखण्डनम् । सिद्धं च । तत्र सिद्धं परश्वधादि दारुद्वैधी१५ भावायोद्यम्योद्यम्य दारुणि निपातयन् दारु च्छिनत्तीत्युच्यते । न तु
साक्षात्कर्तृव्यापारगोचरो दारुद्वैधीभावः। किन्तु स्पर्शवद्वेगक्तः करणीभूतस्य परशोः संयोगोद्यमननिपातलक्षणस्तु कर्तृव्यापारः परशुगोचर एव । एवं स्वर्गकामोऽपि कर्ता न साक्षात् स्वर्गे व्याप्रियते । किन्तु तत्करणं यागमसिद्धं साधयति । स्वर्गस्तु यागव्यापारादेवापूर्वाभिधानाचेतनाश्रयोदेशकालव्यवस्थाभेदासादितपरिणतिविशेषात् साक्षादुत्पद्यते । तद्वदिहापि प्रमाता सिद्धमिन्द्रियाद्यसिद्धं वा तत्सन्निकर्षादि व्यापारयन्नुत्पादयन्वा करण एव चरितार्थः । करणं विन्द्रियादि तत्सन्निकर्षादि वा नान्यत्र चरितार्थमिति साक्षादुपलब्धावेव फले
१ उपजातिः । २ गौ. स. पृ. ९४ पं. ४ 'उपलब्धिहेतुश्च प्रमाणम्' इति । ३ अन प्रमाणं सुश्रुतादिषु ।
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परि. १ सू. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः व्याप्रियते । प्रमेयस्य तु प्रत्यक्षादन्यत्रोपलब्धिहेतुभाव एव तावन्नास्ति । केवलं प्रमाणविषयमात्रेणोपयुज्यते । यत्राप्यस्य हेतुभावः प्रत्यक्षेऽभिप्रेयते तनापीन्द्रियसंबन्धमात्रे उपयुज्यते प्रमेयम् । इन्द्रियमेव तु तत्सन्निकर्षादि वा साक्षात् प्रमाहेतुः । तत्सिद्धमेवं न प्रमाता साक्षात् प्रमाहेतुः कर्तृत्वाद्यो यः कर्ता स सर्वो न साक्षात्फलहेतुर्यथा व्रश्चनय- ५ जमानादिस्तथा चायं तस्मात्तथा । तथा प्रत्यक्षं प्रमेयं न प्रमाहेतु: प्रमेयत्वाद्यद्यत्प्रमेयं न तत्सर्वं प्रमाहेतुरनुमेयादिवत्तथा चैतत्तस्मात् तथेति । तदिदं प्रमातृप्रमेययोः प्रमाणे चरितार्थत्वं फले च प्रमाणस्य । तस्मात्तदेव फलहेतुः । प्रमातृप्रमेये तु फलोद्देशेन प्रवृत्त इति तद्वकथञ्चिदिति । अत्रोच्यते सकलस्थाप्येतत् प्रयासस्येदमेव फलं यदि- १० न्द्रियसन्निकर्षादिकमनन्तरमर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं तदेव प्रमाणं न व्यवहिते प्रमातृप्रमेये इति अनुपपन्नं चैतत् । यतो हेतुशब्दमात्रोक्तावपि यः साक्षादुपलब्धौ हेतुरिन्द्रियादि स एव चेत् प्रमाणतयाभिप्रेतः सूक्ष्मदर्शिनोऽस्य तदा स्वपरव्यवसायिज्ञानमेव तयाभ्युपगन्तुमुचितम् । वस्तुपरिच्छित्तिरानन्तर्येण तत एव भावात् । यथा च ज्ञानरूपादपि १५ प्रमाणाद्वस्तुपरिच्छित्तिः फलं कथञ्चिद्भिद्यते तथा फलपरिच्छेदे निश्चेष्यते । भवतश्चात्र श्लोको । अर्थोपलब्धेर्यदि साधनस्य प्रमाणतां वक्षि विचक्षण त्वम् । तदा प्रमात्रादिषु तत्प्रसक्त्या जज्ञे सुभिक्षं भवतः प्रमाणैः ॥ २० ॥ अथापि यत्सन्निहितं तदेव प्रमाणमाख्यासि हृषीकमुख्यम् । २० त्यक्त्वा तदानी स्वमताभिमानं ज्ञानं प्रमाणं वद निर्विवादम् ॥ २१॥ भिक्षवो लक्षणं यत्समाचक्षतेऽध्यक्षमुख्यप्रमाणस्य साधारणम् । तद्विसंवादवैकल्यरूपं स्फुटं वर्ण्यमानं सकणेः समाकर्ण्यताम् ॥ २२ ।।
१ भुजङ्गप्रयातम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वारोकालङ्कारः [परि. १ स. २ प्रमाणमविसंवादिविज्ञान- तथाहि ते प्राहु:-प्रमाणमविसंवादिविज्ञानमिति । मिति बौद्धमतस्य प्रस्थाप-अविसंवादकत्वं चार्थप्रापकत्वमुच्यते। तच्च प्रत्यक्षा. नपूर्वक खण्डनम् । नमानयोरुभयोरप्यस्तीति सामान्यलक्षणम् । तत्र प्रत्यक्षस्य स्वप्रदर्शितस्वलक्षणक्षणस्य क्षणिकत्वेन प्राप्त्यसम्भवेऽपि तत्सन्तानप्रातः सम्भवात् सन्तानाध्यवसायजननमेव प्रापकत्वम् । द्विविधो हि प्रत्यक्षस्य विषयो ग्राहोऽध्यक्सेयश्च । तत्र ग्राहक्षण एकः सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तः । स्वलक्षणाख्यस्य तत्र परिस्फुरणात् । इदमेव ग्राह्यत्वमर्थस्य यत् स्वाकारज्ञानजनकत्वम् । इदमेव च ग्राहकत्वं ज्ञानस्य यदाकारतयात्मलाभः । अध्यवसेयः पुनः सन्तानः । बहवश्व स्वलक्षणलक्षणा उपादानोपादेयभावमापन्नाः संतानः । तस्य चाध्यवसेयत्वमगृहीतस्यापि प्रवृत्तिविषयत्वम् । अध्यक्सेयार्थसन्तानापेक्षयैव च प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यव्यवस्था स्वलक्षणस्य प्रापयितुमशक्यत्वात् । सन्तानश्चाध्यक्सीयतेऽपहर्तुमशक्यत्वात् । इति सन्तानाध्यवसायापेक्षं प्रत्यक्षे सर्वत्र प्रामाण्यव्यवस्थापनं न ग्रहणापेक्षम् । तस्मात् सन्तानाध्यवसाये सत्यविसंवादकत्वेन प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यम् । ननु निर्विकल्पकत्वात् प्रत्यक्षस्य कथं तेन सन्तानाध्यवसायः सम्भवति । उच्यते । प्रत्यक्षजन्यविकल्पेन सन्तानस्याध्यवसितत्वात् प्रत्यक्षेणाध्यवसितः स इत्यभिधीयते । अनुमानस्य पुनरपारमार्थिकसामान्यविषयतया भ्रान्तत्वेऽपि प्रणालिकया मूलवस्तुलक्षणप्रभवत्वान्मणिप्रभायां मणिबुद्धिरिव वस्तुप्राप्त्या प्रापकत्वम् । यतस्तस्यापि ग्राह्याध्यवसेयतया विषयो द्विविधः । तत्राध्यवसेयं स्वलक्षणम् । समुत्पन्नेऽनुमानेऽध्यवसायादर्थक्रियाकारिणी स्वलक्षण एव प्रमातुः प्रवृत्त्युपलब्धेः । ग्राह्यस्तु विषयोऽस्य सामान्यमेव । तत्पुनर्बहिस्तादात्म्येनाध्यवसीयमानो बुद्ध्याकारो वा । अलीकबाह्यं वाऽन्तर्बही
रूपम् । परमार्थतस्तु न कश्चिद्नुमानस्य विषयः । तथाहि न स्व२५ लक्षणं तत्र तस्यापरिस्फुरणात् । न बुद्धयाकारः बहिस्तादात्म्येन
तस्यासम्भवात् । नायलीकबाह्यम् । तस्य सर्वथाप्यसम्भवेनार्थक्रियासामर्थ्यशन्यत्वतः करिकेसरकलापकल्पत्वादिति निर्विषयमनुमानम् ।
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परि. १ सु. २] स्थाद्वादरत्नाकरसहितः स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात् प्रान्तं च । अनुमानं हि स्वात्मनि प्रतिभातेऽनर्थे सामान्यस्वरूपेऽर्थत्वं स्वलक्षणरूपतामारोप्य प्रवर्तत इति भ्रान्तम् । तथापि स्वभावकार्यलिङ्गदर्शनजन्यतया पारम्पर्येण स्वभाविनि कारणे च प्रतिबद्धत्वात् तत्प्रापकतयार्थाविसंवादकत्वेन प्रमाणम् । तदुक्तम् 'अतस्मिंस्तद्ग्रहो भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा' ५ इति । अनुमानविकल्पान्तराणां नियतार्थप्रतिबन्धाभावादप्रापकत्वेनाविसंवादकत्वानुपपत्तेरप्रामाण्यम् । यथाध्यवसितप्रापकं च प्रमाणम् । अतः पीतशङ्खादिनाहिज्ञानानां शङ्खमात्रादिप्राप्तौ सत्यामपि न प्रामाण्यं यथाव्यवसितस्याप्राप्तेः । अध्यवसितो हि पीतः शङ्खः प्राप्यते। नर्तुं श्वेतः । तस्माद्यथाध्यवसितार्थप्रापकमविसंवादिज्ञानं प्रमाणमिति १० स्थितम् ।
एतदध्यवसिताखिलवस्तुप्रापकत्वमविसंवदनं यत् । व्याहृतं सकलमानसमानं लक्ष्म तन्न घटनामुपयाति ॥ २३ ॥
अध्यवसायस्य सुगतशासने वस्तुविषयत्वाभावात्। अवस्तुनश्च प्राप्तुमशक्यत्वात् । तदुक्तम् । 'यथाध्यवसायमतत्वात् यथा तत्त्वं १५ चानध्यवसायात्' इति । मूलभूतवस्तुप्राप्तिः पुनरन्धकंटकीयन्यायमनुसरति । नहि तदन्यतरेणापि प्रमाणेन दृष्टं यद्गत्वा प्राप्यते । सन्तानप्राप्त्या तत्प्राप्तिरित्यपि न पेशलम् । क्षणक्षयिक्षणपरम्परातः पृथग्भूतस्य पारमार्थिकस्य सन्तानस्य ताथागतैरस्वीकरणात् । अथापारमार्थिकेऽपि सन्ताने सति संवृतिमाहात्म्यात् प्रमाणलक्षणमिदं निर्वक्ष्यति । २० यथोक्तम् । ' सांव्यवहारिकस्य चैतत् प्रमाणस्य लक्षणं । वस्तुतस्त्वनाद्यविद्यावासनारोपितग्राझग्राहकादिभेदप्रपञ्चं ज्ञानमात्रमधेदमिति किं प्राप्यते किं वा प्रापयति' इति । तदिदं स्वसमयोद्धोषणमात्रे न कञ्चन प्राकरणिकमर्थ समर्थयते । अविचारितरम्या हि प्रतीतिः संवृतिरिति सम्मतं सौगतानाम् ! या च न विचारगोचरे विचरति । २५
१. न' इति प. पुस्तके पाठः । २ स्वागता । ३ अन्धस्य यथा कण्टकोपरि पादो यदृच्छया पतति तद्वदित्यर्थः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. २ तयापि प्रमाणलक्षणनिर्वहणमिति महत्कैतवम् । अविद्यावासनानिर्मितश्च न ग्राह्यग्राहकादिव्यवहारः । किन्तु तात्त्विक एवेति ज्ञानाद्वैतविघटनप्रघट्टके प्रकटयिष्यते । यदि चापरमुत्तरप्रकारमनवधारयद्भिः
सांवृत एव सन्तानः परिकल्प्यते । हन्त तार्ह नैयायिकादिसम्मता ५ जात्यवयविसमवायप्रभृतयोऽपि संवृतिनिर्मितमूर्तयः किमिति न परि
कल्प्यन्ते । वृत्तिविकल्पादिबाधकविधुरीकृतत्वादिति यदि मतं तर्हि भेदादिविकल्पैः सन्तानस्य प्रतिहन्यमानत्वात् तत्रापि तुल्यः पन्थाः । एवं च सति । विसंवादापेतं यदिह किमपि ज्ञानमखिलम् ।
प्रमाणं तद्वौद्धैरभिहितमिदं तु प्रतिहतम् ।। अविज्ञातज्ञानं त्वभिदधति भट्टस्य तनयाः ।
__ प्रमाणं तत्सम्प्रत्यवतरतु दूष्यत्वपदवीम् ॥ २४ ॥ तथा हि अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं प्रमाणस्य किमभिधीयते ।
अनधिगतार्थाधिगन्तत्वं प्रमाणान्तरेणानधिगतस्यार्थस्य यदधिगन्तत्वं तदि१५ प्रमाणस्येति भाट्टम- ति चेत् ननु प्रमाणान्तरं परकीयं स्वकीयं वा ।
तस्य खण्डनम् । यदि परकीयम् तदा साधयिष्यमाणसर्वज्ञज्ञानस्य समस्तवस्तुविस्तारगोचरतया तदधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् निखिललौकिकज्ञानानामप्रामाण्यं प्रसज्येत । देवदत्तज्ञानस्यापि यज्ञदत्तादिप्रमाणप्रतिपन्नार्थग्राहित्वादप्रमाणत्वं स्यात् । अथ स्वकीयं तदपि न साम्प्रतम् । प्रमाणस्य गृहीततदितरगोचरप्रवृत्तस्य प्रामाण्यं प्रति विशेषानुपलक्षणत्वात् । अथ गृहीते गोचरे प्रवर्त्तमानं प्रमाणं किं कुर्वीत । नन्वगृहीतेऽपि कि कुर्वीत । अज्ञाननिवर्त्तनमिति चेत् गृहीतेऽपि तदेव कुरुताम् । कृतस्य करणायोग इति चेत् मैवम् । अज्ञानविनिवर्त्तनान्तरकरणात् । पुनरज्ञान
निवर्तनस्य किं फलमिति चेत् । आयुष्मन्नज्ञानविनिवर्तनं स्वयमेव फलं २५ न च फलस्यापि फलमन्वेषणीयम् । तदविरामप्रसक्तेः । न च प्रयोजना
१ शिखरिणी।
२०
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परि. १ सू. २] स्याद्वादरत्नाकरसहितः नुवर्ति प्रमाणं भवति । अविकला चेत् तस्य जानका सामग्री तदा तदुत्पद्यत एव । कस्य चायं पर्यनुयोगस्त्वया विधीयते यदुत गृहीतेऽपि विषये प्रवर्तमानं प्रमाणं किं कुर्यादिति । न तावत् प्रमाणस्य । तद्धि दैवोपनतां स्वजनिकां सामग्री समासाद्य समुत्पद्यमानं वराकं कथं पर्यनुयोगभुवमवतरेत् । नापि प्रमातुः तस्यापि च सति योग्ये गोचरेऽभिमुखीभूतेषु करणेषु ५ भूयोऽपि प्रादुर्भवन्त्येष संवेदनानीति सोऽपि तपस्वी किमित्थमुपलभ्यताम् ।
किमिति पश्यास वस्तु तदेव भो
यदिह पूर्वधिया कलितं किल । किमिति वस्तुनि सन्निहितेऽपि च
त्वमसि नैव निमीलितलोचनः ॥ २५ ॥ अपि च पुनः पुनः प्रमाणानां प्रवृत्तौ विषयेष्विह । सर्वथा नास्ति वैयर्थ्य फलस्याप्युपलम्भनात् ॥ २६ ॥ तथाहि हालाहलजिह्मगादौ हेये मुहुर्वस्तुनि वीक्ष्यमाणे ॥ स कोऽपि तापः स्फुरति प्रकामं न गोचरं यो वचसामुपैति ॥२७॥ १५ निरीक्ष्यमाणे परमार्थतस्तु हेये मुहुर्मोहविकारमुख्ये ॥ विवेकसेकप्लुतमानसानामरोचकस्तीत्रतरोऽभ्युदेति ॥ २८ ॥ प्रेयस्विनीपार्वणशीतरोचिर्मयूरमाणिक्यमुखे त्वजनम् ॥ आदेयवस्तुन्यवलोक्यमाने सम्प्राप्यते प्रीतिरसः स कोऽपि ॥२९|| तत्त्वतस्तु सुधियामभीप्सिते तीर्थनाथपदपङ्कजद्वये ॥ याति दर्शनपथं मुहुर्मुहुः प्रीतिसम्पदमुपैति मानसम् ॥ ३० ॥ ततश्च तस्मिन् हृदयैकशूले कामं तथान्तःकरणानुकूले ॥ हानार्थमादानकृते च सद्यः सञ्जायते प्राणभृतां प्रवृत्तिः ॥ ३१ ॥
१' तद्विदा' इति प.भ. पुस्तकयोः पाठः । २ द्रुतविलम्बितम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. २ यदप्यदः प्रतिपाद्यते कुमारिलेन 'यत्रापिस्यात्परिच्छेदः 'यत्रापि स्यात्परिच्छेद' माणस. उन । न त इति कुमारिलकारिकाया सोऽर्थो नावधृतस्तथा ॥१॥' इति तदपि
उद्भावनपूर्वकं निराकरणम्ान मनोरमम् । यतो नोत्तराणि प्रमाणान ५ मानानि सर्वात्मनाप्यपूर्वमेवार्थ परिच्छिन्दन्ति । अथापूर्वस्यापि तस्य
तत्र परिच्छेदो विद्यत एव । तथा ह्यनुमानेन वह्निमात्रमन्वमायि प्रत्यक्षण तु ज्वालाकलापशालित्वादिविशेषविशिष्टो वहिर्निश्चीयत इति चेत् । एवं तर्हि यथानधिगतान् विशेषानिदं परिच्छिन्दत्प्रमाणमेव तथाधिगतं
वह्नित्वमपि परिच्छिन्ददप्रमाणमेव किन्न भवेत् । किंच यदि शतकोटि१. स्फटिकमालोक्य कतिपयकालकलाविलम्बादूर्वं यथास्थितमेव यदा
कलयति तदा तत्प्रत्यक्षस्य कुतः प्रामाण्यं स्यात् । अननुभूयमानस्यापि विशेषाकलनस्य तत्र कल्पने धारावाहिष्वपि तत् कल्पनास्तु । अथ तत्कालावस्थितत्वविशेषप्रतिभासः स्फुट एव तत्रास्ति । नन्वसौ धारा
वाहिष्वपि तथैवास्ति ततस्तान्यपि प्रमाणानि स्युः । अथ प्रमाणान्येव १५ तान्यनधिगतेऽशेऽधिगतांश एव प्रामाण्यप्रतिषेधादिति चेत् । तदचारु ।
गृहीतागृहीतांशयोः प्रवर्त्तमानस्य प्रमाणस्य प्रामाण्य प्रति विशेषाभावात् । ननु यदि गृहीतेऽपि गोचरे प्रमाण प्रवर्तते तर्हि तत्र तस्य प्रवृत्त्यविरामः प्रसज्येत । नहि तद्विरमणे काश्चन सीमानं जानीमहे । अज्ञानविनि
वर्तनाख्यस्वफलोत्पादस्वसीमा त्वतिक्रान्तैवानेन । अत्राभिधीयते । २० नयनादिकरणानां गोचरान्तरव्यापारतो वा प्रमातुः परिश्रमतो वा
स्वसामग्रीपरिभ्रंशतो वा प्रमाणस्य विरतेः सम्भवान्नाविरतिप्रसक्तिः । न चानवस्थाप्येवंविधा मूलबाधाविधायिनी । न ह्युत्तरसमयसम्भविविज्ञानपरम्परासमुत्पादमन्तरेण प्राचीनविज्ञानसमुत्पत्तिाध्यते । तस्मादविराम
.. १ एकस्मिन्नेव घटे ‘घटोऽयं घटोऽयम् । इत्येवमुत्पद्यमानमुत्तरोत्तरज्ञानं धारावाहिकज्ञानम् ।
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परि. १ सू. २]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
प्रसङ्गापादनद्वारेणानवस्थाप्येषा परैः प्रकाश्यमाना न नः काञ्चन
क्षतिमातनोति । तदाह
' मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणम् । मूलसिद्धात्वरुद्वापि नानवस्था निवार्यते ॥ १ ॥'
किञ्च यद्यनुपलब्धार्थावबोधकमेव प्रमाणमङ्गीक्रियते कथं तर्हि तपस्विनी प्रत्यभिज्ञा प्रामाण्यं स्वीकरिष्यति । पूर्वोपलब्धार्थपरिच्छेदकत्वस्यापि तस्यां प्रतीयमानत्वात् ।
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४१
अथाधिगतगन्तृत्वे प्रामाण्यं स्यात् स्मृतेरपि ।
यदि स्यात् किं तदा जातं क्षुण्णं जैनेन्द्रशासने || ३२ ॥ परोक्षव्यक्तिरेषा हि प्रमाणं स्मृतिरिष्यते । स्वपरव्यवसायित्वात् स्याद्वादन्यायवेदिभिः || ३३ ॥ परिच्छेदे तृतीये च सर्वमेतद् भणिप्यते । तस्मादबुद्धबोद्धृत्वे मुच्यतामयमाग्रहः ॥ ३४ ॥
न च प्रकृतं प्रमाणलक्षणमव्यापकमिति मन्तव्यम् । सर्वासामपि प्रत्यक्ष परोक्षप्रमाणव्यक्तीनां स्वपरव्यवसायिज्ञान- १५ 'स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणामिति सिद्धान्तलक्षणेऽ- त्वेन व्याप्तानामुपलभ्यमानत्वात् । ननु सर्वज्ञानानां तिव्याप्त्यादिदोषपरिहारः । स्वरूपसंवेदनं प्रमाणं प्रति परव्यवसायासम्भवेनैतलक्षणावृत्तेरव्यापकतैवेति चेत् नैवम् । तत्र स्वं चासौ ग्राह्यत्वसाधर्म्येण परश्च स्वपरस्तं व्यवस्यतीत्येवं शीलं यत्तत्तथेत्येवं लक्षणयोजनात्। अतिव्यापकं तद्भविष्यतीत्यपि न परिभावनीयम् । अप्राणभूतेषु सन्देहा- २० दिषु सर्वथाप्येतदसम्भवस्य प्रदर्शितत्वात् । नाप्यसम्भवदोष कलुषितमेतलक्षणम् । तत्सम्भवसाधकस्य प्रमाणत्वाख्यस्य हेतोः सद्भावात् । तथाहि प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणत्वात् । यत्पुनः स्वपरव्यवसाविज्ञानं न भवति न तत् प्रमाणं यथा संशयादि घटादि चप्रमाणं च विवादापन्नं ततः स्वपरव्यवसायिज्ञानम् । न च २५
१०
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४२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. २ प्रमाणत्वमसिद्धम् । प्रमाणसामान्ये सर्वप्रावादुकानां विवादाभावात् । अस्यानभ्युपगमे तु स्वाभिमतानभिमतसाधनदूषणयोरनुपपत्तिः । ननु यदेव प्रमाणं धर्मित्वेनात्र निरदेशि कथं तस्यैव हेतुत्वमुपपन्नमिति चेत् ।
ननु किमस्य हेतुत्वानुपपत्तौ निमित्तम् । किं धर्मित्वहेतुत्वयोर्विरोधः । ५ किं वा प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वम् । यद्वाऽनन्वयत्वम् । तत्राद्यपक्षेऽयमभि
प्रायः । धर्माणामधिकरणं धी तदधिकरणस्तु धर्मः । ततो यद्यत्र प्रमाणं धर्मि कथं हेतुः स चेत् कथं धर्मि हेतोर्धमत्वाद्धर्मधर्मिणोश्चैक्यानुपपत्तेः । तदयुक्तम् । विशेष धमिणं विधाय सामान्य हेतुमभिदधतां दोषासम्भवात् । प्रमाणं हि प्रत्यक्षपरोक्षव्यक्तिलक्षणं धमि । प्रमाणत्वसामान्य हेतुः । ततो नात्र सर्वथैक्यम् । कथञ्चिदैक्यं तु भवदपि न धर्मधर्मिभावं विरुणद्धि । प्रत्युत तत्प्रयोजकमेव । तदन्तरेण धर्मधम्मिभावेऽतिप्रसङ्गात् । द्वितीयपक्षेऽपि साध्यधर्मधर्मिसमुदायस्य प्रतिज्ञार्थस्यैकदेशोऽत्र धर्मी हेतुतयोपात्तोऽस्ति । नच तथापि किंचिद् दूषणम् । अन्यथानुपपत्तिश्चेनिश्चिक्ये तदा प्रतिज्ञार्थंकदेशोऽन्यो वा सर्वो गमक एव । ननु प्रतिज्ञाथैकदेशोऽपि यदि गमकः स्यात्तदाऽनित्यः शब्दोऽनित्यत्वादिति अयमपि गमकतां कलयेत् । तदप्यत्याकुलम् । न खलु प्रतिज्ञार्थकदेशत्वं गमकत्वे कारणमभिदध्महे येनानित्यत्वादेरपि तत्प्रसज्येत । किन्त्वगमकत्वं गमकत्वं वा प्रति तदप्रयोजकमिति ब्रूमः । न हि धूमद्रव्यं धूमध्वज प्रति गमकमिति गगनाङ्गणोत्संगसङ्गिसमुद्धररजोराजिरपि द्रव्यत्वसद्भावाद्गमिका भवति । तद्वद्वा धूमद्रव्यमप्यगमकम् । तदिहान्यथानुपपत्तिर्गवेषणीया । सा त्वनित्यत्वे नास्ति । तस्य शब्दे प्रतिवादिनः स्वरूपासिद्धत्वादिति तदेवागमकम् । प्रमाणत्वे पुनरसौ विद्यत इति तद्गमकमेव । तृतीयकल्पेऽपि किं बहिर्व्याप्तिरन्तातिरुभयी वा तत्र
नास्तीत्यनन्वयत्वं स्यात् । नाद्यः पक्षः । सर्वं क्षणिकं सत्त्वादित्यादे२५ रप्यनन्वयत्वप्रसक्तेः । अथास्य दृष्टान्तेऽनन्वयस्यापि साध्यधर्मिणि सर्वत्रा
न्वयसिद्धेर्विपक्षे बाधकप्रमाणसद्भावाच्च निर्दोषतानुमन्यते । न तर्हि
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परि. १ सू. ३]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
बहिर्व्यातेरभावादनन्वयत्वम् । अन्तर्व्याप्तिस्तु सत्त्वादेरिव प्रमाणत्वस्यापि । साध्यधर्मिणि सर्वत्राऽन्वयसिद्धेः विपक्षे बाघकसद्भावाच्च । एतेन तृतीयपक्षोऽपि प्रतिक्षिप्तः । सर्वथा साधर्म्यविप्रयुक्तत्वात् कथमस्य गमकत्वमिति योगैरपि न तर्कणीयम् । केवलव्यतिरेकिणोऽपि हेतोरविनाभावनियमनिर्णयेन साध्यसाधनसामर्थ्यसद्भावात् । सात्मकं १५ जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वात् । यत्तु सात्मकं न भवति तत्प्राणादिमदपि न भवति । यथा कलशः प्राणादिमञ्च जीवच्छरीरं तस्मात्सात्मकमित्यादिवत् । अनेन च विरुद्धत्वमनैकान्तिकत्वं च प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम् । अन्यथानुपपत्तिस्वीकृते हेतौ तयोः सर्वथावकाशाभावात् । तस्मान्निरवद्योऽयं हेतुः प्रमाणस्य स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वं साधयत्येव । तथा च १० नासम्भवदोषदुष्टमप्येतत् प्रमाणलक्षणमिति स्थितम् ।
:
यत्प्रावादुकलक्षणानि नयते सद्यः कथाशेषता -
मव्याप्तिप्रमुखेण न प्रतिहतं दोषत्रयेणापि यत् ॥
स्याद्वादामृतपानपूतवदनैरभ्यस्यमानं बुधैः ।
सिद्धं सम्प्रति मानलक्ष्म तदिदं श्रीमञ्जिनैर्जल्पितम् ||३५|| २ || १५ अथ प्रमाणलक्षणे ज्ञानमिति विशेषणस्य समर्थनार्थमुपपत्तिमाह
अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकार तिरस्कारक्षमं हि प्रमाणमतो ज्ञानमेवेदम् || ३ ||
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४३
+
I
अभिमतमुपादेयम् । अनभिमतं हेयम् । तत् द्वितयमपि द्विप्रकारं मुख्यं गौणं च । तत्र मुख्यमभिमतं सुखम् । तदपि द्विभेदमशाश्वतिकं २० शाश्वतिकं च । तत्रार्थ बाह्यद्रव्यसम्बन्धापेक्षं सद्वेदाख्य पुण्य कर्म्मविपाकात् प्रादुर्भूतः संसार्यात्मनः प्रसादपरिणामः । शाश्वतिकं तु समस्त कर्मक्षयत: समुद्भूतो मुक्तात्मनः परमानन्दपरिणामः । गौणं पुनरभिमताशाश्वतिक1 शाश्वतिकसुखयोः साधनम् । तत्राशाश्वतिकसुखसाधनं गंधसारघन
१ 'कर्मक्लेशनिश्लेषत' इति प. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतरवालोकालङ्कारः परि. १ सू. ३ सारहारहारिप्रियतमाप्रमुखम् । शाश्वतिकसुखसाधनं तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपं रत्नत्रयम् । अनभिमतं तु मुख्यं दुःखम् । तत्पुनरसद्वेद्याभिधानपापकर्मविपाके सति विरोधिद्रव्यायुपनिपातात्मनः पीडालक्षणः परिणामः। गौणं पुनरनभिमतं दुःखसाधनं विषविषधरमकरकान्ताराकूपारप्रभृतिकम् । पुरुषदशादेशकालविशेषाञ्च भावानां सुखदुःखसाधनत्वमव्यवस्थितमवधार्यम् । तथाहि यदेव दृढकठिनकलेवरस्य प्रबलजाज्वल्यमानजाठरजातवेदसः कस्यचित्पुंसः सुरभिपरिमलोद्गारसुन्दरसरससहकारफलपटलमुपयुक्तं परमानन्दसम्पदे सम्पद्यते । तदेवानवरतविवर्धमानविविधव्याधिप्रबन्धविधुरस्याधिकतरमंदीभूतौदर्यज्वलनस्य परस्य प्रौढपीडापरम्पराप्रसूतये प्रभवतीति । यदवाचि । पंचशतीप्रकरणप्रणयनप्रवीणैरत्र भवद्भिरुमास्वातिवाचकमुख्यैः । ' तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा' इति । एवंविधयोरभिमतानभिमतवस्तुनोर्यो स्वीकारतिरस्कारौ प्राप्तिपरिहारौ तयोः क्षमं समर्थ प्रापकं परिहारकं चेत्यर्थः । अभिमतानभिमतयोरुपलक्षणत्वादभिमतानभिमतोभयाभावस्वभाव उपेक्षणीयोऽप्यत्रार्थों लक्षयितव्यः । रागगोचरः खल्वभिमतो द्वेषविषयोऽनभिमतो रागद्वेषद्वितयानालम्बनं तृणादिरुपेक्षणीयस्तस्य चोपेक्षक प्रमाणं तदुपेक्षायां समर्थमित्यर्थः । तत्र प्रापकत्वं प्रमाणस्याभिमतार्थप्रदर्शकत्वमेव ।
यतो नार्थदेशं पुरुषं नयत् पुरुषदेशं वार्थमानयत् प्रापकं प्रमाणमपि २० त्वर्थं प्रदर्शयदिति । अभिमतवस्तुप्राप्तिर्हि न प्रमाणपरतन्त्रा । तस्याः
पुरुषाभिलाषनिमित्तकप्रवृत्तिप्रभवत्वात् । न च प्रवृत्तेरभावे प्रमाणस्य वस्तुप्रदर्शकस्वरूपो व्यापार एव न सम्भवतीति विभावनयिम् । अनुभवविरोधात् । न खलु कुमुबान्धवादौ प्रत्यक्षेण दृष्टेऽप्यप्रवर्त्तमानो
लोकस्तस्याप्रदर्शकत्वमिति प्रतिपद्यते । ततः प्रवृत्त्यभावेऽपि प्रमाणस्य २५ वस्तुप्रदर्शकत्वमुररीकर्त्तव्यम् । परिहारकत्वमपि प्रमाणस्याभिमतार्थ
१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणीति रत्नत्रयम् । २ प्रशमरतिप्रकरणे गाथा ४९ ।
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परि. १ सू. ४] स्याद्वादरलाकरसहितः प्रदर्शकत्वमेव । एवमुपेक्षकत्वमपि तस्योपेक्षणीयार्थप्रदर्शकत्वमेव द्रष्टव्यम् । हिशब्दो यस्मादर्थे । यस्मादभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम प्रमाणमत इदं ज्ञानमेव भवितुमर्हति नाज्ञानरूपं सन्निकर्षादि । प्रयोगश्चात्र । प्रमाणं ज्ञानमेव अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षमत्वात् । यत्पुनर्न ज्ञानं तन्नाभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम ५: यथा सम्प्रतिपन्नं स्तम्भादि अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकार तिरस्कारक्षमं च प्रमाणं तस्माद् ज्ञानमेव । न चात्र साधनमसिद्धम् । अभिमतवस्तुस्वीकारार्थमनभिमतवस्तुतिरस्कारार्थं च प्रार्थयन्ते प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रमाणं । नतु व्यसनपारवश्यादिति समस्तैरपि प्रमाणवादिभिरभिमतत्वात् ।
अभीप्सितानीप्सितयोः समर्थं प्रदर्शकत्वेन तु भोः प्रमाणम् ॥ १० सवैरभीष्टं घटते न चेदं' ज्ञानात्मकत्वं प्रविहाय तस्य ॥ ३६ ॥३॥
उपपत्त्यन्तरमाहनवै सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमुपपन्नं तस्यार्थीन्तरस्येव स्वार्थव्यवसितो साधकतमत्वानुपपत्तेरिति
॥४॥ १५ ___ नवै नैव । सन्निकर्ष इन्द्रियार्थसम्बन्धः स एव आदिर्यस्य कारकसाकल्यबुद्धिवृत्त्यादेस्तत्तथा तस्य । कथंभूतस्य । अज्ञानस्याचैतन्यस्वरूपस्य । प्रामाण्यमर्थयाथात्स्यव्यवस्थापित्वम् । उपपन्नं युक्तियुक्तम् । कुतः । तस्य सन्निकर्षादेः । अर्थान्तरस्येवेति अर्थः सन्निकर्षादिस्तस्मादन्यः प्रमेयो घटादिरर्थान्तरं तस्येव । स्वार्थव्यवसितौ स्वार्थयोः २० स्वपरयोर्व्यवसितिनिश्चितिस्तस्यां कर्तव्यायामित्यर्थः । साधकतमत्वस्य करणत्वस्य । अनुपपत्तेः अघटनात् । अयमत्र समुदायार्थः । यथा सम्प्रतिपन्नस्य घटादेरर्थान्तरस्याज्ञानस्वभावस्य स्वार्थव्यवसितौ साधकतमत्वाभावात् प्रामाण्यं नोपपद्यते । तथा सन्निकर्षादेरपि प्रयोगः १ चेह' इति प. पुस्तकेः पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ५, ६ पुनरेवं विरचनीयः । सन्निकर्षादिर्न प्रमाणव्यवहारभाक् स्वार्थव्यवसितावसाधकतमत्वात् । यत् स्वार्थव्यवसितावसाधकतमं न तत् प्रमाणव्यवहारभाग यथोमयसम्प्रतिपन्नं घटादि । स्वार्थव्यवसितावसाधकतमश्च
सन्निकर्षादिस्तस्मान्न प्रमाणव्यवहारभाक् ॥ ४ ॥ ५ साम्प्रतमस्य हेतोरसिद्धतापरिहारार्थं सूत्रद्वयमाहन खल्वस्य स्वनिर्णीतौ करणत्वं स्तम्भादेरिवाचे
. तनत्वादिति ॥५॥ नाप्यर्थनिश्चितौ स्वनिश्चितावकरणस्य कुम्भादेखि
तत्राप्यकरणत्वादिति ॥६॥ १० अस्येति सन्निकर्षादेः । स्वनिर्णीताविति स्वव्यवसितौ । अचेतन
त्वादिति अचिद्रूपत्वात् । नाप्यर्थनिश्चिताविति अस्य करणत्वमिति प्राक्तनेन सम्बन्धः । तत्रापीति अर्थनिश्चितावपि । शेषं तु व्यक्तम् । प्रयोगयुगलं पुनरित्थमिहोपन्यसनीयम् । सन्निकर्षादिः स्वनिर्णीतौ करणं न भवति अचेतनत्वात् य इत्थं स इत्थं यथा स्तम्भादिस्तथा चाय तस्मात्तथा । सन्निकर्षादिरनिश्चिती करणं न भवति स्वनिश्चितावकरणत्वात् य एवं स एवं यथा कुम्भादिः । यथोक्तसाधनसम्पन्नश्चायं तस्माद्यथोक्तसाध्य इति । एवं च ।
न सन्निकर्षप्रमुखं प्रमाणमज्ञानरूपं घटते कथंचित् ।।
न मुख्यतो यत्करणत्वमस्य वस्तुप्रमायां घटते कथंचित् ॥३७॥ २० अत्राहुनैयायिकाः यदभाषि सन्निकर्षादिर्न प्रमाणव्यवहारभागित्यादि
तत्रादिशब्दसूचितकारकसाकल्यादीनां प्रमाणसन्निकर्षादिर्न प्रमाणव्यवहारभागिति नैयायि- व्यवहारपराकरणे वयमपि सहायाः । सन्निकर्षस्य - कमतपरीक्षणम् । तु तत्पराकरण न क्षमामहे । स्वव्यवसितावसाधकतमत्वसिद्धावप्यर्थव्यवसितावसाधकतमत्वस्य हेत्वेकदेशस्यासिद्धत्वात् ।
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परि. १ स्. ६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः यत्पुनरनुमानं तत्सिद्धावभ्यधायि । सन्निकर्षादिरनिश्चिती करणं न भवति स्वनिश्चितावकरणत्वादिति । तत्रार्थनिश्चितेस्तावदावाभ्यामविवादेन फलत्वं प्रतिपन्नम् । तच्च सन्निकर्षस्य करणतां समस्तप्रतिपत्तसाक्षिक समर्पयतीति कथमकितवः कश्चित्तस्य तदपलापं विदधीत । तथाहि न फलं किञ्चित्करणमन्तरेणोत्पद्यमानमीक्ष्यते । न चात्र प्रमाता प्रमेयं वा ५ करणतया कल्पनीयम् । कर्तृकर्मतया तयोर्व्यवस्थितत्वात् । तस्माद्दारुद्वैधीभावस्वभावे फले परश्वधादिवदनिश्चितिरूपे फले सन्निकर्ष एव करणम् । तस्यैव तत्र घटमानत्वादित्यनुमानबाधितः पक्षः । हेतोश्चात्र प्रदीपेन व्यभिचारः । तस्य स्वनिश्चितावकरणस्याप्यर्थनिश्चितौ करणत्वात् । तथा चाहुलौकिकाः प्रदीपेन पन्थानं पश्याम १० इति । एवं च सन्निकर्षस्य करणत्वप्रतिषेधानुपपत्त्यार्थव्यवसितावसाधकतमत्वस्यासिद्धेर्लब्धावकाशमिदम् । सन्निकर्षः प्रमाणमर्थप्रमितौ साधकतमत्वाद्यत्तु नैवं तन्नैवं यथा सम्प्रतिपन्नम् । न च नार्थप्रमितौ साधकतमः सन्निकर्षः। तस्मात्तथा । ननु सन्निकर्षप्रसिद्धौ किं प्रमाणं यतो नाश्रयासिद्धता हेतोः स्यादिति चेत् । उच्यते । स्पर्शनादीन्द्रि- १५ येषु सन्निकर्षस्तावदविवादसिद्धस्तेषामसन्निकृष्टानुपलम्भकत्वात् । लोचन एव त्वावयोर्विप्रतिप्रत्तिः । सापि बाह्येन्द्रियवादिना साधनेन स्पर्शनादिवचक्षुषः प्राप्यकारित्वसिद्धया निरस्तावकाशैवेति सिद्धः सन्निकर्षः । स चैवं प्रमाणप्रतिपन्नस्वरूपः सन्निकर्षः षोढा । संयोगः, संयुक्तसमवायः, संयुक्तसमवेतसमवायः, समवायः, समवेतसमवायः, २० उक्तसम्बन्धसम्बद्धवस्तुविशेषणविशेष्यभावश्चेति । तत्र द्रव्यं चक्षुषा त्वगिन्द्रियेण च संयोगात् गृह्यते, द्रव्यसमवेतानि गुणकर्मसामान्यानि संयुक्तसमवायात् गृह्यते, गुणकर्मसमवेतानि सामान्यानि संयुक्तसमबेतसमवायादवबुद्धयन्ते, चक्षुषा हि संयुक्तं द्रव्यं तत्र समवेतानि गुणकर्माणि गुणकर्मसु च समवेतानि तत्सामान्यानीति समवायाच्छब्दः २५ परिच्छिद्यते,विशिष्टादृष्टाधिष्ठितः कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नो व्योमद्रव्यैकदेशो
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. १ सू. ६ हि श्रोत्रम्, तत्र च समवेतः शब्दः अम्बरगुणः शब्द इति सिद्धान्तात्। शब्दत्वसामान्य समवेतसमवायादवसीयते श्रोत्राकाशसमवेते शब्दे तद्धि समवेतमिति । उक्तसम्बन्धसम्बद्धवस्तुविशेषणविशेष्यभावादभावः समवायश्च निश्चीयते । तद्यथा । संयुक्तविशेषणत्वादभावग्रहणमफलवती शाखेति । चक्षुषा हि संयुक्ता शाखा तस्या विशेषणं फलाभावः । एवमधदं भूतलमित्यादीन्यप्यत्रोदाहरणानि द्रष्टव्यानि संयुक्तविशेष्यत्वादिह शाखायां फलाभाव इति । संयुक्तसमवेतविशेषणत्वात् पटगतः शुक्लगुणो रूपशून्य इति संयुक्तसमवेतविशेष्यत्वादिह
शुक्लगुणे रूपाभाव इति । संयुक्तसमवेतसमवेतविशेषणत्वात् गुणगतं १. सामान्यं सामान्यान्तरशून्यमिति । संयुक्तसमवेतसमवेतविशेष्यत्वादिह
गुणगतसामान्ये सामान्यान्तराभाव इति । समवेतविशेषणत्वात् गुणशून्योऽयं शब्द इति । समवेतविशेष्यत्वादिह शब्दे गुणाभाव इति । समवेतसमवेतविशेषणत्वाच्छब्दत्वादिसामान्य सामान्यान्तरशून्यमिति । समवेतसमवेतविशेष्यत्वादिह शब्दत्वादिसामान्ये सामान्यान्तराभाव इति। एवं समवायस्यापि यथासम्भवमुदाहरणानि दयन्ते । तद्यथा संयुक्तविशेष्यत्वात् समवायस्य ग्रहणम् । इह पटे रूपसमवाय इति । संयुक्तविशेषणत्वाद्रूपसमवायवानयं पट इति । संयुक्तसमवेतविशेष्यत्वादिह गुणे जातिसमवाय इति । संयुक्तसमवेतविशेषणत्वाजातिसमवायवानयं
गुण इति । संयुक्तसमवेतसमवेते गुणगतजातिविशेषेऽधिकरणभूते २० वस्त्वन्तरसमवायाभावात् संयुक्तसमवेतसमवेतविशेष्यत्वविशेषण
त्वाभ्यां समवायस्य ग्रह्णोदाहरणे न सम्भवतः । समवेतविशेष्यत्वादिह शब्दे शब्दत्वादिजातिसमवाय इति । समवेतविशेषणत्वादिह जातिसमवायवानयं शब्द इति । समवेतसमवेते
शब्दत्वादिसामान्ये वस्त्वन्तरसमवायस्याभावात् समवेतसमवेतविशेष्य२५ विशेषणनिबन्धनं समवायग्रहणं नास्ति तस्मादितः परमिहापि
२ ' एवं ' इति नास्ति प. पुस्तके।
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परि. १.सू. ६ स्याद्वादरत्नाकरसहितः श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्ध उदाहर्तुं न शक्यते । ततः समचायस्थ क्वचिदेवोदाहरणं सम्भवति नामावस्येव पंचस्वपि सम्बन्धेष्विति घोढा सन्निकर्षः । तत्र बाह्ये विषये रूपादौ चतुष्टयसन्निकर्षाज्ज्ञानं समुत्पद्यते आत्मा मनसा युज्यते मन इन्द्रियेण इद्रियमर्थेनेति । सुखादौ तु त्रयसन्निकर्षाज्ज्ञानमुत्पद्यते तत्र चक्षुरादिव्यापाराभावात् । आत्मा मनसा ५ संयुज्यते मनोलक्षणं चेन्द्रियं सुखादिना संयुक्तसमवायेन सम्बध्यते मनसा संयुक्त आत्मा तत्र समवेत सुखादिकमिति । आत्मनि तु योगिनां द्वयोरात्ममनसोरेव संयोगादुत्पद्यते ज्ञानमिति । सोऽयं प्रत्यक्षज्ञानं प्रति सन्निकर्षः प्रोक्तः । अनुमानादिकं तु प्रति द्वयोरेवात्ममनसोः सन्निकर्ष इति । ..तदित्थमर्थप्रमितिप्रसिद्धये ने सन्निकर्षः करणं न युज्यते ॥ तत्र प्रमाणत्वममुष्य मन्यतां विमुच्य मात्सर्यमकार्यचेष्टितम् ॥३८॥ इत्यक्षपादानुगतैः प्रमाणमाख्यायि यः षड्विधसन्निकर्षः ॥ स्याद्वादसान्द्रामृतपानशौण्डैः संयुज्यते नैव विचार्यमाणः ॥ ३९॥
तथाहि यत्तावदर्थव्यवसितावसाधकतमत्वादिति हेत्वेकदेशासिद्धता- १५ विध्वंसकानुमानेन तस्माद्दारुद्वैधीभावस्वभावे फले परश्वधादिवदर्थनिश्चितिरूपे फले सन्निकर्ष एव करणं तस्यैव तत्र घटमानत्वादित्यवादि तन्नावदातम् । तस्यैवेत्यादिहेतोरसिद्धत्वात् । सन्निकर्षातिरिक्तस्य भावेन्द्रियविशेषस्यैव करणत्वेन तत्र घटमानत्वात् । इह खलुभयं भावे. न्द्रियं लब्धिरुपयोगश्च, 'लबध्युपयोगी भावन्द्रियम्' इति वचनात् । २० तत्रार्थग्रहणशक्तिर्लब्धिः । तन्निमित्त आत्मव्यापारपरिणामविशेष उपयोगः । तच्च द्वयमप्यात्मनः फले योग्यत्वाध्याप्रियमाणत्वाच्च प्रसिद्धम् । तदुक्तम् ।
'भावन्द्रियाणि लब्ध्यात्मोपयोगात्मानि जानते ।
स्वार्थसंविदि योग्यत्वाद्वयापृतत्वाच संविदः ॥१॥ १ वंशस्थम् ' २ '' इति प. पुस्तके पाठः । ३ तत्त्वार्थसू. २-१८. ४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक २-१८ श्लो. १३
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १. सू. ६. संविद इति संविदात्मा तस्य । तथाहि लब्धिस्वभाव भावेन्द्रिय स्वार्थसंविदि योग्यत्वादात्मनः सतः प्रतिपद्यते । नहि तत्रायोग्यस्यात्मनस्तदुत्पत्ति राकाशवत् । स्वार्थसंविद्योग्यतैव च लब्धिः । एतच्चेन्द्रियमत्रानोपयिकमुपयोगरूपस्यैव तस्य प्रस्तुतोपयोगित्वात्तस्यैव प्रमितौ साधकतमत्वात् । तत्पुनरात्मनो व्यापारमन्तरेण स्वार्थसंविदोऽनुपपत्तेः प्रतीयते । नएव्यापृत आत्मा स्पर्शादिप्रकाशको भवितुमर्हति । सुषुप्तस्यापि तत्प्रसङ्गात् । नच सुषुप्तावस्थायां स्पर्शनादीन्द्रियसन्निकर्षाभावादेव न तत्प्रसङ्ग इति जल्पनीयम् । अतिमहणतूलिकाताम्बूलमालतीमांसलामोदसुन्दरगेयशब्दादिसन्निकर्षस्य स्पर्शनादीन्द्रियाणां तदानीमपि भावात् । नापि मनसस्तदानीमिन्द्रियसन्निकर्षाभावात्तदप्रसङ्गः । त्वदुक्तस्याणुपरिमाणस्य मनसो निरासेनाशेषात्मप्रदेशव्यापिनः पौद्गलिकस्य तस्य व्यवस्थापयिष्यमाणत्वादिन्द्रियैः संयोगसिद्धेः। न चात्मनो व्यापकत्वेन व्यापाराभावः । परिस्पन्दात्मकस्यैव तस्य ततस्तत्राभावसिद्धेः । ज्ञानरूपस्य तु तस्य तद्धि
लक्षणत्वात् । न च हेतुरप्यत्र सिद्धः । आत्मनि व्यापकत्वस्य व्याह१५ तत्वेन निर्देक्ष्यमाणत्वात् । यदि वा आत्मा कंचन व्यापार विनैव
प्रमितिप्रारंभप्रागल्भ्यमभ्यस्येत् तर्हि कारकान्तरमपि निर्व्यापारमेव स्वस्वकार्योपार्जनचर्यतामाबिभ्रीत । तथा च यावत्सत्त्वं कुठारादिच्छेदनं कुर्यात् ततोऽस्ति कश्चिदात्मनः प्रमितो व्यापारः । इतोऽप्यस्ति यदसनिधाने कारकान्तरसन्निधानेऽपि यन्नोत्पद्यते तत्तत्करणम् । यथा परश्वधासन्निधाने ब्रश्चनादिसन्निधाने दारुदारणमनुत्पद्यमानं परश्वधकरणकम् । नोत्पद्यते च प्रस्तुतेन्द्रियासन्निधानेऽर्थसंवेदनमुपकरणसद्भावेऽपि । न चात्र हेतोरसिद्धिः । अतिकर्कशतर्कशास्त्रपरामर्शकतानस्य प्रमातुः पुरःपरिचलदचलशिखरानुकारिकुञ्जरकुञ्जरेणन्द्रियसन्निकर्षसम्भवेऽपि प्रस्तुतेन्द्रियासन्निधाने तद्गोचरपरिच्छेदानुत्पादात् ।
१ 'वर्यताम् ' इति म. पुस्तके पाठः । २ 'अपि' इत्यधिक प. म.पुस्तकयोः । ३ 'कुञ्जर' इति नास्ति प. पुस्तके ।
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परि. १ सू. ६]
स्याद्वाद रत्नाकरसहित :
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इद्रियमनःसन्निकर्षोऽपि च तत्र पूर्ववत् प्रकटनीयः । नन्वेवमप्युपयोग - स्य त्वन्मतेन कर्तुरमेदात् स एव कर्त्ता तदेव करणमित्यायातमेतच्च विरुद्धमित्यलमेनं दुःशिक्षितक्षत्रियपुत्रमिव स्वजनकविरोधदायिनं स्वीकृत्येति चेत् तदनिपुणम् । परिणामपरिणामिनोर्भेदविवक्षायां तदभिधाने विरोधासम्भवात् । ज्ञानपरिणामो हि करणमात्मनः कर्तुः कथञ्चिद्भिन्नम् | अन्यथा स्वप्रज्ञयैव शास्त्रसंदर्भगर्भमेनमवैमीति विभक्तकर्तृकरणनिर्देशानुपपत्तेः ।
स्यान्मतं ज्ञानमात्मनः सर्वथाभिन्नं गुणत्वात्सुखादिवदिति चेत् तदयुक्तम् । हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । ज्ञानात्मनोः कथञ्चिद्भेदस्या- प्रत्यक्षतो ज्ञानकरणस्यात्मनः कर्तुः कथञ्चिद- १० भेदस्य च सिद्धिः। भिन्नस्य प्रतीतेः संबद्धत्वात् । तत्र तथातावत्संयोगः । सम्बन्धः । तस्य
गुणरूपे ज्ञाने सम्भवाभावात् । कोपाटोपसंघटमानमेषयुग्मेऽप्यसौ
प्रतीतिरिति चेत् ननु न गुणत्वेन द्रव्यमात्रवृत्तितया संयोगाच्च तथाप्रतीतिस्वीकृतौ
२०
स्यात् । समवायः पुनः कथञ्चित्तादात्म्यादपरः कश्चिन्नास्त्येव । १५ तथाहि सौ समवायिभ्य: सर्वथा भिन्नः । तर्हि कथं तेषां सम्बन्धिनामयं संबन्ध इति व्यपदिश्येत । सम्बन्धान्तराचेत् तदपि यदि `सम्बन्धिभ्यः सर्वथा पृथक् तर्हि तस्यापि तत्सम्बन्धित्वे किं नाम - -निमित्तम् । यदि सम्बन्धान्तरमेव ध्रुवीथाः तर्हि कतमामातिथेयीमनबस्थादौस्थ्यातिथये समुपस्थिताय कुर्वीथाः । सुदूरमपि गत्वा यदि सम्बन्धसम्बन्धिनोः कथञ्चिदैक्यमाख्यायते तदा समवायसमवायिनोरपि तदिष्यताम् । तथाच सिद्धं ज्ञानात्मनोरपि कथञ्चित्तादात्म्यम् | समवायिभ्यामभिन्नस्य समवायस्यैव तत्त्वादिति ज्ञानात्मनोः कथञ्चिदभेदप्रतीतेः कालात्ययापदिष्टो हेतुः । दृष्टान्तश्च साध्यविकलः
१ ' तस्य ' इत्यधिकं प. पुस्तके । २ ' तत्रापौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वाद्दुःखवदिति' साध्यधर्मविकलदृष्टान्तः (प्र. लो. ६-६० )
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प्रमामनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. ६ सुखादेरप्यात्मनः कथञ्चिदभेदसिद्धेः । ततः सिद्धं ज्ञानं करणमात्मनः कथञ्चिद्भिन्नम् ।
ज्ञानस्याथ प्रमाणत्वे फलस्व कस्य कथ्यते । स्वार्थसवित्तिरस्त्येव ननु किं न विलोक्यते ॥ ४० ॥ स्यात्फलं स्वार्थसंवित्तिर्यदि नाम तदा कथम् । स्वपरव्यवसायित्वं प्रमाणे घटनामियात् ॥ ४१॥ . उच्यते-- स्यादभेदात्प्रमाणस्य स्वार्थव्यवसितेः फलात् ॥ नैव ते सर्वथा कश्चिद्दषणक्षण ईक्ष्यते ॥ ४२ ॥ आश्चर्यमाश्चर्यमहो तदेतद्विलोक्यतां शुक्लपटाङ्कितानाम् !! ज्ञानं यदेकं नितरां विरुद्धप्रमाप्रमाणत्वपदं वदन्ति ॥ १३ ॥
अनोच्यतेआश्चर्यमाश्चर्यमहो तदेतद्विलोक्यतां भस्मकणाकितानाम् कथञ्चिदेकत्र मतौ वदन्ति प्रमाप्रमाणत्वविरुद्धतां यत् ॥४४॥ यदि हि तदेकान्तेनैकरूपमुपेयेमहि, यदि च येनैव रूपेण प्रमाण तेनैव
____वा फलं येनैव फलं तेनैव वा प्रमाणमाचक्षीमहि, ज्ञानात्मनोभ॑दस्याभेदस्य
वा एकान्तस्य तदा स्यादेव विरोधसम्बन्धदुर्गन्धता । न चैवम् खीकरणमसङ्गतम्। तस्यानैकान्तात्मकत्वेनैव कक्षीकारात् । आत्माऽ. नेन जानातीति साधकतमस्वभावेन ज्ञाने प्रमाणत्वव्यपदेशाज्ज्ञतिक्रियारूपतया तु फलत्वाभिधानस्य स्वीकाराच्च । यथा प्रदीपः प्रकाशात्मना प्रकाशयतीत्यत्र साधकतमः प्रकाशात्मा करणं क्रियात्मा फलमिति । सप्रपञ्चं चैतत् पुरस्तात् प्रपञ्चयिष्यते । तदित्थमुपयोगात्मकं भावेन्द्रियमेव प्रमितौ साधकतमत्वेन घटते न सन्निकर्षः ।
१५
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कषांचिन्मतस्य खण्डनम् ।
परि. १ सू. ६ 1 स्याहादरत्नाकरसहितः
केचित्तु 'सतोऽर्थग्रहणाकारा शक्तिनिमिहात्मनः। करणत्वे लब्धीन्द्रियं प्रमाणमिति विनिर्दिष्टा न विरुद्धा कथञ्चन ॥१॥ इति
. परमार्थतो भावेन्द्रियस्यैवार्थग्रहणशक्तिलक्षणस्य साधकतमतया करणताध्यवसायादिति च ब्रुवाणा लब्धीन्द्रियं प्रमाणं समगिरन्त, तन्न समगस्त । उपयोगात्मना करणेन लब्धेः फले व्यव- ५ धानात् । सन्निकर्षादिवदुपचारत एव. प्रमाणतोपपत्तेः ।
किश्वेयं यदि ज्ञानशक्तिः प्रत्यक्षा कक्षीक्रियते तदा शक्तीनां परोक्षत्वसमर्थनमनवसरमेव जैनानां भवेत् । अथाप्रत्यक्षासौ, तदा तस्याः करणज्ञानत्वे प्रभाकरमतापत्तिः। तत्र करणज्ञानस्य परोक्षत्वव्यवस्थितेः फलज्ञानस्य च प्रत्यक्षतोपगमात् । ततः प्रत्यक्ष करणमिच्छता न १० तच्छक्तिरूपमेषितव्यं स्याद्वादिना । अथ न जैनानामेकान्तेन किञ्चित् प्रत्यक्षमप्रत्यक्षं वा । तदिह द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षा ज्ञानशक्तिः । पर्यायार्थतस्तु परोक्षा । अयमर्थः-स्वपरपरिच्छित्तिरूपात्फलात् कथञ्चिदपृथग्भूते आत्मनि परिच्छिन्ने तथाभूता तजननशक्तिरपि परिच्छिन्नैवेति । नन्वेवमात्मवर्तिनामतीतानागतवर्त्तमानपर्यायाणामशेषाणामपि द्रव्या- १५ र्थतः प्रत्यक्षत्वाद्यथा ज्ञान स्वसंविदितमेवं तेऽपि स्वसंविदिताः किं न स्युः । तथाच बौद्धान् प्रति सुखादीनां स्वसंविदितत्वप्रतिषेधप्रयासो निःसार एव स्यात् । तदिह यत् स्वयमात्मानं वेत्ति तत् स्वसंविदितमुच्यते । उपयोग एव च तादृशो न शक्तिः सुखादयश्च । शक्तिर्हि द्रव्याधिगमद्वारग्रहणा सुखादयः पुनरुपयोगाख्यपर्यायान्तरसमधि- २० गम्याः । किंञ्च यदि द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षत्वात् स्वसंविदिता ज्ञानशक्तिः। तदाऽहं घटज्ञानेन घटं जानामीति करणोल्लेखो न स्यात् । नहि कलशसमाकलनवेलायां द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षत्वेऽपि प्रतिक्षणपरिणामिनामसीतानागतानां च कुशलकंपालादीनामुल्लेखोऽस्ति । तत उपयोग एव साधकतमः प्रत्यक्षेऽपि प्रमा प्रतीत्यसिद्धः । तस्यैव तत्र घटमानत्वा-- २५ दिति । यदपि प्रदीपेन व्यमिचारोद्भावनमकारि सदप्यचारु । यतः
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. १. सू. ६०
प्रदीपस्य पदार्थपरिच्छित्तौ करणत्वं मुख्यत उपचारतो वा स्वीक्रियते । न तावन्मुख्यतः । प्रदीपस्य नयनमनोरूपमुख्यकरणसहकारितयोपचारत एव करणत्वव्यवहारात् । अथोपचारत एव करणत्वमस्येप्यते । नास्ति तर्हि व्यभिचारः । यथाह्यर्थपरिच्छित्तौ करणत्वमस्योपचारतः समस्ति तथा स्वपरिच्छित्तावपि तद्विद्यत एव । नयनादेरर्थसंवेदनमिव प्रदीपसंवेदनमप्युपजनयतः प्रदीपस्य सहकारित्वाविशेषेणार्थप्रकाशनवत् स्वप्रकाशनेऽपि करणतोपचारव्यवस्थितिः । नयनादिनाऽनेकान्त इत्यपि न कान्तम् । यतस्तेनापि द्रव्येन्द्रियरूपेण भावेन्द्रियरूपेण वाऽनेकान्तः स्यात् । न तावदाद्येन । तस्य भावेन्द्रियोपकरण१० रूपस्योपचारेणैव करणत्वात् । नापि द्वितीयेन तस्यापि लब्ध्यात्मन उपयोगात्मकभावकरणकारणत्वेन करणत्वव्यवहारात् । उपयोगात्मकस्य तु तस्यार्थपरिच्छित्ताविव स्वपरिच्छित्तावपि करणत्वसद्भावात् । न चैतादृशमिन्द्रियमसिद्धम् । अनन्तरमेव प्रसाधितत्वात् । ततो न नयनादीन्द्रियेणापि स्वनिश्चितावकरणत्वादिति हेतोरनेकान्तः । एवं १५ च सन्निकर्षे करणत्वप्रतिषेधस्य प्रतिषेदुमशक्यत्वात् स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य करणतयोपपादितत्वाच्च सन्निकर्षः प्रमाणमर्थप्रमितौ साधकतमत्वादित्यत्र हेतोरसिद्धिः सिद्धा भवति । अपि च यत्र प्रमात्रा व्यापारिते सत्यवश्यं कार्यमुपजायते तदन्तरेण तु नोपजायत एव तत्र साधकतममिति व्यपदिश्यते यथा च्छिदायां दात्रादि ।
५४
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न च नयननभः सन्निकर्षसद्भावेऽपि संवेदनं कदाचिदाकाशगोचरआकाशादौ नयनसंनि- मुन्मज्जति । ततः कथं सन्निकर्षः कचिदपि कर्षस्य॒ सत्त्वेऽपि प्रत्य- ज्ञाने साधकतमतया व्यपदिश्येत । न च क्षानुत्पत्तेर्न तस्य साधक. तमत्वमित्युपपादनम् । नभसि नयनसन्निकर्ष एव नास्तीति वक्तव्यम् । अन्यतर कर्मजस्य संयोगस्य तत्र सद्भावात् । अन्यथा समस्तमूर्त्तद्रव्य२५ संयोगाद्गगनसर्वगतत्वसाधनविरोधात् । अथाभिधीयते वियति विलो - चनसन्निकर्षस्य योग्यतावियोगान्न ज्ञानोत्पत्तिः । ननु किमिदं योग्य
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परि. १सू.६] : स्याद्वादरत्नाकरसहितः खानामधेयं तत्त्वमिष्टमायुष्मतः । शक्तिरिति चेत् सा तर्हि सहकारिसान्निध्यस्वरूपैवात्र स्वीकर्तव्या । स्वरूपशक्तेः सन्निकर्षे सत्त्वात् । तस्यां च वक्ष्यमाणकारकसाकल्यपक्षनिक्षिप्तसमस्तदोषानुषङ्गः । सहकारिसान्निध्यस्य कारकसाकल्यान्नाममात्रेण भिन्नत्वात् । किञ्च किमत्र द्रव्यं गुणः कर्म पदार्थधर्मः कश्चिदभावो वा सहकारितया कथ्येत । ५ द्रव्यं चेत् । व्यापकमव्यापकं वा । व्यापकं तावदात्मादि चक्षुरन्तरिक्षसन्निकर्षस्य सहकारि समस्त्येव । अव्यापकमपि तन्मनो नयनमालोको वा कलशचक्षुःसन्निकर्षस्येव तत्सन्निकर्षस्य सहकारि विद्यत एव । गुणोऽपि प्रमातृगतः प्रमेयगत इन्द्रियगतो वा तत्सहकारी स्यात् ।
यदि प्रमातृगतः सोऽपि धर्मविशेषोऽन्यो वा । १० गुणसहकारित्वपक्षस्य स __ खण्डनम् ।
धर्मविशेषस्तावद्विद्यत एव । न खलु गगननयन
मान स्वळ गगन
सन्निकर्षस्य धर्मविशेषेण सह विरोधो येन तत्सद्भावे धर्मविशेषस्यानुत्पादः प्रध्वंसो वा भवेत् । विरोधे वा कुम्भाधुपलम्भोऽपि न कदाचिदुत्पद्येत । विरोधिगगननयनसन्निकर्षस्य सदा सद्भावेन तदुत्पत्तिसहकारिणो धर्मविशेषस्यासम्भवात् । अथ गगनगोचरज्ञानोत्पादकेनैवधर्मविशेषेण व्योमनयनसन्निकर्षस्य विरोधो न पुनः कुम्भादिविषयविज्ञानोत्पादकेनेति वियद्गोचरस्यैवोपलम्भस्याभावो नतु कुम्भादिविषयस्येति । ननु कुत एतनिश्चितम् । नयनगगनसन्निकर्षसद्भावेऽपि गगनगोचरस्यैव ज्ञानस्यानुत्पत्तेरिति चेत् । मैवम् । किमियं तदुत्पादकधाविशेषाभावाद्वियद्विषयकविज्ञानस्यानुत्पत्तिरुताहो तस्य साधकत- २० मत्वाभावादिति ने तद्नुत्पत्तिः सन्दिग्धाऽनैकान्तिकत्वकलङ्कितत्वात् । अपरोऽपि प्रयत्नादिः प्रमातृगुणस्तत्सहकारी न नाम नास्ति । अथ प्रमेयगतो गुणः सन्निकर्षसहकारी स्वीक्रियते । नन्वसावपि समस्त्येव । . व्योमनयनसन्निकर्षे द्रव्यत्वेन व्योम्नो गुणसङ्गित्वात् । अथ न गुण इत्येव सहकारी किन्तु गुणविशेषः । स किं महत्त्वं रूपमुभयं वा । २५ -१'न' इति नास्ति म. प. पुस्तकयोः । २ 'तदनुत्पत्तेः' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः । ३ ' न नानाऽस्ति' इति प. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. ६ महत्त्वं तावयोनि परमप्रकर्षपर्यन्तप्राप्त सन्निकर्षसहकारि समस्त्येवेति सुतरां तदुपलब्धिः स्यात् । रूपमपि यत्र द्रव्ये समवेतं तस्यैबोपलब्धौ सन्निकर्षसहकारि स्यात्। तद्वर्तिनामन्येषामपि द्रव्यत्वादीनां वा । आद्यभेदे सामान्यादीनां कथं कदाचिदप्युपलब्धिः । तेषामद्रव्यखेन रूपसमवायासम्भवात् । यत्र द्रव्ये समवेतं रूपं तद्वर्तिनामन्येषामपि द्रव्यत्वादीनामुपलब्धौ सन्निकर्षसहकारि तदिति पक्षेऽपि कथं कापि रूपस्योपलम्भः । नहि तत्र रूपान्तरमस्ति । यत्तदुपलब्धौ सहकारि स्यात् । यावत् द्रव्यमाविसमानजातीयगुणद्वयस्य युगपदेकत्र त्वयानभ्युप
गमात् । न च तदेव रूपं स्वोपलब्धौ सहकारीति वक्तव्यम् । एवं १० विहायसोऽपि नयनसन्निकर्षे सहकारित्वप्रसङ्गेनोपलम्भो भवेत् । रूप
मपि हि रूपान्तरमन्तरेणैव स्वरूपमात्रेण स्वोपलब्धि विधत्ते । तच्चान्तरिक्षेऽप्यक्षुण्णमस्त्येव । किञ्च यदि रूपं तत्सहकारि कथन्तर्हि पार्थिवादिपरमाणौ रूपवत्यपि नोपलब्धिः । अथ महत्त्वं रूपं चेत्युभयमपि
तत्सहकारि न च परमाणौ तदस्ति । सत्यपि तत्र रूपमात्रेऽनुपचरिता१५ णुपरिमाणाधिकरणत्वेन महत्त्वशून्यत्वात् । तथा च सूत्रम् ।' महत्य
नेकद्रव्यवत्त्वाद्रूपाचोपलब्धिः ' इति । तदपि विचारासहम् । महतो रूपवतोऽपि सन्तप्तपयोवर्तिनस्तेजोवयविनः सत्यपीक्षणरश्मिसन्निकर्षेऽनुपलम्भात् । अथ न महत्त्वसहचरितं रूपमात्रमेव सन्निकर्षसह
कारि किन्तूद्भूतरूपं न च तन्नीवर्जिनि तेजसि समस्तीति कौत२० स्कुती तदुपलब्धिः । तदपि नोपपन्नम् । महत उद्भूतरूपस्य परिकरित.
नेत्रगोलकस्य तिमिरादिरोगावयविनो विद्यमानेऽपि नेत्ररश्मिसन्निकर्षेऽनुपलम्भात् । न च तत्र राश्मिसन्निकर्ष एव नास्तीति वक्तव्यम् । तेनासंयुक्तानां तेषां कुम्भादिभावप्रकाशनाय बहिनिःसरणासम्भवात् ।
न खलु स्वच्छसूर्यकान्तशिलासातघटितभित्त्या संसर्गमनासाद्य चक्षू२५ रश्मयस्तत्परभागभागिनो भावानवभासयन्ति । भित्त्यनवभासप्रसङ्गात् ।
१' सन्निकर्ष ' इत्यधिक प. भ. पुस्तकंयोः ।
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परि. १ सू. ६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः न च तिमिरे सति रश्मिप्रसरणमेव नास्तीति वाच्यम् । दूरासन्नसिमिरयोः सतोर्दूरासन्नवर्तिवस्तूपलम्भस्याभावप्रसक्तेः। तन्न प्रमेयगतोऽपि गुणः सन्निकर्षसहकारी । नापीन्द्रयगतः । तस्य कलशादिवद्वियत्यपि चक्षुःसन्निकर्षसहकारिणः सद्भावात् । तद्गुणस्य गगनेनाविरोधात्। विरोधे वा तस्य सदा सत्त्वेन लोचने कदाचिदपि गुणानुत्पत्त्या रूपमात्रो. ५ पलम्भस्याप्यभावात्कष्टमिदानीमस्तमितस्त्रैलोक्यां प्रकृतिप्रसन्नसज्जनवदनारविन्दावलोकनमहोत्सवः । तन्न गुणोऽपि तत्सहकारी। --- नापि कर्म । तस्योन्मीलनादेविलोचनगतस्य तत्रापि सम्भवात् ।
विषयगतस्य तूपलब्धि प्रत्यनङ्गत्वात् । अन्यथा कर्म पदार्थधर्मोऽभावो या सन्निकर्षसहकारीति स्थिरपदाथानां कथमुपलम्भो भवेत् । अथ पदार्थ- १० पक्षस्य खण्डनम् । धर्मः कश्चित्सहकारी सोऽपि न नाम नयनगगनसन्निकर्षे नास्तिः । प्रमातस्थस्य सन्तृप्तत्वादेरिन्द्रियस्थस्य नैर्मल्यालोकसहकृतत्वादेविद्यमानत्वात् । प्रमेयस्थोऽपि दृश्यस्वभावतारूपोऽसौ नमसि सम्भवत्येव । कथमन्यथा शूलिनस्तदुपलम्भः । विरूपाक्षापेक्षया दृश्यस्वभावताधर्मादपर एवायमस्मादृक्षापेक्षया । नचासौ नभसि विद्यत इति १५ कुतस्तदुपलब्धिरिति चेत् । तत्किं त्वादृशो यदि कदाचिद्योगित्वमाप. त्स्यते तदा न द्रक्ष्यत्यन्तरिक्षम् । तथात्वे वा त्वन्निदर्शनेनैव न विरूपाक्षादपरस्य कस्यचिद्विश्ववेदिता स्यादिति सर्वथा व्यर्थस्तदर्थः । प्राणिनां प्रयासः स्यात् । तस्मादस्त्येव त्वादृक्षाप्रेक्षयाप्यन्तरिक्षे दृश्यस्वभावता । नच योगिदशायामेवासौ तस्य समुत्प- २० द्यत इति वाच्यम् । पूर्वमपरस्वरूपत्वेन गगनस्यानित्यत्वप्रसङ्गात् । तन्न पदार्थधर्मोऽपि सहकारी नाप्यभावः । सोऽपि हि नयने काचकामलादिदोषाभावस्वभावो नभास तु स्तम्भकुम्भाधावरणाभावस्वभावः सन्निकर्षसहकारी समस्ति न च गगनगोचरसंवेदनोदयः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ६ अथ प्रमातृगतस्य प्रतिबन्धकापगमरूपस्य तस्य सन्निकर्षसहप्रतिबन्धकापगमः सन्नि-कारित्वं स्वीक्रियते तदपि न समगतम् । प्रमातुः ..कर्षसहकारीति मतस्य खलु प्रमामुपजनयतः सन्निकर्षः प्रतिबन्धका.
पगमश्च सहकारीत्येव युक्तम् । प्रतिबन्धकापगमः .५ सन्निकर्षसहकारीति तु कौतस्कुती, नीतिः । नहि दाह्यसंयोगसहकारिणः
कृपीटयोनेः स्फोटं घटयतो मणिमन्त्रादिप्रतिबन्धकाभावः संयोगस्य . सहकारीति वक्तुं युक्तम् । ननु प्रमोपजनने प्रमातृसहकारिणश्चक्षुषो व्याप्रियमाणस्याञ्जनादिकं चक्षुष एव सहकारि न प्रमातुरेवमत्रापि
प्रतिबन्धकापगमः सन्निकर्षस्थैव सचिवो भविष्यतीति चेत् मैवम् । १० अञ्जनादिकं हि चक्षुषस्तिमिराद्यभावस्वभावातिशयविशेष पोषयतीति
तत्रैव तस्य साचिव्यमुपपद्यते । प्रक्रान्ते तु नैवमुभयस्यापि प्रमा प्रत्येव व्यापारात् । तथापि सन्निकषमेव प्रतिप्रतिबन्धकापगमस्य सहकारित्वकल्पने तच्छिद्रेणैव विपर्ययपाटचरः प्रविशन्नशक्यः प्रतिरोद्भुम् ।
तथाच प्रतिवन्धकापगम एव साधकतम एवं स्यात् । नन्वेवं प्रति१५ बन्धकापगमस्य साधकतमत्वसिद्धौ बद्धकक्षाणां वः स एव.
प्रमाणं स्यात् तथा चोपयोगस्यादितः प्रमाणत्वसमर्थनमनायैव भवेदिति चेत् नैवम् । प्रतिबन्धकापगमे साधकतमत्वस्य प्रतिबन्धिन्यायेनैवाभिधानात् । यदि प्रमातृसहकारितायामुभयोरविशि
ष्टायामपि सन्निकर्षस्यैव साधकतमत्वमिष्यते तदा प्रतिबन्धकापगमस्यैव २० किं न स्यादिति । तत्त्वतस्तु यत्फलं प्रत्यत्यन्ताव्यवहितव्यापार
तदेव साधकं साधकतमम् । अत एव च प्रमाणम् । तच्च नोपयोगादपरमुपपद्यते । अयं चोपयोगः स्वपरप्रमितिरूपस्तस्यां एव व्यापारांशमाश्रित्य प्रमाणताव्यवहारादिति ज्ञानमेव प्रमाणम् ।प्रमाणभूतस्य ज्ञानस्य हेतुत्वात् सन्निकर्षस्यापि प्रामाण्यं प्रतिजानीमह इति चेत् ।
१.प्रमातुः खलु' इत्यस्य स्थाने ' तस्य तु' इति म. पुस्तके पाठः । २ प्रतिप्रश्नेन समाधानं यत्र क्रियते तत्र प्रतिबन्धिन्यायोऽवतरति ।
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परिः । सू.६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः । किमपि कौतुकमेतदहो जनाः शृणुत यूयममुष्य मनस्विनः । . कवलितोत्कटहालहलोऽपि सन्नवसुधारसमुद्रितीह यत् ॥ ४५ ॥ प्रामाण्यं मुख्यया वृत्त्या ज्ञानस्थैव सुसंगतम् ।। गोण्या तु सन्निकर्षस्य को हि धीमान्न मन्यते ॥ ४६॥ तस्मादवस्थितमिदं नियतमसिद्धया कटाक्षितो हेतुः । अर्थप्रमितावित्यादिलक्षणः पूर्वमुक्तो यः ॥ ४७ ॥
अगतिकगतिनीत्या यस्तु हेतोरसिद्धा
दपि वदति विशुद्धामत्र साध्यस्य सिद्धिम् । स खलु गलितबुद्धिर्वन्ध्यसीमन्तिनीतः
__ स्पृहयति भुवनानां भूषणं पुत्ररत्नम् ॥ ४८ ॥ -- १० यत्तु सन्निकर्षप्रसिद्धौ बाह्येन्द्रियत्वादिनेत्यादि गदितम् । तच्चक्षुः
प्राप्यकारित्वपराकरणप्रस्तावे सविस्तरमपाकनैयायिकाभिमतसन्निकर्ष
कष- रिष्यते । यदपि प्रपञ्चतः सन्निकर्षषट्कघोषणषट्कस्य खण्डनम् ।
तदापि स्वसिद्धान्तश्रद्धालुताप्रसूतप्रक्रियामात्रम् । तथाप्राप्यकारित्वेन चक्षुषः समर्थयिष्यमाणत्वान्न १५ कुम्भादिना संयोगः सम्भवति । तदभावान्न संयुक्तसमवायादिः । यदि च संयुक्तसमवायाच्चक्षुषा रूपादि परिच्छिद्यते । तर्हि तदविशेषान्नभासि शब्दः, सहकारफलादौ रसादिः, सहस्रदीधितौ कर्म च तेन परिच्छिद्येत । संयुक्तसमवेतसमवायाच्च रूपत्व इव रसत्वादावपि चाक्षुषज्ञानमुपजायेत । समवायाच्च श्रवणेन्द्रियस्य ध्वनाविव व्योम्नो महा- २० परिमाणादिगुणेऽपि । समवेतसमवायात्तु शब्दत्व इव महापरिमाणत्वादिसामान्यसमूहेऽपि प्रमितिः समुत्पद्येत । न्यायस्य समानत्वात् । अथ योग्यतामाहात्म्यात्प्रतिनियत एव वस्तुनि नयनादीन्द्रियाणां संवेदनमुन्मीलति तेन नातिप्रसङ्ग इति निगद्यते। तर्हि धीमन् योग्यतामेव सर्वत्र नियामिकामङ्गीकुरु । किमनया प्रतिपदं विचारतो विशीर्यमाणया सन्निकर्ष- २५ कथाकथया । यस्तूक्तसम्बन्धसम्बद्धवस्तुविशेषणविशेष्यभावाभिधानः
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ६ षष्ठः सन्निकर्षः । सोऽपि संयोगादिसम्बन्धान्तरनिराकरणादेव निरस्तः । न हि संयोगसमवाययोरन्यतरेण सम्बन्धेनासम्बद्धयोर्वस्तुनोर्मलयहिमालयशैलयोरिव स सङ्गच्छते । यदप्यसन्निकृष्टस्य ग्रहणे सर्वस्य सर्व
त्रार्थे ज्ञानमुत्पद्यतेति नैयायिकैरुदनीवमुद्गीर्यते । तदप्येतेन प्रक्षिप्तम् । ..५ असन्निकृष्टस्य योग्यस्यैव ग्रहणाभ्युपगमात् । कथमन्यथा सन्निकृष्टेऽपि
सर्वत्रार्थे ज्ञानं नोत्पद्येत । एवं च सति यस्मिन् सत्यपि यन्नोपजायते न तत्तत्करणम् । यथा सत्यपि शालिबीजेऽनुपजायमानः कोद्रवाङ्कुरः । सत्यपि सन्निकर्षे नोपजायते चार्थप्रमितिरितीदमनवयं सन्निकर्षप्रामाण्य
बाधाविधायि साधनमवतरति । ततस्तत्र बाह्ये विषये रूपादौ चतु१० ष्टयसन्निकर्षाज्ज्ञानमुत्पद्यते इत्याद्यपि व्योमकमलिनीकुसुमसुकुमारता
श्लाघां नातिशेते।
किञ्च
यदि निगदसि विद्वन्मानतां सन्निकर्षे
कथय कथामिदानीमस्तु सर्वज्ञवार्ता । असति न खलु तीतोनागते वस्तुजाते
_प्रमितिजननहेतुः सन्निकर्षः समस्ति ।। ४९ ॥ अथो भवेजन्म यदैव यस्य संवेदनं तस्य तदैव च स्यात् । इत्थं कथं हन्त मृगाङ्कमौलेः सर्वज्ञता कल्पशतैरपि स्यात् ॥ ५० ॥
वर्तमानविषयानथ सर्वान् वेत्ति विश्वविदुरत्वमतश्चेत् । २० नैव भाविविषयाणि वचांसि स्युः प्रमाणमिह तस्य तदानीम् ॥५१ ॥
. ततश्च तदुपदेशवशेन विशंकिताः कथय कोविद भाविफलार्थिनः । कचन कर्मणि किं कलितोद्यमाः स्युरिति तस्य भत्कथमाप्तता ॥५२॥ ....१ 'कारणम् ' इति भ. पुस्तके पाठः । २ 'तीतानागते' शब्देऽकारलोपे प्रमाणे मृग्यम् । 'वष्टि भागुरिरलोपमवाप्योरुपसर्गयोः ।' इति भागुरिमलेनावाप्योरेवाकारलोपस्यानुशासनादतीत्युपसर्गगताकारलोपस्याननुशासनाच्च । कदाचिच्छन्दोमङ्गमियाकारलोप आहतः स्यात् ।
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परि. १ सू. ६ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
अर्थ वेदनमिप्यतेऽस्य नित्यं न ततो दूषणमम्बरप्रसङ्गः । कुरु मैक्मलीकचापलाकि नित्यैकान्तवि कुट्टनात्पुरस्तात् ॥ ५३ ॥ व्याप्तिस्तथानुमितिहेतुरियं बुधानां दिग्देशकालनियमेन विनाऽप्रसिद्धा ।
तस्याश्च न ग्रहणकारणमस्य किञ्चित् नैयायिकस्य कृपणस्य विलोकयामः ॥ ५४ ॥
तथाहि
इन्द्रियाधीन मध्यक्ष मुत्पद्यते सन्निकृष्टे यथागोचरे जन्मिनाम् । मानसाध्यक्षमप्येवमेवेत्यतस्तेन नैवाविनाभावसंवेदनम् ॥ ५५ ॥
इति
१०
यदपि प्रभाकरमतमाविष्कुर्वन् शालिकः प्रमाणपरायणे । ' मानत्वे संविदो बाह्यहानादानादिकं फलम् ।। प्रभाकरानुसारिशालिकमतखण्डनम् । ज्ञानस्य तु फलं सैव व्यवहारोपयोगिनी ॥ १ ॥ ' इति कारिकां विवृण्वन् ' यदा मितिर्मानमिति भावसाधनं मानमाश्रीयते । तदा संविदेव प्रमाणम् । तस्याश्च व्यवहारानुगुण- १५ स्वभावत्वाद्धानादानोपेक्षाः फलम् । मीयते अनेनेति तु करणसाधने मानशब्दे आत्मनः सन्निकर्षान्मनोज्ञानस्य ज्ञायते ज्ञप्तिर्जन्यतेऽनेनेति व्युत्पत्तिबलात्प्रमाणत्वे तंडलभाविनी फलसंविदेव बाह्यव्यवहारोपयोगिनी सती ' इति प्राह । यदपि च ।
' आपेक्षिक च करणं - मन इन्द्रियमेव वा ॥ तदर्थसन्निकर्षो वा मानं चेत्पूर्वकं फलम् ॥ १ ॥'
इति कारिकां व्याख्यायन् ' यदा तु साधकतमस्य करणत्वात्तमम्प्रत्ययार्थस्यवातिशयस्य बाह्यापेक्षत्वादालोकाद्यपेक्षं मन इन्द्रियमेव वा तस्य वा विषयसन्निकर्षस्तस्य चात्मनः
१ मालभारिणी । २ अत्र छन्दोभङ्गो दृश्यते तच लेखकप्रमादादिति मन्य । अतः 'नियतैकान्त' इति युक्तं विभावयामि । ३ प्र. पं. प्र. ५,
.प. १ पृ. ६४ प. १
६१
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परिः १. सू. ६ सन्निकर्षः प्रमाणम् । तदापि संविदेव फलम् । तदर्थं प्रवृत्तत्वात् साधनानाम् ' इत्याह तत्रात्ममनःसन्निकर्षस्येन्द्रियविषयसन्नि. कर्षस्येन्द्रियमनःसन्निकर्षस्य वा प्रामाण्यमेतेनैव सन्निकर्षप्रामाण्यपराकर
णेन प्रत्यादिष्टम् । यच्च मनस इन्द्रियस्य वा प्रामाण्यमुक्तम् । तदपि पूर्वमेव "५ वाचस्पतिमपहस्तयद्भिहें तुमात्रोक्तावपि यः साक्षादुपलब्धौ हेतुरिन्द्रि
यादिः स एव चेत् प्रमाणतयाभिप्रेतः सूक्ष्मदर्शिनोऽस्य तदा स्वपरव्यवसायिज्ञानमेव तथाभ्युपगन्तुमुचितमित्यादिना दत्तनिर्वचनम् । यदपि यदा मितिर्मानमिति भावसाधनं मानमाश्रीयते तदप्यस्य विशे
षोत्प्रेक्षणैकबद्धकक्षस्याप्यत्यन्तमार्जवम् । प्रमितौ साधकतमत्वेन हि प्राप्त३० प्रमाणाभिख्ये प्रमाणे विप्रतिपत्तेस्तस्यैव स्वरूपं प्ररूपणीयं प्रामाणिकेन ।
तत्साध्यायास्तु प्रमितिरूपायाः क्रियायाः प्रामाण्यमुपदिश्यमानं कथं सङ्गच्छेत । कथं वा प्रमितिस्वरूपफलरूपां क्रियामेव प्रमाणत्वेन प्रतिपाद्य तस्या अपि हानोपादानोपेक्षारूपफलाभिधानं साधीयः ! हानोपादानोपेक्षासु प्रमितेः साधकतमत्वाच्चेत् तर्हि त्यक्तमिदानी मितिर्मानमिति भावसाधनो मानशब्द इति । मितेरपि हानादौ फले साधकतमतया करणत्वेन मानशब्दवाच्यत्वाभ्युपगमात् । एवमभ्युपगमे च न काचिदावयोर्विप्रतिपत्तिः । अस्माभिरपि स्वपरव्यवसायिनः संवेदनस्य हानादिफलसाधकस्य प्रमाणतया स्वीकृतत्वादिति ।
सन्निकर्षस्य नैवातश्चिन्त्यमानं कथञ्चन । गौणी वृत्तिं परित्यज्य प्रामाण्यमुपपद्यते ॥ ५६ ॥ सुशिक्षितास्तु प्रतिपादयन्ति नैयायिकाः स्वस्य रहस्यमेतत् ।
प्रमासमुत्पादककारकाणां साकल्यमेवेह समस्तु मानम् ॥५७॥ तथा च सन्देह व्यभिचारशून्यवस्तूपलब्धिहेतुर्बोधाबोधस्वभावा साम
येव प्रमाणम् । सामग्रीति कारकसाकल्यमिति २५ सामग्रीप्रमाणमिति
चैक एवार्थः । प्रामाण्यसिद्धिश्चास्याः सामग्री प्रमा
के णमर्थप्रमितौ साधकतमत्वात् । यत्तु नैवं न तदेवं यथोभयाभिमतम् ।
व्यव
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परि. १ सू. ६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः न चार्थप्रमितावसाधकतमा सामग्री ततः प्रमाणमित्यतोऽनुमानात् । न चात्र हेतोरसिद्धिः। फलोत्पादाविनाभाविस्वभावाव्यभिचारित्वं हि साधकतमत्वम् । तच्च सामग्र्यतर्गतस्य न कस्यचिदेकस्य वक्तुं शक्यते । सामग्र्यास्तु सुवचम् । सन्निहिता चेत्सामग्री सम्पन्नमेव फलमिति सैव साधकतमा। ननु प्रमामुपजनयतो मुख्यस्य प्रमातुः प्रमाविषयीभूतस्य मुख्यस्य ५ प्रमेयस्य च फलोत्पादाविनाभाविस्वभावमव्यभिचारित्वलक्षणसाधकतम- . त्वमस्त्येव । प्रमितिसम्बन्धमन्तरेण तयोस्तथात्वाभावात् । प्रमिणोतीति हि प्रमाता भवति । प्रमीयत इति च प्रमेयम् । न चानयोः प्रमाणतोपगता त्वयेत्याभ्यां व्यभिचारः साधनस्यति चेत् । न व्यभिचारः । साकल्यप्रसादलब्धप्रमितिसम्बन्धनिबन्धनो हि प्रमातृप्रमेयधर्माख्यस्वरूपलाभः । साक- १० ल्यापाथे च प्रमित्यभावाद्गौणे प्रमातृप्रमेथे संपद्यते । एवं च साकल्य- . मन्तरेण यदि प्रमितिः कल्प्येत भवेयभिचारो नत्वसौ तथा दृश्यत इति । ननु यदि सामग्र्याः साधकतमत्वं स्यात्तदावश्यमस्याङ्करणविभक्तिनिर्देशो दृश्येत । नचैवम् । नह्येवं वक्तारो भवन्ति लौकिकाः सामग्र्या पश्याम इति किन्तु दीपेन पश्यामश्चक्षुषा वीक्षामह इत्याचक्षते । तन्न १५ सूक्ष्मम् । सामग्री हि संहतिः सा च संहन्यमानव्यतिरेकेण न व्यवहार पदवीमवतरति । तेन सामग्र्या पश्याम इति न व्यपदेशः । यस्तु दीपेन्द्रियादीनां तृतीयया निर्देशः स फलोपजननाविनाभावित्वाख्यसामग्रीस्वरूपसमारोपनिबन्धनः । अन्यत्रापि च तद्रूपसमारोपणेन स्थाल्या पचतीति व्यपदेशो दृश्यत एव । ननु कर्तृकर्मापेक्षया करणसामग्री मध्य- २० माऽग्र्ययोश्च कर्तृकर्मणोः स्वरूपप्रध्वंसतोऽसम्भवात् तदपेक्षया कथं साकल्यस्य करणत्वमिति । एवं च प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति चतसषु विधासु तत्त्वं परिसमाप्येत इति रिक्ता वाचोयुक्तिः । अयुक्तमेतत् । साकल्यमध्यपतितत्वेऽपि कर्तृकर्मणोः स्वरूपानपायात् । साकल्यं खलु सकलकारकाणां स्वकीयो धर्मो न च स्वकीयो. धर्मः स्वरूपध्वंसाय २५ जायते । साकल्यदशायामपि कारकाणां स्वरूपस्य प्रत्यभिज्ञायमानत्वा
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१०
१५
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. ६
दिति कथंविधश्चतुष्टयप्रक्षय: । तथाच समाचष्ट भट्टजयन्तः पलेवे
तत्रासन्दिग्धनिर्वाश्रवस्तुबोधविधायिनी । सामग्री चिदचिद्रूपा प्रमाणमभिधीयते ॥ १ ॥ फलोत्पादाविनाभाविस्वभावाव्यभिचारि यत् । तत्साधकतमं युक्तं साकल्यान्न परञ्च तत् ॥ २ ॥ साकल्यात् सदसद्भावे निमित्तं कर्तृकर्म्मणोः । गौण मुख्यत्वमित्येवं न ताभ्यां व्यभिचारिता ॥ ३ ॥ संहन्यमानहानेन संहतेरनुपग्रहात् । सामय्या पश्यतीत्येवं व्यपदेशो न दृश्यते ॥ ४ ॥ लोचना लोकलिङ्गादेर्निर्देशो यस्तृतीयया । स तद्रूपसमारोपादुपया पचतीतिवत् ॥ ५ ॥ तदन्तर्गतकर्मादिकारकापेक्षया च सा । करणं कारकाणां हि धर्मोऽसौ न स्वरूपवत् ॥ ६ ॥ सामग्र्यन्तः प्रवेशेऽपि स्वरूपं कर्तृकर्म्मणोः । फलवत् प्रतिभातीति न चतुष्टुं विनंक्ष्यति ॥ ७ ॥ इति । ततः साकल्यमेव प्रमाणं न पुनर्ज्ञानं तस्य फलरूपत्वात् । फलस्य च प्रमाणत्वमनुपपन्नं तस्य प्रमाणात् पृथग्भूतत्वात् । अथ पृथग्भूतफलोत्पादकमपि स्वकीयहेवाकात् ज्ञानरूपमेव प्रमाणमिष्यते । तदा
शब्दलिङ्गादेः समस्तजनस्वीकृताज्ञानस्वरूपस्याप्रमाणत्वप्रसङ्गः । तस्मात् २० ज्ञानमपि साकल्यान्तर्गतमेव विशेषणज्ञानमेव विशेष्यप्रत्यक्ष लिङ्गज्ञानमिव लिङ्गिज्ञानानुमाने सादृश्यदर्शन भिवोपमाने शब्दज्ञानमिव शाब्दार्थज्ञाने प्रमाणतामास्तिनुते, एवं च---
१ अधुना मुद्रितायां न्यायमञ्जर्यामिदं नोपलभ्यते । न्यायमञ्जर्येव पलवसंज्ञया श्रीवादिदेवसूरिभिः संमन्यते । २ उपाशब्दोऽमिवाचकः । ' उष दाहे' इत्यस्मात्पाणिनीयधातोर्निष्पन्नः स्वा. ग. धा. ६९७.
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परि. १ सू. ६ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः बाधं नैव समाश्रिता कथमपि श्लिष्टा न या शङ्कया
तामर्थप्रमिति सदा विदधती बोधेतरात्मस्थितिः । सामग्री भवति प्रमाणमनघं नैयायिकानां मते .
ज्ञानं केवलमेव ये पुनरमी प्राहुन ते तार्किकाः ।। ५८॥ कारकसाकल्यमहो जल्पन्तोमी प्रमाणमिति निपुणाः ।
५ वैकल्यं किमपि गताः स्मरन्ति यन्नैव नीतिमार्गस्य ॥ ५९ ॥ तथाहि यत्तावत्कथितमर्थप्रमितौ साधकतमत्वादिति साधनस्या
सिद्धताध्वंसनाय फलोत्पादाविनाभाविस्वभावानैयायिकोक्तस्य सामग्रीप्रामाण्यखण्डनस्य व्यभिचारित्वं हि साधकतमत्व मिति तत्र फलो
खण्डनम् । त्पादन विना सामग्री न भवतीति कोऽर्थः । किं १० फलोत्पादेन विना सामग्री नोत्पद्यते पावकेनेव विना धूमः । किंवा फलोत्पादेन विना सामग्री न सत्तामनुभवति यथा वृक्षत्वेन विना शिंशपात्वम् । यद्वा फलोत्पादेन विना फलमनुत्पाद्य सामग्री नावतिष्ठते यथा सातिशयोन्नतिशाली जलभृद्वर्षमकृत्वा । न तावदाद्यः पक्षःपेशल: परस्पराश्रयपराहतत्वात् उत्पन्नयां हि सामग्र्यां फलोत्पादः समुत्पन्ने १५ च फले सामग्री समुत्पत्स्यत इति । नापि द्वितीयः । असिद्धत्वात् । यदि हि वृक्षत्वेन शिंशपात्वस्येव फलोत्पादेन सामग्र्याः सदैव सहचारित्वं स्यात् द्वितीयविकल्पपरिकल्पना । न चैवम् । तत्त्वे हि फलादिव्यपदेश एव न भवेत् समकालभाविनि व्यापाराभावात् । तृतीयाविकल्पेऽप्यर्थप्रमितिस्वरूपस्य फलस्याव्यवधानेनोत्पादिकायाः सामाग्र्याः । साधकतमत्वमुच्यते व्यवधानेन वा। आयकल्पे हेतोरसिद्धिः । सामग्र्याः सकाशादर्थप्रमितेरव्यवधानेनोत्पादायोगात् । ज्ञानेन तत्र व्यवधिसम्भवात् । न च किमनेनान्तराले गलितप्रमाणप्रसादेन ज्ञानेन परिकल्पितेनेत्यभिधानीयम् । तस्योपयोगरूपभावेन्द्रियस्वभावस्य साक्षात्फले व्याप्रियमाणस्य यदसन्निधान इत्यानुद्यमानतः पूर्वं प्रसाधितत्वात् । अथ २५ व्यवधानेन फलोत्पादिकायाः सामग्र्याः साधकतमत्वमन्त्र विवक्षितम् ।
ॐा १५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. ६ तत्किं मुख्यमौपचारिक वा भवेत् । न तावन्मुख्यम् । अन्यव्यवहितव्यापारस्य कारकस्य मुख्यकरणव्यवहारागोचरत्वात् । तथाहि यात्रान्येन व्यवहितं तत्तत्र न मुख्यसाधकतमत्वव्यवहारगोचरः । यथा दारुदारणकर्मणि कुठारेण व्यवहितो लोहकारः । अर्थप्रमितौ विज्ञानेन ५ व्यवहिता च सामग्रीति । अथौपचारिकं सामग्र्याः साधकतमत्वं
साधनत्वेनोपदिष्टम् । मुख्यं ह्यर्थप्रमितौ साधकतमत्वं ज्ञानस्य । तस्य जनकत्वात्तु सामग्र्यामपि तदुपचर्यते । कारणे कार्योपचारात् तण्डुलान्वर्षति पर्जन्य इतिवत् । एवं तर्हि तस्याः प्रामाण्यमप्यौपचारिकमेव सिद्धयेत् । न खलूपचरितधूमत्वादतिसमुद्रसमीरसमुत्पाटितपारावतप१. तत्रधूसरधूलिपटलीविशेषादनुपचरितचित्रभानोः कणस्यापि प्रसिद्धिः । अौपचारिकमेव प्रामाण्यं सामग्र्या सिषाधयिषितम्,
साधु साधु सुधियाऽवधारितं यत्समागतमिहाध्वनि क्षणात् । एवमेव तव जल्पतः सखे वारयन्तु दुरितानि देवताः ॥ ६० ॥
अव्यवहितव्यापारत्वेन साधकतमत्वाज्ज्ञानं प्रमाणं तद्धेतुत्वात्तु साम१५ ग्र्यपि प्रमाणमिति हि को नाम प्रामाणिको नाभ्युपैति । एवं च प्रति
ज्ञायाः सिद्धसाध्यतावतारः । अपि च कारकसाकल्यस्य सद्भावेऽपि कचित्प्रमारूपं फलमुत्पतामानं नावलोकितमिति कुतोऽस्य कुत्रापि साधकतमत्वं सिद्धयेत् । आः किमिदमदृष्टपूर्वमुच्यते यत्साकल्यसद्भावेऽपि
न प्रमोत्पत्तिरिति । अलमावेगेन । यतः पश्य वयस्य विहायस्येव ताच२० तत्सद्भावेऽपि न प्रमोत्पत्तिरिति । नन्वसिद्धः कारकसाकल्यसद्भावस्त
त्रेति चेत् कुतोऽसिद्धः । प्रमातुरवहितस्य प्रमेयस्याऽव्यवहितस्य प्रमेयेण साकं हृषीकसन्निकर्षस्य च सद्भावात् । ननु गगने योग्यता नास्ति तत्कुतस्तत्र तत्साकल्यस्यांवैकल्यमिति चेत् । नैतद्युक्तम् । विचारित
त्वात्पूर्वं योग्यतायाः । एवं चासिद्धं साधकतमत्वं सामग्र्याः । ततश्च २५ यदसिद्धताप्रतिबन्धकमभिदधे तच्च सामग्र्यन्तर्गतस्य न कस्यचिदेकस्य
१ हृषीकं इन्द्रियम् ।
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परि. १ स. ६ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः वक्तुं शक्यत इत्यादि । तदपास्तम् । यदपि मुख्यप्रमातृप्रमेयाभ्यां व्यभिचारमाशङ्ग्य साकल्यप्रसादलब्धप्रमितिसम्बन्धनिबन्धनो हि प्रमातृप्रमेययोर्मुख्यस्वरूपलाभ इत्याधमाणि तदपि न भणनीयम् । अनवधानव्यवधानपराधीने हि प्रमातृप्रमेये गौणस्वरूपे सती न प्रमाणमुपजनयत इति प्रमोत्पत्त्यर्थं स्वस्य प्रमेयस्य च मुख्य ह्यवधानाव्यव- ५ धानरूपस्वरूपं प्रार्थयन्ते प्रमातारः । यदा तु प्रमासम्बन्धनिबन्धनो मुख्यस्वरूपलाभः । तदा पूर्वं गौणाभ्यामपि प्रमातृप्रमेयाभ्यां सकाशात् प्रमा समजनि । संजातायां च प्रमायां किमनेन तत्सम्बन्धनिबन्धनेन मुख्यम्वरूपलाभेन कृतक्षौरस्य नक्षत्रपरीक्षणप्रायेण पश्चात्कर्त्तव्यम् । प्रमित्यर्थं हि प्रार्थ्यतेऽसौ सा चैनमन्तरेणापि समुत्पन्नैव । भवतु वा १० प्रमितिसम्बन्धनिबन्धनः प्रमातृप्रमेययोर्मुख्यस्वरूपलामः । तथापि तयोः प्रमोत्पत्ती व्यापारोऽस्ति न वा । न तावन्नास्ति । तयोः प्रमातृप्रमेयस्वरूपत्वाभावप्रसङ्गात् न खलु परश्वधादिकं छिदायामव्यापारयन्नेव देवदत्तश्छेदको नाम । नापि द्वैधीभावमननुभवदेव पादपादिकं छेद्यम् । अथास्ति तयोस्तत्र व्यापारः । तर्हि यत्तस्यामवस्थायां तयोः स्वरूपं १५ तेन कलिते प्रमातृप्रमेये फलोत्पादाविनामाविस्वभावाव्यभिचाररूपसाधकतमत्वसुभगे भवतो न च तयोः प्रमाणतेति हेतोः स्पष्टस्ताभ्यां व्यभिचारः। यदप्यवादीः सामग्री हि संहतिरित्यादि । तत्र यदि संहन्यमानव्यतिरेकेण व्यवहारपदवीमनवतीर्णायाः सामग्र्याः सामग्र्या पश्याम इति व्यपदेशो नास्ति । माभूत् । यस्तु दीपेन्द्रियादीनां तृतीयया निर्देशः स फलोपजननाविनाभावित्वाख्यसामग्रीस्वरूपसमारोपनिबन्धन इति तु दुश्चरितं कथं प्रस्थापयिप्यते । मुख्यत्वेन हि क्वचित्किञ्चिनिश्चितं सदन्यत्र समारोप्यत इति तावदशेषवादिपरिषदामुपनिषत् । अत्र तु सामयां करणविभक्तिमप्रयुञ्जानैर्जनैर्न फलोपजननाविनाभावित्वं तत्स्वरूपं कदाचिनिश्चितमिति कथं दीपादौ २५
१ उपनिषत्-रहस्यम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ६ सामग्रीस्वरूपसमारोपेण तृतीयानिर्देशः स्यात् । अथ प्रयुञ्जत एव प्रामाणिकास्तत्र तृतीयां सामग्र्या पश्याम इति चेत् । मैवम् । उपचरित एष तेषां तृतीयाप्रयोगो मुख्यस्य तत्य ज्ञान एव सद्भावाद्गाढोपयोगेनेदमवगतं मयेति । उपयोगश्च ज्ञानमेव । अस्तु वा ५ प्रामाणिकानां सामग्र्यां मुख्यः प्रदीपादिषु तु सामग्रीस्वरूपसमारोपा
तृतीयानिर्देशः । लौकिकानां तु कथमसौ भविष्यति । नहि ते सामाग्र्या नामापि जानते । न च तेषां मुख्यस्वरूपापरिज्ञानेऽप्यारोपो भविष्यतीत्यालपनीयम् । अनाकलितकलधौतानां मुक्ताकरतीरवर्तिनि
शुक्तिशकले कलधौतारोपाभावात् । तन्न सामग्र्या मुख्यः प्रदीपादिषु १० तूपचरितस्तृतीयानिर्देश इत्युपपन्नम् । तथा च
करणत्वमपहृते प्रदीपे सामग्र्यां पुनरभ्युपैत्यशङ्कः ॥ लोकव्यवहारवत्सलत्वं कीदृशमस्य मनीषिशेखरस्य ।। ६१ ॥ यदप्युदितं साकल्यमध्यपतितत्वेऽपि कर्तृकर्मणोः स्वरूपानपायात्सासाकल्यं सकलकारकाणां कल्यं खलु सकलकारकाणां स्वकीयो धर्म इत्यादि स्वकीयो धर्म इति । मतस्य विकल्पप्रद- तदप्यनवदातम् । यतस्तेषां स धर्मः किन्नित्योऽ
शनपूर्वक खण्डनम् । थानित्यः । न तावन्नित्यः कादाचित्कत्वात् । कटादिवत् । अथानित्यः स कुतः समुत्पद्येत । तेभ्य एवान्यतो वा। न तावदन्यतोऽनङ्गीकारात् । अथ तेभ्य एव तट्टयमर्थः सम्पन्नः । सकलास्ताव
त्साकल्यलक्षणं धर्म जनयन्ति साकल्यलक्षणश्च धर्मः प्रमामुत्पादयति । २० एवं च साकल्यलक्षणधर्मस्य जनने व्यापृताः कादयस्तस्मिन् कर्तृ
त्वेन प्रतीयन्ते । स च प्रमितिलक्षणे फले करणत्वेन । ततश्चैतत्फलं प्रति साकल्यलक्षणो धर्म एव व्याप्रियमाणः कथं साकल्यस्वभावे विषयान्तरे व्यापृताभ्यां कर्तृकर्मभ्यां साधकतमत्वस्वरूपमतिशयं प्रतिपद्यत । अथ कर्तृकर्मणी साकल्यमुत्पाद्य प्रमायामपि व्याप्रियेते
१ रूप ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः।
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परि. १ स. ६ ] स्यावादरत्नाकरसहितः ततस्तदपेक्षयाऽस्योपपन्नमेव साधकतमत्वमिति चेत् । ननु वृद्धनैयायिकोपकल्पितेन्द्रियादिप्रामाण्यमुपेक्ष्य किमितीयत्कल्पनाकष्टसङ्कटमाविष्टोऽसि । अमां प्रति तस्यानेन व्यवहितव्यापारत्वान्न मुख्यं साधकतमत्वमिति चेत् । एवमेतत् । किन्तु यद्यस्मिन्नेचार्थे तव दोहदस्तदा ज्ञानमेव च तथा स्वीक्रियतां तस्यैव प्रमितावव्यवहितव्यापारत्वात् । ५ साकल्यस्य तु तेन व्यवहितव्यापारत्वात् । किञ्च सकलानि कारकाणि साकल्याभिधानधर्मसमुत्पत्तौ प्रवर्तन्तेऽसकलानि वा । न तावत्सकलानि अन्योन्याश्रयप्रसङ्गात् । सिद्धे हि साकल्याभिधाने धमें तेषां सकलरूपतासिद्धिस्तत्सद्धौ च साकल्याभिधानधर्मसिद्धिरिति । नाप्यसकलानि अतिप्रसङ्गात् । अपि च यया प्रत्यासत्या सकलानि साकल्याख्यं १० धर्मामुत्पादयन्ति तयैवार्थोपलब्धिमप्युत्पादयिष्यन्तीति व्यर्था साकल्याख्यधर्मकल्पना ।
किञ्च 'शब्दपदाथिकाऽर्थपदार्थका वा भावप्रत्ययप्रकृतयो भवन्ति' ' शब्दपदाथिका अर्थपदा-इति सकल इत्येतस्य शब्दस्य भावः सकलेषु र्थिका वा भावप्रत्यय- अर्थेषु वाच्येषु प्रवृत्तौ निमित्तमिति शब्दपदार्थ- १५ प्रकृतयो भवन्ति' इति । आश्रित्य शब्दपदार्थकाद
कात् सकलानामर्थानां भावः स्ववाचकसकलयंपदार्थकाद्वा सकलपदात्शब्दस्य प्रवृत्तौ निमित्तमित्यर्थपदार्थकाद्वा सकल
स्य शब्दादुत्पन्नेन भावप्रत्ययेनष्या प्रवृत्तिनिमित्तत्तिनिमित्तस्य सत्त्वात्स्वरूपसमुदायसम्बन्धज्ञानजनक- मेवाभिधीयते । तच्चेह सत्ता, स्वरूपमात्रम्, स्वरूपत्वं विकल्प्य खण्डितम् .
उतम् समुदायः, सम्बन्धो, ज्ञानजनकत्वं वा व्याक्रि- २०
. सम्यो ज्ञानजनकत्व वा । येत, पक्षान्तराभावात् । तत्र प्रथमपक्षद्वयं पापीयः । वैकल्यदशायामपि कारकाणां सत्तायाः स्वरूपमात्रस्य च सद्भावतः प्रमाणताप्रसंगात् । अथ समुदायो भावशब्देनाभिधीयते । सोऽपि किमेकाभिप्रायतालक्षणः, एकदेशे मीलनस्वभावो वा । आद्यपक्षस्तायदसम्भवी, केषांचिचक्षुरादीनां कारकाणामभिप्रायशून्यत्वेन समस्तानामेकाभिप्रायत्वस्या- २५ १'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' इति पा. सू. ५-१-१२४.
ष्यमाभिधीयमानस्य प्रवृ-.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ६ योगात् । द्वितीयपक्षोऽपि परीक्षा न क्षमते । क्षपाकरभास्करादेर्गोचरस्य चक्षुरिन्द्रियस्य चैकदेशे मीलनासम्भवात् । चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेन समर्थयिष्यमाणत्वात् । एतेन सम्बन्धपक्षोऽपि विसृष्टोत्तरः । यदा ह्येकदेशे चन्द्रादेश्चक्षुषो मीलनं नास्ति तदा कथं तस्य तेन साकं संयोगादिः सम्बन्धः सम्भवेत् । अथ ज्ञानजनकत्वं भावशब्देनाभिधीयते तदा तस्य प्रतिकारकं भिद्यमानत्वाद्यावन्ति कारकाणि तावन्त्यः प्रमाः प्रसज्येरन् । भवतु वा किञ्चित्साकल्यम् । तथापि सकलेभ्यः किमेतद्भिन्नमभिन्नं वा । यद्यभिन्नम्, तदा सकलान्येव सन्ति न साकल्यं नाम किञ्चित् । अथ भिन्नम्, तर्हि सकलेषु सम्बद्धमसम्बद्धं वा स्यात् । यद्यसम्बद्धं, कथमेतत्तेषां धर्मोऽतिप्रसक्तेः । अथ सम्बद्धम्, तत्किं समवायेन, संयोगेन, विशेषणविशेष्यभावेन वा । न तावत्समवायेन, तस्य षट्पदार्थविचारावसरे निराकरिष्यमाणत्वेनासिद्धत्वात् । नापि संयोगेन | तस्य गुणत्वेन द्रव्येष्वेव सम्भवात् । साकल्यस्य च धर्मरूपत्वेनाद्रव्यत्वात् । नापि विशेषणविशेष्यभावेन । संयोगसमवायाभ्यामसम्बद्ध वस्तुनि विशेषणविशेष्यभावस्यासम्भवात् । अन्यथा सर्वस्य सर्वविशेषणतानुषङ्गात् । समवायवत्समवायिषु संयोगसमवायासत्त्वेऽपि तस्य विशेषणतेति चेत् न । तस्यापि तथासाध्यत्वात् । न चाभाववद्भावेषु तस्य विशेषणता, तस्यापि तथासिद्धयभावात् । नासिद्धमसिद्धस्योदाहरणमतिप्रसङ्गात् । ननु चैते सकलाः समवायिनावेतौ नास्तीह घट इति विशिष्टप्रत्ययः कथं विशेषणविशेष्यभावमन्तरेण स्याद्दण्डीति प्रत्ययवत् । भवतिः चायमबाधितवपुः । न च द्रव्यादिषट्पदार्थानामन्यतमनिमित्तोऽयम् । तदनुरूपत्वाप्रतीतेः । नाप्यनिमित्तः, कदाचित्कचिद्भावात् । ततोऽस्यापरेण हेतुना
भवितव्यम् । स नो विशेषणविशेष्यभावः सम्बन्धविशेषः पदार्थविशेषश्चा२५ विनाभाववदिति । मैवम् । समवायवदभाववद्वा साकल्यस्य विशेषण
१ दत्तोत्तरः ।
२०
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परि. १.सू. ६ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः विशेष्यभावाद्धि क्वचिद्विशेषणत्वसिद्धौ तस्यापि विशेषणविशेष्यभावस्य स्वाश्रयविशेष्यायिणः कुतस्तद्विशेषणविशेष्यत्वम् । परस्माद्विशेषणविशेष्यभावादिति चेत्,तस्यापि स्वविशेष्यविशेषणत्वं परस्माद्विशेषणविशेष्यभावादित्यनवस्थानादप्रतिपत्तिः । विशेष्यस्य विशेषणप्रत्तिपत्तिमन्तरेण तदनिष्टेः । 'नागृहीतविशेषणा. विशेष्ये बुद्धिः' इति ५ बचनात्, अतिदूरमपि गत्वा विशेषणविशेष्यभावस्यापरविशेषणविशेष्यभावाभावेऽपि स्वाश्रयविशेषणत्वोपगमे साकल्यादेरपि कचिद्विशेषणत्वं तदभावेऽपि किं न स्यादिति न विशेषणविशेष्यभावसिद्धिः । तथा च तेनापि न सम्बद्धं साकल्यं सकलेषु । अस्तु वा केनचित्सम्बन्धेन सम्बद्धं तत्तेषु । तथापि युगपत्सकलेषु सम्बध्यते क्रमेण वा । यदि १० युगपत् किमकं सदनेकं वा । एकं चेत् तर्हि तस्य सामान्यादिस्वभावताप्रसक्तिः । न च सैवास्त्विति वक्तव्यम् । सामान्यादेनित्यतया नित्यमर्थप्रमितिरूपफलोत्पत्तिप्रसक्तेः । वक्ष्यमाणसामान्यादिदूषणदुष्टत्वाच्च । अथानेकं सागपत्साकल्यं सकलेषु सम्बध्यते तर्हि यावन्ति कारकाणि तावन्ति साकल्यानि स्युः। एवं च भवतां कृतान्तप्रकोपः। १५ एकस्यैव साकल्यस्य स्वीकरणात् । अथ क्रमेण तत्तेषु सम्बध्यते तर्हि सकलकारकधर्मता साकल्यस्य न स्यात् । यदा हि तस्यैकेन सम्बन्धसकलाकारधर्मता साकल्यस्य न स्यात् । यदा हि तस्यैकेन सम्बन्धस्तदैव नापरेणेति । यदप्यभिदधे शब्दलिङ्गादेः समस्तजनस्वीकृताज्ञानस्वरूपस्याप्रमाणत्वप्रसङ्ग इति । तदपि न पीडाकरम् । शब्द- २० लिङ्गादेरज्ञानस्वभावस्यास्माकमप्रमाणत्वेनाभीप्सितत्वात् । उपचारादेव तस्य प्रामाण्यप्रतिपादनादिति । एवं च । समग्रता याऽपि च कारकाणां नैयायिकैर्व्याक्रियते स्म नव्यैः।। नैषोपचारं परिमुच्य जातु प्रमाणतां स्वीकुरुते वराकी ॥ ६२ ॥
कापिलः पुनः प्राहुः । 1विशेषणत्वम् ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः । २ कृतान्त:-सिद्धान्तः ।।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ६ साकल्यं सन्निकर्ष यदिह दलितवास्तत्प्रियं नः सुदूरम्
दूरेणैषा तथापि व्रजतु तव मतिर्ज्ञानमेव प्रमाणम् । एषा वस्तूपलब्धौ करणमिति हठान्मानतामुद्वहन्ती
यस्माज्जागर्ति नित्यं कपिलमुनिमते वल्लभा बुद्धिवृत्तिः।।६३।। तथाहि विषयाकारपरिणतेन्द्रियादिवृत्त्यनुपातिनी बुद्धिवृत्तिरेखें
. पुरुषमुपरञ्जयन्ती प्रमाणम् । इन्द्रियाणां हि वृत्तिइन्द्रियमनोऽहकारबुद्धि
म. विषयाकारपरिणतिरुच्यते । नहि प्रतिनियतणोपवर्ण्य खण्डितम् । शब्दाद्याकारपरिणतिमन्तरेणेन्द्रियाणां प्रतिनियतशब्दाद्यालोचनं घटते । तस्माद्विषयसम्पत्प्रिथममिन्द्रियाणां १० विषयरूपतापत्तिरिन्द्रियवृत्तिः। तदनु विषयाकारपरिणतेन्द्रियवृत्त्यालम्बना
मनोवृत्तिः । मनोवृत्त्यालम्बनाहंकारवृत्तिः । अहंकारवृत्त्यालम्बना च बुद्धिवृत्तिः ।सा पुनः पुरुषमुपरञ्जयति । तदुपरक्तो हि पुरुषः प्रतिनियतविषयद्रष्टा सम्पद्यते । तथा चाभिहितम्, 'इद्रियाण्यर्थमालोचयन्ति ।
इद्रियालोचितमर्थं मनः सङ्कल्पयति । मनःसङ्कल्पितमर्थमहंकारोऽ१५ भिमन्यते । अहंकाराभिमतमर्थ बुद्धिरध्यवस्यति । बुद्धयध्यव
सितमर्थ पुरुषश्वेतयते' इति । एवं व्याख्यातं पारमैः प्रमाणं श्रद्धाप्राधान्याद् बुद्धिवृत्तिस्वरूपम् ॥ कोऽपि स्याद्वादस्वादनस्मेरवक्रः सम्प्रत्येतस्य क्षोदकेलिं करोति ॥६॥
तथाहि यदुक्तं विषयाकारपरिणतेन्द्रियादिवृत्त्यनुपातिनीत्यादि । २० तत्रेन्द्रियाणां वृत्तिस्तावद्विषयाकारपरिणतिरूपा विषयाकारधारित्वमेवो
च्यते । तत्पुनरनुपपन्नम् । प्रतीतिप्रतिहतत्वात् । नहि स्फटिकमुकुरादिकमिव तदाकारधारित्वेन श्रवणादिकमिन्द्रियं प्रत्यक्षतः प्रतीयते । तद्वत्तत्रापि विपत्तिपत्तिविरहप्रसक्तेः । न खलु प्रत्यक्षपरिच्छिन्ने वस्तुनि कश्चिदबालिशः कलहायते । नाप्यनुमानाद्विषयाकारधारित्व
१' वृत्तिरेनं ' इति म.भ. पुस्तकयोः पाठः । २ कापिलैः ।
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परि. १ सू. ६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
७३ मिन्द्रियाणामवगम्यते । तदन्यथानुपपन्नस्य लिङ्गस्यासम्भवात् । न च प्रतिनियतपदार्थपरिच्छित्तिरेव लिङ्गमिति निगदितव्यम् । तस्याः श्रवणादीन्द्रियाणां विषयाकारपरिणतिमन्तरेणापि स्वयोग्यतामाहात्म्यादुपपद्यमानत्वात् । किञ्च हृषीकाणां वृत्तिरभिन्ना भिन्ना वा तेभ्यो भवेत् । यद्यभिन्ना, तर्हि सा श्रवणादि- ५ मात्रमेव तच्च स्वापदशायामपि समस्तीति जाग्रदशावत्तत्रापि परिच्छेदः प्रसज्यते । अथ भिन्ना, किमियं तत्र सम्बद्धा भवेदसम्बद्धा वा । असम्बद्धा चेत्, तदा कथं श्रवणादेरिन्द्रियस्य वृत्तिरिति व्यपदेशं समभुवीत । सम्बद्धा चेत्तदप्यसम्बद्धम् । पंचविंशतितत्त्वातिरिक्तस्य समवायादेः सम्बन्धस्य कस्यचित्कापिलरप्रतिज्ञानात् । तस्मादित्थमि- १० न्द्रियवृत्तेर्विचार्यमाणायास्सत्त्वासम्भवात्कथं विषयाकारपरिणतेन्द्रियवृत्त्यालम्बना मनोवृत्तिरिति सुघटं स्यात् । तस्माद्बाह्यार्थालम्बनैव मनोवृत्तिरपि युक्ता । न चैवं बाह्येन्द्रियकल्पनानर्थक्यप्रसक्तिः । मनसो बाह्येन्द्रियसव्यपेक्षस्यैव बहिरर्थे प्रवृत्तिप्रतीतेः विज्ञानोत्पत्ताविन्द्रियमनसामन्योन्यं सहकारित्वात् । न खलु बाह्येन्द्रियनिरपेक्षा मनसो वि- १५ ज्ञानोत्पत्तौ प्रवृत्तिः सम्भवति । श्रवणादीन्द्रियेणाप्रतिपन्नेऽपि निस्वनादौ वस्तुनि मनसः सकाशाद्विज्ञानोत्पत्तिप्रसक्तेः । नापि मनोऽनपेक्षा बाह्येन्द्रियाणां विज्ञानोत्पत्तौ प्रवृत्तिः । अन्यत्र गतचित्तस्यापि बाह्येन्द्रियेभ्यो विज्ञानोत्पत्तिप्रसक्तेः । एवं च मनोवृत्त्यालम्बना अहंकारवृत्तिरित्यादिपरपरिकल्पितप्रक्रियानुपपत्तेर्न बुद्धिवृत्तिः कापि २० घटते यतः प्रमाणं स्यात् । अपि च यो जानाति न तस्यार्थदर्शनं फलमचेतनत्वान्महतः । यस्य वार्थदर्शनं न स जानातीति भिन्नाधिकरणत्वं प्रमाणफलयोः । ज्ञानधर्मयोगः प्रमाणं पुंसि न विद्यते तत्फलं त्वर्थदर्शनं बुद्धौ नास्तीति । अंथोच्यते स्वच्छत्वात्पुंसो बुद्धिवृत्त्यनुपातितास्ति यद्वा चेतनाकारसंस्पर्श इव बुद्धेलक्ष्यत इति तद- २५ १'अत्रोच्यते' इति प.पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ सत् । एवं हि स्ववाचैव त्वया प्रमाणफलयोमिथ्यात्वं कथितं भवेत् । मृषा हि चिद्धर्मो बुद्धौ बुद्धिधर्मोऽपि चिता मृषेति । तस्मात् । . अलं वितथजल्पितैः श्लथय बुद्धिवृत्त्यात्मक
प्रमाणमिति दर्शनं किमपि कश्मलं दूषणैः । ५. यदेव हि सुयुक्तिकं तदिह सजनः सेवते ।
न तु स्वपितृकुर्कुरोद्वहननीतिमालम्बते ॥ ६५ ॥
एवं च-~निनः सान्निकर्षस्तदनु सकलता कारकाणां परास्ता
विख्याता यापि बुद्धेः कपिलमुनिगृहे वृत्तिरेषा निरुद्धा । १०
त्यक्त्वा तत्तीथिकानां मतमखिलमपि प्रेप्सुभिायमुद्रा
___ मङ्गीकर्तव्यमेतजिनपतिगदितं ज्ञानमेव प्रमाणम् ॥६६॥६॥ . समार्थितमेवं ज्ञानमिति. विशेषणं संप्रति व्यवसायीति तद्विशेषणसमर्थनार्थमाहतद्वयवसायस्वभावं समारोपपरिपंथित्वात् प्रमाण
त्वाद्वति ॥७॥ - तत्प्रमाणत्वेन सम्मतं ज्ञानम् । व्यवसायस्वभावं निश्चयात्मकमित्यर्थः । कुतः समारोपपरिपन्थित्वात् । विपर्ययसंशयानध्यवसायस्वरूपसमारोपोऽनन्तरमेव निरूपयिष्यमाणस्तत्परिपन्थित्वं तद्विरुद्धत्वं यथास्थितवस्तुग्राहकत्वमिति यावत् । तस्मात् प्रमाणत्वाद्वा हेतोस्तद्वयवसायस्वभावम् । वाशब्दो विकल्पार्थस्तन प्रत्येकमेवामू हेतू प्रमाणत्वाभिमतज्ञानस्य व्यवसायस्वभावत्वसिद्धौ समर्थावित्यर्थः सिद्धो भवति । प्रयोगौ पुनरेवं विरचनीयौ । प्रमाणत्वाभिमतं ज्ञानं व्यवसायस्वभावं समारोपपरिपन्थित्वात् प्रमाणत्वाद्वा । यत्पुनर्व्यवसायस्वभावं न भवति
१ पृथ्वीछन्दः । २ मम पिता श्वानं शिरसोद्वहत्यतो मयापि तदुद्वहनं क्रियत इति । केन चित्पुत्रेण कथ्यते तद्युक्त्यसहत्वादसंगतम् । यतो न केवलं पितृकृतमनुष्ठातव्यं किंतु युक्तियुकं तत् । ३ 'मन्दाक्रान्ता' ४ 'नाय' इति म. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू..] स्याद्वादरत्नाकरसहितः न तत्समारोपपरिपन्थि प्रमाणं वा यथा घटः। समारोपपरिपन्थि प्रमाणं च पुनरिदं तस्माद्यवसायस्वभावमिति । अत्रानुमानयोः पक्षैकदेशे प्रत्यक्षबाधितत्वं समुद्भावयन्तः सौगताः
प्रत्यवतिष्ठन्ते । तथाहि न प्रमाणत्वाभिमतज्ञानस्य बौद्धमतस्योपपादनपूवक खण्डनम् । वाम
- धर्मिण: एकस्मिन् देशे प्रथमाक्षसन्निपातप्रभव- ५
संवेदनस्वरूपे कल्पनात्मक व्यवसायस्वभावत्वं सम्भवति । स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण तस्य कल्पनाशून्यस्यैवानुभूयमानत्वात् । अथात्र विप्रतिपद्येत कश्चित् । नासौ विपश्चित् । तथाहि प्रत्यक्षस्य शब्दविकल्पनीयाद्यर्थसामर्थेनात्मलाभात्तद्रूपप्रतिभासित्वमेव न्याय्यं नाभिलापरूपप्रतिभासित्वमपि । असति चाभिलापरूपप्रतिभासित्वे कथं १० तत्र व्यवसायस्वभावत्वं सङ्गच्छते । किञ्च-~
स्वलक्षणनिनादयोन खलु विद्यते सङ्गतिः
परस्परमभिन्नता न हि तयोः पृथग्दर्शनात् । समास्ति न तदुत्थताप्यपरहेतुजन्यत्वतः
स्वलक्षणसमुद्भवं तदविकल्पकं वेदनम् ॥ ६७ ॥ अपि च यदि जनकनीलाद्यर्थोपयोगेऽपीन्द्रियजं ज्ञानं तमर्थ न परिच्छिन्द्यात् किन्तु विलम्बमानं तावदवतिष्ठेत यावत्स्मृतिसामर्थ्यसमुद्भूतं तदर्थप्रतिपादकशब्दसंघटनं भवतीति तर्हि त्वयैव विहितमौर्ध्वदेहिकमर्थग्रहणस्य । तथा हि नीलादिकमर्थमनिरीक्ष्यमाणस्तत्र प्रतिपन्नसमयं तद्वाचक शब्दं नानुस्मरत्युपयोगाभावात् । अननुम्मरंश्च पुर- २० श्वारिणि नीलादिवस्तुनि न तं संघटयति स्मृतिदर्पणप्रतिबिम्बनमन्तरेण तत्संघटनासामर्थ्यात् । असंघटयंश्च शब्दं त्वदाकृतेन न निरीक्ष्यत एव नीलादिकमर्थमिति सुषुप्तप्रायं जगज्जायेतेति ।
निर्विकल्पकमेवातः प्रत्यक्षमनुभूयते ।
नतु दुर्वासनाजन्यकल्पनाजालधूसरम् ॥ ६८ ॥ १ मरणानन्तरं पुत्रादिनानुष्ठीयमानः क्रियाकलापः ।
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मिति बौदतमम्य गोne पियामानानुस्डसरासर व्य
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. . पक्षकदेशं गदितानुमानयुग्मे तदध्यक्षमपाकरोति ।। एवं च मुञ्च व्यवसायिमानं संवेदनं सर्वमिमां दुराशाम् ॥ ६९ ।। अहो महासाहसमस्य भिक्षोर्यत्स्वीयशस्त्रस्य बलं न वेत्ति ॥ स्पर्द्धानुबन्धादथ च त्वरावान् पक्षैकदेशक्षपणाय मुग्धः ॥७०॥ तथाहि । यदवादि स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण तस्य कल्पनाशून्यस्यैवानु
__भूयमानत्वादिति । तत्कोशपानप्रत्यायनीयम् । प्रत्यक्षस्य निर्विकल्पकत्व
कत्व- नीलमहं विलोकयामीत्युल्लेखशेखरं व्यवसायाखण्डनम् । त्मकमेव हि प्रत्यक्षं सर्वदा सर्वत्र सधैरनुभूयते।
___ यदप्यवादि प्रत्यक्षस्य शब्दविकलनीलाद्यर्थ१० सामर्थेनात्मलाभादिति । तदपि नावदातम् । नहि निःशब्दकार्थ
जनितमित्येतावतैव ध्वनि विना कृत्यमभिधातुं पार्यते । अन्यथा ह्यचेतनवस्तुसमुत्पादितमित्यचेतनमपि तद्भवेत् । ___अथ चेतनस्वरूपमनस्कारसहितादर्थात् समुत्पन्न विज्ञानमतो नाचेतनं
तद्भवितुमर्हतीति प्रतिपादयेथाः । तथा सत्यभिलापसंपृक्तमनस्कार१५ व्यापारात्साभिलापमपि तल्किन्न स्यात् । यदपि स्वलक्षणनिनादयोरित्या
दिना वृत्तेन तादात्म्यतदुत्पत्तिसम्बन्धनिराकरणद्वारेणार्थे प्रतिभासमाने शब्दाप्रतिभासादविकल्पकत्वं प्रत्यक्षस्य प्रत्यपादि । तदप्यसत् । तादात्म्यतदुत्पत्तिसम्बन्धविधुराणामपि परस्परं बहूनामर्थानां युगपदेकत्र
ज्ञाने प्रतिभासनात् । यच्चोक्तं यदि जनकनीलाद्यर्थोपयोगेऽपीन्द्रियजं २० ज्ञानं तमर्थन परिच्छिन्द्यादित्यादि सुषुप्तप्रायं जगज्जायेतेति पर्यवसानम् ।
तदपि सकलमफलम् । भवत्पक्षेऽपि समानत्वात् । तथा हि स्वलक्षणगोचरे निर्विकल्पकप्रत्यक्षे समुत्पन्नेऽपि न यावद्विधिनिषेधद्वारा पश्चाद्भाविविकल्पयुग्मं समुल्लसति । न तावदिदं नालं नेदं पीतमिति
इदन्तयाऽनिदन्तया वा प्रतिनियतपदार्थव्यवस्थानमास्थीयते ताथागतैः २५ 'यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवाऽस्य प्रमाणता' इति वचनात् उत्पन्नस्यापि
१ शपथेन विभावनीयम् ।
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परि. १ सू. ७ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
I
निर्विकल्पकस्य व्यवहारं प्रत्यनुत्पन्नप्रायत्वात् । तच व्यवस्थापकं प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्पयुगलकं प्रतिपत्तुः प्राक्प्रवृत्तसंकेतकावसरसमवधारितं शब्दसामान्यमनुस्मरत एव भवितुमर्हति । शब्दसामान्यस्मरणहेतुश्च वासनारूपः संस्कारः कुतः प्रबुध्यत इति अभिधातव्यम् । यदि तादृशार्थदर्शनादित्यभिधत्से । तदसत् । तदपि हि दर्शनं निर्वि- ५. कल्पकत्वेनार्थान्न विशिष्यते । ततः कथं शब्दसामान्यगोचरस्मरणहेतुभूतं संस्कारं तत्प्रबोधयेत् । अप्रबुद्धः संस्कारः कथं स्मरणमुत्पादयेत् । अनुत्पन्नं स्मरणं कथं शब्द योजयेत् । अयोजिते शब्दे कथमथ विकल्प्येत । अविकल्पितोऽर्थः कथं व्यवहारवीथीमवतरेत् । तामनवतीण नादृष्टाद्विशिष्येत तदविशिष्टश्च सुषुप्ततां जगतः सूचयतीति सर्वं त्वत्पक्षेऽपि समानम् । तस्माद्यथा स्वात्मनिश्चयाभावतः स्वयं प्रतीतमपि निर्विकल्पकज्ञानं कयाचिदचिन्त्यया शक्त्या संस्कारप्रबोधद्वारेण पश्चाद्भाविविधिप्रतिषेधविकल्पयुगलमुत्थाप्य स्वकीयव्यापारं कतिपयांशविषयमभिलापयति । तथार्थोऽपि यद्यप्रतीत एव स्वयं तथास्वभावत्वानयनादिसामग्र्यन्तः पातित्वेन संकेतकालभाविस्वाभिलापसामान्यविष- १५ यात्मसंस्कारबोधद्वारेणात्मविषयमभिलापं संसृष्टसंवेदनमाविर्भावयेत्तदा नातिमात्रमसमंजसमालोकयामः । नन्वेवं प्रत्यक्षस्य सविकल्पतां समर्थयमानैर्भवद्भिः शब्दब्रह्मवादिभिरिव शब्दसंपृक्तमेव प्रत्यक्षं समर्थितं स्यात् । मैवं वोचः - 1
१०
I
यतः
―
७७
" Aho Shrut Gyanam"
२०.
शब्दब्रह्माख्यपक्षादपि तदतितरामक्षमं क्षीणबोधै
• बौद्धैर्यत्प्रोच्यते स्म व्यवसितिरहितं सर्वथाऽध्यक्षमानम् । एतत्सन्दर्शनार्थं निबिडपरिचयः कल्पितोऽध्यक्षबोधे
तत्त्वन्यायेन नासौ भवति करणजे वेदने स्पष्टरूपे ॥ ७१ ॥ स्वत एव हि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षं न पुनः शब्दसम्पकीपेक्षया । तदपेक्षायां हि वर्णपदव्यवसायः कथं नाम स्यात् । तद्वयवसायेऽपि परस्य
२५
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७८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ नाम्नोऽवश्यं स्मरणेनानवस्थोपनिपातात् । नामान्तरस्मरणमन्तरेण स्वत एव वर्णपदव्यवसाये तु वस्तुव्यवसायोऽपि स्ववाचकनाभस्मरणमन्तरेण स्वत एवास्तु न कार्य शब्दसम्पर्केण एवं च शब्दसम्पर्करहितमपि विशदसंवेदनम् । यतः, सविधवर्तिनं निजांशव्यापिनं कालान्तरस्थायिनं स्थगितप्रतिक्षणपरिणाममलक्ष्यमाणपरमाणुपरिमाणं वस्त्वन्तरैः सह सदृशविसदृशाकारं कुम्भादिकं भावमवभासयतीति कृत्वा सविकल्पकमित्यभिधीयते । पराभिमतायःशलाकाकल्पक्षणक्षयिपरमाणुलक्षणग्रहणनिपुणनिर्विकल्पकप्रत्यक्षप्रतिक्षेपार्थं प्रत्यक्षस्य शब्दसम्पर्कयोग्यगोचरतासंदर्शनार्थं च । एवं चाऽध्यक्षविषयीकृते वस्तुनि व्यवहाराः संज्ञासंज्ञिसंबन्धग्रहणादयस्तत्त्ववृत्त्यैव घटन्त इति सुव्यक्तमावेदितं भवति । अन्यथा विकल्पानुत्पादेन निखिलव्यवहारविलयप्रसक्तिः । तथा हि भवदभिमतं निर्विकल्पकदर्शनं परिस्फुटप्रतिभासमपि स्मृतिहेतुभूतं संस्कारं कर्तुं न समर्थम् । तदुत्तरसमयभावि च तादृशपदार्थदर्शन
प्राक्तनसंस्कारप्रबोधनं विधातुं न क्षमम् । यतः सामान्यविकल्पोत्पाद१५ द्वारेणास्वलितं निखिलो व्यवहारः प्रवर्तते । क्षणिकत्वनैरास्यादिषु
सदैव निर्विकल्पप्रत्यक्षदृष्टत्वेन स्वीकृतेष्वपि पश्चाद्भाविसामान्यविकल्पोत्पत्त्या व्यवहारप्रवृत्तेरनुपलम्भात् । तस्माद्यत्र कुत्रचिदर्थांशे पाश्चात्यव्यवहारस्य प्रवृत्तिस्तत्र प्राग्भाविसंवेदनं. निश्चायकमङ्गीकर्त्तव्यम् । इतरथा क्षणिकत्वाद्यंशवन्निखिलांशेषु व्यवहारः समुच्छिद्यतेति । हे शौद्धोदनिशिभ्य सम्प्रति ततः सद्युक्तिभिः प्रोज्यताम्
प्रत्यक्षं खलु निर्विकल्पकमिति त्यक्त्वा दुराशां त्वया । निःशेषव्यवहारकारणतया सर्वत्र लब्धास्पदम्
विज्ञान व्यवसायसुन्दरमिदं निःसंशयं मन्यताम् ॥ ७२ ॥
किञ्च करणव्यापारानन्तरं स्वपरव्यवसायात्मनो नीलादिविकल्पस्यैव २५ वैशद्येनानुभवात्कौतस्कुती निर्विकल्पककल्पना । न चेदं वाच्यं युगप
द्वत्तेराशुवृत्तेर्वा विकल्पाविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायाद्विकल्पे वैशधप्रती
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परि. १ सू. ७ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तिरिति । विकल्पव्यतिरेकेणापरस्याप्रतीयमानत्वात् । पार्थक्येन हि प्रतीतावपरत्रापरस्यारोप उपपन्नश्चैत्र मैत्रारोपवत् । न चास्पष्टाभो विकल्पः स्पष्टाभं च निर्विकल्पकं प्रत्यक्षतः प्रतीतम् । तथापि परिस्फुटस्वेनानुभूयमानस्वरूपं विकल्प परित्यज्याननुभूयमानस्वभावं निर्विकल्पक परिकल्पयन् कथं नाम परीक्षकः स्यात् अनवस्थाप्रसक्तेः । निर्विक- ५ ल्पकस्वभावादप्यन्यादृक् स्वभाव प्रत्यक्षमित्यपि कल्पनापत्तेः । युगपट्टनेश्चाभेदाध्यवसाये स्वीक्रियमाणे यदालास्य लोचनगोचरे रचयतस्ताम्बूलकर्पूरयोः - स्वाद खादयतः स्फुटं सुमनसामाजिघ्रतः सौरभम् । तूली संस्पृशतो मृदङ्गसुभगं सङ्गीतकं शृण्वतः __ किञ्चिच्चिन्तयतो भवन्ति युगपज्ज्ञानानि षट् कस्यचित् ॥७३॥
तदा रूपादिज्ञानवटकस्यापि भवन्मते सहोत्पत्तेरेभदाध्यवसायः किं नं भवेत् । अथ भिन्नविषयत्वात्तेषां तदभावः । तर्हि प्रकृतयोरपि स न स्यात् क्षणसन्तानविषयत्वेन निर्विकल्पकसविकल्पकयोरपि भिन्नविषयत्वस्याविशेषात् । आशुवृत्तेः पुनरेकत्वाध्यवसाये जिननमनमित्या- १५ दावपि नकारयोरेकत्वाध्यवसायप्रसङ्गः । यदि च विकल्पाविकल्पयोरप्रतीयमानोऽपि भेदस्त्वया स्वीक्रियते । तर्हि कापिलपरिकल्पितः कथं बुद्धि चैतन्ययोर्मेदः पराक्रियते । अप्रतीयमानत्वाविशेषात् । अथ विकल्पाविकल्पयोः सादृश्यादभिभवाद्वा भेदेनानुपलम्भः प्रतिपाद्यते भोस्तार्किक किं कृतमनयोःसादृश्यन् । विषयाभेदकृतं ज्ञानरूपताकृतं वा । २० न तावद्विषयाभेदकृतम् । सन्तानेतरविषयत्वेनानयोर्विषयाभेदासिद्धेः । नापि ज्ञानरूपताकृतं सादृश्यमभेदाध्यवसायनिबन्धनम्। एवं सति नीलपी तादिज्ञानानामपि भेदेनोपलम्भो न भवेत् । ज्ञानरूपताकृतसादृश्यतस्तत्राप्यभेदाध्यवसायप्रसक्तेः । अथाभिभवादनयों देनानुपलम्भः प्रतिपाद्यते । ननु केन कस्याभिभवः । तिग्मभानुना विभावरीभुजंग- २५ स्येवेति चेत् , ननु विकल्पस्याप्यविकल्पकेनाभिभवः कस्मान्न भवति ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स्. . बलीयस्त्वादस्येति चेत् कुतोऽस्य बलीयस्त्वम् । बहुविषयत्वान्निश्चयात्मकत्वाद्वा । प्रथमपक्षोऽनुपपन्नः, निर्विकल्पकविषय एव विकल्पस्य प्रवृत्तेः स्वीकरणात् । इतरथा ह्यगृहीतार्थग्राहित्वेन तस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः । द्वितीयपक्षेऽपि स्वरूपे निश्चयात्मकत्वं विकल्पत्यार्थरूपे ५ वा । न तावत् स्वरूपे, सर्वचित्तचैतानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमित्यस्य विरोधात् । नाप्यर्थरूपे, विकल्पस्यैकस्यैकस्वरूपार्थरूपे अपेक्ष्य निश्चयानिश्चयस्वभावद्वयप्रसङ्गात् । तच्च स्वभावद्वयं विकल्पाद्यदि सर्वथा भिन्नम् तदा समावयादेरनङ्गीकरणात्सम्बन्धासिद्धेर्बलवान् विकल्पो निश्चयात्मकत्वादित्यस्यासिद्धिः। अथ तत्सर्वथाप्यभिन्न विकल्पात् तर्हि विकल्प एव भवेन्न स्वभावद्वयं तस्य तदन्तर्निगीर्णत्वात् । अथ कथमपि तादात्म्यान्निश्चयानिश्चयस्वरूपसाधारणमात्मानं प्रतिपद्यते विकल्पः, तर्हि स्वरूपेऽपि निश्चायकोऽसौ स्यात्, अन्यथा निश्चयस्वरूपेण तादात्म्यविरोधापत्तेः, न च स्वरूपमनिश्चिन्वन्विकल्पोऽर्थ
निश्चायको युक्तोऽन्यथा ह्यगृहीतस्वरूपमपि ज्ञानमर्थग्राहकं भवेत् । १५ तथा च ' अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति' इति वचः
कीर्तेः कीर्तिशेषं स्यात् । कश्चानयोरेकत्वाध्यवसायः किमेकविषयत्वमन्यतरेण वाऽन्यतरस्य विषयीकरणमपरत्रेतरस्याध्यारोपो वा । न तावदेकविषयत्वम् , सामान्यविशेषविषयत्वेनानयोभिन्नविषयत्वात् । दृश्यविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायादभिन्नविषयत्वामित्यपि न सङ्गतम् । एकत्वाध्यवसायो हि दृश्ये विकल्प्यस्याध्यारोप उच्यते। स च गृहीतयोरगृहीतयोर्वा दृश्यश्किल्प्ययोर्भवेत् । न तावगृहीतयोः। भिन्नस्वभावतया प्रतिभासमानयोः स्तंभकुन्भयोरिवैकत्वाध्यवसायायोगात् । न च तयोर्ग्रहणं दर्शनेन । तस्य विकल्पाविषयत्वात् । नापि विकल्पेन, तस्य
दृश्यागोचरत्वात् । नापि ज्ञानान्तरेणोभयोरपि ग्रहणम् । तस्यापि २५ निर्विकल्पत्वे विकल्पात्मकत्वे वा प्रोक्तदोषानतिवृत्तेः । नाप्यगृहतियोः
२०
१' एकस्यैव स्व'-इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू. ७ स्याद्वादरत्नाकरसहितः स सम्भवत्यतिप्रसक्तेः। सादृश्यनिबन्धनश्वारोपः समुपलब्धः वस्त्ववस्तुनोश्च दृश्यविकल्प्ययोः कल्पद्रुमनभःकुसुमयोरिव सादृश्याभावान्नासावुयपन्नः। तस्मान्नैकविषयत्वमेकत्वाध्यवसायः। अन्यतरेणान्यतरस्य विषयीकरणमपि समानकालभाविनोनिर्विकल्पकसविकल्पकयोरपारतन्त्र्यादघटमानमेव । असमानकालभाविनोस्तु तयोः सुतरामन्योन्यं विषयीकरणाभावः । क्षणिकत्वेनैकस्योत्पत्तिसमयेऽपरस्यासम्भवात् । अपरत्रेतरस्याध्यारोपलक्षणोऽप्येकविषयत्वाध्यवसायोऽसम्भवी । तथाहि किं विकल्पे निर्विकल्पस्याध्यारोपो निर्विकल्पके विकल्पस्य वा । प्रथमपक्षे विकल्पव्यवहारच्छेदः समस्तज्ञानानां निर्विकल्पत्वप्रसक्तेः । द्वितीयपक्षे निर्विकल्पकबाटैच्छेदः । सकलज्ञानानां सविकल्पकत्वप्राप्तेः। अन्यच्च १० विकले निर्विकल्पकधर्मारोपाद्वैशधव्यवहारवान्निर्विकल्पके विकल्पधर्मारोपादवैशद्यव्यवहारः किं न भवेत् । अथ निर्विकल्पकधर्मेण वैशयेन विकल्पधर्मस्यावैशद्यस्याभिभूतत्वात् कथं निर्विकल्पके तस्यारोपणेनावैशअव्यवहार इत्यभिधीयते । तर्हि विकल्पधर्मेणावैशयेन निर्विकल्पकधर्मस्य वैशद्यास्याभिभूतत्वात्कथं तस्यारोपणेन विकल्पे वैशाव्यवहार इत्यपि १५ व्याक्रियताम् । भवतु वा निर्विकल्पकधर्मेणैव विकल्पधर्मस्याभिभवस्तथापि तस्य कारणं वाच्यम्। समसमयभावित्वमिति चेत्,तर्हि गोदर्शनसमये भवतामभिमते तुरङ्गमविकल्पे स्पष्टप्रतिभासो भवेत् । समसमयभावित्वविशेपात् । अथानयोभिन्नविषयत्वान्नास्पष्टप्रतिभासममिभूय तुरङ्गमविकल्पे स्पष्टतया प्रतिभासः। तर्हि शब्दस्वलक्षणं प्रत्यक्षेणानुभवता भवता तद्विषयं २० क्षणक्षयानुमानं स्पष्टमनुभूयतामभिन्नविषयत्वाविशेषान्नीलादिविकल्पवत्। अथ भिन्नसामग्रीजन्यत्वादनुमानविकल्पस्य प्रत्यक्षेणावेशद्य लक्षणस्तद्धर्मों नाभिभूयते, तर्हि सकलविकल्पानां विशदावभासिना स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणैकसामग्रीसमुत्पाद्येनाभिभवप्रसक्तिः । अथ तत्रैकसामग्रीसमुत्पाशत्वं नेष्यते । विकल्पानां वासनासमुत्पाद्यत्वात् । स्वसंवेदनस्य तु २५ संवेदनमात्रप्रभवत्वात् । तर्हि नीलादिविकल्पस्यापि प्रत्यक्षेणाभिभवाभाव
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू० ७
प्रसङ्गः । तत्रापि भिन्नसामग्रीसमुत्पाद्यत्वाविशेषात् । वासनाजन्यो हि नीलादिविकल्पञ्चक्षुरादिसामग्रीसमुत्पाद्यं पुनर्नीलादिप्रत्यक्षम् । अपि
च
विकल्पनिर्विकल्पकयोरेकत्वमध्यवस्यति किं निर्विकल्पकं चिकल्पो वा । न तावन्निर्विकल्पकं, तस्याध्यवसायशून्यत्वादितरथा भ्रान्तत्वप्रसक्तिः । नापि विकल्पस्तेन निर्विकल्पकस्याविषयीकरणात् । अन्यथा तस्य स्वलक्षणगोचरताप्रसङ्गात् ' विकल्पोऽवस्तुनिर्भासात् ' इति वचो विरुद्धयते । न चाविषयीकृतस्यान्यत्रारोपो युज्यते । नह्यन्यत्राप्रतिपन्नपञ्चाननः कापि शौर्यादिगुणग्रामभाजि पुरुषविशेषे पञ्चा -. ननत्वमध्यारोपयति । यच्चोच्यते संहृतसकलविकल्पावस्थायां रूपादि१० दर्शनं निर्विकल्पकं प्रत्यक्षतोऽनुभूयते ।
८२.
तदुक्तम् ।
' संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना । स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साक्षजा मतिः ॥ १ ॥'
१५
सर्वतः सर्वस्माद्विकल्पादर्थात् । चिन्तां कल्पनाविषयिणीम् । प्रतिसंहृत्य व्यावृत्य | स्तिमितेनैकार्थाप्रसत्तया निष्प्रकम्पेन । अन्तरात्मना चित्तावस्थाविशेषेण । स्थितो युक्तः प्रमाता यच्चक्षुषा रूपमीक्षते यच्चक्षुषा करणभूतेन रूपदर्शनं सा तादृश्यक्षजा मतिः प्रत्यक्षा प्रसिद्धा ।
तथा ।
२०
' प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति । प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः ॥ इति ॥
एतदपि प्रलापमात्रम् । तस्यामवस्थायां सन्मात्रग्राहिदर्शनसद्भावेन विशेषावभासिनो विज्ञानस्यैवाभावात् । किञ्च तुरङ्गं विकल्पयतो गोदर्शनावस्थायां त्वदभ्युपगतायां गोपिण्डसाक्षात्कारिणः प्रत्यक्षस्य निश्चयात्मकत्वमेवोपपद्यते । अनिश्चयात्मकत्वेऽप्रत्यक्षं स्वीक्रियत एव । २५ गोरित्याद्यभिधानोल्लेखी तु विकल्पः पराक्रियते ।
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परि. १ सू...] स्याद्वादरत्नाकरसहितः हंहो सखे सौगत साधु साधु सम्बुद्धयसे किश्चन बोध्यमानः । यदत्र मुक्त्वा मतपक्षपातं प्रतीतिमार्ग समुपागतोऽसि ।। ७४ ॥
एवं हि त्वया वदता न किञ्चित् प्रतिकूलमनुशीलितमस्माकम् । यतो नैव सविकल्पप्रत्यक्षाणां नामसंश्रेयता स्वरूपमिति वयं सङ्गिरामहे । समारोपपरिपन्थिस्पष्टग्रहणस्वलक्षणत्वात्तेषाम् । न चानिश्चया- ५ स्मनः प्रामाण्यं संगच्छते । गच्छत्तृणस्पर्शादिसंवेदनस्यापि प्रमाणत्वप्रसक्तेः । निश्चयहेतुत्वान्निर्विकल्पकस्यापि प्रामाण्यमित्यप्यशिक्षितलक्षितम् । संशयादिविकल्पजनकस्यापि प्रामाण्यप्राप्तेः । स्वलक्षणानध्यवसायित्वात् संशयादिविकल्पानां न यथोक्तदोषानुषङ्ग इति यदुच्यते तदितरत्रापि तुल्यम् । न हि नीलादिविकल्पोऽपि स्वलक्षणाध्यवसायी । । तदनालम्बनस्य नै निर्विकल्पकस्याविषयीकरणाद्ध्यवसायित्वविरोधात् । तथाहि यद्यन्नालम्बतेन तत्तदध्यवस्यति यथा घटज्ञानं पटम् । नालम्बते च नीलादिविकल्पः स्वलक्षणमित्यपि । मनोराज्यादिविकल्पस्तदनालम्बनः कथं तदध्यवसायीत्यपि न वाच्यम् । मनोराज्यादिविकल्पस्यापि कथश्चित्सत्यराज्यादिगोचरत्वेन तद्ग्राहकस्वभावताभ्युपगमात् । न च १९ निर्विकल्पकस्य विकल्पोत्पादकत्वं घटते । स्वयम विकल्पत्वादर्थस्वलक्षणवत विकल्पोत्पादनसामर्थ्याविकल्पत्वयोरर्थस्वलक्षणे परस्परं विरोधस्य त्वदभिप्रायेण प्रतीतेः। अथ विकल्पवासनां सहकारिणीमपेक्ष्य निर्विकल्पकमपि प्रत्यक्षं विकल्पोत्पादनसमर्थमपि स्वीक्रियते। हन्त तर्हि तथाविधसामर्थ्यसमन्वितोऽर्थ एवास्तु किमन्तर्गडुना निर्विकल्पकेन । अथाज्ञातोऽर्थः कथं विकल्पस्य जनकोऽतिप्रसङ्गात् । ननु दर्शनमपि कथमनिश्चयात्मकं सद्विकल्पजनकमित्यपि समानम् । तस्यानुभूतिमात्रेण जनकत्वे नीलादाविव क्षणक्षयादावपि विकल्पोत्पत्तिप्रसक्तिः। यत्र दर्शनं विकल्पवासनायाः प्रबोधकं तत्रैव विकल्पजनकमित्यपि न यौक्तिकम् । तस्यानुभवमात्रेण
१ संश्रयता' इति म. भ. पुस्तकयोः पाठः । २ ' तत्' इत्याधिक भ. पुस्तके । 'तदध्यवसायित्व' इति म. पुस्तके पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि १ सू.. तत्प्रबोधकत्वे क्षणक्षयादावपि तत्प्रबोधकत्वानुषक्तेः ।। तत्राभ्यासप्रकरणपाटवार्थित्वाभावान्न दर्शनं वासनायाः प्रबोधकमिति चेत् । ननु कोऽयमभ्यासो नाम । भूयो दर्शनं बहुशो विकल्पोत्पत्तिर्वा । न तावद्भूयो
दर्शनम्, तस्य नीलादाविव क्षणक्षयादावपि विशेषणभावात् । अथ बहुशो ५ विकल्पोत्पत्तिरभ्यासस्तस्य क्षणक्षयादिदर्शनस्य विकल्पवासनाप्रबोध
कत्वाभावेनाभावानर्हि परस्पराश्रयप्रसङ्गः । तथाहि सिद्धे क्षणक्षयादौ दर्शनस्य विकल्पवासनाप्रबोधकत्वाभावे बहुशो विकल्पोत्पत्तिस्वभावाभ्यासस्याभावसिद्धिस्तत्सिद्धौ चास्य सिद्धिरिति । क्षणिकाक्षणिक
विचारणायां क्षणिकप्रकरणमप्यस्त्येव । पाटवं पुनर्नीलादौ दर्शनस्य किं १० विकल्पोत्पादकत्वं स्फुटतरानुभवोऽविद्यावासनाविनाशादात्मलाभो वा
भवेत् । प्रथमपक्षेऽन्योन्याऽश्रयप्रसक्तिः । सिद्धे हि नीलादौ दर्शनस्य विकल्पोत्पादकत्वस्वरूपे पाटवे वासनाप्रबोधकत्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ च विकल्पोत्पादकत्वस्वरूपपाटवसिद्धिरिति । द्वितीयपक्षे पुनः क्षणक्षयादावपि वासनाप्रबोधकत्वसिद्धिः स्फुटतरानुभवस्वभावस्य पाटवस्थात्रापि विद्यमानत्वात् । तृतीयपक्षोऽप्युपेक्षणीयः परीक्षकाणाम् । तुच्छस्वभावस्थाविद्यावासनाविनाशस्यानभ्युपगमात् कथं तस्मादात्मलाभलक्षणं नीलादौ दर्शनस्य पाटवं घटेत । अथ दर्शनस्योत्पादकानि यानि कारणानि तत्स्वभावोऽविद्यावासनाविनाशः स्वीक्रियते तस्माश्चात्मलाभलक्षणं पाटवं सुघटमेव दर्शनस्य । नन्वेवंविधपाटवस्य विशेषाभावाद्यथा तद्वशान्नीलादौ दर्शनस्य विकल्पवासनाप्रबोधकत्वं तथा क्षणक्षयादौ किन्न स्यात् । न चैकस्यैव दर्शनस्य नीलादिविकल्पवासनाप्रबोधकत्वं प्रति पाटवं क्षणक्षयादिविकल्पवासनाप्रबोधकत्वं प्रति पुनरपाटवमिति प्रकटयितुं पटीयसां समुचितम् । विरुद्धधर्माध्यासतो
दर्शनस्य भेदप्रसङ्गात् । तथा च ताथागतानां राद्धान्तः । अयमेव हि २५ भेदो भेदहेतुर्वा यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च ' इति ।
किञ्च । यद्यस्मदादीनामप्यविद्यावासनांशविनाशादाविर्भूतं दर्शनं विकल्प
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परि. १ सू..] स्याद्वादरत्नाकरसहितः वासनाप्रतिबोधहेतुस्तहि समस्ताविद्यावासनाप्रलयात्प्रस्तुतं सुगतसंवेदनं सुतरां विकल्पवासनोबोधहेतुः सम्पद्यते । ततश्च ।
* विधूतकल्पनाजालगम्भीरोदारमूर्तये ।।
नमः समन्तभद्राय समन्तस्फुरणत्विषे ॥१॥' - इति प्रमाणवार्तिकस्य प्रथमश्लोके विधूतकल्पनाजालेति विशेषणं ५ वन्ध्यास्तनन्धयसमानं प्रसज्येतेति । अथित्वमप्यभिलषितत्वं जिज्ञासितत्वं या। न तावत्प्रथमपक्षः परीक्षाक्षेत्रम् । कुत्रचिदनभिलषितेऽपि वस्तुनि दर्शनस्य वासनाप्रबोधकत्वदर्शनात्, चक्रकक्रकचपातप्रसङ्गश्च । अभिलषितत्वस्य वस्तुनिश्चयपूर्वकत्वात् । वस्तुनिश्चयस्य च वासनाप्रबोधपूर्वकत्वात्, वासनाप्रबोधस्य चाभिलषितत्वपूर्वकत्वात् , ततो यावन्न १० वस्तुनिश्चयस्तावन्नाभिलषितत्वं सिद्धयति यावन्नाभिलषितत्वं न तावद्वासनापबोधो यावच्च नायं न तावद्वस्तुनिश्चयो याचन्नासौ न तावदभिलपितत्वमिति । द्वितीयपक्षे तु क्षणक्षयादौ तद्वासनाप्रबोधप्रसक्तिः, नीलादाविवात्रापि जिज्ञासितत्वाविशेषात् । ननु यावन्मानं वस्त्वनुभूतं निर्विकल्पकेन यदि तावन्त एव निश्चये निर्विकल्पकवादिना प्रा- १५ वन्तीति प्रेयते तर्हि सविकल्पकप्रत्यक्षवादिनामपि प्रतिवाद्युपन्यस्तस्य समस्तव्यापिमानावर्णपादादेः स्वकीयोच्छासादिसङ्ख्यायाश्च विशेषेण स्मरणं प्रसंज्यते स्मरणकारणस्य निश्चयात्मनोऽनुभवस्य सर्वत्राविशेषात् ।
परमतमविदित्वा मूढ ताथागत त्वं
प्रबलतरनिरूढाहंकृतिग्रस्तबुद्धिः ।। कृतरभसमिदानी स्पर्द्धसे सार्द्धमुद्य
न्मतिविभवसमथुस्तीर्थनाथस्य शिष्यैः ॥ ७५ ॥ .
१ प्रमाणसमुच्चयग्रन्थस्य धर्मकीर्तिना प्रमाणवातिकात्या टीका विरचिता। २' प्रसज्येत' इति म- पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ अवग्रहेहावायज्ञानादनभ्यासात्मकादन्यदेव ह्यभ्यासात्मकं धारणाज्ञानस्वरूपं प्रत्यक्षं तैः कक्षीक्रियते तदभावात्परोपन्यस्तसमस्तमात्रावर्णादाववग्रहादित्रयसद्भावेऽपि स्मरणानुत्पत्तिः । तत्सद्भावे तु स्यादेव सर्वत्र तत् । यथाधारणं स्मरणाभ्युपगमात् । न च सौगतानामप्ययं युक्तः, ५ दर्शनभेदाभावात् । एकस्यैव दर्शनस्य कचिदभ्यासादीनामितरेषां च तै. रभ्युपगमात् । अस्य चाभ्युपगमस्याघटमानत्वात् । तथा चावाचि प्रकरणचर्तुदशशतीसमुत्तुङ्गप्रासादपरम्परासूत्रणैकसूत्रधारैरंगाधसंसारवाड़ि निमज्जज्जन्तुजातसमुत्तारणप्रवणप्रधानधर्मप्रवहणप्रवर्तनकर्णधारैर्भगवतीर्थकरप्रवचनावितथतत्त्वप्रबोधप्रस्तुतप्रवरप्रज्ञाप्रकाशतिरस्कृतसमन्ततीर्थकचक्रप्रवादध्वान्तप्रचारैः प्रस्तुतनिरतिशयस्याद्वादविचारैः श्रीहरिभद्रसूरिभिः शास्त्रवार्तासमुच्चये एकत्र निश्चयोऽन्यत्र निरंशानुभवादपि । न तथा पाटवाभावादित्यपूर्वमिदं तमः' इति । न च तव्यावृत्तिद्वारेणैकस्यापि दर्शनस्याभ्यासेतरादियोगः । स्क्यमतत्स्वभावस्य तदन्य
व्यावृत्तिसम्भवे पावकस्य शीतादिव्यावृत्तिप्रसङ्गात् । तत्स्वभावस्य तदन्य१५ व्यावृत्तिकल्पने फलाभावात् । प्रतिनियततत्स्वभावस्यैवान्यव्यावृत्ति
रूपत्वात् ।
२०
स्यान्मतमभ्यासादिसापेक्षं तन्निरपेक्षं वा दर्शनं न विकल्पकस्योप्राचीनविकल्पवासना- त्पादकं प्राचीनविकल्पवासनाप्रभवत्यात्तस्य । प्रभवत्वमेव विकल्पस्येति तदावासनाया अपि तदावासनाप्रभवत्वमनादिबौद्धशङ्कानिरासः।
वाद्विकल्पजनकवासनासन्तानस्येति । सभासदः सादरमेतदेकं विलोक्यतां कौतुकमस्य भिक्षोः ॥ उपेक्ष्य पक्षं सहसा स्वकीयं यदल्पधीक्ति विलूनशीर्णम् ॥७॥
निर्विकल्पकस्य हि विकल्पाजनकत्वे 'यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता' इत्यस्य विरोधानुषङ्गः । कथं वा वासनाविशेषप्रभवाद्विकल्पा११४४४ ग्रन्था हरिभद्रकृता इति प्रथितिः । २. चतुर्थस्तबके श्लो. २५.
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परि. १ सू. ७ ]
स्याद्वाद रत्नाकरसहितः
त्प्रत्यक्षस्य रूपादिविषयत्वनियमो मनोराज्यादिविकल्पादपि प्रत्यक्षस्य रूपादिविषयत्वनियमप्रसक्तेः । प्रत्यक्षसहकारिणो वासनाविशेषादुत्पन्नाद्रूपादिविकल्पात्प्रत्यक्षस्य रूपादिविषयत्वनियमेऽभ्युपगम्यमानेऽनुमानसाध्यत्वाभिमतक्षणिकताविषयत्वनियमोऽपि यथोक्तहेतोरुत्पन्नात् । क्षणिकत्वविकल्प देवाभ्युपगम्यताम् | अन्यथा रूपादिविषयत्वनियमोsप्यतो माभूदविशेषात् । तथा च क्षणिकत्वगोचरो विकल्पः प्रत्यक्षस्य क्षणिकत्वगोचरत्वनियमहेतुत्वान्यथानुपपत्तेरिति प्रसज्यते । रूपाद्युल्लेखित्वाद्विकल्पस्य तद्बलात्तन्नियमस्यैवाभ्युपगमे प्रत्यक्षस्याभिलापसंसर्गोऽपि तद्धेतुरनुमीयेत विकल्पस्याभिलापोल्लेखितयोत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः । किञ्च निर्विकल्पक दर्शनस्याप्रमाणसिद्धत्वादात्मैवाहंप्रत्ययप्रसिद्धः प्रतिबन्धका १० पायेऽभ्यासाद्यपेक्षो विकल्पोत्पादकोऽस्तु किमदृष्टपरिकल्पनया |
अपि च सविकल्पक प्रत्यक्षस्याप्रामाण्यं किं स्पष्टाकारविकत्वात्, सविकल्पकप्रत्यक्षस्यात्रा - गृहीतग्राहित्यात्, असति प्रवर्तनात्, हिताहितमाण्यढेतवो विकल्प्य प्राप्तिपरिहारासमर्थत्वात् कदाचिद्विसंवादात्,
खण्डिताः ।
समारोपस्यानिषेधकत्वात्, व्यवहारानुपयोगात्, स्वलक्षणागोचरत्वात्, १५ शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासत्वात् शब्दप्रभवत्वाद्वा स्यात् । न तावदस्पष्टाकारत्वात्तस्याप्रामाण्यं अप्रसिद्धत्वात्, अनुमानस्याप्रामाण्यानुषङ्गाच्च । नापि गृहीतग्राहित्वात् । अनुमानाप्रामाण्यानुषङ्गादेव व्याप्तिज्ञानयोगसंवेदनाभ्यां गृहीतस्यार्थस्य तेन ग्रहणात् । कथं वा शब्दविषयस्य क्षणक्षयानुमानस्य प्रामाण्यं शब्दरूपावभास्यध्यक्षावगतक्षणक्षय- २० विषयत्वात् । नाप्यसति प्रवर्तनात् निर्विकल्पकस्याप्रामाण्यानुषङ्गात्तद्विषयस्यापि तत्काले सत्त्वाभावविशेषात् । हिताहितप्राप्तिपरिहारासमर्थत्वात् इत्यप्यसम्भाव्यमेव । सविकल्पक प्रत्यक्षादेव हिताहितप्राप्ति परिहारसिद्धेः । कदाचित्तदभावः पुनर्निर्विकल्पकेऽपि समानः । कदाचिद्विसंवादादित्यप्यसाम्प्रतम् । निर्विकल्प- २५ कस्याप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् । तिमिराद्युपहतचक्षुषोऽर्थाभावेऽपि तत्प्रवृत्ति
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ दर्शनात्, भ्रान्तादस्य भेदोऽन्यत्रापि समानः । समारोपानिषेधकत्वादित्यप्यरमणीयम् । विकल्पविषये समारोपासम्भवात् । नापि व्यवहारानुपयोगात् । सकल व्यवहाराणां विकल्पमूलत्वात् । स्वलक्षणागोचरत्वादित्यसमीक्षिताभिधानम् ! अनुमानेऽप्यप्रामाण्यप्रस५ ङ्गात् । त्वन्मत्या विकल्पस्येवानुमानस्यापि सामान्यगोचरत्वात् । न
चानुमानग्राह्यस्य सामान्यरूपत्वेऽप्यध्यवसेयस्य स्वलक्षणरूपत्वाद्दश्यविकल्प्यावावेकीकृत्य ततः प्रवृत्तेरनुमानस्य प्रामाण्यम् । प्रकृतविकल्पेऽप्यस्य समानत्वात् । शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासत्वादित्यप्यसमीचीनम् । अनुमानेऽपि तुल्यत्वात् । शब्दप्रभवत्वादित्यप्यसाम्प्रतम् । शब्दस्वलक्षणाध्यक्षस्याप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् । ग्राह्यार्थं विना शब्दमात्रप्रभवत्वं त्वसिद्धमस्माकं नीलादिविकल्पानामर्थे सत्येव भावात्, कस्यचित्तु तमन्तरेणापि भावो निर्विकल्पकेऽपि समानः । द्विचन्द्रादिनिर्विकल्पकस्यार्थाभावेऽपि भावात् । भ्रान्तादम्रान्तस्य भिन्नत्वमत्रापि तुल्यम् । एवं तावत्परेषामुपशमपदवी प्रापिताः सर्वतोऽमी
स्याद्वादस्वाददिग्धैः करणकृतमतौ निर्विकल्पप्रवादाः । एवं चाध्यक्षबाधा भवतु कथमिव प्रोक्तपक्षैकदेशे
सिद्धा सन्तस्ततश्च व्यवसितिसुभगा मानभूतेह बुद्धिः ॥७७॥ अत्राहुः शब्दब्रह्मवादिनः ।।
. प्रियं प्रियं नः सकलापि बुद्धिः - शब्दब्रह्मवादिमतं सविस्तरमुद्भाव्य खण्डितम् । प्रमाणभूता व्यवसायिनी यत् ।।
न युज्यते तु व्यवसाय एव
शब्दानुवेधं परिमुच्य जातु ॥ ७८ ॥ शब्दसम्पर्कपरित्यागे हि प्रत्ययानां प्रकाशरूपताया एवाभाव
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... . ' अपि ' इत्यधिक भ. म. पुस्तकयोः । २ ‘चासिद्ध ' इति म. पुस्तके पाठः।
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परि, १ सू. ७ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रसक्तिः । वाग्रूपता हि शाश्वती प्रत्यवमर्शनी च तदभावे प्रत्ययानां नापरं रूपमवशिष्यते । तदुक्तम् ।
'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन वर्त्तते ॥१॥ वाग्रूपता चेत् व्युत्क्रामेत् अवबोधस्य शाश्वती।
न हि बोधः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥२॥' इति सा चेयं वाक् त्रैविध्येन व्यवस्थिता वैखरी मध्यमा पश्यन्तीति । तत्र येयं स्थानकरणप्रयत्नक्रमव्यज्यमानाकारादिवर्णसमुदायात्मिका । वाक् सा वैखरीत्युच्यते । तदुक्तम् ।
'स्थानेषु विधृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा । वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ॥ १॥' अस्यार्थः । स्थानेष्विति ताल्वादिस्थानेषु । वायौ प्राणसंज्ञे । विधृतेऽभिघातार्थं निरुद्धे सति कृतवर्णपरिग्रहेति हेतुद्वारेण विशेषणं ततः ककारादिवर्णरूपस्वीकारात् वैखरीसंज्ञा वक्तृभिर्विशिष्टायां खरावस्थायां स्पष्टरूपायां भवा वैखरीति निरुक्तेः । वाक्प्रयोक्तृणां सम्ब- १५ धिनी । यद्वा तेषां स्थानेषु तस्याश्च प्राणवृत्तिरेव निबन्धनं तत्रैव निबद्धा सा तन्मयत्वादिति । या पुनरन्तःसङ्कल्प्यमाना . क्रमवती श्रोत्रग्राह्यवर्णरूपाभिव्यक्तिरहिता वाक् सा मध्यमेत्युच्यते । तदुक्तम् ।
'केवलं बुद्धापादानात्कमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक प्रवर्तते ॥१॥ अस्यार्थः । स्थूलां प्राणवृत्तिं हेतुत्वेन वैखरीवदनपेक्ष्य केवलं बुद्धिरेवोपादानं हेतुर्यस्याः सा प्राणस्थत्वात्नमरूपमनुपतति । अस्याश्च .. १ वाक्यपदीये प्रथमकाण्डे श्लो. १२४, १२५. २ 'प्रकाशः प्रकाशेत' इति भ. प. पुस्तकयोः पाठः । ३ ' उपादानां' इति भ. पुस्तक तथा 'उपादान' इति प. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ मनोभूमाववस्थानं, वैखरीपश्यन्त्योर्मध्ये भावान्मध्यमा वागिति । या तु ग्राह्यभेदक्रमादिरहिता स्वप्रकाशा संविद्रूपा वाक् सा पश्यन्तीत्युच्यते । तदुक्तम् ।
__ 'अविभागा तुं पश्यन्ती सर्वतः संहतकमा । ५ स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी ॥ १ ॥'
अस्यार्थः । पश्यन्ती यस्यां वाच्यवाचकयोर्विभागेनावभासो नास्ति सर्वतश्च सजातीयविजातीयापेक्षया संहृतो वाच्यानां वाचकानां च क्रमो देशकाल कृतो यत्र क्रमविवर्तशक्तिस्तु विद्यते । स्वरूपज्योतिः
स्वप्रकाशा वेद्यते वेदकभेदातिक्रमात् । सूक्ष्मा दुर्लया । अनपायिनी १० कालभेदास्पर्शादिति । अपि च सकलमेवेदं वाच्यवाचकतत्त्वं शब्दब्रह्मण एव विव? नान्यविवों नापि स्वतन्त्रमिति । यथोक्तम्- अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षरम् ।
विवर्त्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ १॥
अनादिनिधनं हि शब्दब्रह्म उत्पादविनाशाभावात् । अक्षरं चाकारा१५ द्यक्षरस्य निमित्तत्वात् । अनेन वाचकरूपता ! अर्थभावेनेत्यनेन तु
वाच्यरूपता सूचिता । प्रक्रियेति भेदाः, शब्दब्रह्मेति नामसंकीर्तनमिति । व्यवहारोऽपि सकलः शब्दानुविद्ध एवानुभूयते । न हि भोक्ष्ये दास्यामीत्याद्यनुल्लिखितशब्दः कश्चिदपि स्वयं भोजनदानादि
निष्पत्तये प्रयतते । परं वा मुंव देहीत्यादिशब्दं विना प्रवर्त्तयति । २० जीवितमरणस्वरूपाविर्भावोऽपि शब्दाधीन एव । तथाहि सुषुप्ति
दशायामनुल्लिखितशब्दस्वरूपत्वान्न कश्चित्पञ्चता प्राप्ताद्विशिष्यते। तदुत्त. रसमयं तु कुतश्चिच्छब्दात् प्रबुद्धः पुमान् शब्देनैवान्तर्जल्पात्मनात्मानमनुसन्धानो जीवितमनुव्रजति । न चाद्वयरूपे तत्त्वे कथमाविर्भावतिरोभावादिरूपभेदप्रपञ्चप्रतिभासः स्यादिति वचनं चेतसि निधेयम् । अविद्या
१'नु' इति भ. प. पुस्तकयोः पाठः । २ वाक्यप. कां १. श्लो. १.
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परि. १ सू..] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तस्तत्र तत्प्रतिभासाविरोधादाकाशवत् । यथैव हि तिमिरतिरस्कृतलोचनो जनो विशुद्धमप्याकाशं विचित्ररेखानिकरकरम्बितमिव मन्यते । तथाऽनादिनिधनमभिन्न स्वभावमपगतनिखिलभेदप्रपञ्चमपि शब्दब्रह्माविद्यातिमिरविधुरितविवेकलोचनः प्रादुर्भावतिरोभावादिभेदप्रपञ्चान्वितमिव प्रतिपद्यते । तद्रुक्तम् ।
'यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ॥१॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं तु पश्यति ॥ २॥" इति । सकलाविद्याविलासविलये तु योगिनस्तत्प्रपञ्चानन्वितं यथावत्त- १० स्स्वरूपं प्रतिपदान्ते । यथा च वीचीबुहुदफेनरूपो वारिविकारः सारभूतममलं जलमाविर्भावतिरोभावार्थमपेक्षते तथा व्यावहारिकः स्थूलोऽयमकारादिशब्दमेदप्रपञ्चः परमसूक्ष्मप्रतिभासमात्रैकरूपं सर्वशब्दविषयविज्ञानप्रसवनिमित्तं काप्यनियमितैकनिजस्वभावं शब्दमयं ब्रह्मापेक्षते । उक्तं च
- 'अनुविद्धैकरूपत्वाद्वीचीबुद्रुदफेनवत् । वाचः सारमपेक्षन्ते शब्दब्रह्मोदकाद्वयम् ॥ १॥' इति । वाग्रूपतामवगणय्य जगत्सु नैव
कस्यापि किञ्चन कदाचन संचकास्ति । संवेदनं तदिह शब्दमयं प्रसिद्ध
स्यादन्यथा कथमिवास्य ननु प्रकाशः ॥ ७९ ॥ एतत्समीरणसमीरितनीरबिन्दु.
नाशं विनश्यतु सतां पुरतः समस्तम् ॥ यस्मात्प्रमाणपरिपन्थि निरुप्यमाणं
दारेषु गौरवमुपैति न कोविदेषु ॥ ८० ॥ - १ 'आपन्न' इति पं. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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२
प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ तथाहि यत्तावदवादि शब्दानुवैधं परिमुच्य जात्वित्यादि । तत्र कोऽयं शब्दानुवेधो नाम । बोधस्य शब्देन संयोगविशेषः पारदेनेव ताम्रादेरिति चेत् । तदिदमतिरभसेन विस्मृत्य स्वमतमुक्तमायुष्मता। शब्दाद्वैतवादी हि भवान् न च तत्र शब्दो बोधश्चेति द्वयमस्ति । द्वैतप्रसक्तेः द्वैताभावे च शब्दबोधयोरसम्भवी संयोगविशेषः । तस्य द्वैतेनैव व्याप्तत्वात् । न चाद्वैतवादुर्विदग्धानां संयोगोऽपि कश्चिदस्ति द्वैतप्राप्तेरेवेति । न संयोगविशेषोऽनुवेधशब्दवाच्यः शब्देन बोधस्य तादात्म्यमनुवेधो नीलगुणेनेव पटादेरिति चेत् । तदप्यविशदम् । शब्द
बोधयोरेकान्तेन तादात्म्येऽनुवेधशब्दप्रयोगस्यायोगात् । न हि १० प्रयुञ्जते यौक्तिकाः कुम्भस्य कुम्भेनानुवेध इति । ननु कथं पटादे
रनुवेधो नलिगुणेनेति प्रयुक्तिरिति चेत् । न गुणगुणिनोस्तादात्म्यैकान्तस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । अस्तु वाऽनुवेधशब्दाभिधेयमेकान्तेन तादात्म्यं तदापीदं शब्दबोधयोनोपपद्यते। सति ह्यस्मिन् बोधस्याचेतनत्वं
स्यादचेतनशब्दताम्येनावस्थितत्वात्तथा चानुभवविरोधः । शब्दस्य वा १५ बोधमात्रतापत्तिरिति बोधमात्रवादसिद्धिः स्यात् । तथा च जिनदत्तेन
प्रोक्तः शब्दः समीपवर्तिनापि जिनदासेन न श्रुयेत । जिनदत्तबोधतादात्म्येन तस्यावस्थिततया जिनदासश्रवणसरणिं यावद्नुसरणासम्भवात् । अथ बोधात्माप्ययमनुसरति तां तेन श्रवणान्यथानुपपत्तेरिती
ष्यत तर्हि यः कश्चित् कस्यचिद्बोधः स सकल एकस्यापि शब्दस्य २० श्रवणे श्रोत्रा प्रतीयत । तस्य सकलप्रमातृबोधतादात्म्येनावस्थितत्वात् ।
तथा च सकलः श्रोता परचित्तपरिच्छेदकः स्याच्छब्दस्यैव चित्तत्वात् । तथा चाभाणि समन्तभद्रेण ।
'बोधात्मता चेच्छब्दस्य न स्यादन्यत्र तच्छ्रतिः । यद्बोद्धारं परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति' ॥१॥ इति, 'न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते।। शब्दाभेदेन सत्येवं सर्वः स्यात्परचित्तवित् ॥ २॥ इति,
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परि. १ सू. ७ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
'अथाभिधीयते योऽयं शब्दात्मा विदितः सताम् ।
चेतनोऽचेतनवायमित्यभ्युपगमो मम ॥ ३॥ सिद्धयत्वेष तवायुष्मन्निःप्रत्यूहतया यतः । विश्ववैचित्र्यमेवेत्थं शब्दशब्देन शब्दितम् ॥ ४॥ विवादो न च नामास्ति नाम्नि वस्तुपरीक्षिणाम् ।
कश्चिन केचिदाचष्टे राममन्यस्तु रावणम् ॥ ५ ॥ तन्नैकान्ततादात्म्यं शब्देनानुवधो बोधस्याभिधातुं युक्तः । अपि चानयोस्तादात्म्यं कुतः प्रत्येयम् ! न तावत् प्रत्यक्षात् तस्य स्वस्माद्भेदेनैव शब्दग्रहणे शब्दाढ़ेदेनैव स्वग्रहणे प्रवृत्तः । नाप्यनुमानात्तस्य .. . निर्बाधस्य कस्यचिदसम्भवात् । अथ शब्दार्थयोस्तादात्म्यप्रसिद्धेः १० सिद्धमेव शब्देन बोधस्य तादात्म्यं बोधम्यार्थत्वादिति चेत् । तन्नोपपन्नम् । शब्दार्थयोस्तादात्म्यस्य कुतोऽप्यप्रसिद्धः । यत्प्रतीतावेव यत्प्रतीयते तयोस्तादात्म्यं यथा वृक्षत्वाशिंशपात्वयोः । शब्दप्रतीतादेव प्रतीयते च तदर्थ इत्यतोऽनुमानातत्सिद्धिरिति चेत् । तदचतुरस्रम् । त्वन्मतेन शब्दार्थयोस्तादात्म्यमिति शब्दार्थस्याघटनात्।तथाहि। शब्दार्थ- १५. योस्तादात्म्यमिति कोऽर्थः। यदि तदात्मनो वस्तादात्म्यमेवं तर्हि तौ द्वावपीष्टायेव पृथग्भावाभिधानादिति नानयोक्यमेव । अथ यत्र भवतामर्थ इति प्रसिद्धिरसौ शब्दपरिणाम एव । न खलु शब्दात्पृथगर्थ: कश्चिदस्ति । शब्दब्रह्मपरिवर्तमात्रत्वाजगत इति कुतो द्वये दृष्टिरस्माकं स्यादिति चेत् । नन्वेवं कथं तदात्मनोः शब्दार्थात्मनो व- २०. स्तादात्म्यमिति द्विवचनाभिधानं न विरोधमधिरोक्ष्यति । शब्दाद्भिनस्यार्थात्मनः कस्यचिदभावात् । अथ तदात्मनो भावस्तादात्म्यमित्यभिधीयते । नन्वत्रापि वक्तव्यं कस्यायमात्मा यदात्मनो भाव इति
१ कश्चित्' इति प. पुस्तके तथा 'कश्चित्कदाचित्' इति म. पुस्तके पाठः ।
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१०
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ भाषसे । यदि शब्दस्य तदा तद्व्यतिरेकेणार्थाभावात् सर्वस्य शब्दमात्रत्वाच्छब्दार्थयोस्तादात्म्यमिति न न्यायसङ्गतम् । न हि देवदत्तवन्ध्यासुतयोस्तादात्म्यमित्यभिदधति सुधियः । अथार्थस्य तदाप्येतदेव दूषणम् । अर्थाद्वैतापत्त्या शब्दाद्वैताभावप्रसक्तिश्च । इति न ५ शब्दार्थयोस्तादात्म्यमिति शब्दार्थ उपपद्यते । अपि च शब्दार्थयोस्ता
दात्म्यं प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्तम् । चाक्षुषप्रत्यक्षं हि पटकुटादिपदार्थसाथै परिच्छिन्दत् शब्दाद्भिन्नमेव परिच्छिनत्ति । श्रोत्रप्रत्यक्षमपि शब्द साक्षात्कुर्वल्कुटादिभ्यो भेदेनैव साक्षात्करोति । अनुमानबाधितं च तत् । तथाहि । नास्ति शब्दार्थयोस्तादात्म्य भिन्नदेशत्वाद्भिन्नकालत्वाद्भिन्नाकारत्वाद्वा स्तम्भकुम्भवत् । न च भिन्नदेशत्वमसिद्धम् । कर्णकुहरे हि शब्दः समुपलभ्यते भूतलादौ त्वर्थः । अभिन्नदेशतायां त्वनयोः शब्दोपलब्धौ प्रमातुर्नार्थे प्रवृत्तिः स्यादस्ति चेयम् । तथाहि ।
अहो दिष्टया प्राप्तास्तदिह चरणाम्भोजरजसा . ___ पवित्रीकुर्वन्तः क्षितितलमिदं धर्मगुरवः । इति श्रुत्वा केऽपि प्रकृतसुकृतास्तत्प्रणतये
प्रवर्तन्ते तूर्णं प्रकटपुलकालंकृतिभृतः ॥ ८१ ॥ भ्रान्तिमात्रमिति चेत् । धिरे धिक् त्वामपहस्तितोऽसि यदेतदपि भ्रान्ति भाषसे । नपत्र किञ्चित्प्रमाणमस्ति । अथास्त्येव प्रमाणं तयोस्तादात्म्यमिति चेत् । तदिदमसिद्धमसिद्धेन साधयन्नयं निर्मर्यादशिक्षणीयः परीक्षकाणामिति नासिद्धं शब्दार्थयोभिन्नदेशत्वम् । नापि भिन्नकालत्वं स्तम्भादिभावानाम् । तच्छब्देभ्यः पूर्वमपि तेषामुपलम्भात् । नापि भिन्नाकारत्वम् । तस्य शब्दार्थयोराबालमपि प्रसिद्धत्वादिति । अमुनाप्यनुमानेन बाध्यते तयोस्तादात्म्यम् । तथाहि । यो यत्साध्य
१ धिक् ' इति नास्ति प. भ. पुस्तकयोः । २ 'शब्दो' इति भ. पुस्तके पाठः।
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फरि. १ सू. ७ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रयोजनं न निष्पादयति न स तेन तादात्म्यमनुभवति यथा रूपेण रसो न निष्पादयति च कृपाणप्रभृतिपदार्थसाध्यं प्रयोजनं कर्तनादिकं शब्द इति । न च शब्दस्य पदार्थप्रयोजनाप्रसाधकत्वमसिद्धम् । तत्त्वे कृपाणपाषाणादिशब्दसमुच्चारेण वक्रादीनां कर्त्तनाभिधातादिप्रसक्तेः । अथ यथा शब्दातिरिक्तार्थवादिनामतिनिशितनिष्ठुरधारा- ५ ग्रस्यापि मण्डलाग्रस्य यलेन वक्रावेशे विधीयमाने कर्तनादेरभावस्तवस्थाविशेषहेतुकत्वात्तस्य । तत्सत्तामात्रहेतुकत्वे तु न कश्चिद्कृन्तद्वक्रः स्यात्सत्तामात्रस्य सर्वान् प्रत्याविशिष्टत्वात्तथा शब्दाद्वैतवादिनां तच्छब्दोच्चारणेऽपि तदभावो भाविष्यति तत एवेति नोक्तदोषानुषङ्ग इति चेत् । मैवम् । शब्दातिरिक्तार्थवादिनां हि मते मण्डलायादी- १० नामवस्थानभेद उपपद्यते तद्व्यतिरिक्तभेदकभावात् । सन्ति हि पुरुषप्रयत्नादृष्टादयः खड्गादीनां भेदका इति । शब्दब्रह्ममात्रतत्त्ववादिनस्तु मते नास्ति शब्दब्रह्मव्यतिरिक्तं किञ्चिद्भेदकं नाम । न चैतद्वाच्यं स्वयमेवैतद्विचित्रस्वभावं शब्दब्रह्मेति । शब्दब्रह्मसम्बन्धिनः स्वभाव - स्यापि शब्दब्रह्ममात्रत्वात्तस्य च षुरुषप्रयत्नादिरूपतया विचित्रत्वा- १५ भावात् । विचित्रत्वे च जगद्वैचित्र्यस्वरूपस्यैव ब्रह्मेति नाम कृतं स्यादिति नासिद्धिः पदार्थप्रयोजनाप्रसाधकत्वसाधनस्येति । इतोऽप्यनुमानात् शब्दार्थयोस्तादात्म्यं बाध्यते । तथाहि । न शब्दार्थयोस्तादात्म्यं विभिन्नेन्द्रियजनितज्ञानग्राह्यत्वाद्रूपरसवत् । नानापि साधनमसिद्धिधूमितम् । न हि नायन विज्ञानं शब्दे प्रवर्तते रसादि- २० ज्ञानवत् । अन्यथेन्द्रियान्तरपरिकल्पनावैयर्थ्यम् । नायनविज्ञानस्यैव समस्तार्थग्राहकत्वप्रसक्तेः । नापि श्रौत्रं संवेदनं बाह्येवर्थेषु प्रवर्त्तत एंव इति न शब्दार्थयोस्तादात्म्यमिति प्रतिज्ञा श्रेयसी । शब्दप्रतीतावर्थस्य प्रतीयमानत्वादिति हेतुरप्यसिद्धः । केनचिद्विज्ञानेन शब्द
१ 'चक्र' इत्यधिकं म. प. पुस्तकयोः । २ पदार्थसाथसाध्य ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः । ३ ' एव' इति नास्ति म. पुस्तके ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. ७
संस्पर्शशून्येनापि पदार्थप्रतिपत्तेः । न खलु निखिलवस्तुवेदनानि समुल्लिखितशब्दान्येवेत्युक्तं प्राक् । अथाभिदधीथाः यथा सषुप्तावस्थायामनुपलक्ष्यमाणोऽपि सूक्ष्मः समस्ति बोधः प्रबुद्धावस्थायां तस्यैव स्थूलभावात् तथा त्वया शब्दसंस्पर्शशून्यत्वेनाभिमते ज्ञानेऽपि समस्त्येव ५ सूक्ष्मः शब्दः । कथमन्यथाऽसौ घटोऽयमित्युलेखेनोर्ध्वं स्थूलभावः भजेत् । तदप्यसङ्गतम् । सुषुप्तबोधदृष्टान्तावष्टम्भेन दान्तिकसिद्धेरत्र सविनत्वात् । न हि सुप्तादिबोधः सूक्ष्मः सन्नन्यूनातिरिक्तः प्रबुद्धा वस्थायां स्थूलो भवत्येकान्तैकरूपस्य तदन्यप्रतिबन्धककर्मणोऽभावेऽवस्थाभेदानुपपत्तेः । प्रतिबन्धक कर्मसद्भावे च तत्कृतश्चैतन्यक्रियानिषेधः १० तदभावे च तत्क्रिया । न चैवं शब्दात्माने किञ्चिदतिरिक्तमस्तीति न सूक्ष्मस्य स्थूलभावः । न खल्पचयकर्तृदलाभावे सूक्ष्मस्य सतः कस्यापि स्थूलतोपलब्धचरीति । किञ्च तज्ज्ञानैरुपगतः सूक्ष्मः शब्दः किं बोधरूप एव किंवा बोधातिरिक्तरूपः । यदि बोधरूपस्तर्हि कथमकाथ ' अनुविमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन वर्त्तते' इति । बोधमात्रसद्भावेन शब्दानुवि१५ द्धत्वशब्दार्थानुपपत्तेः । आत्मनात्मानुवेधाभिधानस्यात्यन्तमसम्बद्धत्वात् । अथ बोधातिरिक्तरूपस्तर्हि तेन सूक्ष्मशब्देन बोधस्यानुवेधे समस्तवस्तुस्तोमस्यापि सूक्ष्मस्य तत्र सत्त्वापत्तिस्तस्य सूक्ष्मशब्दतादात्म्येनावस्थितत्वात् । अथ कोऽयं प्रसङ्गोऽभ्युपगम्यत एव हि मतौ सूक्ष्मोऽर्थ इति चेत् ।
९६
२०
कल्लोलिनीकाननकाञ्चनादिरत्नाकरैः कीर्णमिदं समस्तम् । ब्रह्माण्डमप्यस्ति मतौ सुसूक्ष्ममेतत्सखे जल्पति कस्त्वदन्यः ॥८२॥
अत्यन्तमलौकिकं ह्येतद्यद्बोधे सूक्ष्मोऽर्थ इत्यसिद्धं शब्दप्रतीतावे'वेत्यादिसाधनम् । वृक्षत्वाशिंशपात्वयोरिति निदर्शनमपि साध्यशून्यम् । तत्रैकान्ततादात्म्यस्यासम्भवात् । कथञ्चिद्भेदनिबन्धनस्य कथश्चितादा
१' प्रबोध ' इति म. पुस्तके पाठ: । २ ' रूप ' इति नास्ति म. पुस्तके |
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परि. १ सु. ७]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
त्म्यस्यैवोपपत्तेः । वृक्षत्वशिंशपात्वे हि विशिष्टौ वस्तु कथञ्चिद्भेदाभेदवृत्ती नान्यथाऽनयोस्तादात्म्यम् । तदा हि यदि वृक्षत्वमेव शिशपात्वं शिशपात्वमेव वा वृक्षत्वं तदाऽनयोर्व्याप्यव्यापकभावाभावः स्यात् । प्रथमपक्षे धवाद्यभावप्रसंगस्तत्र वृक्षत्वस्य विद्यमानत्त्वात्तस्य च शिंशपात्वात् । अथ विशिष्टमेव वृक्षत्वं शिंशपात्वं तच धवादौ न विद्यते ५ कुतो धवाद्यभावप्रसङ्ग इति चेत् । ननु किमस्य विशेषणं यतो वैशिष्टथं स्यात् । शिंशपात्वमेवेति चेत् ! अहो अस्य तार्किकत्वं यच्छिशपात्वगोचर एव पर्यनुयोगे शिंशपात्वाविशिष्टं वृक्षत्वं शिंशपात्वमुच्यत इत्यभिधत्ते । अभिदधातु वा तथापि सिद्धं शिंशपात्वं कथञ्चिदन्यत् वृक्षत्वात् । अन्यथा तेन तस्य वैशिष्ट्यमि- १० त्युक्तेरेवायोगादिति साध्यविकलमुदाहरणम् । साधनविकलं च । न खलु शिंशपात्वप्रतीतावेव वृक्षत्वं वृक्षत्वप्रतीतावेव वा शिशपात्वं प्रतीयत इत्यवश्यम्भावः । धवादिषु शिंशपात्वप्रतीतिमन्तरेणापि वृक्षत्वस्य वृक्षत्वप्रतीतिमन्तरेणापि वा क्वचन शिंशपात्वस्य प्रतीतिसद्भावात् । तदेवं शब्दार्थयोस्तादात्म्यस्याप्रसिद्धेः कथमेतद्बोधार्थयोरपि सिद्धयेत् ।
इत्थं च बोधस्य विचार्यमाणं मुहुर्मुहुर्युक्तिसहस्रशोऽपि ॥ शब्दानुविद्धत्वमिदं कथञ्चिन्न नाम सम्यग्घटनामुपैति ॥ ८३ ॥
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१५
एवं च यदवादि ' न सोऽस्ति प्रत्ययो लोक ' इत्यादि । तदपि व्यतिसृष्टादेशमवसेयम् । यदपि वाचस्त्रैविव्यमभ्यधायि । तदप्यस्माकं चातुर्विध्येन सम्मताया वाचः प्रकारत्रयमाकृप्य स्वकीयाभिधानदाने- २० नास्य नाटकोपाध्यायस्यैव नूतनार्थोपदर्शनं न पुनस्तत्त्वतः । तथाहि । द्रव्यभावभयाद्विधा वाग् द्रव्यवागपि मतोभयी सताम् ॥ द्रव्यपर्ययभिदादिमानयोः शब्दपुद्गल कदम्बकात्मिका ॥ ८४ ॥ कर्णकोटर कुटुम्बिनी पुनः प्रोच्यते निनदपर्ययात्मिका । वैखरीति कथयन्तु तां परे नाममात्र परिकल्पपण्डिताः ॥ ८५ ॥
२५
७
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. ७ भाववागपि मता मनीषिणां व्यक्तिशक्तिविधया द्विधा पुनः । व्यक्तिवागिह विकल्पिका मतिः श्रोत्रगम्यवचसां निबन्धनम् ॥८६॥ मध्यमेत्युपदिशन्ति तां पुनर्ये निवारयति कः सुधीरमून् । वस्तुतत्त्वघटनैकलम्पटः को हि नाम्नि कलहायते बुधः ।। ८७ ॥ वाम्वेदनावारककर्मनाशवशेन येयं भवतीह वक्तुः !
सा शक्तिरस्याः खलु भाववाचो वदन्तु पश्यन्त्यभिधानमन्ये ।।८८॥ . अपि च शब्दातिरिक्तभेदकवादिनो जैना एव वाचः प्रकारान् प्रदर्शयन्तः शोभन्ते। एकान्तेनैकरूपशब्दब्रह्मवादिनः पुनरमी तपस्विन
स्तदतिरिक्तभेदकदरिद्राः कथं वाक्त्रैविध्यं संवाहयिष्यन्ति न स्वरूपं १० भेदकमिति च पूर्वमेव प्रकटितम् । यदवाचि सकलमेवेदं वाच्यवाचकतत्त्वं शब्दब्रह्मण एव विवर्त
.. इत्यादि । तदपि नानवद्यम् । शब्दब्रह्मणः सकलं वाच्यवाचकतत्त्वं
शब्दब्रह्मविवर्तरूप- सद्भावे प्रमाणाभावात् । तथाहि तत्सद्भावः मिति मतस्य खण्डनम्। प्रत्यक्षेण प्रतीयतानुमानेनागमेन वा । यदि १५ प्रत्यक्षेण, तत्किमिन्द्रियप्रभवेणातीन्द्रियेण वा । तत्राद्यपक्षो न
समीचीनः । यतः सकलदेशकालार्थाकारनिकरकरम्बितस्वरूपं शब्दब्रह्म भवतामभिमतम् । एवंविधस्य चास्य सद्भावः किं श्रवणेन्द्रियप्रभवप्रत्यक्षेण प्रतीयेत तदितरेन्द्रियजनिताध्यक्षेण वा । न ताव
च्छूवणेन्द्रियप्रभवप्रत्यक्षेण । तस्य शब्दस्वरूपमात्रविषयतया स्वाविष२० येण सकलदेशकालाकारनिकरेणान्वितत्वं ब्रह्मणि प्रतिपत्तुमसमर्थ
त्वात् । तथाहि । यद्यदविषयं न तत्तेनान्वितत्वं कस्यचित्प्रतिपत्तुं समर्थं यथा चक्षुर्ज्ञानं रसेन । सकलदेशकालार्थाकारनिकराविषयं च श्रवणेन्द्रियप्रभवप्रत्यक्षमिति । तदविषयेणापि तेन तदन्वितत्वप्रतिपत्ता
वतिप्रसक्तिः । एतेन तदितरेन्द्रियजनिताध्यक्षेणापि तत्प्रतीतिः प्रति२५ क्षिप्ता । शब्दाविषयत्वेन तस्याः तत्प्रतीतावपर्याप्तत्वात् । तन्नेन्द्रिय
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परि. १ सू. ७ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रत्यक्षेण शब्दब्रह्मप्रतीतिः । नाप्यतीन्द्रियप्रत्यक्षेण । तस्यैवात्रासम्भवात् । योगिनां योगजं तत्सम्भवतीति चेत् । न । योगियोगतत्प्रभवप्रत्यक्षाणां सम्भवे सत्यद्वैताभावप्राप्तेः । न तत्प्राप्तिर्योग्यवस्थायामात्मज्योतीरूपस्यास्य स्वयं प्रकाशनादित्यपि बालप्रलपितम् । योग्यवस्थावज्योतीरूपं च स्वयं प्रकाशनं चेत्येवं लक्षणस्य त्रयस्य ५ सम्भवे सत्यद्वैताभावस्य तदवस्थत्वात् । अपि च योग्यवस्थायामतीन्द्रियप्रत्यक्षस्य ब्रह्मस्वरूपप्रकाशनस्वीकारे ततः प्राक्तद्रूपं प्रकाशते न वा ! यदि प्रकाशते, तदानीमनायासनिष्पन्नः सर्वदा सर्वेषां मोक्षः स्याज्योतिःस्वभावब्रह्मप्रकाशो हि मोक्षः स चायोग्यवस्थायामप्येवं प्रामुयात् । अथ न प्रकाशते, तदा तत्किमस्ति न वा। यदि नास्ति १० कथं तन्नित्यं कादाचित्कत्वादविद्यावत् । अथास्ति तर्हि कस्मान्न प्रकाशते । ग्राहकाभावादविद्याभिभूतत्वाद्वा । तत्र प्रथमपक्षो न क्षोदक्षमः । ब्रह्मण एव तद्ग्राहकत्वात् । तस्य च नित्यतया सदा सत्त्वात् । द्वितीयपक्षोऽपि न श्रेयान् । अविद्याया विचार्यमाणाया अनुपपद्यमानत्वात् ।
सा हि शब्दब्रह्मणः सकाशाद्भिन्ना भवेदभिन्ना वा । भिन्ना चेत् प्रसङ्गादविद्यायाः खण्ड- किमसौ वस्तु अवस्तु वा स्यात् । न तावद. नम्। ततः शब्दब्रह्मसाध- वस्तु, अर्थक्रियाकारित्वात् ब्रह्मवत् । तत्कारि
कानुमानादिविचारः। त्यस्या अवस्तत्वे ब्रह्मणोऽप्यवस्तुत्वप्रसङ्गः। अथार्थक्रियाकारित्वमप्यस्या नेष्यते तत्कथं वस्तुत्वापत्तिरित्यभिधीयते । २० हन्त कथमेवमविद्यया कलुषत्वमिवापन्नमित्यादि वचो घटेत । आकाशे च वितथप्रतिभासहेतुभूतं वास्तवमेव तिमिरहेतु प्रसिद्धमविद्यायाश्चावास्तवत्वेन ब्रह्मणि विचित्रप्रतिभासहेतुत्वानुपपत्तितो दृष्टान्तदार्टान्तिकयोः साम्यासम्भवाद्यथा विशुद्धमाकाशमित्याद्यपि दुरुपपादमेव । न चानाधेयापहेयातिशयस्य शब्दब्रह्मणोऽविद्यासामर्थ्या- २५
१. योगावस्थायां ' इत्युचितं भाति ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ७ द्भेदेन प्रतिभासो ज्यायान् । अतिप्रसक्तेः । नाप्यवस्तुमाहात्म्यावस्तुनोऽन्यथाभावो भवति । अतिप्रसक्तेरेव । अथ वस्त्वविद्या, तन्न वाच्यमभ्युपगमहानिप्रसङ्गात् । ब्रह्माविद्यालक्षणवस्तुद्वितयप्राप्त्याद्वैताभावप्रसक्तेः । अथाभिन्ना, तदानीमविद्यायाः सत्यरूपतापत्तिः । सत्यरूपाद्ब्रह्मणः सकाशादभिन्नत्वात्तत्स्वरूपवत् । ततश्च कथमविधाया मिथ्यात्वप्रतीतिनिमित्तत्वं । ब्रह्मवदिति नास्त्यविद्या असत्या वा । न ज्योतिःस्वभावस्य ब्रह्मणः कथमप्यभिभवः कत्तुं शक्यते । ततोऽसत्त्वादेवायोग्यवस्थायामात्मज्योतिःस्वरूपस्य शब्दब्रह्मणोऽप्रकाशनं न
पुनरविद्याभिभूतत्वादिति । अयोगिदशायां तद्रूपस्य ब्रह्मणोऽसत्त्वे च १० योगिदशायामपि कुतः सत्त्वं स्याद्यतोऽतीन्द्रियप्रत्यक्षेण तत्प्रतीयेत ।
तन्न प्रत्यक्षेण शब्दब्रह्मणः सद्भावः प्रतीयते । नाप्यनुमानेन, तस्य तत्सद्भावावेदकस्य कस्यचिदसम्भवात् । अथास्त्येव ये यद्विकारानुस्यूतास्ते तन्मया यथा घटघटीशरावोदञ्चनादयो मृद्विकारा मृन्मयाः,
शब्दविकारानुस्यूताश्च सर्वे पदार्था इति । नैवमस्यानुमानाभासत्वात् । १५ तथाहि शब्दमयत्वमत्र कीदृशं साधयितुमभिप्रेतम् । शब्दपरिणामरूपत्वं
घटस्य मृन्मयत्ववत् , शब्दादुत्पन्नत्वं वा यथान्नमयाः प्राणा इति । तत्र न तावदाद्यः कल्पः कल्पयितुमुचितः । परिणामस्यैवात्रायोगात् । शब्दास्मकं हि ब्रह्म नीलादिरूपतां प्रतिपद्यमानं स्वाभाविक शब्दस्वरूपं परित्यज्य प्रतिपद्येतापरित्यज्य वा । आद्यपक्षे तस्यानादिनिधनत्वविरोधः । पौरस्त्यस्वरूपविनाशात् । द्वितीयपक्षे पुनर्नीलादिसंवेदनकाले बधिरस्यापि शब्दसंवेदनापत्ति लादिवस्त्वव्यतिरेकात्तत्स्वरूपवत् । शब्दस्वरूपस्यासंवेदने वा नीलादेरप्पसंवेदनप्रसङ्गस्तादात्म्याविशेषात् । अन्यथा विरुद्धधर्माध्यासतः शब्दस्य नीलादेः सकाशाद्भेदप्रसङ्गः । न येकस्यैक
२०
१ 'अयोगावस्थायां' इत्युचितं भाति । २ ' यदाकारा ' इति म. पुस्तके पाठः । ३ ' शब्दाकारा' इति म. पुस्तके पाठः । ४ ' पदार्थसार्था' इति म. पुस्तके पाठः।
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परि. १ सू. ७ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः दैकप्रमात्रपेक्षया ग्रहणमग्रहणं च युक्तम् । विरोधात् । किञ्चासौ शब्दात्मा परिणामं प्रतिपद्यमानः प्रतिपदार्थं भेदं प्रतिपद्येत न वा । तत्राद्यकल्पे शब्दब्रह्मणोऽनेकत्वप्रसक्तिः । विभिन्नाऽनेकार्थस्वभावात्मकत्वात् तत्स्वरूपवत् । द्वितीयविकल्पे तु सर्वेषां नीलादीनां देशकालस्वभावव्यापारावस्थादिभेदाभावः प्रतिभासभेदाभावश्चानुषज्येत । एकस्वभावा- ५ च्छब्दब्रह्मणोऽभिन्नत्वात् स्वरूपवत् । तन्न शब्दपरिणामरूपत्वं शब्दमयत्वं । नापि शब्दादुत्पन्नत्वम् । तस्य नित्यत्वेनाविकारित्वादविकारिणश्च कार्योत्पादविरोधात् । किञ्च । कार्यमस्मादुत्पद्यमानमर्थान्तरमनन्तरं वोत्पद्येत । तत्रार्थान्तरस्योत्पत्तौ कथं शब्दब्रह्माद्वैतवादः । कार्यस्य ततो द्वितीयस्य सद्भावात् । अनर्थान्तरभूतस्य तु कार्यग्राम- १० स्योत्पत्तौ शब्दब्रह्मणोऽनादिनिधनत्वविरोधः । तदुत्पत्तौ तस्याप्यनर्थान्तरभूतम्योत्यद्यमानत्वादुत्पन्नस्य चावश्यं विनाशित्वादिति । अर्थानां शब्दमयत्वाघटनादसम्भवि साध्यम् । शब्दाकारानुस्यूतत्वं साधनमप्यसिद्धम् । प्रत्यक्षेण हि नीलादिकं प्रतिद्यमानः प्रतिपत्ता शब्दाकारासम्पृक्तमेव प्रतिपद्यत इति कथं शब्दाकारानुस्यूतत्वं सिद्धयेत् । किञ्च १५ शब्दाकारानुस्यूतत्वं शब्दानुविद्धत्वमभिधीयते । तच्चार्थानां न युक्तमिति प्रोक्तं प्राक् । ततोऽपि च कथमेतत्सिद्धयेत् । कल्पितत्वाञ्चास्यासिद्धिः । परमार्थतः शब्दाकारानुस्यूतत्वलक्षणधर्माधाराणा पदार्थानामसत्त्वेऽपि हि तेषु तदाकारानुस्यूतत्वं त्वया परिकल्प्यते परिकल्पिताच हेतोः कथं पारमार्थिकं ब्रह्म सिद्धयेत् । साध्यसाधनधर्मविक- २० लश्च दृष्टान्तः । कुम्भादीनामपि सर्वथैकमयत्वस्यैकाकारानुस्यूतत्वस्य चासिद्धेः । समस्तार्थानां समानासमानपरिणामात्मकत्वात् । तन्नानुमानेनापि शब्दब्रह्म समधिगन्तुं पार्यते । नाप्यागमेन, “ सर्व खल्विदं ब्रह्म' इत्याद्यागमस्य ब्रह्मणः सकाशादर्थान्तरभावे द्वैतसिद्धिप्रसङ्गात् ।
१ छां. उ. ३-१४.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. १ सू. ८,९,१०,११.
अनर्थान्तरभावे तद्वदागमस्यापि आसिद्धिप्रसङ्गः । तन्न शब्दस्वभावस्य ब्रह्मणः सद्भावः कुतश्चित् प्रमाणादुपपद्यते । इत्थं शब्दब्रह्मणो दूषणौधं दर्श दर्श दूरमुज्जम्भमाणम् ।
नैवं श्रद्धां कोऽपि कुर्वीत विद्वान् शब्दात्मत्वे सर्वथा प्रत्ययानाम् ।।८९।। ५ यत्तावबुद्धशिष्यैर्निजसमयवशान्निर्विकल्पत्वमुक्तं
प्रत्यक्षे तत्पुरैव प्रतिहतिपदवी प्रापितं सप्रपञ्चम् । शब्दानुस्यूतिरुक्ता मतिषु तदपर्यापि सापि व्यपास्ता
तस्माज्ज्ञानं समस्तु व्यवसितिसुभगं मानतासम्मतं यत् ॥९०॥ ॥१॥
समारोपपरिपन्थित्वादियुक्तमिति समारोपस्वरूपनिरूपणायाह१० अतस्मिस्तदध्यवसायः समारोप इति ॥८॥
अतम्मिन्नतत्प्रकारे वस्तुनि । तदध्यवसायस्तत्यकारत्वनिश्चयो यः स समारोप इति ।। ८॥
अथास्य प्रकारानाह-- स विपर्यसंशयानध्यवसायभेदात् त्रेधेति ॥९॥ १५ स्पष्टम् ॥ ९॥
अथैतत्सूत्रनिर्देशक्रमेण विपर्ययस्वरूपमादौ निरूपयतिविपरीतैककोटिनिष्टंकनं विपर्यय इति ॥ १०॥ विपरिताया एकस्या एव कोटेरंशस्य निष्टङ्कनं निश्चयनं विपर्ययः॥१०॥
उदाहरणमाह--- २० यथा शुक्तिकायामिदं रजतमितीति ॥ ११ ॥
यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । शुक्तिकायामरजताकारायामिदं रजतमिति रजताकारतया ज्ञानम्, विपर्ययो विपरीतख्यातिरित्यर्थः। इतिशब्द
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परि. १. सू ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः उल्लेखार्थः । उदाहरणसूत्रं चेदमन्येषामपि प्रत्यक्षयोग्यविषयविपर्ययाणां तदितरप्रमाणयोग्यविषयविपर्ययाणां चोपलक्षणार्थम् । तथाहि । बाप्पपांसुपटलमशकवर्तिप्रभृतिभिः कुतोऽपि भ्रान्तिनिबन्धनाडूमत्वेनावधारितैर्द्धनञ्जयविनिर्मुक्तेऽपि प्रदेशे तत्परिज्ञानमनुमानविपर्ययः । निबिडकुदर्शनाभ्यासाविर्भूतभावनाप्रभावाचागमविपर्ययोऽपि सम्भवति । ५ तद्यथा-- स्याद्वादन्यायबाह्येषु शाक्यनैयायिकमीमांसककापिललौकायतिक
... संसारमोचकादिशास्त्रेषु यत्किञ्चिदेकान्ताभिशाक्यादिमतानेर्देशः । सोनोपदिश्यते तत् प्रमाणमिति ज्ञान तेषां विपर्ययः । तथाहि । क्षणिकाक्षणिके वस्तुनि सर्वथा क्षणभङ्गुर- १० स्वाभिमतिर्विपर्ययः शाक्यभिषणाम् । भिन्नाभिन्नयोर्द्रव्यपर्याययोर्भेदैकान्ताहंकृतिविपर्ययो नैयायिकानाम् । नित्यानित्यात्मके शब्दे सर्वथा नित्यत्वमतिर्विपर्ययो मीमांसकानाम् । कर्त्तर्यात्मन्यकर्तृताप्रतीतिविपर्ययः कापिलानाम् । सत्सु स्वर्गापवर्गात्मधर्मादिषु वस्तुषु नास्तिताप्रतिपत्तिर्विपर्ययो लोकायतानाम् । अधर्मनिबन्धने प्राणिवधे धर्म- १५ निबन्धनत्वबुद्धिविपर्ययः संसारमोचकानाम् । तथा स्याद्वादिनामपि केषाञ्चित् प्रचुरतरपापोदयादागमविपर्ययः सम्भवति । यथोपपद्यमानमुक्तौ स्त्रीजातौ मुक्त्यभावाभिमानः संभाव्यमानभुक्तौ भगवति केविलिनि मुक्त्यभावकदाग्रहश्च विपर्ययः क्षपणकानाम् । विपर्ययत्वं चैषामशेषाणामपि कदभिप्रायाणां प्रमाणैः प्रतिहन्यमानत्वादवगन्तव्यमिति । २०
अस्यां समस्ति विपरीतमतौ मतानां
भेदः परैः स्वरुचिभिः परिकल्पितानाम् । तत्र प्रभाकरमतानुगता विवेक___ ख्यातिं विवेकविकलाः परिकल्पयन्ति ॥ ९१ ॥ १ संसारमोचका:-ब्रह्माद्वैतवादिनः । एतेऽपि चित्तशुद्धयर्थं प्राणिवधमययज्ञानभिमन्यन्ते । २. दिगम्बराणाम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. ११
तथाहि । ते प्राहुः । इदं रजतमित्यादिविपरीतप्रत्ययोत्पत्तौ न भ्रमस्थले विवेकाख्यातिं किमपि कारणमालोक्यते । तदुत्पत्तौ हि स्वीकुर्वतां प्रभाकरमता- कारणमिन्द्रियमन्यद्वा भवेत् । न तावदन्यत् । नुयायिनां सविस्तरं निवृत्तेन्द्रियव्यापारस्यापि तथाविधबोधोत्पत्तिखण्डनम् । ५ प्रसक्तेः । नापीन्द्रियम् । तद्धि रजतसदृशे शक्तिशकले सम्प्रयुक्तं सत्तत्र निर्विकल्पकमुपजनयत्सविकल्पकमपि तत्रैवोपजनयेन रजते । रजतस्येन्द्रियेण सम्प्रयोगात्तत्रावर्त्तमानत्वाच्च । न चाऽसपृक्तमवर्तमानं चेन्द्रियपरिच्छेद्यम् 'सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना' इत्यभिधानात् । अन्यथा व्यवहितसमस्तवस्तूनामपि तत्परिच्छेद्यत्वप्रसक्तितोऽ१० यत्ननिष्पन्नं सर्वस्यापि सर्वज्ञत्वं भवेत् । यदि चेन्द्रियं विपरीतप्रत्ययमुत्पादयति तर्हि सर्वदैव किमिति नोत्पादयति । न च दोषाणां सकलमपीदं विलसितमिति जल्पनीयम् । दुष्टं हि कारणमौत्सर्गिककार्यविहितौ प्रतिहतसामर्थ्यं सम्पन्नमिति तदेवमाजीजनत् । कुतः पुनविपरीत कार्य विहितये प्रवर्त्तितुमुत्सहते । न हि कलमबीजं तैल कलुषितमपि १५ कदलाकरकरण कौशलमवलम्बते । किञ्च किमिदं दोषविलसितं नाम । इन्द्रियसामर्थ्यस्य प्रतिस्खलनं विनाशो वा । पक्षद्वयमप्यनुपपन्नम् । इन्द्रियसामर्थ्यस्य प्रतिस्खलने विनाशे वा सर्वथा कार्यानुत्पत्तिप्रसक्तेः । न खलु मणिमन्त्रादिना ज्वलनसामर्थ्यस्य प्रतिस्खलने विनाशे वा स्फोटादिकार्योत्पत्तिः समुपलब्धा । तस्मात्कारणाभावान्नायं विपरीतप्रत्ययः २० सङ्गच्छते । तत्किं हन्त शुक्तिकायां रजतप्रतिभासः सम्यक्प्रत्यय एव । अयि मुग्ध केन कर्णे तव न्यवेशि शुक्तिकायां रजतप्रतिभास इति । इदं रजतमिति हि ग्रहणस्मरणरूपं सम्यक्प्रत्ययद्वयम् । विभिन्नकारणजन्यत्वाद्विन्नगोचरत्वाच्च । इन्द्रियं हीदमंशोल्लेखवतोऽध्यक्षस्य कारणम् । साधारणभास्वररूपदर्शनप्रतिबाध्यमानः संस्कारश्च रजत२५ मिति स्मरणस्य । तथा इदमिति बोधस्य पुरोवर्त्तिशुक्तिकाशकल
।
१ मी. लो. वा. सू. ४ प्रत्यक्षसूत्रे श्लो. ८४.
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परि १ सू० ११]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
मालम्बनम् । रजतमिति तु बोधस्य व्यवहितं हट्टपट्टादिव्यवस्थितं रजतम् । रजताकारं हि संवेदनं रजतगोचरमेव युज्यते न शुक्तिशकलालम्बनम् । अन्याकारस्य संवेदनस्यान्यालम्बनत्वानुपपत्तेः । तदुपपत्तौ च समस्तप्रतिभास: सकलालम्बनः स्यादित्यशेषस्याशेषदर्शित्वप्रसक्तिः । प्रयोगो विवादापन्नं रजतसंवेदनं रजतगोचरमेव तदाकार - त्वात् । यद्यदाकारं संवेदनं तत्तद्गोचरमेव यथा स्तम्भाकारं स्तम्भगोचरमेवेति । यदि चान्याकारमपि संवेदनमन्यगोचरं स्यात्तदाऽस्य स्वार्थव्यभिचारतः सर्वत्राप्यविश्रम्भान्न कस्यापि क्वचन प्रवृत्तिर्निवृत्तिवी कुतश्चिद्भवेदित्यखिलव्यवहारप्रलयप्रसङ्गः । तस्माद्रजताकारसंवेदनं रजतगोचर मेवाङ्गीकर्त्तव्यम् । तदा च तत्र न रजतं पुरतः १० स्थितं समस्तीत्यतीतमेव तत्स्मर्यत इति पारिशेष्यात्प्रसिद्धम् । तथाहि । न तावद्राजतनयनसम्प्रयोगसमुपजातमेव तद्रजतज्ञानमिति साम्प्रतम् । अतिविप्रकृष्टविषये सन्निकर्षासम्भवादिन्द्रियाणाम् । असति च लिङ्गाछुपलम्भे जायमानस्यास्यानुमानादिभावो न शङ्कितुमपि शक्यः । ततः परिशेषतः स्मरणमेवैतदाश्रयणीयम् । अपि चेदं स्मरणमनाकलितरजतस्य १५ प्रतिपत्तुरनुत्पद्यमानत्वात् । यदित्थं ततथा यथोभयवाद्यविवादास्पदरजतस्मरणम् । न चेदं वाच्यं न स्मरणमिदं तदंशवैधुर्यात्सम्प्रतिपन्नग्रहणवदिति । इह भूतले घटो नास्तीत्यनुल्लिखिततदंशस्यापि स्मरणस्य स्वीकरणात् । भूयसां च पदपदार्थस्मरणानामनुल्लिखिततदंशानामेवोपलम्भात् । अथेदं प्रेर्यते यद्यतीतं रजतमत्र स्मर्यते तदा - २० स्वातीततया प्रतिभासः स्यान्न चासावस्ति । एतदपि सुकुमारशेमुषीविलसितम् । यतः काचकामलप्रमुखकरणे द्भवदोषसमूह माहात्म्यावर्तमानस्य शुक्तिश कललक्षणार्थस्य ग्राहकं ज्ञानं शुक्तिलक्षणमर्थं शुक्तिकेयमिति स्वस्वरूपेण प्रतिपत्तुमसमर्थं शुक्तित्वलक्षणासाधारणधर्मस्य रजताच्छुक्तेर्भेदकस्यानेनाग्रहणात् चाकचक्यादिसाधारणधर्मात्मना २५ तु रजतान्वयिना पुरस्थितं वस्तु रजतादगृहीतभेदं प्रतिपद्यमानं रजत
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ स. ११ स्मृतिज्ञानस्य कारणतां प्रतिपद्यत इति रजतशुक्तिकाशकलयोः स्मरणग्रहणयोश्च भेदेनाग्रह्णान्नातीततया रजतप्रतिभास इति । अत एव रजतमिदमिति सामानाधिकरण्यं सत्यसन्निहितरजततुल्यव्यवहारश्च न दुरुपपादः । नन्वेवमख्यातिपक्षे प्रतिज्ञायमाने नेदं रजतमिति बाधकप्रत्ययः पश्चाद्भावी समुपलभ्यमानः कस्य बाधकत्वेन व्यवस्थापयिष्यते सर्वस्यापि संवेदनस्य यथार्थत्वेन भवतामभिमतत्वात् । अयि सरलमते कोऽयमियान् सन्त्रासः । न हि बाधकप्रत्ययेन न रजतमिति किन्तु प्रागप्रतिपन्नो विवेकः प्रकाश्यते नेदं रजतं यदेवेदं पुरोवर्ति शुक्तिका
शकलं तदेव रजतमित्येतन्न किन्त्विदमिदं रजतं रजतम् । एतदुक्तं १० भवति । इदमन्यद्रजतमन्यदिति सोऽयं विवेकः प्रकाशितो भवति ।
अथैवं पर्यनुयुज्यते भवतु स्मरणानुभवयोर्विवेकस्याग्रहणमिदं रजतमित्यादौ । स्वप्ने पुनः कथमिदमुपपादयिष्यते न हि तत्र द्वयमास्ति स्वप्नज्ञानस्यैकत्वात् । भीरो किं संवृत्तं स्वने । इदं रजतमित्यादौ हि
स्मरणानुभवौ न विवेकेनावधार्यते । स्वग्ने तु स्मृतिरेवैका स्मरण१५ रूपतया न ग्रहीतुं शक्यत इति सुव्यक्तमेव स्मृतिस्वरूपस्य स्वप्नस्य
स्वमेऽपि विवेकेनाग्रहणमिति । सदृशदर्शनमन्तरेण स्वप्नदशायां स्मृतिरेव न सम्भवतीति मावमस्थाः । नानाविधनिमित्तप्रभवत्वास्मरणानाम् । निद्रोपद्रुतं एव हि मनः स्वग्ने स्मरणसमुत्पत्ती निमित्ती
भवत्येव । यद्येवं शशधरद्वितयतिक्तशर्करादिसंवेदनेषु स्मृतिप्रमोषः कथं २० कथयिष्यते । आः कुमते न वयं सर्वत्र स्मृतेरेव प्रमोषं मन्यामहे
किन्तु विवेकाख्यातिम् । सा च क्वचित्कथञ्चित्कस्यचिदुपपादयितुं शक्यत एव । तथाहि । कचिदनुभवस्मृत्योविवेकस्याग्रहणं यथेदं रजतमित्यादौ । कचित् स्मरणस्य स्वरूपेणाग्रहणं यथा स्वप्नावस्थायाम् ।
कचित्तु तिमिरादिदोषेण द्विधाकृती नायनी वृत्तिः श्वेतकिरणमैक्येन २५ ग्रहीतुं न शक्नोति यथा द्विचन्द्रप्रत्यये । वापि रसनेन्द्रियसम्पृक्तपित्त
१ एव' इति नास्ति भ. पुस्तके । २ 'स्वप्ने' इति नास्ति भ. म. पुस्तकयो::
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१०७ धातौ तिक्तत्वं परिच्छिन्दानः प्रतिपत्ता मधुरद्रव्यानितं माधुर्यं परिच्छेत्तुं न पारयति । यच्च तिक्तत्वं परिच्छिनति तत्परमार्थतः पित्तधात्व. धिकरणमेव न तु मधुरद्रव्यगतं तत्तु समास्वादयन्नयं प्रमाता दोषवशान्नव विवेत्तुं शक्नोति यथा तिक्तशर्कराप्रत्यये । एवं पीतः शङ्ख इत्यादावपि । तत्र हि विनिर्गच्छन्नयनरश्मिवर्तिनः पित्तधातोः पीति- ५ मानमाकलयन् प्रमाता नयनदोषवशात् कम्बुसमाश्रितं शुक्लत्वमाकलयितुं न शक्नोति । यत्तु पीतिमान परिच्छिनत्ति स परमार्थतः पित्तधातुसमाश्रित एव न तु कम्बुवर्ती दोषवशातु प्रतिपत्ता नेत्थं विभागं क पटीयानिति । एवं च सति सर्वत्र सम्यग्रहणमेव विवेकाख्यातिः सिद्धा भवति । तथा च कोऽपि स प्रत्ययो नास्ति यो विपर्ययाख्या १० लभेत । ये तु विवेकाख्यातेर्द्विषन्तः शुक्तौ रजतप्रतीति ख्यापयन्ति न ते सङ्ख्याविदः । इत्थं हि तेषां बाह्यार्थसिद्धिर्न प्राप्नोति । प्रस्तुतरजतसंवेदनदृष्टान्तेन समस्तसंवेदनानां निरालम्बनत्वप्रसक्तेः । यथैव हि प्राकरणिकं रजतसंवेदनं रजताभावेऽपि रजतं प्रकाशयति तथा सकलानि घटादिबाह्यार्थसंवेदेनानि बाह्यार्थाभावेऽपि तं प्रकाश- १५ विप्यन्तीति ज्ञानाद्वैतवादिमतसिद्धिनिःप्रत्यहा वर्तमाना केन वार्थेत । ततस्तामनिच्छता तत्र विवेकाख्यातिरेव स्वीकर्तव्या ।
विवेकेनाख्यातिस्तदियमधुना सिद्धिसदनं ___ समारूढा प्रौढप्रमितिपृथुनिश्रेणिवशतः । प्रमाणेनोन्मुक्तां पुनरितरथा ख्यातिमपरे
२० प्रकाप्नं जल्पन्तः कथमिह सतां ग्राह्यवचनाः ॥ ९२ ।। क्षित्वेदानी निशितनिशितान्युक्तिबाणानशेषान्
शून्यां मन्ये त्वमसि कृतवान् स्वान्ततूणी स्वकीयाम् । सम्प्रत्यत्रावहिति पदवीं सर्वथारोपय त्वं
श्रीजैनानामयि ऋजुमते तत्प्रतीकारकेलीः १ ९३ ॥ २५
१ पण्डिताः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ११ तथाहि यत्तावदभिहितमिदं रजतमित्यादिविपरीतप्रत्ययोत्पत्तौ न किमपि कारणमालोक्यत इत्यादि । तदा कुलम् । कामलादिदोषदूषितनेत्रादिसामग्र्या एव तत्कारणत्वेनावलोकनात् । यत्पुनरिन्द्रियपक्षे प्रोक्तं ताद्ध रजतसदृशे शुक्तिशकले सम्प्रयुक्तं सत्तत्रेत्यादि । तदनभ्युपगमो५ पालम्भमात्रम् । शुक्तिकाशकलस्यैवेदं रजतमिति ज्ञानगोचरत्वेनाभ्युपगमात् । स्थगितनिजवपुरुपगृहीतरजतरूपा शुक्तिकैव ह्यत्र प्रकाशत इति स्याद्वादिनां मुद्रा । अपि च न कार्यप्रतीतौ कारणाभावाशङ्का युक्तिमती । तथा च प्रामाणिकाः ‘कार्य चेदवगम्येत किं कारणपरीक्षया । कार्य चेन्नावगम्येत किं कारणपरीक्षया' इति । प्रतीयते चात्रेदं रजतमित्याकारैकज्ञानलक्षणं कार्य ततोऽस्यावश्यं कल्पनीयं किञ्चित्कारणम् । तच्च कल्पितमेव दोषकलुषितेन्द्रियादिसामग्रीरूपम् । यदप्यवादि दुष्टं हि कारणमौत्सर्गिककार्यविहितावित्यादि । तदप्यचतुरस्रम् । दावदाहदोषदूषितशक्तीनां वेत्रबीजानां वेत्राङ्कुरविपरीतकदलाकुरलक्षणकार्यकरणकौशलावलोकनात् । । ____ अथ दावदाहस्य वेत्राङ्कुर एव कर्तव्ये दोषता । कदलाङ्कुरे तु गुणभाव एवेत्युच्यते । तत्रापि काचकामलादेः सम्यग्ज्ञाने कर्तव्ये दोषता । मिथ्याज्ञाने पुनः साधुतैवेति सर्वं समानम् । तस्मादौत्सर्गिककार्यकरणे प्रतिहतसामर्थ्याना करणानां विपरीतकार्योत्पादकत्वमुपलभ्यमानं भवताभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा स्वमतव्याघातः । तथाहि रजतमिति स्मरणस्य पूर्वानुभवदेशाबाधितप्रवृत्तिरूपौत्सर्गिककार्यातिक्रमेण शुक्तिकादेशे प्रवृत्तिजनकत्वं भवतैवाङ्गीकृतम् । तच्चैवमुच्यमाने कथं सङ्गच्छेत । भेदाग्रहसहकारिरहितस्य तत्तस्यौत्सर्गिकं कार्य तत्सहचरितस्य त्विदमेव तथेति चेत् । ममापि दोषरहितस्येन्द्रियादेस्तदौत्सर्गिकं कार्य दोषसहितस्य त्विदमेव तथेति समानम् । स्मरणस्य प्रवृत्तिरौत्सर्गिकं कार्यं सा च यत्र क्वचिद्यथा तथा भवतु तथापि न तदतिक्रम इति चेत् । ममायीन्द्रियादेनिमौत्सर्गिकं कार्य तच्च यत्र कचिद्यथा
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परि. १ सु. ११]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
तथा भवतु तथापि न तदतिक्रम इति समः समाधिः । यच्चोक्तं किमिदं दोषविलसितं नामेन्द्रियसामर्थ्यस्य प्रतिस्खलनमित्यादि । तत्र विनाशपक्ष एव कक्षीक्रियते । न तत्र सर्वथा कार्यानुत्पत्तिप्रसक्तिः । शक्त्यन्तरोत्पादस्यातीन्द्रियशक्तिप्रतिष्ठायां वक्ष्यमाणत्वात् । यदपि तत्किं हन्त शुक्तिकायां रजतप्रतिभासः सम्यक्प्रत्यय एवेत्याङ्कय अयि मुग्ध केन कर्णे तब न्यवेशीत्यादिना शुक्तिशकलालम्बनमिति पर्यन्तमुदैर्यत । तत्र विभिन्नकारणजन्यत्वादिभ्यः सामग्र्यन्तर्गतानेककारणभेदात् प्रस्तुतकार्यभेदः सिषाधयिषितः सामग्रीभेदाद्वा । आद्यभेदे दत्तः संवेदनानामैक्याय जलाञ्जलिः । सामग्र्यन्तर्गतैकरूपा लोकलोचनादिभिरनेकैः कारणैरुत्पद्यमानस्य स्तम्भादिसंवेदनस्याप्यनेकत्वप्रसक्तेः । १० नं यमिति तैरनेकान्तः । द्वितीयकल्पे पुनरसिद्धिः सामग्रीभेदस्यात्रासम्भवाचक्षुरादिकारणकदम्बकस्यैव प्रकृतरजतज्ञानकारणत्वादथ इदमिति रजतमिति च प्रत्यक्षः स्मृतिरूपः कार्यभेदो' अत्र सम्भाव्यत एव । तत्र सामग्रीभेदोऽनुमीयत इति मतिः । नेयं सा परस्पराश्रयदोषप्रसक्तेः । सिद्धे हि सामग्रीभेदे इदं रजतमित्यत्र प्रत्यक्षस्मृतिरूपतया कार्यभेद- १५ सिद्धिस्तत्सिद्धौ च सामग्रीभेदसिद्धिरिति । योऽपि भेदसिद्धौ विभिन्नगोचरत्वादिति हेतुरुपन्यस्तः । सोऽप्यसिद्धः । शुक्तिशकलस्यैव प्रस्तुतरजतज्ञानगोचरत्वात् । पुरोवर्तमानं हि शुक्तिशकलं ढोचनादयः काच कामलादिदोषपरिष्वङ्गाद्रजताकारतया दर्शयन्ति । कथमन्यथा शुक्तिसान्निध्यमनपेक्षमाणमेव हि प्रस्तुतरजतज्ञानं नोत्पद्येत । यदप्युक्तम- २० न्याकारस्य संवेदनस्यान्यालम्बनत्वानुपपत्तेस्तदुपपत्तौ वेत्यादि I तदेतद्द्ः शिक्षितयन्त्रबाहकस्नेवास्य स्ववधायोपस्थानम् । एवं वेत्राङ्कुरः हेतुभ्यो वेत्रबीजेभ्यो दावदग्धेभ्योऽपि कथमन्यकारणकार्यः कदलाङ्कुरः समुत्पद्यते । समुत्पत्तौ वा तत एव सकलकार्योत्पत्तेर्वेत्रबीजकरणा
१ न चेत्यादि प्रसक्तेरित्यन्तं नास्ति म. प. पुस्तकयोः । तथा द्वितीयपक्षे स्फुटमन्योन्याश्रयः इति म. पुस्तकेऽधिकः पठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. १ सु. ११
द्वैतसिद्धिप्रसङ्गः । यदपि प्रस्तुतरजतज्ञानस्य रजतगोचरतासाधनायविवादापन्नं रजतसंवेदनं रजतगोचरमेव तदाकारत्वादित्यनुमानमवादि । तदपि प्रत्यभिज्ञाविप्रतिक्षिप्तपक्षत्वादुपेक्षाहम् । तथाहि बाधकप्रत्ययसमनन्तरं यदेव शुक्तिशकलं कलधौतरूपेण मया प्राक्प्रत्याकलितं तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञानमात्मलाभमनुभवदनुभूयते । तथा विवादापन्न शुक्तिशकलं रजतज्ञानालम्बनं रजतोपायव्यतिरेकित्ये सति रजतार्थिनां प्रवृत्तिविषयत्वात् । यद्यदेवं तत्तत्तथा यथा सम्यग्रजतम् । यथोक्तसाधनसम्पन्नं च विवादापन्नं शुक्तिशकलम् । तस्माद्यथोक्तसाध्याधारमिति । तथा शुक्तिशकलं विवादास्पदरजतज्ञानालम्बनं नेदं रजतमिति प्रत्ययविषयत्वात् । यदेवं न भवति न तदेवं यथा सम्यग्रजतम् । न च न तथेदं तस्मादुक्तसाध्यसमन्वितमिति । तथा विवादापन्नं रजतसंवेदनं पुरोवर्तिशुक्तिशकलगोचरमेव तत्रैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्यद्यत्रैव प्रवृत्तिनिमित्तं तत्तगोचरमेव यथा सम्यग्रजते रजतज्ञानम् ! पुरोवर्तिन्येवं शुक्तिशकले प्रवृत्तिनिमित्तं चेदं ज्ञानं तस्मात्तद्गोचरमेवेति । अतिक्रान्तकलधौतालम्बनत्वे तु न शुक्तिकाशकले प्रवृत्तिनिमित्तत्वं स्यात् । अथातिक्रान्तकलधौतालम्बनत्वेऽप्यस्य दोषमहाम्यादतिक्रान्तकलधौतस्य शुक्तिशकलतो भेदस्याग्रहणात्तत्र प्रवृत्तिनिमित्तत्वं युज्यते । एतदप्यविचारीतरमणीयम् । यतो भेद एव । कोऽत्राभिप्रेत आयुष्मतः ।
किं वस्तुस्वरूपमात्रं परस्पराभावो व्यावर्तकधर्मयोगो वा । पौरस्त्यपक्षे २० ग्रहणस्मरणाभ्यां पुरोवर्तिपूर्वानुभूतवस्तुम्वरूपग्राहिभ्यां भेदो गृहीत
एव । अन्यथाकारं वा ग्रहे विपरीतख्यातिरेव स्यात् । द्वितीयस्तु पक्षः प्रभाकरैरभावानङ्गीकारादनभ्युपगत एव । अभ्युपगमे वा विपणिवीथ्यादाववगतस्य रजतस्य मुक्ताकरतीरगतशुक्तिकायामभावः स्फुट
एव । अनियतदेशं विगलिततद्विशेष रजतं स्मृतं तदभावश्च नात्रा२५ धिगत इति चेत् । हन्त पूर्वमनियतदेशमेव रजतमात्रमामासितम् ।
दोषवशाद्वा नियतदेशमप्यवगतमनियतदेशतया स्मर्यते । न तावदाद्यः
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परि १ सू. ११]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
पक्ष: । अनियतदेशप्रतीत्यभावेन तस्य पराहतत्वात् । द्वितीये तु विपरीतख्यातिर्नियतस्यानियतत्वेनाभासनात् । देशो न स्मर्यते रजतमात्र तु स्मृतमिति कुतो विपरीतख्यातिरिति चेत् । तथापि यत्तावत्तेन पूर्वमवगतं तस्याभाव: स्फुट एवेत्युक्तम् पूर्वावगते हि रजते स्मर्यमाणे केवलाधिकरणोपला व्धरेव तस्याभावोपलम्भः । यद्यपि वणिग्वीथ्यादिगोचराणां रजतानामभावः स्फुटतरस्तथापि शुक्तिकादेशस्थस्य तस्य नावगत इति चेत् । न । शुक्तिकादेशे न रजतं तावदवगतमेव । अनवगतं च न स्मृतिविषयः । अस्मर्यमाणस्य चाभावग्रहोऽपि न प्रवर्त्तकः । प्रवर्त्तकत्वे वा यस्यैव कस्यचिदभावो नावगतस्ततस्तदर्थिनः प्रवृत्तिः स्यादविशेषात् । अथ व्यावर्त्तकधर्माग्रहो भेदाग्रहः । तथा च १० वणिग्वध्यादावेवावगतस्य रजतस्यात्र स्मरणं व्यावर्त्तकास्तु देशकालजात्यादिभेदा न गृह्यन्ते । एवं च सति परस्पराभावो गृह्यतां मा वाग्राहि नास्त्युभयथापि विरोधः । एतदपि न मनोहरम् । स्मर्यमाणवस्तुनि रजतत्वस्यैव व्यावर्त्तकधर्मस्य प्रतिभासनात् । व्यावर्त्तकत्वं च तस्य पुरोवर्त्तिन्यविद्यमानत्वात् । अविद्यमानस्यापि च प्रतिभासे विपरीतख्यातिः । स्यादेतद्यद्यपि गृह्यमाणात् स्मर्यमाणस्य व्यावर्त्तको धर्मोऽवगतस्तथापि गृह्यमाणस्य स्मर्यमाणान्नावगतः । न खल शुक्लत्वादयो धर्मा यावन्तः प्रतिभान्ति शुक्तिकायां तावद्भिः सा व्यावर्त्तयितुं शक्यते । तेषां रजतसाधारणत्वात् । एतदपि नास्ति । देशकालावस्थाशून्यतया स्मर्यमाणाद्रजतात् पुरोवर्त्तिनोऽनुभूयमानस्य २० व्यावर्त्तकानां कालदेशावस्थाविशेषाणां प्रमीयमाणत्वात् । अथैवं मन्येथाः शुक्तिकारजतयोर्यौ परस्परभेदकौ धर्मों तयोः प्रतिभानं निवृत्तिहेतुप्रतिभानं तु प्रवृत्तिहेतुरिति सिद्धम् । न च देशभेदास्तादृशास्तेषां शुक्तिकायामिव रजतेऽपि समानत्वात् । रजतत्वशुक्तिकात्वे पुनस्तादृशी ते च न प्रतिभाते । ततश्च युक्ता प्रवृत्तिरिति । एतदपि नोपपद्यते । रजतं स्मरतो रजतार्थिनः पाषाणत्वसामान्यविशेषानुपलम्भे पाषाण
१५
२५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १ व्यक्तिदर्शने तत्र प्रवृत्तिप्रसक्तेः । चाकचक्यादिसादृश्याभावात्तत्र न प्रवर्तत इति चेत् । न । क्षीरोदकल्पान्तकल्लोलकलितमहिग्नि हिमांशुकिरणधाग्नि तुहिनाचले प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । पर्वतत्वविशेषस्तत्र प्रतीत
इति चेत् । न । दूरत्वादिदोषाच्छरदभ्रानुकारिणि तस्मिन्प्रतिभातेऽपि ५ पर्वतत्वाप्रतिभासनात् । सामान्यविशेष इव परिमाणभेदोऽपि व्यावर्तक
स्तन यद्यपि नाम सामान्यविशेषो न प्रतिभातस्तथापि परिमाणविशेषप्रतीतिः केन वार्यत इति चेत् । हन्त परिमाणं सर्वद्रव्यसाधारणं कथमिव व्यावर्तकं भवेत् । जात्या साधारणमप्यवान्तरभेदा
तथा भवतीति चेत् । नन्वनेन न्यायेन कालदेशविशेषोऽपि जात्या १० साधारणोऽप्यवान्तरवर्त्तमानत्वपुरःप्रदेशत्वादिभेदाब्यावर्तकस्तथा च सति
तत्प्रतिभाने भेदोऽपि प्रतिभात इति कुतो भेदाग्रहः । इदमपरमालोच्यतां तादात्म्यप्रतीतिरुपजायमाना क्वचित् किमाकारा कि सामानाधिकरण्येन प्रतीतिराहोस्वित्परस्पराभावविरहितत्वेन विषयसंवेदनम् ।
आये कल्पे विपरीतख्यातिः । इदं रजतमिति समानाधिकरणतयैव १५ प्रतीतेरुत्पादात् । नतु परमार्थतः सामानाधिकरण्यमस्ति प्रकृते किन्तु
भेदाग्रहमात्रेण तथाभिमन्यन्ते प्रतिपत्तारः । तथा चावाचि शालिकेन । 'सन्निहितरजतशकले रजतमतिर्भवति यादृशी सत्या ।
भेदानध्यवसायादियमपि ताक्यरिस्कुरति ' इति ।
हन्त ‘परमार्थतो व्यधिकरणेऽपि प्रतीती यदि सामानाधि२० करण्येनाभिमन्येते प्रतिपत्तभिस्तदा विपरीतख्यातिरेव तदहो निल
ज्जता अन्यथाख्यातिर्नेष्यते भेदानध्यवसायादियमपि तादृक्परिस्फुरतीत्येतच्चाभिधीयते । अपि च यथा सन्निहितरजतमतितुल्यता विवादास्पदरजतमतेः कथ्यते तथा वर्तमानत्वानवभासितयाऽतीतरजतावभासिज्ञानतुल्यताप्यस्या अस्तीति तुल्यतया पुरुषाप्र
१ प्रकरणपजिकायां नयवीथ्याख्ये चतुर्थप्रकरणे कारिका ४१.
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः .. । वृत्तिनिमित्तमपि भवेद्विशेषाभावात् । तथा चायं रजतज्ञानवान् प्रतिपत्ता पुरोवर्तिनि शक्तिशकललक्षणेऽर्थे सन्देहदोलान्दोलितमतिः किं प्रवर्तत निवर्तेत वा । युगपत्परस्परविरुद्धप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणक्रियाद्वयं कर्तुमापन्नः किं नाम कुर्वीतेति कष्टां काञ्चिदशामाविष्टोऽसौ तपस्वी । परस्पराभावविरहितत्वेन विषयसंवेदनमिति द्वितीये तु पक्षे त एवं प्रष्टव्याः । ५ किं सर्वथा परस्पराभावविरहिततया रजतत्य शुक्तिशकले प्रतिभासः । किं वा शबलतया । आछे पक्षे तादात्म्यग्रहणप्रसङ्गस्तथा च विपरीतख्यातिः । द्वितीये तु प्रवृत्तिदुरुपपादा । न हि शबलतया वस्तुनि प्रतीते प्रतिनियतरजतार्थिनः प्रवर्तन्त इति । अपि च न तावज्ज्ञानमुपजातभात्रमेव सत्तामात्रेण प्रवृत्तिमुपजनयति किं तहीँच्छाद्वेषजनना- , नन्तरोपजाततदनुरूपप्रयत्नद्वारेण । तौ च प्रयत्नं जनयन्तौ स्वकारणीभूतज्ञानविषय एव जनयतः न हि करकमलचालनेच्छायाः कदाचिदपि शरीरचालनानुरूपः प्रयत्नो जन्यमानो दृष्टः । तदत्र रजतविज्ञानेनापि स्वविषय एवेच्छा तया च प्रयत्नो जन्यः स्वविषय एव न वा कचिदपि इत्यास्थेयम् । तथा च पुरोवर्तिनि रजतज्ञानस्याविषये नेच्छा कारणाभावात् । अत एव न प्रयत्नस्तदभावाञ्च न प्रवृत्तिरिति । इदमिति पुरोवर्तिवस्तुगोचरमपि ज्ञानमस्तीतिचेत् । नैवम् । तस्य हानोपादानयोरनङ्गत्वात् । न हीदमिति कृत्वा प्रवर्तन्ते निवर्तन्ते वाऽपि तु विशेषतो ज्ञात्वाऽनेनार्थक्रियां निष्पादयिष्याम इति हृदि निधाय । इदमिति ज्ञानेनागृहीतभेदं स्वरूपतो रजतज्ञानमेवेच्छां तादृशीं प्रसूत २० इति चेत् । न भेदाग्रहेऽपि स्वरूपानतिवृत्तेः । न हि शालिबीजमगृहीतभेदं कोद्रवबीजात्कोद्रवोचितमङ्कुरमुपजनयति । नापि रत्नं प्रदीपकुमलादगृहीतभेदं स्पृश्यमानं दहतीति । तयं प्रमाणार्थः । विवादाध्यासितं ज्ञानं न स्वविषयमन्तरेणेच्छां जनयति ज्ञानत्वादुमयवादिसिद्धसत्यज्ञानवदिति । स्यादेतत् । सर्वेषां प्रत्ययानां यथार्थत्वं २५ प्रमाणसिद्धम् । तच्चान्यथा न निर्वहतीत्येतावता ग्रहणस्मरणभेद
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ११ मालम्बमानाः समर्थितवन्तः । तथा च प्रयोगः । विवादाध्यासितः प्रत्ययो यथार्थः प्रत्ययत्वात्सम्प्रतिपन्नप्रत्ययवदिति । तदवद्यम् । तथाहि किमिदं यथार्थत्वं नाभ सिषाधयिषितम् । किं विषयसमुत्थत्वमात्रं विवादास्पदरजतसमुत्थत्वमबाधितविषयत्वं वा । नाद्य पक्षः । सिद्धसाधनत्वात् । पुरोवर्तिशुक्तिशकलविषयत्वात् तदुत्पत्तेरुपेतत्वात् । नापि द्वितीयो, यतोऽत्र किं रजतज्ञानस्य साक्षाद्रजतसमुत्थत्वं साध्येत परम्परया वा । आद्यपक्षे प्रत्यक्षबाधः । प्रत्यक्षेणैव रजताभावस्य तत्र प्रतीयमानत्वात् । पुरोवर्तिशुक्तिशकलविषयत्वात् । द्वितीये तु सिद्धसाधनम् । पूर्वरजतानुभवजनितसंस्कारप्रबोधप्रभवस्मरणद्वारेण रजतमिदमिति ज्ञानं प्रति रजतस्यापि कारणत्वेनेष्टत्वात् । तृतीये तु प्रत्यक्षबाधः स्फुट एव । नेदं रजतमिति बाधकस्य स्वसंविदितस्य विद्यमानत्वात् । नेदं ज्ञानस्य बाधकं किन्तु व्यवहास्येति चेत् । हन्त कोऽयं व्यवहारो नाम । उपादानमिति चेत् । नन्वेतज्ज्ञानरूपम्,
कायपरिस्पन्दादिरूपं वेति वाच्यम् । आये कल्पे कथं रजतार्थिनस्त. १५ त्रानुपादेथे वस्तुन्युपादेयबुद्धिर्न विपरीतख्यातिः । कथं वा तज्ज्ञान
बाधः सकलज्ञानानां यथार्थत्वाभ्युपगमेन बाध्यत्वासम्भवात् । द्वितीये तु यस्य न परिस्पन्दो न च तथाविधः प्रयत्नो न च शब्दप्रयोगः प्रेक्षावतां तत्प्रत्ययश्च नेदमिति जातस्तत्र तेन किं बाध्यते । न ताव
व्यवहारः । तस्याप्रसक्तत्वात् । नापि विषयः । तस्याप्येवं स्वरूपत्वात् । २० ज्ञानेनासंयत इति चेत् । नन्वेवमेव ब्रुवद्धयोऽस्मभ्यं किमिति कुप्यसि।
नन्वशेषकारणसन्निधाने सति जायमाने विज्ञाने यदेव प्रतिभाति स एव तस्य विषय इष्यते तदत्र रजते प्रतिभासमाने शुक्तिका विषय इति बुद्धिविरुद्धमिति । नैष दोषो विकल्पासहत्वात् । तथाहि
पुरोवर्तिवस्तु प्रतिभाति न वेति भवानेव प्रष्टव्यः । प्रतिभाति चेत्तत्र २५ किमस्माभिस्तदुल्लङ्घनेनान्य एव विषयोऽभिधीयते येन विषयवैष्यम्य
प्रसङ्गः स्यात् । सर्वत्रैव हि साक्षात्कारिविज्ञाने पुरोगतः पदार्थो गोचरः
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः केनचिदात्मना । येन च स्वरूपेन बुद्धौ विपरिवर्तते तेनैव वेद्योऽपि स्वरूपान्तरेण तु वेद्यतायां भवेद्विरोधो न चैवमातिष्ठामहे । न हि पुरोवर्तिवस्तु रजततयाऽवभासमानं शुक्तिकात्वेन विषय इति प्रतिजानीमहे । तदेव हि रजतमिति विलोक्य हर्षभयतरलतारचक्षुश्चतुर्दिशमवलोकयन्नुत्सङ्गे गोपयति रजतं तु न भवति । अत एव भ्रान्ति- ५ रिति लौकिकपरीक्षकैर्गीयते । एतेन न प्रतिभातीति द्वितीयपक्षः प्रत्युक्तो वेदितव्यः । पुरोवर्तिवस्तु रजततया प्रतिभात्येव केवलं स्मरणमिति कल्पयित्वा पुरोवर्तिविषयादन्यत्र नेतव्यम् । प्रत्ययत्वादिति हेतुश्चासौ नैकान्तिकोऽप्यन्यथानुपपत्तेरनिश्चितत्वात् । न खलु यथार्थत्वमन्तरेण प्रत्ययत्वं नोपपद्यत इत्येवं प्रमाणमस्ति । एवं चायुक्तमुक्तमतिक्रान्त- १० कलधौतस्य शुक्तिकाशकलतो भेदस्याग्रहणात्तत्र प्रवृत्तिनिमित्तत्वमिति । ततश्च शुक्तिकाशकलस्यैवेदं रजतमिति ज्ञानालम्बनत्वमवबोद्धव्यम् । ततः कथं शुक्तिसकलमेवालम्बनमभिधीयते न हि विभिन्नाकारस्य स्तम्भकुम्भगोचरज्ञानद्वयस्यैक एव विषयः प्रतिपादयितुमुचित इति । तदनुपपन्नम् । यतो नाकारभेदादपि ज्ञानस्य भेदः सङ्गच्छते प्रत्यमि- १५ ज्ञानेन व्यभिचारात् । तद्धयनेकाकाराक्रान्तमप्येकमिति सर्वपरीक्षकसम्प्रतिपन्नम् । एवमिदं रजतमित्यादिविपर्ययज्ञानमप्येकमवसेयम् । तथैव तत्स्वरूपप्रकाशनात् न हि प्रतिभासोपारूढमुभयत्र कञ्चन विशेषमुपलभामहे । एतत्तु प्रतिपद्यामहे यदुतैकं प्रमाणं यथावस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छेदकत्वात् । अन्यत्वप्रमाणं तद्विपर्ययात् । एवं च विवादा- २० पन्नं रजनसंवेदनं रजतगोचरमेव तदाकारत्वादित्यत्र पक्षस्य प्रत्यभिज्ञानादिबाधा सिद्धैव । एतेन चानुमाननिरासेन यदवादि शालिकेन ।
'अत्र बेमो य एवार्थो यस्यां संविदि भासते । वेद्यः स एव नान्यद्धि विद्याद्वेद्यस्य लक्षणम् ॥ १॥
१ प्रकरमपलिका यां नयवीय्याख्ये चतुर्थप्रकरणे श्लो. २३, २४, २५. :
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११६ .
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. १ सू.११
इदं रजतमित्यत्र रजतं चावभासते ।। तदेव तेन वेद्यं स्यानतु शुक्तिरवेदनात् ॥ २ ॥ तेनान्यस्यान्यथाभावः प्रतीत्यैव पराहतः ।
परस्मिन् भासमाने हि न परं भासते यतः ॥३॥' इति, । ५ तन्निरस्तमवगन्तव्यम् । यच्चावाचि यदि वान्याकारमपि
संवेदनमन्यगोचरमित्यादि । तदपि न पेशलम् । एवं हि क्वचित्प्रदेशे कदलाङ्कुरो दावदाहदूषितवेत्रबीजजन्योऽपि न तज्जन्यो भवेत् । अन्यकार्यकारणस्थान्यकारणकार्यकारित्वानुपपत्तेः यदि हि
अन्यकार्यकारणमप्यन्यकारणकार्थं कुर्यात्तदाऽस्य कार्य प्रतिनिय१० तताभावतः सर्वत्र कार्येऽविश्रम्भमात्रसम्भवात् क्वचित् कस्यचित्
प्रवृत्तिर्न स्यादिति प्रतिनियतकार्यकारणव्यवहारप्रलयप्रसङ्गः । यदपीद। स्मरणमनाकलितरजतस्य प्रतिपत्तुरनुत्पद्यमानत्वादित्याद्यनुमानमवादि । तत्रापि पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वम् । प्रकृतरजतसंवेदनस्य विशदावभासितया स्फुटतरं स्मरणाद्भेदेनानुभूयमानत्वात् । अनाकलितरजतस्य प्रतिपत्तुरनुत्पद्यमानत्वादिति हेतोश्च रजतगोचरेण समीहितसाधनतानुमानेन संस्कारेण रजतशब्दोल्लेखिप्रत्यक्षेण वाडनैकान्तिकत्वम् । तथाहि समीहितसाधनमेतद्रजतं रजतजातीयत्वात् सम्प्रतिपन्नरजतवदिति समीहितसाधनतानुमानमनाकलितरजतस्य नोत्पद्यतेऽथ च स्मरणं तन्न
भवति । तथा रजतसंस्कारो रजतशब्दोल्लेखि प्रत्यक्षं चागृहीतरजतस्य २० नोत्पद्यते न चैतत् स्मृतिरिति ।
हेतुस्ततोऽयं न हि साध्यसिद्धिं शक्तो विधातुं व्यभिचारदुष्टः ।। विपक्षपक्षेऽपि निबद्धबुद्धि त्योऽथवा किं प्रभुकार्यशक्तः ॥९॥
यदपि तदंशवैधुर्यादित्यस्मरणसाधनेऽनैकान्तिकत्वमुक्तम् । तदप्यनभ्युपगतोपालम्भमात्रम् । इदं चानुमानं प्रकृतरजतज्ञानस्य स्मरणरू२५ प्रताप्रतिषेधाय बोद्धव्यम् । प्रकृतरजतज्ञानं स्मरणस्वभावं न भवति
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः विशदावभासित्वाद्यदित्थं तदित्थं यथा सम्प्रतिपन्नं ज्ञानं तथा चेदं तस्मात्तथा । एवं च यतः काचकामलेत्यादि न दुरुपपाद इत्यन्तं कदर्थितं मन्तव्यम् । किञ्च भवताऽपि संवित्तिः स्वप्रकाशा स्वीक्रियत एव । तत्रेयं रजतसंवित्तिस्तपस्विनी केन स्वभावेन प्रकाशतामिति विभावनीयम् । यदि स्मृतिरूपेणेत्युच्यते, हन्त तर्हि कः प्रमोषशब्द- ५ स्यार्थः । अथानुभवरूपेण प्रथते, तर्हि विपरीतख्यातिरेवेयं समायाता स्मृतेरनुभवत्वेन प्रथनात् । अथ संविन्मात्रतयैव रजतसंवित्तिः प्रतिभाति । तदपि न निरवद्यम् । रजतमिति विषयोल्लेखस्यानुभूयमानत्वात् । स्मरणानुभवलक्षणविशेषशून्यायाश्चात्र प्रघट्टके विषयसंवित्तेरनुपपद्यमानत्वात् । यच्च प्रागप्रतिपन्नो विवेकः १० प्रकाश्यत इत्यादिकमिदमन्यद्रजतमन्यदिति सोऽयं विवेकः प्रकाशितो भवतीति पर्यन्तं बाधकप्रत्ययव्याख्यानं कृतम् । तद्व्याख्यानमात्रमेव । तथाबाधकप्रत्ययस्याननुभूतेः । न ह्येवं बाधकज्ञानमुत्पद्यते यदविविक्तं तद्विविक्तमिति किन्तु पूर्वानुभवविषयीकृतस्य रजतस्य प्रतिषेधमेव बोधयन्नेदं रजतमिति । किञ्च नेदं रजतमिति बाधकज्ञानं १५ यदेवेदं पुरोवर्ति शुक्तिकाशकलं तदेव रजतमिति एतन्न किन्विदमिदं रजतं रजतमित्येवं व्याख्यानयता भवतापि तत्र प्रसक्तस्यैव रजतस्य प्रतिषेधोऽभ्युपेयः । यतो यद्यत्र प्रतिषिध्यते तत्तत्र प्रसक्तमेव यथा क्वचित्प्रदेशे घटः । प्रतिषिध्यते च पुरोवर्तिशुक्तिकाशकले तादात्म्येन रजतमिति विना चानुभवं कुतस्तत्र तत्प्रसक्तिः । यदि च सर्वथाऽननुभू- २० तमप्रसक्तमपि च कलधौतं प्रतिषिध्यते । तर्हि तदिव च चामीकरमपि किमिति न प्रतिषिध्यते । यत्पुनरलीकशौर्यातिरेकमात्मन्यभिमन्यमानेन प्रभाकरेणाभिहितम् । भीरो कि संवृत्तं स्वप्न इत्यादि । तदपि न क्षोदं क्षमते । स्वप्ने हि यदि स्मृतेः स्मृतित्वेन न ग्रहणमिति विवेकाख्यातिरभिधीयते । तर्हि केन रूपेण ग्रहणमिति परामर्श- २५ नीयम् । रूपान्तरेण ग्रहणे विपरीतख्यातिरेवावतिष्ठते । सर्वात्मना
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- प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सु. ११ स्वग्रहणे स्वमस्मरणयोरविशेषप्रसङ्गः । अनुभवप्रत्ययश्च स्वप्ने संवेद्यते
न तुस्मरणमुल्लेखमात्रमिति कदाग्रह एव । तन्न विवेकाख्यातिः प्रख्याति• प्रख्यापनम् । यदपि विप्लुतानुरूपकोपातिरेकादाक्रोशपुरःसरम:
कुमते न वयं सर्वत्र स्मृतेरेव प्रमोषं मन्यामह इत्यादिना स्वप्नक्रिया५ कथां कथयित्वा कथितं क्वचित्तु तिमिरादिदोषेण द्वैधाकृता नायनी
वृत्तिः श्वेतकिरणमैक्येन ग्रहीतुं न शक्नोति यथा द्विचन्द्रप्रत्यय इति । तदपि यदि न गदितं परं स्वपरिषदि गौरवं प्राप्नोति न पुनर्विवेकेषु । द्विधाकृता हि तिमिरेण नायनीवृत्तियदि नाम कुमुदबन्धोरेकत्वं नावबुध्यते । नावबुध्यताम् । विपरीतस्तु द्वित्वानुभवस्तत्र परिस्फुरन् केन तिरोधातुं शक्यः । अथ नयने तिमिरेण सीमन्तिते समाश्रितं परमार्थतो द्वित्वं नतु निशीथिनीनाथे नयनसमाश्रितत्वेन तु द्वित्वस्य यदग्रहणमियमेव विवेकाख्यातिरिति ब्रूषे ।
सन्तः कुतोऽयमिह जल्पति जञ्जपूको __लजाकरं कृतिजनस्य मनीषिमानी । हुं तत्त्वमत्र विदितं यदमुष्य साधोः
श्रद्धालुतातिमहती स्वमतप्रसिद्धौ ॥ ९५ ॥ तथाहि सर्वत्र परोक्षायामपि नेत्रवृत्तौ तद्गतत्वेन द्वित्वं प्रतिभासत इति यदुच्यते तन्नूनं वक्तुः श्रद्धालुतामेव ध्वनयति । न ह्येककलानिधेधेिऽपि नयनवृत्तरेकत्वं प्रतीयते । अनवबुध्यमानैव हि करणानां वृत्तिः सर्वत्र रूपादीन् बोधयति । यदपि मधुरद्रव्यतिक्तत्वप्रत्यये विवेकाख्यातिसमर्थनतृष्णया कापि रसनेन्द्रियसम्पृक्तपित्तधातावित्यादिकमवादि । तदपि न सहृदयहृदयसंवेद्यम् । यदि नाम मोहास्पित्ताधिकरंगत्वेन तिक्तत्वं नावबुध्यते मावबोधि मधुरद्रव्ये तु तिक्तत्वबुद्धिः
किं निबन्धना । तुल्याधिकरणतया हि तिक्तं मधुरद्रव्यमिति तिक्तत्व२५ बुद्धिराविर्भवन्ती सर्वैरनुभूयते । पित्तं पुना रसनेन्द्रियगतं नयनाश्रित
१ 'गदितम् ' इति म. पुस्तके नास्ति ।
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तिमिरमिवानवगम्यमानमपि विपरीतप्रत्ययमुत्पादयति । कायाश्रितमिव शिरःपीडाज्वरसन्तापप्रमुखमिति । यत्त्वेवं पीतः शङ्ख इत्यादि प्रत्यपादि । तदपि पूर्वोक्तयुक्त्यैव प्रत्यादिष्टम् । यदि नाम प्रसरन्नायनरश्मिसमाश्रितपित्तधातोः पीततां प्रतिपद्यमानः प्रतिपत्ता तिमिरादिदोषकलुषितलोचनतया शङ्खाश्रितं श्वेतिमानं न गृह्णाति मा ग्रहीत् । पीतताप्रतीतिः पुनरस्य कम्बो किंनिबन्धना ! समानाधिकरणतया हि पीतः शङ्ख इति पीतताप्रतीतिः समस्तप्रतिपत्तृणां समुल्लसति । यत्पुनः प्रमातुर्नेत्रकिरणाधिकरणपित्तधातुसम्पृक्तायाः पीततायाः प्रतिभासनमभिधीयते तदतीवानुपपन्नम् । पित्तधातुपीतिमा हि लोचनं निरुन्धानः कज्जलकालिमेव प्रमातुः कथं नाम स्वगोचरं लोच- १० नोद्भवं प्रतिभासनमाविर्भावयितुं समर्थः। अथातिस्वच्छतया कज्जलकालिम्नः सकाशाद्विलक्षणोऽयं पित्तधातुपीतिमेति नयनमनिरुन्धान एव स्वविषयं संवेदनमुत्सादयत्ति प्रतिपत्तुरिति प्रतिपादयेथाः । तदपि न पेशलम् । अतिप्रसक्तेः । स्वच्छतानिमित्तयां हि नेत्रनिरोधितायां विज्ञानोत्पादकत्वेन प्रतिपद्यमानायां नेत्रोपरि परिस्फरन्नीरबिन्दुगोचरं १५ संवेदनमुत्पादयन् केन प्रतिहन्यते । प्रसरन्नयनदीधितिसम्बन्धश्च प्रसारिणोः पित्तपीतिमपयःपृषतोरविशिष्टस्तस्मादतिदूरवदतिसामीप्यस्याप्यदर्शनहेतुत्वादग्रहणमुभयोरपि प्रामाणिकानुकूलमालोकमायः । एवं च ।
'पीतशावबोधे च पित्तस्येन्द्रियवर्तिनः ॥ पीतिमा गृह्यते द्रव्यरहितष्विव तिग्मता ॥१॥ शङ्खस्येन्द्रियदोषेण शुक्लिमा नैव गृह्यते ।।
केवलं द्रव्यमानं तु प्रथते रूपवर्जितम् ॥ २॥' इत्यादि शालिकोक्तमपास्तम् । अपि चेदं रजतमिति यदिदं संवे दनद्वमयभ्युपगम्यते । तस्य किं योगपद्येन पर्यायेण वा प्रादुर्भावः स्यात् । न तावद्योगपद्येन । स्वकृतान्तप्रकोपप्रसङ्गात् । पर्यायेणापि २५
१ प्रकरणपत्रिकायां नयवीथ्याख्ये चतुर्थप्रकरणे श्लो. ४४, ४९
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ११ प्रादुर्भूताविदमिति प्रत्यक्षात्पूर्वमुत्तरत्र वा रजतस्मरणमुद्भवेत् । तत्राद्यः पक्षः प्रेक्षाचक्षुषां न लक्षयितुमुचितः । इदमिति प्रत्यक्षात्पूर्वं स्मृतिबीजस्य संस्कारस्य प्रबोधकत्वानिबन्धनात् । प्रबुद्धे च संस्कारे स्मृतिरुत्पद्यते नाप्रबुद्धेऽतिप्रसक्तेः । अथ निर्विकल्पकज्ञानात्तत्संस्कारप्रबोध इप्यते । तदयुक्तम् । निर्विकल्पकज्ञानस्य सविकल्पकज्ञानसिद्धिप्रघदृके विघट्टितत्वात् । अथेदमिति प्रत्यक्षादुत्तरत्र रजतस्मृतिः प्रादुर्भवतीत्यभिमन्यते । तन्न शोभनम् । यस्मादिदमिति प्रत्यक्षात्पश्चात्प्रादुर्भवन्ती रजतस्मृतिविपरीतव्यापारेऽपि चक्षुषि प्रादुर्भवेत् । एवं च सति
निमीलितलोचनस्यापि रजतस्मृत्यनुभवः स्यात् । पर्यायेण च भवदभि१० मतज्ञानद्वयस्य प्रादुर्भावः प्रतीतिविरुद्धः । न खलु पुरोवर्तिवस्तु
गृहीत्वा पश्चाद्रजतं स्मरामीति रजतं वा स्मृत्वा पुरोवर्तिवस्तु गृह्णामीति शुक्तिग्रहणरजतस्मरणयोः स्वस्वदशायामपि पर्यायेण प्रतीति: समस्ति । रजतात्मकं पुरोवर्तिवस्तु सकृदेव प्रतिभातीति सकललौकि
कानां प्रतीतेः । अपि च १५ पृच्छामि किञ्चिद्यदि कोपपाटलं करोषि न श्रोत्रिय भोः स्वमाननम् ॥ तत्त्वं प्रशान्तैः सह येन कोविदैविचार्यमाणं घटनामुपेयते ॥ ९६ ॥
क एष स्मृतेः प्रमोषो नाम, किं प्रध्वंसः, उत प्रत्यक्षेण सहैकत्वाभ्यवसायः, आहोस्वित्प्रत्यक्षरूपतापत्तिः, उतचित्तदित्यंशस्याननुभवः, तिरोभावमानं वा भवेत् । तत्र यदि प्रध्वंसः । तदा साध्यसाधनसम्बन्ध२० स्मृतेः साध्यावसायसमये प्रध्वंसात्तत्रापि स्मृतिप्रमोषः स्यात् । न च भव
द्भिरपि तत्रैवं व्यवहारः प्रवर्त्यते । अथ प्रत्यक्षेण सहैकत्वाध्यवसायोऽस्याः प्रमोषः । ननु कुतः स्मृतेः प्रत्यक्षेण सहैकत्वाध्यवसायो विषयैकत्वाध्यवसायात् स्वरूपैकत्वाध्यवसायाद्वा । प्रथमपक्षे क एष विषयैकत्वाध्यवसायो
नाम,अन्यतरविषय आरोपश्चेत्, किं प्रत्यक्षविषयस्य स्मृतिविषये तद्विषय२५ स्य वा प्रत्यक्षविषय आरोपः स्यात् । तत्र प्रथमविकल्पे स्मर्यमाणरजत
देशे विपणिवीथ्यादौ शुक्तिशकलस्य स्पष्टत्वेन प्रतिभासो भवेत् । न
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः. पुनरिदमित्युल्लेखेन पुरोवर्तितया । विपणिवीथीव्यवस्थितस्मर्यमाणरजते शुक्तिसकलस्यारोप्यमाणत्वात् । यत्र यदारोप्यते तद्देशे तस्य प्रतिभासो भवति । यथा मरीचिकायामारोप्यमाणस्य नीरस्य मरीचिकादेशे । स्मृतिविषये रजत आरोप्यते च प्रत्यक्षविषयः शुक्तिशकलमिति । द्वितीयविकल्पे पुनरिदन्तया स्पष्टः प्रतिभासो न प्राप्नोति । तत्रारोप्यमाणस्य स्मृतिविषयस्यास्पष्टत्वात् । तन्न विषयैकत्वाध्यवसायात्स्मृतेः प्रत्यक्षेण सहैकत्वाध्यवसायो युक्तः । नापि स्वरूपैकत्वाध्यवसायात्, स्वरूपैकत्वं हि स्मृतिप्रत्यक्षाभ्यामेवाध्यवसीयेत अन्येन वा । न तावत्स्मृतिप्रत्यक्षाभ्याम्, तयोः स्वसंविदितत्वेन परस्परविविक्तं स्वस्वरूपं वेदयमानयोरेकत्वाध्यवसायस्य विरुद्धत्वात् । नाप्यन्येन १० ज्ञानेन, यतस्तेन तद्वयस्याप्रतीतस्यैकत्वमध्यवसीयते प्रतीतम्य वा । न तावत्प्रतीतस्य, तद्व्यप्रतीतौ तदेकत्वाध्यवसायस्य विरोधात् । नाप्यप्रतीतस्य, अतिप्रसक्तेः । अथ यदैव तवयं ज्ञानान्तरेण प्रतीयते न तदैव तदेकत्वाध्यवसायो येन विरोधः स्यात् । किन्तु पूर्वं तवयं प्रतीत्य पश्चादेकत्वेनाध्यवसीयत इति । तदयुक्तम् । संवेदनस्य क्षणमात्रस्थायित्वा- १५ दियन्तं समयमवस्थानायोगात् । तन्न प्रत्यक्षेण सहैकत्वाध्यवसायः स्मृतेः प्रमोषः । नापि प्रत्यक्षरूपतापत्तिः, तद्रूपतापत्तौ हि तस्याः स्मृतिरूपतापरिक्षयात् प्रत्यक्षरूपतैव स्यान्न स्मृतिरूपता । तत्कथमस्थाः प्रमोषः । अन्यथा मृत्पिण्डस्यापि घटरूपतापत्तौ मृत्पिण्डरूपतापरिक्षयेऽपि मृत्पिण्डत्वप्रसक्तेम॒पिण्डप्रमोषोऽपि स्यात् । अथात्र प्रत्यक्षबाधा, २० साऽन्यत्रापि समाना । अथ तदित्यंशस्याननुभवः स्मृतेः प्रमोषः। तद्रजतमित्याकारा हि प्रतीतिः स्मृतिः, तच्छब्दस्यानुभूतपरोक्षार्थालम्बनत्वात् । स यत्र नानुभूयते तत्र स्मृतिः प्रमुष्टेत्यभिधीयत इति । तदलौकिकम् । एवं हि रजताकारस्याप्यनुभवाभावप्रसक्तेः । तद्रजतमिति हि निरंशमेकमेवेदं स्मरणं भवतेष्यते । तत्र तदित्यस्य प्रमोषे २५ रजतमित्यस्यापि प्रमोषः स्यात् । निरंशस्यैकदेशेन प्रमोषानुपपत्तेः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. ११ अपि च प्रमोषशब्दस्य कोऽर्थोऽभिप्रेतः प्रज्ञाशालिनः । किमेकदेशापहारः सर्वापहारो वा । न तावदेकदेशापहारः, तत्र प्रशब्दप्रयोगस्य निरुपयोगत्वात् । एकदेशेन तस्करैर्द्रविणापहरणे मोषशब्दप्रयोगो
लोके निरूढः । ततः सर्वापहार एव प्रमोषशब्दस्यार्थ उपपन्नः । ५ प्रकृष्टो मोषः प्रमोष इति मोषस्य चैष प्रकर्षों यत्सर्वात्मना
वस्तुनोऽपहार इति । एवं च स्ववचनव्याघातः स्मृतिरस्ति किन्तु प्रमुष्टेति । यदि हि साऽस्ति कथं प्रमुष्टा । प्रमुष्टा चेत् कथमस्तीति । अथ तिरोभावः स्मृतेः प्रमोषः । सोऽपि ज्ञानयोगपद्ये सिद्धे सति सिद्धयेत् ।
न च भवतः ततस्तत्सिद्धम् । अपसिद्धान्तप्रसक्तेः । किञ्च स्मृते१० स्तिरोभावः किं कार्याकर्तत्वं स्वादावृतत्वमभिभूतस्वरूपतयाऽवस्थानं
वा । आद्यविकल्पे किं हि स्मृतेः कार्यं यदकर्तृत्वात्तिरोभावस्तस्याः स्यात् । परिच्छत्तिश्चेत् । ननु सा तत्रास्त्येव । रजतपरिच्छित्तेरनुभूयमानत्वात् । द्वितीयविकल्पोऽप्यनुपपन्नः । ज्ञानस्यात्रियमाणत्वानुपपत्तेः । चिरस्थायिनो हि पदार्थस्यात्रियमाणत्वं दृष्टम् । न च ज्ञानं चिरस्थायितया त्वया स्वीक्रियते 'क्षणिका हि सा न चिरकालमवतिष्ठते' इति स्वसमयप्रकोपात् । तृतीयविकल्पोऽप्यघटमानः । बलवता हि दुर्बलरूपाभिभवो दृष्टः प्रभाकरेणेव तारानिकरस्य । दुर्बलत्वं च स्मृतेः समतिक्रान्तविषयत्वाद्वाध्यमानत्वाद्वा भवेत् । प्रथमपक्षे क्षय एव स्मृतिवा या भवेत् । सर्वस्याः समतिक्रान्तविषय२० तया दुर्बलत्वतो वर्तमानवस्तुप्रतिभासज्ञानेन स्वरूपाभिभूतिप्रसक्तेः ।
वाध्यमानत्वं पुनर्विपरीतख्यातिमन्तरेण नोपपद्यत इत्यवोचाम । ततः स्मृतिप्रमोषाग्रहं परित्यज विपरीतख्यातिरेवाभ्युपगन्तुमुचिता । यदि चेयं नाभ्युपगम्यते । तदा यदेतच्छास्त्रश्रवणानन्तरभावि सर्वं क्षणिक
मित्यादिज्ञानं तस्य रूपं चिन्तनीयम् । किमिदं विपर्ययरूपमाहोस्वित्स्मृति२५ प्रमोषरूपमिति । तत्र यदि विपर्ययरूपं तदा किमर्द्धरतीयन्यायेन ।
१ अर्धा जरती अर्धा युवतिस्तदिवेति न्यायस्वरूपम् ।
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः रजतादिज्ञानमपि विपर्ययरूपमेषितव्यम् । अथ स्मृतिप्रमोषरूपम्, तदप्यनुचितम् । शास्त्रश्रवणानन्तरभावित्वेन स्मृतिरूपतानुपपतेः । न खलु शास्त्रश्रवणजनितं विज्ञानं स्मरणं युक्तम् । अक्षादिजनितज्ञानस्यापि तथात्वप्रसक्तेः । किञ्च पूर्वमनुभूतमेव पश्चात्स्मर्यते । न चासच्छास्त्रश्रवणादाक्कुदर्शनाभ्युपगतक्षणिकत्वाद्यनुभवः प्रादुर्भूत इति नेदं ५ स्मरणम् । तदभावाच कस्य प्रमोष इति । यदपि जल्पितं प्रस्तुतरजतसंवेदनदृष्टान्तेन समस्तसंवेदनानां निरालम्बनत्वप्रसक्तेरित्यादि । तदपि निरुपयोगम् । प्रस्तुतरजतसंवेदनेऽपि शुक्तिशकलालम्बनत्वस्य सविस्तरमनन्तरमेव समर्थियत्वान्निरालम्बनत्वाप्रसिद्धिरिति कथं तद्दष्टान्तावष्टम्भेन सकलसंवेदनानां निरालम्बनत्वमभिधीयमानं सुधियां १० मनः प्रीणाति । अथ समस्तप्रत्ययानां सालम्बनत्वे स्ववाचैव यथार्थत्वमस्माभिरिव भवद्भिरपि प्रतिपन्नं स्यात्तत्कथं विपरीतख्यातिः सिद्धयतीति मन्यते । तदपि न तथ्यम् । यथार्थत्वेन सह सालम्बनत्वस्यान्यथानुपपत्तेरसिद्धेः । न हीदं रजतमित्यादिज्ञानानि शुक्तिकाघालम्बनान्यपि यथार्थानि सम्भवितुमर्हन्ति । नेदं रजतमित्यादिबाधकप्रत्ययैस्तेषां बाध्यमानत्वस्य प्रतिपादितत्वात् । यत्र तु पाश्चाद्भाविनो बाधप्रत्यया न प्रादुर्भवन्ति तानि ज्ञानानि यथार्थत्वेन व्यवस्थितानीत्यलमतिविस्तरेण ।
एवं तावत्तव किल पुरः पक्षपातानपेक्षं
भेदाख्याति खलु वयमिमां मानतः क्षिप्तवन्तः । भ्रातः प्राभाकर यदि भावनभ्यधादत्र काञ्चित्
युक्तिं शक्तां स्वमतविषये तत्त्वमेव प्रमाणम् ॥ ९७ ।। तस्मात्त्वं चत्तार्किकाणां कदाचित्कर्तुं गोष्ठीमिच्छसि स्वच्छबुद्धे ॥ भेदाख्यातौ दोहदं दोषवत्यां मा कुर्वीथाः सर्वथाऽस्यां तदानीम्॥९८॥
70
१ मन्दाक्रान्ता!
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. ११ भ्रान्तिमख्यातिमाचख्युः सङ्ख्याविन्मानिनः परे ।।
प्रकटीकुर्वते तत्र यां युक्तिं सा प्रदर्श्यते ॥ ९९ ॥ तथाहीदं रजतमिति प्रस्तुतज्ञाने रजतसत्ता विषयभूता तावन्नास्ति । भ्रमस्थलेऽख्यातिवादि- अभ्रान्तत्वप्रसक्तः । रजताभावोऽपि न तज्ज्ञान• नां मतस्य सविस्तरं स्यालम्बनम् । रजतविधिपरत्वेन तस्य प्रवर्तनात् ।
खण्डनम् । अत एव शुक्तिखण्डमपि न तदालम्बनं युक्तम् । नापि रजताकारेण शुक्तिखण्डमालम्बनत्वेन प्रतिपादयितुमुचितम् । अन्यस्यान्याकारेण ग्रहणाप्रतीतेः । न खलु स्तम्भाकारेण कुम्भस्य ग्रहणं प्रतीतम् । तस्मान्न किञ्चिदत्र ज्ञाने ख्यातीति ।
तस्मादख्यातिरियं ख्यातिप्रासादशिखरमधिरूढा ॥
सम्प्राप्य युक्तिमेतां सोपानपरम्पराप्रायाम् ।। १०० ।। अनोच्यतेकिमख्यातिप्रतिष्ठायामेवं पर्याकुलाः स्थ भोः ।।
तस्याः प्रतिज्ञामात्रेण सिद्धैवाख्यातिरत्र च ।। १०१ ॥ १५ एवं हि स्वीक्रियमाणे विशेषतो व्यपदेशाभावप्रसक्तिः । यत्र हि
स्वरूपं पररूपं वा न किञ्चिदपि प्रतिभासते तत्केन विशेषेण रजतज्ञानमन्यद्वा व्यपदिश्येत । तथा च ।
वितथविदि यदि त्वं भाषसेऽख्यातिमित्थं ___ रजतमिति विशेषेणाभिधानं कथं स्यात् । तदिह किमभिदध्याः कोविदानां सभाया
मयमनुभववन्ध्यं लज्जते यन्न जल्पन् ॥ १०२ ॥ भ्रान्तिसुप्तावस्थयोरविशेषप्रसङ्गश्च । नहि भ्रान्तेः प्रतिभासमानार्थव्यतिरेकेण सुप्तावस्थातोऽन्योऽस्ति विशेषः । प्रतिभासमानार्थाभ्युपगमे च कथं निरालम्बनत्वेनाऽख्यातिरूपताऽस्याः स्यात् ।
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परि. १. ११]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
अख्यातिरियमेवं च पातिता ख्यातिसौधतः ॥ तत्साधनप्रवीणायाः कामं युक्तेः कदर्थनात् ॥ १०३ ॥
१२५
असत्ख्यातिं समाख्यान्ति सुसूक्ष्मप्रेक्षिणः परे ॥ तत्रोपपत्तिमेतां तु खेदयन्ति समुद्धताः ॥ १०४ ॥
ex
तथाहीदं रजतमिति प्रतिभासमानं वस्तु ज्ञानमर्थो वा भवेत् । न तावज्ज्ञानम् । अन्तर्मुखाकारतयाऽहं रजतमित्यहङ्कारसामानाधिकरण्येनाप्रतिभासमानत्वात् ।
असत्ख्यातिमत्तखण्डनम् ।
इदं रजतमिति बहिर्मुखाकारतया प्रथमानत्वाच । नाप्यर्थः । तत्साध्यार्थक्रियाकारित्वाभावात् । नेदं रजतामिति बाधकप्रत्ययेन वितथज्ञानविषयीकृतस्य वस्तुनोऽर्थताया बाध्यमानत्वाच्च । ततोऽसदेव तत्तत्र १० प्रतिभातमित्यसख्यातिः ।
एवमसत्ख्यातिरियं स्वयंवरा सुंदरीच तरुणेन || अनुगृह्यतेऽत्र गाढं दृढोपपत्तिप्रपञ्चन ॥ १०५ ॥ इमामसत्ख्यातिमुपैति लम्पटः प्रवक्ति युक्तीर्न तु तत्र निश्चलाः || चिराद्भविष्यन्ति तदन्यधीमतां कपोलपाल्यः स्मितलोचनोत्सुकाः । १०६ । १५ तथा सख्यातिरिति कोऽर्थः । किमेकान्तासतोऽर्थस्य प्रथनमथ देशान्तरे विद्यमानस्य । उत्तरस्मिन्पक्षे विपरीतख्यातिरेवेयम् । देशान्तरे विद्यमानस्य रजतस्य शुक्तिकादेशे प्रतिभासस्वीकारात् । एकान्तासतस्त्वर्थस्य प्रथनं नमोरुहवन्न समर्थयितुं शक्यम् । अपि चासत्सत्त्वेन प्रतिमातीत्यसत्ख्यातिरपि न विपरीत्ख्यातिमतिक्रामति । २० यदपीदं रजतमिति हि प्रतिभासमानं वस्तु ज्ञानमर्थों वेति विकल्प - द्वयमकारि । तत्राद्योऽनभ्युपगमान्निरस्तः । द्वितीयस्त्विष्यत एव । तत्र च यदुक्तं तत्साध्यार्थक्रियाकारित्वाभावादिति । तन्न पेशलम् । अर्थनिबन्धनाभिलाषप्रवृत्त्याद्यर्थक्रियाकारित्वस्य तत्रापि सम्भवात् । कथं तर्ह्यत्रार्थक्रियाकारित्वेऽपि रजतस्य भ्रान्तत्वमभिधीयत इति च २५
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__ प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. ११ नाभिधेयम् । चरणाभरणभाजनादितदर्थक्रियाकारित्वाभावात्तस्य भ्रान्तत्वोपपत्तेः । द्विविधा ह्यर्थक्रियाऽर्थमात्रनिबन्धनाऽर्थविशेषनिबन्धना च । तत्राभिलाषादिरूपाऽर्थमात्रनिबन्धना । चरणाभरणभाजनप्रभृतिस्त्वर्थविशेषनिबन्धना । अर्थविशेषनिबन्धनार्थक्रियाकारिण एवार्थस्य ५ व्यवसायकं संवेदनमभ्रान्तमितरत्तु भ्रान्तम् । यच्चोक्तं नेदं रजतमिति बाधकप्रत्ययेन विषयीकृतस्य वस्तुनोऽर्थताया बाध्यमानत्वादिति । तदपि न साधीयः । न हि बाधकप्रत्ययो मिथ्याज्ञानविषयीकृतस्य वस्तुनोऽर्थतां बाधते । किं तर्हि मिथ्यारजतधियः स्वविषयपरित्यागेन विषयान्तरोपसर्पणान्मिथ्यात्वं ख्यापयति ।
असल्यातिरियं तस्मान्न प्रमाणेन केनचित् । स्वीक्रियते विदग्धेन दुर्भगेव कदाचन ॥ १०७ ।। वावदूकाः प्रसिद्धार्थख्यातिमाहुः परे पुनः ।
तेषामपि स्फुटाटोपः किञ्चिदेष प्रकटयते ॥ १०८ ॥ तथाहि प्रतीतिसिद्धमेव वस्तु विपर्ययज्ञाने चकास्ति । न चास्य प्रसिद्धार्थख्यातिमत- विचारताऽसहत्वादविद्यमानत्वं वचनीयम् । __खण्डनम् । प्रतीतिं परित्यज्यान्यस्य विचारस्यैवानुपपत्तेः । पाणिपल्लवन्यस्तनिस्तुलस्थूलमुक्ताफलादेरपि यतः प्रतीतिसामयनैव विद्यमानत्वं व्यवन्हियते । सा च प्रतीतिरितरत्रापि न नृपतिशासन.
निरुद्धा । न चेदं वाच्यं दूरतः शुक्तिकाशकलादौ कलधौतादेव२० स्तुनः प्रतिभासस्य तद्देशोपसर्पणे सत्युत्तरकालं प्रतिभासस्याभावादविद्यमानत्वमिति । यतो यदि नामोत्तरसमयं तद्वस्तु न प्रतिभासते तथापि यत्समयं प्रतिभासते तदा तावद्विद्यत एव । इतरथा तोयबुहुदादेरपि स्वप्रतिभाससमये सत्त्वसिद्धिर्न भवेत् ।
तस्मादित्थं प्रसिद्धार्थख्यातिरेषा न मुञ्चति ।। कदाचनापि सन्न्यायं कौमुदाव कलानिधिम् ॥ १०९ ॥
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परि. १.सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः .
एतदत्र प्रसिद्धार्थख्यातौ यथुक्तिपञ्जरम् ॥
जैनयुक्तिमदाघातस्तस्करोत्येष जर्जरम् ॥ ११० ॥ एवं हि स्वीक्रियमाणे भ्रान्ताभ्रान्तसंवेदनोदन्तसमुच्छेदप्रसक्तिः । न खलु यथावस्थितवस्तुव्यवसायित्वाविशेषेऽपि किञ्चित्संवेदनं भ्रान्तमभ्रान्तं च किञ्चिदिति निर्निमित्ता व्यवस्थितिः कत्तुं युक्ता यौक्ति- ५ कस्य । स्वैरचारित्वप्रसक्तेः ।
तथा चइयं भ्रान्ता सविद्भमविरहिताऽसौ पुनरिति ___ प्रसिद्धाऽऽस्ते तावन्निखिलजनतायां व्यवहृतिः । अयं त्वेतां सम्यकथमिव तपस्वी घटयिता __ यतः सत्यार्थत्वं वदति सकलज्ञानविषयम् !! १११ ॥ यत्पुनरुक्तं यदि नामोत्तरसमयं तद्वस्तु न प्रतिभासते । तथापि यत्समयं प्रतिभासते तदा तावद्विद्यत एवेति । तन्न निरवद्यम् । यतः प्रतिभाससमये कलधौतादेर्वस्तुनो विद्यमानत्वं किं देशान्तरे विपणिवीथ्यादावभिमतं शुक्तिकादिदेशे वा । प्रथमपक्षे विपणिवीथीव्यव- १५ स्थितस्यैव तस्य प्रतिभासः स्यात्तथैव विद्यमानत्वस्वीकरणात् । य
खलु यत्र देशे सत्तामनुभवति तस्य तत्रैव प्रतिभासः सम्भवति । न हि स्तम्भदेशे कुम्भः कदाचिदुपलभ्यते । अथान्यदेशालम्बिनोऽपि कलधौतादेः सामग्रीविशेषमाहात्म्यतः शुक्तिकादेशे प्रतिभासोऽभ्युपगम्यते । हन्त तर्हि समायाता सेयं तपस्विनी विपरीतख्यातिरेव । २० अन्यदेशस्य वस्तुनोऽन्यदेशतया प्रतिभासाऽभ्युपगमात् । ततः: प्रसिद्धार्थख्यातिरिति नाममात्रं विशिप्यते । न च तत्र विवाद कोविदानाम् । अथ शुक्तिकादेशे तस्य विद्यमानत्वमङ्गीक्रियते । तदप्यनुपपन्नम् । तद्देशोपसर्पणे सत्युत्तरकालं तत्प्रतिभासस्थाभावात्। न च तोयबुहृदादेरिव क्षणभङ्गुरत्वं कियत्कालस्थायिनः कलधौतादेः २५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि १ सू.११ प्रतीयते । येन स्वप्रतिभाससमयानन्तरमेव सर्वथा परिक्षयादुत्तरकालं प्रतिभासस्तस्य न सम्भवेत् । नेदं रजतमित्यादेबर्बाधकस्य च शुक्तिकादिदेशे कलधौतादिवस्तुनिषेधकस्य प्रवर्त्तमानत्वान्न तत्र तस्य विद्यमानत्वं कथञ्चिदास्थां बनातीति । .
तदियं प्रसिद्धवस्तुख्यातिरिह प्रमितिमार्गमकलङ्कम् ।। अनुसरति नैव कथमपि कुलटेव सुनिर्मलं शीलम् ॥११२॥
आत्मख्याति ख्यातिमार्गानभिज्ञाः
श्रद्धावन्तः ख्यापयन्तीह केचित् ॥ आत्मख्यातिमतखण्डनम् ।
तस्यां तावत्तन्मतं युक्तिमार्ग
___ सम्प्रत्येतं दर्शयामस्तथा हि ॥ ११३ ।। शुक्तिशकले कलधौतमिदमिति चकास्ति । तस्य च बाह्यतया प्रतिभानं नोपपत्तिमन्नेदं रजतमिति बाधकेन तद्बाह्यताया बाध्यमानत्वात् । न हि यत्प्रकारतया योऽर्थः प्रतिभासते तत्प्रकारतेव
स्वीकर्तुं समुचिता सताम् । भ्रान्तत्वाभावप्रसक्तेः । ततो ज्ञानात्मन १५ एवायमाकारोऽनादिवासनामाहात्म्यावहिरिव परिस्फुरतीति ।
आत्मख्यातिरियं तस्मादानीता सिद्धिपद्धतिम् ॥ बाह्यस्य भासनाभावाद्भावस्य परमार्थतः ॥ ११४ ॥ उक्तं यद्वक्तव्यं त्वया सखे निखिलमात्मनः ख्यातौ ॥
अनाकर्णय सम्प्रति जैनानामुत्तरसमृद्धिम् ॥ ११५ ॥ तथाहि यत्तावदवादि तस्य च बाह्यतया प्रतिभानं नोपपत्तिमन्नेदं रजतमिति बाधकेन तदाबताया बाध्यमानत्वादित्यादि । तदसुन्दरम् । नेदं रजतमिति बाधकेन न रजतस्य बाह्यता बाध्यते किन्तु विपाणिवीथ्यादौ वर्तमानस्य बाह्यस्यैव सतः शुक्तिकादेशस्थता । यदपि न्यगादि ज्ञानात्मन · एवायमाकारोऽनादिवासनामाहात्म्याहहिरिव परिस्फुरतीति । तदप्यवाच्यम् । वासनाया एव त्वन्मते१ सस्य' इत्यधिक म. पुस्तके ।
२०
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१२९ ऽनुपपत्तेः । तथाहि इयं वासना अवस्तुरूपा वा वस्तुरूपा वा। तत्र यद्यवस्तुस्वरूपा, तदा नमस्तामरसतुल्यायास्तस्याः कथं काञ्चन व्यवस्थां प्रति हेतुभावः सम्भवति । अथ वस्तुस्वरूपा, सापि ज्ञानाकारात्पार्थक्येन स्वरूपमाबिभर्ति अन्यथा वा । प्रथमपक्षे ज्ञानाद्वैतक्षतिः । ज्ञानाकारात्पृथग्भूताया वासनायाः समायातत्वात् । तथा ५ च यथा वासना ज्ञानाकारात्पृथक्स्वरूपाऽपि घटते । तथा कलधौतादिर्बाह्योऽर्थः परमार्थतया यदि भविष्यति तदापि न किञ्चिदनुचितमालोचयामः । अथ न पार्थक्येन स्वरूपमाबिभर्ति । तर्हि ज्ञानाकार एवायमिति ज्ञानाकारमाहात्म्यावहिरिव प्रतिभासत इति तदेव साध्य तदेव च साधनमभिहितं भवेत् । तन्न वासना नाम कदाचन स्वरूप- १० मामुखयन्ती प्रतीयत इति तत्सामर्थ्याज्ञानाकारस्य बाह्यविज्ञानप्रतिभासनमनुपपन्नमिति ।
किञ्च स्वरूपमात्रसंविदि तन्निष्ठायामाकारधारितायां च प्रसिद्धायां ज्ञानस्यात्मख्यातिः सिद्धिमासादयेत् । न चैते प्रसिद्धे । पुरस्तादनयोः सविस्तरं पराकरिष्यमाणत्वात् । स्वाकारमात्रग्राहित्वे च निखिल- १५ ज्ञानानामिदं भ्रान्तमिदं चाभ्रान्तमिति विवेको बाध्यबाधकभावश्च न स्यात् । तत्र कस्यचिदपि व्यभिचाराभावात् । ज्ञानात्मस्वरूपतया च रजताद्याकारस्य संवेदनेऽहं रजतमित्यन्तर्मुखाकारतयैव रजतसंवित्तिः स्यान्न पुनरिदं रजतमिति बहिर्मुखाकारतया । अनादिवासनावशाहहिनिष्ठत्वेन शुक्तिस्थो रजताद्याकारः प्रतीयत इत्युच्यमाने तु विपरी- २० तख्यातिरेवेयं स्यात् । ज्ञानादमिन्नस्य रजताद्याकारस्यान्यथात्वेनाध्यकसितत्वात् । अपि च स्वाकारमेव रजतादि बहीरूपतया ख्यापयन्ति भ्रान्तय इत्यत्र न प्रमाणमस्ति । अथानुभवः प्रमाणमिति चेत् । नैवं वाच्यम् । विकल्प्यमानस्य तस्यानुपपद्यमानत्वात् । तथा ह्यनुभवः प्रमाणत्वेन प्रतिपाद्यमानः कलधौतप्रत्ययो वा स्याद्वाधकप्रत्ययो वा । तत्र न तावत् २२ कलधौतप्रत्ययः । स हीदन्तया कलधौतस्य न ज्ञानाकारतयापि । अथ
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प्रमामयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. ११ बाधकप्रत्ययः कलधौतम्य ज्ञानाकारतामबभासयतीत्यभिमन्यसे । भैवम् । बाधकप्रत्ययोऽपि हि शुक्तिशकले कलधौताकारतामेव प्रतियेधति न पुलः कलधौतस्य ज्ञानाकारतामपि ज्ञापयति ।
अथायमाशयस्ते पुरोवर्तिशुक्ल्याकारत्वप्रतिषेधे कलधौतस्य साम५ द्विोधाकारतासिद्धिरिति । तदपि न चतुरस्रम् । शुक्त्याकारत्नप्रतिधे कलधौतस्य बोधात्पृथाभूतस्य सामाद्देशान्तरादौ सत्त्वसिद्धिस्त्येिवं कस्मान्न कल्प्यते । किमर्थं दृष्टातिक्रमेणादृष्टस्य ज्ञानाकारबस्य परिकल्पन मिति । अथानुमानेन कलधौतस्य बोधाकारतासिद्धिः । तथाहि यत्प्रकाशते तद्विज्ञप्तिमात्रं यथा सुखादिकम् । प्रकाशवे कलधौतमिति । तदसत् । अस्य विज्ञानवादे विषयिष्यमाणत्वात् । अपि च बाह्यतया स्वाक्रारमोचकाङ्गीकरणे विभ्रमाणाभिदं शुक्तिशकलं प्रत्याकलितं मयेति प्रत्यभिज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्गः । किन्वेव प्रत्यभिजाई भवेदान्तर कलधौतं अहीरूपतया मया प्रतिपन्चमिति ।
किं च नेदं कलधौतमपि तु शुक्तिकाशकलमित्युल्लेखेन निषेधानुपपत्तिः । १५ आत्मख्यातिपक्षे शुक्तिशकले कलधौतस्याप्रसक्तत्वात् । किन्त्वेनं
स्यान्नेदं कलधौवं बहिरपि वान्तरमिति । यदि च ज्ञानस्य बाह्यार्थविषयत्वं नेष्यते । बर्हि यथा रजताक्रासेल्लेख्नेन तत्प्रवर्तते तथा नीलाद्याकारोल्लेखेनापि किमिति न प्रवर्तते । नियामकस्थामावात् ।
अभानादिवासनैव तन्नियामका । कथमेवं देशादिनियमेन तस्योत्पन्तिः २० स्यात् । अथास्या इमेव माहास्य यदसदपि देशादिनियमेन ज्ञाने
प्रवर्सयतीत्यभिधीयत्ने । लन्न युक्तम् । असल्याविस्वमसक्केः । कथं वात्माख्यातिवादिनश्छेदाभिघातादिप्रतीतिः स्यात् । स्वरूपमात्रसंबिनौ वदसम्भवात् । न खल विज्ञानरूपस्य सुखादेः संविचौ तत्प्रतीतिर्दृष्टेति ।
बागड्याति प्रकृतरजवोद्भासिनि श्रान्तिबोधे * युक्ता वक्तुं कयाषि प्ररैस्तछिनापि प्रमाणम् ।
३ ' एवं ' इति प. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. ११ स्याहादरल्लाका साहितः
१३१ न्यायापेन न खलु सुधियः सनिरन्ते कदाचित्
न्यायश्चान प्रकृतिसुभगः ख्यापितो नैव कश्चित् ॥ ११६ ॥ अनिर्वाच्यख्याति- केचित्पुनरनिर्वाच्यख्याति भ्रान्तिमुपागमन् ॥
खण्डनम् । युक्तिमार्गममुञ्चैतत्प्रवेशे निरदीदिशन् ॥११७।। तथाहि शुक्तिशकले प्रतिभासमानस्य कलधौतस्य यदि सत्त्वं ५ स्यात्तदा तद्बुद्धेरभ्रान्तत्वप्रसङ्गः, सत्यकलधौतबुद्धिवत् । असत्त्वे पुनर्गगननलिनादिवत् प्रतिभासप्रवृत्त्योरविषयत्वप्रसक्तिः । अथैतदभिधीयते शुक्तौ प्रतिभासमानं रजतं न सद्रूपं नासद्रूपं किन्तु सदसद्रूपमिति । तदपि नोपपन्नम् । प्रागुक्तोभयपक्षनिक्षिप्तदोषानुषक्तेः । तदुक्तं 'प्रत्येकं यो भवेदोषो द्वयोर्भावे कथं न स' इति । सदसतो- १० रैकात्म्यविरोधाच नायं पक्षः परीक्षां क्षमते । यदि हि सद्रूपं कथमसद्रूपम् । असद्रूपं तत्कथं सद्रूपम् । तन्न सदसद्रूपमपि निर्वक्तुं शक्यत इति ।
एवं च--- यतः सत्वासत्त्वप्रभृतिभिदया भद्र पटते ___ क्वचित् नान्तिर्ज्ञाने न खलु विषयो युक्तिकलितः । अनिर्वाच्यख्यातिः अयति तदियं सिद्धिसराणिं ___ समुन्मीलद्युक्तिव्यतिकरवशादप्रतिहत्ता ॥ ११८ ॥ श्रियं यैरनिर्वाच्यख्यातिः ख्यातिधिरोधिनी । '
अनिर्वाच्या न ते न स्युायविस्तरवेदिनाम् ॥ ११॥ २० तथाहि । शुक्तिशकले न किञ्चित्कलधौतं नाम ख्याति । किं तहि शुक्तिखण्डमेव कलधौततया । तथैव प्रत्यभिज्ञानानुमानानां विवेकाख्यातिप्रतिक्षेपे प्रदर्शितत्वात् । तच शुक्तिकाखण्ड सच्चासत्त्वाभ्यां नानिर्वचनीयम् । तद्धि स्वरूपेण ससररूपेण चासदोषक्शा
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि १ सू० ११
त्कलधौततया प्रतिभातीति । यथा च सर्वं वस्तु स्वरूपेण सत्पररूपेण पुनरसदित्यभिधीयते न च विरुद्धयते तथा कथयिष्यामः स्याद्वादसिद्धिप्रघट्टक इति मा त्वरिष्ठाः । एवं च यदवाचि शुक्तिशकले प्रतिभासमानस्य कलधौतस्येत्यादि तत्सर्वं प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम् ।
किञ्च शुक्तिशकले कलधौतं प्रतिभातीति कथञ्चिन्न घटते विकल्पैविघटमानत्वात् । तथाहि । देशान्तरादिस्थितमेव कलधौतं शुक्तिकाशिरसि परिस्फुरति किं वा देशान्तरादायातनुताहो शुक्तिकायामेव सम्पन्नमिति । तत्र न प्रथमविकल्पः कल्पनाहः । देशान्तरादिस्थितस्य कलधौतस्यात्र करणजम्रान्तिबोधाविर्भावे कर्मकारकत्वायोगात् । नापि १० द्वितीयो विकल्पः । श्रान्तिज्ञानोत्पादकाले देशान्तरादागच्छतः कलधौतस्यानवलोकनात् । तृतीयोऽपि विकल्पो न समुचितः । शुक्तिकायां कलधौतस्योत्पादकारणानुपपत्तेः । न हि परिणाम्यादिकारणसामग्री विना पारमार्थिकस्य कार्यस्योत्पत्तिरुपपद्यते । अथ शुक्तेरज्ञानमेव तत्र प्रतीयमानस्य कलधौतस्य परिणामिकारणमिति मतिः । दुर्मतिरेवेयम् । १५ अज्ञानस्य केवलपरिणामिकारणत्वायोगात् । अज्ञानं हि सम्यग्ज्ञानस्य प्रागभावो मिथ्याज्ञानं वा । द्वयमपि केवलं न परिणामिकारणम् । द्रव्यस्यैव तत्पर्यायपरिकरितस्य परिणामिकारणत्वप्रसिद्धेः । तर्द्धात्मद्रव्यमेव सम्यग्ज्ञानप्रागभावलक्षणपर्यायाविष्टं मिथ्याज्ञानस्वरूपपर्यायाक्रान्तं वा शुक्तिशकले कलधौतस्य परिणामिकारणं भविष्यतीत्यपि २० न सम्भावनीयम् । चेतनस्याचेतनं प्रति कथञ्चन परिणामिकारणत्वानुपपत्तेः । स्यादाकूतं भवतः । नाज्ञानं सम्यग्ज्ञानप्रागभावो नापि मिथ्याज्ञानं किन्तु ताभ्यामर्थान्तरमेव मायाविद्यादिपर्यायप्रतिपाद्यमिति । तन्न हृदयङ्गमम् । भवदभिमतमायास्वभावाज्ञानसद्भावे प्रमाणाभावात् । तस्मादसुन्दरमुच्यते । शुक्तयविद्याजनितं रजतं २५ भ्रमज्ञाने परिस्फुरतीति ।
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१३३ अपि चानिर्वचनीयख्यातिरित्यत्र ख्यातिरिति किमयं ख्या प्रकथने ' इत्यस्य प्रयोगः 'ख्या प्रथने ' इत्यस्य वा । उभयत्रापि न त्वन्मतसिद्धिः । सदसद्रूपस्य वस्तुनः कथनीयतायाः प्रथमानतायाश्च युज्यमानत्वात् अन्यथा:सर्वव्यवहारविलोपप्रसङ्गः । किञ्च किं निरुक्तिविरह एवानिर्वचनीयत्वमाहोस्विन्निरुक्तिनिमित्तविरहः । न प्रथमः कल्पः ५ कल्पनाहः । इदं रजतं नेदं रजतमिति निरुक्तेरनुभूयमानत्वात् । नापि द्वितीयो निरुक्तर्हि निमित्तं ज्ञानं चा स्याद्विषयो वा । न प्रथमस्य विरहः । 'रजतं भाति यद्धान्तौ तत्सदेके परे त्वसत् । अन्येऽनिर्वचनीयं तदाहुस्तेन विचार्यते' इति इष्टसिद्धिकारिकायां 'रजतं भाति यद्भ्रान्तौ' इत्यनेन वचसा विपरीतख्यातेः स्वयमेवा- १० भ्युपगमात् । नापि द्वितीयम्य विरहः । यतो विषयः किं भावरूपो नास्त्यभावरूपो वा । प्रथमकल्पनायामसत्ल्यात्यभ्युपगमप्रसङ्गः । द्वितीयकल्पनायां तु सख्यातिरेव । उभावपि न स्त इति चेत् । ननु भावाभावशब्दाभ्यां लोकप्रतीतिसिद्धावेव तावभिप्रेतौ विपरीतौ वा । प्रथमपक्षे तावद्यथोभयोरेकत्र विधिर्नास्ति तथा प्रतिषेधोऽपि । परस्परविरुद्ध- १५ योर्मध्यादेकतरविधिनिषेधयोरन्यतरनिषेधविधिनान्तरीयकत्वात् । द्वितीयपक्षे तु न काचित् क्षतिः । न ह्यलौकिकविषयसहस्रनिवृत्तावपि लौकिकज्ञानविषयनिवृत्तिस्तन्निरुक्तिनिवृत्तिर्वा । अथापि निःस्वभावत्वमनिर्वचनीयत्वम् । अत्रापि निसः प्रतिषेधार्थत्वेन स्वभावशब्दस्यापि भावाभावयोरन्यतरार्थत्वे पूर्ववत् प्रसङ्गः । प्रतीत्यगोचरत्वं २० निःस्वभावत्वमिति चेत् । अत्र स्ववचनविरोधः प्रतीत्यगोचरत्वं प्रतीयते चेति । यथा प्रतीयते न तथेति चेत्, अत्र न विप्रतिपद्यामहे । विपरीतख्यातेरेवमभ्युपगमे समागतत्वादिति ।
१ पाणिनिधातुपाठेऽदादिगणे धा. १७. २ अयं धातुः पाणिनिव्याकरणे नोपलभ्यते ।
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रणम्।
प्रमाणनयतवालीकालङ्कारः - {परि. १ स. ११ एवं चयतों मिथ्याबुद्धौ रजतमिदमित्यत्र सततं
नृणां रुप्यत्वेन स्फुरति सदसच्छुक्तिशकलम् । अंनिर्वाच्यख्यातायनुभवविरुद्धाभ्युपगतौ
तदैतस्यांमाशी श्लथयथ कथं नैव सुधियः ।। १२० ॥ अच्छेकमीमांसकंवैधसाऽत्र प्रकल्पिती नूतनसृष्टिकल्पाम् । निर्मूलनाशार्थमिमामिदानीमलौकिकख्यातिमुपक्षिपामः ।। १२१॥ तथाहि स प्राह । येयं शुक्तिशकले कलधौतप्रतीतिविपरीतख्या
तिरिति तद्वादिना सम्मता सा तथा ने मवति। अलौकिकस्यासिमत--
- सम्यकलधौतप्रतीतिवदिहापि प्रतिमासमानस्य
कलधौतस्य विद्यमानत्वात् । विशेषः पुनाकिकत्वालौकिकत्वकृतः । कैलधीतसंवेदनसवेधं हि कलधौतमभिधीयते तंत्र यद्विपंणिवीथ्यादिव्यवस्थित तल्लौकिक, तस्मादपरमलौकिकमिति ।
अतः सतां मानसकांननोदरे गमीरयुक्तिप्रवरप्रसाधनी । १५ अलौकिकख्यातिरिय निरङ्कुशा करोतुं फैली करिणी निर्मराम्।। १२२॥
एतामलौकिकैख्यातिमच्छकः प्रतिपादयन् । __ अलौकिकत्वं स्वस्यैव सूचयत्येष केवलम् ।। १२३ ॥
तथाहि । थद्यलौकिकरंजलेंप्रतिमासः प्रस्तुतरजतज्ञाने स्यासदा प्रवृस्यभावप्रसक्तिः प्रतिपणान् । अथालौकिकस्यापि लौकिकत्वं २. मत्वा प्रतिपत्तारः प्रवर्तिण्यन्त इति मलिः । नन्वेवं सैव विपरीत
ख्यातिर्भवतः सुभगतामागता । अन्यच्च यदीयं रजतमतिरलौकिकरजतालम्बना तदा तस्य दृश्यस्वभावत्वात् प्रत्यासन्नमागच्छता प्रतिपत्रा सविशेष दृश्येत तत् । तथाहि दवीयोदेशवर्तिना यः पदार्थः
परिच्छिद्यते स नेदीयोदेशवर्तिना सविशेषमवसीयते शैलादिवत् । २ तथेदमपि भवेत् इन्द्रियादेरप्येलौकिकरजतगोचरज्ञानजनकस्य कारक
१ छकः अवसरज्ञः । २ 'अपि' इति नास्ति प. भ. पुस्तकयोः ।
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परि. १ . ३१ स्थाडादरमाकरसहितः चक्रस्य तदेवस्थत्वात् । तथा लौकिकस्येवालौकिकस्यापि पारमार्थिककले: धौतस्वाङ्गीकारे मेदं रजतमिति बांधकांभावप्रसक्तिः। अथ बाधकप्रत्ययनालौकिकस्य लौकिकत्वनिषेधः क्रियते इत्यभिमतम् । तन्न सुन्दरम् । मेदं रजतमिति हि रजतं प्रतिषेधयत्येषं प्रत्ययों नं विद्यमानस्यं रजतस्याः लौकिकत्वमयद्योतयति नेदं रजत लौकिकमपि त्वलौकिकम् इति । किञ्च ५ प्रसक्तं प्रतिषिध्यते । न च लौकिंकरजलं तत्र प्रसक्तम् । प्रसस्त चेत्, तर्हि विपरीतख्यातिरेव ख्यातिसौधमंघिरीहति । अपि चास्मिन् पर्खे इदै शुक्तिशकले कलधौताकारतथा मया पूर्व परिच्छिन्नमित्येवं प्रत्यः मिशा नोत्पद्येत । किन्त्येवं स्यायंदेवालीर्किक कलधौत तन्मयी लौकिकाकारेण परिच्छिन्नमिति । अन्यच्च किमिदमलौकिकत्वं माम है। सम्मतमायुष्मताम् । किमन्यस्वभावत्वमर्थस्य, अन्यार्थक्रियाकारित्वे, अन्यकारणजन्यवं, अकारणजन्यत्वं वा । न तावदन्यस्वभावस्वम् । थाहर्श एव हि सम्यकलधौतस्य स्वभावः प्रतिभासते तादृश एवेतरस्यापि । अन्यस्वभावावभासित्वे च विपरीख्यातेरेवालौकिकख्यातिरित्यभिधानं विहितं भवेत् ।नाप्यन्यार्थक्रियाकारित्वम् । अन्यस्यार्थस्यान्यार्थनियाकारित्वे १५ कारणान्तरपरिकल्पनानर्थक्यप्रसक्तेः। एकस्मादेव कारणात् सकलकार्याणां समुत्पत्तिसद्भांवात् । एतेनाभ्यकारणजन्यत्वपक्षोऽपि प्रतिक्षिप्तः । समानसमाधानत्वात् अकारणजन्यत्वपक्षे पुनरलौकितया संम्मतस्य रजतस्य भावरूपत्वमभावरूपत्वं वा भवेत् । मावरूपत्वेऽस्य नित्यत्वप्रसङ्गः । सद्रूपस्य कारणादनुपंजायमानस्यानित्यत्वानुपपत्तेः । २४ अथाभावरूपत्वम्, तर्हि कथमिर्दै रजतमिति विधिमुखेन तस्य प्रतीतिः । न खलु कुम्भाभावेऽयं कुम्म इति विधिद्वारा प्रतीतिः स्वमदशायामप्यसुम्यते । अथामावरूपस्यापि तस्य कुतश्चित् भ्रान्तिनिमित्ताद्भावरूपलया प्रतीतिर्भवतीत्यङ्गीक्रियते । तर्हि सखे सैवेयं विपरीतख्यातिभूयोऽपि प्रसमं वल्लममिव भवन्तं भजत इति । किञ्चायं लौकिकालौकिकविवेकः २९ प्रतीतिनिमित्तो वा भवेत् व्यवहारभावाभावनिमित्तो वा । न तावत्प्र
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. १ सू. ११ थमः पक्षः, तथाप्रतीतेरभावात् । वापि रूप्यं क्वापि च रूप्याभावः प्रतीयते न पुनरिदं लौकिकं रूप्यमिदं त्वलौकिकमिति । अथेदं व्याहियते यत्र व्यवहारः प्रवर्तते तल्लौकिकमितरत्त्वलौकिकमिति ।
ननु कोऽयं व्यवहारः सम्मतः शेमुषीशालिनः । यदि ज्ञानाभिधान५ स्वभाव इत्यभिधीयते । स तावन्नास्त्येव । नहीदं लौकिकमिति
कश्चिजानीतेऽभिधत्ते च लौकिकः। अथ रजतार्थक्रियाकरण व्यवहारः स तु प्रस्तुते रजते नास्तीत्यलौकिकं तदुच्यते । हन्तैवमुत्पत्तेरनन्तरं विनष्टः कुम्भोऽप्यलौकिकः स्यात् । स्वसाध्यसलिलाहरणधारणाद्यर्थक्रियाया अकरणात् । तन्नायं लौकिकालौकिकविभागः कथञ्चिद्विचारवर्तनीमनुवर्तत इति । तदेवमेवंविधदोषदूषितां विसूत्रिताशेषपरोक्तयुक्तिकाम् । न कश्चिदप्यत्र विसंस्थुलामिमामलौकिकख्यातिमुरीकरोति ॥ १२४ ॥
ख्यात्युत्तराणि तदिमानि विचारितानि
युक्त्या कथञ्चिदपि नैव घटामटन्ति । तस्मात् भ्रमेषु नियतं विपरीतवस्तु ख्यातिः प्रमाणकलितेह समभ्युपेया ॥ १२५ ।। ..
_ किं किं जल्पस्यन्यथाख्यातिरेव सिद्धान्तभूतविपरीतवस्तुख्यातिमते परो- स्वीकर्तव्या तार्किकैान्तिबोधे । पदर्शितदूषणानां दूरोपता सर्वथैव त्वदाशा निरास: 1
- दोषेप्वेवं जागरूकेषु सत्सु ॥ १२६॥ तथाहि तस्याः किमालम्बनं कलधौतं शुक्तिकाशकलं वा । कलधौतं चेन्नन्वेवमसत्ख्यातिरषा भवेन्न पुनर्विपरीतख्यातिः । असतः कलधौतस्य तत्र प्रतीतेः । अथान्यदेशकालं सदेव तत्तत्र प्रतिभासते ततोऽयमदोषः । तदसमीचीनम् । एवं सतीदं रजतमित्युल्लेखेन ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तिः । नह्येतद्देशकाले रजते विप्रकृष्टे चाक्षुषं
१' कारणं ' इति भ. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१३७ ज्ञानं भवितुमर्हति । अन्यथा सर्वत्र चाक्षुषज्ञानोत्पादप्रसङ्गेन जगतोऽपि तद् ग्राहकं भवेत् । तन्न विपरीतख्यातेः कलधौतमालम्बनम् । नापि शुक्तिका । रजताकारतयोपजायमानत्वात् । न चान्याकारायाः . संवित्तेरन्यदालम्बनं युक्तम् । अतिप्रसक्तेः । यदि चेयं संवित्तिः शुक्तिकालम्बना कथमस्याः भ्रान्तित्वं भवेत् । अथेदमभि- ५ धीयते अन्यदालम्बनमन्यच्च प्रतिभाति । तथा ह्यालम्बनं शुक्तिशकलं कलधौतन्तु प्रतिभासत इति । एतदप्यसाधीयः । यतः शक्तिशकलस्यालम्बनत्वं प्रतिभासमानत्वेन यदि नाभ्युपगम्यते तदा कथं तत्स्यादिति वाच्यम् । सन्निहितत्वेन चेत्, तर्हि तत्सन्निहितस्य विश्वम्भराप्रदेशस्यापि तदालम्बनत्वप्रसक्तिः । तन्न सन्निहितत्वनिबन्धनमालम्ब- १० नत्वम् । किं तर्हि प्रतिभासनिबन्धनम् । एवं च यदेवास्यां प्रतीतौ प्रतिभासते तदेव रजतमालम्बनतयाऽभ्युपगन्तुं युक्तं तच तत्रासदेव । एवं चासतल्यातिरियमायाता न विपरीतख्यातिरिति ।
विपरीतख्यातिमिमां समन्ततो दोषदूषितशरीराम् । अपरख्यातिगुणानामनभिज्ञो यदि परमुपैति ॥ १२७ ॥ १५ किं ब्रूमहेऽस्य निरपत्रपताममूषु
यख्यातिषु प्रतिहतास्वपि पक्षपाती । निःशेषदोषविमुखे स्वधियान्यथार्थ
ख्यातिभ्रमेऽपि परिजल्पति दोषमालाम् ।। १२८ ॥ तथाहि यदुक्तं तस्याः किमालम्बनमित्यादि । तत्र रजतमेवालम्ब- २० नमित्येके । न चैवमसख्यातित्वप्रसक्तिः । देशान्तरादौ कलधौतस्य विद्यमानत्वात्। असलव्यातिपक्षे हि सर्वथाऽप्यसतोऽर्थस्य प्रथनमास्थीयते । अत्र पुनर्देशान्तरादौ विद्यमानस्येत्यनयोर्महद्वैलक्षण्यं लक्ष्यते । ननु तत्राविद्यमानस्य रूप्यस्य नयनासन्निकृष्टस्य कथं प्रतिभानं
१ ‘दोषमालाः' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालकारः परि. प . + मेवेदिति में विमावनीयम् । अतद्देशकालस्यापि कलधौतस्य दोषमहिना सन्निहितत्वेन प्रतिमासविषयलोपपत्तेः । अंत एवं हिं तत्प्रतीतविपरीतख्यातिरूपतेत्यही क्रियते । न चातदेशकालस्यास्य ग्रहणे विश्वस्यापि
ग्रहणप्रेसक्तिरित्यमिधानीयम् । सदृशार्थदर्शनसमुद्भूतस्मरणोपस्यापित५ स्थास्य प्रतिमासस्वीकारात् । न च विश्वस्य तेदुपस्थापितत्वमस्तीति
कथं तद्ग्रहणाशक्कापि । सदुपस्थामें चेति चेतसि परिस्फुरतः पदार्थस्य बहिरवमसिनमुच्यते नं पुनः पशोरिव रज्जुनियन्त्रितस्योपढौकनम् । ने वचनीयमेवं तीवमात्मख्यातिरसत्ख्यातिर्वा सम्पन्नेति । संवेदनात्
पृथग्भूतस्य पदार्थस्यात्र परिस्फुरणात् ; अत्यन्तासतः प्रतिभासामीवाश्च । १४ मर्नु रजतमिदमित्यादिज्ञानस्य प्रत्यक्षरूपत्वेने स्मरणानपक्षत्वात् कुतस्तदु
पस्थापिताविभासित्वमिति । इदं नाभिधेयम् । प्रत्यक्षामासत्वेनास्यैर्वप्रकारपर्ययोगानाधिकरणत्वात् । ततः सिंद्धमिद, स्मरणीपढौंकित कलधौतमस्याः संवितेरालम्बनमिति । संवृतस्वाकारा समुपत्तिकलधौताकारा च शुक्तिकैवालम्बनमिति
.. तु वृद्धाः । वस्तुस्थित्या हि शुक्तिरेव सा रजतभ्रमस्थले सवृत्तस्वा-त्रिकोणत्वादिविशेषग्रहणामांवात्तु संवृतस्वाकाताकारा च शुक्तिकैवाल- रा चाकचिक्यादिसमानधर्मदर्शनोपजनितरूप्यम्बनमिति स्वसिद्धान्ता- . नुकलस्य बद्धमतस्य प्रति स्मरणारोपितरूप्याकारल्याचं समुपासरूप्याका
" पार्दनम् । रेत्यभिधीयते । ननु कथं कलधौताकारायाः २. संवितेः शुक्तिकालम्बनत्वं युक्तमतिप्रसक्तेरित्यप्यपरीक्षकलक्षितम् ।
अङ्गुल्यादिना हि निर्दिश्यमानं कर्मतया ज्ञानस्य जनकमालम्बनमुच्यते । एतच्चे शुक्तिकायां समस्त्येव । कथमितस्था प्रस्तुतंज्ञानेनेयमपेक्ष्येत । सा खेतेन नूनमंपेक्षणीयां । अन्यथा शुक्तेर्सन्निधानेऽपि प्रस्तुतज्ञान
मुत्पयेत । एवञ्च अथे इममिंधीयते इत्यादिना शङ्कामुत्पाद्यान्यदालाई२५ नमन्यच्च प्रतिभातीति यद्दषितं तदपि परास्तं प्रतिपत्तव्यम् । अन्य
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परि. 1 सू. 441 स्याहादरत्नाकरसहितः दालम्बनमन्यच्चकास्तीत्यस्यानझीकरणात् । शुक्तिकाया एवालम्बमत्वेनं सादृश्यवंशाद्रजताकारतया प्रतिमासमानत्वेन च समर्थित त्वात् । यदि चं शुस्तिकावालम्बन नेष्यते तदानीमुत्तरकालं तद्विषयप्रत्यमिज्ञानस्य बाध्यबाधकमायस्य चानुपपत्तिः । तथाहि यत्पूर्व मया रजतत्त्वेन प्रतिपन्न तदेवेर्दै शक्तिशकालमिति प्रत्यभिज्ञान प्रतिप्राणि- ५ प्रसिद्धं प्रकृतकलधौतंधियः कलौतालम्बनर्वे कथमात्मानं लभेतं । नेदै रजतमपि तु शुक्तिकेत्येवमाकारण शुक्तिकाज्ञानेनं बाधा च कथ घटेत । भिन्नगोचरयोः स्तम्मकुम्भोपलम्भयोर्याध्यबाधकामावानुपलब्धेः। अत्राह पर:
___धीमन् करोमि न करोमि करोमि यद्वा १० बोधाना बाध्यबाधकभावी कश्चित्तवापि बत पर्यनुयोगमत्र ।
नास्तीप्ति पूर्वपक्षस्य र सविस्तरं खण्डनम् ।
, नों चेत् प्रकुप्यति भवानथवाऽप्यवज्ञा
नैव क्षणं गजनिमीलिकया करोति।।१३६। तथा हि कोऽयं बाध्यबाधकभावो नाम बोधानाम् । किं सहानवस्थानम् किमु वध्यधातकभावः किं वा विषयापहारः, उतपित्फला- १५ पहार इति । तत्र च यद्याद्यः पक्षस्तदा सम्यक्प्रत्ययेन मिथ्याप्रत्ययस्येव मिथ्याप्रत्ययेनापि सम्यक्प्रत्ययस्य सहानवस्थानसम्भवादविशेषेगैव बाध्यबाधकभावप्रसक्तिः । द्वितीयपक्षेऽध्ययमेव दोषः । वध्यघातकमावस्यापि द्वयोरपि सम्यमिथ्याप्रत्यययोरविशिष्टत्वात् । नापि तृतीयः पक्षः। विषयस्य प्रतिपन्नत्वेनापहर्तुमशक्यत्वात् । नहि बाधकज्ञानमित्थ- २० मुत्पद्यते यत्प्रतिपन्नं तन्न प्रतिपन्नमिति । नापि फलापहारलक्षणो बाधः । उपादानादिसंविदः प्रमाणफलस्योत्पन्नत्वेनानपंहरणीयत्वात् । नहि यदुत्पन्नं तदनुत्पन्नमित्यभिदधाति बाधकः । ___ किञ्च तुल्यगोचस्योर्बाध्यबाधकभावः पृथग्गोचरयोर्वा भवेत् । न १ गजो नेत्रे निमील्य जलपानादि करोति । नेत्रनिमीलनेन न किंचित्करोमीति भावयति चं तद्वत् । २' च ' इति भ. प. पुस्तकयोः पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. १ सू. ११
तावत्तुल्यगोचरयोः । धारावाहिज्ञानेष्वपि बाध्यबाधकभावप्रसक्तेः । नापि पृथग्गोचरयोरथं युज्यते । स्तम्भकुम्भोपलम्भयोस्तदनुपलम्भादिति । अत्राभिधीयते । प्रथमद्वितीयविकल्पौ तावदिहानङ्गीकारेणैव प्रतिहताविति तत्र वाग्विस्तरः केवलं कण्ठशोषार्थमायुष्मतः सम्पन्नः । विषयाप५ हारस्तु बाधः स्वीक्रियते । विषयस्य च न प्रतिपन्नत्वमपहियते किन्तु प्रतिपन्नस्यासत्त्वं ख्याप्यत इत्यपहारार्थः । असत्त्वमपि नेदानीमुपनतमस्य ख्याप्यतेऽपि तु तदैव तदसदिति प्रकाश्यते । ततश्च न पूर्वीपलब्धमुद्गरदलितकलशाभावज्ञान इवात्राप्यबाधा शङ्कनीया । ननु प्रथमज्ञानेन तदानीं कलधौतस्य सत्त्वं गृहीतं बाधकेन तु तदैवासत्त्वं १० ख्याप्यत इति स्वरूपेणैव तस्य सत्त्वमसत्त्वं च परस्परविरुद्धं युगपहूयमापतितमिति । तदसत् । प्राक्प्रतिपन्नाकारोपमर्दद्वारेण बाधकप्रत्ययोत्पत्तेः ः । यन्मया तदा रजतमिति प्रतिपन्नं तद्जतं न भवत्यन्यदेव तद्वस्त्विति । न चेदमाशङ्कनीयम् । स्वकालनियतत्वात् ज्ञानानां कथमुत्तरस्य ज्ञानस्य पूर्वज्ञानोत्पादकालावच्छिन्नतद्विषयाभावप्रतिपत्तिसामर्थ्य१५ मिति | स्वसामग्रीतस्तथैवात्तरस्य बाधकप्रत्ययस्योत्पद्यमानस्य प्रतीतेः । न च प्रमाणप्रतीतमपि प्रतिनियतकार्यकरणसामर्थ्यं पदार्थानां कदर्थयितुं केनापि शक्यमिति । फलापहारोऽपि बाधः सम्भाव्यत एव । बाधकप्रत्ययोत्पादे सत्युपादानादिबुद्धिरूपस्य प्राचीनज्ञानफलस्य निवर्त्तमानत्वेनानुभूयमानत्वात् । ततः फलापहारात् प्राक्तन संवेदनं बाधितं २० भवत्येव । एवं चोपादानादिसंविदः प्रमाणफलस्योत्पन्नत्वेनानपहरणीयत्वादिति निरस्तम् । यद्पीदमगादि तुल्यगोचरयोर्बाध्यबाधकभावः पृथग्गोचरयोर्वेत्यादि । तस्य तुल्यगोचरयोरेव ज्ञानयोर्बाध्यबाधकभावमभिदध्महे । न चैवं धारावाहिज्ञानेष्वपि तत्प्रसक्तिः । एकस्मिन् धर्मिणि विरुद्धाकारावबोधकयोर्बोधयोर्बाध्यबाधकभावाभ्युपगमात् । न च धारा२५ वाहिज्ञानान्येकत्र विरुद्धाकारावबोधकानीति कथं तेषु बाध्यबाधकभावाभिधानं साधीयः । अनुभूयमानत्वाच्च बाध्यबाधकभावो बुद्धीनां न
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परि. १ सू. ११] स्याद्वादरत्नाकरसहितः विरोधमधिरोहति । अथ मिथ्यैवायमनुभव इत्याभिदधासि । हन्त वक्तव्यं कुत इति । बाभ्यमानत्वादिति चेत् । एवं तर्हि समाधाय स्वान्त विनिमील्य लोचने विमुच्य स्वदर्शनाभिनिवेशवैशसं स्वयमेव विवेचयत्वायुष्मान् किमस्ति बुद्धीनां बाध्यबाधकभावो न वेति । तदेवं बाध्यबाधकभावानुभवस्य बाध्यमानत्वेऽवाध्यमानत्वे ५ वोभयथापि बोधाना बाध्यबाधकभावः सिद्धिसौधमध्यास्त एव । ततः सिद्धमिदम् । संवृतस्वाकारा समुपात्तकलधौताकारा च शुक्तिकैवालम्बनमिति । एवमपरेष्वपि दिनकरकरनिकरनीसवसायगन्धर्वनगरनीरदनिवहग्रहणरजनिजानियुगलावलोकनरज्जु भुजङ्गमावगमकम्बुपीति. मप्रत्ययशर्करातिक्तताप्रतिभासप्रभृतिषु विभ्रमेषु निगृहितनिजाकारं परि- १० गृहीतजलाधाकारं च वस्तु विषयतयावबोद्धव्यम् । अथ स्वप्नदशायां स्तम्बेरमादिप्रत्ययस्य किमालम्बनमिति चेत्,
.. तद्देशवर्ती शय्यादिपदार्थ एवेत्येके । तदनुपस्वप्नादिज्ञानानां परोक्तालम्बनं खण्डयित्वा स्वम-पन्नम् । प्रमाणाभावात् । न हि सन्निहितत्वादेव . तेन तदुपपादनमू। ज्ञानस्य विषयः । किन्तर्हि यस्तत्र प्रतिभासते स १५ चोत्तरकालभाविना प्रत्यभिज्ञानेन बाधकेन व्यवस्थाप्यते । न च शय्यादावित्थं प्रत्यभिज्ञानमुन्मज्जति यदुत यदेव गजादिरूपतया पूर्व मया प्रतिपन्नं तदेवेदं शय्यादि नाप्येवं तत्र बाधकमुज्जिहीते नेदं गजादिकं किन्तु शय्यादीति । तस्मान्न तत्र शय्यादिकमालम्बनं किं २०. तर्हि पूर्वोपलब्धोऽनुपलब्धो वा विद्यमानोऽविद्यमानो वा यः प्रतिबुद्धावस्थायां बाधकप्रत्ययेनानुसन्धीयते स खलु देशकालस्वभावान्यत्वेन स्वमज्ञाने प्रतिभासमानस्तस्यालम्बनमित्युच्यते । तथाहि प्रतिबुद्धः सन् कथयति मयाद्य स्वप्ने देशान्तरस्थः पुत्र इह स्थित इति दृष्टः । पिता पुनर्मूतोऽपि जीवतीति दृष्टः । तथाऽन्धोऽनन्ध इत्येवमादि । २० केशकूर्चाकारज्ञानेऽप्यविद्यमानः केशसमूहः सदाकारतया प्रतिभासमानः सन्नालम्बनम् । बाधकोत्पत्तौ तथाऽनुसन्धानात् । ननु चाविद्यमान
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प्रमाणनयतत्वालोकालकारः परि. स. ११ स्यालम्बनत्वायोमान्निविषयमेतज्ज्ञानं प्राप्तमिति । मैवं वादीः । अतीतानागतयोरविद्यमानत्वेऽस्यालम्बनत्वात् । निरालम्बनत्वे ह्यख्यातिरेव स्यात् तत्र चोक्तो दोषः । अतीतानामतस्मादिज्ञानानामविद्यमाना
लिम्बनत्वाविशेषात् भ्रान्ताभ्रान्तसंवेदनविशेषानुपपत्तिरिति चेत् । ५ मैवं संस्थाः । तद्रूपातळ्यवसिवित्वेन तयोस्तयोर्विशेषोपपत्तेः । न हि विद्यमानाविद्यमानार्थालम्बनत्वेन तत्त्वज्ञानेतरविभामः ! कि तईत्रिद्यमानोऽप्यों यथा तथा च तेनैवाविद्यमानाकारण निश्चीयते तदा तद्विअयं तत्वज्ञानमेव । तद्रूपाव्यभिचारात् । यदा पुनर्विपरीतेन सदाका
रेणासन्नर्थो व्यवसीयते । तदा भ्रान्तिरिति । १०. एवं चैव विपर्यस्वख्यातिरूपो विपर्ययः ।
___इत्थं समर्थितोऽस्माभिः परोमालम्भभञ्जनात् ॥ १३० ॥११॥ विपर्ययानन्तरं संशयस्वरूपमुपदर्शयन्नाह--- साधकबाधकप्रमाणाभावादजवस्थितानेककोटिसं.
स्पर्शि ज्ञानं संशय इति ॥ १२॥ १५ साधकबाधकप्रमाणाभावात् । उल्लिल्यमानस्थाणुत्वपुरुषत्वाद्यनेकां
शगोचरयोः साधकबाधकप्रमाणयोरनुपलम्भात् । अनवस्थितानेककोटिसंस्पार्श अनवधारिखनानांशावलस्वि विधौ प्रतिषेधे वा न समर्थमित्यर्थः । ज्ञानमिति बोधविशेषः । किमित्याह संशयः समिति समन्ता
सर्वप्रकारैः शेत इति संशय इति व्युत्पत्तेः ॥ १२ ॥ २० उदाहरममाह---
यथाऽयं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति ॥ १३ ॥ अयमत्र भावार्थः । दूरात्प्रत्यक्षगोचरे पुरोवर्जिनि धार्मिणि स्थाणुपुरुषयोरारोहपरिणाहलक्षणस्य साधारणधर्ममात्रस्य दर्शने समानधर्मदर्शनप्रबुद्धसंस्कारतया विशेषस्मरणे च सति स्थाणुत्वपुरुषत्वगोचरयोर्व
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परि १ सू. १३] म्यादादरलाकरसहितः ऋकोटसदिकरजरणादिविशेषधोपलम्भरूपसाधकबाधकप्रमाणयोरभावात् अदा स्थास्यमिति निर्गतुमभिलपति तदा पुरुषविशेषानुस्मरमेन पुरुषे समाकृष्यते यदा पुनः पुरुषोऽयमिलि निश्चेतुमिच्छति तदा स्थाणुविशेषानुस्मरणेन स्थाणावाकृष्यत इत्येवमनेकार्थे समाकृष्यमाणस्य प्रतिपत्तुस्नवस्थिवरूपतया दोलायमानः ५ स्थाणुर्वाऽयं स्यात्पुरुषो बेति प्रत्ययः प्रादुर्भवतीत्ययं प्रत्यक्षविषये संशत्रः । परोक्षविषये तु यथा कापि विपिनप्रदेशे शृङ्गमात्रदर्शनात् किं गौरयं स्याद्वयो वेति । जम्बूनिम्बकदम्बादितरुकदम्बकान्तरितपिण्डस्य हि समान्येन शृङ्गमात्रदर्शनानुमितस्य गोत्वमव्यत्वगोचरसाधकबाधकप्रमाणाभावेन संशयविषयत्वात्परोक्षविषयोऽयं संशयः । १९ तथा पिशाचोऽत्रास्ति न वेति गृहे स्थितस्य वाप्यामापः सन्तीत्यादि . च ज्ञानं नित्यपरोक्षपिशाचकदाचित्परोक्षवापीपयःप्रभूतिपदार्थभावाभावलक्षणानेककोरिसंस्पर्शात्संशय एव । ननु गृहे स्थितस्य वाप्यामापः सन्तीति ज्ञानं जलभावरूपमेकमेवांशं स्पृशतीति कथमस्यानेककोटिसंस्पर्शित्वं यतः संशयः स्यादिति चेत् । साधकबाधकप्रमाणा. भावापेक्षयेति बेमः । तथाहि यद्यत्र साधकबाधकप्रमाणे स्यातां तदा निर्णयरूममेवेद्रं भवेत् । तदभावे तु सामर्थ्यादपरोऽपि न सन्तीत्यंशोऽन्तर्निगीर्णः स्फुरतीति सिद्धं संशयत्वसाधकानेककोरिसंस्पर्शित्वम
अत्राह कश्चित्
न संशयो नाम समस्ति वस्तुतः संशयज्ञानमस्वीकुर्वतो मतस्य खण्डन ।
स्फुरत्प्रमाणप्रतिलब्धमूर्तिकः । न लक्षणं वक्तमतोऽस्य युज्यते
__ तुरङ्गशृङ्गं किमु लक्ष्यत क्वचित् ॥१३१॥ तथाहि संशयज्ञाने धर्मी धर्मो वा प्रतिभासते । यदि धर्मी २५ स तर्हि तात्त्विकोऽतात्त्विको वा । यदि तात्त्विकः । कथं तर्हि . 'वस्तुनः' इति भ. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १३ तहृद्धेः संशयरूपता । तात्त्विकार्थव्यवसितिरूपत्वात् करतलकलितकुवलयादिव्यवसायवत् । अथातात्त्विकः । तदाप्यतात्त्विकार्थगोचरत्वात् केशकूर्चादिज्ञानवद्विपर्यय एव संशयः प्राप्तः । अथ धर्मः,
स स्थाणुत्वलक्षणः पुरुषत्वलक्षण उभयं वा । पक्षत्रयेऽपि तात्त्विका५ तात्त्विकपक्षयोः पूर्ववद्दोषः । अथैकस्य तात्त्विकत्वमन्यस्यातात्त्विकत्वम् । तथापि तद्विषयं ज्ञानं भ्रान्तमभ्रान्तं चेत्युभयरूपं प्राप्तम् । अथ सन्दिग्धोऽर्थस्तत्र प्रतिभासते । तत्रापि तात्त्विकातात्त्विकत्वविकल्पयोः स एव दोषः ।
तदयं संक्षेप:--- १० यत्र किञ्चिद्वितसंशये स्फुरत्यतात्त्विकं तत्किमथापि तात्त्विकम् ॥ अतात्त्विकं चेत् स भवेद्विपर्ययः परत्र पक्षे पुनरस्य मानता ॥१३२॥
तन्न संशयः कोऽपि विचार्यमाणः प्रतीतिपद्धतिमध्यारोहतीति । __ आः कुण्ठवर्य तदिमामलीकवाचालतां कलयताऽत्र ॥ ___ उद्वेजिता नितान्तं भवता मनोऽनभिज्ञेन ॥ १३३ ॥
यतः संशयः सकलपाणिनामनवास्थितानेककोटिसंस्पर्शिप्रतिपत्त्यात्मकत्वेन स्वात्मसंवेद्यो वर्तते स च धम्मिविषयो धर्मविषयो वा भवतु किमेभिरप्रमाणमूलैर्गजविकल्पकल्पैर्विकल्पैरस्य स्वरूपमपहोतुं पार्यते । तथाहि कश्चिद्भौतः कुतर्कमुखरबठरखैण्डिककुडम्बकादिकलको
लाहलाकर्णनमात्रवातूलः कथमपि नृपतिमन्दिरद्वारमुपागतः प्रथम२० जलधरनीरन्ध्रधाराधोरणीधौतसमुद्भुराञ्जनगिरिशृङ्गसोदरं सपदि विद
लितकुन्दकलिकावदातदन्तमुशलद्वितयरमणीयमनुगलविगलदविरलमदजलाकुलकपोलस्थलममन्दमन्दरोन्मथ्यमानमहाम्भोधिध्वनिगभीरगर्जितभूर्जितप्रभञ्जनप्रेर्यमाणध्वजपटप्रान्तप्रचलत्कर्णतालमन्तरालस्थूलचलनचतुष्टयप्रतिष्ठितमनवरतपरिचलत्प्रबलसुण्डादण्डडामरमनतिनिकटनिषण्ण
१ 'खडिक' इति म. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. १४] स्याद्वादरत्नाकरसहितः । निरन्तरभयङ्करहुङ्कारमुखरमहामात्रप्रदीयमानस्थूलकवलकवलनाव्याकुलं मदकलमवलोक्य विकल्पयति किमिदमन्धकारनिकुरम्ब मूलकान् कवलयति, किं वा वारिवाहोऽयं बलाकावान् वर्षति गर्जति च । यद्वा बान्धवोऽयं 'राजद्वारे स्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः' इति परमाचार्यवचनात् । अथवा योऽयमासन्नमेदिनीपृष्ठप्रति- ५ ष्ठायी पुरुषस्तस्य च्छायेयं स्त्यानीभूतेति । ___ दूषयति च । नाद्यः पक्षोऽन्धकारस्य सूर्पयुगलप्रस्फोटनाभावात् । नापि द्वितीयः, स्तनयित्नोः स्तम्भचतुष्टयाभावात् । नापि तृतीयः, बन्धोरस्मदर्शननिबन्धनलगुडभ्रमणासम्भवात् । नापि तुरीयः, न हि नरशिरःशतोद्विरणनिगरणं सम्भवति छायायाः । ततो न किञ्चिदेत- १० दिति । न चैतावता मतङ्गजस्वभावो व्यावर्त्तते । एवं धर्मादिविकल्पै. रपि न सन्देहस्वरूपं व्यावर्तते। प्रत्यक्षप्रतिपन्नस्यापि पदार्थस्वरूपस्यापलापे सुखदुःखादेरप्यपलापः प्रसज्येत । कथं च धम्मिविषयो धर्मविषयो वेत्यादिप्रश्नसमुत्पादकसन्देहमेदिनीधरशिखरसमधिरूढ एवार्य संशयं निराकुर्यान्नो चेदाकुलप्रज्ञः । अथोत्पत्तिकारणाभावादसाधारण- " स्वरूपाभावाद्विषयाभावाच्च संशयः प्रतिक्षिप्यते । तदसत् । तदुत्पत्तिकारणस्य साधकबाधकप्रमाणाभावलक्षणस्य सद्भावात् । अनवस्थितानेककोटिसंस्पर्शिप्रतिपत्तिलक्षणस्यासाधारणस्वरूपस्य संशये विद्यमानत्वात्। प्रोक्तनिदर्शनेषु संशयविषयस्य स्पष्टं दर्शितत्वाच्च । ततश्च-- यस्माजन्मनिमित्तमस्य सुघटं यस्मादसाधारणं
रूपं सम्यगमुख्यविश्वविदितं युक्तोऽस्य यगोचरः । यस्मादप्यनुयोगमत्र कुरुषे त्वं संशयानः सखे
तस्मादेष निजं स्वरूपमयतां निःसंशयः संशयः ॥१३४॥१३॥ अथ क्रमायातमनध्यवसायं साधयन्नाहकिमित्यालोचनमात्रमनध्यवसाय इति ॥ १४॥ २५ किमित्यालोचनमात्रं अस्पष्टविशिष्टविशेषज्ञानमात्रम् । किमित्याह ।
१०
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. १४ अनध्यवसायस्तृतीयः समारोपभेदः अध्यवसायाद्विशेषोल्लेखिज्ञानादन्य इति कृत्वा ॥ १४ ॥ उदाहरणमाह--
यथा गच्छत्तृणस्पर्शज्ञानमिति ॥ १५॥ '५ गच्छतो व्रजतः सतः प्रमातुस्तृणस्पर्शविषयं ज्ञानं तृणस्पर्शज्ञानम
न्यत्रासक्तचित्तत्वादेवंजातीयकमेवनामकमिदं वत्त्वित्यादिविशेषानुल्लेखि किमपि मया स्पृष्टमित्यालोचनमात्रमित्यर्थः । एतदुदाहरणदिशा बापरोऽपि प्रत्यक्षयोग्यविषयश्चानध्यवसायोऽवसेयः । तद्यथा, मञ्जुगुञ्जनसुभगभङ्गावलीवलयितकपोलपालिसलीलपरिचलन्मदकलचक्रवाले खरखुरशिखरसमुत्खातक्षोणितलतुरगनिकुरम्बेऽनणुमणिकिङ्कणीकाणरमणीयवैजयन्तीविसरप्रसाधितस्यन्दनकदम्बके करतलकलितनिशिततरवारिवारिविसरसम्पत्तिपत्तिसङ्घाते गतेऽपि प्रसिद्ध वचन काश्यपीपतौ कोऽप्यनेन पथा गत इति ज्ञानमात्रव्यासङ्गादनुल्लिखितविशेष प्रत्यक्षयोग्यवि.
षयोऽनध्यवसायः । तथा नालिकेरद्वीपवासिनः कस्यचिदपरिज्ञातगोजा. १५ तीयस्य पुंसो देशान्तरमायातस्य केचन वननिकुञ्जे सास्नामात्रदर्शनात
सामान्येन पिण्डमात्रमनुमाय को नु खल्वत्र प्रदेशे प्राणी स्यादिति जातिविशेषानुल्लेखि ज्ञानं परोक्षविषयोऽनध्यवसायः । नन्वयमनध्यव. सायः संशयान्न विशिष्यते । विशेषानवधारणात्मकत्वादिति न तर्क
णीयम् । स्वरूपभेदात् । अनवस्थितानेककोटिसंस्पर्शित्वं हि संशयस्य २. स्वरूपं सर्वथा कोट्यसंस्पर्शित्वं चानध्यवसायस्यति महाननयोर्भेदः ।
सोऽयमनध्यवसायः सम्यग्मेदप्रभेदतोऽभिहितः ॥ व्यवसायग्रहणेन प्रमाणसूत्रे निरस्तो यः ॥ १३५ ॥ एवं च----- संशयविपर्ययाऽनध्यवसायात्मा स्फुटं समारोपः ॥
एष त्रिविधोऽप्युक्तः शिष्यव्युत्पत्तिसिद्धयर्थम् ॥ १३६ ॥ १ वैरि' इति प. पुस्तके पाठः।
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परि. १ सू. १५] स्याद्वादरत्नाकरसहितः . ननु विपर्ययादिस्त्रिप्रकारः समारोपः प्ररूापितस्तत्र विपर्ययस्य तावसमारोपत्वं प्रतीतमेवातस्मिँस्तद्गृहस्वरूपत्वात् । संशयस्य पुनः कथं तद्योक्ष्यते तद्विलक्षणत्वादिति । तदसत् । तद्विलक्षणत्वस्यासिद्धेः संशयोऽप्यतस्मिन्ननवस्थितानेकांशविकले स्थाण्यादिवस्तुनि तद्ग्राहितया प्रवर्तत इत्यतस्मिंस्तद्ग्रहस्वरूपत्वाद्भवत्येव समारोपः । . अनवस्थितानेककोटिसंस्पर्शित्वविशेषेण पुनरेककोटिसंस्पर्शिनो विपर्ययाद्भिन्नतयाऽसौ सूत्रितः । नन्वनध्यवसायस्य तर्हि कथं समारोपरूपता स हि वस्त्वेव न भवति कुतोऽतस्मिंस्तद्ग्रहस्वरूपम् । अभिहितं चास्यावस्तुत्वं भट्टेन 'वस्तुत्वाद्विविधस्येह सम्भवो दुष्टकारणात्' इति संशयविपर्यययोरेव वस्तुत्वमभिधता । तदसत् । यतः कुतोऽस्याव- १० स्तुत्वमुच्यते । सम्यग्ज्ञानानुत्पत्तिरूपतया तदभावस्वभावत्वादिति चेत् तर्हि संशयविपर्यययोरपि तत्प्राप्नोति । तयोरपि यथार्थव्यवसायास्वभावत्वात् । तयोरनेकांशानवस्थितप्रतिभासविपरीताकाराध्यवसायस्वरूपत्वाद्वस्तुस्वरूपत्वेऽकिञ्चित्करवेदनरूपत्वादनध्यवसायस्य कथमवस्तुत्वम् । तस्य सकलस्य स्वभावशून्यत्वेन कथमप्रमाणविशेषत्वं प्रमाण १५ न भवतीत्यप्रमाणमिति । प्रमाणप्रतिषेधमात्रेणेति चेत् । ननु कोऽस्य प्रमाणप्रतिषेधस्थाधारो यत्र प्रतीतिः स्यात् । विकल्पमात्रमिति चेत् तर्हि विकल्पमात्रमिदं प्रमाणं न भवतीति प्राप्तम् । पुरुषोऽयं ब्राह्मणो न भवतीति यथा । ततश्च नावस्तुरूपत्वमनध्यवसायस्य । ब्राह्मणविविक्तपुरुषमात्रवत् प्रमाणत्वविविक्तविकल्पमात्रस्य वस्तुत्वसिद्धेः । २० किञ्च न विकल्पमात्रस्यानध्यवसायत्वेनाप्रमाणत्वं युक्तम् । तस्या- .... ध्यवसायसामान्यरूपत्वात् । संवेदनमात्रमकिञ्चित्करं प्रमाणत्वनिषेधाधिकरणमिति चेत् तर्हि प्रमाणप्रतिषेधमात्रेणापि वस्त्वेव संवेदनरूपमाश्रीयते नानध्यवसायस्यावस्तुस्वभावता । अथायमस्तु वस्तु तथापि कथमस्थ समारोपत्वमतस्मिस्तध्यवसायस्य तल्लक्षणस्याभावादिति २५
१'हि' इत्यधिक प. पुस्तके ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १५ चेत् । एवमेतन्मुख्यवृत्त्या । उपचारवृत्त्या तु समारोपत्वमस्याद्रियामहे । तथाहि यथा गोगतजाड्यमान्द्यादिगुणसदृशजाड्यमान्यादिगुणयोगाद्वाहीके गोत्वं गोशब्दश्वोपचर्यते गौर्वाहीक इत्येवं तथा विपर्ययसंशयलक्षणसमारोपसमाश्रितायथार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणगुणसदृशायथार्थपरिच्छेदकत्वगुणयोगादनध्यवसायेऽपि समारोपत्वं समारोपशब्दश्वोपचयते। समारोपोऽनध्यवसाय इत्येवं मुख्येनार्थेन सह सादृश्यमत्र सम्बन्धः । विपर्ययसंशयाभ्यां भेदेऽप्यस्य ताप्यप्रतीतिश्चोपचारप्रयोजनमिति ।
एवं च- मुख्यार्थस्य च बाधे तद्योग प्रयोजने च सति ॥
सिद्धोऽनध्यवसायोप्युपचारादिह समारोपः ॥ १३७ ॥१५॥ अथ प्रमाणसूत्रोपात्तं परशब्दं व्याख्यानयन्नाह ----
ज्ञानादन्योऽर्थः पर इति ॥ १६ ।। . ज्ञानात् ग्राहकात् सकाशादन्यो ग्राह्यतया पृथग्भूतोऽचेतनः सचे
तनो वाऽर्थोऽर्थक्रियार्थिभिरर्यमानः कुम्भादिः । किमित्याह पर इति । १५ अत्र ज्ञानवादिनः प्रत्यवतिष्ठन्ते ।
विज्ञप्तिमात्रात्परमस्ति तत्त्वं ज्ञानवादिमतपरीक्षणम् । न मानसिद्धं परनामधेयम् ॥
ततः कथं तब्यवसाथिबोध
परे प्रमाणं परिकीर्त्तयन्ति ।। १३८ । २० तथा चायं विश्वस्य विज्ञप्तिमात्रताप्रसाधनगुणः प्रयोगः । ययोः सहो
पलम्भनियमस्तयोरभेदो यथा तैमिरिकोपलभ्यमानमृगाङ्कमण्डलयोः । सहोपलम्भनियमश्च ज्ञानार्थयोरिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । भेदे हि नियमेन सहोपलम्भो न दृष्टो यथा स्तम्भकुम्भयोः एवं च सति भेदः सहोपलम्भानियमेन व्याप्तस्तद्विरुद्धश्च सहोपलम्भनियमो दृश्यमानः स्वविरुद्धं
१ 'प्रसाधनानुगुणः' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः सहोपलम्भानियमं निवर्तयति । सहोपलम्भानियमश्च निवर्तमानः स्वव्याप्यं भेदं निवर्तयति । तस्मादयं हेतुर्विपक्षाद्भेदात् स्वविरुद्धसहोपलम्भानियमव्याप्तान्निवर्तमानो राश्यन्तराभावादभेद एवावतिष्ठते इत्यविनाभावसिद्धिः । तदुक्तम् 'सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः' इति । तथा प्रकाशन्ते भावा यच्च प्रकाशते तद्विज्ञप्तिमात्रं यथा सुखादिकमिति । ५ तथा यद्येन वेदनेन वेद्यते तत्ततो न भिद्यते यथा वेदनस्य स्वरूपं वेद्यन्ते च वेदनेन नीलादयः । भेदे हि ज्ञानेनैषां वेद्यत्वं न स्यात् । तादाम्यस्य नियमहेतोरभावात् । तदुत्पत्तेस्तु चक्षुरादिभिर्व्यभिचारित्वात् । अन्येनान्यस्यासम्बद्धस्य वेद्यत्वे चातिप्रसङ्गादिति भेदे नियमहेतोः सम्बन्धस्य व्यापकस्यानुपलब्ध्या भेदाद्विपक्षात् व्यावर्त्तमानं वेद्यत्वमभे- १० देन व्याप्यत इति हेतोः प्रतिबन्धसिद्धिः ।
एतैः कलङ्कविकलैः कथितैः प्रमाणे__आनार्थयोभिदि हठेन निराकृतायाम् ।। सद्योगिनीव सततात्मकृतप्रकाशा
विज्ञप्तिरेव बत राजति जीवलोके ॥ १३९ ॥ अथ ब्रूयादर्थाकारो ग्राह्यत्वेनैव प्रतीयते बोधाकारस्तु ग्राहकत्वेनैवेति कथमनयौरेक्यं, एकत्वे व्यत्ययेनापि तयोः प्रतिभासस्तस्माद्भिन्न एव ज्ञानादर्थ इति ।
श्रुतं मयेदं यदुतान्य एव संवेदनादर्थ इति त्वदुक्तम् ।।
अयुक्तमेतत्परमार्थतो धीर्यग्राहकग्राह्यतया विमुक्ता ॥१४०॥ २० तथाप्रतीतिव्यवस्था पुनरनाद्युपप्लववासनासामर्थ्यादेवोपपद्यते । तदुक्तम्
'अवेद्यवेदकाकारा यथा भ्रान्तैर्निरीक्ष्यते । विभक्तलक्षणग्राह्यग्राहकाकारविप्लवा ॥१॥ तथा कृतव्यवस्थेयं केशादिज्ञानभेदवत् ।
यदा तदा न सन्नोद्यग्राह्यग्राहकलक्षणा' ॥ २ ॥ इति २५ १ धर्मकीर्तिकृतप्रमाणसमुच्चये प्रथमे भागे।
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५
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू.१६ अनयोरर्थः स्वरूपेणाविद्यमानवेद्यवेदकाकाराऽपि बुद्धिर्यथा भ्रान्तैर्व्यवहर्तृभिर्निरीक्ष्यते । तथैव कृतव्यवस्थेयं व्यवद्वियते । तैस्तु भ्रान्तैरियं विभक्तलक्षणग्राह्यग्राहकाकारविप्लवा निरीक्ष्यते विभक्त
लक्षणौ ग्राह्यग्राहकाकारावेव विप्लवो यस्याः सा तथोक्ता । किमिव .५ केशादिज्ञानभेदवत् । यथा तिमिराद्युपप्लुताक्षाणां न विद्यमाना एव
केशादयो बोधाद्भिन्नाः प्रतिभान्ति तद्वन्नीलाश्रयोऽपीति । यथाऽयमविद्यानिबन्धन एव बुद्धेः प्रविभागस्तदयं न सन्नोद्यग्राह्यग्राहकलक्षणा, सन्नोद्ये पर्यनुयोज्ये ग्राह्यग्राहकलक्षणे यस्याः सा तथा न भवति । न
यविद्यासमारोपिताकारः पर्यनुयोगमहतीति । तदेवं बुद्धिव्यतिरिक्त१० ग्राह्यग्राहकासम्भवाद्बुद्धिरेवानादिवासनावशादनेकाकारा प्रतिभासते । तदुक्तम्'नान्योऽनुभाव्यो बुद्ध्यास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते' ॥ इति
स्वव्यतिरिक्तग्राह्यग्राहकविरहाद्बुद्धिः स्वयमेवात्मस्वरूपप्रकाशिका १५ प्रकाशवदिति समुदायार्थः । ननु ज्ञाने नीलाथाकारस्य कादाचित्क
स्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वात् तत्प्रसिद्धये तदाकारोऽर्थः परिकल्प्यः । तदप्यसत् । वासनासामर्थ्यादेव ज्ञाने तथाभूतस्याकारस्योत्पत्तीतोऽर्थसद्भावप्रसिद्धिः। अर्थाच्च तथाभूतज्ञानाकारभवस्वीकारे स्वप्नेन्द्र
जालगन्धर्वनगरादिज्ञाने तभावः म्यात् ।। तथाहि-- २० गुञ्जन्मङ्घमृदङ्गसङ्गिसुभगग्रामाभिरामं कणत्
वीणावेणुपिकस्वरध्वनिलसल्लास्यं च सत्प्रेक्षणम् । स्वप्ने कश्चन कौतुकव्यतिकरव्याक्षिप्तचित्तः स्फुटं
पश्यत्यस्ति न वस्तु यद्विरचयेज्ज्ञाने तदा स्वाकृतिम् ॥१४॥
१ यतः' इति भ. पुस्तके पाठः । २ धर्मकीर्तिकृतप्रमाणविनिश्चये प्रथमभागे। ३ 'विक' इति प. पुस्तके पाठः । ।
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
ततो ज्ञानाभावे ग्राह्याकारस्यानुपलम्भात् तद्भावे चोपलम्भादन्वयव्यतिरेकाभ्यां ज्ञानस्यैवायमवसीयते ।।
एतैरित्थं प्रतिहतपरप्रेर्यपुजैः प्रमाणैः
सिद्धं सन्तः सपदि सकलं वस्तु विज्ञप्तिमात्रम् । सर्वाः सम्प्रत्यखिलविदुषां तर्कगोष्ठीषु तस्मात् .
मन्ये प्राप्ताः स्मरणपदवीं बाह्यभावप्रतिष्ठाः ।। १४२ ।। इत्थं बोधम्प्रति हि विमुखं किञ्चिदुच्चार्य बाह्य __वस्तुद्वेष्टा कथयतितरां तात्त्विकं ज्ञप्तिमात्रम् । निन्दामज्ञस्तदनु तनुते सर्वविद्वत्सभानां
भोः प्रेक्षध्वं तदिदमसमं धाष्टमेतस्य सभ्याः ॥ १४३॥ १० तथाहि ययोः सहोपलम्भ इत्यादावभेदः सतोः सदसतोर्वा सिषायिषितः । यदि सतोस्तदाप्यभेदः । किमैक्यमभिन्नजातीयत्वम्, भेदप्रतिषेधमात्रं वा विवक्षितं, आद्यपक्षे पक्षैकदेशस्यानुमानबाधा । तथाहि नीलधवलादिपरस्परविरुद्धाकारावगाहि चित्रज्ञानमनुभूयते, निर्विवादं च तदेकमेवेप्यते तद्वद्यास्तु नीलधवलाद्याकाराः परस्परविरो- १५ धित्वाद्भिन्ना एवाभ्युपगन्तव्याः ।
एवं च यदेकं न तदनेकैरेक्यमनुभवति । यथा घटस्वरूपं पटशकटादिभिः ! एक च नीलधवलाद्याकारावगाहिचित्रज्ञानं तत्कथं नीलादिभिरनेकाकारैरैक्यमनुभवेत् । ज्ञानेन साकमैक्यामारे च । तेषामर्थरूपतैवेति । सकलज्ञानार्थरूपपक्षान्त:पतितयोश्चित्रज्ञानतद्विषय- २० नीलधबलाद्यर्थयोरैक्यासिद्धेः पक्षैकदेशस्मानुमानबाधा स्पष्टैव । तथा च विवादापन्नं ज्ञानमर्थात्पृथग् ज्ञानत्वान्नीलधवलाद्याकारगोचरैकचित्रज्ञानवदिति सर्वज्ञानानामर्थात्पृथक्त्वसिद्धेः पक्षस्याप्यनुमानबाधा । __ अथ बाह्यस्यैव विरुद्धधर्माध्यासाझेदस्तथात्वेऽपि तस्याभेदेऽर्थक्रियाणां . चेतनप्रवृत्तीनां च सकरप्रसङ्गाद्विवेचनानुपपत्तिप्रसाच्च । न तु विज्ञा- २५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ नस्य न हि तस्यार्थक्रियाधीनं सत्त्वमपि तु प्रतिभासमात्राधीनम् । नापि तत्रार्थक्रियार्थिनः काचित्प्रवृत्तिः, स्वरसवाहिविज्ञानप्रवाहातिरिताया अर्थक्रियायास्तदर्थिनश्चाभावात् । विवेचनाभावश्चात्र परमो निर्वाहः स्वसंविदितरूपत्वादिति चेत् । तत्किमङ्ग परिणतशान्तेराश्रमपदमिव विज्ञानमासाद्य व्यालनकुलादीनामिव नीलधवलादीनां शाश्वतिकविरोधपरित्यागो निभृतविरोधानां तत्फलपरित्यागो वा । न तावत् प्रथमः पक्षः । परस्परनिषेधविधिनान्तरीयकयोर्विधिनिषेधयोविरोधोच्छेदप्रसङ्गात् । न चैवमस्त्वित्युत्तरेऽपि विरोधोच्छेदः । विधिनिषे
धयोः परस्परनिषेधविधिनान्तरीयकतायाः कथमप्यनतिवृत्तेस्तावन्मात्र१. शरीरत्वाच्च विरोधस्य । तत्सिद्धिरेव च भेदसिद्धिः । अत एव च न द्वितीयो विकल्पः । यस्तु बाह्ये विरुद्धधर्माध्यासाद्भेदसाध्यसाधनाय तथात्वेऽपि तस्याभेदेऽर्थक्रियाणामित्यादिबाधकोपन्यासः कृतः । सोऽपि न पेशलः । यतो विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदसाधकत्वे सिद्धे सत्यर्थक्रियाणां
भेदसिद्धेस्तत्सङ्करप्रसङ्गो बाधकः सेत्स्यति तत्सङ्करप्रसङ्गे च बांधके १५ सिद्धे सति विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदसाधकत्वं सेत्स्यतीत्यन्योऽन्यसंश्रयो
दोषः । अन्यच्च यथा बाह्येऽर्थक्रियासंकरः प्रसज्यत इति दण्डस्तथा ज्ञानेऽपि प्रतिभाससङ्करः प्रसज्यत इति दण्डः । ननु प्रतिभाससाङ्कर्यनियमोऽसिद्धो नीलपीतादेः सहापि क्वचित्प्रतिभासदर्शनादिति चेत् ।
मनु न सहाप्रतिभासमसाङ्कयं ब्रूमः । किन्तु नीलस्यैव पीतत्वेन पीतस्यैव २० नीलत्वेनाप्रतिभासं पररूपत्वेनाप्रतिभासम् । पररूपाप्रतिभास एव च मूलं
सर्वविरोधानाम् । अन्यथोपलम्भानुपलम्भयोरप्यसाकर्यस्यासिद्धिरेव । विशेषाभावात् । एतेन विवेचनाभावश्चात्र परमो निर्वाह इत्यपि निरस्तम् । आकारयोरसम्भेदेन वेदनस्यैव विवेचनत्वात् । अपि
चार्थसंविदोः सह दर्शनमुपेत्यैकत्वैकान्तं साधयतोऽस्य दुर्निवारः २५ स्ववचनविरोधावतारः। स्वोक्तस्य धर्मिभेदवचनस्य हेतुदृष्टान्तभेदवचनस्य
चैकत्वैकान्तवचनेन विरोधात् एकत्वैकान्तवचनस्य च तद्भेदवचनेन
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः व्याघातः । तथा विज्ञानवादिनोऽप्रसिद्धविशेष्यत्वं प्रतिज्ञादोषः । नीलतद्धियोर्विशेष्ययोः स्वयमनिष्टेः । तस्मान्न सतोरैक्यमभेदः । नाप्यभिन्नजातीयत्वम् । तद्धि सर्वथा कथाञ्चिद्वा स्यात् । न तावत्सर्वथा । तथाल्वे हि तयोवितततृष्णापनोदाय नदोदकमन्वेषयतस्तदनासादने नदोदकसंवेदनेऽपि दुर्निवारा प्रवृत्तिर्जनस्य । न चास्य तस्मिन्नन्तः- ५ स्थिते प्रवृत्तिः परिदृश्यते । बहिर्मुखमेव तस्याः सन्दर्शनात् । नापि कथञ्चित् । सिद्धसाध्यतापत्तेः । सत्त्वज्ञेयत्वादिभेिानार्थयोरभिन्नजातीयत्वस्यास्माकमभिप्रेतत्वात् । किञ्चाभिन्नजातीयत्वे ऐक्ये वा साध्ये विवक्षिते कथं सहोपलम्भनियमस्य व्यापकविरुद्धोपलब्धित्वं स्यादनुपलब्धीनां निषेधसाधकत्वेन समानत्वात् ।। अथ भेदप्रतिषेधमानं साध्योऽर्थः । सोऽप्यसाधीयान् । यदि हि
. सतोवस्तुद्वयस्य भेदो न भवेत्तत्र च द्विवचनोभेदप्रतिषेधः सतोर्वा सदसतोवेति विपादानमेव कथमुपपद्येत । नापि सदसतोरभेदः
ल्प्य खण्डनम्। साध्यः । यतोऽसदिति सत्सदृशं किञ्चिदमिधीयते । सत्प्रतिषेधमात्रं वा । नाद्यः पक्षः । सत्सदृशस्य कस्यचिद- १५ सत्त्वात् । सद्रूपं हि विज्ञानमभ्युपगतं तत्सदृशं तु किं नाम विज्ञानमात्रवादिनः स्यात् । अथ सत्प्रतिषेधमात्रमसच्छवाभिधेयम् । तर्हि तस्य सतश्च परस्परमभेदसाधने ज्ञानाज्ञानाभावयोरप्यभेदसाधनप्रसक्त्या ज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गः । किञ्च ज्ञानं सदर्थश्चासन्निति भवतोऽत्राभिप्राय अर्थस्य चासत्त्वमद्याप्यसिद्धमिति कथपसद्रूपस्यार्थस्य धर्मित्वम् । अथै- २० कानेकस्वभावायोगादर्थस्यासत्त्वं सिद्धमेव । न चैकानेकस्वभावायोगोऽस्यासिद्धः । तथाहि यद्ययमेकरूपस्तर्हि प्रत्यासन्नदूरवर्तिनां स्पष्टास्पष्टप्रतिभासभेदो न भवेत् । अथानेकरूपस्तदा परमाणुशो भेदान्न कस्यचिदेकस्य स्पष्टत्वेनास्पष्टत्वेन वा स्थूलस्य प्रतिभासः स्यादिति चेत् । तर्हि तत एव ज्ञानमात्रवादस्याप्यसिद्धेः कृतं प्रकृतेन प्रकृतिश्यामलान्ध्र- २५ ललनाकपोलस्थलोपकल्पितकश्मीरजपत्रभङ्गायमानेनानुमानेन । किं
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १६
च यद्यप्येकानेकस्वभावयोर्वस्त्वं न्यभावस्तथाऽपि कथञ्चिदेकाने काख्यस्य स्वभावान्तरस्य तत्र सम्भवात्सत्त्वं न विरुद्धधते । तेनैव तस्य व्याप्तत्वात् । अथ सत्त्वं निरवयवत्वं च सावयवत्वेन प्रतिभासमानान्नीलादेः स्थूलाद्यावर्तमानं सत्त्वं निवर्तयतीति वर्ण्यते । नतु निरवयवं पर५ माणुपर्यन्तं तावन्नावभासते यत्पुनः कतिपयपरमाणुप्रचयात्मकं प्रतिभासते तत्सकलं सावयवं ततश्च यन्न प्रतिभाति तत्सत् यत्तु प्रतिभाति तदसदित्यतिशय शुचिवादवातूलब्राह्मणस्याशुचिलक्षणमिव तवापतितम् । विज्ञानं निरवयवं सदुपलब्धमिति चेत् । नैतदस्ति । विज्ञानस्यापि सप्रदेशादात्मनः कथञ्चिदभिन्नत्वेन निरवयवत्वासिद्धेः । तन्न सद१० सतोरप्यभेदः साधनीयः । प्रत्यक्षविरुद्धश्चात्रानुमाने पक्षः । तथाहि ज्ञानस्य विच्छिनार्थग्राहित्वेनानुभूयमानत्वादर्थज्ञानयोर्भेदमेव स्वसंवेदनप्रत्यक्षमुपस्थापयति । अथासत्य एव भेदोऽल परिस्फुरतीति कथमेतद्विरुद्धता पक्षस्य स्यात् । तदसत् । हेतोरनैकान्तिकत्वप्रसक्तेः । तथाहि भेदस्य ज्ञानेन सहोपलम्भनियमः समस्ति स चासौ ज्ञानादभिन्नः । १५ भेदस्यासत्यस्य सत्येन ज्ञानेनामेदायोगात् । भेदो न प्रतिभासत एवेति चेत् । एवं तर्हि विश्वजनप्रतीतिविरोधः स्पष्टः । ज्ञानार्थयोरभेद इति च स्ववचनविरोधः सहोपलम्भनियमहेत्वसिद्धिश्च । नहि भेदाप्रतिभासे सहार्थः कथमपि व्यवस्थापयितुं पार्यते । कथं च भेदाप्रतिभासे पक्षादिप्रविभागो भवेत् । कं च बोधयितुं प्रवृत्तोऽसि किमर्थं च अन्व२० यव्यतिरेकाप्रतीतौ किञ्च हेतोर्बलम् । कुतश्च विप्रतिपत्तिः कीदृशी वेति । विकल्पारूढ एव भेदो व्यवहाराङ्गं नानुभवारूढ इति चेत् । नन्वसावपि सत्योऽसत्यो वा तत्र प्रतिभासते । आद्ये कल्पे कथमर्थप्रतिक्षेपः । द्वितीये तु हेतोरनैकान्तिकमुक्तमेव । असत्यपि भेदे तगोचरो व्यवहारो विकल्पेन जन्यत इति चेत् मैवम् । व्यवहारोऽपि यद्यज्ञान
१५४
'
१ वस्तुन्यभाव ' इति प. पुस्तके पाठः । २ ' प्रतिभासेत ' इति प. पुस्तके
पाठ: ।
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परि.१ सू. १६]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः ।
रूपः कथमसंस्तेन जन्यताम् । झानरूपश्चेत्कथं नियामकं विना तद्विषयः । स्वकारणसामर्थ्यादिति चेत् । सोऽयं व्यवहाररूपज्ञानालीकभेदयोर्नियामकान्तराभावेऽपि कारणसामर्थ्यमाश्रित्य विषयविषयिभावमिच्छति न त्वनुभवानुभाव्ययोरिति क्षीरं विहाय सौवीरे रतिररोचकग्रस्तस्य । विकल्पाकार एव भेद इति चेत् । यद्यसन्ने- ५ वासौ, कथं विकल्पाकारः तदाकारश्चेत्कथमसन्नेवेति परिभाव्यताम् । अस्तु तर्हि भेदः सन्नेवेति चेत् । नन्वद्वयदर्शि चेद्विज्ञानं कथं भेदप्रथा । आकारद्वयदर्शि चेत्
____कथमेकं सत्तद्वयात्मकम् । चित्राकारमिति विज्ञानमयदर्शि आकारद्वयदर्शि येति विचारः । चेत् । चित्रमप्येकमनेकं वेति विकल्पगिलित- १०
मेव तव पश्यत: । आकाराणामनेकत्वे हि क नामैकविज्ञानतादात्म्यमेषाम् । विज्ञानस्यापि यावदाकारमनेकत्वे क चित्राकारसंवेदनम् । स्वस्वमात्रममत्वात् । एकत्वे त्वाकाराणां क भेदप्रतीतिः स्यात् । निराकरिष्यते च सविस्तरं पुरस्ताच्चित्रज्ञानमिति । सहोपलम्भोऽपि किं युगपदुपलम्भः क्रमेणोपलम्भाभावः एकोपलम्भो १५ वाऽभिप्रेतो यस्य नियमो हेतुः स्यात् । यदि युगपदुपलम्भस्तदा बुद्धज्ञानेन व्यभिचारी हेतुः । तथाहि यहुद्धस्य ज्ञेयं सन्तानान्तर. चित्तं तस्य बुद्धज्ञानस्य च सहोपलम्भनियमोऽस्ति । सन्तानान्तरचित्तोपलम्भमन्तरेण बुद्धज्ञानस्य कदाचिदनुपलम्भात् । न च तस्य तेन सहाभेदः । अत्र धर्मोत्तरानुसारी समाधत्ते । नायं व्यभिचारश्चतुरस्रः। २० बुद्धज्ञाने युगपदुपलम्भनियमस्यैवासम्भवात् । यो हि ज्ञानोपलम्भ एव ज्ञेयोपलम्भो ज्ञेयोपलम्भ एव ज्ञानोपलम्भः स युगपदुपलम्भनियमोऽभिधीयते । न चायमीहशो बुद्धज्ञाने सम्भवति । पृथक् सन्तानान्तरैः स्वचित्तसंवेदनात् । तदेतदरमणीयम् । एवं पक्षकदेशासिद्धताप्रसक्तेः। एकस्मिन्नहमहमिकया बहुभिरुप्युपलभ्यमाने मृगाङ्कमण्डले यथोक्तरूपे २५ युगपत्तदुपलम्मनियमस्यासम्भवात् । न खलु देवदत्तमृगाङ्कमण्डलज्ञानो
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प्रमाणनयत्तत्त्वा लोकालङ्कारः [ परि. १ सू. १६
पलम्भ एव मृगाङ्कमण्डलोपलम्भः । यज्ञदत्तादिमृगाङ्कमण्डलज्ञानोपलम्भस्यापि त्वन्मते मृगाङ्कमण्डलोपलम्भस्वभावत्वात् । अथ सर्व एव देवदत्तादयः स्वज्ञानांशमेव पश्यन्ति न पुनरेकं मृगाङ्कादिकं बहिस्त्विति । तदेतत् कूर्परे गुडोयितं वर्त्तते । बाह्यार्थभावस्याद्याप्यसिद्धेः । ५ तत्सिद्धिर्हि सहोपलम्भनियमादेव अभिधीयते तत्र चेतरेतराश्रयत्वम् । प्रतिवाद्यसिद्धश्चायं हेतुः । न खलु य एव ज्ञानोपलम्भः स एव ज्ञेयोपलम्भो य एव च ज्ञेयोपलम्भः स एव ज्ञानोपलम्भ इति जैनानामभ्युपगमः । ज्ञानस्य कर्तुः स्वोपलम्भक्रियातः सकाशाद्वहिर्वस्तूपलम्भक्रिययोः कथञ्चिद्भिन्नत्वेन तैरभ्युपगमात् । एककर्तृकाणामपि हि २० क्रियाणां विषयभेदाद्भेदोऽवश्यमाश्रयणीयोऽपरथैकदेवदत्त विधीयमानतिलपाकतण्डुलपाकयोरप्येक प्रसङ्गः । एवं च ज्ञानोपलम्भस्य ज्ञानविषयत्वात् ज्ञेयोपलम्भस्य च ज्ञेयविषयत्वात् विषयभेदव्यवस्थितेस्तयोर्भेद एव स्वीकर्त्तव्यः । ज्ञानात्पृथग्भूतस्य ज्ञेयस्यासत्त्वात् विषयभेदोऽसिद्ध एवेति चेत् । न तथाभूतज्ञेयासत्त्वमनोरथमहाधुराया १५ विवादपङ्कनिमने सति सहोपलम्भनियमे केनापि वोढुमशक्यत्वात् । तन्न ज्ञानोपलम्भ एवेत्यादिधर्मोत्तरोक्तव्यभिचारपरिहारः पेशलः । अन्यस्त्वेवं व्यभिचारपरिहारमाह । यदि सुगतचित्तेन ज्ञेयचित्तानां ग्राह्यग्राहकभावो भवेत्तदा तत्र युगपदुपलम्भसहोपलम्भस्य विस्तरशः नियमसद्भावेऽप्यभेदाभावाद्भवेव्यभिचारो न चैवम् । खण्डनम् । सर्वावर वियेन ग्राह्यग्राहकाकारकलङ्कविकलत्वाद्भगवच्चित्तस्य । तदुक्तं " ग्राह्यं न तस्य ग्रहणं न तेन ज्ञानान्तरग्राह्यतयाऽपि शून्यम्” इति । तदसुन्दरम् | यदि हि सन्तानान्तरैः सुगतसंवेदनस्य ग्राह्यग्राहकभावो नास्ति तदा कथं तस्य सन्तानान्तरसंवित्तिः । को नामाभ्युपैति भगवतः सन्तानान्तरसंवेदनमिति चेत् । तर्हि कथ
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२०
१ कूर्परे गुडाभावेऽपि गुडबुध्या लिहन्ति बालास्तद्वत् । २ इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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6 एकत्वप्रसङ्ग
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परि. १ सू. १६} स्याद्वादरत्नाकरसहितः । मस्याप्तता स्यात् । गलितसकलमलपटलत्वेनात्यन्तविशुद्धत्वादिति चेत् । ननु विशुद्धत्वमपि किं कुर्वदाप्ततायां निमित्तम् । परार्थं सम्पादयदिति चेत् । कथं पराप्रतिपत्तौ तदर्थसम्पादनं नाम । तथापि तत्सम्पादने कौतस्कुतः प्रयोजनप्रतिनियमः 1 अचिन्त्यया तु शक्त्या कयाचित्तेन परप्रतिपत्तौ नीलादिरपि ग्राह्यग्राहकभावं विनै- ५ वास्मदादिभिस्तादृशशक्तिसद्भावात् ग्रहीष्यत इति स्वरूपासिद्धः सहोपलम्भनियमः सुगतस्यैवैतादृशशक्तिसद्भावो नास्मदादेरित्ययं तु शपथमात्रशरणानामुल्लापः । एतेन यदाह कमलशील: "सर्वार्थकारित्वात्तु सर्वज्ञ इष्यत" इति तदप्यपास्तमिति । नायमप्यनैकान्तिकत्वकुट्टनप्रकारः । यस्तु सर्वज्ञः सन्तानान्तरं वा नेप्यते १० तत्कथं व्यभिचार इति व्यभिचारपरिहारमाह । स केवलं विलक्षीभूतः प्रलपति । शून्यतावादस्यैवं प्रसङ्गात्तस्य च पुरस्तात्पराकरिष्यमाणत्वाद्विज्ञप्तिमात्राभ्युपगमविरोधाच्च । तथा न ताथागत तत्त्वतस्त्वया तथागतश्चेत्सकलज्ञ इष्यते । प्रमाणभूताय जगद्धितैषिणे इति स्फुट तर्हि स संस्तुतः कथम् ॥१४४॥ १५ अद्वैतसिद्धयादिषु संस्तुतोऽसौ दिग्नागमुख्यैरपि किं महद्भिः । मतिर्न तेषामसति स्तवाय प्रवर्त्तते यद्विलसद्विवेका ॥ १४५ ॥ विचार्य मुञ्चन्ति विपश्चितस्ते तमित्यदोषोऽयमुदीरितश्चेत् ।। नन्वस्य पश्चादपि हेयतायां युक्तं पुरैवेश्वरवत्प्रहाणम् ॥ १४६ ॥ संवेदनाद्वैतमथापि तत्त्वं तथातथा ते बत संस्तुवन्ति । अलीकमेतन्न यदस्ति तत्र श्रोतृस्तुतिस्तुत्यफलादिभावः ॥ १४७ ॥
कृत्तिकाभिश्च व्यभिचारः प्रकृतहेतौ । तथा हि तासु युगपदुपलम्भनियमोऽस्ति न चाभेदः तद्भेदस्य सर्वाविसंवादेन प्रसिद्धत्वात् ।
१ 'सुगतस्यैव तादृश' इति भ. पुस्तके पाठः। २ न्यायबिन्दुपूर्वपक्षसंक्षेपाख्याया न्यायविन्दुटीकायाः प्रणेता कमलशीलो बौद्धाचार्यः । ऐशवीय ७५० समसमये प्रादुरभूत् । ३ अयमद्वैतसिद्धिग्रन्थो दिङ्नागप्रणीतो ग्राह्यो न तु मधुसूदनप्रणीतः मधुसूदनस्य वादिदेवसूरेः पश्चाद्भावित्वात् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १६
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यथा च विचारयतः कृत्तिकानां विवेकेनोपलम्भस्तथा ज्ञानार्थयोरपि । विरुद्धश्वायम् । इमे मुनिमतल्लिके सह समागते महान् ' इत्यादौ युगपदर्थस्य सहशब्दस्य भेदे सत्येवोपलम्भात् । अथ मनुष्यैश्रन्तेरभिन्नमपि बाह्यं ज्ञानाद्भेदेनावसीयते तदपेक्षया युगपदुपलम्भ ५ इत्युच्यते द्विचन्द्रोपलम्भवत् । वस्तुस्थित्या त्वेकस्यैवोपलम्भ इति । तदसत् । भिन्नेनारोपिताकारेण वस्तुभूतस्याकारस्याभेदसाधनविरोधात् । न ह्यारोपितपीताकारेण शङ्खरूपस्याभेदः सम्भवति । तदानीमेव नरान्तरैस्तस्य श्वेताकारस्यैवोपलम्भात् । सिद्धे चाभेदे व्यवसायस्य भ्रान्तत्वं सिद्धयेन्न चासावद्यापि सिद्धः । यत्तु धर्मोत्तरः प्राह । अन२० योश्च यथाभावासङ्कल्पितभेद योस्तात्त्विको भेदो नास्तीत्युच्यते ततः कल्पितभेदनिबन्धनः सहशब्दप्रयोग इति को विरोध इति । तदपि विकल्पारूढ एव भेदो व्यवहाराङ्गमित्याद्याशंक्य नन्वसावपि सत्योऽसत्यो वेत्यादिनाऽत्रैव तत्त्वतस्तिरस्कृतम् । क्रमेणोपलम्भाभावस्तु सहोपलम्भोऽसिद्धः क्रमोपलम्भाभावमात्रस्य तुच्छस्य वादिप्रतिवादिनोर१५ प्रतीतत्वात् । किं च क्रमेणोपलम्भाभावमात्रादभेद एकत्वं साध्यते भेदाभावो वा नाद्यः पक्षः । भावाभावयोस्तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्ब न्धाभावतो गम्यगमकभावायोगात् । द्वितीय विकल्पेऽप्यभावस्वभावत्वात्साध्यसाधनयोः सम्बन्धाभावान्न गम्यगमकभावस्तादात्म्यतदुत्पत्त्याव भावस्वभावप्रतिनियमात् इष्टसिद्ध्यभावश्च । सिद्धेऽपि भेदप्रतिषेधे २० विज्ञप्तिमात्रस्येष्टस्यातोऽप्रसिद्धेर्भेदप्रतिषेधमात्रेऽस्य चरितार्थत्वात् । अथैकोपलम्भः सहोपलम्भः । ननु किमेकत्वेनैवोपलम्भ एकोपलम्भः स्यादेकेनैव वा एकस्यैव वैकलोलीभावेएकोपलम्भरूपस्य सहोपल-: म्भस्य खण्डनम्। नैव वां । आद्यपक्षेऽसिद्धता । द्वितीयषक्षेऽपि कस्यैकेनैवोपलम्भो नीलादेस्तदुपलम्भस्योभयस्य २५ वा । तत्राद्यपक्षेऽसिद्धिः । तथाहि जलाशयादिष्वनेकपुरुषदर्शनसाधा१ प्रशस्तौ मुनी । मतहिका मचर्चिका प्रकाण्डमुद्धतहजौ । प्रशस्तवाचकान्यमूनी त्यमरोक्तः । २ ' वा' इति प. पुस्तके नास्ति ।
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पर. १सू. १६] स्याहादरत्नाकरसहितः .. रणस्य नीलोत्पलाद केनैवोपलम्भः । सर्वेषामेकार्थदर्शनात् । किं च यावदन्योपलम्भप्रतिषेधो न कृतस्तावन्नैकेनैवोपलम्भो नीलादेः सिद्धयति । न च परोपलम्भप्रतिषेधसम्भवः स्वभावविप्रकृष्टत्वात्परचित्तानां तेन सन्दिग्धासिद्धताऽपि । स्वज्ञानांशमेव सर्वे पश्यन्ति नत्वेकं बहिर्बहुसाधारणं नीलादीति त्वद्यापि . स्वगृहमान्यम् । ५ एवं च न नीलादेरेकेनैवोपलम्भः सिद्धयति । नापि तदुपलम्भस्य । यावन्तो हि प्रमातारस्तावन्त उपलम्मा नीलादेः । न च तेषामेकेनैवोपलम्भः प्रातिस्विकत्वात् । एतेन नीलतदुपलम्भयोरेकेनैवोपलम्भ इत्यप्रसिद्धमुक्तम् । अथैकस्यैवोपलम्भ एकोपलम्भः । नत्वयमप्यसिद्ध एव । नीलं विलोकयामीति नीलतदुपलम्भयोरुभयोरप्युप- १० लभ्यमानत्वात् । एतेनैकलोलीभावेनैवोपलम्भः सहोपलम्भनियमश्चित्रज्ञानाकारवदशक्यविवेचनत्वं साधनमसिद्धं प्रतिपत्तव्यम् । अन्तर्बहिर्देशस्थतया विवेकेन ज्ञानार्थयोः प्रतीतेः । पक्षचतुष्टयेऽपि वाऽस्मिन्नायमेकार्थः सहशब्दः सङ्गच्छते । तथाप्रतीतेरभावात् । परार्थेऽनुमाने वक्तुबचनगुणदोषाश्चिन्त्यन्ते इति हि न्यायमुद्रा । ततश्च । परं प्रतिपाद- १५ यताऽनेन साङ्केतिकशब्दार्थवादिनापि नूनं प्रतिपदार्थकः शब्द उपादेयोऽन्यथा प्रतीतेरभावात् । लोके नायमेकार्थवाचकः क्वचिदपि विलोक्यते । सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकश्च सहोपलम्भनियमहेतुः । अभेदमन्तरेणापि तस्य सद्भावात् । ग्राह्यग्राहकभावप्रतिनियमकृतो हि सहोपलम्भनियमस्तथैव तयोः स्वहेतोः समुत्पादात् । एवं च ज्ञानेनात्मा- २० र्थश्च यथा गृह्यते तथाऽर्थेनाप्यात्मार्थश्च गृह्यतां भेदाविशेषादित्यप्रकाशनीयमेव । न हि ज्ञानव्यतिरेकेणान्यस्य कस्यचित् ग्राहकस्वभावलमस्ति । येन ज्ञानादन्येनार्थेनाप्यर्थस्यात्मनश्चोफ्लम्भो भवेत् । तस्मात्सहोपलम्भनियमश्च स्याद्भेदश्चेति हेतोरभेदेन व्यायसिद्धिः । तथा च स्वयमेव धर्मकीर्तिना लोकायतं प्रत्युक्तं वार्तिके, " देहत- १५ __ १नन्वयम् ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः । २ धर्मकीर्तिप्रणीतः प्रमाणवार्तिककारिकाख्यो ग्रन्थोऽस्ति । .
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १६
योर्विषयविषयितया सहोपलम्भो नाभेदात् " इति । तत्किं भवतो विस्मृतम् । न च बाह्याभ्युपगमेन तदुक्तमिति वाच्यम् । अयुक्तस्योपगमस्याप्यभिधाने आचार्यस्यानुचितवक्तृत्वप्राप्तेः । अधुनापि तु दोलाधिरूढस्य प्रामातुर्विद्यत एव तेन विषयविषयितयापि सहोपलम्भ५ सम्भवाद्वयाप्तेरनिश्चयः । एवं च सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वम् । तथाहि किमयं विषयविषयिभावात्सहोपलम्भनियमः स्यादुताभेदादिति । ननु कथं सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वम् । विपक्षे बाधकप्रमाणस्य सद्भावात् । तथा च धर्मकीर्त्तिः " प्रतिबन्धकारणाभावात् " इति । राहुल एतद्वयाख्याति " प्रतिबन्ध एवं कारणं तस्याभावात् " । एतदुक्तं १० भवति । प्रतिबन्ध एव तादात्म्यलक्षणो मिश्रितावभासस्य कारणं तदभावे कारणाभावात्सहोपलम्भनियमाभावः स्यात् । भेदे हि न कार्य करणाभावव्यतिरेकेणापरः रः सम्बन्धस्तस्य च सहोपलम्भे निमित्तत्वे कुलालादिविवेकेन घटादयो न प्रतीयेरन् । एकसामग्र्यधीनत्वात्तन्निमित्तत्वे रसादिविवेकेन रूपादयो न प्रतीयेरन् । प्रतीयन्ते च । ततो न सम्बन्धान्तरप्रयुक्तं सहसंवेदनम् । अत एव प्रतिबन्धवासौ कारणं चेति प्रतिबन्धकारणं तस्य संबन्धिविशेषस्य सहवेदननिमित्तस्य तादात्म्यलक्षणस्याभावादित्यर्थः । तदेतदशोभनम् । ग्राह्यग्राहकभावस्यैव प्रतिबन्धस्य ज्ञानार्थयोः सहोपलम्भनियम कारणत्वोपपत्तेरुक्तत्वात् प्रतिबन्धकारणाभावादित्यस्यासिद्धत्वात् । अभिधास्यते च सविस्तरं २० पुरस्ताद्यथा न तादात्म्यतदुत्पत्ती पदार्थोपलम्भे निबन्धनमिति । दृष्टान्तोऽपि प्रकृतानुमाने साध्यशून्यः । द्वितीयचन्द्रमसि भ्रान्तज्ञानेन भिन्नतया समारोपितस्वरूपे सुधांशुना सहाभेदस्य साध्यस्यासंभवादिति । एवं च-
१५
१६०
२५
सहोपलम्भनियमादित्येतत्कीर्त्तिकीर्तितम् ॥
निकारं कमपि प्रापि प्रोक्तप्रोद्बलयुक्तितः ॥ १४८ ॥
१ सत्यसुधांशुना ' इति प. पुस्तके पाठः ।
·
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परि. १ स. १६]
स्थाद्वादरत्नाकरसहितः
___ करणम् ।
यदपि प्रकाशन्ते भावा इत्यादि न्यगादि । तत्र स्वतः प्रकाश
___ मानत्वं हेतुत्वेन विवक्षितं परतो वा । स्वतश्चेप्रकाशमानत्वहेतोरपा
त्तर्हि प्रतिवादिनो हेतुरसिद्धः । न हि पर.
निरपेक्षप्रकाशाः कुम्भादयः कस्यचित्प्रसिद्धा अन्यत्र महामोहसन्तमससञ्चयसमाच्छादितविवेकप्रकाशाद्योगाचारीत् ।। ५
अथ प्रकाशं परतोऽभ्युपैषि हेतोस्तदा स्यान्ननु वाद्यसिद्धिः । न जातु जीवन्नवलम्बते यद्विज्ञानवादी परतः प्रकाशम् ।। १४९।। विरुद्धतापि पक्षेऽस्मिन् साधनस्य विभाव्यते ।
भेदे सत्येव परतः प्रकाशस्योपपत्तितः ॥ १५० ॥ अर्थानां परतः प्रकाशनं न
__ अथाभिधीयते हेतुः स्वत एव प्रकाशनम् । १० सम्भवतीति बौद्धमतस्य न चासिद्धः प्रकाशोऽयं परस्माजायते न यत् खण्डनम् ।
॥ १५१॥ तथाहि परः प्रकाशयन् सम्बद्धोऽसम्बद्धो गृहीतोऽगृहीतो वा निर्व्यापारः सव्यापारो वा निराकारः साकारो वा भिन्नकालः समकालो वा पदार्थस्य प्रकाशकः स्यात् । न तावदसम्बद्धोऽतिप्रसङ्गात् सम्बद्धश्चत्तादात्म्येन ॥ तदुत्पत्त्या वा । यदि तादात्म्येन, तर्हि विज्ञप्तिरूपतापत्त्या पदार्थानां सिद्धं ज्ञानाद्वैतम् । विज्ञप्तेर्वा जडरूपतापत्त्या विश्वस्याप्यन्धबधिरत्वप्रसक्तिः । अथ तदुत्पत्त्या, तर्हि ज्ञानादर्थः समुपजायेतार्थाद्वा ज्ञानम् । प्रथमपक्षेऽर्थस्य ज्ञानरूपतापत्तिर्ज्ञानादुपजायमानत्वादुत्तरज्ञानक्षणवत् । द्वितीयपक्षेऽपि समकालाद्भिन्नकालाद्वाऽर्थाज्ज्ञानमुपजायेत । न तावत्स- २० मकालात्, समसमयमाविनोर्वामेतरविषाणयोरिव कार्यकारणभावस्याभावात् । भावे वा ज्ञानस्याप्यर्थं प्रति कारणत्वप्रसक्तिरविशेषात् । भिन्नकालात्तु ततस्तदुपजनने ज्ञानस्याहेतुकत्वप्रसङ्गः । तत्कालेऽर्थस्या
२ योगाचर:-बौद्धभेदः । यतो बौद्धाश्चतुर्भेदाः 1 वैभाषिकसौत्रान्तिकमाध्यमिकयोगाचार इति भेदचतुष्टयेन ।
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[ परि. १ सू. १६
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
९३
सत्त्वात् । गृहीतश्चेत् प्रकाशकः परः किं स्वतः परतो वा । स्वतश्चेत्, स्वरूपमात्रप्रकाशनिममत्वाद्बहिरर्थप्रकाशकत्वाभाव एव भवेत् । परतश्चेत्, अनवस्था । तस्यापि ज्ञानान्तरेण ग्रहणात्तथा चार्थग्रहणाभावः । अगृहीतश्चेत् प्रकाशकोऽतिप्रसङ्गः । निर्व्यापारश्चेदर्थस्यापि बोधं प्रति प्रकाशकत्वानुषङ्गः । सव्यापारश्चेदस्मादव्यतिरिक्तो व्यतिरिक्तो वा व्यापारो भवेत् । आधे पक्षे बोधमात्रमेव नापरो व्यापारः कश्चित् । न चानयोरभेदो युक्तो, धर्म्मधर्म्मितया लोके भेदप्रतीतेः । द्वितीये तु संबन्धासिद्धिस्ततस्तस्योपकाराभावात् । उपकारे वाऽनवस्था | तन्निर्वर्त्तितव्यापारस्य परव्यापारकल्पनानुषङ्गात् । निराकारश्चेदतः प्रति१० कर्म्मव्यवस्था न स्यात् । साकारश्चेद्वाह्यार्थपरिकल्पनानर्थक्यम् । नीलाद्याकारेण बोधेनैव पर्याप्तत्वात् । भिन्नकालश्चेत् । स्वकालेऽविद्यमानस्यार्थस्य ज्ञानेन प्रकाशे सकलप्राणिनामशेषज्ञत्वप्रसङ्गः । समकालश्चेत्तर्हि यथा ज्ञानमर्थस्य ग्राहकमेवमर्थोऽपि ज्ञानस्य ग्राहकः स्यात्समसमयभावित्वाविशेषात् । अथार्थे ग्राह्यताप्रतीतेः स एव १५ ग्राह्यो न ज्ञानमित्युच्यते । तन्न । तद्व्यतिरेकेणास्याः प्रतीत्यभावात् । स्वरूपस्य च ग्राह्यत्वे ज्ञानेऽपि तदस्तीति तत्रापि ग्राह्यता भवेत् । अथ जडत्वान्नार्थो ज्ञानस्य ग्राहकः । ननु कुतो जडत्वसिद्धिः । तदग्राहकत्वाच्चेत् अन्योन्याश्रयः । सिद्धे हि जडत्वे तदग्राहकत्वसिद्धिस्ततश्च जडत्वसिद्धिरिति ।
१६२
२०
कृतमनल्पविकल्पकदम्बकं प्रतिहतं परतः प्रतिभासनम् । सकलवस्तुगणस्य ततोऽपि न प्रफलितैव मनोरथमञ्जरी ॥ १५२ ॥ अत्रोच्यते
स्वीय कदाशयमात्रसमुत्थाः कत्तुमिमे भवदायविकल्पाः । सौधु वयस्य विचिन्तय शक्ताः किं परतः प्रतिभासनिरासम् ॥१५३॥
१ 'अर्था' इति भ. पुस्तके पाठ: । २ 'साध्य' इति भ. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. १६]
: तथाह्यसम्बद्धागृहीतनिर्व्यापारसाकारपक्षेष्वनभ्युपगतोपालम्भेन केवलं कण्ठक्लेशमनुभूतवानसि । सम्बद्धादिपक्षास्त्वनवद्यकुक्षयः । संबन्धो हि योग्यतास्वभाव एव ज्ञानार्थयोर्ग्राह्यग्राहकभावाङ्गं न तु तादात्म्यादि । ज्ञानं हि स्वसामग्रीप्रतिनियमात्प्रतिनियतार्थसंवेदनयोग्यमेवोपजायते । अर्थोऽपि स्वसामग्रीविशेषादेव प्रतिनियतसंवेदन- ५ वेदनावेद्यतायोग्य एव समुत्पद्यत इति । गृहीतपक्षेऽपि यदुक्तं स्वतः परतो वेत्यादि । तत्र स्वत एवेति ब्रूमः । न च स्वतोऽस्य ग्रहणे स्वरूपमात्रप्रकाशनिमग्नत्वाद्बहिरर्थप्रकाशकत्वाभावः । विज्ञानस्य प्रदीपवत् स्वपरप्रकाशकस्वभावत्वात् । सव्यापारकल्पेऽपि व्यतिरिक्तविकल्पानवकाशः | स्वपर प्रकाशकस्वभावत्वव्यतिरेकेण ज्ञानस्य स्वपर - १० प्रकाशनेऽपरव्यापाराभावात् । तस्य च ज्ञानात्कथञ्चिद्व्यतिरिक्तत्वात् । यथा च तत्र विरोधादिकुनोद्यानामनवकाशस्तथा यतिष्यते । निराकारपक्षेऽपि भवदभिमतसा कारवादप्रतिक्षेपेण निराकारादेव प्रत्ययाद्यथा प्रतिकर्मव्यवस्था तथा प्रतिपादयिष्यते । एवं च " धियो नीलादिरूपत्वे बाह्योऽर्थः किंनिबन्धनः । धियोऽनीलादिरूपत्वे बाह्योऽर्थः १५ किंनिबन्धनः " ॥ इति यदुच्यते । तत्प्रत्युक्तम् । भिन्नकालप्रकाशकपक्षेऽपि यदवादि स्वकालेऽविद्यमानस्यार्थस्य ज्ञाने प्रकाशे सकलप्राणिनामशेषज्ञत्वप्रसङ्ग इति । तदप्यसङ्गतम् । भिन्नकालस्यापि योग्यस्यैवार्थस्य ज्ञानेन ग्रहणात् । दृश्यते हि पूर्वचरादिलिङ्गप्रभवप्रत्ययाद्भिन्नकालस्यापि प्रतिनियतस्यैव शकटोदयाद्यर्थस्य ग्रहणम् । किं चैवंवादि- २० नस्ते कथं भिन्नकालं किञ्चिदपि लिङ्गं साध्यस्यानुमापकं स्यात् । अनुमापकत्वे वा किञ्चिदेकमेव भस्मादिलिङ्गमतीतस्य पावकादेवि समस्तस्याप्यतीतानागतानुमेयस्य प्रतिपत्तिहेतुः स्याद्भिन्नकालत्वाविशेषापि किञ्चिदेव लिङ्गं कस्यचिदेवार्थस्यानुमापकमित्यदोषोऽयम् ।
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१ 'वेदना' इति प. पुस्तके नास्ति । २ 'विशेषात् । अथ भिन्नकालत्वाविशेषे ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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१०
१५
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १६
नन्वेवं तदविशेषेऽपि किंचिदेव ज्ञानं कस्यचिदेवार्थस्य ग्राहकं किं नेष्यते । समकालविकल्पेऽपि न कश्चित् कलङ्कः । ननूक्तं तत्र ।
अयि सितादिनि वस्तुनि धीर्यथा प्रवरिवर्ति परिग्रहणोत्सुका । किमु तौ न तथा तव वस्त्वपि प्रवरिवर्ति परिग्रहणोत्सुकम् ॥ १५४॥ अत्रोच्यते
Snippladdad
ननु यथा सहसा महसां पतिः प्रकटयत्यखिलं भुवनोदरम् | त तथैव न किं कलशोऽप्यदः प्रकटयत्यखिलं भुवनोदरम् ॥ १५५॥ अथ भवान् कथयेत्कलशार्कयोरतिशयेन विलक्षणरूपताम् । वदति किं न तथा ग्रहणार्थयोरतिशयेन विलक्षणरूपताम् ॥१५६॥ किंच स्वकारणप्रतिनियमादर्थ एव ग्राह्यो ज्ञानमेव च ग्राहकमिति समकालत्वेऽपि तयोः कथं ग्राह्यग्राहकभावत्र्यत्ययः स्यात् । स्वकारणक्षणान्यपि कथमर्थमेव ग्राह्यं ज्ञानमेव च ग्राहकं जनयतीति तु पर्यनुयोगे स्वभाव एवोत्तरम् । न च स्वभावः पर्यनुयोगभूमिः ।
अणुमपि गुणमेव वीक्षते सुजनः सत्यपि दोषडम्बरे । तद्विपरीतस्तु दुर्जनः कुरुता पर्यनुयोगमत्र कः ॥ १५७ ॥
Arora काराणां यथा बुद्धिर्व्यापिका तथा नीलादयः किं नास्या व्यापकाः । नियतानां चैषां यथाऽसौ व्यापिका तथा सर्वेषामेव विश्ववर्त्तिनामाकाराणां किं न व्यापिकेति प्रेर्येत । तवापि स्वभावभेदादपरं किं नामोत्तरम् । यदि चार्थे ग्राह्यताप्रतीतेः स एव ग्राह्यो न ज्ञानम् ! २० यत्पुनरत्रोक्तं तद्व्यतिरेकेणास्याः प्रतीत्यभावादिति । तन्न । तद्व्यतिरेकेणास्याः प्रतीत्यभावासिद्धेः । ज्ञानग्रहणयोग्यतालक्षणस्य कथञ्चियतिरिक्तस्य ताख्यस्य धर्मस्यार्थेषु प्रतीतिसिद्धत्वात् । जडत्वादपि नार्थी ज्ञानस्य ग्राहकः | यस्तु तत्रेतरेतराश्रयः समुदीरितः । स न सङ्गतः । ज्ञानग्राहकत्वेन तस्यास्माभिर्जडत्वा२५ प्रसाधनात् । स्वभावादेव वस्तूनां जडत्वेनाजडत्वेन च व्यवस्थित
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परि. १ स. १६]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
त्वात् । ननु यया प्रत्यासत्त्या ज्ञानमात्मानं विषयीकरोति तयैव चेदर्थ तर्हि तयोरैक्यम् । न ह्यूकस्वभाववेद्यमानकं भिन्नं युक्तम् । ऐक्यस्य सर्वथाप्यभावप्रसङ्गात् । अथान्यया, तर्हि स्वभावद्वयापत्तिर्ज्ञानस्य भवेत् । तदपि स्वभावद्वयं यद्यपरेण स्वभावद्वयेनाधिगच्छति । तदाऽनवस्था । तद्वेदनेऽप्यपरस्वभावद्वयापेक्षणात् । ततः स्वरूपमात्रग्राह्येव ज्ञानं नार्थग्राहीत्यकामेनापि स्वीकर्तव्यमिति चेत् । तदरमणीयम् । स्वार्थग्रहणोभयस्वभावत्वाद्विज्ञानस्य यथा तत्र नाभिहितदोषानुषङ्गस्तथा स्वसंवेदनसिद्धावभिधास्यते । कथं चैवंवादिनो रूपादेर्लिङ्गस्य वा सजातीयेतरकर्तृत्वम् । तवाप्यस्य पर्यनुयोगस्य समानत्वात् । तथाहि रूपादिकं लिङ्गं वा यया प्रत्यासत्या सजातीयक्षणं जनयति तयैव चेद्रसा- १० दिकमनुमानं वा । तर्हि तयोरैक्यमित्यन्यतरदेव स्यात् । अथान्यया तर्हि रूपादेरेकस्य स्वभावद्वयमायातं तत्र चानवस्था । परापरस्वभावद्वयपरिकल्पनात् । न खलु येन स्वभावेन रूपादिकमेकां शक्तिं बिभर्ति तेनैवापराम् । तयोरैक्यप्रसङ्गात् । अथ रूपादिकमेकस्वभावमपि भिन्नस्वभावं कार्यद्वयं कुर्यात्तत्करणैकस्वभावत्वात् । तर्हि ज्ञानमप्येक- १५ स्वभावं स्वार्थयोाहकमस्तु तद्ग्रहणैकस्वभावत्वात् । ननु व्यवहारेण कार्यकारणभावो न परमार्थतस्तेनायमदोष इति चेत् । तर्हि व्यवहारेगैवाहमहमिकया प्रतीयमानेन ज्ञानेन नीलादेरर्थस्य ग्रहणसिद्धिरित्यपि स्वीक्रियताम् । न चैवं परमार्थतो नार्थसिद्धिरिति वाच्यम् । व्यवहारस्यापि प्रमाणमन्तरेणानुपपत्तेरिति यद्यवहारसिद्धिः तत्पारमार्थि- २० कमेव । न खलु निखिलोपाख्याविकलं वन्ध्यास्तनन्धयादिव्यवहारेणापि सद्रूपतया साधयितुं केनापि शक्यत इति चेष्टोत्तरमात्रमेतत्तथागतानां व्यवहारेण कार्यकारणभावो न परमार्थत इति । यदप्युच्यते । जडस्य प्रतिभासायोगादिति । तत्राप्यप्रतिपन्नस्यास्य प्रतिभासायोगः प्रतिपन्नस्य वा । न तावदप्रतिपन्नस्यासौ प्रत्येतुं शक्यः । अन्यथा २५ सन्तानान्तरस्याप्रतिपन्नस्य स्वप्रतिभासायोगप्रसिद्धेस्तस्याप्यभावः स्या
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ तथा च तत्प्रतिपादनार्थं प्रकृतहेतूपन्यासो व्यर्थः । अथ सन्तानान्तरं स्वस्य प्रतिभासयोग स्वयमेव प्रतिपद्यते । जडस्यापि प्रतिभासयोग तत्प्रत्येतीति कि नेप्यते । प्रतीतेरुभयत्रापि समानत्वात् । अथाप्रतिपन्नेऽपि जड़े विचारात्तदयोगः । ननु तेनाप्यस्याविषयीकरणे प्रतिभासा५ योगप्रतिपत्तिविरोधः। विचारस्तत्र न प्रवर्तते तत एवं च कथं तदयोगप्रतिपत्तिः स्यादिति । विषयीकरणे वा विचारवत्प्रत्यक्षादिनाप्यस्य विषयीकरणात् प्रतिभासयोगोऽसिद्धः । न च प्रतिपन्नस्य जडस्य प्रतिभासायोगप्रतिपत्तिरित्यभिधातव्यम् । जडस्य प्रतीतिः प्रति
भासायोगश्चास्येत्यन्योन्यं विरोधात् । किं च जडस्य प्रतिभासायोगा१० दिति यदि प्रतिभासात्मत्वाभावसाधनायोच्यते । तदा सिद्धसाधनम् ।
जडस्य प्रतिभासाद्भिन्नस्वभावतयाऽस्माभिरप्यभ्युपगमात् । अथ प्रतिभाससंसर्गाभावसाधनाय तन्निरुपपत्तिकम् । हेतोः साध्याविशिष्टत्वात्। न च जडस्य प्रतिभाससंसर्गेण न भवितव्यमित्यस्ति राज्ञामाज्ञा । यथा
हि च्छिदिक्रिया छेद्येन सम्बध्यते मिद्यते च । तथा ज्ञानक्रियापि ३५ ज्ञेयेन सह सम्भन्स्यते भेत्स्यते च । तस्मादित्थं पदार्थानां परतः प्रकाश
स्यैव योगात् कथं स्वतः प्रकाशः सिद्धयेत् । नतु ज्ञानातिरिक्तस्यार्थस्य प्रसाधकप्रमाणाभावोऽस्माकं ततोऽपि परतः प्रकाशस्यानिश्चयस्त्वयाप्यर्थाभावाविर्भावकं प्रमाणमनुपदर्शयता प्रसाधकप्रमाणाभावभाषणमात्रेण न परतः प्रकाशः उत्कुंसयितुं शक्यते । न च यावदयमेकान्तेन निभर्सितस्तावत् स्वतः प्रकाशोऽपि सर्वथा सिद्धयति । तस्मात्सन्दिग्धासिद्धोऽप्येवमयम् । न च प्रकशमानत्वमेवार्थाभावसाधनोद्भुरमित्यभिधेयम् । अस्याद्यापि विप्रतिपत्तिभूरिभरावष्टम्भत्वेन किञ्चिदपि कर्तुमशक्तत्वात् । अस्ति चास्माकमर्थोपस्थापनसमर्थं प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् । तथाहि ।
१ सन्दिग्धासिद्धः-धूमबाष्पादिविवेकानिश्चये कश्चिदाह वह्निमानयं प्रदेशः धूमवत्त्वात् इति ।
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परि. १. सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः .
अन्तर्मुखाकारतयैव वुद्धिर्विभासमाना निखिलासुभाजाम् । नीलादिकं वस्तु बहिःप्रतिष्ठं प्रकाशयत्यस्तसमस्तबाधा !! १५८ ॥ अथापि मोहोदयतः स्फुरन्तं प्रत्यक्षबोधेऽपि बहिः पदार्थम् । न मन्यसे हन्त तदा कथं नु विज्ञप्तिरप्यत्र तव प्रसिद्धयेत् ॥ १५९ ॥ तदप्रसिद्धौ च तवापि तत्त्वं समागतं सम्प्रति शून्यमेव । तदप्यथ स्वीकुरुषे तदानीं तद्दषणं श्रोष्यसि मा त्वरिष्ठाः ॥ १६० ॥
तन्न प्रकाशमानत्वं हेतुः सङ्गतः । सुखादिकमिति दृष्टान्तोऽपि साध्यविकलः, सुखादेरेकान्तेन ज्ञानरूपत्वस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात् । तन्न प्रकाशतामुनापि माननीया मनीषिणाम् । . यत्तु यद्यने वेदनेनेत्यादि समावेदि । तत्र वेदनार्थयोर्भेदम्य प्रत्यक्षप्रति- १०
__ पन्नत्वात्प्रत्यक्षप्रबाधितत्वं प्रतिज्ञादोषः । तथा किं वेद्यत्वहेतोः खण्डनम् । यद्यत इति कर्मणि प्रयोगाद्वेदनकर्तृकविदिक्रियारूपं वेदनकर्मत्वं वेद्यत्वं हेतुरिष्यते । किं वा यवैद्यत इति यच्छब्दस्य वेदनक्रियया सामानाधिकरण्ये भावनिर्देशाद्विदिक्रियारूपवेदनस्वभावत्वम् । अत्र च विकल्पेऽयं प्रमाणार्थः । नीलादयो वेदनादभिन्नाः ।। वेदनकर्तृकवेदनक्रियारूपत्वाद्वेदनस्वरूपवदिति । आद्यपक्षे विरुद्धो हेतुः कर्तकर्मभावस्य भेदेनैव व्याप्तत्वात् । नन्वेवं त्वन्मतेऽपि वेदनस्यात्मानं वेदयमानस्य कथमेकस्यैव कर्तृत्वं कर्मत्वं च चतुरस्र स्यादिति चेत् । न तस्य सर्वथैक्यासिद्धेः । अन्यो हि वेदनस्य कशोऽन्यश्च कर्मांश इति । किं च यदि वेदनादर्थस्याभेदस्तदा २० वेदनमेव स्यान्नार्थस्तस्य तत्रैवानुप्रतिष्ठितत्वादिति कस्य कर्मत्वम् । तथा. च वेद्यत्वादित्यसिद्धो हेतुः । वेदनस्वरूपस्य च दृष्टान्तस्य साधन विकलत्वम् । वेदनादभिन्न तस्मिन् भेदव्याप्यस्य वेदनकर्मत्वस्य साधनस्य त्वन्मतेनासम्भवादिति । द्वितीयपक्षे तु प्रतिवाद्यसिद्धः । वेदनक्रियातः । पार्थक्येनार्थानां परैरभ्युपगमात् । विरुद्धश्चायम् । क्रिया- २५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सु. १६
कर्त्तृभावस्य भेदाविनाभावित्वेन विदिक्रियावेदनकर्त्रीरभेदविरुद्धभेदस्य साधनात् । साधनविकलश्चात्राऽपि पक्षे दृष्टान्तः । वेदनाख्ये कर्तरि तत्स्वरूपमात्रस्य क्रियात्वासिद्धेः । अपि च यदि वेदनस्वभाव एव नीलादिरर्थः स्यात्तदेक एव कश्चित्तं प्रतीयात्तद्वेदनेकस्वभावत्वान्न पुनरपरे प्रमातारः । प्रतीयते चाऽयं बहुभिरेकः । सर्वेषां तदाभिमुख्येन युगपत्प्रवृत्तौ यस्त्वया दृष्टः स मयापीति प्रतिसन्धानात् । कथं ज्ञानरूपत्वे नीलादेः सप्रतिरूपता स्यात् । बहीरूपतया तस्याः प्रतिभासात् ज्ञानस्य चान्तारूपतया प्रतीतेः । यच्च भेदे नियमहेतोः सम्बन्धस्य व्यापकस्यानुपलब्ध्या भेदाद्विपक्षाद्यावर्त्तमानं वेद्यत्वमभेदेन १० व्याप्यत इत्युक्तम् । तदप्ययुक्तम् । सम्बन्धानुपलब्धेरसिद्धत्वात् । भेदेऽपि योग्यतारूपस्य नियमहेतोः सम्बन्धस्य दर्शितत्वात् । यच्चार्था - कारो ग्राह्यत्वेन प्रतीयत इत्याद्याशङ्कय परमार्थतो धीर्यग्राहकग्राह्यतया विमुक्तेत्यवाचि । तदप्यचारु । यतो यदि तत्त्वतो ज्ञाने ग्राह्यत्वं ग्राहकत्वं च नास्त्येवेति अभिधीयते । तर्हि किमपरमवशिष्टं यदस्य १५ स्वरूपं स्यात् । न हि ग्राह्यग्राहकाकारविविक्तमपरं रूपमवग्दर्शनैः साक्षात्क्रियते । साक्षात्करणे वा त्वन्नीत्या तत्त्वदर्शित्वं स्यात्तथा चायत्नमुक्ताः सकलशरीरिणः : स्युः । नाप्यनुमानात्तस्या निश्चयः । अद्वयरूपे तत्त्वे वस्तुभूतस्याभावभूतस्य वा कस्यचिल्लिङ्गस्यासिद्धेः । स्यादेतन्न ग्राहकशब्देनान्तर्बोधरूपं स्वसंविदितमुच्यते येन तस्याप्य२० भावः स्यात्किन्तु यदेतद्विज्ञानाद्वहिरिव नीलादि भासते तस्यैकानेकविचारक्षमत्वेनासत्त्वान्न ज्ञानव्यतिरिक्तं परमार्थतो ग्राह्यमस्ति । तद्भावाच्च तदपेक्षाप्रकल्पितं बोधरूपस्य यत्कर्त्तृरूपमस्य ग्राह्यस्यायं ग्राहक इति तदिह ग्राहकं रूपं तन्नास्तीत्युच्यते । कर्तृकर्मणोः परस्परापेक्षाप्रकल्पितत्वात् । अत एवोक्तम् । परस्परापेक्षया तयोर्व्य२५ वस्थानादिति । बोधरूपं तु स्वसंवेदनमात्रमस्त्येव । तस्य परानपेक्षत्वे
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' सप्रतिघातिरूपता ' इति प. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः . नापरिकल्पितत्वात् । स्वहेतोरेव तस्य तथोत्पन्नत्वात् । तदेव बोधरूपं स्वसंवेदनमात्रे स्थितं यथोक्तेन ग्राह्यग्राहकद्वयेन रहितत्वादद्वयमित्युच्यते । तथा चोक्तम् ॥ " नीलपीतादि यज्ज्ञानादहिर्यदवभासते । तन्न सत्यमतो नास्ति विज्ञेयं तत्वतो बहिः ॥१॥ तदपेक्षया च संवित्तेर्मता या कर्तृरूपता । साप्यतत्त्वमतः संविदद्वयेति विभाव्यते ॥२॥” इति । एतदप्यसत् । नीलादावेकानेकविचाराक्षमत्वस्यासिद्धत्वात् । जात्यन्तरत्वेन तस्यैकानेकात्मकत्वात् । तथा च ज्ञानातिरिक्तग्राह्याभावोऽसिद्धः। अद्वयस्य स्वमेऽप्यननुभूयमानत्वाच्च । अनुभवे वा सर्वेषां तत्त्वदर्शनापत्त्या त्वन्नीतितोऽयत्नमुक्तिः स्यादित्युक्तम् । अथाभिधीयेताद्वयमेव बोधरूपं स्वसंवेदनसिद्धं, नैव सर्वेषां १० तत्त्वदर्शनप्रसक्तिः । यतो गृहीतेऽपि तस्मिन्निरंशत्वाद्वये बोधरूपे प्रान्तिबीजानुगमनान्न यथाबोधमद्वयावसायो जायते । ततो गृहीतमपि तदगृहीतकल्पमित्यननुभूतिर्न तत्त्वत इति । नैतदेवम् । अद्वयतत्त्वस्य कदाचिदननुभूयमानत्वात् । तथाध्यवसायस्य कदाचिदनुदयात् । तदाप्यद्वयकल्पनेऽतिप्रसक्तिः । नीलाद्याकारबोधादप्यन्यरूप १५ एव बोधोऽनुभूयते नीलादिभ्रान्तिबीजानुगमात्तु न यथाबोधमवसीयत इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । किञ्चैवं परिकल्पिताद्वयरूपत्वेऽपि ज्ञानस्य तत्त्वतो ग्राह्यग्राहकत्वसिद्धिरेव । स्वात्मसंवेदनेन विज्ञानस्य कर्तकर्मभावोपपत्तेरन्यथा स्वात्मसंवेदनायोगात् । न ह्यात्मनात्मनो वेदनाभावे स्वसंवेदनं नाम । नन्वेवं स्वात्मनि क्रियाविरोधः । २० इति चेत् । तथैवानुभवात्को नाम विरोधः । विरोधे तु कथं कर्तृकर्मभावस्तस्य स्यात् । अथ · माभूदयमपसरत्वौषधं विनैव व्याधिरिति चेत् । फलोदये मनोरथस्ते यदि समुद्रान्तर्भग्ननिर्भरभृतयानपात्रस्वामीव मूलनाशेन न दुःस्थः स्याः, कर्तृकर्मभावाभावे हि विज्ञानस्याप्यननुभवादभाव एव च भवेत् । स्वहेतोरेव स्व- २५ संवेदनस्वभावं तदिति चेत्, किमनेनान्वयनिवेदनेन । सर्वथा
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ चेत् ग्राह्यत्वग्राहकत्वाभ्यां न ज्ञानस्य कर्तृकर्मभावस्तदा नास्य स्वरूपसंवेदितत्वमिति शक्रस्यापि दुरतिक्रमम् । सति च स्वसंविदितत्वे नियमात्स्वभाववैचित्र्येण कर्तृकर्मभाव इति । एतेन यदप्युच्यते गगनतलवालोकवदकर्मकत्वं स्वयमेवैतत् प्रकाशत इत्यादि । तदपि ५ प्रतिक्षिप्तम् । यतः प्रकाशमानं तद्बोधरूपं न चाबुद्धयमानस्य बोधरूपता सङ्गतेत्यात्मबोधोऽभ्युपेयस्तथा च सत्युक्तदोषानतिवृत्तिः । एवमपरोक्षस्वभावमित्याधुक्तावपि स्वप्रत्यक्षस्वभावमित्यादिशक्यार्थापत्तित उक्तदोषानतिवृत्तिरेव । तस्मात्यारमार्थिकमस्त्येव ज्ञाने ग्राह्यत्वं ग्राहकत्वं चेति । ___ यत्तु तथाप्रतीतिव्यवस्था पुनरनादिवासनासामर्थ्यादेवोपपद्यत प्रतीतिव्यवस्थानादिवा- इत्यवादि । तदपि नावदातम् । यतो वासनेयमसनासामदेिवापप- वस्तु वस्तु वा । यदवस्तु, तमुवस्तुनः सकाशाद्यत इति बौद्धमतस्य
' खण्डनम् । देव प्रतीतिरिति रिक्ता बाचोयुक्तिः । अथ वस्तु, एवमपि ज्ञानादव्यतिरिक्ता व्यतिरिक्ता वा सा स्यात् । आद्य१५ भेदेऽस्याः कथं यथोक्तप्रतीतिव्यवस्थानिबन्धनत्वमुपपद्यते । उपपत्तौ
वा न कदाचिदम्रान्तता बोधस्य स्यात् । ज्ञानाध्यतिरेके वा संज्ञाते भेदमानं भवेदर्थो वासनेति । एतेन धर्मोत्तरेण यदभिदधे, "तस्मादविद्याशक्तियुक्तं ज्ञानमसत्यरूपमादर्शयतीत्यविद्यावशात् प्रकाशत इत्युच्यत इत्यनवयम्" इति । तदप्यविद्याशक्तेर्ज्ञानाद्भेदाभेदपक्षाभ्यां विचार्यमाणाया अयुज्यमानत्वान्निरस्तमवसेयम् । यच्च ननु ज्ञानेन नीलाद्याकारस्येत्याद्याशंक्य वासनासामर्थ्यादेवेत्याद्यभिधदे। तदप्यसाधु । वासनाया निराकृतत्वात् । तस्मान्न बाह्याभावे ज्ञाने नीलाद्याकारोऽपि घटते । ननु स्वापादिदशायां बहिरर्थरूपनिमित्ताभावेऽपि नीलाद्याकार
भ्रान्तिरुल्लसतीत्युक्तम् । उक्तमेतत्किन्त्वयुक्तम्। तत्रापि परम्परया बाह्यार्थ२५ स्य व्यापारात् । न ह्यननुभूतेऽर्थे स्वामः कदाचित्किञ्चिदुरपद्यते । अथाननु
. १'च' इति. प. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः.
१७१ भूतेऽपि । स्वशिरश्छेदादौ स्वप्नदशायां ज्ञानमुत्पद्यत एवेत्युच्यते । तदप्यचारु । तत्रापि हि परशिरश्छेदो दृष्टः स्वशरीरं चानुभूतमतो दोषवशात्तु विवेकमपश्यन्नात्मशरीरे परशिरश्च्छेदमभिमन्यते । ततस्तत्राप्यनुभूतो बाह्यार्थ एव निमित्तम् । न ह्यननुभूतपरशिरश्छेदस्य तदपि संवेदनमुदयते । गन्धर्वनगरज्ञानेऽपि हि बहिर्वर्तिनः परमार्थतः सन्तः पाथोदा एवान्याकारतया कुतोऽपि भ्रान्तिनिबन्धनात् प्रतिभासन्ते । ततस्तदपि नानिमित्तम् बाह्यार्थापलापे च कथं प्रतिनियतदेशकालप्रमातृनिष्ठत्वेन रूपादिसंवेदनमुत्पद्येत । नियामकबाह्यार्थविरहेण सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामनियमेनैव तत्प्रसक्तेः । कथं वा तत्रैव प्रदेशे तदवस्थस्य तस्यैव प्रमातुः कदाचिदुपाजयेत कदाचिन्न । कथं वा तिमिरान्तरित न्यनस्यैव प्रमातुः सन्ताने व्योन्नि १० कुन्तलकलापालोकनं न पुनरितरेषाम् । कथं वा समानेऽप्यर्थाभावे .. तैमिरिकोपलब्धैरेव कुन्तलैः कार्य न क्रियते न त्वन्यैः । कथं वा जातिनियमसिद्धिः । बोधमात्रे हि विश्वे नियमकारणाभावात्कुरङ्गोऽपि तुरङ्गस्तुरङ्गोऽपि कुरङ्गः कलभोऽपि शलभः शलभोऽपि कलमः करभोऽपि शरभः शरभोऽपि करभः स्यात् । बाह्यार्थाङ्गीकारे तु तन्नियमः सुघट १५ एव । येन हि तुरंङ्गत्वजात्युपभोग्यसुखदुःखादिकारणं कर्म कृतपूर्व स तत्परिणाममाहात्म्यात्तामेव जाति समाश्रयते । एवमपरेऽपि जन्मिनस्तकर्मसामर्थ्यात्तां तां जाति भजन्त इति । एवं सौगत युक्तयस्तव हठान्निर्मूलमुन्मूलिताः
प्रोक्ताः शैलसुनिश्चलाः पुनरमूर्वाह्याथसंसिद्धये । योगाचारमतप्रपञ्चचतुरोऽप्येतर्हि तस्मादहो
तूष्णीं तिष्ठ सुनिश्चितो ननु मया कश्चिद्भवान् वञ्चकः॥१६१॥
ततश्च--
अनुभववसुधायामत्र लब्धप्रतिष्ठः
प्रबलविविधयुक्तिप्रौढराज्ञीमनोज्ञः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. १६ प्रकटितनिजमूर्तिर्बाह्यभावः सितादि
नूप इव निजराज्यं तन्त्रयित्वात्मकार्यम् ।। १६२ ॥ चित्रप्रतिभासामप्येका बुद्धिं विनाऽपि बाधेन ।
इह मन्यन्ते केचित् कुवासनातः सुगतशिष्याः॥१६३॥ तथाहि । ते एवमाहुः । ज्ञानमेवेदं नीलाद्यनेकाकाराकान्तं चित्रमेचित्राकारैका बुद्धिरेव नतु
___कमाभासते न पुनस्तदतिरिक्तमूर्तिीलादिश्चित्रो बायोऽर्थः कश्चित्तत्साधक-बाह्यार्थः । तत्सद्भावे प्रमाणाभावात् । यस्य हि प्रमाणाभावादिति बौद्ध सद्भाचे प्रमाणं न विद्यते तन्नास्ति यथा तुरङ्गकदेशिनो मतस्योपपादनपूर्वक खण्डनम् । शृङ्गं नास्ति च नीलादिचित्रबाह्यार्थसद्भावे
किञ्चित्प्रमाणमिति । न च प्रमाणाभावरूपो हेतुरत्रासिद्धः । तथाहि तथ्यवस्थापकं प्रमाणं किं प्रमेयात्पूर्वकालभावि स्यादुतस्विदुत्तरकालभावि समकालभावि वा । प्रथमपक्षे कथमस्य प्रमेयव्यवस्थापकता । तमन्तरेणैवोत्पद्यमानत्वात् व्योमकुसुमज्ञानवत् । द्वितीयपक्षे तु प्रमाणात्पूर्वकालवृत्तित्वं नीलादेः प्रमेयस्य कुतश्चित्प्रतिपन्नं न वा । यदि न प्रतिपन्नम् । कथं सद्यवहारविषयः कूर्मरोमवत् । अथ प्रतिपन्नम् । तत्किं स्वतः परतो वा। यदि स्वतः । कथमस्य ज्ञानाद्भेदः । तस्यैव स्वतोऽवभासलक्षणत्वात् । अथ परतः । तन्न । प्रमाणाव्यतिरिक्तस्य प्रमेयव्यवस्थाहेतोः परस्यासम्भवात् । अथ प्रमाणमेव प्रमेयस्य पूर्वकालवृत्तित्वं प्रकाशयति । तन्न । तस्य स्वयमसतः प्रमेयकाले तत्प्रकाशकत्वायोगात् । समकालत्वे तु प्रमाणप्रमेययोः सव्येतरगोविषाणवत् ग्राह्यग्राहकभावाभावः । न च प्रमाणे नीलाद्याकारानुरागप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या तदनुरञ्जको बहिश्चित्रोऽर्थः समस्तीत्यभिधातव्यम् । स्वप्नदशायां तदभावेऽपि तदनुरागप्रतीतेः । तथाहि--
१'सूत्रयित्वा' इति भ. पुस्तके पाठः।
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१७३ दर्पप्रोद्भुरगन्धसिन्धुरघटासङ्घट्टसण्टङ्कितं
तुङ्ग तुङ्गतुरङ्गभङ्गुरगुरुग्रीवाविलासोज्ज्वलम् । दिव्यस्यन्दनवृन्दसुन्दरगुरुप्रेसत्पदातिव्रजं
साम्राज्यं कुरुतेऽत्र कश्चन किल स्वप्ने प्रमोदाञ्चितः ॥१६॥ न च तद्दशाभाविनि करितुरगादिप्रत्ययेऽनुरञ्जको बहिरर्थोऽस्ति । स्वप्ने- ५ तरप्रत्ययानामविशेषप्रसङ्गात् । अतो बुद्धिरेवार्थनिरपेक्षा स्वसामग्रीतो विचित्राकारोछरिता यथा स्वमदशायामुपजायते तथा जाग्रदशायामपि नन्वेवमप्येकस्या बुद्धेविचित्राकारतया प्रतिभासमानायाः कथमेकत्वं युक्तमित्यप्यचोद्यम् । अशक्यविवेचनतस्तस्यास्तदविरोधात् । तदुक्तं " नीलादिश्चित्रविज्ञाने ज्ञानोपाधिरनन्यभाछ । अशक्यदर्शनस्तं हि १०. पतत्यर्थे विवेचयन् ॥१॥" अत्र देवेन्द्रव्याख्या । चित्रज्ञाने हि यो नीलादिः प्रत्यवभासते ज्ञानोपाधिः । ज्ञानविशेषणः अनुभवस्वात्मभूत इति यावत् । स एवैकोऽनन्यभाक् तज्ज्ञानस्वभावत्वादन्यमर्थं ज्ञानवदेव न भजते । तादृशश्च सन्नसौ तच्चित्रदर्शनप्रतिभासी तदन्यपीतादिप्रतिभासविवेकेन न केवलः शक्यते द्रष्टुम्, तस्मिन् प्रतिभासमाने १५ सर्वेषामेव तज्ज्ञानतया तदन्येषामपि नियोगतः प्रतिभासनात् । तस्माद्यदैवैकं नीलादिकमाकारं तदन्येभ्यः पीतादिभ्योऽयं नील इति ज्ञानान्तरेण विवेचयति प्रमाता तदैव तथा विवेचयन्नसौ न तज्ज्ञानमामृशत्यतद्रूपत्वात् तस्य । किं तीर्थे पतति । अर्थ एव तज्ज्ञानं प्रवृत्तं भवतीत्यर्थः । तस्मादेकस्मिन्नप्याकारे प्रतिभासमाने सर्वमाभाति २० न वा किञ्चिदपीत्यशक्यो विवेकतो दर्शने नीलादिप्रतिभास इति । ननु नीलादिर्बहिश्चित्ररूपतया प्रतीयते तस्याः कुतो ज्ञानधर्मतेति चेत् । अर्थधर्मत्वानुपपत्तेरिति ब्रूमः । तथाहि नीलादिकमवयविरूपमेक वस्तु स्यात्तद्विपरीत वा । प्रथमपक्षे नीलभागे गृह्यमाणे तदितरभागानामग्रहणं न स्यात् । तेषां ततो भेदप्रसङ्गात् । तथा चावयविनोऽ- २५
१ 'त्वङ्गत्' इति प. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ प्येकरूपतानुपपत्तिविरुद्धधर्माध्यासात् जलानलवत् । नीलभागस्य तदितरभागात्मकत्वाद्वा तदग्रहे तस्याप्यग्रहणमेव स्यात् पीताद्यग्रहे तत्स्वरूपवत् । तद्विपरीतत्वपक्षे तु नीलादेः सिद्धः स्वयमेव चित्रतापायो विभिन्नाश्रयवृत्तिनीलपीतादिवत् । तन्नार्थधर्मता । किन्तु ज्ञान५ धर्मता । स्वकारणकलापाद्विज्ञानमुपजायमानमनेकाकारखचितमेवोप
जायतेऽनुभूयते च । ततस्तथाभूत ज्ञानमेवैकं तत्त्वमिति चित्राद्वैतसिद्धिः। सुखादेस्तु ज्ञानाभिन्नहेतुजत्वेनापि ज्ञानात्मकत्वोपपत्तिः । तथाहि ज्ञानात्मकाः सुखादयो ज्ञानाभिन्नहेतुजत्वाज्ज्ञानान्तरवत् । तदुक्तम् ।
"तदतदूपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः । तत्सुखादिकं विज्ञानं १० विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ॥ १॥” इति । एवं च
एकं चित्रं बहिरिह यतो वस्तुभूतं न किञ्चि
'न्मानारूढं कथमपि घटाकोटिमायाति तस्मात् । चित्रामेकां धियभनुभवेनैव संवेद्यमानां
मुक्त्वा मिथ्याभिमतिमधुना किं न भोः स्वीकुरुध्ये ॥१६५॥ चित्राकारामेकां बुद्धिं बाह्यार्थमन्तरेणापि ॥
इत्थं ये प्रतिपन्नाः सम्प्रति तेषामियं शिक्षा ।। १६६ ॥ तथाहि यत्तावदुक्तम् तब्यवस्थापकं प्रमाणं किं प्रमेयात्पूर्वकालभावि स्यादित्यादि । तदशिक्षितोत्प्रेक्षितम् । प्रकाशकस्य पूर्वोत्तर.. सहभावनियमाभावात् । तथाहि कचित् पूर्व विद्यमानपदार्थः पश्चाद्धा२० विनः प्रकाश्यस्य प्रकाशको भवति । यथा कृत्तिकोदयः शकटो
दयस्य । क्वचिच्च पूर्वं सतः पश्चाद्भवन्प्रकाशको दृष्टो, यथा शकटोदयः कृत्तिकोदयस्य । क्वचित्पुनः प्रकाशकः समकालमवलोक्यते यथा कृतकत्वादिरनित्यत्वादेः । अतः प्रमाणं पूर्वोत्तरसहभावनियमानपेक्षं
वस्तु प्रकाशति प्रकाशकत्वात् । ततश्च यस्य हि सद्भावे प्रमाणं न विद्यते २५ इत्याद्यनुमाने प्रमाणाभावरूपो हेतुरसिद्धः । यच्चान्यदुक्तं स्वग्नदशायां
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परि. १ सू. १६ स्याद्वादरत्नाकरसहितः तदभावेऽपि तदनुरागप्रतीतेरित्यादि । तदपि प्रलापमात्रम् । स्वप्नज्ञानेऽपि बाह्यार्थविषयत्वस्य पूर्वमेव विपर्ययविचारावसरे प्रसाधितत्वात् प्रसाधयिष्यमाणत्वाच्चानन्तरमेव माध्यमिकमतविचारप्रस्तावे .। यदप्युक्तं, अशक्यविवेचनतस्तस्यास्तदविरोधादित्यादि। तदप्यनुपपन्नम् । बाह्यस्यापि द्रव्यस्य चित्तपर्यायात्मकस्याशक्यविवेचनत्वाविशेषाच्चित्रैकरूपतापत्तेः। ५ यथैव हि ज्ञानस्याकारास्ततो विवेचयितुमशक्यास्तथा पुद्गलादेरपि रूपादयः । नानारत्नराशौ बाह्ये पद्मरागमणिरयं चन्द्रकान्तमणिश्चायमिति विवेचनं प्रतीतमेवेति चेत् तर्हि नीलाद्याकारैकज्ञानेऽपि नीलाकारोऽयं पीताकारश्चायमिति विवेचनं किं न प्रतीतम् । चित्रप्रतिभासकाले तन्न प्रतीयन्त एव पश्चात्तु नीलाद्याभासानि ज्ञानान्तराण्यविद्योदया- १० द्विवेकेन प्रतीयन्त इति चेत् । तर्हि मणिराशिप्रतिभासकाले पद्मरागादिविवेचनं न प्रतीयत एव पश्चात्तु तत्प्रतीतिरविद्योदयादिति शक्यं वक्तुम् मणिराशेर्देशभेदेन विभजनं विवेचनमिति चेत् । एतदन्यत्रापि समानम् । एकज्ञानाकारेषु तदभाव इति चेत् । मैवम् । तदभावस्यासिद्धत्वात् । चित्रज्ञानेऽपि नीलाद्याकाराणामन्योन्यदेशपरिहारेण स्थितत्वात् । एकदेशत्वे पुनरेकाकार एव समस्ताकाराणामनुप्रवेशप्रसङ्गतस्तद्वैलक्षण्याभावात्तच्चित्रता विरुद्धयेत । तथाहि यदेकदेशं न तस्याकारवैलक्षण्यं यथैकनीलाकारस्य । एकदेशाश्च ज्ञाने नीलाद्याकारा इति । तथा यत्राकारावैलक्षण्यं न तत्र चित्ररूपता यथैकनीलज्ञाने । आकारावैलक्षण्यं चैकदेशतयाभिमतानां नीलाद्या- २० काराणामिति । सिद्धयतु वैकज्ञानाकारेषु देशभेदेन विभजनाभावः । किन्त्वेकमण्याकारेप्वप्यसौ समस्त्येव । मणेरेकस्य खण्डने तदाकारेषु देशभेदेन विभजनमस्तीति चेत् । ज्ञानस्यास्य वुद्धथा खण्डने तदस्त्येव । पराण्येव ज्ञानानि तानि तत्खण्डने तथेति चेत् । पराण्येव मणिखण्डद्रव्याणि मणिखण्डने तानीति समानम् ! नन्वेवं चित्रज्ञानं ।।
१५
१. तत्प्रतीयत एव' इति प. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. १६ विवेचयन्नर्थे पततीति तदविवेचनमेवेति चेत् । तयेकत्वपरिणतद्रव्याकारानेवं विवेचयन्नानाद्रव्याकारेषु पततीति तदविवेचनमस्तु । ततो यथैव ज्ञानाकाराणामशक्यविवेचनत्वं तथैव पुद्गलादिद्रव्याकाराणामपीति ज्ञानमिव बाघमपि सिद्धयत्कथं प्रतिषेध्यं येन चित्राद्वैतं सिद्धयेत् । अथ बाह्यस्य विवेच्यमानस्यानुपपद्यमानत्वाज्ज्ञानस्यैव चित्ररूपता सिद्धयति नार्थस्येति चेत् । मैवम् । एवं हि ज्ञानस्यैवाभावः प्रसज्यते । यतः स्वसंविदितचित्रज्ञानवादिमते ज्ञानमेवोपलम्भयोग्यत्वाद्विवेचयितुं शक्यते । बाह्यं पुनरत्यन्तानुपलभ्यस्वभावं कथं
विवेच्यताम् । न खल्वनालोक्य लोकः सुरलोकविकसत्पारिजातमञ्जरी१० मञ्जुकिञ्जल्कपुञ्जपिञ्जरतायाः स्वरूपं विवेचयितुं शक्नोति । ज्ञाना
कारस्य बाह्यत्वेनामिमतस्य दृश्यत्वाद्विवेचनोपपत्तिरिति चेत् । किं तद्विवेचनात्तस्यैवाभावोऽन्यस्य वा । न तावत्तस्यैव । ज्ञानस्य निराकारत्वप्रसङ्गात् । ततश्च चित्रैकरूपव्याघातः । नाप्यन्यस्याभावः ।
अन्यविवेचने ह्यन्यस्याभावसिद्धौ त्रैलोक्याभावः स्यात् । किञ्च बाह्य१५ स्यार्थस्य विवेचनं ज्ञानविषयत्वमुच्यते यस्य च ज्ञानविषयत्वं तस्य
कुतोऽसत्त्वम् । सन्तानान्तरस्याप्यभावप्रसक्तेः । भ्रान्तितो बाह्यार्थस्य ज्ञानविषयत्वमिति चेत् । प्रान्तं तर्हि विवेचनं ततोऽप्रमाणत्वान्नासत्त्वसाधकम् । भ्रान्तिरप्यर्थसम्बन्धतः प्रमेति चेत् । तदसत् । बाह्यार्थेन सह भ्रान्तेः सम्बन्धाभावात् । सम्बन्धे वा न तस्यासत्त्वमिति । अपि च नीलादेरवयविनोऽवयवबुद्धया विवेच्यमानस्यासत्त्वमुच्यतेऽवयविबुद्धया वा । न तावद्वयविबुद्धया । तस्यास्तत्सत्त्वगृहीतिरूपत्वान्नीलादिबुद्धिवत् । यदि पुनस्तत्सत्त्वबुद्धया तदसत्त्वं व्यवस्थाप्यते । तदा तदसत्त्वबुद्धया तत्सत्त्वं व्यवस्थाप्यत इत्यपि स्यात्ततः साध्वी
व्यवस्थितिः । अथ तदसत्त्वबुद्धया विवेच्यमानस्य तस्यासत्त्वमभि२५ धीयते । भवत्वेवं यत्र तदसत्त्वबुद्धिरभ्रान्तास्ति । न च सर्वत्र पटाद्यसत्त्व
बुद्धिरभ्रान्ता भवति ततो न सर्वत्रासत्त्वसिद्धिः । अथावयवबुद्धया
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परि. १ सू. १६ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
विवेच्यमानस्यासत्त्वम् । तदप्यसत्यम् । यतोऽवयवबुद्धिर्नावयविनः सत्त्वं विधातुं प्रतिषेद्धुं वा शक्नोति । तदविषयत्वात्तस्याः । अथावयवेषूपलभ्यमानेष्ववयवी नोपलभ्यते ततोऽसौ नास्त्येवेति । एवं तर्हि स्वज्ञाने समुपलभ्यमाने पुरुषान्तरज्ञानं नोपलभ्यतेऽतस्तस्याप्यभावः स्यात् । पुरुषान्तरेण स्वज्ञानस्योपलम्भान्नाभाव इति चेत् । एवं तर्ह्यवयविनोऽप्युप- ५ लम्भान्तरेणोपलम्भभावान्नाभावः । प्रतिभाति हि लौकिकानां तन्तुभ्यः कथञ्चिद्व्यतिरिक्तस्तत्समुदायात्मकः पट इति । भ्रान्तिरेषा तेषामिति चेत् । नैवम् । सर्वलोकव्यवहाराविसंवादिनी खल्वेषा प्रतीतिर्बहुभिस्तन्तुभिरयमेकः कथंचिदात्मभूतः पटो निष्पादित इति कथं भ्रान्तिः स्यादिति न शक्यविवेचनत्वादवयविन एकत्वम पोतुमशक्यविवेचन- १० त्वात्तु चित्रज्ञानस्याभ्युपगन्तुं युक्तम् । किञ्चैते नीलाद्याकाराश्चित्रज्ञाने सम्बद्धाः सन्तस्तद्व्यपदेशहेतवोऽसम्बद्धा वा । न तावदसम्बद्धाः I अतिप्रसङ्गात् । अथ सम्बद्धाः, किं तादात्म्येन तदुत्पत्त्या वा । न तावत्तदुत्पत्त्या, समसमयवर्त्तिनां सीमन्तिनीनयनयुग्मवत् तदसम्भवात् । नापि तादात्म्येन, ज्ञानस्यानेकाकाराव्यतिरिच्यमानरूपत्वेनैकरूपत्वाभावप्रसङ्गात् । अनेकाकाराणां चैकस्माज्ज्ञानस्वरूपादव्यतिरेकादनेकत्वानुपपत्तिः । यदप्युक्तमर्थधर्मत्वानुपपत्तेरिति, तदपि प्रत्यक्षबाधितम् । चित्रपटादिबाह्यार्थधर्मतया हावाधिताध्यक्षप्रत्यये चित्राकारः प्रतिभासते इति न तस्य ज्ञानधर्मता युक्ता । अतिप्रसक्तेः । यदप्यवादि नीलादिकमवयविरूपमेकं वस्तु स्यात्तद्विपरीतं वेत्यादि । तदपि प्रलापमात्रम् । सर्वथैकत्वानेकत्वयोरस्वीकारात् । न चानयोः कथञ्चित्स्वीकारे विरोधो वाच्यः । चित्रज्ञानेऽप्येवं विरोधप्रसङ्गात् । तथाहि तदेकं वा सदनेकाकारं तद्विपरीतं वा । न तावदाद्यविकल्पो युक्तः । एकस्य परस्परविरुद्धाकारैस्तादात्म्यायोगात्तावद्भिः प्रकारैस्तस्यापि भेदप्रसङ्गात् । प्रयोगो यदेकं न तस्य परस्परविरुद्धाकारैः सह तादात्म्यं यथोत्पन्नस्य २५ क्षणस्योत्पत्त्यनुत्पत्तिभ्यां सत्त्वविनाशाभ्यां वा । एकं च चित्रज्ञानं
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१५
ܪ
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ भवद्भिरभिप्रेतमिति । आकाराणां वा चित्रैकज्ञानतादात्म्यादनेकत्वाभावः स्यात् । अथ नीलाद्याकारवत्तज्ज्ञानमप्यनेकमिप्यते । तदापि किं कथञ्चित्सर्वथा वा । यदि सर्वथा तदा तज्ज्ञानानां परस्परमत्यन्तभेदाच्चित्रप्रतिपत्तिः स्वभेऽपि न प्राप्नोति । सन्तानान्तरज्ञानवत् । ५ कथञ्चिद्भेदे तु ज्ञानवद्वहिरर्थस्यापि स्वाकारैर्विचित्रैः कथंचित्तादात्म्यमनुभवतः प्रत्यक्षादिप्रमाणेन प्रतीयमानस्य चित्रस्वभावतेष्यतां किं कदाग्रहेण । यतः--
पर्यनुयोगपराकृतिमार्गचित्रमतौ तब हन्त मतो यः ।
. एष सखे सकलोऽपि समानश्चित्रबहिर्भववस्तुनि भाति ॥१६७।। १० यदप्युक्तं ज्ञानात्मकाः सुखादयो ज्ञानाभिन्नहेतुजत्वादित्यादि ।
तत्र हेतुरनैकान्तिकः । यतः कुम्भादिभङ्गजः शब्दः कपालखण्डादिना तुल्यहेतुजो न च तद्रूपः । किं च सर्वथा ज्ञानाभिन्नहेतुजत्वं तेषामभिप्रेतमायुप्मतः कथञ्चिद्वा । प्रथमपक्षे हेतुरसिद्धः । सुखादीनां
विशिष्टादृष्टविपाकस्रग्वनितादिनिमित्तजन्यत्वात्, तस्य चादृष्टविशेष१५ विलयेन्द्रियादिकारणकलापप्रभवत्वात् । विभिन्नस्वभावत्वाच्चामीषां
सर्वथा ज्ञानाभिन्नहेतुजत्वमनुपपन्नम् । तथाहि येषां विभिन्नस्वभावत्वं न तेषां सर्वथाप्यभिन्नजत्वं यथा जलानलादीनां विमिन्नस्वभावत्वं च ज्ञानसुखादीनामिति । न चात्र हेतोरसिद्धिः। सुखादेराह्लादनाद्याकारत्वाज्ज्ञानस्य च प्रमेयानुभवस्वभावत्वात् । उक्तं च “ सुखमाादना२० कारं विज्ञानं मेयबोधनम्" इति । अथ कथञ्चिद्विज्ञानाभिन्नहेतुजवं विवक्षितम् । तद्रूपालोकादिना विज्ञानसहभाविना क्षणान्तरेणानैकान्तिकम् । यथैव बहीरूपालोकादेः सकाशाद्विज्ञानस्योत्पत्तिस्तथा रूपालोकादिक्षणान्तरस्यापि न च तस्य विज्ञानादभेदः । अपि
चोपादानकारणापेक्षया सुखादीनां विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वमुच्यते सहका२५ रिकारणापेक्षया वा । तत्राये पक्षे किमेषामभिन्नमुपादानकारणमात्मद्रव्यं
ज्ञानक्षणो वा । न तावदात्मद्रव्यमनङ्गीकारात् अङ्गीकारे वा कुम्भादिभि
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परि. १ सू. १६ ]
र्व्यभिचारः। न ह्यभिन्नोपादानानां घटघटीशरावोदञ्चनादीनां स्वरूपेणाभेदोऽस्ति अथ ज्ञानक्षणोपादानत्वं विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वं सुखादीनां मतम् । तदसिद्धम् । आत्मद्रव्योपादानत्वात्तेषाम् । न खलु पर्यायाणां पर्यायान्तरोत्पत्तौ उपादानत्वं क्वचिद्दष्टम् । द्रव्यस्यैवान्तर्बहिर्वोपादानत्वोपपत्तेः । तदुक्तम्। “ त्यक्तात्यक्तात्मरूपं यत्पौर्वापर्येण वर्त्तते । कालयेsपि तद्द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ॥ १ ॥ " इति आत्मद्रव्यं च पुरतः सविस्तरमात्मसिद्धिप्रस्तावे प्रसाधयिष्यते । अथ सहकारिकारणापेक्षयाभिन्नहेतुत्वं सुखादीनां विवक्षितम् । तदपि स्वविवक्षामात्रम् । तस्य रूपाठोकादिभिरनैकान्तिकत्वप्रतिपादनात् । यदि च सुखादयो ज्ञानात्सर्वथाप्यभिन्नास्तर्हि तद्वदेवैषामप्यर्थप्रकाशकत्वं स्यात् । न चात्र १० तदस्ति । सुखादीनामपि स्वज्ञानप्रकाश्यत्वेन बहिरर्थाविशिष्टत्वादतो विरुद्धधर्माध्यासात्कथमत्रामेदो जलानलवत् । तदेवं सुखादीनां ज्ञानरूपत्वाप्रसिद्धेस्तदतद्रूपिणो भावा इत्यादिवचः परिप्लवत इति ।
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
बहिश्चित्रं रूपं तदिदमधुना सिद्धिसदनं समारोपि प्रौढस्फुरदतुलयुक्तिव्यतिकरात् ।
धियं चित्रामेकां तत इह कथं बाह्यविरहे
प्रपद्यध्वे यूयं प्रमितिरहितं भोः कुगतयः ॥ १६८ ॥ अन्तर्बहिर्वा न हि तत्समस्ति यच्चित्रालिङ्गितमूर्ति वस्तु । बुद्धिर्निरालम्बनतामुपेता तत्त्वं विशुद्धेति वदन्ति केचित् ॥ १६९ ॥
१७९
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१५
तथाहि माध्यमिकाः प्राहुः । चित्रज्ञाने नीलाद्याकारप्रतिभासस्या- २० अनार्बहिर्वा चित्रं वस्तु ना-विद्याशिल्पिकल्पितत्वादतात्त्विकत्वमेव । ज्ञानस्ति किन्तु निरालम्बना मात्रस्यैवैकस्य मध्यमक्षणस्वरूपस्य प्रतीतिसरबुद्धिरेवेति माध्यमिकमत -
स्य सविस्तरं खण्डनम् । णिसमधिरूढस्य तात्त्विकत्वम् । नीलाद्याकारणां हि तस्मादभेदो भेदो वा भवेत् । आद्यपक्षेऽनेकत्वविरोधस्तेषाम् । दक्षे तु प्रतिभासा सम्भवः । ज्ञानाद्भिन्नत्वेन जडत्वात्तेषाम् । अथ २५
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प्रमाणनयतत्त्ववालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १६
तेऽपि प्रतिभासन्ते तर्हि तेषां संवेदनान्तरत्वापत्तिः । ततः कथं ज्ञान
स्यैकस्य चित्रता स्यात् । तदुक्तम् ।
" किं स्यात्सा चित्रतैकस्यां न स्यात्तस्यां मतावपि । यदीदं स्वयमर्थानां रोचते तत्र के वयम् ॥ १ ॥ "
अत्र देवेन्द्रव्याख्या । यदि नामैकस्यां मेतौ न सा चित्रता भावतः स्यात् । किं स्यात् को दोषः स्यात् । तथा च भावतश्चित्रया मत्या भावा अपि चित्राः सिद्धयन्ति । तद्वदेव च सत्या भविष्यन्तीति प्रष्टुरभिप्रायः । शास्त्रकार आह न स्यात्तस्यां मतावपि इति । व्याहतमेतत् एका चित्रा चेति । एकत्वे हि सत्यनानारूपापि वस्तुतो १० नानाकारतया प्रत्यवभासते न पुनर्भावतस्ते तस्या आकाराः सन्तीति बलादेष्टव्यम् । एकत्वहानिप्रसङ्गात् । न हि नानात्वैकत्वयोः स्थितेरन्यः कश्चिदाश्रयोऽन्यत्र भाविकाभ्यामाकारभेदाभेदाभ्याम् । तत्र यदि बुद्धिर्भावितो नानाकारैका चेप्यते तदा सकलं विश्वमप्येकं द्रव्यं स्यात् । तथा च सहोत्पत्त्यादिदोषः । तस्मान्नैकानेकाकारा | किन्तु १५ यदीदं स्वयमर्थानां रोचतेऽतद्रूपाणामपि सतां यदेतत्ताद्रव्येण प्रख्यानं तदेतद्वस्तुत एव स्थितं तत्त्वमिति । तत्र के वयं निषेद्धार एवमस्त्वित्यनुमन्यन्त इति । न च ज्ञाने चित्ररूपताया अपाये तत्स्वरूपप्रतिपत्तिविरुद्धयते । तदुपायेऽपि स्वरूपस्य स्वतो गतेरुपपत्तेः । संवेदनमात्रतापाय एव तद्विरोधात् । न चानेकत्वप्रतिभास: संवेदने तात्त्विका२० नेकत्वे सत्येवोपपद्यत इति प्रेर्यम् । स्वमदशायां तदभावेऽपि तदर्शनात् । अतः संवेदनमात्रमेवालम्बनप्रत्ययरहितं तत्त्वम् । प्रयोगश्च । ये प्रत्ययास्ते निरालम्बना यथा स्वमप्रत्ययाः प्रत्ययाश्च विवादापन्नाः । न चालम्बनीभूतार्थप्रसाधकं किंचित्प्रमाणमस्ति । यतस्तद्वाध्यत्वमत्र पक्षस्य स्यात् । मध्यमक्षणस्वरूप संविद्व्यतिरिक्तेऽर्थे समकालस्य भिन्नकालस्य वा तस्य २५ प्रवृत्त्यनुपपत्तेः । ततः सैव परमार्थसती मध्यमा
प्रतिपत्तिः
१' मतौ ' इत्यतः ' तस्यां ' इति यावत् भ. पुस्तके नास्ति ।
છૂટય
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः सर्वधर्मनिरात्मता शून्यता च प्रोच्यते । तदाह । “ मध्यमा प्रतिपत्सव सर्वधर्मनिरात्मता । भूतकोटिश्च सैवेयं मध्यता सैव शून्यता” इति । सर्वधर्मराहितता च शून्यताऽपरपर्यायाऽर्थानामेकानेकस्वरूपविचारासहत्वात्सिद्धा । आत्मादिपदार्थानां छेकरूपतयोपगतानां क्रमवद्विज्ञानादिकार्योपयोगित्वाभ्युपगमे तावद्वा भेदप्रसङ्गात् ५ नैकरूपतावतिष्ठते । अनेकरूपता तु नित्यैकरूपतयोपगतत्वात् नितरां नावतिष्ठते । अत:
यथा जराजर्जरपञ्जरााण क्षणेन नश्यन्ति दृढप्रहारात् । द्रुतं तथैते विशरारुभावं भजन्ति भावा अपि सद्विचारात् ॥१७॥ इति सिद्धं तेषां तद्विचारासहत्वम् । यथोक्तम् ।
भावा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः । यस्मादेकमनेकं च रूपं तेषां न विद्यते ॥ १ ॥ तदेतनूनमायातं यद्वदन्ति विपश्चितः ॥
यथा यथार्थाश्चिन्त्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा ॥२॥" इति । उत्पादादिधर्मरहिताश्चैते तद्रूपतयाऽपि विचारासहत्वाविशे- १५ षात् । तथाहि भावाः स्वतः परतः उभाभ्यां अनिमित्ता वा समुत्पद्यन्ते । न तावत् स्वतः । कारणनैरपेक्ष्येणोत्पद्यमानानां तेषां देशादिनियमाभावग्रसक्तेः । परतोऽपि सतामसतां सदसदूपाणां वा भावानामुत्पत्तिर्भवेत् । न तावत् सताम् , कारणवत्तथाविधानामुत्पत्तिविरोधात् । नाप्यसताम्, खपुष्पवत्तेषामप्युत्पत्त्ययोगात् । नापि २० सदसद्रूपाणाम् । सदसद्रूपताया एकत्र विरोधात् । नाप्युभाभ्यामेषामुत्पत्तिः । उभयदोषानुषङ्गात् । अहेतुका तूत्पत्तिर्न केनचिदिष्टा । तदुक्तम् --
" न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः।।
उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन ॥ १॥” २५ १ आदिशब्दात् व्ययध्रौव्ययोर्ग्रहणम् । २ माध्य. का. ४ ।।
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१८२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ इति । एतेन भावानां स्थितिभङ्गावपि प्रत्याख्यातौ । तयोरपि स्वतः परतो वेत्यादिप्राक्तनन्यायेन सद्भावस्वीकारे कारणनैरपेक्ष्येण तिष्ठतां विनश्यतां च भावानां देशादिनियमाभावप्रसङ्गः इत्यादेः प्राक्तन
दूषणस्य समानत्वात् । ततः शुक्तिकाशकलादौ कलधौतादिप्रती५ तिवत्पदार्थेषूत्पादस्थितिमङ्गप्रतीतिर्धान्तिरेव । उक्तं च
" या माया यथा स्वमो गन्धर्वनगरं यथा । तथोत्पादस्तथा स्थानं तथा भङ्ग उदाहृतः ॥ १॥” इति ।
यद्येवमसतां कथं तेषां प्रतिभास इति चेत् । अनाधविद्यावासनाअसतां वस्तूनामविद्याप्रभा-प्रभावात् । करितुरगादीनामसतां मन्त्राद्युपप्लव१० वात्प्रतिभास इति मतस्य सामर्थ्यान्मृच्छकलादौ केषांचित्प्रतिभासवत् ।
खण्डनम् ।
पदाह ।
“ मन्त्रायुपप्लुताक्षाणां यथा मृच्छकलादयः ।
अन्यथैवावभासन्ते तद्रूपरहिता अपि ॥१॥” इति ।
ग्राह्यग्राहकभावादिव्यवहारोऽप्यविद्यानिर्मित एव । बुद्धयात्मन्य१५ विपर्यासितदर्शनानां प्रतिपतॄणां तथाप्रतिभासाभावात् । तदुक्तं
“ अविभागोऽपि बुद्धचात्मा विपर्यासितदर्शने । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥ १॥” इति । खरतरदिनकरकरनिकरसंम्पर्कतस्तुषारनिकुरम्बस्येव तत्त्वज्ञानतः समस्ताविद्या विलासस्य विलये तु ग्राह्यग्राहकभावाद्यखिलधर्मविकलं २. संवित्स्वरूपमात्रमवैभासते । तदाह । “नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति"
इत्यादि । प्रकाशमाना स्वयमेव तस्मादाकारकालुष्यपराङ्मुखीयम् । स्वस्थैव संविद्वत तत्त्वमास्तां मायोपमानं हि समग्रमन्यत् ॥१७१॥
१ माध्य. का. ४. २ 'आभासते' इति भ. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू० १६ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
भो भोः तर्कवितर्कणैकरसिकाः सर्वैरपि श्रूयतातन्माध्यमिकस्य निर्मठतमप्रज्ञासमुज्जृम्भितम् । विश्वस्यानुभवं विहाय कुरुते यत्तर्जनीस्फोटनैमुग्धानां मतिमोहनैरभिनवां तत्त्वव्यवस्थामयम् ॥ १७२॥ तथाहि यत्तावदुक्तं चित्रज्ञाने नीलाद्याकारप्रतिभासस्याविद्याशिल्पिकल्पितत्वादतात्त्विकत्वमित्यादि । तत्र यद्याकारशब्देन सारूप्यमभिधीयते । तदा तदतात्त्विकत्वमभिधीयमानं न नः प्रतिकूलम् । अथार्थग्रहणपरिणामः, तदा कुतोऽयं नीलाद्याकारप्रतिभासोऽविद्यानिबन्धनः, किं बाध्यमानत्वात् गोचरस्यार्थक्रियाकारित्वाभावाद्वा । आद्यविकल्पे न सर्वत्र नीलाद्याकारप्रतिभासस्याविद्यानिबन्धनत्वासिद्धिः । १० यत्र ह्यसौ बाध्यमानस्तत्रैवाविद्यानिबन्धनः स्यात् । यथा मरुस्थल - प्रतिफलितेषु भास्करकिरणेषु पयः प्रतिभासो न पुनः सत्ये पयसि । किञ्चात्र बाधकं येन बाध्यमानत्वान्नीलाद्याकारप्रतिभासस्याविद्यानिबन्धनत्वमभिधीयते । मध्यमक्षणस्वरूपं संन्विन्मात्रं चेत् । कुतस्तसिद्धिः । नीलाद्याकारप्रतिभासानामवास्तवत्वाच्चेत् तर्हि चक्रकम् । १५ नीलाद्याकारप्रतिभासानामवास्तवत्वासिद्धौ हि मध्यमक्षणस्वरूप संविमात्र सिद्धिस्तत्सिद्धौ चाविद्यानिबन्धनत्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ चावास्तवत्वसिद्धिरिति । तद्गोचरस्यार्थक्रियाकारित्वाभावपक्षस्त्वसिद्धो नीलादेस्तद्गोचरस्य लोचनानन्दाद्यर्थक्रिया विधायितयाऽतिप्रतीतत्वात् । तथाहि-
जनयति जनतायाश्चक्षुषां हर्षलक्ष्मीं
૧૮૨
किमपि किल कलापः केकिना दृश्यमानः ।
अयि यदि तदबुद्धे नेयमर्थक्रियास्था
ननु कथय किमन्यत्तर्हि तस्याः स्वरूपम् ॥ १७३ ॥ अथ स्वरूपानुभवनमर्थक्रिया एनां चाकुर्वतो बाह्यस्य नीलादेरसत्त्वात्तद्गोचरप्रतिभासानाम विद्यानिबन्धनत्वमिति चेत् । एवं तर्हि २५
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૨૮૪
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ ज्ञानगतानां नीलाद्याकाराणां स्वरूपानुभवलक्षणार्थक्रियाकारित्वात्सत्त्वसिद्धौ तदुपेतस्य ज्ञानस्य चित्राकारतासिद्धिः प्रसज्यते । न हि निराकारस्य मध्यमक्षणरूपसंविन्मात्रस्य कदाचिदप्यनुभवोऽस्ति । किं च संविन्नीलाद्याकारयोरेकानेकस्वभावयोः प्रतिभासाविशेषेऽपि कुतः सत्येतरत्वप्रविभागः । एकाकारस्यानेकाकारेण विरोधादनेकाकारस्यासत्यत्वे कथमेकाकारस्यासत्यस्य प्रतीतिरितरत्राप्येकाकारस्यैवासत्यत्वं किन्न भवेत् । यथा चाने काकारस्यैकाकारादभेदेऽनेकत्वं विरुद्धयते भेदे तु संवेदनान्तरत्वमनुषज्यते तथैकाकारस्याप्यनेका
कारादभेदे एकत्वं विरुद्धयते भेदे तु संवेदनान्तरत्वमनुषज्यत इति । १० एतेन नीलाद्याकाराणां हि तस्मादभेदो भेदो वा भवेदित्यादि प्रागुक्तं
प्रत्युक्तमवगन्तव्यम् । . एवं च दुर्दर्शनपक्षपाती भिक्षुर्विलक्षः कथमेष न स्यात् । प्रेक्षावतां सम्प्रति यत्समक्षं परीक्ष्य सिद्धिं गमितोऽयमर्थः ॥ १७४ ।।
यदपि ये प्रत्ययास्ते निरालम्बना इत्याद्यनुमानमवादि । तदप्य१५ वद्यम् । यतस्तवायं वाक्योपन्यास एव न प्राप्नोति । परप्रत्यायनाथ
हीदं वाक्यं भवता साधनत्वेनोपन्यस्तं न च भवतः परावबोधोऽस्ति । सत्त्वे वा परावबोधस्यैव सालम्बनत्वात् । तेनैवानेकान्तः साधनस्य । पराप्रतिपत्तौ च कथं तद्गतसर्वप्रत्ययानां प्रत्ययत्वं गृह्यते, नागृहीतपक्षधर्मत्वे हेतुर्गमक इति च भवतामेवोद्गारः । तथायमनुमानप्रत्ययः समस्तं विवादास्पदतयालम्बनीकरोति न वा । यदि करोति, तदा तेनैव व्यभिचारी हेतुः । तस्य प्रत्ययत्वेऽपि सालम्बनत्यादिति कथं सर्वविवादापन्नप्रत्ययानामनालम्बनत्वसिद्धिः । अथ न करोति । तदापि कथं तेषां तत्सिद्धिरनुमानाविषयत्वादिति विस्तरतटीकराल
शाईलान्तरालवर्तिनस्ते कुतः कुशलम् । निरालम्बनस्यैवाम्य प्रमाण२५ त्वाभ्युपगमादयमदोष इति चेत् । तदमनोज्ञम् । निरालम्बनस्य प्रमा
१'च' इत्यधिकं प. म. पुस्तकयोः ।
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परि. १ सू. १६ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१८५ णत्वायोगात् । न हि पारिभाषिकं ज्ञानस्य प्रमाणत्वं निरालम्बनत्वं किं तहि येन प्रत्येयं परिच्छिद्यते तत्प्रमाणम् । यत्र तु न किञ्चित् प्रतिभाति तन्निरालम्बनमुच्यते । तत्कथं नानयोविरोधः । स्वात्मालम्बनापेक्षया निरालम्बनत्वाभिधानाविरोध इति चेत् । तत्किमिदानी स्वात्मापेक्षयैवास्थानुमानत्वम् । एवमिति चेत् । न तर्हि स्वात्मैक- ५ विषयेणानेन प्रत्ययान्तराणां निरालम्बनत्वं वा सिद्धयत्यविषयत्वात् । न हि यो यस्य न विषयः स तेन साधयितुं शक्यते । तत्साधने हि स एव तस्य विषयः स्यात् साध्यलक्षणत्वाद्विषयस्य । तन्नास्यानुमानस्य सर्वप्रत्ययालम्बनत्वे तदनालम्बनत्वे वा प्रवृत्तिः । अपि च निरालम्बनाः प्रत्यया इत्यत्र न किञ्चित्प्रत्ययानामालम्बनमस्तीति १० साध्यार्थो विवक्षितः किं वा बाह्यमालम्बनं नास्तीति यद्वा यथाप्रतिभातोऽर्थो नालम्बनमिति । आद्यपक्षे पटादिपदार्थवरोधमात्रस्याप्यसिद्धेरस्तंगतं जगत्स्यात् । द्वितीयपक्षे त्वात्गख्यातिप्रतिक्षेप एव विसर्जनम् । अथ यथाप्रतिभातार्थानालम्बनत्वं निरालम्बनत्वं उच्यते । एवं तर्हि बोधावभासिनोऽपि प्रत्ययस्य तदालम्बनत्वं न स्यात् । ततश्च १५ बाह्यार्थवत् बोधस्याप्यसिद्धिरिति समायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः । अथ स्वप्ने बाह्यत्वेन प्रतीतस्यार्थस्य प्राप्त्यनुपलम्भेनासत्त्वसिद्धेः । तत्प्रतिभासस्य निरालम्बनत्वसिद्धौ तत्समानरूपोपलक्षणात्सर्वप्रत्ययानां निरालम्बनत्वसिद्धिः। तदपि नोपपन्नम् । समानरूपोपलक्षणासिद्धेः । सर्वत्रार्थापातौ हि समानरूपत्वं सिद्धयति । यदा तु क्वचिदर्थः २० प्राप्यते तदा कुतः समानरूपत्वम् । अथ नैव कचिदर्थप्राप्तिरिति । कुत एतन्निरणायि अर्थाभावादिति चेत् । कुतस्तदभावसिद्धिः । तदुपस्थापकत्वाभिमतप्रत्ययानां निरालम्बनत्वादिति चेत् । न । परस्पराश्रयप्रसक्तेः । अर्थाभावसिद्धौ हि निरालम्बनत्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ चार्थाभावसिद्धिरिति । प्रत्यक्षवाधितत्वं चात्र पक्षे दोषः । जाग्रत्प्रत्य- २५ यानां स्वरूपव्यतिरिक्तभावाद्यर्थकुम्भाद्यर्थसामर्थ्ये द्योतकत्वेन सालम्ब
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प्रमाणनयतत्त्वा लोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १६ नत्वस्य प्रत्यक्षतः प्रतीयमानत्वात् । हेतोश्च स्वरूपासिद्धत्वम् । हेतुस्वरूपग्राहकप्रमाणस्यापि प्रत्ययत्वेन निरालम्बनत्वात् । अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया तग्राहकप्रत्ययस्य सालम्बनत्वमङ्गीक्रियते तर्हि तेनैव प्रत्ययत्वमनैकान्तिकम् । सन्दिग्धानैकान्तिकं च, प्रत्ययत्वसालम्बनत्वयोविरोधासिद्धेः । विरुद्धं वा प्रत्ययत्वस्य सालम्बनत्वेनैव व्याप्तस्य प्रत्ययान्तरालम्बनप्रत्यये दर्शनात् । अथ स प्रत्यय एव नास्ति यः प्रत्ययान्तरालम्बनमिति कथं तत्र विपरीतव्याप्तिप्रतिपत्तिरिति चेत् । तत्किमिदानीं स्वप्नादिप्रत्ययाः पुरुषान्तरप्रत्ययाश्च न प्रतीयन्त एव । तथात्वे हि कथं व्यवहारः । अथ क एवमाह न प्रतीयन्ते । किन्तु १० नालम्बनीभवन्तीति ब्रूम इति चेत् । अहो तवायं तर्कवत्त्वोत्प्रेक्षणप्रकारो यत्प्रतीयन्ते न चालम्बनीभवन्तीति । न हि प्रतीयमानत्वादन्यदेवालम्बनत्वम् । संवेदनस्यापि निरालम्बनत्वप्रसङ्गात् । अपि च प्रतीयते स्वरूपं पररूपं च यैस्ते प्रत्ययास्तद्भावः प्रत्ययत्वं एवं च निरालम्बनत्वविरुद्धेन सालम्बनत्वेनैव प्रत्ययत्वस्य व्याप्तेः कथं न विरुद्धमेतत् । १५ दृष्टान्तश्च साध्यविकलः । स्वमप्रत्ययस्यापि बाह्यार्थालम्बनत्वेन निरालम्बनत्वाप्रसिद्धेः । द्विविधो हि स्वमः सत्यस्तद्विपरीतश्च । प्रथमो देवताविशेषकृतो धम्र्माधिम्र्मकृतो वा कश्चित्साक्षादर्थाव्यभिचारी । यद्देशकालाकारतया स्वमे प्रतिपन्नोऽर्थस्तद्देशकालाकारतया जाग्रदशायां तस्य प्राप्तिसिद्धेः । कश्चित्पुनः परम्परयाऽर्थाव्यभिचारी । राजादि२० दर्शनेन स्वाध्यायनिगदितस्य कुटुम्बवर्धनादेः प्राप्तिहेतुत्वादनुमानवत् । योऽपि वातपित्ताद्युद्रेकजनितोऽसत्यत्वेन प्रसिद्धः स्वमः । सोऽपि नार्थमात्रव्यभिचारी । न हि सर्वथाप्यननुभूतेऽर्थे स्वप्नोऽपि समुपजायत इति न स्वप्नप्रत्ययो निरालम्बनो युक्तः ।
१८६
५
२५
अस्तु स्वममतिर्यद्वा निरालम्बनतास्पदम् ।
तथापि तदवष्टम्भात्साध्यसिद्धिर्न बन्धुरा ॥ १७५ ॥ तथाहि-
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परि. १ सु. १६] स्याद्वादरलाकरसहितः
१८७ इह स्वमावस्थाप्रभवमतिवद्विश्वभवभू
त्प्रतीतीनां सिद्धेद्यदि किल निरालम्बनविधिः । तदा स्वप्नावस्थाविलसदनुमानप्रतिमया ___ भवेन्न भ्रान्तत्वं कथमिव समस्तानुमितिषु ॥ १७६ ॥ अथाप्ययुक्तं किमिवोपजातमेवं सतीति प्रतिपादयेथाः। न किंचिदन्यद्भवदीयमेकं मुक्ता निरालम्बनतानुमानम् ॥ १७७ ।। भ्रान्तं भवत्वेतदथाऽनुमानं तथापि का नाम तवार्थसिद्धिः। मूलाद्विलूने दशकण्ठकण्ठपीठे धूणामधिपस्य यासीत् ॥ १७८ ॥
किं च स्वप्नप्रत्यये साध्यसाधनधर्मग्राहकप्रत्ययस्य निरालम्बनत्वे साध्यसाधनोभयविकलता दृष्टान्तस्य प्रसज्यते । दृष्टान्तग्राहकस्य च १० प्रत्ययस्य निरालम्बनत्वे दृष्टान्तस्यैवाभावादसाधारणानकान्तिकत्वं हेतोः। साध्यभिधम्मोभयप्रत्ययानां निरालम्बनत्वे वाऽप्रसिद्धविशेष्योऽप्रसिविशेषणोऽप्रसिद्धोभयश्च पक्षः स्यात् । अपि च स्वप्नदृष्टान्तेनाखिलप्रत्ययानां बहिमिथ्यात्वाभ्युपगमे स्वरूपेऽपि तत्प्रसङ्गः । तथाहि यत्प्रतिभासते तन्मिथ्या यथा स्वप्नः प्रतिमासते च विज्ञानस्वरूपमिति १५ प्रतिभासाविशेषेऽपि स्वरूपप्रतिभासस्य सत्यत्वाङ्गीकारेऽर्थप्रतिभासस्यापि सत्यत्वं किं नाङ्गीक्रियेत । विशेषाभावात् । ततश्च । अत्यनल्पनिजकूटकल्पनाविप्लवैकमृगतृष्णिकाकुलः । मुग्ध माध्यमिक मा मुधाश्रमीः स्वच्छवेदनजलौघवाच्छया ॥१७९॥
यच्चार्थानामेकानेकस्वरूपविचारासहत्वादित्याद्युपन्यस्तम् । तदपि न २० प्रशस्तम् । एकत्वस्यानेकत्वस्य च विचार्यमाणस्य तत्रासम्भवेऽपि जात्यन्तरस्यैकत्वानेकत्वस्य सम्भवेन सत्त्वाविरोधात्। यदप्युक्तमुत्पादादिधर्मरहिताश्चैते इत्यादि । तदप्यनुपपन्नम् । द्रव्यरूपतया सतां पर्यायरूपतया चासतां भावानामुत्पादादिधर्मसद्भावोपपत्तेः । सर्वथा सतामसतां वा वस्तूनामुत्पादादयो धर्माः ने कथञ्चिदुपपद्यन्त इति यथा- २५ १'न' इति प. पुस्तके नास्ति ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १६
वसरं समर्थयिष्यामहे । यदि बोत्पादादयो धर्माः सर्वथा न सन्ति तदा त्वदङ्गीकृतस्य स्वसंवेदनमात्रस्याप्यभावः प्रसज्यते । उत्पादव्ययनौव्ययुक्तस्यैव सत्त्वात् । सर्वथाप्यसत्त्वे च तेषां स्पष्टप्रतिभासविषयता पुरुषविषाणस्येव कथं नाम स्यात् स्पष्टप्रतिभासविषयत्वे वा ५ तेषां स्वसंवित्स्वरूपस्येव सर्वथाप्यसत्त्वं न स्यात् । न च स्पष्टप्रतिभासविषयत्वमेषामसिद्धम् । कनकादौ कुण्डलाद्युत्पादादीनां महिलाहालिकगोपालमुखैरपि स्पष्टप्रतिभास विषयतया सुप्रतीतत्वात् । अपि च उत्पादादीनां धर्माणामसत्त्वे स्वीक्रियमाणे सम्वन्धाभावतस्तस्मिन् संवेद्यमाने न ते नियमेन संवेद्येरन् । यस्य येन सम्बन्धो नास्ति तस्मिन् ९० संवेद्यमाने नासौ नियमेन संवेद्यते । यथा ज्ञानात्मनि संवेद्यमाने कूर्म - रोमसमूहः । नास्ति च सम्बन्धो ज्ञानेन सार्धमसद्रूपाणामुत्पादाद्याकाराणामिति । अस्ति चैतेषां ज्ञाने संवेद्यमाने नियमेन संवेदनमतः समस्ति कश्चित्तेषां तेन सह सम्बन्धः । स च परमार्थसत्त्वमन्तरेण न सम्भवतीति सिद्धं तेषां परमार्थसत्त्वम् ।
१५ संवेद्यमानानामप्येषामसत्त्वे ज्ञानस्वरूपेऽप्यसत्त्वप्रसङ्गान्निखिलशून्यतापत्तिर्भवेत् । यत्क्तमनाद्यविद्यावासनाप्रभावादि
ग्राह्यग्राहकभाववि
त्रस्य खण्डनम् |
कलस्य संचिन्मा- त्यादि । तदप्यसुन्दरम् | अविद्यायाः पूर्वमेव परास्तत्वात् । अपि च स्वस्थसंविन्मात्रं कुतोऽभ्युपगतम् । प्रतीतेश्चेन्नैवम् । स्वस्थसंविन्मात्रस्य कदाचिदप्यप्रतीतेः । २० प्रतीत्या च वस्तु व्यवस्थापयता बाह्यमपि वस्तु स्वीकर्त्तव्यम् । तस्यापि प्रतीतौ परिस्फुरणात् । न चेयमसत्यरूपा प्रतीतिः । बाधकाभावात् । विपरीतार्थोपलम्भो हि बाधको न चात्रासौ समस्ति । तद्विपरीतस्य मध्यमक्षणस्थायिनः संविन्मात्रस्य स्वमेऽप्युपलम्भाभावात् । अतः कथमसताऽनेनानुभूयमानस्य बाह्यार्थस्य बाधा | असतापि बाधाकल्पने २५ नित्यनिरंशव्यापिपरमब्रह्मोपलम्भेनाऽसतापि त्वदभिमतमध्यक्षणस्थायिसंविन्मात्रस्य बाधा कथं न भवेद्विशेषाभावात् ।
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परि. १ स. १६]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
वस्तुव्यवस्थितिमुपैषि यदि प्रतीत्या ___ बाह्यं तदा किमिति वस्तु पराकरोषि । बालाबलाप्रभृतिरप्यखिलः पदार्थान्
बाह्यान् जनो यदवगच्छति पीतमुख्यान् ॥ १८० ॥ मिथ्याप्रतीतिरियमित्यपकर्णनीयं
पन्नास्ति काचिदपि बाधकबुद्धिरत्र । मध्यक्षणस्थितिमितिप्रतिभास एव
शङ्कथेत बाधकतया न च विद्यतेऽसौ ॥ १८१ ॥ असन् शक्तः कर्तुं कथय किमतो बाधविधुरान्
सिताद्यर्थोद्वाराननुभवसुधास्वादजनितान् । अथासन्नप्येष प्रभवति सखे बाधनविधौ
न किं बाधेतैवं तव मतमपि ब्रमणि मतिः ।। १८२ ।। इति संग्रहवृत्तानि । अथ केचित्पुनः संविन्मात्रस्याप्यपलापेन सकलशून्यतामाहुः ।
_____ सापि नोपपद्यते । यतस्तस्याः साधकं किञ्चि- १५ सकलशून्यतामभ्युपगच्छ
णत्प्रमाणमस्ति न वा । यदि नास्ति कथं सा तः शूर . खण्डनम् । सिद्धयेत् । प्रमाणनिबन्धनत्वाद्विदुषामिष्टसिद्धेः । अथान्ति, तदा कथं सकलशन्यता । प्रत्यक्षादिप्रमाणस्य तज्जनकस्येन्द्रियाद्देश्च सद्भावे सकलशून्यताविरोधात् । किञ्च । सकलशून्यता प्रमाणप्रमेययोरनुपलब्धितो, विचारात्, प्रसङ्गसाधनाद्वा स्यात् । २० प्रथमपक्षे केयं तयोरनुपलब्धिः । तद्ग्राहकप्रमाणाभाव इति चेत्, सोऽपि किं संशयादयः प्रत्ययाः प्रमाणानुत्पादो वा । तत्राद्यः पक्षो न युक्तः। संशयादिसद्भावाभ्युपगमे सकलशून्यतायाः सलिलाञ्जलिदान
१ संग्रहवृत्तानीति पदनिर्देशादेवं प्रतीयते यदिमे श्लोकाः स्वयमन्येन वा कृते संग्रहनन्थे प्रणीता इति ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ प्रसङ्गात् । प्रमाणानुत्पादोऽपि ज्ञातः सन् सर्वाभावं गमयत्यज्ञातो वा । न तावदज्ञातोऽतिप्रसङ्गात् । अथ ज्ञातः, कुतस्तज्ज्ञानमन्यतः प्रमाणाभावात् स्वतो वा । प्रथमपक्षेऽनवस्थातःप्रस्तुताभावस्याप्रतिपत्तिः। स्वतस्तज्ज्ञाने सर्वाभावस्यापि स्वत एव ज्ञानप्रसङ्गात् । प्रमाणा५ भाचोपन्यासो व्यर्थः स्यात् सकलशून्यताव्याघातश्च ! तथाभूतस्यास्यैव
प्रमाणप्रमेयरूपत्वप्रसक्तेः प्रमाणप्रमेयपदाव्यपदेश्यः सर्वाभाव इति न वाच्यम् । स्वतः स्वरूपं प्रतिपद्यमानस्य तस्य प्रमाणप्रमेयपदाभ्यामवश्यव्यपदेश्यत्वात् । तत्पदाव्यपदेशत्वे च तस्यासत्त्वप्रसक्तिव्योमकुसुमवत् । किं चात्रानुमाने धम्मिहेतुदृष्टान्तानां ग्राहक प्रमाणमस्ति न वा । यद्यस्ति, कथं सकलशून्यता । अथ नास्ति, कथं प्रकृतानुमानप्रवृत्तिः । प्रमाणाभावे हि धर्मिमहेतुदृष्टान्तानां सिद्धेरभावादाश्रयासिद्धतादिदोषदूषितमनुमानं कथं नाम प्रवर्तितुमुत्सहेत । अनुमानाभावे च कथं सकल. शून्यतासिद्धिः । अथ विचारात्सकलशून्यता साध्यते । ननु विचारः
पारमार्थिकः समस्ति न वा । समास्ति चेत्, कथं सकलशून्यता । अथ १५ नास्ति, कुतस्त्या तर्हि तसिद्धिः। अथ प्रसङ्गसाधनात् सकलशून्यता
सिद्धिरास्थीयते । दुःस्थमेतत् । सकलशून्यतावादिनः स्वपरविभागासम्भवे प्रसङ्गसाधनस्यैवासम्भवात् परस्येष्टेनानिष्टापादनलक्षणत्वात्तस्य । कथं चैष दुरात्मा प्रमाणप्रमेयप्रपञ्चं प्रतीतिपर्यकोत्सङ्गसङ्गतमनङ्गीकृत्य
स्वप्नदशायामप्यननुभूयमानां सकलशून्यतामङ्गीकुर्वाणः प्रामाणिक२० परिषदि प्रवेशमपि प्राप्नुयात् ।
तस्मादयं नीलसितादिरर्थः प्रमाणमुद्रामवलम्बमानः । अबाध्यमानश्च भुवि प्रसिद्धो न शून्यता नाम समस्ति काचित्। १८३। अथ परमब्रह्मवादिनः प्राहुः--
_भावग्रामो घटादिबहिरिह घटते वस्तुवृत्त्या न कश्चिपरमब्रह्मवादिनो वेदा
पदा तन्मिथ्यैष प्रपंचस्तमपि च मनुते तत्त्वभूतं जनोऽयम्। २५ न्तिनो मतस्य उपपादनपूर्वक खण्डनम्। प्रौढाविद्याविलासप्रबलनरपतेः पारवंश्यं गतः सन् आत्माद्वैतं तु तत्त्वं परमिह परमानन्दरूपं तदस्तु
॥१८४ ॥
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परि. १. सू. १६]
स्याद्वाद्रत्नाकर सहितः
"3
तथाहि समस्तं चेतनाचेतनस्वभावं वस्तु प्रतिभासान्तः प्रविष्टं प्रतिभासमानत्वात् यद्यथोक्तसाधनं तद्यथोक्तसाध्यं यथा प्रतिभासस्वरूपं प्रतिभासते च समस्तं चेतनाचेतनस्वभावं वस्तु तस्माद्यथोक्तसाध्यसम्बद्धम् । न चात्र हेतुरसिद्ध: । साक्षादसाक्षान्च समस्तवस्तुनोऽप्रतिभासमानत्वे सकलविकरूपगोचरातिक्रान्तत्वेन वक्तुमशक्तेः । आगमोऽप्यस्य प्रतिपादकः समस्त्येव “सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । आरामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ॥ १ ॥ इत्यादि । तदेव च परमात्मरूपं सकललोकसर्गस्थितिप्रलयहेतुः तदाह । "ऊर्णनाभं इवांशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्रक्षः स हेतुः सर्वजन्मनाम् ॥ २ ॥ " इति । अपि चेन्द्रियसन्निपाता. १० नन्तरसमुद्भूताविकल्पकाध्यक्षेण परानपेक्षतयैकत्वमेव भावानां प्रतीयते तच्चैकप्रतिभासान्तः प्रवेशाभावे तेषां कथं सम्भवेत् । भेदाः पुनः परापेक्षतया प्रतीयन्ते । ततश्चैतत् प्रत्ययरूपत्वेनाप्रमाणभूतत्वाद्भेदमसाधयन्नैकत्वं निरुणद्धि । निन्दा च श्रूयते भेददर्शिनः, “मृत्योः स मृत्युमाप्नोति इह नानेव पश्यति" इत्यादिना । न चाभेदशंसिनः १५ प्रत्यक्ष विरुद्धत्वमस्यागमस्य वक्तुं शक्यम् । न ह्यन्यनिषेधे प्रत्यक्षं प्रभवति । स्वरूपमात्रग्रहणपरिसमाप्तव्यापारत्वात् । पररूपनिषेधमन्तरेण च दुरुपपादत्वाद्भेदे कुण्ठमेव प्रत्यक्षमिति कथमभेदाभिधायिनमेवमागमं विरुन्ध्यात् । तदुक्तं । “आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेद्ध विपश्चितः । नैकत्व आगमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुद्धयते ॥ १ ॥ " इति । किंच २० क्वचिद्भावे भावान्तरेभ्यो भेदः प्रतिपद्यमानः क्रमेण यौगपद्येन वा प्रतिपद्यते । न तावद्यौगपद्येन, भेदप्रतिपत्तेः प्रतियोगिग्रहणसापेक्षत्वात् । न च प्रतियोगिभावान्तराणामशेषाणां युगपद्ग्रहणं सम्भवति । नापि
१ तत्त्वसंग्रहे पुरुषपरीक्षायां प्रथमश्लोको भूयसांशेनैतत्सदृश: । २ 'काध्यक्षतः इति प. पुस्तके पाठः । ३ ' ततश्चैतत्प्रत्ययः कल्पनाप्रत्ययरूपत्वेनाप्रमाणभूतत्वात् ' इति प. पुस्तके पाठ: 1
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ स. १६ क्रमेण, यतोऽनन्तानां प्रतियोगिनां क्रमेण प्रतिपत्तावेवोपक्षीणपुरुषायुषः प्रतिपत्ता कथं कदापि कस्यापि भेदं प्रतिपद्येत । तथाऽसौ भेदः पदार्थेभ्यो भिन्नः स्यादभिन्न उभयरूपोऽनुभयरूपो वा । यदि भिन्नः, तत्रापि किमसौ स्वतो भिद्यते भेदान्तरेण वा । यदि स्वतस्तदा पदाथैः किमपराद्धं येनैषां स्वत एव भेदो नानुमन्यते । अथ भेदान्तरेण, तदाऽनवस्था । तस्यापि भेदान्तरेणार्थेभ्यो भेदप्रसक्तेः । अथाभिन्नः, तदा पदार्थमात्रमेव भवेत् । नाप्युभयरूपः, उभयपक्षनिक्षिप्तदोषानुषङ्गात् । भेदाभेदयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणत्वेनैकत्रैकदा सम्भवाभावाच्च । नाप्यनुभयरूपः, विधिप्रतिषेधयोरेकतरप्रतिषेधेऽन्यतरविधेरवश्यंभावित्वात् । अन्यच्च समस्तार्थानां किमेक एव भेदः प्रत्यर्थं भिन्नो वा । यद्येक एव, तर्हि तम्याभेदात्तेषामप्यभेद एव स्यात् । अथ प्रत्यर्थं भिन्नः, किं स्वतो भेदान्तरेण वा । पक्षद्वयेऽपि प्राक् प्रतिपादितमेव दोषद्वयमुपढौकनीयम् । अपि च पदार्थानां भेदः किं देश
भेदात्कालभेदादाकारभेदाद्वा भवेत् । न तावद्देशभेदात्स्वरूपेणाभिन्नानां १५ भावानामन्यभेदेऽपि भेदायोगात् । नान्यभेदोऽन्यत्र संक्रामति असंकीर्ण
भावव्यवस्थाभ्युपगमविलोपप्रसङ्गात् । किंच देशस्यापि किमपरदेशभेदतो भेदः स्वतो वा । यद्यपरदेशभेदतः, तर्हि तद्देशस्याप्यपरदेशभेदाढ़ेद इत्यनवस्था । अथ स्वत एव देशस्य भेदः, तदा पदार्थभेदोऽपि स्वत एवास्तां किं देशभेदात्तद्भेदकल्पनया । ततो न देशभेदाद्भावभेदः । एवं कालाकारभेदाभ्यामपि न भावानां भेदः । प्रोक्तदोषाणामिहापि समानत्वात् ।।
एवं विचार्यमाणोऽसौ भेदो न व्यवतिष्ठते । अविद्यानिर्मितं तस्मात् स्फुटं तत् प्रतिभासनम् ॥ १८५ ॥
भेदसिद्धौ न सामर्थ्यमेवं चास्य विभाव्यते । २५ ततो नैकत्वमेतेन कथंचन विरुद्धयते ॥ १८६ ॥
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः ।
तस्मादेकत्वसंवित्तेरन्यथानुषपत्तितः । एकरूपं परं ब्रह्माङ्गीकर्तव्यं परैरपि ॥ १८७ ॥ इदमेव परां विद्यामामनन्ति मनीषिणः ।
एतस्य श्रवणादिभ्यः प्राप्तिः समुपजायते ॥ १८८ ॥ ननु विद्यास्वभावत्वे ब्रह्मणस्तदभिन्नस्वभावानां संसार्यात्मनामपि ५ विद्यास्वभावत्वात्तत्प्राप्त्यर्थानां श्रवणमननादीनां निरुपयोगित्वमिति चेत्, तदचारु । विद्यास्वभावत्वेऽप्यस्य श्रवणमननादीनां निरुपयोगित्वासम्भवादविद्याव्यावर्तनफलत्वात्तेषाम् । अविद्याव्यावर्त्तनमेव च विद्याप्राप्तिः । यत एवाविद्या ब्रह्मणोऽर्थान्तरभूता तत्त्वतो नास्त्यत एव तैया॑वय॑ते । तत्त्वतस्तस्याः सद्भावे न कश्चिद्ध्यावर्त्तयितुं तां शक्नु- १० यात् ब्रह्मवत् । सवेरेव च वादिभिरतात्त्विकानाद्यविद्याया व्यावृत्त्यर्थं मुमुक्षूणां प्रयासः स्वीकृत एव । अस्याः स्वावच्छेदिकाया व्यावृत्तौ परमात्मैकस्वरूपतायां संसार्यवतिष्ठते, घटाद्यवच्छेदकस्य व्यावृत्तौ शुद्धाकाशरूपतायामिवाकाशम् । न च श्रवणमननादीनां भेदरूपत्वेनाविद्यास्वभावत्वात् कथमविद्याव्यावर्तकत्वं यतो विद्याप्राप्तिहेतुत्वम- १५ भिधीयतेति वाच्यम् । यथैव हि रजःसम्पर्ककलुषेऽम्भसि द्रव्यविशेषचूर्णरजोरूपं प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि प्रशमयत्स्वयमपि प्रशाम्यति स्वस्वरूपावस्थामुपनयति तथैवानाद्यविद्यासंश्लेषमलिने संसार्यात्मनि श्रवणमननादिभिरविद्याविद्यान्तराणि समुच्छिन्दती स्वयमपि समुच्छिद्यमाना परमात्मैकस्वरूपतामुपढौकयतीति । न चाद्वैते बन्धमोक्षादिभेदव्यव- २० स्थाऽनुपपन्नेति वचनीयम् । समारोपितादपि भेदाढ़ेदव्यवस्थोपपत्तेः । यथा हि द्वैतवादिनां वक्षसि मे सुखं शिरसि मे दुःखमित्येकस्यात्मनः समारोपितभेदनिमित्ता सुखादिभेदव्यवस्था तथाऽस्माकं ब्रह्मणोऽपि बन्धमोक्षादिभेदव्यवस्था भविष्यति । ननु वक्षःप्रभृतीनामेव सुखाद्यधिकरणत्वं तेषां च भेदात्तव्यवस्था युक्तैवेति चेत् । तदप्ययुक्तम् । २९ १ सद्भावेऽपि ' इति भ. पुस्तके पाठः । १३
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ तेषामन्यत्वेन भोक्तृत्वायोगात् । भोक्तृत्वे चार्वाकमतानुषङ्गः । तथा च
शिशिरतरुमृणालीजालकैः कीर्णवक्षा. स्तरुणतरणितापक्लान्तखल्वाटमूर्द्धा । अनुभवति विशिष्ट वक्षसि प्रीतिलक्ष्मी
शिरसि किमपि कष्टं चेति तावत् प्रतीतम् ॥ १८९ ।। तदिह यथैकत्रात्मन्यारोपितभेदहेतुका भवति ।
अद्वैतद्वेषिमते सुखादिभेदव्यवस्थेयम् ।। १९० ॥ एकत्रैव ब्रह्मणि स्वस्थरूपे क्त्यामुष्मिन् कोविदः कीर्त्यमाने । १० तद्वन्मिथ्याभेदमादर्शयन्ती किं नेष्टा ते बन्धमोक्षव्यवस्था ॥ १९१ ॥
आधारः सुखदुःखयोरथ भवेद्वक्षःस्थलीमस्तके
तद्भेदादुपपत्स्यतेऽनुपहता भेदव्यवस्था तयोः । नैतद्वाच्यमचेतनादिह यतः स्यातां न ते भोक्तृणी
तत्त्वे वाभिमते कथं नु भवतश्चार्वाकता नो भवेत् ॥१९२।। इत्यात्मब्रह्म सिद्धं परमसुखमयं नित्यचैतन्यरूपं
सर्वाविद्याविलासे प्रलयमुपगते सर्वतो यच्चकास्ति । तस्माद्भेदावभासस्त्रिजगति शशभूद्युग्ममायेन्द्रजालस्वप्नाद्याभासकल्पः कथमिह सुधियः कुर्वते पक्षपातम् ॥१९३॥ ब्रह्मप्रसाधनविधौ विविधं व्यधायि
याक्तिपञ्जरमनन्तरमेतदेवम् ॥ तज्ज्वालजालजटिलज्ज्वलनप्रकारे
प्रत्युत्तरेऽत्र परितः पततादिदानीम् ।। १९४ ॥ .. तथा हि यत्तावत्समस्तं चेतनाचेतनस्वभावं वस्तु प्रतिभासान्तःप्रविष्टमित्याद्यनुमानमदर्शितम् । तत्र स्वतः प्रतिभासमानत्वं हेतोः २५ परतो वा । स्वतश्चेत्, तर्हि प्रतिवादिनो भागासिद्धो हेतुः । पक्षी
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः कृतचेतनाचेतनरूपवस्तुमध्यान्चेतनेष्वेव हि स्वतः प्रतिभासमानत्वं स्याद्वादिनः सिद्धं न पुनरचेतनेषु । परतश्चेत्, तर्हि विरुद्धो हेतुः । परतः प्रतिभासमानत्वस्य भेदाविनामावित्वात् । सर्वं खल्विदं ब्रह्मेत्याद्यागमोऽपि नाद्वैतसाधनसमर्थः प्रत्युत द्वैतमेवायं साधयति । सर्वस्य प्रसिद्धस्याप्रसिद्धेन ब्रह्मत्वेन विधानात् । सर्वथों प्रसिद्धस्य ५ विधानायोगादेकान्ताप्रसिद्धवत् । प्रसिद्धाप्रसिद्धयोश्च भेदाद्वैतसिद्धिरेव । द्वैतप्रपञ्चारोपव्यवच्छेद एवानेनागमेन क्रियत इति चेत्, नैवम् । एवमपि व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकयोः सद्भावसिद्धया द्वैतसिद्धेरनिवारणात् । किं च यथा अस्मादागमात्पुरुषाद्वैतसिद्धिस्तथा. सन्त्यनन्ता जीवा इत्यागमान्नानाजीवसिद्धिरस्तु । अथ पुरुषाद्वैतविधेस्तदागमेन प्रकाश- १० मानात् प्रत्यक्षस्यापि विधातृतया स्थितस्य तत्रैव प्रवृत्तेस्तेन तस्याविरोधात्ततः पुरुषाद्वैतनिर्णय इति चेत्, नानागमस्यापि तेनाविरोधानानाजीवनिर्णयोऽस्तु । तथाहि । “आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेछ विपश्चितः । न नानात्वागमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुद्धयते ॥१॥" यदि ह्यपरप्रतिषेधे प्रत्यक्ष प्रवर्तेत तदा तेन तदभावविनिश्चयावे- १५ न्नानात्वविधायकागमस्य विरोधो न चैवम् अस्य सर्वत्र विधायकत्वेनात्र व्यवस्थानात् । एवं च नानेन नानात्वविधायकस्यागमस्य विरोधः सम्भवत्येकत्वविधायिन इव विधायकत्वाविशेषात् । कथमेकत्वमनिषेधप्रत्यक्षं नानात्मतां विदधातीति चेत् । नानात्वमनिषेधदेकत्वं कथं तद्विदधीत । तस्यैकत्वविधानमेव नानात्वप्रतिषेधकत्वमिति चेत् । २० तर्हि नानात्वविधानमेवैकत्वप्रतिषेधकत्वमस्यास्तीति समः समाधिः । किं पुनः प्रत्यक्षमात्मनां नानात्वस्य विधायकमिति चेत् । तदेकत्वस्य किं विधायकमित्यप्युच्यताम् । न ह्यस्मदादिप्रत्यक्षमिन्द्रियजं मानसं वा स्वसंवेदनमेक एवात्मा सर्व इति विधातुं समर्थं नानात्मभेदेषु
१. सर्वदा' इति भ. पुस्तके पाठः। २ . विधायकत्वेनैव' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि १.सू. १६
तस्याप्रवृत्तेः । योगिप्रत्यक्षं समर्थमिति चेत् । पुरुषनानात्वमपि विधातुं तदेव समर्थमस्तु तत्पूर्वकागमश्चेत्यविरोधः । स्वसंवेदनमेवा - स्मदादेः स्वैकत्वविधायकमिति चेत् । तथाऽन्येषां स्वैकत्वस्य तदेव विधायकमनुमन्यताम् । तथाहि परेषां प्रत्यक्ष स्वैकत्वविधायकं प्रत्यक्षत्वादात्मप्रत्यक्षवत् । स्वैकत्वाविधायकत्वे वा तत्प्रत्यक्षस्य मत्प्रत्यक्षस्यापि कथं स्वैकत्वाविधायकत्वं स्यात् प्रत्यक्षत्वादित्यतः प्रत्यात्मं स्वसंवेदनस्यैकत्व विधायकत्व सिद्धेरात्मबहुत्वसिद्धिरात्मैकत्वसिद्धिर्वा । न च विधायकमेव प्रत्यक्षमिति नियमोऽस्ति । निषेधकत्वेनापि तस्य प्रतीयमानत्वादित्यनन्तरमेव निर्णेप्यते । तन्नागमवाक्यादप्यद्वैतसिद्धिः । १० अपि चाद्वैताभ्युपगमे पारमार्थिकमागमवाक्यं लिङ्गं वा न किञ्चित् प्रमाणभूतं भिन्नमस्ति यतः परमब्रह्मप्रतीतिः परीक्षकस्य स्यात् ।
१९६
५
अथ तस्य परमब्रह्मविवर्त्तत्वाद्विवर्त्तस्य च विवर्त्तिनोऽभेदेन परिकल्पनात्ततस्तत्प्रतीतिरिति मन्यसे । ननु कथं परिकल्पितादागमवाक्याल्लिङ्गाद्वा परमार्थपथावतारिणः परब्रह्मणः प्रतीतिः परिकल्पिताद्धूमादेः । १५ पारमार्थिकमेवागमवाक्यं लिङ्गं च परमब्रह्मत्वेनेति चेत् । तर्हि यथा तत्पारमार्थिकं तथा साध्यसममिति कथं पुरुषाद्वैतं व्यवस्थापयेत् । यथा च प्रतिपाद्यजनस्य प्रसिद्धं न तथा पारमार्थिकं द्वैतप्रसङ्गादिति कुतः परमार्थसिद्धिस्ततस्तामङ्गीकुर्वता पारमार्थिकमागमवाक्यं लिङ्गं च स्वीकर्त्तव्यम् तचऽचित्स्वभावम् । प्रतिपादकचित्स्वभावत्वे परसंवेद्यत्व२० विरोधात् प्रतिपादकचित्स्वभावत्वात्तत्सुखादिवत् । प्रतिपाद्यचित्स्वभावत्वे वा न प्रतिपादक संवेद्यत्वं प्रतिपाद्यसुखादिवत् । तस्य तदुभयचित्स्वभावत्वे प्राश्निकादिसंवेद्यत्व विरोधस्तदुभयसुखादिवत् । सकलजनचित्स्वभावत्वे वा प्रतिपादकादिभावानुपपत्तिरविशेषात् । प्रतिपादकादीनामविद्योपकल्पितत्वाददोषोऽयमिति चेत् । हन्त तर्हि यैव प्रति२५ पादकस्याविद्या प्रतिपादकत्वोपकल्पिका सैव प्रतिपाद्यस्य प्राश्निकादेश्चा
१' तथा ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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१९७
परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः विशिष्टा प्रतिपादकत्वमुपकल्पयेत् । प्रतिपाद्यस्य चांऽविद्या प्रतिपाद्यत्वोपकल्पनपरा प्रतिपादकादेरविशिष्टा प्रतिपाद्यत्वं परिकल्पयेत् । प्रतिपादकादीनामभेदात्तदविद्यानामप्यभेदात् । भेदे वा प्रतिपादकादीनां भेदसिद्धिर्विरुद्धधर्माध्यासात् । अनाद्यविद्योपकल्पित एव तदविद्यानां भेदो न पारमार्थिक इति चेत् परमार्थतस्तह्मभिन्नास्तदविद्या इति स ५ एव प्रतिपादकादीनां सङ्करप्रसङ्गः । यदि पुनरविद्यापि प्रतिपादकादीनामविद्योपकल्पितत्वादेव न भेदाभेदविकल्पसहा नीरूपत्वादिति मतम् । तदा परमार्थपथावतारिणः प्रतिपादकादय इति बलादीर्यते । तदविद्यानामविद्योपकल्पितत्वे विद्यात्वविधैरवश्यंभावित्वात् । तथा च प्रतिपादकादिभ्यो भिन्नमागमवाक्यं लिङ्गं च सकृत्प्रतिपादकादिसंवेद्य- १० त्वान्यथानुपपत्तेरित्यचित्स्वभावं तत्सिद्ध बहिर्वस्तु तद्वत् घटादिवस्तुसिद्धिरिति न प्रतिभासाद्वैतव्यवस्था प्रतिभास्यस्यापि सुप्रसिद्धत्वात् । प्रतिभास्यसमानाधिकरणता पुनः प्रतिभासस्य कथंचिद्भेदेऽपि न विरुद्धयते । घटः प्रतिभासत इति प्रतिभासविषयो भवतीत्युच्यते 'विषयविषयिणोरभेदोपचारात् । प्रस्थप्रमितं धान्यं प्रस्थ इति यथा । १५ ततः सामानाधिकरण्यादुपचरितान्नानुपचारितैकत्वसिद्धिः । मुख्य सामानाधिकरण्यं क सिद्धमिति चेत्, संवेदनं प्रतिभास इत्यत्र । वैयधिकरण्यव्यवहारस्तु गौणस्तत्र संवेदनस्य प्रतिभासनमिति । घटस्य प्रतिभासनमित्यत्र तस्य मुख्यत्वप्रसिद्धेः । किंच कथञ्चिद्भेदमन्तरेण सामानाधिकरण्यस्यानुपपत्तेस्तत एव कथंचिद्भेदस्य सिद्धिः । शुक्ल: २० पट इत्यत्र सर्वथा शुक्लपटयोरैक्ये हि न समानाधिकरणता । पटः पट इति यथा । नापि तयोः सर्वथा भेदे रत्नसानुरत्नाकरवदिति । • यच्चोक्तम् । तदेव च परमात्मरूपं सकललोकसर्गस्थितिप्रलयहेतुपरब्रह्मणः सकललोकसर्ग- रिति । तदप्याकाशचर्वणप्रायम् । अद्वैतैकान्ते प्रलयहेतुत्वमित्यद्वैतवादि- कार्यकारणभावविरोधात् । तस्य द्वैताविनाभा- २५
वेदान्तिमतस्य निरा- वित्वात । किंच ।
करणम् । १ वा' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. १६ ब्रह्मात्मा विदधाति चेद्वयसनतश्चित्रां त्रिलोकीमिमां
मुग्ध ब्रूहि तदा भवेत् कथमयं प्रेक्षावतामग्रणीः । प्रेक्षावान् जगति प्रयोजनलवं कंचित्परित्यज्य भोः कोऽपि वापि कदाचनाऽपि कुरुते किं नाम काञ्चित् क्रियाम्॥१९५।। अथापि निष्कम्पकृपापरीतः परोपकाराय करोत्ययं तान् । नैतद्धटामेति यदस्य कश्चित् कारुण्यपात्रं न परः समस्ति ॥१९६॥ सत्त्वे वा न कथञ्चनापि नरककोडेषु कुर्याजना
नित्यं वैतरणीतरङ्गतरणच्यापारपीडाजडान् । कान्ताकुङ्कुमपङ्कपङ्कजरजोज्योत्स्नाच्छवायुच्छटा
ताम्बूलाग्रुपभोगतः प्रमुदितान् किं तर्हि निर्मापयेत् ॥१९७॥ सृष्टेः प्रागनुकम्पनीयजनता नास्तीति तस्यां कथं
कारुण्यं किल कल्प्य तस्य जगतः स्रष्टा भवेद्यद्वशात् । कारुण्यात्कुरुते प्रवृत्तिमिति च प्रख्याप्यमाने त्वया
कुर्यान्नो सुखिनां मृति बत तथा नो दुःखितानां स्थितिम् ॥ १९८ ॥ अथापि कायमपेक्षमाणः करोति दुःखं जगतः सुखं वा । इमं विमुञ्चाग्रहमेवमस्थ स्वतन्त्रतायाः प्रलयप्रसक्तेः ॥ १९९ ॥
किं च--- दुःखश्रेणीकरणनिपुणप्राणिकर्मव्यपेक्षा __ युक्ता नैव प्रगुणकरुणा सान्द्रचित्तस्य तस्य । औदासीन्यं किमपि कुरुतां किन्तु तत्र प्रवादिन
ब्रह्मात्मायं कथमपरथा स्यात्कृपालुः कथञ्चित् ॥२०॥ यतो महान्तः करुणासमुद्राः परेषु कांक्षन्ति न दुःखहेतून् । तेषां सदा दुःखितजन्तुदुःखतद्धेतुविध्वंसधिया प्रवृत्तेः ॥ २०१॥ तथा समर्थः स्वयमेव चेत्स्यात्परानपेक्षेत कथं कदाचित् । अथासमर्थः स्वयमेव चेत्स्यात्परानपेक्षेत कथं कदाचित् ।।२०२॥
२०
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परि. १ सू. १६ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
अदृष्टतः स्वीक्रियते त्रिलोकीविचित्रतैषा यदि च प्रवादिन् । सुदुर्भगाविभ्रमसन्निभेन ब्रह्मात्मना तर्हि किमत्र कार्यम् ॥ २०३ ॥ ननूर्णनाभो यथा लालाजालकरणे स्वभावात् एव प्रवर्तते तथा परमात्मा जगन्निर्माण इति चेत् । तदपि सकर्णानामनाकर्णनीयम् । ऊर्णनाभो हि न स्वमावत एव प्रवर्तते किं तर्हि प्राणिभक्षणलाम्पट्या- ५ प्रतिनियतहेतुसम्भूततया कादाचित्कात् । यदप्युक्तमिन्द्रियसन्निपातानन्तरसमुद्भूताविकल्पकाध्यक्षतः परानपेक्षतया प्रतीयमानमेकत्वमेवेत्यादि । तदपि न पेशलम् , यतः
एकव्यक्तिगतं किं वाऽनेकव्यक्तिसमाश्रितम् ॥ व्यक्तिमात्रगतं यद्वा तदेकत्वं प्रतीयते ॥ २०४ ॥ एकव्यक्तिगतं तच्चेत्तदा पर्यनुयुज्यते ॥ समानमसमानं वा न समानं विरोधतः ॥ २०५ ॥ एकव्यक्तिगतं तद्धि कथं साधारणं भवेत् ॥ अथासमानमेतन्न भेदसिद्धिप्रसङ्गतः ॥ २०६ ॥ यदसाधारणं रूपं भेदस्तस्माद्धि कोऽपरः ॥ एकव्यक्तिगतं तस्मान्नैकत्वमुपपद्यते ॥ २०७ ॥ अनेकव्यक्तिसम्बद्धं सत्तासामान्यलक्षणम् ॥ प्रत्यक्षमानतो ग्राह्यमथैकत्वमिहोच्यते ॥ २०८ 11 व्यक्त्याधारतया तम्कि प्रतीयेतान्यथापि वा ।। आद्यपक्षे प्रतिक्षेपः कथं भेदस्य सम्भवेत् ॥ २०९ ॥ व्यक्तेराधाररूपत्वं तस्य चाधेयतेत्ययम् ।। आधाराधेयभावो हि भेदमाकर्षति ध्रुवम् ॥ २१० ॥ अथ तद्वयक्त्यनाधारतया हन्त प्रतीयते ।।
अन्तरालेऽपि भासेत व्यक्तीनामग्रहे नर्नु ॥ २११ ॥ . १ च ' इति प. पुस्तके पाठः । २ ' नतु ' इति भ. पुस्तके पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. १ सू. १६
तथाव्यक्तिभ्यः किमु सत्ताख्यं एकत्वं व्यतिरिच्यते ॥ न वा व्यक्तिस्वरूपत्वमभेदेऽस्य प्रयुज्यते ॥ २१२॥ असाधारणरूपत्वाद्वयक्तिर्व्यक्त्यन्तरं न च ॥ अन्वेति तत्कथं तस्य निःशेषव्यक्तिनिष्ठता ॥ २१३ ।। अथ तद्वयतिरिच्येत व्यक्तिभ्यस्तर्हि नो जयः ।। समीहितस्य भेदस्य ध्रुवमेवं प्रसिद्धितः ॥ २१४ ॥ यथा च स्तम्भकुम्भादिव्यक्तिश्चैकत्वमिष्यते ॥ अनुवृत्तमनीषायाः करणत्वान्मनीषिभिः ॥ २१५ ॥ तथैव हन्त किं तासु नानात्वमपि नेप्यते ।। व्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वाद्विशेषो हि न कश्चन ॥ २१६ ॥ तस्माब्यक्तिषु नैकत्वं नानात्वेन विना कृतम् ।।
कथञ्चिदुपपद्येत प्रमाणेन विरोधतः ॥ २१७ ।। तथाहि
विवादास्पदमेकत्वं तात्त्विकानेकतात्विकम् ॥ एकान्तैकस्वरूपेण प्रमाणागोचरत्वतः ॥ २१८ ।। यथा कुम्भशरावादिभेदसन्दोहसंयुतम् ।। निद्रव्यैकत्वमेवं च सिद्धो भेदो हि तात्त्विकः ॥ २१९ ॥ व्यक्तिमात्रगतं तच्च पुरैकत्वं विकल्पितम् ॥ समानयोगक्षेमत्वात्तदप्येतेन चर्चितम् ॥ २२० ॥ एका व्यक्तिमनेकां वा परित्यज्यापरस्य यत् ॥
व्यक्तिमात्रस्य नैवास्ति प्रतीतिपथचारिता ॥ २२१ ॥ .. यदपि गदितं भेदः पुनः परापेक्षतया प्रतीयत इत्यादि । तदपि
नोपपन्नम् । एकत्वमपि हि परापेक्षतया प्रतीभेदः परापेक्षया प्रस्फुरति
पा.यते ततश्चैतत्प्रत्ययोऽपि कल्पनाप्रत्ययरूपत्वे. दिवेदान्तिमतस्य निरा- नाप्रमाणत्वात् कथमिवैकत्वं साधयेत् । एकत्वं करणम् ।
ह्यनेकव्यक्तिग्रहणमन्तरेण कथं ग्रहीतुं शक्यत
२५
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः इति परापेक्षतथा गृह्यमाणत्वाध्यक्तमस्य परापेक्षत्वम् । अथैकत्वं परानपेक्षतया एवाध्यक्षेण समधिगतं परापेक्षया तु कल्पनाप्रत्ययेनानुगामिरूपतया व्यवयिते । तर्हि भेदोऽपि तथैव प्रत्यक्षेण परिच्छिनम्, केवलं परापेक्षया कल्पनाप्रत्ययेन व्यावृत्तस्वभावतया व्यवाहियत इत्यप्यनिवार्यम् । किं चान्यापेक्षया भवनमेव भेदप्रत्ययस्य कल्पनात्वं ५ स्यात्किं वा स्मरणसमनन्तरभावित्वं यद्वा शब्दानुविद्धत्वमुत जात्याधुलेखित्वमथासदर्थविषयत्वमुपचाररूपत्वं वा । नाद्यः पक्षः । एकत्वप्रत्ययस्यापि कल्पनात्वप्रसक्तेः । परापेक्षामन्तरेणैव भेदस्वरूपप्रतिभासस्य समर्थयिष्यमाणत्वाच्च । नापि द्वितीयः, एकत्वप्रत्ययस्यापि स्मरणसमनन्तरभावित्वेन कल्पनात्वापत्तेः । शब्दानुविद्धत्वं च ज्ञाने १० शब्दब्रह्मनिर्मूलनावसरे प्रागेव प्रतिक्षिप्तम् । स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमित्यादिभेदप्रतिभासस्य जात्याद्युल्लेखित्वात्कल्पनारूपतायामभेदज्ञानस्यापि कल्पनारूपत्वप्रसङ्गस्तस्यापि सत्तासामान्योल्लेखित्वात् । असदर्थविषयत्वं पुनर्भेदप्रतिभासस्यासिद्धम् । अर्थक्रियाकारिणो वस्तुभूतार्थस्य तत्र प्रतिभासनात् । नापि भेदप्रतिभासस्योपचाररूपत्वं कल्पनात्वं १५ सम्भवेत्, कचिदप्युपचारस्यानुपलम्भान्माणवकै पावकाापचारवत् । न चाभेदवादिनो मुख्यभेदाभ्युपगमोऽस्त्यपसिद्धान्तप्रसक्तेः ।“ मृत्योः स मृत्युमामोति य इह नानेव पश्यति" इति निन्दावादोऽप्यनुपपन्नः । भेदाभेदग्राहित्वेनैव निखिलप्रमाणानां प्रवृत्तेः समर्थयिष्यमाणत्वात् । यथोक्तमाहुर्विधातृप्रत्यक्षमित्यादि ।
२० . तत्र किमिदं प्रत्यक्षस्य विधातृत्वं नाम । सत्तामात्रावबोधोऽसा
__धारणवस्तुस्वरूपपरिच्छेदो वा । प्रथमपक्षो न प्रत्यक्षस्य विधातृत्वमेवेत्य
क्षमः । नित्यनिरंशव्यापिनो विशेषनिरपेक्षस्य
सत्तामात्रस्य स्वग्नेऽप्यप्रतीते,जिविषाणवत् । द्वितीयपक्षे न पुनः कथं नाद्वैतप्रतिपादकागमस्य प्रत्यक्षविरोधः । भाव- २५
1' मुख्यमन्तरेण ' इत्यधिकं म. पुस्तके । २ । यच्चोक्त ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
स्य खण्डनम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ भेदग्राहकत्वेनैव प्रत्यक्षस्य प्रवर्त्तमानत्वात् । अन्यथा त्वसाधारणस्वरूपपरिच्छेदकत्वविरोधोऽस्य । अथाभिदध्या: विधात्रिति कोऽर्थ इदमिति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति नान्यस्वरूपं निषेधति प्रत्यक्षमिति, नैवम् । अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदकस्याप्यसम्पत्तेः । पीतादिव्यवच्छिन्नं हि नीलं नीलमिति गृहीतं भवति नेतरथा । तथा चाहुः स्याद्वादबाह्या अपि । “ तत्परिच्छिनत्ति अतद्वयवच्छिन्नत्ति " इति । अपि च यदेदमिति वस्तुस्वरूपमेव गृह्णाति प्रत्यक्षमित्युच्यते । तदावश्यमपरस्य प्रतिषेधमपि तत्प्रतिपद्यत इत्यभिहितमेव भवति । केवलवस्तुस्वरूपप्रतिपत्तेरेवान्याभावप्रतिपत्तिरूपत्वात् । केवलभूतलप्रतिपत्तरेव घटाभावप्रतिपत्तिसिद्धेः । न ह्ययं प्रतिपत्ता किश्चिदुपलभ्यमानः पररूपैः संकीर्णमेवोपलभते । स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमिति तदसंकीर्णस्य समस्तस्य प्रतिभासात् । न च तैरसंकीर्णतैव । सदाद्यात्मनाऽपि तदसङ्करे तस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । स्वपररूपोपादानापो
हापाद्यत्वाद्वस्तुनो वस्तुत्वस्य । तथा चाहुर्वृद्धाः " सर्वमस्ति १५ स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात्स्व
रूपस्याप्यसम्भवः ॥१॥" किं च विधात्रेच प्रत्यक्षमिति नियमस्याङ्गीकारो विद्यावदविद्याया अपि विधानं तवानुषज्यते । सोऽयमविद्याविवेकेन सन्मानं प्रत्यक्षात् प्रतियन्नेव न निषेद तदिति ब्रुवाणः
कथं स्वस्थः । कथं वा प्रत्यक्षस्य निषेद्धृत्वाभावं प्रतीयात् । न ताव२० प्रमाणान्तरात् , द्वैतप्रसङ्गात् । स्वतस्तु प्रत्यक्षस्य तथा निश्चये सिद्धं
तस्य निषेद्धृत्वमपि । परस्याहं निषेद्धा न भवामीति स्वयं प्रतीतेः । एवं च भेदविषयमेव प्रत्यक्षम् ।
१ तद्पपरिच्छेदस्य ' इति . म. पुस्तके पाठः । २ 'हेतोरसङ्कीर्णव' इति म. पुस्तके पाठः। ३ ' अङ्गीकारे' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२०३ यञ्चोक्तं क्वचिद्भावे भावान्तरेभ्यो भेदः प्रतिपद्यमानः क्रमेण योगप
__हान वेत्यादि । तत्र योगपद्येनैव भेदप्रतिपत्तिरिति भेदो मिथ्येति मतस्य भेदव्यवस्थापनेन ब्रूमः । सदृशपरिणामस्येव विसदृशपरिणामस्यापि निराकरणम् । समस्तपदार्थानां युगपत् प्रतिभासात् । विसदृशपरिणामस्वभाव एव च भेदप्रतिभासः । यच्चात्रोक्तं भेदप्रतिपत्तेः ५ प्रतियोगिग्रहणसापेक्षत्वादित्यादि । तदप्यनुचितम् । यतो भेदव्यवहार एव परापेक्षो न पुनस्तत्स्वरूपप्रतिभासः । स हि तथाविधक्षयोपशम. विशेषात् प्रतियोगिग्रहणनिरपेक्ष एव प्रादुर्भवतीति सिद्धो युगपढ़ेदप्रतिभासः । भेदः पदार्थेभ्यो भिन्नः स्यादित्याद्यपि स्याद्वादस्वीकारात् प्रतिविहितम् । भेदो हि पदार्थानां धर्मः स च तेभ्यः कथञ्चिद्भिन्नोऽ- १० भिन्नश्च । न खलु धर्मधम्मिणोः सर्वथा भेदोऽभेदो वा सम्भवतीति पुरतः प्रकाशयिष्यते । यचोक्तं किमेक एव भेदः प्रत्यर्थं भिन्नो वेत्यादि । तत्र प्रत्यर्थ भिन्न इति नः पक्षः। साधारणासाधारणपरिगामवतो वस्तुनोऽसाधारणपरिणामस्य प्रतिवस्तुनियतस्याभेदत्वेनेष्टेः । स चायमीहशो भेदः स्वतो भेदान्तराद्वा न विद्यते। किन्तु प्रतिनियता- १५: द्वस्तूत्पादककारणादेव । कारणस्थापि प्रतिनियमः स्वकीयप्रतिनियतकारणादेव । न चैवमनवस्थादोषः । एवंविधानवस्थाया बीजाङ्कुरानवस्थानवन्मूलक्षयकारित्वाभावेन दूषणत्वासम्भवात् । एतेन पदार्थानां भेदः किं देशभेदादित्याद्यपि प्रत्युक्तम् ! अपि च यदीत्थं विकल्पाद्भेदो दूष्यते तदानीमभेदेऽपि भवतः का प्रत्याशा। तत्राप्येवंविध- २० विकल्पानां सुकरत्वात् । तथा ह्यमेदः पदार्थानां किं देशाभेदात् कालाभेदादाकाराभेदाद्वा भवेत् । यदि देशाभेदात् , तदा देशस्यापि कुतः सकाशादभेदः । अन्यदेशाभेदाच्छेदनवस्थाप्रसङ्गः । स्वतश्चेत्पदार्थानामपि स्वत एवाभेदो भवतु किं देशाभेदादभेदकल्पनयेत्यादि सर्वत्रापि योजनीयम् । यदपि निगदितं यत एवाविद्या ब्रह्मणोऽर्थान्तरभूता २५ . १ 'सर्वमत्रापि' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ तत्त्वतो नास्त्यत एव तैावर्तत इत्यादि। तदप्यसारतया डिण्डीरपिण्डाडम्बरं विडम्बयति । यतो यद्यवस्तुसत्यविद्या कथामियं प्रयासतो निवर्तनीया भवेत् । न ह्यवस्तुसन्तः सुरसरणिसरसिजप्रमुखाः प्रया
सतो निर्वर्तनीयतामनुसरन्तः समुपलभ्यन्ते । यद्यविद्यापि सती कथ५ मियं निवर्तयितुं केनापि शक्यतेति चेत् । कातर किमत्र संत्रासेन ।
सतामेव हि महीरुहादीनां निवृत्तिरिह प्रतीयते । तदियमविद्या निवर्तनीयत्वादेकान्तनित्या माभूत्सती तु भवत्येव । सत्त्वे च द्वितीयाया अविद्यायाः सद्भावात्कथमद्वैतवादः । न चाविद्यानिर्मितत्वेन महीरुहादीनामपि पदार्थानां परमार्थतोऽसत्त्वमिति वाच्यम् । परस्पराश्रयदोषप्रसक्तेः । सिद्धे ह्यविद्यानिर्मितत्वे तेषां परमार्थतोऽसत्त्वं सिद्धयति तत्सिद्धौ चाविद्यानिर्मितत्वसिद्धिरिति । यच्चोक्तं यथैव हि रजःसम्पर्ककलुषेम्भसीत्यादि । तदपि फल्गु । यतो बाध्यबाधकभावाभावे कथं श्रवणमननादिलक्षणाविद्यान्तरं प्रशमयेत् । बाध्यबाधकभावश्व सतोरेव दन्दशूकनकुलयोरिव न त्वसतोः शशकाश्वविषाणयोरिव । न वाऽविद्यात्वेन सम्मतस्य भेदस्योच्छेदो घटते । वस्तुस्वभावत्वेनाभेदस्येव तस्योच्छेतुमशक्तेः । ननु स्वमावस्थायां भेदाभावेऽपि भेदप्रतिभासो दृष्टस्ततो न पारमार्थिको भेद इति । अभेदेऽपि समानम् । तस्यापि तद्दशायामसतः प्रतिभासमानत्वेनापारमार्थिकत्वापत्तेः । कथं
च स्वप्नावस्थायां भेदस्यासत्त्वम् । बाध्यमानत्वाच्चेत्, तर्हि तत एवा२० भेदस्यापि तदस्तु । यदि च तदवस्थायां बाध्यमानत्वाद्भेदस्यासत्त्वम् । तहि जाग्रदवस्थायां तस्याबाध्यमानत्वात्सत्त्वमस्तु ।
एकत्रास्य बाध्यमानत्वोपलम्भात्सर्वत्रासत्त्वे च स्थाणौ पुरुषप्रत्ययस्य बाध्यमानत्वोपलम्भात्सर्वत्र पुरुषस्यासत्त्वप्रसङ्गः । ततो जाग्रदवस्थायां
स्वप्नावस्थायां वा यत्र बाधकोदयस्तदसत्यं यत्र तु तदभावस्तत्सत्यमित्युप२५ गन्तव्यम् । अपि च भेदप्रतिभासस्तावत्सर्वेषां भवति तस्यासत्यता कुतः
प्रतीयते किं तत एव प्रतिभासान्तराद्वा । तत एवेति न युक्तम् । तस्य
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः भेदविषयत्वात् । न हि भिन्ना एतेऽर्था इति प्रतिभासः स्वात्मनोऽसत्यतां निश्चिनोति । तन्निश्चये हि विपर्ययात् प्रवृत्तिर्न स्यात् । अथ प्रतिभासान्तरादसत्यता निश्चीयते । तदपि प्रतिभासान्तरं स्वसंवेदने नियतं कथमन्यस्यासत्यतां वेत्ति । अथोभयगोचरं तत्, तदा कथं न भेदावगमः । उभयगोचरत्वेऽपि न भेदाक्गम इति ५ स्ववचनविरोधः । पराभ्युपगमेनाभिधानादविरोध इति चेत् । स पराभ्युपगमः किं स्वाभ्युपगमादभेदेनावगतोऽथ भेदेनेति । यद्यभेदेन, तदासौ स्वाभ्युपगम एव स्यात् । अथ भेदेन, तर्हि तदवस्थ एव विरोधः । लोकव्यवहारानुवाद एष इति चेत्, स खलु लोकव्यवहारस्तत्त्वदृष्टेरर्थान्तरमनन्तरं वा । यदि नार्थान्तरम्, तर्हि तत्त्वदृष्टिरेव १० लोकव्यवहारः । ततस्तव्यवहारादेव भेदसिद्धिः । अथ तत्त्वदृष्टान्तरं लोकव्यवहारः । ततः कथं न भेदः । उपप्लव एवेति चेत् । सोऽपि सत्त्वदर्शनाद्भिन्नोऽथाभिन्न इति पूर्ववत्प्रसङ्गः । अविद्यानिम्मितः समस्ति भेद इत्यपि न युक्तम् । अविद्यापि तत्त्वदृष्टेरन्यानन्या वेत्यनिवृत्तः पर्यतुयोगः न चेत्थमनिर्वचनीयाऽविद्येत्यभिधातव्यम् । वस्तुनो १५ भेदाभेदाभ्यां विचार्यमाणत्वोपपत्तेः । न चावस्तुत्वमस्या इत्यभिधेयम् । वस्तुत्वस्यात्रैवानन्तरं प्रसाधितत्वात् । यच्च समारोपितादपि भेदाढ़ेदव्यवस्थोपपत्तेरित्याधुक्तम् । तदप्ययुक्तम् । आत्मनः सांशत्वे सत्येव बन्धमोक्षादिभेदव्यवस्थोपपत्तेः निरंशस्यान्तर्बहिर्वा वस्तुनः सर्वथाप्यप्रतीतेरित्यात्माद्वैताभिनिवेशं परित्यज्यान्तर्बहिश्चानेकप्रकारं वस्तु वास्तवं २० प्रमाणसिद्धमङ्गीकर्त्तव्यं न पुनर्भेदप्रपञ्चः समग्रोऽपि हेय इति वाच्यमिति । तस्मात्तद्वैतमेतत्प्रबलपरिलसद्युक्तिभिर्विप्रयुक्तं
युक्तं किं नाम वक्तुं कथय तव सखे युक्तिमार्गानुगस्य।
१ 'अर्थभेदेन'इति भ.प. पुस्तकयोः पाठः । २ 'अर्थ' इति भ. प. पुस्तकयोः पाठः । ३ 'तत्त्व' इति म. प. पुस्तकयोः पाठः ।
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प्रमाणनयत्तत्त्वालोकालङ्कारः
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छिद्रप्रच्छादनार्थं प्रकटयति भवान्यामपीमामविद्यामत्यन्तं च्छिद्रिताऽसौ प्रभवति न तरां तत्समाच्छादनाय ॥ २२२ ॥ अद्यापि वादिन्यदि तुण्डकण्डूर्विडम्बयत्येव भवन्तमेषा |
तदा पुनब्रूहि वयं तदेतत्तथैव वर्त्तेमहि हन्त सज्जाः ॥ २२३ ॥ नवेष ब्रवीमि । विवादविषयापन्नः प्रपंचो मिथ्या प्रतीयमानत्वाद्यदित्थं तदित्थं यथा निशीथिनीनाथद्वित्वमिति । श्रुतमिथ्यात्वसाधकानुमानस्य खण्डनम् । मिदमनुमानं परं दुर्बारमारुतप्रहततरंगिणीतुङ्गतङ्गतरङ्गपरम्पराप्रेरितोत्पलनालवद्दोलायते । तथाहि मिध्यात्वमत्र कीदृक्षमाकांक्षितं सूक्ष्मदृशा, किमत्यन्तासत्त्वमुतान्यस्यान्याकारतया प्रतीतत्व१० माहोस्विदनिर्वचनीयत्वमिति न तावदाद्यः पक्षः, असत्ख्यातेस्त्वयाऽनङ्गीकाराच्चन्द्रद्वित्वस्यात्यन्तासत्त्वाभावेनोदाहरणस्य साध्यविकलत्वप्रसङ्गाच्च । अथान्यस्यान्याकारतया प्रतीतत्वम्, तदपि न । विपरीत - ख्यातेरपि त्वयाऽनभ्युपगमात् । अथानिर्वचनीयत्वरूपं मिथ्यात्वं सिषाधयिषितम् । तदापि चन्द्रद्वित्वे तदभावात्साध्यविकलत्वमुदा१५ हरणस्य । न हि चन्द्रद्वित्वमनिर्वचनीयत्वेन प्रतिपन्नमस्त्यनिर्वचनीयख्यातिप्रत्याख्यानप्रघट्टके विकुट्टितत्वात् । प्रत्यक्षबाधितत्वं च पक्षस्य दोषः अनुष्णस्तेजोऽवयवात्यादिवत् । तथाहि सन् घटः सन् पट इत्याद्युल्लेखवता प्रत्यक्षेण प्रपञ्चस्य सत्यत्वमेव प्रतीयते न हि घटादेः पृथक् प्रपञ्चो नाम कश्चिदस्ति । ननु पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वमसमंजसं प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन २० प्रत्यक्षस्य तत्रापि मिथ्यात्वस्य साध्यमानत्वात् । न च मिथ्यारूपेण तेन किमपि बाधितुं शक्यमतिप्रसक्तेः । ततश्च यथानुमानमिथ्यात्वं साधयन्तं लोकायतं प्रत्यनुमानबाधा नोपपन्ना तथा प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन प्रत्यक्षमिथ्यात्वं साधयन्तं मायावादिनं प्रति प्रत्यक्षबाधापीति चेत् । न । त्वदीयानुमानस्यापि प्रत्यक्षवत् प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन मिथ्यात्वात्प्रस्तु२५ तसाध्यसाधकत्वानुपपत्तिप्रसक्तेः । अथैवमभिधीयते प्रपञ्चमिध्यात्वप्रसाधकमिदमनुमानमेव सन् घटः सन् पट इत्यादिप्रत्यक्षप्रतीतिं बाधते
[ परि. १ सू. १६
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परि. १ सू. १६] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तत्कथं पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वमिति । तन्न वाच्यम् । इतरेतराश्रयप्रसङ्गात् । प्रपञ्चग्राहिणि प्रत्यक्षे बाधिते सत्यस्यानुमानस्य प्रसवः प्रस्तुते चास्मिन्ननुमानेऽनेनप्रत्यक्षबाधितत्वम् । किं च लिङ्गजत्वमात्रमिन्द्रियजत्वमानं वा न बाधकत्वे प्रयोजकमपि त्वनन्यथासिद्धत्वमेव । यत् खल्वन्यथासिद्धं तदनन्यथासिद्धेन बाध्यतेऽनन्यथासिद्धं चात्रेन्द्रि- ५ यजं विज्ञानमतो मिथ्यात्वानुमानं बाधत एव । नन्वेवमनुमानमपि प्रत्यक्ष बाधेत विशेषाभावात् । इदमतिपरिफल्गु । विशेषाभावासिद्धेः । अन्यथासिद्धत्वलक्षणस्य विशेषस्य प्रस्तुतानुमाने विद्यमानत्वात् । तथाहि प्रतीयमानस्य प्रकृतहेतोः प्रपञ्चाख्ये धर्मिणि सत्यत्वेनैवान्यथा. नुपपत्तिर्न पुनर्मिथ्यात्वेन । यदि हि घटादिप्रपञ्चो मिथ्यारूप: स्या- १० तदा कथं नाम स्वविषयां प्रतीति जनयेत् । न खलु मिथ्याभूत निशीथिनीनाथद्वित्वादिकं कस्याश्चित् प्रतीतेर्जनकत्वेन सम्मतं विदुघाम् । प्रतीतिजनकत्वाभावे च प्रपञ्चस्य प्रतीयमानत्वमपि न स्यात् । तवेदतीक्रियते तर्हि तव्यापकं सत्यत्वमपि प्रपञ्चस्य किन्नाङ्गीकरणीयम् ततः सत्यत्वेनैवान्यथानुपपन्नः प्रतीयमानत्वाख्यो हेतुर्न मिथ्यात्वेनेत्य- १५ न्यथासिद्धमिदं प्रपञ्चमिथ्यात्वानुमानम् । न चैवं सन् घटः सन् पट इत्याद्युल्लेखवतः प्रपञ्चसत्त्वग्राहकस्य प्रत्यक्षस्यान्यथासिद्धिरस्ति । गत्यन्तराभावात् । न खलु प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वे प्रत्यक्षस्य कथञ्चिदुत्पत्तिः सम्भविनी । मिथ्यारूपस्य कस्यचित्काञ्चिदपि प्रतीति प्रति न जनकत्वमित्युक्तत्वात् । तदेवमनन्यथासिद्धमिदं प्रत्यक्षमेव प्रपञ्चमिथ्या- २० त्वानुमानमन्यथासिद्ध बाधते । ततः सिद्ध पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वम् । विवादास्पदीभूतः प्रपञ्चो मिथ्या न भवति असद्विलक्षणत्वाद्य एवं स एवं यथात्मा तथा चायं तस्मात्तथत्यनुमानबाधितत्वं च । प्रतीयमानत्वं च हेतुत्वेनाभिमतं भवतः किं प्रतिभास्यत्वमात्रमाहोस्वित्प्रतीतिजनकत्वेन प्रतिभास्यत्वस्य प्रपंचे भवतानभ्युपगमात् । अनैकान्तिकत्वं च, यस्मा- २५ दात्मनः प्रतीतिजनकत्वेनाभ्युपगमात् प्रतिभास्यत्वमस्ति न च मिथ्या
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. १६ त्वम् । तस्य मिथ्यात्वे वा स्वसिद्धान्तविरोधापत्तिः । साधनविकलत्वं चात्र पक्षे दृष्टान्तस्य । उदाहरणीकृते निशीथिनीनाथद्वित्वे प्रतीतिजनकत्वेन प्रतिभास्यत्वस्य साधनस्याभावात् । न हि मिथ्यारूपं चन्द्रद्वित्वं कस्यचिदपि ज्ञानस्य जनकत्वेन प्रतीतमपि त्वेकत्वमेव शुद्धांशो५ स्तथाविधदोषसामग्रीसमवधानसामर्थ्यावित्वोल्लेखिनी, धियमुपजनयतीत्यवोचाम विपरीतख्यातिविचारावसरे । विरुद्धत्वं चास्य हेतोः, साध्यविपरीतसाधनात् । तथाहि विवादाधिरूढः प्रपञ्चो मिथ्या न भवति प्रतीतिजनकत्वे सति प्रतिभास्यत्वाद्य इत्थं स इत्थं यथात्मा तथा चाय तस्मात्तथेति । अपि च किं सम्यक्प्रतीयमानत्वं साधनत्वेन विवक्षितं मिथ्याप्रतीयमानत्वं वा । प्रथमपक्षे वाद्यसिद्धत्वं हेतोः । सम्यक्प्रतीयमानत्वस्थ प्रपञ्च त्वयानभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा विरुद्धत्वं स्यात् सम्यक्प्रतीयमानत्वस्य सत्यत्वेनैवाविनाभूतत्वात् । द्वितीयपक्षे पुनः प्रतिवाद्यसिद्धित्वम् । मिथ्याप्रतीयमानत्वस्य प्रपञ्चे स्याद्वादि
भिरनङ्गीकरणादिति । इदं च पर्यनुयोज्यो भवान्किमेतदनुमानं १५ प्रपञ्चाद्भिन्नमभिन्नं वा । यदि भिन्नम्, तर्हि सत्यमसत्यं वा, यदि सत्यम्,
तदा तद्दष्टान्तबलेन प्रपञ्चस्यापि सत्यत्वं स्यात् । अनुमानस्यापि हि सत्यत्वं प्रतीयमानत्वादेव भवद्भिरभ्युपेयं तच्च प्रपञ्चेऽप्यविशिष्टमिति कथं स न सत्यः स्यात् । अथासत्यम्, तत्रापि शून्यमन्यथाख्यातमनिर्वचनीयं वा । आद्यपक्षद्वये न साध्यसाधकत्वं सम्भवति । नृशङ्गवच्छुक्तिकाकलधौतवच्च । तृतीयपक्षोऽपि न श्रेयान् । अनिर्वचनीयत्वस्य प्रपञ्चतः प्रागेव प्रतिहतत्वात् । व्यवहारसत्यमिदमनुमानमतोऽसत्यत्वाभावात् स्वसाध्यसाधकमिति चेत् किमिदं व्यवहारसत्यं नाम । व्यवहृतिर्व्यवहारो ज्ञानं तेन च सत्यं तर्हि परमार्थिकमेतत् ।
ज्ञानजनकत्वेनार्थक्रियाकारित्वात् पारमार्थिकत्वे वाऽस्यैतद्दष्टान्तबलेनैव २५ प्रपञ्चस्यापि पारमार्थिकत्वं दुःप्रतिषेधं स्यात् । अथ व्यवहारः शब्द
स्तेन सत्यं व्यवहारसत्यमिति बधे । ननु शब्दोऽपि सत्यस्वरूपस्त.
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परि. १ सू. १६]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
दितरो वा । सत्यस्वरूपश्चेत्, तर्हि तेन यत्सत्यं तत्पारमार्थिकमेव । तत्र चोतो दोषः । अथासत्यस्वरूपश्शब्दः, कथं ततस्तस्य सत्यत्वं नाम । नहि स्वयम सत्यमन्यस्य सत्यत्वव्यवस्थापनहेतुरतिप्रसङ्गात् । अथ कूटकार्षापणे सत्यकार्षापणोचितक्रय विक्रयव्यवहारजनकत्वेन सत्यकार्षापणव्यवहारवद सत्येऽप्यनुमाने सत्यव्यवहार इति चेत् । तर्हि सत्यमेव तदनुमानम् । तत्र चोक्तो दोषः । अतो न प्रपञ्चाद्भिन्नमनुमानं कथमप्युपपद्यते । नाप्यभिन्नम् । प्रपञ्चस्वभावतया तस्यापि मिध्यात्वप्रसक्तेर्मिथ्यारूषं तत्कथं मानं स्वसाध्यं साधयेदित्युक्तमेव ।
तस्मादेवं यत्प्रपञ्चानृतत्वे साध्ये साधो प्रत्यपादि प्रमाणम् ॥ तस्मिन् साध्यं साधनं चेति सर्वे प्रत्याख्यातं प्रोक्तयुक्तिप्रबन्धात् ॥२२४॥ १० यान्यपि परैरपराणि प्रपञ्चगोचराण्यनुमानानि ख्याप्यन्ते । विवादगोचरापन्नः प्रपञ्चः सन्न भवति प्रतीयमानत्वाअद्वैतवादिसंमतानुमानान्तरखण्डनम् । द्दृश्यत्वाद्वा यथा चन्द्रद्वैतरूप्यम् । तथा प्रपञ्चो मृषा सत्त्वासत्त्वाभ्यामनिर्वाच्यो वाऽनात्मत्वाज्जडत्वादुत्पत्तिमत्त्वाद्विनाशित्वाद्वा यत्पुनर्मृषा न भवति सत्त्वासत्त्वाभ्यामनिर्वाच्यं न भवति १५ तन्न यथोक्तानात्मत्वादिसाधनाधिकरणं यथात्मतत्त्वमित्यादीनि । तत्र तावत्पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वमनुमानबाधितत्वं च सर्वत्राप्यविशिष्टं द्रष्टव्यम् । तथा हि सन् घटः सन्पट इत्याद्युल्लेखवता निर्बाधप्रत्यक्षेण प्रपञ्चस्य सत्त्वं, सत्यत्वं, निर्वाच्यत्वं च प्रतीयते न पुनरसत्त्वं, मृषात्वनिर्वाच्यत्वं चेति व्यक्तं पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वम् । तथा विवादास्पदः २० प्रपञ्चः सद्रूपस्तथा सत्यः सत्त्वासत्त्वाभ्यां निर्वाच्यश्चासद्विलक्षणत्वाद्यदेवं तदेवं यथात्मतत्त्वमसद्विलक्षणश्च प्रपञ्चस्तस्माद्यथोक्तसाध्यत्रयसम्पन्न इत्यनुमानबाधितत्वं च । प्रपञ्चासत्त्वप्रतिज्ञायां च प्रतीयमानत्वदृश्यत्वलक्षणं हेतुद्वयं पूर्वोक्तानुमानहेतुवद्विदुषा स्वयमभ्यूह्य दूषणीयम् । शेषाश्चा
१ ' स्वरूपं ' इति प म पुस्तकयोः पाठः ।
૧૪
२०९
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२५०
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १६ नात्मत्वादयो हेतवः सर्वेऽप्यन्यथानुपपत्तिशून्यत्वेन व्यभिचारित्वान्न स्वसाध्यसमर्थनासामर्थ्यभाजो भवितुमर्हन्ति । न खलु मृषात्वानिर्वचनीयत्वाभ्यां सार्द्धमनात्मत्वजडत्वोत्पत्तिमत्त्वविनाशित्वादिहेतूनामन्यथानुपपत्तिः केनापि प्रमाणेन प्रतीयते । सत्यत्वनिर्वचनीयत्वाभ्यां सह तेषां विरोधाप्रतिपत्तेः । तथा सर्वेऽप्यमी हेतवः किमसद्रूपाः सद्रूपा वा, असत्याः सत्या वा, अनिर्वचनीया निर्वचनीया वा । असद्रूपासत्यानिर्वचनीयपक्षेषु प्रतिवाद्यसिद्धत्वं हेतूनाम् । अनेकान्तवादिभिस्तथानङ्गीकरणात् । सद्रूपसत्यनिर्वचनीयपक्षेषु पुनर्वाद्यसिद्धत्वम् । तेषां प्रपञ्चा
न्तर्गतत्वेन हेतूनामप्यसद्रूपतया मृषारूपतयाऽनिर्वचनीयतया च भवता १० स्वीकरणात् । तथारूपतया तेषामस्वीकरणे वा तद्दष्टान्तबलेनैव
विवक्षितप्रपञ्चस्यापि सद्रूपत्वं सत्यत्वं निर्वचनीयत्वं च प्रसज्यमानं केन वार्येत । विशेषाभावात् । तथैतान्यनुमानानि प्रपञ्चाद्भिन्नान्यभिन्नानि वा | भिन्नान्यपि सत्यान्यसत्यानि वा प्रपञ्चाख्योऽपि धर्मी प्रसिद्धोऽप्रसिद्धो वेत्यादि सर्वमत्रापि प्राग्वत् कुशाग्रीयमतिना चिन्तनीयमिति । १५ तस्मात् ब्रह्म ब्रह्मवादिन्निदानी मूलादेव क्षिप्तमेतत्त्वदुक्तम् । यन्निःशेषा युक्तिवाथी त्वदीया शान्ति नीता कीर्तिता च स्वकीया।२२५|| एवं च-- ज्ञानाद्वैतं निरस्तं तदनु विदलितश्चित्रविज्ञानवादः
शून्यं निळूनमस्याप्युपरि परिहताऽनन्तरं ब्रह्मवार्ता ।
तस्मादुद्दामयुक्तिव्यतिकरकलितस्तत्र यल्लोकयात्रा स्तम्भादिस्तात्त्विकोऽयं जयति भुवि परध्वानवाच्यःपदार्थः।२२६॥१६॥
इदानीं प्राक्प्रतिज्ञानं स्वव्यवसायित्वं ज्ञानविशेषणं व्याख्यानयन्नाहस्वस्य व्यवसायः स्वाभिमुख्येन प्रकाशनं बाह्यस्येव तदाभिमुख्येन करिकलभकमहमात्मना जानामीति
इति ॥ १७ ॥
२०
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परि. १ सू. १७] स्याद्वादरत्नाकरसहितः :
स्वस्थ प्रमाणत्वेनाभिमतस्य ज्ञानस्वरूपस्य सम्बन्धी व्यवसायः । क उच्यत इत्याह । स्वस्य विज्ञानस्वरूपस्याभिमुख्यमन्मुख्यता स्वाभिमुख्यं तेन स्वाभिमुख्येन स्वानुभवनेन प्रकाशनं प्रतिभासनं यत्स इति । स्वव्यवसायसमर्थनार्थ बाह्यार्थव्यवसायं स्वपरप्रसिद्धं बाह्यस्येवेत्यादिना दृष्टान्तीकरोति । यथा बाह्याभिमुख्यन प्रकाशनं बाह्यव्यवसायो ज्ञानस्य ५ तथा स्वाभिमुख्येन प्रकाशनं स्वस्य व्यवसायः। उल्लेखमाह । करिकलभकमिति प्रमेयस्य अहमिति प्रमातुर्जानामीति प्रमितेः प्रतिभासम्तथात्मनेति प्रमाणाभिमतज्ञानस्यापि । इदमत्र हृदयम् । ज्ञानान्तरानपेक्षं यत्स्वरूपप्रकाशनं तदिह स्वव्यवसायित्वं वादिप्रतिवादिभ्यां ज्ञानस्याभिमतं परव्यवसायित्वान्यथानुपपत्तेः । तथाहि ज्ञानं स्वव्यवसायि परव्यवसायित्वात् यत्तु स्वव्यवसायि न
भवति न तत्परव्यवसायि यथा स्तम्भादि परव्यज्ञाने स्वव्यवसायित्वप्रसा धकमनमानमपदर्शितं वसायि च ज्ञानं ततः स्वव्यवसायीति । न ताव
तत्र दूषणोद्धारः । दत्र हेतुरसिद्धः । परव्यवसायित्वस्य ज्ञाने वादिप्रतिवादिभ्यां प्रतिपन्नत्वात् । नापि स्वरूपमात्रव्यवसायव्यावृते १५ सुखादिज्ञाने परव्यवसायित्वाभावानिखिलपक्षाव्यापकतया भागासिद्धोऽयं हेतुरिति शङ्कनीयम् । सुखादिसंवेदनस्यापि स्वस्मात्पृथग्भूतस्य सुखादेः परिच्छेदकत्वात्परव्यवसायित्वसिद्धेः । न च कुम्भादिवेदनस्यापि सर्वथा स्वपृथग्भूतार्थपरिच्छेदकत्वम् । सत्त्वप्रमेयत्ववस्तुत्वादिरूपेण कुम्भादेः संवेदनाभेदप्रतीतेः । अन्यथा तस्यासत्त्वप्रसक्तेः । २० कथञ्चित् पृथग्भूतत्वं तु सुखादिसंवेदनात्सुखादेरपि प्रतीयत एव । सुखादितत्संवेदनयोः कारणादिभेदव्यवस्थितेः । यथा च तयोः कारणादिभेदः सम्भवति तथाऽवस्तादेव चित्रविज्ञानवादविचारे विवेचितम् । नन्वेवं कुम्भादिज्ञानवत्सुखादिज्ञानस्यापि बहिर्भूतार्थपरिच्छेदकत्वात्ताभ्यामन्यस्य च विज्ञानस्यासम्भवारिक स्वस्य संवेदकं ज्ञानं स्या- २५ १ 'भेदात् ' इत्यधिक प. पुस्तके !
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२१२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. १ सू. १७
दिति चेत् । न । तस्यैव कुम्भादिसुखादिज्ञानस्य स्वरूपसंवेदकस्य सतः परसंवेदकत्वोपगमात् स्वसंवेदनसिद्धेः । स्वपरव्यवसायकत्वानिखिलवेदनस्य ततः सुखादिज्ञानस्यापि परव्यवसायित्वसिद्धेनीय
भागासिद्धो हेतुः । नाप्यनैकान्तिकः । स्तम्भादेविपक्षात् स्वसाध्य५ व्यावृत्तौ परव्यवसायित्वहेतोरप्यत्यन्तं व्यावृत्तत्वात् । विरुद्धोऽपि नासौ साध्यविपर्ययान्यथानुपपन्नत्वं हि तल्लक्षणं न चात्र तदस्तीति ॥१७॥
स्वव्यवसायित्वमेव ज्ञानस्य स्पष्टदृष्टान्तोपदर्शनेन सावष्टम्भं समर्थयमानः प्राह---
कः खलु ज्ञानस्यालम्बनं बाह्यं प्रतिभातमभिमन्य. १० मानस्तदपि तत्प्रकारं नाभिमन्येत मिहिरालोक
वदिति ॥ १८ ॥ कः खलु लौकिकः परीक्षको वा । ज्ञानस्यालम्बनं गोचरम् । बाह्य ज्ञानाबहिर्भूतम् । प्रतिभातं परिस्फुरितं प्रकटीभूतमिति यावत् ।
अभिमन्यमानः स्वीकुर्वाण: । तदपि ज्ञानमपि । स प्रतिभातत्वलक्षणः १५ प्रकारः प्रतिनियतं स्वरूपं यस्य तत्तत्प्रकारं प्रतिभातमिल्यर्थः । नाभि
मन्येत किं तर्हि प्रतीतिमनुसरन्नभिमन्येतैव । किमिवेत्याह । मिहिरालोकवत् मार्तण्डालोकमिव । यथैव हि गिरिनगरगहनादिकं मिहिरालोकस्य विषयं प्रतिभातमभिमन्यमानैस्तैर्ज्ञानमपि प्रतिभातं
स्वीकर्तव्यमित्यर्थः । २० अत्राहुजैमिनीयाः ।
अये भवानत्र यथा कथञ्चित् जैमिनीयमतस्योपपा- स्वमन्दिरे गायतु मङ्गलानि ।। दनपूर्वक खण्डनम्। विचार्यमाणं तु न वेदनस्य
स्वसंविदात्मत्वमुपैति युक्तिम् ॥२२७।। १ प्रतिभातमभिमन्यमानैमिहिरालोकोऽपि प्रतिभातोऽभिमन्यते लौकिकपरीक्षकैस्तद्वज्ज्ञानस्य विषयं प्रतिभात इत्यादि कुम्भादिकं ' इत्याधिक चिहान्तगतं म. पुस्तके ।
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परि. १ सू. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२१३ कर्मत्वेनाप्रतीयमाने हि तस्मिन्परोक्षत्वमेवोपपद्यते । तथाहि ज्ञानं परोक्षं कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात् । न खलु स्तम्भादिभाववत्कर्मत्वेन ज्ञानं स्वप्नेऽपि प्रतिभासते । प्रतिभासने वा करणात्मनो ज्ञानान्तरस्य परिकल्पना प्रसज्येत । तस्यापि प्रत्यक्षत्वे करणात्मकं ज्ञानान्तरं परिकल्पनीयमित्यनवस्था दुर्निवारा स्यात् । तस्याप्रत्यक्षत्वेऽपि ५ करणत्वे प्रथमज्ञाने किं दुश्चरितमालोचितं चेतस्विना । येनास्य परोक्षत्वे करणत्वं नानुमन्यते । तस्मादेतद्दोषसंश्लेषमनमिलषता ज्ञानस्य स्वव्यवसायित्वमुपेक्ष्य प्रतीत्यनुल्लङ्घनेन परोक्षरूपतैव स्वीकर्तव्या । इन्द्रियार्थसंप्रयोगादिसामग्रीतो हि क्रियास्वभावमात्मनि ज्ञानमुपजाय. मानं नित्यपरोक्षरूपमेवोपजायत इति । मीमांसकैरेवमवादि बुद्धि-पारोक्ष्यसिद्धावनुमाप्रमाणम् ।। एषा च दोषैर्व्यभिचारमुख्यैः कलङ्किता भाति यतीश्वराणाम् ॥२२८॥
तथा ह्यस्यामनुमायां कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वाख्यस्य हेतोरात्मना प्रमाणफलेन च व्यभिचारित्वं । तावत्कर्मत्वेनाननुभूयमानयोरप्यनयोः प्रत्यक्षत्वेनाङ्गीकरणात् । यदि पुनरेतयोः कर्मत्वेनाननुभूयमानयोरपि १५ कर्तृत्वेन प्रमाणफलत्वेन वानुभूयमानत्वात् प्रत्यक्षत्वमनुमन्यते । तर्हि प्रमाणत्वेनाभिमतस्य ज्ञानस्य कर्मत्वेनाननुभूयमानस्यापि करणत्वेनानुभूयमानत्वात्प्रत्यक्षत्वमनुमन्यतां विशेषाभावात् । अथ करणत्वेनानुभूयमानं ज्ञानं करणमेव स्यान्न प्रत्यक्षम् । तर्हि कर्तृप्रमाणफलरूपतयानुभूयमानयोरात्मप्रमाणफलयोः कर्तृप्रमाणफलरूपतैव स्यान्न २० प्रत्यक्षत्वमित्यप्यस्तु । तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् । अपि चात्मनः प्रत्यक्षत्वे परोक्षज्ञानकल्पनायाः किं फलम् । आत्मन एव स्वरूपवबाद्यार्थग्राहकत्वप्रसिद्धेः । अथ कर्तुः करणमन्तरेण क्रियायां व्यापारासम्भवात्करणभूतपरोक्षज्ञानकल्पना न निष्फलेल्युच्यते । तदप्यसाधीयः । मनसश्चक्षुरादेश्चान्तर्बहिःकरणस्य सद्भावात्ताभ्यां २५ ज्ञानस्य परोक्षत्वेन विशेषाभावाच । अथ मनश्चक्षुरादिकायादेर
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२१४
१०
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. १८ चेतनत्वात् ज्ञानाख्यं करणं चेतनत्वेन ताभ्यां विशिष्यत इत्युच्यते । तदप्यनुपपन्नम् । भावरूपयोरिन्द्रियमनसोरपि चेतनत्वात् । तत्परोक्षत्वसाधने च सिद्धसाधनम् । स्वार्थग्रहणशक्तिलक्षणाया भावेन्द्रियमनःस्वभावाया लब्धेरग्दिर्शिनामप्रत्यक्षत्वात् । उपयोगलक्षणं तु भावकरणमप्रत्यक्षं न जातुचिद्भवति । स्वार्थग्रहणन्यापारलक्षणस्यास्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात् । चक्षुरादिद्वारेणोपयुक्तोऽहं घटं पश्यामीत्युपयोगस्वरूपसंवेदनस्य सर्वेषामपि प्रसिद्धत्वात् । क्रियायाः करणाविनामावित्वे वात्मनः स्वसंचित्तौ किं करणं स्यात् । स्वात्मैवेति, तदर्थेऽपि स एवास्तु किमदृष्टान्यकल्पनया । स्वात्मनः करणतायामात्मनः शाश्वतत्वाच्छश्वदर्थप्रकाशानुषङ्ग इति चेत् । तत एव तस्य स्वसंवेदनं कुतो न शाश्वतम् । तस्य तद्धर्मत्वादिति चेत्, बहिरर्थप्रकाशनमपि तत एव शाश्वतं. माभूत् । कथं तर्हि शाश्वतयोरात्मज्ञानयोर्धम॑धर्मिभावः पुरुषस्वसंवेदनयोरपि भेदोपगमादिति चेत् इतरत्रापि तुल्यमेतत् । सर्वत्र धर्मधभिणोर्मेदाभेदात्मकतायामविवादात् । स्वसंवेदनमपि पुरुषस्य शाश्वतमिति चेत् । न । श्रोत्रियमतव्याघाताद्देशादिप्रतिनियमानुपपत्तेश्च । यदि पुनरभिव्यञ्जकप्रत्ययवशात्तदभिव्यक्तिप्रतिनियमस्तदा पुरुषस्य शाश्वतार्थप्रकाशनप्रतिनियमोऽपि तथैव स्यात् । किं चैवं सति न किंचिदनित्यमसर्वगतं वा नाम स्यात् । अभिव्यञ्जकवशादेव सर्वस्य देशादिनियमोपपत्तेर्यतः कपिलमतसिद्धिर्न भवेदिति स्वपरप्रकाशके पुरुषे सत्यपार्थक परोक्षज्ञानपरिकल्पनम् । परोक्षेण चक्षुरादिनैव प्रयोजनसिद्धेस्ततश्चक्षुरादिभ्यो विशेषमिच्छता करणज्ञानस्य कर्मत्वेनाप्रतीयमानस्यापि प्रत्यक्षत्वमङ्गीकर्त्तव्यम् । किं चात्मप्रमाणफलाभ्यां सकाशाकरणज्ञानस्य सर्वथा भेदः कथंचिद्वा । न तावत् सर्वथा । मतान्तर
प्रसक्तेः । न खलु धर्मधर्मिणोर्भवन्मतेऽपि सर्वथा भेदोऽभ्युपेयते । २५ अथ कथाश्चिद्भेदः । तर्हि न करणज्ञानस्यैकान्तेनाप्रत्यक्षत्वम् । प्रत्यक्ष
स्वभावाभ्यामात्मप्रमाणफलाभ्याममिन्नस्य तस्यैकान्ततोऽप्रत्यक्षत्ववि
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परि. १ सू. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः रोधात् । अपि च समस्तप्रमाणापेक्षया ज्ञानस्य कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वं हेतुत्वेनाभिमतं स्वरूपापेक्षया वा । यदि समस्तप्रमाणापेक्षया, तदा सत्त्वमपि ज्ञानस्य दुःप्रापं स्यात् । तथाहि यत् समस्तप्रमाणापेक्षया कर्म न भवति न तत्सयवहारसरणिमनुसरति यथा तुरङ्गशृङ्गं समस्तप्रमाणापेक्षया न भवति च कर्म ज्ञानमिति । एवं ज्ञेयेऽपि कः समाश्वासः ५ स्यात् ज्ञाननिबन्धनत्वात् ज्ञेयव्यवस्थितेरित्यनभिलषतोऽपि निखिलशून्यतावादः समायात इति साधुसाधितं बुद्धेः पारोक्ष्यं श्रोत्रियेण । अथ शून्यतापक्षो न क्षोद क्षमेत् । तर्हि ज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वेऽपि प्रमाणान्तरात् प्रतीतिरवश्यमरीकर्तव्येति समस्तप्रमाणापेक्षया कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वादित्यस्य हेतोरसिद्धत्वम् । अथ स्वरूपापेक्षया कर्मत्वेनाप्रतीयमा- १० नत्वम् । तदप्यनुभवेन प्रतिहन्यमानत्वादनुचितम् । सकलजगत्प्रतीतौ हि स्तम्भग्राहिज्ञानं ततोऽहमनुभवामीत्यनुभवस्तस्माञ्च प्रसिद्ध ज्ञाने स्वरूपापेक्षया कर्मत्वं कथं नामापहोतुं शक्यते । ततश्च स्वरूपापेक्षया कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वादित्यत्रापि पक्षे हेतोरसिद्धत्वमेव दोषः । एतेन प्रतिभासने वा करणात्मनोर्ज्ञानान्तरस्येत्यादिना याऽनवस्थोक्ता सापि १५ प्रत्युक्ता । स्वरूपापेक्षयैव ज्ञाने कर्मत्वप्रतिभासस्य समर्थितत्वात् । किं च प्रतीतिसिद्धमपि ज्ञाने प्रत्यक्षत्वं कर्मत्वं च यद्यपलप्यते तेथार्थेऽपि प्रत्यक्षत्वकर्मत्वयोः कः समाश्वास इति कथमर्थस्य व्यतिरेकदृष्टान्तत्वेनोपादानं स्यात् । प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां च ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वं प्रतीयते । तथाहि यत्परोक्षं न तत्स्वोपघानेनाप्युपलम्भयति यथेन्द्रियम् । परोक्षं २० च भवद्भिः परिकल्पितं ज्ञानमिति प्रसङ्गः । विपर्ययस्तु यत्स्वाकारोपहितमाकारान्तरमुपलम्भयति तत्परोक्षं न भवति प्रत्यक्षं वा भवति यथा प्रदीपाद्यालोकः । उपलम्भयति च ज्ञानं स्वाकारोपहितं नीलादिकमिति । एवं च ।
-
-
१' उररीकर्तव्या' इति प. पुस्तके पाठः । २ तदा' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः । ३ प्रत्यक्षं वा भवति' इति प. पुस्तके नास्ति ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १८
'
,
आत्मप्रतीतिं परिमुच्य जातु वस्तुप्रतीतिर्न समस्ति बुद्धया || त्यजन्निदं वल्गु विचारतत्त्वं नात्रैव मीमांसके एष वादी || २२९ ॥ अपि च ज्ञानस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षाविषयत्वे कुतस्तत्सत्ता प्रतीयेत । प्रत्यक्षान्तरादनुमानादर्थापत्तेर्वा । न तावत्प्रत्यक्षान्तरात्, कणभक्षाक्ष५ पादपक्षकक्षीकारानुषङ्गात् । नाप्यनुमानात्, यतस्तत्र लिङ्गं चक्षुरादी - न्द्रियमर्थस्तदतिशयस्तत्सम्बन्धस्तत्र प्रवृत्तिर्वा स्यात् । यदि चक्षुरादीन्द्रियम्, तर्हि तदपि निर्विशिष्टं विशिष्टं वा ज्ञानस्य गमकं भवेत् । यदि निर्विशिष्टम्, तदा सुप्तमत्तमूच्छितान्यत्रगतचित्तावस्थास्वपि ज्ञानं तद्गमयेत्तत्सत्तायास्तत्राप्यविशेषात् । अथ विशिष्टम् ननु केन १० विशेषणेन विशिष्टत्वमिन्द्रियस्य किमनावरणत्वेन प्रगुणननः सहकृतत्वेन वा । न तावदनावरणत्वेन तस्य प्रत्यक्षतः प्रत्येतुमशक्यत्वादप्रतीतस्य च हेतुविशेषणत्वे विशेषणासिद्धो हेतुः स्यात् । अथ विषयपरिछित्त्याऽनावरणेन्द्रियसिद्धिः । तर्हि परस्पराश्रयः । तथाहि विषयपरिच्छितिर्ज्ञानं तत्सिद्भावनावरणत्वविशेषणविशिष्टमिन्द्रियं सिद्धयति तथा१५ भूतेन्द्रियसिद्धौ च विषयपरिच्छित्तिः सिद्धयतीति । एतेन च प्रगुणमन:सहकृतत्वमपीन्द्रियविशेषणं दूषितम् । मनसोऽतीन्द्रियस्य प्रगुणत्वधमोंपेतस्य विषयपरिच्छित्तिं परित्यज्यान्यतः प्रत्येतुमशक्यत्वाविशेषात्तत्र च परस्पराश्रयदोषप्रसङ्गात् । अथार्थो बुद्धेर्लिङ्गम् । सोऽपि सत्तामात्रेण तत्स्याज्ज्ञातत्वविशेषणविशिष्टो वा । न तावदाद्यः पक्षः । तथाभूतस्या२० र्थस्य बुद्ध्यव्यभिचारित्वाभावात् । न वै यत्र यदा सत्तामात्रसमर्थस्य तत्र तस्माद्बुद्धिरनुमातुं शक्यते । तां विनाप्यर्थस्य सम्भवतस्तया सहान्यथानुपपत्तेरभावात् । यदि च सत्तामात्रेणार्थस्यानुमापकत्वमिष्यते । तदा सर्वार्थसत्तायाः सर्वपुरुषान्प्रत्यविशिष्टत्वात्सर्वबुद्धयनुमानं स्यात् । अथ ज्ञानत्वाविशेषणविशिष्ट इति द्वितीयः पक्षः, नं तत्रापि ज्ञानत्वेन ज्ञातो
२१६
"
<
,
१ मीमांसकपदेन पूज्यविचास्कारित्वं बोध्यते । अत्र तु पूज्यविचारकारिवाभावात् अययार्थ मीमांसक इति नाम । २ तदा इत्यधिकं प. म. पुस्तकयोः पाठः । ३' ज्ञातत्वेन ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू० १८]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
ज्ञातो वाऽर्थो बुद्धेर्गमकः स्यात् । अज्ञातस्य तद्गमकत्वे सर्वं सर्वस्य गमकं स्यादविशेषात् । अथ ज्ञातः, किं तत एव गम्यज्ञानात् ज्ञानान्तराद्वा । तत एव चेत्, तर्हि परस्पराश्रयः । सिद्धे हि ज्ञातत्वविशिष्टेऽर्थे ततो ज्ञानसिद्धिस्तत्सिद्धौ चार्थस्य ज्ञातत्वसिद्धिरिति । अथ ज्ञानान्तराज्ज्ञातत्वज्ञप्ति: तर्ह्यनवस्था । अथार्थातिशयो लिङ्गम् | ननु कोऽयमर्थस्यातिशयो नाम प्राकट्यमिति चेत् ।
अहो चिराय प्रकटीचकार मीमांसकः स्वीयरहस्यमेतत् ॥ विचारचूलामवलम्बमानं विलोकयन्त्वेतदपीह सन्तः ॥ २३० ॥ प्राकट्यं हि ज्ञानं प्रकाशतामात्रं वा स्यात् । यदि ज्ञानम्, तदा तस्यासिद्धत्वात् कथं लिङ्गत्वम् । न च स्वरूप सिद्धौ स्वरूपस्यैव १० लिङ्गत्वं कापि प्रतिपन्नं येनात्रापि तथा कल्प्येत । अथ प्रकाशतामात्रं प्राकट्यम्, तत्किं सर्वप्रमातृणां साधारणमसाधारणं वा । यदि साधारणं, तदा सर्वदा सर्वान्प्रत्ययमविशेषेणैवार्थः प्रतिभासेत न तु कदाचित्कंचन प्रति । प्रकाशतामात्रस्य सर्वान्प्रत्यविशिष्टत्वात् । अथासाधारणम्, ततश्चायमर्थः सम्पन्नो यस्येन्द्रियेणोपकृतोऽसाधारण- १५ प्रकाशताख्यातिशयवानर्थः सम्पन्नस्तस्यैव प्रतिभासते नापरेपामिति । तदप्ययुक्तम् । न हि नीलपीताद्यर्थधम्र्मो येनैव जन्यते तस्यैव तद्विशिष्टो Sर्थः प्रतिभासत इति नियमो दृश्यते । अपि चेयं प्रकाशताऽर्थादव्यतिरिक्ता व्यतिरिक्ता वा भवेत् । यद्यव्यतिरिक्ता तदार्थ एव सा । अर्थस्य च सदा सत्त्वात्प्रकाशतया अपि सदा सत्त्वापत्तेः समस्तं २०. विश्वं सदा सर्वज्ञमकिंचिज्ज्ञ वा भवेत् । अथ व्यतिरिक्ता, तदेवमर्थेन सम्बद्धा वा स्यादसम्बद्धा वा । यद्यसम्बद्धा, कथमर्थस्येयमिति व्यपदिश्येत । अथ सम्बद्धा, किं तादात्म्येन तदुत्पत्त्या संयोगेन वा । न तावत्तादात्म्येन, व्यतिरेक विकल्पस्वीकृतत्वात् । नापि तदुत्पत्त्या, । यतोऽकि प्रकाशतोत्पद्यते ततो वाऽर्थः । न तावदर्थात्प्रकाशतोत्पद्यते । २५
१ 'प्रकाशताया' इति म. पुस्तके पाठः ।
२१७
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२१८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १८ ज्ञानात्तदुत्पत्तिप्रतिज्ञानात् । नापि प्रकाशतायाः सकाशादर्थः समुत्पद्यते स्वसामग्रीतः प्रकाशतायाः पूर्वमप्यर्थस्योत्पन्नत्वात् । नपि संयोगेन प्रकाशताऽर्थेन सम्बद्धा । तस्य द्रव्यवृत्तित्वेनाद्रव्यरूपायां प्रकाशतायां
सम्भवाभावात् । भवतु वा केनचित्सम्बन्धेन सम्बद्धाऽसौ, तथाप्यर्थ५ मात्रेणैषा सम्बद्धाऽर्थविशेषेण वा । अर्थमात्रेण सम्बन्धे स एवाशेषस्य
जगतोऽशेषज्ञत्वस्याकिंचिज्ज्ञत्वस्य वा प्रसङ्गः । घटस्यासीदत्र प्रकाशता इदानीं तु पटस्येति नियतदेशकालविशिष्ट प्रतिनियतेऽर्थे तद्यपदेशाभावश्च स्यात् । अथार्थविशेषेण, ननु कोऽयमर्थस्य विशेषो
ज्ञान प्रति जनकत्वं, आलम्बनत्वं वा । तत्रापि आद्यविकल्पोऽनुपपन्नः, १० ज्ञानजनकत्वादर्थेन सह प्रकाशतायाः सम्बन्धे चक्षुरादिनापि सह सम्ब
न्धप्रसङ्गात् । द्वितीयविकल्पे परस्पराश्रयः, अर्थस्यालम्बनत्वसिद्धौ हि प्रकाशताया अर्थविशेषेण सम्बन्धसिद्धिस्तत्सिद्धौ चार्थस्यालम्बनत्वसिद्धिरिति । तन्नार्थातिशयोऽपि ज्ञानस्य लिङ्गम् । नाप्यर्थसम्बन्धः।
तस्य सम्बन्धिज्ञानपूर्वकत्वात्सम्बन्धिनौ चात्रेन्द्रियार्थो ज्ञानार्थवति१५ शयाौँ वा न ज्ञातुं शक्यते । यथा चैषां ज्ञातुमशक्तिस्तथाऽनन्तर
मेवोक्तम् । अथ प्रवृत्त्या ज्ञानमनुमीयते, तर्हि निवर्तकस्य ज्ञानस्य कथं प्रतिपत्तिः स्यात् । प्रवृत्त्या हि प्रवर्तकमेव ज्ञानमनुमीयते न निवर्तकम् । अथ प्रवृत्तिनिवृत्तिभ्यां ज्ञानमुपकल्प्यते तर्हि तयोरभावे
उदासीनस्योपेक्षणीयार्थविज्ञानं कथं कल्प्येत । तदित्थं ज्ञानेन सहा२० न्यथानुपपन्नस्य कस्याचिल्लिङ्गस्यासम्भवान्नानुमानादपि तत्सत्ताप्रतीतिः ।
अथार्थापत्तेः । तथाहि । अर्थप्राकट्याख्यफलमन्यथानुपपद्यमानं आत्मन्यहंप्रत्ययग्राह्ये नित्यपरोक्षं क्रियारूपं ज्ञानमुपकल्पयति । प्रवृत्तिरप्यन्यथानुपपद्यमाना तत्परिकल्पयति । अज्ञाते प्रवृत्तिविषये प्रवृत्त्यनु
पपत्तेः । न हीष्टसाधनोऽप्यर्थः स्वविषयं ज्ञानं विना स्वरूपणैव प्रवृत्ति२५ हेतुः। सर्वदा तत्प्रसक्तेः । न चैवमतः कादाचित्कत्वात्
१ 'प्रतिनियत' इति प. पुस्तके पाठः ।
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. परि. १ सू. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
प्रवृत्तेरातिरिक्तं किंचित्कारणमस्तीत्यवसीयते । यस्मिन् सत्यर्थः प्रवृत्तियोग्यतामापद्यते तज्ज्ञानमिति । तदुक्तं शबरस्वामिना । " अप्रत्यक्षा नो बुद्धिः प्रत्यक्षोऽर्थः स हि बहिर्देशसम्बद्धः प्रत्यक्षमनुभूयते ज्ञानं त्वनुमानादवगच्छति" इति । अनुमानादिति अर्थापत्तरित्यर्थः । नैतदपि न्याय्यम् । अनुमानास्पृथग्भूताया ५ अर्थापत्तेरसम्भवादनुमानम्य चार्थप्राकट्यादेः प्रतिहतत्वात् । अपि च . ज्ञानमुपजायमानं स्वानुभवेऽननुभवाघ्यावृत्तं संवेद्यते अर्थश्चास्य विषयभावमापन्न एव संवेद्यते । अर्थमहं वेभीति प्रतीतेः । नित्यानुमेयत्वे च ज्ञानस्य द्वयमप्येतद्दरुपपादम् । अर्थो हि प्रकाशमानः सर्वान्प्रति साधारण इति ज्ञानस्य परोक्षत्वे मम प्रकाशत इति निर्निमित्ता १० व्यवस्थितिरिति । तन्मीमांसक युक्तियुक्तमधुना स्वस्यावसायं धियः
किं न स्वीकुरुषे न मुश्चसि किमित्यद्यापि पक्षं निजम् ।। यस्मान्यायपथानुगस्य भवतः स्वान्तं निशान्तं मते
दुःपक्षप्रभवानुरागतमसा क्षुद्रेण किं बाध्यते ॥ २३१ ॥ १५ इत्थं निराकुमहि जमिनीयान्परोक्षविज्ञानकथावलितान् । ज्ञानान्तराध्यक्षमुशन्ति येऽथ संवेदनं तन्ममुत्क्षिपामः ॥२३२॥ एवं हि यौगाः संगिरन्ते । ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं वेद्यत्वाद्यद्वेचं
तज्ज्ञानान्तरवेद्यं यथा घटो. वेद्यं च ज्ञान नैयायिकमतस्योपपादनपूर्वकं खण्डनम् । तस्मात् ज्ञानान्तरवेद्यमिति न तावदत्र हेतुर- ..
सिद्धः । साध्यधर्मिणि विद्यमानत्वात् । नापि विरुद्धः । सपक्षे वर्तमानत्वात् । नाप्यनैकान्तिको, विपक्षादत्यन्तं व्यावृत्तत्वात् । न च स्वसंविदिततया विपक्षीभूतेऽपि त्रिलोचनज्ञाने वर्तमानत्वादनैकान्तिकत्वम् । अस्मदादिज्ञानापेक्षया ज्ञानस्य ज्ञानान्तर
१ एतदर्थकं मीमांसासू. शा. भाष्ये. पृ. ७ पं. १९ ।
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १८
"वेद्यत्वप्रतिज्ञानात् । त्रिलोचनज्ञानस्य चास्मदादिज्ञानादतिशयोपेतत्वात् । न चातिशयोपेते प्रतीतं धर्ममतिशयापेतेऽपि प्रेरयन् परीक्षकतामास्कन्दति । समस्तार्थग्राहित्वस्यापि सकलज्ञानानां त्रिलोचनवत्प्रसक्तेः । नापि कालात्ययापदिष्टः, प्रत्यक्षागमाभ्यामनिराकृतगोचरत्वात् । ननु स्वव्यवसायिस्वरूपमर्थज्ञानं स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणैवानुभूयते अतः
प्रत्यक्ष
विक्षिप्त पक्षनिर्देशानन्तरोपन्यस्तत्वेन कालात्ययापदिष्टतालिङ्गित एवायं हेतुरिति चेत्, तदनुचितम् । ज्ञानस्य स्वव्यवसायिस्वरूपत्वानुपपत्तेः । अर्थव्यवसायिस्वरूपत्वेनैव तस्यावस्थानात् । " अर्थग्रहणं बुद्धिचेतना " इत्यभिधानात् ग्रहणं पुनरस्य तगोचरतयो१० त्पन्नेनैकात्मसमवेतानन्तरज्ञानेन मानसाध्यक्षरूपेण । नन्वेवमर्थज्ञानतगोचरानन्तरज्ञानयोः क्रमेणोत्पन्नयोस्तथैवानुभवः किं न भवतीति चेत् । नैतद्वचनीयम् । अनयोः क्रमसमुत्पादेऽप्याशुवृत्तेः शतपत्रपत्रशतव्यतिभेदवद्यौगपद्याभिमानतः पार्थक्याननुभूतिसम्भवात् । अथार्थज्ञानस्य ज्ञानान्तरप्रत्यक्षतायां ज्ञानान्तरस्याप्यपरज्ञानप्रत्यक्षताप्रसक्तेर्दुर्निवारा१५ स्थानवस्थेति चेत् एतदप्यप्रातीतिकम् । अर्थज्ञानस्य द्वितीयेन ज्ञानेन ग्रहणादर्थसिद्धेर परज्ञानकल्पना नर्थक्येनानवस्थित्यभावात् । अर्थजिज्ञासायां ह्यर्थज्ञानमुपजायते ज्ञानजिज्ञासायां तु ज्ञाने । सा च ज्ञान जिज्ञासार्थज्ञानं यावद्भवतीति द्वितीयज्ञानोत्पत्त्यैव कृतार्थयति प्रमातारमित्यलं तृतीयादिज्ञानकल्पनया । तन्न कालात्ययापदिष्टताश्लिष्टता२० श्लिष्टमूर्त्तिरसौ हेतुः । नापि प्रकरणसमः । असम्भवत्परिपन्थिसाधनत्वात् । यस्य हि संशयबीजभूतं पक्षान्तरचिन्ताप्रवर्तकं साधनान्तरं सम्भवति स एव हेतुः प्रकरणसमः । न चात्र तदस्ति । अथ ज्ञानं स्वप्रकाशात्मकमर्थप्रकाशात्मकत्वात्प्रदीपवदित्येवंविधे परिपन्थिनि साधने जागरूके सति
कथमिदमभिधीयतेऽसम्भवत्परिपन्थिसाधनत्वान्नं
२५ प्रकरणसम इति चेत् । मैवम् | विचारभारासहत्वेनास्य साधनाभास
I
२२०
५
>
१ कथम् इति प. पुस्तके पाठः । २ष्टिता ' इति नास्ति प. पुस्तके
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परि. १ सू. १८
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२२१
त्वात् । तथा हि स्वप्रकाशात्मकमित्यत्र किं स्वेनात्मनैव स्वस्य प्रकाशः स्वप्रकाशः स्वकीयेन वा । प्रथमपक्षे पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वं दोषः । अर्थग्रहणस्वभावस्यैव संवेदनस्य मानसप्रत्यक्षेण प्रतीतेः । हेतोश्च कालात्ययापदिष्टता प्रत्यक्षबाधितपक्षत्वात् । स्वात्मनि क्रियाविरोधाच्च नायं पक्षः सम्भवी । न हि सुतीक्ष्णोऽपि कौक्षेयकः कदाचिदात्मानं ५: विदारयति । न च विचित्रचारीसंचारचतुरापि नर्तकी निजस्कन्धमधिरोदु प्रभवति । द्वितीयपक्षे पुनः सिद्धसाद्धयता । स्वकीयेनानन्तरोत्तरज्ञानेन प्राचीनज्ञानस्य प्रकाशस्वीकरणात् । किं च प्रकाशात्मकत्वं बोधरूपत्वं भासुररूपसम्बन्धित्वं वा भवेत् । आद्यपक्षे साध्यविकलत्वमुदाहरणस्थादृष्टान्ततयोपदिष्टे प्रदीपे बोधरूपत्वस्याभावात् । द्वितीयपक्षे १० तु पक्षस्य पुनरपि प्रत्यक्षबाधा । बोधात्मकत्वेन भासुररूपरहितस्यैव ज्ञानस्य प्रत्यक्षत: प्रतीतेः । तदेवं स्वप्रकाशात्मकत्वसाधनस्य विचार्यमाणस्यानुपपत्ते नेन प्रकरणसमत्वम् । ..
एवं समस्तदूषणकण्टकनिकरण मुक्तमुक्तमिदम् । विदुषां सदस्सु नूनं साधनमुपनयति निजसाध्यम् ॥ २३३ ॥ १५ अपि च स्वप्रकाशात्मकज्ञानवादिनः पर्यनुयुज्यन्ते । किं येनैव स्वभावेन ज्ञानं स्वरूपं प्रकाशयति तेनैवार्थमपि स्वभावान्तरेण वा । यदि तेनैव, तर्हि कथं ज्ञानार्थयोः पार्थक्यं स्यादभिन्नस्वभावज्ञानग्रासत्वात्तयोरेवान्यतरस्वरूपवत् । अथ स्वभावान्तरेण, तदा तो स्वभावौ ज्ञानादभिन्नौ भिन्नौ वा । यद्यमिन्नौ, तदा ज्ञानमेव स्यान्न स्वभावौ । १० तयोरत्रैवानुप्रवेशात् । तथा च कथं ज्ञानं स्वार्थयोः प्रकाशकं स्यात्। अथ भिन्नौ, तत्रापि किं तौ स्वप्रकाशौ स्वाश्रयभूतज्ञानप्रकाशौं वा । प्रथमपक्षे स्वप्रकाशज्ञानत्रितयापत्तिः । तथा च ज्ञानवत्तत्स्वभावयोरपि प्रत्येकं स्वपरप्रकाशत्वे स एव पर्यनुयोगोऽनवस्था च । अथ स्वाश्रयभूतज्ञानप्रकाश्यौ तौ तर्हि स्वाश्रयभूतस्य ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशे कर्तव्ये २५.
१ कौक्षेयकः खड्गः ।
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२२२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ स. १८ हेतुभूतयोस्तयोर्यदि ज्ञान तथाविधेनापरस्वभावद्वयेन प्रकाशकं तदानवस्था । स्वपरप्रकाशहेतुभूतस्वभावद्वयाप्रकाशत्वे वा ज्ञानस्य प्रमाणत्वायोगः । स्वस्वभावाप्रकाशकस्य कुम्भादिवत् अप्रमाणत्वेन भवद्भिरभ्युपगमात् । एवं च ।
एकप्रमातृसमवेतधियाधिगम्यं
सिद्धं समस्तमपि वेदनमुक्तयुक्त्या । ये तु स्वसंविदितमेतदुदाहरन्ति
कामन्ति ते किमिति नांसतटीं स्वकीयाम् ॥ २३४ ॥ अहो गदित्वा परिफल्गु किञ्चित्प्रगल्भसे मुग्ध किमेवमत्र । १० इतः स्वसंवेदनसिद्धियुक्तीः शृणु स्वपक्षेऽपि च दोषपंक्तीः॥ २३५ ॥
तथाहि यत्तावज्ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यमित्याद्यनुमानमगादि तत्र वेद्यत्वादिति हेतोस्त्रिलोचनज्ञानेन व्यभिचारः । तस्य वेद्यत्वेऽपि स्वसंविदितत्वेन भवद्भिरभ्युपगमात् । यत्पुनरत्रोक्तमस्मदादिज्ञानापेक्षयेत्यादि । तदवद्यमस्मदादीति विशेषणस्यात्राश्रूयमाणत्वात् । हृदयनिविष्टं तदस्तीति चेत् । कथं शपथमन्तरेणायमर्थः प्रतीयते । अस्तु वा, तथापि पक्षस्य हेतोर्वा तत्स्यात् । यदि पक्षस्य, तदा विरूपाक्षज्ञानमपक्षोऽस्तु हेतुस्तु तत्र प्रवर्त्तमानः केन प्रतिहन्यते । येन स व्यभिचारो न भवेत् । अथ हेतोस्तद्विशेषणमस्मदादिज्ञानत्वे सति वेदत्वादिति तर्हि साधनविकल्पो दृष्टान्तः । तथाभूतस्य हेतोर्घटदृष्टान्तेऽसम्भवात् । अपि च विरूपाक्षज्ञानं स्वज्ञानं स्वसंविदितत्वादस्मदादीति विशेषणेनात्रव्यवच्छिद्यते । स्वसंविदितत्वं च कुतस्तस्य सिद्धम् । अर्थग्रहणात्मकत्वान्चेत्तदस्मदादिज्ञानेऽप्यस्त्येवेत्युभयत्र स्वसंविदितत्वं सिध्येन्न वा क्वचिदपि विशेषादर्शनात् । अथ विरूपाक्षज्ञानम्यास्मदादिज्ञानाद्वि
शिष्टत्वात्तत्रैव स्वसंविदितत्वं न्याय्यं नान्यत्र नहि विशिष्टे दृष्टं धर्मम२५ विशिष्टेऽपि योजयन् प्रज्ञावत्तां लभत इति चेत् , तदप्यनवदातम् ।
एवं हि शम्भुज्ञाने विशिष्टे दृष्टस्यार्थग्रहणात्मकत्वस्याप्यस्मदादिज्ञाने प्रतिषेधप्रसङ्गः । अथ तस्याभावे तज्ज्ञानमेव न स्यात्तत्य तत्स्वभावत्वा
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परि. १ स. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः ।।
२२३ दिति चेत् । तदिदं स्वसंविदितत्वेऽपि समानम् ! नहि स्वसंविदितत्वस्वभावस्याप्यभावे ज्ञानस्य ज्ञानता युक्ता । तस्यापि ज्ञानस्वभावत्वाविशेषात् । न खलु शम्भुज्ञानेऽर्थग्रहणात्मकत्वेनेव स्वसंविदितत्वेनापि विज्ञानस्वभावंता दृष्टान्ततश्चास्मदादिज्ञानेऽपि स्वसंविदितत्वं कथं न स्यात् । न च स्वभावः प्रादेशिको युक्तः। आलोकस्य स्वपरप्रकाशकता मिहिरमण्डलालोकस्येव स्वभावो न पुनः प्रदीपाद्यालोकस्येति कश्चिद्विपश्चिद्वक्ति । उभयत्राप्यविशेषतस्तत्प्रतीतेः । नन्वस्मदादिज्ञानस्य शङ्करज्ञानवत्स्वपरव्यवसायिस्वभावत्वे तद्वन्निःशेषार्थप्रकाशकत्वमपि स्यादित्यपि बालप्रलपितम् । स्वयोग्यतानुसास्तियैव ज्ञानेनार्थस्य प्रकाशनात्प्रदीपवत् । न खलु प्रदीपस्य दिनेश्वरवत्स्वपर- १० प्रकाशस्वभावत्वेऽपि तद्वन्निःशेषार्थप्रकाशकत्वमुपलब्धम् । स्वयोग्यतानुसारितयैवार्थस्थानेनापि प्रकाशनात् । योग्यता च सकलज्ञानानां स्वावरकादृष्टक्षयोपशमतारतभ्यस्वरूपा प्रतिपत्तव्या । न हि तस्या अभावे विषयग्रहणतारतम्य ज्ञानानां युज्यते इति सविस्तरं पुरस्तादुपपादयिष्यते । साध्यविकलता चात्रानुमाने दृष्टान्तस्य स्पष्टैव । तथाहि १५ न घटो ज्ञानान्तरवेद्योऽपि तु ज्ञानवेद्य उत्तरशब्दस्य सजातीयापेक्षयैव भेदवाचकत्वात् । तत्कथमत्र ज्ञानान्तरवेद्यत्वं साध्यं सम्भवति । अथैकेन ज्ञानेनानुभूते ज्ञानान्तरं यदा प्रवर्तते तदा ज्ञानान्तरवेद्यत्वं कुम्भे सम्भवतीति चेत् , तर्हि स्वसंविदितेऽपि ज्ञाने योगिप्रत्यक्षरूपज्ञानान्तरं प्रवर्तत एव ततः सिद्धसाध्यता । अथाम्मदादिज्ञानान्तरवेद्यत्वं २० साध्यते तदास्मदादीति विशेषणं साध्यस्याभिधानीयम् । भवतु वा ज्ञानमस्मदादिज्ञानान्तरवेद्यमिति सविशेषणं साध्यं, तथापि सिद्धसाध्यता । चैत्रशरीरवर्तिसंवेदनस्यानुरूपेणास्मदादिज्ञानान्तरेण वेद्यत्वाभ्युपगमात् । एकशरीवर्त्यस्मदादिज्ञानान्तरवेद्यत्वं साध्यमिति चेत्, तोकशरीरवर्तीति विशेषणान्तरं साध्यस्य वाच्यम् । २५
१' स्वभावतेति तदृष्टान्तः' इति भ. म. पुस्तकयो पाठः।
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_प्रमाणनयतत्त्वालाकालङ्कारः परि.१ सू. १८ एतदपि दृश्यमिति चेत्, तथापि सिद्धसाध्यता । स्मृतिरूपेणैकशरीरवर्तिनास्मदादिज्ञानान्तरेण अतीतज्ञानस्य वेदत्वाभ्युपगमात् । वर्तमानस्य ज्ञानस्यैकशरीरवय॑स्मदादिज्ञानान्तरवेद्यत्वं साध्यत इति चेत् । तन्न,वर्तमाने ज्ञाने ज्ञानान्तरस्यासम्भवात् । युगपज्ज्ञानानुत्पत्तेर्मनसो लिङ्गत्वेनाङ्गीकरणात् । विवक्षितज्ञानोत्पत्त्यनन्तरभाव्येकशरीरवर्त्यस्मदादिज्ञानान्तरेण विवक्षितज्ञानस्य विनश्यदवस्थस्य वेद्यत्वं साध्यत इति चेत्, तहनैकान्तिकत्वं हेतोःसर्वेषां विद्यानां नियमेनोत्पत्त्यनन्तरभाव्येकशरीरवहँस्मदादिज्ञानान्तरवेद्यत्वाभावात् । अथ किभेताभिः कल्पनाभिर्ज्ञानं ज्ञानान्तरेणैव वेद्यमित्यवधारणगर्भ साध्यमभिप्रेयते ततो न सिद्धसाध्यताद्यवतार इति चेत् । मैवम् । एवमपि दृष्टान्ते साध्यवैकल्यकलङ्कस्याप्रतिहतप्रसरत्वात् । न खलु कलशो ज्ञानान्तरेणैव वेद्यः । प्रथमज्ञानेनापि तस्य वेद्यत्वात् । न च तदपि कलशस्वरूपात्पार्थक्येन ज्ञानान्तरमिति वाच्यम् । अन्तरशब्दस्य सजातीयापेक्षथैव भेदवाचकत्वा
दित्युक्तत्वात् । यदप्यवादि अर्थग्रहणबुद्धिश्चेतनेति । तदप्यविचारित१५ रमणीयम् । स्वसंविदितत्वाभावे ज्ञानेऽर्थग्रहणस्थैवासम्भवात् ।
अर्थग्रहणत्वं हि ज्ञानेऽर्थादुत्पत्तेश्चेतनास्वरूपत्वतो वा भवेत् । यत्रे यद्याद्रुत्पत्तेर्ज्ञाने तदनुमन्यते, तर्हि पटेऽप्यनुमन्यतां मृद्दण्डचक्रचीवराधादुत्पत्तेरविशेषात् । अथ चेतनास्वरूपत्वतः, ननु कुतो ज्ञानस्य चेतनात्वसिद्धिरर्थग्रहणाच्चेतनात्मप्रभवत्वाद्वा । अर्थग्रहणाच्चेत्, परस्पराश्रयः । सिद्धे ह्यर्थग्रहणे चेतनात्वसिद्धिस्तसिद्धेश्वार्थग्रहणसिद्धिरिति । अथ चेतनात्मप्रभक्त्वात् , नन्वात्मनोऽपि कुतश्चेतनत्वं सिद्धयेत् , चेतनासमवायात्स्वतो वा । यदि स्वतः, तदापसिद्धान्तप्रसङ्गः । स्वरूपेण तस्य भवद्भिर्जडत्वेन स्वीकरणात् । अथ चेतना
समवायात् , तर्हि चक्रकापत्तिः । तथाहि चेतनासमवायादात्मन२५ श्चेतनत्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ च तत्प्रभवत्वेन ज्ञानस्य चेतनात्वसिद्धिस्त
१' तत्र' इति म. पुस्तके पाठः ।
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परि. १ सू. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२२५ सिद्धौ चात्मनश्चेतनासमवाय इति । यावन्नात्मनश्चेतनासमवायस्तावन्न चेतनत्वसिद्धिर्यावन्नासौ तावन्न तत्प्रभवत्वेन ज्ञानस्य चेतनात्वसिद्धिर्यावच्च नेय तावन्नात्मनश्चेतनासमवाय इति । तस्मान्न स्वसंविदितत्वं विहाय बुद्धेरर्थग्रहणं घटते । किञ्चार्थबुद्धिरित्यत्र किमर्थस्यैव ग्रहणं बुद्धिरिति व्याख्यायते किंवार्थस्थापीति । तत्र प्रथमपक्षः प्रत्यक्षविरुद्धः। ५ नीलमहमात्मना जानामीत्यत्र नीलमित्युल्लेखेनार्थग्रहणवदात्मनेत्युल्लेखेन ज्ञानग्रहणस्याप्यनुभवात् । न हि नीलसंवेदनाद्भिन्नकालं तदात्मसंवेदनं वेद्यते । तत्संवेदनसमकालमेवान्तःपरिस्फुटरूपस्यास्यानुभवात् । अतोऽर्थसंवेदनात्तदात्मसंवेदनस्याभिन्नस्वभावत्वात्तत्संवेदने तदपि संविदितमिति स्वसंवेदनसिद्धिः यद्यस्मादभिन्नस्वभावं तस्मिन् गृह्यमाणे १० तद्गृहीतमेव । यथा नीले गृह्यमाणे तस्यैव स्वरूपसन्निवेशादिकम् । अर्थसंवेदनादभिन्नस्वभावं च तदात्मसंवेदनमिति । अथार्थस्यापि ग्रहणमिति व्याख्यायते । तर्हि सिद्धं नः समीहितं स्वसंवेदनाप्रतिक्षेपात् । एवं च स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणैव ज्ञानस्य स्वव्यवसायिस्वरूपत्वसिद्धेः प्रत्यक्षबाधितकर्मानन्तरोपदिष्टत्वेन वेद्यत्वादिति हेतोः कालात्यया- १५ पदिष्टत्वं तवस्थमेवेति स्थितम् । यच्चोक्तं ग्रहणं पुनरस्येत्यादि । तदप्ययुक्तम् । विच्छिन्नप्रतिभासाभावात् । न खलु प्रागर्थज्ञानं पश्चात्तज्ज्ञानज्ञानमिति नान्तरा प्रतीतिरनुभूयते । यत्पुनरुक्तमनयोः क्रमसमुत्पादेऽप्याशुवृत्तेरित्यादि । तदतीवानुपपन्नम् । एवं हि समस्तार्थानां कथं क्षणभङ्गुरता न स्यात् सत्यामप्यस्यामाशुवृत्तेरेकत्वानध्य- २० वसाय इति सौगतेनापि वक्तुं शक्यत्वात् । अपि च । उत्तरकालीनस्वग्राहकज्ञानकाले प्राचीनमर्थज्ञानमनुवर्त्तते न वा । यद्यनुवर्तते, तदा युक्तिप्रतीतिविरोधी ज्ञानयोगपद्यप्रसङ्गः । सिद्धान्तविरोधी चायं भवतः । त्वया ज्ञानद्वयस्य युगपदनभ्युपगमात् । अथ युगपज्ज्ञानद्वयस्योत्पत्तिरेव विरुध्यते । तथा च "युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्" २५
१ गौतमस. १-१-१६.
१५
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२२६
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. १ स. १८
१०
इत्यक्षपादः। विनश्यवस्थस्य त्वविनश्यता सहावस्थानं न विरुद्धमिति चेत् । ननु तस्यामवस्थायां विज्ञानं विनाशक्रिया केनचिदंशेन समाविशति न वा । न चेत्कथं विनश्यदवस्थेति वर्तमानकालतानिर्देशः स्याद्वितीयक्षणभावित्वाद्विनाशक्रियायाः । अथ कुशूलाद्यवस्थायामेकान्तेनासत्यपि कुम्भे कुम्भोऽयमुत्पद्यत इति वर्त्तमानकालतानिर्देशो दृष्टः । मैवम् । अत एव निर्देशात्तदानीं कथंचित् कुम्भस्योत्पत्तिप्रसिद्धरन्यथा तदघटनात् । एवं च ब्रुवते लौकिकाः अद्याप्यर्द्धनिष्पन्नः कुम्भः किमित्येनं परिपूर्ण न करोषीति केनचिदंशेन तद्यनश्यत् सोऽशोऽस्य द्वितीयज्ञानेन नाज्ञायतेति न कदाचित्परिपूर्णस्यास्य संवित्तिः स्यात् । न चैवं नीलमहं विलोकयामीति सकलस्यास्य संवित्तेः । किञ्च त्वन्मतेऽस्यांशतो विनाश एव न युज्यते । तस्य निरंशत्वेन स्वीकारात् । अथ नानुवर्तते तर्हि कस्योत्तरसमयभाविज्ञानं ग्राहकं स्यात् । ग्राह्यप्राक्तनज्ञानस्य प्रागेव क्षीण
त्वात् । किञ्चेन्द्रियजं प्रत्यक्षं सन्निकृष्ट विषये प्रवर्ततेऽतीतक्षणवर्ति१५ नश्च ज्ञानस्य मनोलक्षणेन्द्रियसन्निकर्षों न युज्यते । ततः कथं
प्राचीनज्ञाने मानसप्रत्यक्षवार्तापि स्यात्। यद्यप्युक्तमर्थजिज्ञासायां तु ज्ञान इति । एतदप्यघटमानम् । ज्ञानस्य जिज्ञासाप्रभवत्वासम्भवात् । नष्टतुरङ्गमस्य पुंसः सत्यामपि तुरङ्गमदिक्षायां तुरङ्गमदर्शनानुत्पादादसत्यामपि च स्तम्बेरैमदिदृक्षायां स्तम्बरेमदर्शनोत्पादात् । किञ्च ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यतायामर्थज्ञानं नैव भवेत् । प्रकाशस्य प्रकाशापेक्षायामप्रकाशतावत् । न हि स्वपरज्ञाने परमुखप्रेक्षित्वं पारेत्यज्यापरं जडस्य लक्षणम् । यदपि ज्ञानं स्वप्रकाशात्मकमित्याद्यनुमाने स्वप्रकाशात्मकत्वं साध्य विकल्प्य दूषितं किं स्वेनात्मनैव स्वस्य प्रकाशः स्वकीयेन वेत्यादिना ।
तत्र द्वैतीयिकविकल्पोऽनङ्गीकारेणैव निरस्तः । स्वेनात्मनैव स्वस्य , प्रकाश इत्ययं तु प्रथमपक्षः कक्षीक्रियत एव । तत्र च यदुक्तं
१ स्तम्बरमः-हस्ती । २ अनुमानं ' इति म. पुस्तके पाठः ।
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२२७
परि. १ सू. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वं दोष इति । तन्न समीचीनम् । स्वपरव्यवसायामकस्य ज्ञानस्य सर्वैरनुभूतेः । एवं चार्थप्रकाशात्मकत्वादिति हेतोः कालात्ययापदिष्टतापि प्रत्यादिष्टा । पक्षस्य प्रत्यक्षेण बोधनात् । यत्पुनरुक्तं स्वात्मनि क्रियाविरोधान्नायं पक्षः संभवीति । तत्र स्वदर्शनप्रसिद्धमपि त्रिनयनसंवेदनं सकलजनप्रतीतमपि वा प्रदीपाद्यालोकं ५ स्वपरप्रकाशकं किन्नावधारयत्यायुष्मान् येनैवमात्मानमायासयति । न हि त्रिनयनज्ञानं स्वप्रकाशे ज्ञानान्तरमपेक्षते स्वपरावभासकमेक नित्यज्ञानं जगत्कर्तुरित्यभ्युपगमात् । नापि प्रदीपाद्यालोकः स्वरूपप्रकाशने प्रकाशान्तरमपेक्षते प्रतीतिविरोधात् ।
अथ कथमपि मुक्त्वा मूलनैयायिकानां
मतमभिमतमेतद्दषणैर्दूयमानम् ।। गुरुतममतिात्कल्पयित्वात्र कश्चित्
__निजमतमिदमाह न्यायवादी नवीनः ॥ २३६ ॥ चन्द्रचूलज्ञानमपि ज्ञानान्तरप्रत्यक्षं न स्वसंविदितमिति । न चैवं
__ तज्ज्ञानग्राहिणो ज्ञानान्तरस्यापि ज्ञानान्तर- १५ नव्यनैयायिकमतखण्डनम्।
'प्रत्यक्षत्वेनानवस्थितिरित्यभिधातव्यम् । ज्ञानद्वयेनैव साध्यसिद्धेरपरज्ञानकल्पनायाः कपालिनि निरुपयोगत्वात् । तथाहिएकस्माज्ज्ञानतोऽयं कलयति भुवनं साकमन्येन तेन
द्वैतीयीकात्तु तस्मात्कलयति यतस्तस्य च ग्राहकं तत् । २० एवं च ज्ञानयुग्मे त्रिपुरजिति सति कानवस्थाव्यवस्था
यौष्माकीणः क्व वाऽयं कथयत भवति स्वप्रकाशप्रसङ्गः।।२३७॥ ततश्च
ज्ञप्तिरूपक्रियाया यो विरोधः स्वात्मनीरितः ।
जैनधूर्जटिबुद्धौ नः स तेषां तदवस्थितः ॥ २३८ ॥ २५ १ 'द्वैतीकात्' इति पदे यकारोत्तरवर्तिन इकारस्य दीर्घत्वं छन्दोऽनुराधोत्।
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२२८.
प्रमाणनयतवालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. १.
अत्रोच्यते—
विक्रीय मातरं मोहात्क्रीत्वा दासीममङ्गलम् | प्रशंसत्ययमात्मानं धृष्टः स्वमतिकौशले ॥ २३९॥
तथाहि समानकालयाबद्द्रव्यभाविसजातीयगुणद्वयस्यान्यत्रानुपलब्धे५ स्त्र्यम्बकेऽपि तत्कल्पनाया असम्भवः । तथा च प्रयोगः । ईश्वरः समानकालयावद्द्रव्यभाविसजातीयगुणद्वयस्याधारो न भवति द्रव्यत्वात् यदित्थं तदित्थं यथा घटस्तथा चायं तस्मात् तथा । किं चानयोर्ज्ञानयोः पिनाकपाणेः सर्वथा भेदे कथं तदीयत्वसिद्धिः । तत्र समवायादिति चेत्, तन्न समवायस्य पदार्थपरीक्षायां प्रतिक्षेप्स्यमान१० त्वात् । ततश्च ।
अलीकवाचालतयाऽतिचापलं यदत्र विद्वन्ननु शीलितं त्वया || नवीननैयायिक वक्ति केवलं त्वदीयबुद्धेस्तदतीव कुण्ठताम् ॥ २४० ॥
किञ्च का नाम क्रिया स्वात्मनि विरुध्यते । परिस्पन्दात्मिका धात्वर्थस्वभावा वा । न तावत्परिस्पन्दात्मिका । तस्या द्रव्यवृत्तित्वेना१५ द्रव्यरूपे ज्ञाने सत्त्वस्यैवासम्भवात् । अथ धात्वर्थरूपा । साप्यकर्मिका सकम्मिका वा । न तावदकर्मिका । यदि वृक्षस्तिष्ठतीत्यादौ तस्याः स्वात्मन्येव वृक्षादिस्वरूपे प्रतीतितोऽस्यास्तत्राविरोधः तर्हि ज्ञानं प्रकाशत इत्यादेरप्य कर्म्म कक्रियाया ज्ञानस्वरूपेऽविरोधोऽस्तु । प्रतीतेरुभयत्राप्यविशिष्टत्वात् । अथ ज्ञानमात्मानं जानातीति सकर्मिका क्रिया २० स्वात्मनि विरुद्धा | स्वरूपादपरत्रैव कर्मत्वप्रतीतेरित्युच्यते । तदपि कल्पनामात्रम् । आत्मात्मानं हन्ति प्रदीपः स्वात्मानं प्रकाशयतीत्यादिकाया अपि क्रियाया विरोधापतेः । कर्तृस्वरूपस्य कर्मत्वेनोपचारात् नात्र परमार्थिकं कर्मेति चेत् । समानमन्यत्र । ज्ञाने कर्तरि स्वरूपस्यैव ज्ञानक्रियायाः कर्मत्वेनोपचारात् । तात्त्विकमेव ज्ञाने कर्मत्वं २५ प्रमेयत्वात् तस्येति चेत् । तद्यदि सर्वथा कर्तुर्ज्ञानादभिन्नं तदा विरोधः । यदि ज्ञानं कर्तृ कथं कर्म्म तचेत्कथं कत्रिति । अथ सर्वथा
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परि. १ सू. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२२९ भिन्नं कर्मत्वम् । तर्हि कथं तत्र ज्ञानस्य जानातीति क्रिया स्वात्मनि स्यायेन विरुद्धयते । कथमन्यथा कटं करोतीति क्रियाऽपि कटकारस्य स्वात्मनि न स्यात् यतो न विरुध्यते । कर्तुः कर्मत्वं कथञ्चिगिन्नमित्येतस्मिंस्तु दर्शने ज्ञानस्यात्मनो वा सर्वथा स्वात्मनि क्रिया दूरोत्सारितैवेति न विरुद्धतामधिवसतीति । कश्च क्रियायाः स्वात्मा ५ यत्र विरोधः स्यात् । किं क्रियास्वरूपं क्रियावदात्मा वा । यदि क्रियास्वरूपम् , तदा कथं तत्र तद्विरोधः सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपेण विरोधानुषक्तेनिस्स्वरूपत्वप्रसङ्गात् । क्रियावदात्मा चेत्तत्र विरोधे क्रियाया निराश्रयत्वं सर्वद्रव्यस्य वा निष्क्रियत्वमुपढौकेत । न चैवम् । कर्मस्थायाः क्रियायाः कर्मणि कर्तृस्थायाः कर्तरि प्रतीयमानत्वात् । १० यदि पुनर्ज्ञानक्रियायाः कर्तृसमवायिन्याः स्वात्मनि कर्मतया विरोधस्ततोऽन्यत्रैव कर्मत्वदर्शनादिति मैतम्, तदा ज्ञानेनार्थमहं जानामीत्यत्र ज्ञानस्थ करणतयाऽपि विरोधः स्यात् । क्रियातोऽन्यस्य करणत्वदर्शनात् । ज्ञान क्रियायाः करणज्ञानस्य चान्यत्वादविरोध इति चेत् । किं पुनः करणज्ञानं का वा ज्ञानक्रिया । विशेषणज्ञानं करण विशे- १५ प्यज्ञानं तत्फलत्वात् ज्ञानक्रियेति चेत् , स्यादेवं यदि विशेषणज्ञानेन विशेष्यं जानामीति प्रतीतिरुत्पद्यते । न च कस्यचिदुत्पद्यते । विशेषण- .. ज्ञानेन विशेषणं विशेप्यज्ञानेन च विशेष्यं जानामीत्यनुभवात् । नन्वेवं कथं दाण्डिनं वेनीति दण्डविशिष्टपुरुषप्रतिपत्तिः । पूर्वं दण्डाग्रहे हि पुरुषमात्रप्रतीतिरेव स्यादन्यथा दण्डरहितपुरुषेऽपि तत्प्रतीतिप्रसङ्गः। २० न खलु विशेषणं सत्तामात्रेण स्वानुरक्तां धियमुत्पादयत्यपि तु गृहीतमिति । तन्न वाच्यम् । यतो दण्डविशिष्टे पुंसि प्रवर्त्तमाना बुद्धिः सकृदेव तथाभूतं पुमांसं प्रत्येति न पूर्वं दण्डग्रहणमपेक्षते । दण्डरहिते च पुंसि दण्डविशेषणवैशिष्टयमेव पुंसो नास्तीति कुतस्तत्र तथाविधबुद्धिप्रादुर्भावप्रसङ्गः स्यात् । न खलु वयमसद्वस्तुव्यवसायिनी बुद्धि- २५
१ 'अभिमतम् ' इति म. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. १८ मभ्युपगच्छामः किन्तु वस्तुव्यवसायिनीम् । न चात्र विषयभेदाज्ञानभेदकल्पनोपपत्तिमती । समानेन्द्रियग्राह्ये योग्यदेशावस्थितेऽर्थे घटपटादिवदेकस्यादि ज्ञानस्य व्यापारविरोधात् । न च घटादावपि ज्ञानभेद इति. वाच्यम् । ज्ञानानां युगपद्भावानभ्युपगमात् । क्रमभावे च प्रतीतिविरोधः । ५ युगपद्भावाभ्युपगमे च विशेषणविशेष्यज्ञानयोः सव्येतरविषाणवत्कार्य
कारणभावाभावः । ततो विशेष्यज्ञानं विशेषणविशेष्योभयालम्बनमेव नतु विशेषणज्ञानेन जन्यमानत्वात् केवल विशेष्यालम्बनमिति । अपि च यदि विशेषणज्ञानं करणं विशेष्यज्ञानं तु ज्ञानक्रियोच्यते । तदापि विशेषणज्ञाने कस्य करणतां वक्ष्यसि । नहि तत्रापरं विशेषणज्ञानं करणमस्ति । अथास्त्येव दण्डादिज्ञाने दण्डत्वादिजातिज्ञानम्, दण्डत्वादिजातिज्ञाने तर्हि कतरत्कथयति।ततो न विशेषणविशेष्यज्ञानयोः करणक्रियात्वे वक्तव्ये किन्त्वेकज्ञानस्वरूप एव । अस्थास्त्वेवम्, न च विरोधस्तथाप्रतीतेः। कर्मत्वेनाप्यत एवाविरोधोऽस्तु । विशेषाभावात् ।
चक्षुरादिकरणं ज्ञानक्रियातो भिन्नमेवेति चेत्, न ज्ञानेनार्थं जानामीत्यपि १५ प्रतीतेः । ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं चक्षुराद्येव ज्ञानक्रियायाः साधकतम
करणमिति चेत्, न तस्य साधकतमत्वनिराकरणातंत्रज्ञानस्यैव साधकतमत्वोपपत्तेः । ननु यदेवार्थस्य ज्ञानक्रियायां ज्ञानं करणं सैव ज्ञानक्रिया तत्र कथं क्रियाकरणव्यवहारः प्रातीतिकः स्यात् । विरो
धादिति चेत्, न कथञ्चिद्भेदात् । प्रमातुरात्मनो हि वस्तुपरिच्छित्तौ २० साधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणम् । निर्व्यापारं तु क्रियोच्यते
स्वातन्त्र्येण पुनर्व्याप्रियमाणः कर्त्तात्मेति । तेन ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनाथ जानामीति कर्तृकरणक्रियाविकल्पः प्रतीतिसिद्ध एव । तद्वत्तत्र कर्मव्यवहारोऽपि ज्ञानात्मात्मनात्मानं जानातीति घटते ।
सर्वथा कर्तृकरणकर्मक्रियाणामभेदानभ्युपगमात् । तासां कर्तृत्वादि२५ शक्तिनिमित्तत्वात् कथञ्चिद्भेदसिद्धेः। ततो ज्ञानं येनात्मनार्थं जानाति
१. हि कतमत्कथयसि' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः। २ 'तत्र' इति नास्ति म. म. पुस्तकयोः पाठः । ३. क्रियाकरणत्वं ' इति म. पुस्तके पाठः।
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२३१
परि. १ स. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तेनैव स्वमिति वदतां स्वात्मनि क्रियाविरोध एव । परिच्छेद्यस्य रूपस्य सर्वथा परिच्छेदकस्वरूपादभिन्नस्योपगतेः । कथंचिद्धेदवादिनां तु नायं दोषः । अथ क्रियाकरणं निष्पादनं तच्च स्वात्मनि विरुद्धमित्यभिमतम् । मैयम् । न खलु ज्ञानमात्मानं निष्पादयतीति वयमभ्युपेमः स्वकारणादेव तस्योत्पत्तेः। अपि तु प्रदीपवज्ञानमात्मानं प्रकाशयतीति। ५ न च स्वरूपप्रकाशकत्वं प्रदीपस्यासिद्धम् । यथैव हि रूपज्ञानोत्पत्तौ प्रदीपः सहकारित्वाच्चक्षुषा रूपप्रकाशकः कथ्यते तथा स्वरूपज्ञानोत्पत्तौ तस्य सहकारित्वात् स्वरूपप्रकाशकोऽपीति । अथार्थवज्ज्ञाने ज्ञानस्वरूपस्याप्रतीतेने स्वसंविदितत्वमित्युच्यते । एतदप्ययुक्तम् । अर्थवदिति हि कोऽर्थः । किं यथार्थों बहिर्देशसम्बद्धः प्रतीयते न १० तथा ज्ञानं, किं वा यथार्थोन्मुख ज्ञानं न तथा स्वोन्मुखमिति । आद्यपक्षे सिद्धसाधनम् । घटाद्यर्थज्ञानयोहिरन्तर्देशसम्बद्धतयाऽवमासनात् । यदि तु घटाद्यर्थदेशसम्बद्धतया ज्ञानस्याप्रतिभासनादप्रत्यक्षत्वमित्यङ्गीक्रियते । तर्हि घटाद्यर्थस्यापि ज्ञानदेशसम्बद्धतयाऽप्रतिभासादप्रत्यक्षता स्यात् । द्वितीयपक्षोऽप्यनुपपन्नः, घटमहमात्मना १५ वेमीत्यत्रार्थस्येव ज्ञानस्यापि प्रतिभासविलोपेऽर्थप्रतिभासेऽपि कः समाश्वासः । यदपि जल्पितं प्रकाशात्मकत्वं बोधरूपत्वं भासुररूपसम्बन्धित्वं वेत्यादि । तदपि परिफल्गु । यतः प्रकाशात्मकत्वं स्वपररूपोद्योतनसमर्थस्वरूपत्वमुच्यते तच्च क्वचिोधरूपतया कचिद्भासुररूपसम्बन्धितया वा सम्भवन्न विरोधमध्यास्ते । ततो न प्रदीपदृष्टान्तस्य २० साध्यविकलत्वम् । नापि पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वम् । यदि चैवं साध्यं विकल्प्य दूष्यते । तर्हि समस्तानुमानमुद्राभङ्गप्रसङ्गः । तथाहि । सकलजनप्रतीते धूमाद्भूमध्वजविशिष्टपर्वतानुमानेऽप्येवं वक्तुं शक्यत एव । किमत्र धूमवत्त्वादिति हेतोः पर्वतवह्निना वहिमत्त्वं साध्यते महानसवहिना वा । औद्यकल्पे साध्यविकलत्वं दृष्टान्तस्य पर्वतवह्निना २५
१. प्रदीप एव' इति प. पुस्तके पाठः । २ ' चक्षुषो' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः । ३ 'आधविकल्पे' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १.सू. १८ वह्निमत्त्वस्य साध्यस्य दृष्टान्तीकृते महानसे सर्वथाऽप्यसम्भवात् । द्वितीयकल्पोऽपि न पेशलः महानसवहेमहीधरकन्धरायामसम्भवात् । सम्भवे वा महानसवहिरेवासौ न भवेत् । तस्मादप्रतिहतामनुमानसरणिमनुसरता सामान्येनैव साध्यमनुमाने स्वीकर्तव्यम् । न पुनर्विशेषविकल्पकल्पनया विलोपनीयमिति । तदेवं सकलदोषकलङ्कविकलतया स्वप्रकाशात्मकत्वसाधनस्य सम्यग्रूपत्वात् तेन प्रकरणसमत्वं वेद्यत्वादिति हेतोः तद्वस्थमेव । तथा ज्ञानं स्वप्रकाशात्मकं ज्ञानत्वात् यत्पुनः स्वप्रकाशात्मकं न भवति न तज्ज्ञानं यथा चक्षुरादीत्यनेनापि प्रकरणसमत्वमनिवार्यम् । यश्चायमुपालम्भः, किं येनैव स्वभावेन ज्ञानं स्वरूपं प्रकाशयति तेनैवार्थमपीत्यादि । स भेदाभेदैकान्तवादिन एवानुबाधते न स्याद्वादिनः । तैर्यथाप्रतीति भेदाभेदाभ्युपगमात् । स्वपरप्रकाशकस्वभावद्वयात् कथञ्चिदभिन्नस्यैकस्य ज्ञानस्य प्रतिपत्तेः । सर्वथा ततस्तस्य भेदाभेदयोरसम्भवात् । तत्पक्षभाविदूषणस्य निर्विषयत्वात् दूषणाभासतोपपत्तेः । परिकल्पितयोस्तु भेदाभेदैकान्तयोर्दूषणस्य प्रवृत्तौ सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसङ्गात् कस्यचिदिष्टतत्त्वव्यवस्थानुपपत्तेः स्वपरप्रकाशको च स्वभावौ ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशनशक्ती कथ्यते । तद्रूपतया चास्य परोक्षता तत्प्रकाशनलक्षणकार्यानुमेयत्वात्तयोरिति । किं तौ स्वप्रकाशौ स्वाश्रयभूतज्ञानप्रकाश्यौ वेत्यादिप्राक्प्रकाशितदोष
राशेरनवकाश एवेति सर्वं पुष्कलम् । .. २० इत्येवं ज्ञानमेतत्समसिधदखिलं स्वेन संवेदनीयं . प्रौढोपन्यस्तयुक्तिव्यतिकरवशतः पश्यतां प्राश्निकानाम् ।। योगानामेष तस्मान्निखिलशिथिलितन्यायमूलप्रबन्धः
स्वाग्राहिज्ञानपक्षः सपदि निपतितश्छिन्नवृक्षो यथात्र ॥२४१॥ २५ ज्ञानान्तरज्ञेयमिति प्रतिज्ञा यौगीमवज्ञाय समर्थयुक्त्या ॥
सङ्ख्याविदामत्युपहासपात्रं साङ्ख्याशयं सम्प्रति कीर्तयामः ॥२४२ ॥
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परि. १ सु. १८] स्याद्वादरलाकरसहितः
२३३ तथाहि ज्ञानं स्वव्यवसायात्मकं न भवत्यचेतनत्वात् कलशवत् ।
.. न चात्र हेतुरसिद्धः, अचेतनं ज्ञानं प्रधानसांख्यमतखण्डनम् ।
परिणामत्वात् कुम्भवत् यत्पुनश्चेतनं तन्न प्रधानपरिणामो यथात्मेत्यतस्तत्सिद्धेः। प्रधानपरिणामत्वमपि नासिद्धम् । प्रकृतेर्महानित्याद्यभिधानात् । प्रकृतेर्हि प्रधानापरनामिकायाः ५ सकलजगत्प्रपञ्चरचनायां प्रवर्तमानायाः प्रथमतो महान् बुद्धयपरपर्याय एको व्यापको विषयाध्यवसायस्वरूप आसप्रलयस्थायी प्रादुर्भवति । आसर्गप्रलयादेका बुद्धिरित्यभिधानात् । स च महानस्मादृशां संवेद्यस्वभावः। ततस्तया प्रतिप्राणिविभिन्ना इन्द्रियमनोवृत्तिद्वारेण बुद्धिवृत्तयो निःसरन्ति । ताः प्रमाणान्तरेण संवेद्यस्वभावाः । प्रतिपुरुषं हीन्द्रिय- १० वृत्तिः प्रथमतो विषयाकारेण परिणमति । ततो मनोवृत्तिद्वारेण बुद्धिवृत्तिरेकतः संक्रान्तविषयाकाराऽन्यतश्च संक्रान्तचिच्छाया सती विषयव्यवस्थापिका भवति । बुद्धौ च दर्पणप्रतिमायां विषयाकारसंक्रमे पुरुषेणार्थश्चेतयितुं शक्यते । बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते इत्यभिधानात् । बुद्धयध्यवसितं बुद्धिप्रतिबिम्बितमित्यर्थः । ननु बुद्धिव्यतिरिक्तस्य चैतन्यस्य स्वप्नावस्थायामप्यप्रतीतेरभेद एवेति कथं तत्र तच्छायासंक्रान्तिरिति चेत् , तदसाधीयः । सतोऽप्यनयोविवेकस्य संसर्गविशेषवशाद्विपलब्धेन प्रमात्रा प्रत्येतुमशक्तेरयोगोलकज्वलनविवेकबत् । न चायोगोलकपावकयोरप्यभेद एवेत्यभिधातव्यम् । अनयोरन्योन्यासम्भविरूपस्पर्शविशेषप्रतीतितः परस्परं भेदप्रतीतेः । २० ययोरन्योन्यासम्भवी रूपस्पर्शविशेषः प्रतीयते तयोरन्योन्यं भेदो यथा स्तम्भकुम्भयोरन्योन्यासम्भवी रूपस्पर्शविशेषश्च लोहगोलकज्वलन. योरिति । न चायमसिद्धः । कालायसगोलकगताभ्यामभासुररूपानुष्णस्पर्शाभ्यां सकाशाद्वैश्वानरभासुररूपोष्णस्पर्शयोः प्रत्यक्षेणैव विशेषदर्शनात् । अतो यथाऽत्र परस्परप्रदेशानुप्रवेशलक्षणसंसर्गाद्विपलब्धः २५ प्रमाता भेदं नावधारयत्येवं बुद्धिचैतन्ययोरपि । यथोक्तमीश्वरकृष्णोन
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२३४
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सु. १८ " तस्मात् तत्संसर्गादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् ” इति । लिङ्गं बुद्धिरिहोच्यते प्रलयकाले प्रकृतौ लयं गच्छतीति कृत्वा । ततश्च--- बुद्धधर्मं ज्ञानमत्र प्रसिद्धं बुद्धिजाता जाड्यरूपात् प्रधानात् ॥ निश्चैतन्याज्जायमानं बतास्याः स्वस्यामासि ज्ञानमास्तां कथं नु।।२४३।। ५ संवेदनं सायसखे न जातु स्वस्य प्रकाशे पटुतां बिभर्ति ॥ केनेदृशं ते श्रवणे न्यवेशि श्रद्धानमानीतमिदं कथं वा ।। २४४ ॥
तथाहि यत्तावदिदमगादि ज्ञानं स्वव्यवसायात्मकं न भवत्यैचेतनत्वादिति । तत्र किमिदमचेतनत्वं नाम, किमस्वसंविदितमुतार्थाकारधारित्वं जड़परिणामत्वं वा । यद्यस्वसंविदितत्वम्, तदा प्रतिवादिनोऽसिद्धो हेतुः । साध्याविशिष्टत्वात्। यदेव हि ज्ञानस्यास्वव्ययसायात्मकत्वं साध्य तदेव पर्यायान्तरेणास्वसंविदितत्वादिति हेतुत्वेनोपन्यस्तमिति । अथाकारधारित्वम् । तदा दृष्टान्तस्य साधनविकलत्वम् । न खलु कलशस्यादर्शादेरिवार्थाकारधारित्वं केनचित्प्रतीयते । स्वरूपासिद्धं त्वेवंभूतमचेतनत्वम् । अमूर्तस्य ज्ञानस्य विषयाकारधारित्वायोगात् । तथाहि यदमूर्त तद्विषयकारधारि न भवति यथा गगनममूर्तं च ज्ञानमिति । विषयाकारधारित्वे वा तस्यामूर्तत्वं न स्यात् । तथाहि यद्विषयाकारघारि तन्मूः यथा दर्पणमुखमिति । विषयाकारधारित्वं च ज्ञानस्य निराकरिष्याम इत्यलमिहातिविस्तरेण । अथ जड़परिणाम
त्वमचेतनत्वम् । तदपि प्रतिवादिनं प्रत्यसिद्धमेव । आत्मपरि२० णामत्वात् ज्ञानस्य । तथापरिणामवानात्मा दृष्टत्वात् यस्तु ज्ञानपरि
णामवान्न भवति नासौ द्रष्टा यथा लोष्टादिः द्रष्टा चात्मा तस्माज्ज्ञानपरिणामवानिति । चेतनोऽहमित्यनुभवाच्चैतन्यस्वभावतावञ्चात्मना ज्ञाताहमित्यनुभवाज्ज्ञानस्वभावताप्यस्तु । विशेषाभावात् । ननु ज्ञान
संसर्गाज्ज्ञाताहमित्यात्मनि प्रतिभासो न पुननिस्वभावत्वादिति चेत् । २५ तदपि न्यायबाह्यम् । चैतन्यादिस्वभावस्याप्येवमभावप्रसक्तेः ।
1 सांख्यकारिका २०. २ ' भवेदचेतनस्वात् ' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः।
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परि. १ सू. १८} स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२३५ चैतन्यसंसर्गाद्धि चेतनो भोक्तृत्वसंसर्गारोक्का औदासीन्यसंसर्गादुदासीनः शुद्धिसंसर्गाद्बुद्धो न तु तत्स्वभावादित्यपि वक्तुं शक्यत एव । अनुभवबाधाश्चोभयत्रापि तुल्यः । न खलु ज्ञानस्वभावविकलोऽयं कदाचनाप्यनुभूयते । चैतन्यादिस्वभावस्येव ज्ञानस्वभावस्यापि तत्र संवेद्यमानत्वात् । तथा च ज्ञानस्याचेतनत्वसमर्थनार्थं प्रधानपरिणामत्वादिति साधनं यदुक्तं तदप्यसिद्धमेव । आत्मपरिणामत्वेन ज्ञानस्य समर्थितत्वात् । न चात्मनोऽनित्यज्ञानपरिणामात्मकतायामनित्यत्वं प्रसज्यत इति वाच्यम् । अव्यक्तस्याप्यनित्यव्यक्तात्मकतायामनित्यत्वप्रसक्तेः । अथ व्यक्ताव्यक्तयोरव्यतिरेकेऽपि व्यक्तमेवानित्यं परिणामत्वान्न पुनरव्यक्तं परिणामित्वादित्युच्यते । तर्हि ज्ञानात्मनोर- १० व्यतिरेकेऽपि परिणामपरिणामिभावाज्ज्ञानमेवानित्यमस्तु नत्वात्मा । आत्मनोऽपरिणामित्वे तु प्रधानेऽपि तदस्तु । व्यक्त्यपेक्षया परिणामि प्रधानं न शक्त्यपेक्षया सर्वदा स्थास्नुत्वादित्यभिधाने स्वात्माऽपि तथाऽस्तु विशेषाभावात् । यदि चात्मनः परिणामित्वं नाभ्युपगम्यते।। तदार्थक्रियाकारित्वाभावतस्तुरङ्गमशङ्गवदसत्त्वापत्तिः । किं चाय १५ प्रथमो बुद्धिरूपः परिणामः प्रकृतेः कुतः स्यात् । स्वभावतः पुरुषार्थकर्त्तव्यतातोऽदृष्टाद्वा । यदि स्वभावतः तर्हि सदाऽस्य सत्त्वप्रसङ्गः स्वभावस्य सदा सत्त्वसम्भवात् । यत्स्वाभाविकं न तत्कादाचित्कं यथा त्रिगुणात्मकत्वं स्वभाविकश्च प्रकृतेराद्यो बुद्धिपरिणाम इति । अथ पुरुषार्थकर्त्तव्यतातः आत्मनो विभागो मया सम्पादनीय २० इत्यनुसन्धाय प्रकृतिर्महदादिभावेन परिणमतीति । तदपि भाग्यहीनराज्यमनोरथस्थानीयम् । प्रथमसृष्टिकालेऽनुत्पन्नबुद्धिवृत्तेस्तस्याः पुरुषार्थो मया सम्पादनीय इत्यनुसन्धानानुपपत्तेः । तथाहि यदाऽसावनुस्पन्दबुद्धिवृत्तिस्तदाऽनुसन्धानशून्या यथा संहतसृष्टयवस्थायाम् । अनु
१ 'समर्पितत्वात् ' इति म. पुस्तके पाठः । २ 'वात्मापि ' इति म. पुस्तके पाठ ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १८ त्पन्नबुद्धिवृत्तिश्च प्रकृतिः प्रथमसृष्टिकाल इति । अथोऽदृष्टात्प्रथमो बुद्धिरूपः परिणामः प्रकृतेः । तदप्ययुक्तम् । यतस्तस्मात् परिणामाभ्युपगमे दुर्वारश्चक्रकावतारः । सिद्धे हि चिच्छायाछुरितबुद्धिवृत्तिसद्भावे सुखसाधनप्रतिपत्तिपूर्वकमदृष्टसाधनानुष्ठानं तदनुष्ठानाददृष्टस्योत्पत्तौ च प्रथमसृष्टिकाले तथाविधबुद्धिवृत्तिसद्भावसिद्धिरिति । यदप्युक्तमेकतः संक्रान्तविषयाकारान्यतश्च संक्रान्तचिच्छाया सीति । तत्र संक्रान्तविषयाकारत्वं बुद्धेर्बुद्धिरेवावगच्छत्यात्मा वा । न तावद्भुद्धिरेव । स्वयं स्वरूपस्याप्रतिपत्तावह संक्रान्तविषयाकारेति प्रतिपत्तेरनुपपत्तेः ।
तथा तत्प्रतिपत्तौ पुनः सिद्धं बुद्धेः स्वव्यवसायत्वम् । आत्माऽपि १० बुद्धयर्थावप्रतिपद्य संक्रान्तविषयाकारत्वं बुद्धौ प्रतिपद्यते प्रतिपद्य वा ।
नाद्यः पक्षः । अर्थस्य बुद्धेश्चाप्रतिपत्तौ तत्प्रतिपत्तेरघटनात् । द्वयोर्हि प्रतिपत्तावयमत्र संक्रान्त इति प्रतिपत्तिर्युक्ता । इदं वदनमत्र दर्पणे संक्रान्तमिति प्रतिपत्तिवत् । अथ प्रतिपद्येति पक्षः, तार्ह बुद्धयर्थावात्मा किं स्वतः प्रतिपद्यते बुद्धयन्तरेण वा । स्वतश्चेत्, तर्हि बुद्धिकल्पनावैयर्थ्यम् । क्रियायाः करणमन्तरेणायोगात्तत्कल्पनायाः सार्थकत्वमिति चेत्, तर्हि कथमात्मावुद्धयाँ स्वतः प्रतिपद्यत इति प्रतिजानीषे । बुद्धयन्तरेण तत्प्रतिपत्तौ वाऽनवस्था । न च प्राक्तनबुद्धिकाले बुद्धयन्तरमस्ति । ज्ञानयोगपद्यानभ्युपगमात् । अतः कथं बुद्धयन्तरेणापि प्राक्तनबुद्धिकाले स्वयमसता बुद्धयर्थप्रतिपत्तिरात्मनः स्यात् । चिच्छायासंक्रान्तिरपि बुद्धौ पुरुषस्य प्रतिबिम्बनमुच्यते यथा वदनसंक्रान्तिदर्पणे वेदनस्य । न च व्यापिनः पुरुषस्य क्वचिप्रतिबिम्बनं युज्यते । तथा हि यद् व्यापकं न तत् कचित्प्रतिबिम्बति यथा व्योम, व्यापकश्चात्मेति । प्रतिबिम्बने वात्मनो भवदभिप्रायेणा
स्मादृशामसंवेद्यपर्वणि स्थितत्वान्न प्रतिबिम्बप्रतिपत्तिः स्यात् । तथाहि २५ यदसंवेद्यपर्वणि स्थितं न तस्य काचित् प्रतिबिम्बग्रहणं यथोमयसम्प्रति
पन्नस्य कस्यचिदत्यन्तसूक्ष्मस्य पदार्थस्य असंवेद्यपर्वणि स्थितस्य
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परि. १ सू. १८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः भवदभिप्रायेणस्मादृशामात्मेति । तद्ग्रहणे वा मुखदर्पणयोरिव प्रकृतिपृरुषयोर्विवेकेनावधारणात् तन्निमित्तः सर्वस्य सर्वदा मोक्ष: स्यात् । ततो न कश्चिच्छास्त्रश्रवणमननादिषु प्रयतेत । यच्चोक्तं सतोऽप्यनयोविवेकस्य संसर्गविशेषवशाद्विपलब्धेन प्रमात्रा प्रत्येतुमशक्तेरयोगोलकज्वलनविशेषवदित्यादि । तदप्युक्तिमात्रम् । अयोगोलक- ५ ज्वलनयोरपि परस्परं भेदाभावात् । अयोगोलकद्रव्यं हि पूर्वाकारपरिहारेण वह्निसन्निधानाद्विशिष्टरूपस्पर्शपर्यायाधिकरणमेकमेवोत्पन्नमनुभूयते । आमाकारपरिहारेण पाकाकाराधिकरणकुम्भद्रव्यवत् । एवं च ययोरित्याधनुमाने प्रतीयमानोऽन्योन्यासम्भविरूपस्पर्शविशेषत्वाख्यो हेतुरसिद्धः । अयोगोलकज्वलनाख्यद्रव्यद्वयस्यैव तदानीमभावात् । १० तस्मात् तप्तायोगोलकवदेकत्वेनानुभूयमानं स्वपरप्रकाशकं बुद्धयुपलब्धिज्ञानमिति पर्यायं चैतन्यतत्त्वमेवाभ्युपेयं न पुनस्तव्यतिरिक्ता तेन संसृष्टा जडस्त्रभावप्रधानकर्मा बुद्धिरिति । यदप्यभिहितं तस्मात् तत्संसर्गादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गामिति । तत्र कोऽयं संसर्गशब्दार्थः प्रतिबिम्बनं भोग्यभोक्तभावो वा । न तावत्प्रति- १५ बिम्बनम् । तस्यानन्तरमेव निरस्तत्वात् । नापि भोम्यभोक्तभावः । पुरुषस्य निरभिलाषत्वेन सुखदुःखसंविलक्षणभोगाभावो तस्य भोक्तृतायां प्रकृतेश्च भोग्यताया अनुपपत्तेः । चेतनावदिवेत्यस्य च कोऽर्थः । किमचेतनं चेतनं सम्पद्यत इति तच्छायाच्छुरितं वा । तत्र नाद्यः पक्षः श्रेयान् । अन्यसन्निधानेऽन्यस्यान्यधर्मस्वीकारासम्भवात् । २०. अन्यथाऽकर्तृत्वादिधर्मोपेतात्मसन्निधानात् प्रकृतेरप्यकर्तृत्वादिधर्मस्वीकारः स्यात् । तथा च प्रकृतेमहानित्यादिजगत्प्रपञ्चप्ररूपणा प्रलयमाप्नुयात् । अत्रैवार्थे प्रयोगः । चेतना बुद्धौ तव्यपदेशहेतुर्न भवत्यात्मधर्मत्वाद्यो य आत्मधर्मः स सोऽन्यत्र तयपदेशहेतुर्न भवति यथा प्रकृतावकर्तृत्वादिरात्मधर्मश्च चेतनेति । अथ तच्छायाच्छुरित- २५. मिति द्वितीयपक्षः चेतनासन्निधाने हि बुद्धिस्तया छुरिता भवतीति ।
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२३८ प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. १८
सोऽप्यनुपपन्नः । चैतन्यसन्निधानस्य सदैव सद्भावेन बुद्धेरासर्गप्रलयस्थायिन्याः सदैव छायाछरितत्वापत्त्या सदा विषयव्यवस्थापकत्वप्रसक्तेः । न च बुद्धेः पारमार्थिकचैतन्याभावे विषयव्यवस्थापनशक्तिर्युक्ता
न खलु माणवकस्य पावकोपचारादाहादिजननशक्तिर्दृष्टा । ततः ५ परमार्थतो बुद्धिश्चिद्रूपा सिद्धा। तथा च प्रयोगः । बुद्धिः परमार्थतश्चिद्रूपा मुख्यतोऽर्थस्य व्यवस्थापकत्वात् यत्पुनः परमार्थतश्चिद्रूपं न भवति न तन्मुख्यतोऽर्थव्यवस्थापकं यथा प्रतिपन्नं तथा चेयं तस्मात्तथा । न चात्र प्रत्यक्षबाधा । एकमेव ह्यनुभवसिद्धं संविद्रूपं हर्ष
विषादाद्यनेकाकारं विषयव्यवस्थापकमनुभूयते । तस्यैवैते चैतन्यं बुद्धि१० रध्यवसायो ज्ञानं संवित्तिरिति पर्यायाः । अत एव चेदमपि प्राप्ता
वसरमनुमानम् । चैतन्यं ज्ञानमेव तद्वाचकैः प्रतिपाद्यमानत्वात् । प्रसिद्धो हि लोके चेतयते जानीते बुद्धयतेऽध्यवस्यति पश्यतीत्येकार्थे प्रयोगः । न च शब्दभेदमात्राद्वास्तवोऽर्थभेदोऽतिप्रसङ्गात् । सिद्धे चैवं
बुद्धेश्चिद्रूपत्वे स्वसंविदितत्वमपि मूर्धाभिषिक्तमस्थाः स्थितम् । तथा १५ हि बुद्धिः स्वसंविदिता चिद्रूपत्वात् यत्तु नैवं तन्नैवं यथा घट इति ।
संवेदने ये कथयन्ति जाड्यं स्वस्यैव जाडयं प्रथयन्ति तेऽत्र ।। तस्मात्स्वनिश्चायकमभ्युपेतुं युक्तं तदेतत्कापलस्य शिष्याः॥२४५॥ एतेन चार्वाकविटोऽपि तुल्ययुक्तित्वतः क्षिप्त इहावसेयः । निरस्य जीवं वसुधादिधर्ममचेतनज्ञानमुपैति योऽत्र ॥ २४६ ॥
तथाहि सोऽपि ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वं यदि ब्रूयात् तदस्यापि योगसाङ्ख्यपक्षसमुपन्यस्तसमस्तदोषप्रसक्तिः। अथैवमसावनुमानयेत् । ज्ञानं न स्वसंविदितं भूतपरिणामत्वात् पटादिवदिति तदा तत्र हेतोरसिद्धत्वमुद्ग्राहणीयम् । आत्मपरिणामत्वेन ज्ञानस्य प्रतिवादिनाऽभ्यु
पगमात् । आत्मसिद्धिश्च प्रबन्धेन सप्तमपरिच्छेदे करिप्यते इति । २५ एवं च ।
१ 'तत् ' इत्यधिक म. पुस्तके ।
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परि. १ सू. १९} स्याद्वादरत्नाकरसहितः
बुद्धेः पारोक्ष्यपक्षः क्षयमुपगमितो जैमिनीयाभ्युपेतः ___ पूर्वं तस्यापि पश्चात् प्रलयवसुमती योगपक्षोऽत्र नीतः ।। ज्ञाने जाड्याभिमानस्तद्नु शिथिलतः सर्वथा कापिलानां __ पक्षो लोकायताना पुनरयमधुनाऽक्षेपि सङ्क्षपवृत्त्या ॥ २४७।।
ततश्च--- प्रक्षीणनिःशेषविपक्षपक्षो ज्ञानं स्वसंवेदनवाद एषः । प्राप्तः प्रतिष्ठां परमामिदानी जितं च जैनैर्जयकेलिलोलैः ॥२४८॥
प्रकाशकं स्वस्य परस्य चेत्थं सिद्धं समारोपविमुक्तरूपम् । ज्ञानं प्रमाणं निखिलाऽपि यस्मान्निष्पद्यते संव्यवहारवीथी॥२४९॥१८॥
अथ किं तज्ज्ञानस्य प्रामाण्यं यत्सम्पादिदं प्रमाणमिति व्यपदिश्यत १० इत्याहज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यामिति ॥१९॥ __ यदि पुनरर्थाव्यभिचारित्वमित्युच्येत तदा सत्यं वाचस्पतेर्दूषणकणि. काकणमुपजीव्यता तावदाव्यभिचारः प्रामाण्यं, “सत्यपि वह्निनियतत्वे धूमस्य कुतश्चिन्निमित्तादनुत्पादिताग्निज्ञानस्य प्रामाण्या- १५ भावात् नीलपीतादिषु प्रत्येकं व्यभिचारेऽपि चक्षुषो यथार्थज्ञानजनकत्वेनैव प्रामाण्यात्" इत्यभिधानः श्रीधरो दुर्धर एव भवेत् । न च प्रमेयाव्यभिचारित्वाभिधानेऽपि समानमेतदिति मन्तव्यम् । बहेस्तदानीं प्रमेयत्वाभावात् । नीलपीतादीनां च प्रमेयत्वात् प्रमाणापेक्षयैव हि भावानां प्रमेयत्वं धूमध्वजज्ञानमजनयति च धूमे न प्रामा- .. ण्यस्यावसर इति कस्य प्रामाण्यमन्विप्यताम् । नीलपीतादीनां च स्वविषयं ज्ञानं जनयतां यदि न प्रमेयत्वम् । तदा दत्तो जलाञ्जलिः प्रमेयस्य ! यतो नीलादिप्रमेयाव्यभिचारित्वाज्ज्ञानस्यैव तत्र प्रामाण्यं संगच्छते न चक्षुषः । यच्चायोचद्वाचस्पतिः। न च तेषां "न प्रामाण्यमिति साम्प्रतम् । प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वसम्भवात् । २५
१ न्यायकन्दल्यां पृ. २१७ पं. २६
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२४०
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. १९ अन्यथा काष्ठादीनामपि पाकादावसाधकतमत्वप्रसङ्गादिति" तत्र भवेदयं प्रसङ्गः सङ्गतो यधुपपद्येत चक्षुरादीनां प्रमिति प्रति साधकतमत्वम् । न चैवम् । ज्ञानस्यैव तत्र साधकतमत्वेन सविस्तरं प्रसाधितत्वात् ॥१९॥
अथ प्रसङ्गादायातमप्रामाण्यमपि प्रकाशयन्नाह। तदितरत्त्वाप्रमाण्यामिति ॥ २०॥ तस्मात् प्रमेयाव्यभिचारित्वात् । इतरत् प्रमेयव्यभिचारित्वम् । अप्रामाण्यं प्रत्येयम् । प्रमेयव्यभिचारित्वं च ज्ञानस्य स्वव्यतिरिक्तग्राह्यापेक्षयैव लक्षणीयम् । स्वस्मिन् व्यभिचारित्वासम्भत्वात् । तेन
सर्वं ज्ञानं स्वापेक्षया प्रमाणमेव न प्रमाणाभासः । बहिरापेक्षया तु १० किञ्चित् प्रमाणं किञ्चित्पुनस्तदाभासम् । तदुक्तम् , “ भावप्रमेया
पेक्षायां प्रमाणाभासनिवः । बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्नवेति च" ॥ भावेति सामान्यशब्दोऽपि बहिरित्यभिधानाज्ज्ञानस्वरूपे वर्त्तत इति । तच्चाहतो नान्यस्यास्वसंविदितज्ञानवादिनः ।
प्रामाण्यं स्वत एव युक्तिपदवीमायाति निःसंशयं
ज्ञानानां घटनामुपैति परतोऽप्रामाण्यमेकान्ततः ॥ उत्पत्तौ स्वविनिश्चये च तदिदं यजैमिनीया जगुः तन्यक्कारपरायणं निजमतं ब्रूतेऽधुना सूत्रकृत्॥२४८॥२०॥ तदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञप्तौ तु स्वतः
परतश्चेति ॥ २१ ॥ अत्र ल्यलोपे पञ्चमी परं स्वं चापेक्ष्य । ज्ञानस्य हि प्रामाण्यमप्रामाण्यं च द्वितयमपि ज्ञानकारणगतगुणदोषरूपं परमपेक्ष्योत्पद्यते । निश्चीयते त्वभ्यासदशायां स्वतोऽनभ्यासद्शायां तु परत इति । तत्र ज्ञानस्याभ्यासदशायां प्रमेयाव्यभिचारित्वादितरस्माच्च प्रामाण्या
१' चरितत्वम् ' इति म. पुस्तके पाठः । २ आतमीमांसायां लो. ८३,
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परि. १ सू. २१] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२४१ प्रामाण्यनिश्चयः । संवादकबाधकज्ञानमनपेक्ष्य प्रादुर्भवन् स्वतो भवतीत्यभिधीयते । अनभ्यासदशायां तु तदपेक्षया जायमानोऽसौ परत इति । उत्पत्तौ परतः प्रामाण्ये किं प्रमाणमिति चेत् , उच्यते । प्रामाण्यं ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्वधीनं ज्ञानत्वे सति कार्यत्वादप्रामाण्यवत् । यदि पुनः प्रामाण्यं ज्ञानहेतुमात्रार्धानं भवेत् । तदा ५ निर्विवादाप्रामाण्यं पार्वणेन्दुद्वयसंवेदनमपि प्रमाणतां प्रतिपद्येत । न खलु तत्र ज्ञानहेतुर्न विद्यते । तदनुत्पत्तिप्रसङ्गादसंवेदनत्वप्रसङ्गाच्च ।
अथ तत्र ज्ञानहेतुसम्भवेऽप्यतिरिक्तदोषानुप्रवेशादप्रामाण्यमिति ज्ञानसामान्यकारणव्यति चेत् । एवं तार्ह दोषाभावमधिकमासाद्य प्रामारिक्तो दोषाभाव एव प्रा- प्यमुपजायते, नियमेन तदपेक्षणात्। अस्तु दोषा- १० माण्ये हेतुन तु भावरूपः कश्चित् गुण इति पराभि भावोऽधिको भावस्तु नेप्यत इति चेत. भवेद
मतस्य खण्डनम् । प्येवं यदि नियमेन दोषैर्भावैरेव भवितव्यम् । न त्वेवम् । विशेषादर्शनादेरभावस्यापि दोषत्वात्। तस्य ह्यदोषत्वे कथं ततः संशयविपर्ययौ स्याताम् । ततो विशेषादर्शनाभावो भावस्वभाव एवेति स कथं नेष्यते। तथाऽनित्यः शब्दः प्रमेयत्वादि- १५ त्येवमादौ प्रमेयत्वादिलिङ्गगतानां विपर्यासादिदोषाणां भावस्वभावानामप्यभावे प्रामाण्यानुपपत्तेः । न खलु प्रमेयत्वं स्वरूपमात्रेण निश्चितमिति विपर्यासादिदोषाभावसम्भवाच्छब्दस्यानित्यत्वमनुमापयितुमलम्। अथानैकान्तिकत्वादोषाभावस्तत्रासिद्ध इति चेत्, ननु कुतोऽनैकान्तिकत्वन्, नियमाभावादिति चेत्, अयत्नसम्पन्नसमीहितार्थास्तहि २० संबृत्ताः स्मः । दोषाभावातिरिक्तस्य भावस्वभावस्य नियमस्य प्रामाण्यहेतोस्त्वयैवैवं प्रसाधनात् । अथान्यत्र यथा तथाऽस्तु शब्दे तु विप्रलिप्सादिदोषाभावे वक्तगुणापेक्षा प्रमाण्यस्य नास्तीति चेत्, तदननुगुणम् । वक्तृगुणाभावे तत्राप्रामाण्यस्य वक्तृदोषापेक्षा नास्तीति विपर्ययस्यापि सुवचत्वात् । अप्रामाण्यं प्रति दोषाणामन्वयव्यतिरेको २५
१ . उपजायेत ' इति भ. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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२४२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. १ सू. २१
१०
स्त इति चेत्, न । प्रमाण्य प्रति गुणानामपि तयोस्तुल्यत्वात् । पौरुषेयविषयेयमस्तु व्यवस्था अपौरुषेये तु दोषनिवृत्त्यैव प्रामाण्यमिति चेत्, न । गुणनिवृत्त्याऽप्रामाण्यस्यापि सम्भवात् । तस्या अप्रामाण्यं प्रति सामर्थ्य नोपलब्धमिति चेत्, दोषनिवृत्तेः प्रामाण्यं प्रति क सामर्थ्यमुपलब्धम् । लोकवशादिति चेत् । तदितरत्रापि तुल्यम् । लोकवचसामप्रामाण्ये दोषा एव कारणं गुणनिवृत्तिस्त्ववर्जनीयसन्निधिरिति चेत् । प्रामाण्यं प्रति गुणेष्वपि तुल्यमेतत् । गुणानां दोषोत्सारणप्रयुक्तोऽसाविति चेत्, दोषाणाषि गुणोत्सारणप्रयुक्तोऽसावित्यस्तु । अथैवं वेदानामपौरुषेयतया गुणदोषयोरुभयोरप्यभावे तद्धेतुकयोः प्रामाण्याप्रामाण्ययोरभावात्तृतीयस्य च राशेरसम्भवान्निःस्वमावत्वं भवेदिति चेत् । किं न खलु भोः खलस्वभावमात्मानं त्वमुपालभसे। यः किलामीषामकर्तकत्वं पूत्करोषि । तस्माद्यथा यथाक्रमं द्वेषाभावस्य रागाभावस्य वाऽविनाभावेऽपि प्रवृत्तिनिवृत्तिप्रयत्नयो राग द्वेषं च
नियमेनानुविदधतो रागद्वेषकारणकत्वं न तु निवृत्तिप्रयत्नो द्वेषरूपभाव१५ हेतुकः । प्रवृत्तिप्रयत्नस्तु सत्यपि रागानुविधाने द्वेषाभावमाननिबन्धन
इति विभागो युज्यते । सत्यपि द्वेषानुविधाने निवृत्तियत्नस्य रागाभावमानहेतुकत्वापत्तेः । तथा गुणाभावस्य दोषाभावस्य वाऽविनाभावेऽप्यप्रामाण्यप्रामाण्ययोर्दोषान् गुणांश्च नियमेनानुविदधतोर्दोषगुणकारण
त्वमनुसरणीयम् । न त्वप्रामाण्यं दोषहेतुकं प्रामाण्यं सत्यपि गुणानु२० विधाने दोषाभावमानहेतुकम् । दोषान्नियमेनानुविदधतोऽप्यप्रामाण्यस्य
गुणाभावमातहेतुकत्वप्रसक्तेरिति । अथ वेदानामपौरुषेयत्वेनापेतवक्तदोषत्वं तथा च तद्धेतुकस्याप्रामाण्यस्याप्यभावात्ततः प्रविशति स्वत एव तेषु प्रामाण्यम् । एवं च गुणाभावेऽपि सम्भवत्प्रामाण्यं न गुणहे
तुकमेवेति वक्तुं युज्यत एवेति चेत् । व्याहतमेतत् । तत एवैतेषाम२५ पेतवक्तगुणत्वं तथा च तद्धेतुकस्य प्रामाण्यस्याप्यभावस्ततश्चाप्रयत्नो
१ 'एवैतत्' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू. २१]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
पनतमप्रामाण्यमिति दोषाभावेऽपि तत्सम्भवन्न दोषहेतुकमेवेति वक्तुं युक्तमित्येवं विपर्ययस्यापि कल्पयितुं शक्यत्वादिति । तथा प्रामाण्यं विज्ञानमात्रोत्पादककारणकलापातिरिक्तकारकोत्पाद्यं विज्ञानमात्रानुवृतावपि व्यावर्त्तमानत्वाद्यदित्थं तदित्थं सम्यग्ज्ञानेऽपि विज्ञानमात्रानुवृत्तावपि व्यावर्त्तमानमप्रामाण्यम् । तथा चेदं तस्मात्तथा । न चात्रासिद्धो हेतुः । मिथ्याज्ञाने विज्ञानमात्रानुवृत्तावपि प्रामाण्यव्यावृत्तेर्वादिप्रतिवादिनोः प्रतीतत्वात् । नापि विरुद्धः । सपक्षे सद्भावात् । पदार्थसिद्धिस्ततश्च ते' वाजिविषाणकल्पा । ननु यथार्थोपलब्धिलक्षणलिङ्गसमुत्थमनुमानं तन्निश्चायकमस्त्येवेति चेत् । तन्न युक्तम् । यतो यथार्थोपलब्धिलक्षण लिङ्गसमुत्थानुमानान्निर्दोषाणामेव कारणानां निश्चयो नतु सगुणानाम् । यदि हि यथार्थत्वायथार्थत्वरूपद्वयरहितमेव किञ्चिदुपलब्ध्याख्यं कार्यं भवेत्तदा कार्यत्रैविध्यमध्यवसीयेत यदुत यथार्थोपत्रेर्गुणवन्ति कारकाणि अयथार्थोपलब्धेर्दोषकलुषितानि । उभयरूपरहितायाः पुनरुपलब्धेः स्वरूपावस्थितान्येवति । न वेवमस्ति । द्वेधा हीयमुपलब्धिरनुभूयते, यथार्था चायथार्था च । १५ त्रायथार्थोपलब्धिस्तावत् दुष्टकारणजन्यैव संबेधते । यथाहि दुष्टकारणकलापाद्दः शिक्षितकुलालादेः कुटिलकलशादिकार्यमवलोक्यते । था तिमिरादिदोषदुष्टान्नयनादिकारणकदम्बकात् कुमुदबान्धवद्वितयत्ययादिका अयथार्थोपलब्धिरपि । अत एवोत्पत्तौ दोषापेक्षदप्रामाण्यं परत एवेति कथ्यते । तदित्थमयथार्थोपलब्धौ दुष्टकारण- २० न्यत्वेन प्रसिद्धायामिदानीं तृतीयकार्याभावाद्यथार्थोपलब्धि: स्वरूपास्थितेभ्य एव कारणेभ्योऽवकल्पते इति न गुणकल्पनायै सा भवति । न च स्वरूपावस्थितानि कारणानि कार्यजन्मन्युदासत एव न यथार्थोपलब्धिजननेऽमीषां गुणसहकारिता परिकल्प्यत इति ।
१ अत्र स्वमतप्रतिपादकोऽनन्तरञ्च मीमांसकाक्षेपोलको वाक्यसन्दर्भः सादितादर्शेषु पतित इति विज्ञायते । २ 'तव ' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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२४३
५.
१०
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२४४
प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः [परि.. १ सू. २१ तस्मान्न सन्ति केचन कारणगुणाः । न चेन्द्रियनैर्मल्यादिरेव गुण इति वाच्यम् । नैर्मल्यादिकं हि नयनादीन्द्रियाणां स्वरूयं न पुनः स्वरूपातिरिक्तो गुणः । नैर्मल्यव्यपदेशस्तु लोचनादेर्दोषाभावनिबन्धनः । तथाहि काचकाभलादिदोषाणामसत्त्वान्निर्मलमिन्द्रियं तेषां सत्त्वे ५ पुनः सदोषमिति व्यपदिश्यते । अतस्तिमिरादीनामभावः स्वरूपमेवेन्द्रियस्य तत्सद्भावस्तु दोषः । मनसोऽपि निद्राद्यभावः स्वरूपं तत्सद्भावस्तु दोषः । विषयस्यापि निश्चलत्वादिकं स्वरूपं चञ्चलत्वादिकस्तु दोषः । प्रमातुरपि बुभुक्षाद्यभावः स्वरूपं तत्सद्भावस्तु दोषः । न
चैतद्वाच्यं विज्ञानजनकानां स्वरूपमयथार्थोपलब्ध्या समाधिगतम् । १० यथार्थत्वं तु पूर्वस्मात्कारणकलापादनुपजायमानं गुणाख्यं सामग्र्यन्तरं
परिकल्पयतीति । यतोऽत्र लोकः प्रमाणम् । न चासौ मिथ्याज्ञानाकारणस्वरूपमनुमिनोति किन्तु सम्यग्ज्ञानात् । एवं ‘च गुणानामसम्भवात्कथं तेभ्यः समुत्पद्यमानं प्रामाण्यं परतः समुत्पात इति । मुग्धधिया गदिता भवताऽमी शुश्रुविरे सकलाः कुविकल्पाः । जैनमतामृतपूतमतीनामुत्तरकेलिमतः शृणु सम्यक् ।। २४९ ॥
तथाहि । यत्तावदुक्तम् अध्यक्षमक्षादिनिमित्तसंगतान् गुणान् ग्रहीतुं पटुतापुरःसरान् इत्यादि । तत्र किमिन्द्रिये परोक्षशक्तिरूपे गुणानां प्रत्यक्षेणानुपलम्भादभावः साध्यते, आहोस्वित्प्रत्यक्षे चक्षुर्गोलकादौ बाह्यरूपे । प्रथमपक्षे गुणवदोषाणामप्यभावः प्रसज्यते। परोक्षशक्तिरूपे इन्द्रिये अनुपलम्भस्य तुल्यत्वात् । द्वितीयपक्षेऽपि किमात्मप्रत्यक्षेण चक्षुर्गोलकादौ गुणानामनुपलम्भः परप्रत्यक्षेण वा । यद्यास्मप्रत्यक्षेण, तर्हि तेन दोषाणामप्यनुपलम्भात्तत्र सत्त्वं न स्यात् । स्पार्शनप्रत्यक्षेणात्मीयेन स्वचक्षुर्गोलकादिमात्रस्यैवावसायात् । अपर
प्रत्यक्षेण चेदनुपलम्भः । नन्वसिद्धमेतत् , यथैव हि काचकामलादयो २५ दोषाः परचक्षुर्गोलकादौ प्रत्यक्षतः परेण प्रतीयन्ते तथा नैर्मल्यादयो
गुणा अपि । जातमात्रस्यापि नैर्मल्यादिनेन्द्रियप्रतीतेनल्यादीनां
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परि. १ सू. २१] स्याद्वादरत्नाकरसहितः मुणरूपत्वाभाव इत्युच्यते । तर्हि जातितैमिरिकस्य जातमात्रस्यापि तिमिरादिपरिकरितेन्द्रियप्रतीतेरिन्द्रियस्वरूपातिरिक्ततिमिरादिदोषाणामध्यभावः कथं न स्यात् । कथं चैवं रूपादीनामपि कुम्भादिगुणस्वभावता । उत्पत्तेरारभ्य कुम्भे तेषां प्रतीयमानत्वाविशेषात् । ततः परचक्षुर्गोलकादौ प्रत्यक्षतः परेण प्रतीयमानत्वात् काचकामलादिदोषाणां यथा ५ सत्त्वमङ्गीक्रियते नैर्मल्यादिगुणानामप्यङ्गीकर्त्तव्यम् । अन्यथा तु--
सुव्यक्तं गुणमात्सर्यमकारणमिदं तव ।।
दोषैकपक्षपातित्वं किं ब्रूमस्तत्सखेऽधुना ।। २२० । अपि च ।
प्रत्यक्षानुपलभ्यत्वाद्गुणाभावो यदीप्यते ॥ बुद्धयभावस्तथा प्राप्तस्तत एव तव ध्रुवम् ॥ २५१ ।। बद्धयभावेऽथ सर्वस्य प्रमाणस्याप्यभावतः । कथं स्वपक्षसिद्धिस्ते निःसन्देहविपर्यया ॥ २५२ ।। परपक्षप्रतिक्षेपः कथं वा निष्प्रमाणकः ॥ सिद्धिक्षेपौ च कर्त्तव्यौ स्वपक्षपरपक्षयोः ॥ २५३ ॥ १५ प्रमाणमन्तरेणापि क्रियते यदि तौ त्वया ।
सुष्टु प्रामाणिकत्वं स्यादात्मनो व्यञ्जितं तदा ॥ २५४ ॥ ... तन्न प्रत्यक्षानुपलम्भमात्रेण गुणानामभावः कर्तुं युक्तः । यदप्यवादि,न शेमुषीलिङ्गकृतापीत्यादि । तदप्यसिद्धम् । गुणग्रहणप्रवणस्यानुमानस्य सद्भावात् । तथाहि। विवादाध्यासितेषु ज्ञानहेतुषु गुणाः सन्ति सम्यग्ज्ञान- २० जनकत्वान्यथानुपपत्तः। द्विविधमेव हि कार्य सभ्यगसम्यग् नतु तृतीयम् । तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धोर्नर्विशेषस्य सामान्यम्य शशविषाणकल्पत्वाच्च । तत्राद्यं गुणवत्कारणात् । द्वितीयं तु दोषवत्कारणादुपजायते । उक्तकारणातिरिक्तं तु कार्यवत्कारणमपि नोपलभामह इति सम्यग्ज्ञानलक्षणं कार्य गुणवत्कारणादेवोपजायत इति सिद्धम् । २५ १ आजन्मनः तिमिररोगग्रस्तस्य ।
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२४६
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सु. २१
यच्चोन्द्रयगुणैः सह लिङ्गस्य प्रतिबन्धप्रतिषेधार्थं प्रत्यक्षतोऽनुमानाद्वा सम्भाव्येतास्य निश्चय इत्यादि न्यगादि । तदपि परसमयरहस्यानभिज्ञस्य प्रलापमात्रम् । न खलु क्वचिदपि लिने प्रत्यक्षानुमानाभ्यां साध्येन सार्द्धं प्रतिबन्धावधारणमभिदधति स्याद्वादिनः । किं तूहापरपर्यायात्तर्काख्यात्प्रमाणान्तरात् । तस्माच्च पूर्वोपन्यस्तगुणानुमाने प्रतिबन्धः प्रतीयत एव । ततश्च ।
५
एवं प्रमाणं सुदृढं गुणेषु प्रवर्त्तते सत्त्वविनिश्चयाय ।
प्रमाणमूला च पदार्थसिद्धिस्ततश्च ते नाश्वविषाणकल्पाः || २५५॥ इति सिद्धम् । यदि चैवं सुदृढप्रमाणप्रतिपन्नेष्वपि गुणेषु कुदि१० कल्पैर्विप्लवः क्रियते तर्ह्यप्रामाण्योत्पादकेषु दोषेष्वपि कः समाश्वासः । यथोक्तगुणविष्वैककुविकल्पजालस्य तत्रापि तुल्यत्वात् । तथाहि । अध्यक्षमक्षादिनिमित्तसङ्गतान् दोषान् ग्रहीतुं तिमिरादिकान् स्फुटम् । क्षमं न तावद्यदनेन वस्तुनि ज्ञाने न कश्चित्कलहायते सुधीः ॥ २५६ ॥ इत्यादि ।
१५ एवं न दोषेषु तच प्रमाणं प्रवर्त्तते सत्त्वविनिश्चयार्थम् ।
न चाप्रमाणे हि पदार्थसिद्धिस्ततश्च ते वाजिविषाणकल्पाः ॥ २५७॥ इति पर्यवसानः पधोपन्यासः समग्रोऽपि गुणदूषणे वा दोषदूषणेऽपि कर्त्तुं शक्यत एवेति । यदप्युक्तम्, यथार्थोपलब्धिलक्षणलिङ्गसमुत्थानुमानान्निर्दोषाणामेव कारणानां निश्वयो न तु सगुणानामिति । तदप्ययुक्तम् । उक्तन्यायेन गुणजन्यत्वेन तस्याः प्रसिद्धत्वात् । यत्पुनरुक्तम्, द्वेषा हीयमुपलब्धिरनुभूयते यथार्था चायथार्था चेति । तत्र न विप्रतिपद्यामहे । न हि यथार्थत्वायथार्थत्वे विहाय निर्विशेषमुपलब्धिसामान्यमुपपद्यते विशेषनिष्ठत्वात्सामान्यस्य । न खलु शाबलेयबाहुलेयादिविशेषविकलं गोत्वादिसामान्यं प्रतीयते । येनेदमुपलब्धि२५ सामान्यं यथार्थत्वायथार्थत्वविशेषविरहितं प्रतीयेत । यत्तु प्रतिपादितम्, १ पृष्टं निर्देष्टुं न शक्यते ग्रन्थस्य त्रुटितत्वात् ।
२०
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२४७
परि. १ सू. २१] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२४७ इदानीं तृतीयकार्याभावाद्यथार्थोपलब्धिः स्वरूपावस्थितेभ्य एब कारणेभ्योऽवकल्पत इति न गुणकल्पनायै सा प्रभवतीति । तदनुपपन्नम् । उक्तन्यायेने गुणदोषविरहितस्य तृतीयकारणस्यासम्भवात् ।
यदपि प्रत्यपादि । नैर्मल्यादिकं हि नयनादीन्द्रियाणां स्वरूपं नैमल्यादिकं नयनादीनां न पुनः स्वरूपातिरिक्तो गुण इति । तत्रेदं ५ स्वरूपं न ततोऽतिरिक्तो पर्यनुयुज्यते । कुतो नैर्मल्यादेर्नयनादीन्द्रयस्वगुण इति मीमांसकम
तस्य खण्डनम् । रूपतासिद्धिः । नयनादिभ्यो भेदेन तस्यानुपलभ्यमानत्वादिति चेत् । तदप्यसमीचीनम् । काचकामलादिदोषाणामपि लोचनादिभ्यः पार्थक्येनानवलोक्यमानानां तत्स्वरूपत्वप्रसक्तेः । किं च नैर्मल्यादिकं नयनादीन्द्रियाणां स्वरूपमित्यत्र स्वरूपशब्दस्य १० कः सम्मतोऽर्थः । तादात्म्यं तन्मात्रत्वं वा । तत्राद्यविकल्पे नैर्मल्यादेर्गुणत्वानिषेधस्तादात्म्यस्य गुणत्वाविरोधित्वात् । इतरथा रूपादेरपि गुणत्वाभावः स्यात् । द्वितीयविकल्पस्त्वयुक्तः । चक्षुरादावनुवर्तमानेऽपि नैर्मल्यादेर्निवर्तमानतया तन्मात्रत्वानुपपत्तेः । प्रयोगश्चात्र यस्मिन्ननुवर्तमानेऽपि यन्निवर्त्तते न तत्तन्मानं यथानुवर्त्तमानेऽपि पटे १५ नील्यादिद्रव्यसंयोगान्निवर्तमानः शुक्लादिर्गुणः । अनुवर्तमानेऽपि चक्षुरादौ निवर्तते काचकामलिनः कुपितादेर्वा नैर्मल्यादिकमिति । किंच कथं गुणानभ्युपगमे तस्माद्गुणेभ्यो दोषाणामभाव इत्यादि पदे पदे गुणसद्भावावेदको वार्तिककारोद्गारः शोभेत । यदप्यमाणि नैर्मल्यव्यपदेशस्तु लोचनादेर्दोषाभावनिबन्धन इत्यादि । तदपि मनः- २० पीडाकरम् । दोषाभावस्य प्रतियोगिपदार्थस्वभावत्वात् । तुच्छस्वभावत्वे यस्य तुरङ्गशृङ्गस्येव कार्यत्वधर्माधारत्वविरोधः । न चाऽसिद्धमस्य कार्यत्वलक्षणधर्माधिकरणत्वम् । अञ्जनादेश्चक्षुरादौ क्रियमाणत्वप्रतीतेः । ततो दोषाणां प्रतियोगिनो ये गुणास्तत्स्वरूप एव दोषाभावः । लोकप्रती१ . नयेन ' इति प. पुस्तके पाठः । २ 'वा' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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५४८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. २१ तिरप्यत्र साक्षिणी । तथाहि । कश्चित्काचकामलादिदोषकलुषितलोचनस्तथाविधौषधप्रयोगसामर्थ्यसमासादितेन्द्रियगुणः केनचित् परमवयस्येन कीदृशौ दृशौ भवतः सम्प्रतिपन्ने इति सस्नेहं सम्भाषितः सन्नभिधत्ते । पुरा सदोषे समभूतामधुना तु लब्धिसम्पन्ने इति । न तु विस्मृत्यापीदमभिदधाति यदुत प्राक्सदोषे मे दृशौ समभूतामिदानी पुनस्तयोस्तिमिरादिदोषाभावमात्रं तुच्छं सम्पन्नमिति । ततश्च गुणस्वरूपस्य कार्यत्वं सुस्पष्टं प्रतीयत एवेति नासिद्धं कार्यत्वधर्माधारत्वमस्य । तथा च कथं निःस्वभावत्वं तस्येति । यदि च दोषाभावो निःस्वभावः
स्वीक्रियते । तर्हि " भावान्तरविनिर्मुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् । १० अभावः सम्मतस्तस्य हेतोः किन्न समुद्भवः॥" इत्यत्र भावान्तरवि
निर्मुक्तो भावोऽभावः सम्मत इत्यस्य विरोधः । एवं च गुणदोबयो: परस्परविरुद्धत्वेनैकप्रतिषेधस्येतरविधिस्वरूपत्वाद्दोषाभावो गुणसद्धाबात्मक एवाभ्युपगन्तव्यो यथा वस्त्वभावाभावो वस्तुसद्भावात्मकः । यदि चैवं नाभ्युपगम्यते तर्हि कथं लिङ्गे नियमलक्षणसम्बन्धाभावोऽपि दोषात्मकः स्यात् अभावस्य गुणस्वरूपत्वाभावाद्दोषरूपलस्याप्ययोगात् । तथा च काचकामलादिदोषाभावव्यतिरिक्तगुणरहिताञ्चक्षुरादेरुपजायमानं प्रामाण्यं यथा स्वतोऽभिधीयते । तथा नियमलक्षणसम्बन्धाभावव्यतिरिक्तदोषरहिताल्लिङ्गादप्रामाण्यमप्युपजायमानमनुभाने स्वतोऽभिधीयताम् । विशेषाभावात् । ___ एवं च 'अप्रामाण्यं त्रिधा भिन्नं मिथ्यात्वाज्ञानसंशयैः' । वस्तुत्वाद्विविधस्यात्र सम्भवो दुष्टकारणात्॥' इत्यस्य विरोधः । द्विविधस्येति मिथ्यात्वसंशयस्वरूपस्य । ततो द्वितीयलिङ्गे नियमलक्षणसम्बन्धाभावस्य दोषरूपत्ववदिन्द्रिये दोषाभावस्य गुणरूपता स्यात् । यदपि न चैतद्वाच्यमित्याद्याशंक्य यतोऽत्र लोकः प्रमाणं न चासौ मिथ्याज्ञानात् कारणस्वरूपमात्रमनुमिनोति किन्तु सम्यग्ज्ञानादिति समाहितम्।
१ मीमांसाश्लोकवार्तिके सू. २ चोदनासूत्रे श्लो. ५४.
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मनुमानम् ।
परि. १ सू. २१] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२४९ तदपि लोकव्यवहारव्याहतम् । लोको हि यथा मिथ्याज्ञानात्कारणस्वरूपमेवानुमिनोति तथा सम्यग्ज्ञानादपि । यथा च मिथ्याज्ञानाद्दोषवन्ति कारणानि परिकल्पयति । तथा सम्यग्ज्ञानाद्गुणवन्ति तानीति ।
तत्प्रामाण्यं गुणापेक्षमुत्पत्तिं प्रतिमानतः ।। सिद्धिसौधमुपारूढमित्यलं बहुजल्पितैः ॥ २५८ ॥ अनभ्यासदशायां प्रामाण्यं परतः प्रतिपद्यत इति । कुतः प्रतीयत अनभ्यासदशायां प्रामाण्य-इति चेत् । अनभ्यासदशायां प्रामाण्यं परतो स्य परतस्त्वसाधक- ज्ञानते संशयास्पदत्वादिल्यत इति ब्रूमः । यदि
" हि ज्ञानेन स्वप्रामाण्यं स्वयमेव ज्ञायेत यथार्थपरिच्छेदकमहमस्मीति, तदा प्रमाणमप्रमाणं वेदं ज्ञानमिति प्रामाण्य- १० संशयः कदाचिदपि नोत्पद्यते ज्ञानत्वसंशयवत् । निश्चिते तदनवकाशात् । अथ प्रमाणवदप्रमाणेऽपि ज्ञानमिति प्रत्ययरूपसमानधर्मदर्शनाद्विशेषस्य कस्यचिदप्यदर्शनादुत्पद्यत एव । निश्चितेऽपि प्रामाण्ये संशय इति चेत् । नैतत्संशयकारणानुगुणम् । न खलु साधकबाधकप्रमाणाभावमवधूय समानधर्मदर्शनादेवासौ भवितुमर्हति । तथा सति तदनुच्छे- १५ दप्रसङ्गात् । न चेह तव साधकबाधकप्रमाणाभावःसम्भवी । स्वतः प्रामाण्यज्ञप्तिरूपस्य प्रामाण्यसाधकस्याप्रामाण्यबाधकस्य च प्रमाणस्य विजृम्भमाणत्वात् । भवति चानभ्यासदशायां प्रामाण्ये सन्देहस्तस्मान्नात्र स्वतो ज्ञप्तिः । अथ झटिति प्रचुरा च तथाविधा प्रवृत्तिरन्यथानुपपद्यमाना स्वतः प्रामाण्यज्ञप्तिमाक्षिपतीति चेत् , नैतत् । २० अन्यथैवोपपत्तेः । करणं तत्कारणमभीष्टाभ्युपायताज्ञानं तदपि तज्जातीयत्वलिङ्गानुभवादिप्रभवमिति न प्रामाण्यग्रहस्य कचिदप्युपयोगः । उपयोगे वा स्वत इति कुत एतत् ।
अथ यदि स्वतः प्रामाण्यज्ञप्तिर्न स्यान्न स्यादेवैषा । परतो ज्ञप्ति
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२५०
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. २१ प्रामाण्यज्ञप्तिः परत इति ।
पक्षस्यानुपपद्यमानत्वात् । तथाहि । प्रामाण्य मीमांसकस्य पूर्वपक्षं विस्त-स्वज्ञप्तौ कारणगुणज्ञानं बाधकामावज्ञानं वा रश उपाद्य संवादकज्ञा-संवादकज्ञानं वा परमपेक्षेत । न तावत्कारणगुनात्प्रामाण्यग्रह इति । व्यवस्थापनेन णज्ञानम् । तद्धि नेन्द्रियजं सम्भवति । अती
तत्खण्डनम्। न्द्रियेन्द्रियादिकारणाधिकरणत्वेन परोक्षत्वाद्रुणानाम् । नापि लिङ्गजम् । नापि लिङ्गस्यैवाभावात् । उपलब्ध्याख्यकार्यपरिशुद्धिलिङ्गमस्तीति चेत्, मैवम् । अप्रतिपन्नायास्तस्यास्तद्गमकत्वानुपपत्तेः । उपलब्ध्याख्यकार्यपरिशुद्धिग्रहणं प्रामाण्यज्ञप्तिश्चेति खल्वनर्थान्तरम् प्रामाण्यज्ञप्तिश्च कारणगुणज्ञानाद्भवतीति प्रस्तुतं तथा चेतरेतराश्रयम् । उपलब्ध्याख्यकार्यपरिशुद्धिग्रहणात्कारणगुणज्ञानं तज्ज्ञानाच्च तद्ग्रहणमिति । तन्न कारणगुणज्ञानं स्वज्ञप्ती प्रामाण्यमपेक्षते । नापि बाधकामावज्ञानम् । यतस्तदपि प्रमाणमप्रमाणं वा भवेत् । प्रथमपक्षे कुतस्तप्रामाण्यज्ञप्तिः । परस्माधिकाभावज्ञानाचेत् तर्हि तस्यापि तज्ज्ञप्तिरपरस्मात्तस्मादित्येवमनवस्था । द्वितीये तु स्वयमप्रमाणं बाधकामावज्ञानं कथं प्रामाण्यं ज्ञापयेत् । ततो न बाधकामावज्ञानादपि तज्ज्ञप्तिः । नापि संवादकज्ञानात् । संवादकज्ञानं हि समानजातीयं भिन्नजातीयं वा भवेत् । यदि समानजातीयम् । तदपि किमेकसन्तानप्रभवं भिन्नसन्तानप्रभवं
वा । न तावद्भिन्नसन्तानप्रभवम् । देवदत्तघटज्ञाने यज्ञदत्तघटस्यापि २० संवादकत्वप्रसक्तेः । एकसन्तानप्रभवमप्यभिन्नविषयं भिन्नविषयं वा ।
प्रथमपक्षे संवाद्यसंवादकभावाभावः । विशेषाभावात् । अभिन्नविषयत्वे हि यथोत्तरज्ञानं पूर्वज्ञानस्य संवादकं तथा पूर्वमप्युत्तरस्य संवादकं किन्न भवेत् । कथं चोत्तरस्यापि संवादकत्वेनाभिमतस्य ज्ञानस्य प्रामाण्य
निश्चयः । तदुत्तरकालभाविनोऽन्यस्मात्तथाविधादेवेति चेत् । तर्हि २५ तस्याप्यन्यस्मात्तथाविधादेव प्रामाण्यनिश्चय इत्यनवस्था । प्रथम
१' बाधकभाव' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः ।
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परि. १ सू. २१] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२५१ प्रमाणादुत्तरस्य प्रामाण्यनिश्चये परस्पराश्रयः । अथ भिन्नविषयमिति द्वितीयः पक्षः । सोऽपि न श्रेयान् । एकस्तम्भज्ञानं प्रति स्तम्भाम्तरज्ञानस्य प्रामाण्यव्यवस्थापकत्वापत्तेः । तन्न समानजातीयं संवादकज्ञानमुपपद्यते । नापि भिन्नजातीयम् । तद्धि किमर्थक्रियाज्ञानमुतान्यत् । न तावदन्यत् , घटज्ञानात्पटज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयप्रसङ्गात् । नाप्यर्थक्रियाज्ञानम् । प्रथमस्य प्रवर्तकज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्त्याद्यभावेनार्थक्रियाज्ञानस्यैवाघटनात् । निश्चितप्रामाण्यात्तु प्रवर्तकज्ञानात्प्रवृत्तौ दुर्निवारश्चक्रकावतारः । तथाहि प्रवर्तकज्ञानप्रामाण्यनिश्चयात्प्रवृत्तिः, प्रवृत्तेरर्थक्रियाज्ञानं, अर्थक्रियाज्ञानाच्च प्रवर्तकज्ञानप्रामाण्यनिश्चय इति । कथं चार्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्चयः, १० अन्यस्मादर्थक्रियाज्ञानादिति चेत् , तर्हि अनवस्था । प्रवर्तकज्ञानाचेत् , अन्योन्याश्रयः । अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वतः प्रामाण्यनिश्चयाभ्युपगमे च प्रवर्तकज्ञानस्य तथाभावे किंकृतः प्रद्वेषः । यदाह भट्टः, " यथैव प्रथमं ज्ञानं तत्संवादमपेक्षते । संवादेनापि संवादः परो मृग्यस्तथैव हि ॥ १ ॥ संवादस्याथ पूर्वेण संवादित्वात्प्रमाणता। . अन्योन्याश्रयभावेन प्रामाण्यं न प्रकल्प्यते ॥२॥ कस्यचित्तु १५ यदीष्येत स्वत एव प्रमाणता । प्रथमस्थ तथाभावे प्रद्वेषः केन हेतुना ॥३॥” इति । तदेवं परतः पक्षस्यानुपपद्यमानत्वात्स्वत. एव प्रामाण्यग्रहणमुपपद्यत इति । तदेतदखिलमलीकम् । तथाहि यत्तावदुक्तं प्रामाण्यं स्वज्ञप्तौ कारणगुणज्ञानं बाधकामावज्ञानं वा संवादकज्ञानं वा परमपेक्षेतेत्यादि । तत्र संवादकज्ञानमपेक्षत २० इत्याचक्ष्महे । कारणगुणज्ञानबाधकामावज्ञानयोरपि च संवादकज्ञानरूपत्वं प्रतिपद्यामहे । यादृशोऽर्थः पूर्वस्मिन् विज्ञाने प्रथापथमवतीर्णस्तादृश एवासौ येन विज्ञानेन व्यवस्थाप्यते तत्संवादकमित्येतावन्मानं हि तल्लक्षणमाचचक्षिरे धीराः । यत्तु कारणगुणज्ञाननिराकरणाय न्यगादि । तद्धि नेन्द्रियजं सम्भवतीत्यादि । ततावदेवमेव । यत्पुन- २५५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. १ सू. २१ नापि लिङ्ग लिङ्गस्यैवाभावादित्यादि । तदसंगतम् । उपलब्ध्याख्यकार्यपरिशुद्धिलक्षणस्य गुणग्रहणप्रवणस्य लिङ्गस्य सम्भवात् । यत्पुनस्तत्प्रतिक्षेपाय प्रतिपादितम् । अप्रतिपन्नायास्तस्यास्तद्गमकत्वानुपपत्तेरित्यादि । तदपेशलम् । न खलु कारणगुणज्ञानादेवोपलब्ध्याख्यकार्यपरिशुद्धिबुद्धिर्भवतीति नः पक्षः । अभ्यासदशायां स्वतोऽनभ्यासदशायां तु कारणगुणज्ञानवज्ज्ञानान्तरादपि संवादकात्तदु. पपत्तेः । एतेन बाधकामावज्ञानपक्षप्रातक्षेपोऽपि प्रतिक्षिप्तः । यत्तु विकल्पितं संवादकज्ञानं हि समानजातीयं भिन्नजातीयं वा भवेदिति । तत्रोभयमपि स्वीक्रियत एव । क्वचित्खलु समानजातीयं संवादकज्ञानं भवति । यथा देवदत्तस्य प्रथमं घटज्ञाने प्रवृत्ते यज्ञदत्तस्यापि तस्मिन्नेव घटे घटज्ञानम् । एतेन देवदत्तघटज्ञाने यज्ञदत्तघटज्ञानस्यापि संवादकत्वप्रसक्तरिति प्रत्युक्तम् । इष्टस्यैवापादनात् । कचित्तु भिन्नजातीयमपि संवादकज्ञानं भवति । यथा प्रथमस्य प्रवर्तकजलज्ञान
स्योत्तरकालभाविनानपानावगाहनाद्यर्थक्रियाज्ञानम् । यत्तु समानजातीय१५ मपि किमेकसन्तानप्रभवं भिन्नसन्तानप्रभवं वेत्युक्तम् । तत्रोभयमप्यभ्यु
पगम्यत एव । भवति ।कसन्तानप्रभवमन्धकारकलुषितालोकप्रभवस्य कुम्भज्ञानस्योत्तरकालभाविनस्तिमिरालोकप्रभवं तस्मिन्नेव कुम्भे कुम्भज्ञानम् । भिन्नसन्तानप्रभवं तु समानजातीयं संवादकज्ञानं यदिदानीमेव प्रथममुपदर्शितम् । यत्पुनरेकसन्तानप्रभवपक्षे समाख्यातम् एकसन्तानप्रभवमप्यभिन्नविषयं भिन्नविषयं वेति । तत्राप्युभयमस्माकमभिमतमेव । तत्राभिन्न विषयमेकसन्तानप्रभवं दर्शितमेव । यच्चात्र पक्षे दूषणं प्रथमपक्षे संवाद्यसंवादकभावाभावो विशेषाभावादिति । तदवद्यम् । विशेषाभावस्यासिद्धेः । संवाद्यं हि पूर्वसंवेदनं मन्दसाम
ग्रीसमुत्पाद्यम्, संवादकं पुनरुत्तरकालभावि प्रबलसामग्रीजन्यमिति २५ कथमनयोर्विशेषाभावः सिद्धयेत् । अभ्यस्तसद्विषयत्वेन च संवादकस्य
स्वादकान्तरानपेक्षत्वादनवस्थापि पूर्वोक्तात्र न सम्भवति । भिन्नविषयं
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परि. १ सू. २१ स्याद्वादरत्नाकरसहितः
२५३. त्वेकसन्तानप्रभवं संवादकं यथा रथाङ्गमिथुनादेकतरदर्शनस्यान्यतरदर्शनम् । यत्तक्तमत्र पक्षे एकस्तम्भज्ञानं प्रतिस्तम्भान्तरज्ञानस्य प्रामाण्यव्यवस्थापकत्वापत्तेरिति । तत्रापि यदि तद्विषययोरविनाभावस्तदा भवत्येव संवादकत्वम् । न खलु निखिलं भिन्नविषयं संवेदनं संवादकमिति ब्रूमः । किं तर्हि यत्र पूर्वोत्तरज्ञानगोचरयोरविनाभावस्त- ५ त्रैव भिन्नविषयत्वेऽपि ज्ञानयोः संवायसंवादकभाव इति । यच्च भिन्नजातीयसंवादकज्ञानपक्षे विकल्पितम्, तद्धि किमर्थक्रियाज्ञानमुतान्यदिति । तत्रापि नः पक्षद्वयमपि सम्मतमेव । तत्रार्थक्रियाज्ञानं प्रथमस्य प्रवर्तकजलज्ञानस्येत्यादिना प्रागभिहितम् । अर्थक्रियाज्ञानादन्यत्तु भिन्नजातीयं संवादकं यथा एकसहकारफलादिवर्तिनां रूपादी- १० नामविप्वग्भावलक्षणसम्बन्धिनां परस्परं व्यभिचाराभावाद्रसादिज्ञानमाशंकितविषयाभावस्य प्रामाण्यनिश्चायकम् । यत्पुनरत्र पक्षे वटज्ञानात्पटज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयप्रसंगादिति जल्पितम् । तत्केवलं वाचालताचापलम् । अविनाभावो हि संवाद्यसंवादकभावनिबन्धनं नान्यदित्युक्तत्वात् । यत्त्वर्थक्रियाज्ञानपक्षे प्रथमस्य प्रवर्तकज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्त्याराभावेनार्थक्रियाज्ञानस्यैवाघटनादित्युद्धोषितम् । तदपि ज्ञानन्यायनिराकृतम् । न खलु सर्वत्र प्रवर्तकज्ञानस्य प्रामाण्यानिश्चये सति प्रवृत्तिरिति नः पक्षः। किं तीनभ्यासदशायां प्रामाण्यसन्देहादपि प्रवृत्तिरिति । न चात्रेदं प्रतिपादनीयम् । यदि संशयादपि प्रवृत्तिः सम्पन्ना । तयर्थक्रियाज्ञानात्प्रामाण्यनिश्चयेन किं प्रयोजनम् । प्रवृत्त्यर्थं २० हि प्रामाण्यनिश्चयः प्राय॑ते सा च सन्देहादपि जातेति । यतस्तत्र प्रामाण्यानिश्चयस्य तद्विषयसंशयापगम एव प्रयोजनं सुप्रतीतमिति किं प्रयोजनान्तरनिरूपणप्रयासेन । ननु प्रामाण्यगोचरसंशयापगमस्यापि किं प्रयोजनमिति चेत् । स्थाने प्रश्नः, किन्तु संशयापगमस्याभ्यासलक्षणमेव प्रयोजनं किं न परामृशसि । बदा खेकदाऽर्थक्रियाज्ञानात्प्रामाण्यं २५
१ 'ज्ञान' इति नास्ति भः पुस्तके !
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. १ सू. २१
निश्चितं भवति । तदा सुखेनैवान्यदाभ्यासात्स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयपूर्विका प्रवृत्तिः सिद्धयति प्रतिपत्तृणामिति । एतेन निश्चितप्रामाण्यात्पर्वत्तकज्ञानात्प्रवृत्तावित्यादिना यच्चक्रकमकीर्ति । तदपि परास्तम् | यदि ह्यर्थक्रियाज्ञानादेकान्तेन प्रवर्तकज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्वये ५ सति प्रवृत्तिः प्रतिज्ञायेत । तदा स्याच्चक्रकदूषणावतारः । ननु प्रामाण्यसन्देहादपि प्रवर्त्तमानः कथं प्रेक्षावान् स्यादिति चेत्, न कथंचिदिति ब्रूमः । सन्देहात्प्रवर्त्तमानस्याप्रेक्षावत्त्वं कक्षीक्रियत एव । न खलु जात्याकश्चित्प्रेक्षावान्नाम समस्ति तदितरो वा । प्रेक्षावरणक्षयोपशमविशेषस्य हि सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामसम्भवात् क्वचित्कदाचित्कश्चिदेव १० प्रेक्षावान् व्यवह्नियतेऽन्यत्र प्रक्षीणाशेषावरणादशेषवेदिनः । एकदा हि कश्चित्प्रेक्षावरणक्षयोपशयविशेषादवाप्तप्रेक्षावद्व्यपदेश: सुनिश्चितप्रामाप्यात् प्रमाणात् क्वचित्प्रवर्त्तते सोऽप्यन्यदा तथाविधक्षयोपशमानवास्था समासादिताप्रेक्षावव्यपदेश: संशयादेरपि क्वचित्प्रवर्तत इति न कश्चित्प्रतिनियतः प्रेक्षापूर्वकारी तदितरो वा । तथा चोक्तम् || " प्रेक्षावता १५ पुनर्ज्ञेया कदाचित्कस्यचित् क्वचित् । अप्रेक्षाकारिताप्येवमन्यत्राशेवेदिनः ॥ १ ॥ " इति ।
२५४
न च सन्देहात्प्रवृत्तिस्वीकारे प्रमाणमनोरथो व्यर्थः । प्रेक्षावत्प्रवृत्तौ तस्य सोपयोगत्वात् । प्रमाणं हि विना प्रेक्षासंदेहात्प्रवृत्तावपि प्रामाण्यशतैः सोपयोगत्वम् । वन्तः कथं कथं कचित्कदाचित्प्रवर्त्तन्तामिति । यत्रापि कचित्प्रवर्त्तकज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्वये सति प्रवृत्तिस्तत्रापि नार्थक्रियाज्ञानात्तस्य प्रामाण्यनिश्चयो येन चक्रकमवत - रेत् । किं तर्ह्यभ्यासदशायां स्वत एवानभ्यासावस्थायां तु परत एवानुमानादेः प्रमाणात् । तत्राभ्यासदशायां स्नानभोजनादिसाधनगोचरप्रमाणानां स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः सुप्रतीत एव । अनभ्यासदशायां -२५ त्वनुमानादित्थं प्रवर्त्तकज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयः । यथा कश्चिदविदितवह्निस्वरूपः प्रमाता हेमन्ते हिमानीनिपातावबाधाविधुरितशरीरः तिरस्कृतस
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परि. १ सू० २१]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
मस्तशीतावकाशं कमपि साग्निप्रदेशविशेषमुपसर्पन्नन्तराले ज्वलज्ज्वलनाभ्यासे सति तस्योष्णस्पर्शमसाधारणमवधार्य तद्रूपस्पर्शयोरविनाभावं वि भाव्य च कालान्तरे दूरात्पुनः पावकरूपविलोकने सति समानोऽयं रूपप्रतिभासोऽभिमतार्थक्रियासाधन एवंविधरूपप्रतिभासत्वात् पूर्वोत्पन्नैवंविधरूपप्रतिभासवदित्यनुमानात्प्रवर्त्तकस्य साधन निर्भासिज्ञानस्य प्रामाण्यं ५ निश्चित्य प्रवर्त्तत्य इति । कृषीवलादयोऽपि हि अनभ्यस्ते बीजादिगोचरे प्रथमं निहितमधुरनीरावसिक्तसुकुमारमृदि शरावादौ कतिपयशाल्यादिबीजकणगणवपनादिना बीजाबीजे निर्द्धार्य पश्चाद्दष्टसाधर्म्येणानुमानात्परिशिष्टस्य बीजाबीजतया निश्चितस्योपादानाय हानाय च यतन्ते । तदनन्तरं पुनरभ्यस्ते बीजादिगोचरे परिदृष्टसाधर्म्यादिलिङ्ग- १० निरपेक्षा एव निःशङ्कं कीनांशाः केदारेषु बीजावपनाय प्रवर्तन्ते । यत्तु कथं चार्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्चय इत्यादिनाऽर्थक्रियाज्ञानलक्षणसंवादकज्ञानपक्षेऽनवस्थाऽन्योन्याश्रयदूषणमभाणि । तदप्युक्तिमात्रम् । अभ्यासदशायां संवादकस्य स्वत एवानभ्यासदशायां तु संवादकान्तरादेव प्रामाण्यप्रसिद्धेः । न च संवादकान्तरापेक्षायामनवस्था । संवा- १५ दकान्तरैरनभ्यासदशापन्नैरेव भवितव्यमिति नियमाभावात् ।
वा
स्वत एव प्रामाण्यज्ञप्तिरिति
मी स्वत एव प्रमाण्यज्ञप्तिं प्राजिज्ञपयस्तेषामात्मनिबन्धना वा आत्मीयनिबन्धना प्रामाण्यज्ञप्तिरभिप्रेता ऐकान्तिकमस्य भवेत् । स्वशब्देऽत्रार्थद्वयस्यैव सम्भावनाभूमिखण्डनम् । त्वात् । नाद्यः पक्षः श्रेयान् । बुद्धेरस्वसंविदि- २० तत्वेन तद्धर्मस्य प्रामाण्यस्याप्यस्वसंविदितत्वात् । अथ द्वितीयपक्षाङ्गीकारेण येनैव प्रमाणेन प्रमाणत्वसम्मतं ज्ञानं निश्चीयते तेनैव तदाश्रितं प्रामाण्यम पीत्युच्यते । ननु किं प्रमाणं प्रमाणत्वसम्भतज्ञानस्य निश्चायकमिति । अर्थापत्तिरिति चेत् । मैवम् । तदुपस्थापकस्यार्थस्याभावात् । अर्थप्राकट्यमर्थापत्त्युपस्थापकोऽर्थोऽस्तीति चेत् । तत्किं यथार्थ१ कीनाशा: - कृषीवलाः ।
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२५५
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२५६
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. १ सू. २१ स्वाविशेषणविशिष्टं निर्विशेषणं वा । आद्यपक्षे तस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणं प्रथमप्रमाणादन्यस्माद्वा । प्रथमपक्षे परस्पराश्रयप्रसङ्गः । निश्चितप्रामाण्याद्धि प्रथमप्रमागाद्यथार्थत्वविशिष्टार्थप्राकटयग्रहणं तस्माच्च प्रथमप्रमाणप्रामाण्यनिश्चय इति । द्वितीयविकल्पे वनवस्था । अन्यस्मिन्न पि हि प्रमाणे प्रामाण्यनिश्चायकार्थापत्त्युपस्थापकस्यार्थप्राकट्यस्य यथार्थत्वविशेषग्रहणमन्यस्मात्प्रमाणादितिानिर्विशेषणं चेदर्थप्राकट्यमर्थापत्त्युपस्थापकम् । तीप्रमाणेऽपि प्रामाण्यनिश्चायकार्थापत्त्युपस्थापनापत्तिः अर्थप्राकट्यमात्रस्य तत्रापि सद्भावात् । ततो न स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः ॥
तदित्थं ज्ञप्तिमाश्रित्यानभ्यस्ते विषये स्फुटम् ।
प्रामाण्यं परतः सिद्धमभ्यस्ते स्वत एव तु ।। २५९ ॥ कारणानि स्वकार्याणि यथाकथंचित्कुर्वन्ति सन्ति स्वतो वा कुर्युः परतो वेति विचारस्य चतुरैरनाश्रयणान्नेह प्रामाण्यस्य कार्ये परिच्छेदम्। यथार्थे स्वतः परतो वा प्रवृत्तिरिति निरूप्यते । न खलु पिण्डः कुम्भं स्वतः परतो वा कुर्यादित्यायः कश्चित् पालोचयति । ततश्च-- प्रामाण्यं स्वत एव नित्यमपरं तस्मात्परस्मादिति .
प्राक्तं यत्किल युक्तितस्तदधुना नीतं कथाशेषताम् ।। एवं चाप्रतिपक्षमत्र जयति प्रौढिं परामाश्रित
स्याद्वादत्रिदशगुमामरगिरिजनेश्वरं शासनम् ॥ २६० ॥ पूर्वाचार्थपरम्परापरिचितग्रन्थानुसारादिदं __ सभ्यैरप्यनुभूयमानमनिशं दोरैदत्तास्पदम् ।। मानानामुदितं स्वरूपमिह तोनाखिलोऽपि क्षितौ
__ लोकस्य व्यवहार एव घटते निःशक्षितः संततम् ॥२६१॥ - १ 'परिच्छेदः' इति प. म. पुस्तकयोः पाठः। २ 'आचार्यः' इति भ म. पुस्तकयोः पाठः । ३ 'वा' इति भ पुस्तके पाटः ।
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परि. १ स. २१] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
३५७ विश्वारामाभिरामः सुचरितकुसुमच्छन्नशाखप्रशाखः
केषाञ्चित्प्राणभाजां सरणिमनुसरनेत्रयोः पुण्ययोगात् ।। स्निग्धच्छायाकलापः कुशलशतमणीमञ्जरीजालमञ्जु
र्जीयात्सेव्यः सुराणां जगति सुरतरुःसुव्रतः श्रीजिनेन्द्रः॥२६२॥ सम्प्राप्ताः स्मृतिगोचरं सुमनसामद्यापि येषां गुणाः
सर्वाङ्गीणमपि क्षणेन पुलकालङ्कारमातन्वते ।। येऽस्मिञ्जङ्गमधर्ममूर्त्तय इव क्षोणीतले रेजिरे
श्रीमन्तो मुनिचन्द्रसूरिगुरवस्ते सन्तु विघ्नापहाः ॥ २६३ ।। किं दुष्करं भवतु तत्र मम प्रबन्धे
यत्रातिनिर्मलमतिः सतताभियुक्तः ॥ भद्रेश्वरः प्रवरयुक्तिसुधाप्रवाहो
_रत्नप्रभश्च भजते सहकारिभावम् ॥ २६४ ॥ २१ ॥ इति सकलतार्किकवैयाकरणसैद्धान्तिकसहृदयकविचक्रचक्रवर्तिचारिअचूडामणिसुगृहीतनामधेयश्वेताम्बराधिपश्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिचरणसरसीरुहोपजीविना श्रीदेवाचार्येण विरचिते स्याद्वादरत्नाकरे प्रमाणनयत- १५ वालोकालङ्कारे प्रमाणस्वरूपनिर्णयो नाम प्रथमः परिच्छेदः।। १ ।।
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शुद्धिपत्रकम्
७
हात
नीलपी
.
.
तथा
इतात्य र्दशन
.
१०१
अशुद्धम् शुद्धम् पृ. पं. अशुद्धम् शुद्धम् श्रेयसीति श्रेयसीति । ५ १२ कापिल: कापिलाः
इति ६ २१ | खाद स्वाद पटली निर्व पटलीनिर्व
नीलपीव्यावस्था व्यवस्था
माव
मवा नयन नय
वार्द्धि नि वार्द्धिनि वा। चा
सन्धानो संदधानो साक्ष साक्षा
तद्रुक्तम् तदुक्तम् प्रधानञ्च प्रधानश्च । १० निरुप्य निरूप्य पूर्वाचायः पूर्वाचार्य:- ११ प्रसक्तेः प्रसक्तेः। विस्मृश्य
विमृश्य १५ तात्म्ये तादात्म्ये दित्येन दित्यनेन
श्रुत श्रूयेत न्यस्यरे न्यस्येर
सषुप्ता सुषुप्ता इत्य
तदा दर्शन
तत्त्वं ।
तत्त्वं कल्पन कल्पना- २३
प्रतिद्य प्रतिपद्य सदैत्य सदैन्य
। यर्य र्यय
१०२ १४ बद्धं
१९ । रिता रीता शायिनेधनं शायि निधनं २८ विलि वलि ५१ १४
सपृक्त संपृक्त १०४ रुस्वितः ऋत्विजः २९ | पुरस्थितं पुरःस्थितं १० त्यादि त्यादि
| संवदे
१०७ सम्मावि सम्भवि ४० | विहित्ति पद विहितिपद १० मुखेग मुखेन ४३ भदो अत्र भेदोऽत्र १०९ चेद ननु न चेत् । ननु न...
महा
माहा ११. १६ तावत्संयोगः । तावत्संयोगः ।'' चारी चारि नैवधर्म नैव धर्म ५५ रणेऽपि रणे अपि ११२ १९ प्रेक्षया पेक्षया ५७ भात्र
मात्र मन्बर डम्बर
नाभ
नाम ११४ र्थस्यवा थस्य वा
नाद्य
नाद्यः सामग्रीप्र सामग्री प्र
हास्ये
हारस्ये हार ___ हार- ६३ १६ वैष्यभ्य । वैषम्य ११४ नयां नाया ६५ १५ पेन
११५ सकल
शकल (११५ सामा साम ६८ ७
1१२१ द्यनु
। अन्यत्व अन्यत्त्व त्सद्धौ त्सिद्वौ ६९ ९ रजन रजत
.
२०
संवेद
१४:22
पेण
همه ش م ه ه
नुद्य
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पीदं।
थित
च्छिनम्
येत
कैमिदा
मिति ।
पाश
70 /
| धर्मी
अशुद्धम् शुद्धम् पृ. पं. | अशुद्धम् शुद्धम् का यां कायां , २५ / राहित रहित १८१ पत्तेः पत्तः ।
८ | पतृ
पत्त! १८२ कार्थे कार्य
सन्विन्मा संविन्मा १८३ पीद ११६ ११ के किना
के किना प्रता पता
मुधाभ्रमी मुधाभ्रमी १८७ यनीव यनी वृ ११८
य इह १९१ कि नि किंनि १११ क्त्यामुहिमन् युक्त्यामुष्मिन १९४ तया तायां ११९ १४ मानमदर्शितम् मानं दर्शितम् १९४ २४ मय यम ११९. २ द्धटा
द्धटा र्थिय १२३
च्छिन्नम् । २०१ माव भवा
तुम ख्या तख्या १२५ योगः योगः । यते
तज
त्वन २०६ कोमुदी
मिति वाद
बादः १२७ वात्यादी वीत्यादि लौकि लौकिक
| द्वैतरू स्थाः स्या
धर्मी
११० शंभ्यवसाया थाध्यवसाया १४७
ज्ञानं
ज्ञातं च्छवा १५३ १, परेदा
परेषा प्राय प्रायः
यार्थों ज्ञानार्थ या ज्ञानार्था२१ च्छिनार्थ च्छिमार्थ
भूयते कत्वम कल्पो
२२२
नात्र लम्भो
१५५ १५ नानलम्भो ११५६ पृष्टान्त
दृष्टा त एकस्वैव एकस्यैव
१५८ शरी
शरीर षक्षे
कयोः मुनी मूनी२६ । वेद
२२४ प्रामातु प्रमातु
स्यादि स्यापि २३० कुरुता कुरुता १६४ १५ | बाधा बाध २३५३ एव
स्तम्बरेम स्तम्बरम २२६ १९ प्रकश . प्रकाश
" २१ | अस्था अथा २३० १२ यथने यद्यनेन १६७ १०। अथो अथा धदे दधे
योग
योग २३९ २ पजा १.१ ९ । न च तेषां" "न च तेषां २३९ २४ विभिन्न विभिन्न १७४ १६-१७ ! त्वान त्वप्रा २४० ऽस्ति ऽस्ति । १७१ २ नवे
न वे
44 YAA%af%AAAAA६ ३.३ % 3 4 AM
१५४ ११ । मयते"
कमु
२२३
४
पक्ष
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२३ । कयो
घेद्य
एवं
पाज
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________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???