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महाकवि स्वयम्भूदेव विरचित पउमचरिउ
(भाग-३)
मूल-सम्पादक म. एच. सी. मायाणी
एम. ए. पी-एच. डी.
अनुवाद स. देवेन्द्रकुमार जैन
एम. ए., पी-एच.डी.
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
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मृतिदेवी प्रस्थमाला अपभ्रंश मन्यांक
| पचमचरिउ, माग-३ (अपभ्रंश काव्य)
प्रथम संस्करण: 1958 द्वितीय संस्करण: 1989
मुल सम्पादक : डॉ. एच. सी. मायाणी अनुवादक : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
मूल्य : 22/प्रकाश भारतीय ज्ञानपीठ, १८, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोग, नयी दिल्ली-११०००३
मुद्रमा सकुन प्रिंटर्स पंचशील गार्डन, नबीन शाहदरा, दिल्ली-११००३२ .
भारतीयामपीठ
PAUMA-CHARIU (PART-III) of Svayambhudeva Text edited by Dr. H.C. Bhayani and translated by Dr. Devendra Kumar Jain. Published by Bharatiya Jnanpith, 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi110003. Printed at Shakun Printers, Naveen Shahdara, Delhi-110032 Second Edition: 1989
Price: Rs. 22/
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प्रकाशकीय
भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य और इतिहास का समुचित मूल्यांकन तभी सम्भव है जब संस्कृत के साथ ही प्राकृत, पालि और अपभ्रंग के चिरागत सूरि प्रसार वाग का भी नारगोशालन मी , यह भी आवश्यक है कि ज्ञान-विज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसंधान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण होता रहे । भारतीय ज्ञानपीठ का उद्देश्य भी यही है।
इस उद्देश्य की आंशिक पूर्ति ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत संस्कृत, प्राकृत, पालि, आपन स, तमिल, कन्नड़, हिन्दी और अंग्रेजी में, विविध विधाओं में अब तक प्रकागित १५० से अधिक ग्रन्थों से हुई है। वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादन, अनुवाद, समीक्षा, समालोचनात्मक प्रस्तावना, सम्पुरका परिशिष्ट, आकर्षक प्रस्तुति और शुद्ध मुद्रण इन ग्रन्थों की विशेषता है। विद्वज्जगत् और जन-साधारण में इनका अच्छा स्वागत हुआ है। यही कारण है कि इस ग्रन्थमाला में अनेक ग्रन्थों के अब तक कई-कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
अपनशा मध्यकाल में एक अत्यन्त सक्षम एवं सशक्त भापा रही है । उस काल की यह जनभाषा भी रही और साहित्यिक भाषा भी। उस समय इसके माध्यम से न केवल चरितकाच्य, अपितु भारतीय वाङ्मय को प्रायः सभी विधाओं में प्रचुर मात्रा में लेखन हुभा है। आधुनिक भारतीय भाषाओं-हिन्दी, गुजराती, मराठी, पंजाबी, असमी, बांग्ला बादि की इसे
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यदि जननी कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इसके अध्ययन मनन के बिना हिन्दी, गुजराती आदि आज की इन भाषाओं का विकासक्रम भलीभांति नहीं सममा जा सकता है। इस क्षेत्र में शोध-खोज कर रहे विद्वानों का कहना है कि उत्तर भारत के प्रायः सभी राज्यों में, राजकीय एवं सार्वजनिक ग्रन्थागारों में, अपभ्रंश की कई-कई सो हस्तलिखित पाण्डुलिपियों जगह'जगह सुरक्षित हैं जिन्हें प्रकास जान, यसश्यक । बात है कि इधर पिछले कुछेक वर्षों से विद्वानों का ध्यान इस ओर गया है। उनके सत्यस्नों के फलस्वहा अपभ्रंप की कई महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाण में भी आई हैं । भारतीय ज्ञानपीठ का भी इस क्षेत्र में अपना विशेष योगदान. रहा है। मूर्तिदेवी अन्यमाला के अन्तर्गत ज्ञानपीठ अब तक अपनं पा की लगभग २५ कृतियां विभिन्न अधिकृत विद्वानों के महयोग से सुसम्पादित रूप में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित कर चुका है। प्रस्तुत कृति 'मपरिउ' उनमें से एक है।' ____ मर्यादापुरुषोत्तम राम के चरित्र से सम्बद्ध पउमरिउ के मूल-पाठ के सम्पादक हैं डॉ० एच. सी. भायाणी, जिन्हें इस ग्रन्थ को प्रकाग में लाने का श्रेप तो है ही, साथ ही अपभ्रंश की व्यापक सेवा का भी श्रेय प्राप्त है। पांच भागों में निबद्ध इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादक रहे हैं : देवेन्द्र कुमार जैन। जन्होंने इस भाग के संस्करण का संशोधन भी स्वयं कर दिया था । फिर भी विद्वानों के सुझाव सादर आमन्वित हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ के पथ-प्रदर्शक ऐसे शुभ कामों में, आशातीत धनराशि अपेक्षित होने पर भी, सदा ही तत्परता दिवाते रहे हैं । उनकी तत्परता को कार्य रूप में परिण करते हैं हमारे सभी महकर्मी । इन सबका आभार मानना अपना ही आभार मानना जैसा होगा। ,
श्रुतपंचमी, ८ जून, १९८६
गोकुल प्रसाद न
उपनिवेशक • भारतीय ज्ञानपीठ
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विषय-सूची
२
भाग ३ संतालीसवी सन्धि सुग्रीवकी प्रतिज्ञा युद्धके विनाशका चित्रण जिनकी स्तुति सुग्रीवकी चिन्ता
सेनाको सीता खोजनेका आदेश ३१ सुग्रीवकी विराधितसे मेंट विद्याधर मुकेशिसे भेंट ३३ असली और नकली सुग्रीवमें युद्ध ६ सीताका समाचार मालूम होनेपर । रामका आश्वासन ११ रामकी प्रसन्नता
३५ किकिंघा नगरका वर्णन १३ सुग्रीवका रामसे विवाद प्रस्ताव ३७ कपटी सुग्रीव के पास रामका दूत रामका उत्तर भेजना
१५ . सुग्रीवका तर्क और संदेह ३६ युद्धका श्रीगणेश
२५ रामको सुग्रीवका दाइस देना ४१ सुग्रीवोंका इन्द-युद्ध १६ जिनकी वंदना समका हस्तक्षेप और धनुष
पैंतालीसवीं सन्धि चढ़ाना
२१ सुग्रीवका संदेह नकली सुग्रीवकी पराजय २३ रामके दूतका श्रीनगर जाना ४७ विजयी सुग्रीवका अपने नगरमें श्रीनगरका वर्णन प्रवेश
२३ हनुमानकी दूतसे वार्ता ४६ बउवालीसवी सन्धि मंत्रियोंका हनुमानको समझाना ५१ लक्ष्मणका सुग्रीव के पास जाना २५ हनुमानका प्रकोप और शांति ५३ प्रतिहारका निवेदन २७ लक्ष्मीमुक्ति दूतका उसे समझाना५३ सुग्रीवका पश्चात्ताप २६ हनुमानका प्रस्थान
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पर विधि नगरकी सजावट ५७ द्वारपालोंसे भिड़न्त हनुमानका नगर प्रवेश ५६ लंका सुन्दरीसे युद्ध राम द्वारा हनुमानका सम्मान ५६ एक दूसरेको प्रेमोदय हनुमानका लंका के लिए प्रस्थान ६३ लंकासुन्दरीसे विवा १०६ छियालीसी सन्धि
उनचासी सन्धि महेन्द्र नगरका वर्णन ६५ इनुमानकी विभीषणसे भेट १११ राजा महेन्द्र से युद्ध ६७ रामादिका उससे संदेश कहना ११३ महेन्द्रराजकी पराजय ७५ विभीषणकी चिन्ता दोनोंको पहचान और परस्पर सीताको खोज
११६ प्रशंसा
७७ सीताका दर्शन और उसकी हनुमानका लंकाकी और प्रस्थान ७६. कृशताका वर्णन ११६
संतालीसवीं सन्धि अंगूठीका गिराना दधिमुख नगरका वर्णन ८१ मन्दोदरीफा सीताको फुसलाना १२५ राजा दधिमुग्न की चिन्ता ५३ सीताका कड़ा उत्तर १२७ उसकी कन्याओंका तपके लिए मन्दोदरीका प्रकोप जाना
हनुमान द्वारा मन-ही-मन
सीता देवीकी सराहना १३१ अङ्गारककी प्रतिज्ञा
७ हनुमानकी मन्दोदरीसे झड़प १३३ वनमें आग
८९७ मन्दोदरीका कुछ होना १३५ हनुमान द्वारा उपसर्गका निवारण
पचासवीं सन्धि दधिमुखसें हनुनानको भेंट ६१
हनुमानका सीतासे समकी अड़तालीसवीं सन्धि
कुशलता और संदेश कहना १३७ इनुमान और आशाली विद्यामें सोता द्वारा हनुमानकी परीक्षा १३६ संघर्ष ६३ हनुमानका उत्तर
१४१
१२३
उपसर्ग
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१७
. विषय-सूची प्रभात वर्णन
१४३ अपशकुन त्रिजटाका सपना १४७ हनुमानसे टकर सपने के भिन्न-भिन्न अभिप्राय १४७ दोनों में विद्या युद्ध १८३ लंकासुन्दरीका हनुमानकी
तिरपनवीं सन्धि खोज कराना
१४६ सीता देवीका भोजन १५१
विभीषणका रावणको समझाना -RE हनुमानका सीताको ले चलनेका
मेघनाटका विरोध १६१
मेघनाद और हनुमानमें संघर्ष १६३ प्रस्ताव
१५१ सीता देवीका रामके प्रति
घमासान युद्ध विद्यायुद्ध
१६९ संदेशा
इन्द्रजीतका युद्ध में प्रवेश २०१ इक्यावनवीं सन्धि
हनुमानका बन्दी होना २०३ हनुमान द्वारा उत्पात उद्यानोंको भग्न करना
चउधनवी सन्धि दंष्ट्रावलिकी हार
सीतादेवीकी चिन्ता २०७ कृतान्तवक्त्रसे युद्ध १६३ हनुमान और रावणमें वार्ता २०७ रावणको उद्यानके नष्ट होनेकी शरह अनुप्रेक्षाओंका वर्णन २०६ सूचना
१६५
एचपनों सन्धि मंदोदरीको चुगली १६७ रावणका हनुमानको पकड़नेका
रावणका मानसिक द्वंद २२३
हनुमानके वधका आदेश २२७ आदेश
राजप्रासादका पतन हनुमानसे सैनिकों की भिड़न्त १६६
हनुमानकी वापसी बावनीं सन्धि
यात्राका विवरण अक्षयकुमारका युद्ध के लिए दधिमुख द्वारा हनुमानको प्रस्थान १७५ प्रशंसा
२३५
२३१
२३३
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पडम-चरित
.
अप्पनी सन्धि अभियानकी तैयारी योधाओंकी साज-सज्जा योधाओकी गर्वोक्ति विद्या,
प्रस्थान २३६
सेतु और समुद्र द्वारा प्रतिरोध २४७ २३६ भिडन्त
२५१ २४३ इंसद्वीपमें पहुँचकर पड़ाव २४५ डालना
२५३
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पउमचरिउ
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कइराय-सयम्भूएव-किउ
पडमचरिउ [४३. तियालीसमो संधि] गृहएं असर किलिम्पुर ग र रिसावरि । सुग्गवहाँ विज-सुग्गीउ रणे तारा-कारणे अभिडिङ ।।
[] परिवक्तु जिणेवि सकियउ । बिद्दाणड माण-कलकियउ ॥६॥ f हियवएँ मूल ससिलपट ! माया-सुग्गी बलियउ ॥२॥ सुग्गीउ भमस्तु घण घणु । संपाइर खर-दूसणई रणु ॥३॥ बलु दिटक सयल सर-जज्जरिउ । तिल मेत खुरुप्पैहि कप्परिउ ॥४॥ कस्थइ सन्दण सय-खण्ड किय । फरथइ तुरा णिज्जीच थिय ॥५॥ कन्यषि लोहाविय हस्थि-हह । कन्या सउणे हि खजन्ति भई ॥६॥ सत्य हिण्णई धय-चिन्धाई । काथइ गन्ति कबधाई ॥७॥ कस्थ रहनुरय-गयासगई । हिपन्ति समरे सुपणासण HI
पत्ता सं तेहउ किकिन्धेसरण भय-भीसावणु दिटु रणु । उम्मेट्रे लपवण-गयवरण विखंसित कमल-वणु।।।
रणु मीसणु जं जें णियच्चियउ । खर-दूसण - परियणु पुन्छियउ ॥३॥ ' 'इमु का महन्तउ बरिउ । वल सयलु केण सर-जजरिड' ॥२॥
तं वयणु भुणे वि दुमिय-मणेण । बुबह खर-दूसण - परियणेण ॥३॥ 'कवि दसरहु तहाँ सुभ बेष्णि जण । वण-वासें पइट विसण्ण मण ॥ सोमिसि को वि चित्तण थिरु । से सम्बुकुमारहों खुद्धिड सिरु ॥५/
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पद्मचरित
तैतालीसवीं सन्धि ठीक इसी अवसरपर किष्किंधपुर में राजा सहस्रगति बनावटी सुग्रीव बनकर असली सुग्रीवपर उसी प्रकार टूट पड़ा जैसे एक हाथी दूसरे हागा दूर पड़ता है।
(१) असली सुपीव अपने प्रतियोगी (नकली सुग्रीव ) को नहीं जीत पाया । अपना मान कलंकित होनेसे वह म्लान हो रहा था । माया सुग्रीवका पराभव उसके हृदयमें काँटे जैसा चुभ रहा था । वनौवन भटकता हुआ वह खर-दूषणके युद्ध में पहुँच गया । उसने बहाँ देखा कि सारी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गई है। वह तीरों
और खुरपोंसे तिल-तिल काटी जा चुकी है। कहीं रोंके सैकड़ों टुकड़े पड़े थे, कहींपर निर्जीव अश्व थे, कहींपर गजघटा लोटपोट हो रही थी, कहींपर पक्षिसमूह योधाओंके शव खा रहे थे, कहींपर ध्वजचिह्न छिन्न-भिन्न पड़े हुए थे, कहींपर धड़ नृत्य कर रहे थे और कहींपर रथ, अश्व और गजोंके आसन शून्यासनको • तरह घूम रहे थे। किष्किंधराज सुग्रीवन जब उस भयभीषण युद्धको देखा तो उसे ऐसा लगा मानो लक्ष्मण रूपी महागजने ( घुसकर ) कमलवनको ही ध्वस्त कर दिया हो ॥५-६।
[२] उस भीषण रणको देखकर उसने खर-दूषणके सगे सम्बन्धियोंसे पूछा, "यह कैसा आश्चर्य, किसने सेनाको इस तरह जर्जर कर दिया ।" यह सुनकर खर-दूषणके एक सम्बन्धीने भारी हृदयसे कहा कि "राम और लक्ष्मण नामक, दशरथके दो पुत्र वनवासके लिए आये हैं । उनमें लक्ष्मण अत्यन्त दृढ़ मनका है और
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पउमचरिड
असि रयणु लहउ तियस? बलिउ । बन्दहिह झोच्चणु दरमलिउ ॥६॥ कूचार गय खर-दूसणहूँ । अजयहुँ अय-लरिछ-विहसणहुँ ॥७॥ अभिट्ट ते वि सहुँ लक्खयोग 1 तेण वि दोहाविय तवणे ॥८॥
घत्ता
केण वि मणे भमरिस-कुद्धऍण हिय गेहिणि बयों राहवहाँ । पाडिउ जहाइ लगन्तु कुठ एसिड कारणु आहबहो' ||६॥
[३] एदिय णिसुणे वि संगाम-गइ । चिन्तावित किलिम्धाहिवाई ॥१॥ 'किर पहसमि गम्पि आहुँ सरणु । किड दइवें तहु मि णकर मरणु ॥२॥ एहरे अवसर को संभरभि 1 किं हणुअहो सरणु पईसमि ॥२ तेण वि रिड जिणे वि | सकियड । पलिउ हउँ णिरस्धु कियउ ॥४॥ किं भवभत्थिमई दवयणु । णं गं तिय-लम्पहु लुन्द्र-मणु ॥५॥ अम्हई विणिवाऍवि वे वि जण ! सहुँ रज्जे अप्पुणु लेइ धण ॥६॥ खर - दूसप्प - देह • विमाणहुँ । वह सरणु जामि रहु-गन्दगहुँ ॥७॥ चिन्तेविणु विक्किावाहित्रण ! हकारिउ मेहणाउ णित्रण ॥६॥ "ते गम्पि विराहिउ एम भणु । दुरचइ सुगीउ आउ सर । पिय-बयहिं दृड विसज्जियउ । गड मच्छर-माण-विधज्जियउ ॥१०॥ पापाल-ला-पुरै पहसर वि । तें वत्त विराहिड मोहरेवि 1980
पत्ता 'सुर्गाउ सुतारा-कारर्गेण विडसुग्गीवें घश्चियउ । किं पाइसरहु कि म पइसरउ तुम्हहें सरशु समझियड' ॥१२॥
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तियालीसमो संधि
उसने शम्बुककुमारका सिर काट डाला है और बलपूर्वक उसने देवोंका सूर्यहास खड्ग छीन लिया है। उसीने चन्द्रनखाका यौवन दलित किया है जिससे रोती-विसूरती हुई वह, जय-सक्ष्मी से विभूषित खर और दूपण के पास आयी। तब वे दोनों आकर लक्ष्मण से भिड़ गए। परन्तु उसने तत्काल इनके दो टुकड़े कर दिये । इतने में अमर्षसे भरकर किसीने राम की परनी सीता देवी का अपहरण कर लिया और पीछा करते हुए जटायु को मार गिराया। युद्ध का यही कारण है। ।।१-६॥ _ [३] युद्धकी यह हालत सुनकर मुग्रीव इस चिन्तामें पड़ गया कि क्या मैं उनकी (राम-लक्ष्मण को) शरण में चला जाऊँ। हाय विधाता ! तुने केवल मुझे मौत नहीं दी। इस अवसर पर मैं किसे स्मरण करूं ? क्या हनुमानकी शरणमें जाऊँ ? परन्तु वह भी शत्रुको नहीं जीत सकता । उल्टा मैं निरस्त्र कर दिया जाऊँगा। क्या रावण से अभ्यर्थना कह ? नहीं नहीं। वह मनका लोभी और स्त्री का लंपट है । वह हम दोनों (असली और नकली) को मारकर राज्यसहित स्त्रीको भी ग्रहण कर लेगा। अतः खर-दूषण का मान-मर्दन करनेवान्ने राम और लक्ष्मण की शरण में जाना ही ठीक है। यह सब सोच-विचार वार किष्किन्धापुरनरेश सुग्रीवने मेघनाद दूतको पुकारा, और यह कहा, "जाकर विराधितसे काही कि सुग्रीव शरणमें आ गया है। इस प्रकार प्रिय वचनोंसे उसने दूतको विसजित किया। वह दूत भी मान और मत्सर से रहित होकर गया । पाताल-लंका नगर में प्रवेश कर, उसने अभिवादन के साथ, विराधितसे पूछा, "सुतारा को लेकर मायासुग्रीव से पराजिल असली सुग्रीव आपकी शरण में आया है । उसे प्रवेश दूं या नहीं ?" ॥१-१२॥
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বান্ধবিত্ত
[४] तं णिसुणवि हरिस-पसाहिएण । 'पइसरउ' पबत घिराहिएण ॥॥ 'हउँ धण्णउ जसु किक्किन्धराउ । अहिमाणु मुएप्पिणु पासु आउ ॥२॥ संमाणिउ गउ पल्लट् टु दूउ । पइसारिउ पहु आणन्दु हुउ ।।३।। तं नूरहूँ सदु सुगेवि तेण । सो वुत्त विशहिउ राहवेण ॥४|| 'सहुँ साहणेण कष्टइय-देहु । आवन्त: दोसई कवणु पहु' ।।५।। तं विवि कपमाम द मुना नदीयर-णन्दोण ॥६॥ 'सुग्गीब-वालि इय भाइ वे वि । बडारउ गड पचत्र लेवि ॥७॥ मुहु बि जिणेवि केण वि खलेगा । वण वासही घलिउ भुष-वलेण ॥८॥
घत्ता
वर-वाणर-घउ सूररय-सुड तारा-वल्लहु विउलमइ । जो सुब्बइ कहि मि कहाणए हिऍहु सो किछिन्धाहिवह ॥३॥
[५]
स-विराहिय लक्षण-रामएव । वोल्लम्ति परोप्पर जाव एव ॥३॥ तिणि मि सुग्गीवें दिE केम । आगमण तिलोभ तिवाय जेम ॥२॥ बउ दिस-गय एकहि मिलिय णाई। वासारिय परवइ जम्बवाह ॥३॥ संमाणे वि पुरिक्षय लक्खणेण ! 'तुम्ह हैं अवहरिउ कल सु केज' १। तं वयणु सुर्णे वि सन्चहुँ महन्तु । णमियाणणु पभणइ अम्बवन्तु ||५|| 'वण-कील गड सुग्गीउ जाम । घिउ पइस वि विहसुग्गीउ ताम ॥६॥ योवन्तर वालि-कणि टु आउ । सामन्त - मन्ति - मण्डल-सहाउ ।।७।। पउजाणिउ विहि मि कवणु राउ । मग विम्भउ सवहाँ जणहाँ जाउ ||
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तियालीसमो संधि [४] यह सुनकर विराघितने हर्षपूर्वक कहा, "भीतर ले आओ। सचमुच मैं धन्य हुआ कि जो किष्किंधानरेश, स्वयं अभिमान छोड़कर मेरी शरणमें आये |" तब सम्मानित होकर दूत वापस गया और आनन्दके साथ अपने स्वामीको लेकर फिर आया । इतनेमें तूर्य-ध्वनि मुनकर राघबने विराधितसे पूछा, "सेना लेकर यह कौन रोमांचित होकर आता हुआ दीख पड़ रहा है।" यह सुनकर, नेत्रांनददायक चन्द्रोदर पुत्र विराधितने कहा, कि सुप्रीव और बालि ये दो भाई-भाई हैं। उनमेंसे बड़ा भाई संन्यास लेकर चला गया है। और इसको किसी दुष्टने पराजय देकर वनवासमें डाल दिया है । यह, सररवका पुत्र, बिमळमति ताराका स्वामा और वानरध्वजी, वही सुप्रीव है जिसका नाम कथा-कहानियों में सुना जाता है ।।१-६॥
[५] इस प्रकार राम-लक्ष्मण और विराधित, बातें हो ही रही थीं कि इतनेमें उन्होंने सुग्रीवको वैसे ही देखा जैसे आगम त्रिलोक और त्रिकाल को देखते हैं । आते हुए वे ऐसे लगे मानो चारों दिग्गज एक साथ मिल गये हो । जाम्बवन्सने उन्हें बैठाया। तदनन्तर आदर पूर्वक लक्ष्मणने सुग्रीवसे पूछा कि तुम्हारी पत्नी का अपहरण किसने किया । यह सुनकर जाम्बवन्त अपना माथा मुकाकर सारा वृत्तान्त सुनाने लगा । ( उसने कहा कि जब सुपीव वनक्रीड़ा करने के लिए गया था तो माया सुपीव उसके घरमें घुस. कर बैठ गया | बालिका अनुज सुग्रीव जब अपने मन्त्रियोंके साथ घर लौटा तो कोई भी यह पहचान नहीं कर सका कि उन दोनोंमें असली राजा कौन है । सबके मनमें आश्चय हो रहा था । इतने में कुतूहलजनक दो सुग्रीव देखकर, असली सुमीवकी सेना हर्षसे
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पउमचरित
घसा
मुग्गीव-जुअलु कोडावणउ पेक्स वि रहस-समुच्छलिउ । चालु अद्धउ सुगावहाँ त मायासुग्गीयहाँ मिलिउ ॥६॥
[६] एत्त वि स अक्खोदणीक । एसह वि सस अक्खोहीड || 30 थि3 साहणु भोवद्धि होधि । अगमप विडिय सुख घे वि ॥२॥ माथासुग्गीयहाँ मिलिउ अछु । भान्ट सुग्गीवहीं रण अभाः ।।३।। विहि सिमिरहि वे वि सहन्ति भाइ । णिसि-दिवसेंहि चन्दाइम गाई || एप्तहें वि जी निफुरिय-नगाणु । सुट वालि जामें सकिरण ॥५।। घिउ तारहें रक्खणु अभउ देवि । “जाइ हुकहो तो महु मरहीं वे वि ।।६।। जुज्झन्तु जिणेसइ जो जि अनु । तहाँ सयालु स- तारउ देमि रज्जु" ।७। विहि एक्कु नि उ पइसारु लहइ । पल-णालहुँ पुणु सुग्गीउ कहह ।। "सरचत आहाणउ' गहु आउ । परयारिउ जि घर-सामि जाउ" |||| असहस्त परोप्परु झुक्क वे वि 1 णिय-णिय-करवालई करें हिं लेवि ॥१०॥
घता किर जाम भिन्ति भिडन्ति ण वि तात्र णिवारिय वारणे हि । मुफस मत्त गहन्द जिह श्रोसारिय करणार हि ॥१५॥
भोसारिय जं पुरषर-जगेण । थिय णयरहों उत्तर-दाहिणेण ॥३॥ अण्णेक-दिया जुज्झन्ति जाम । पवणाय-णन्दणु कुविउ ताम ।।२।। "मरु मरु सुग्गीवहाँ मलिउ माणु" । सण्णद्ध सुहा-साइण-समाणु ॥३।। "हणु हणु भणन्तु हणुवन्तु पत्तु । पभणइ पिरु रहसुध्छलिय-मत्त ||१|| "सुग्गीच माम मा मणे मुसु । विंड-भवहीं पीवउ देहि जुम् ।।५11
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तिपालीसमो संधि
उछलती हई (दो भागों में विभक्त हो गई।) आधी असली सुग्रीव के पास रही और आधी नकली सुग्रीव से जा मिली ।। १.६ ॥
[६] सात अक्षौहिणी सेना इधर थी और सात ही उधर । इस प्रकार वह आधी-आधी बट गई । अंग और अंगद दोनों वीर विघटित हो गये। अंग मायासुग्रीव को मिला और अभंग अंगद असली सुग्रीव को । दोनों शिविरों में वे दोनों भाई वैसे ही सोह रहे थे जैसे रात और दिन में चन्द्र और सूर्य सोहते हैं। बालि के पुत्र वीर चन्द्र-किरणका चेहरा भी (क्रोध से) तमतमा उठा । वह अभय देकर तारा देवी को रक्षा करने लगा। उसने कहा-"यदि तुम इसके पास आये तो मारे जाओगे। युद्धरत तुम में से जो जीतेगा उसे मैं तारादेवी सहित समस्त राज्य अपित कर दंगा।" परन्तु उन दोनों में से एक भी युद्ध में प्रवेश नहीं पा रहा था। इतने में सुग्री बने नल और नीलसे कहा कि यह तो वहीं कहानी सच होना चाहती है कि कोई (दूसरा ही) परस्त्री लम्पट गृह-स्वामी होना चाहता है । एक दुसरे को सहन न करते हुए वे लोग अपनीअपनी तलवार लेकर एक-दूसरे के निकट पहुँचे। वे आपस में लड़नेवाले ही थे कि द्वाररक्षकोंने उन्हें उसी प्रकार हटा दिया जिस तरह निरंकुश उन्मत्त गजोंको महावत हटा देते हैं ।। १-६॥
[७] इस प्रकार नगरके लोगों के हटा देनेपर वे दोनों नगर के उत्तर-दक्षिणमें स्थित होकर लड़ने लगे। जब लड़ते-लड़ते बहुत दिन व्यतीत हो गये तो हनुमान सहसा कुपित हो उठा ! 'मरमर' "(बनावटी) सुग्रीव का मानमर्दन हो" यह कहकर वह सुभट सेना के साथ सन्नद्ध हो गया। और "मारो मारो" कहता हुआ वह वहां जा पहुंचा। उसका शरीर वेग और हर्षसे उछल रहा था। उसने कहा-.-"मामा सुग्रीव, अपने मन में खिन्न न होओ। माया
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पढमचरित
31
जण विमामि भुजदण्ड तासु । सभ होमि तु वसु ॥५॥ किष्किन्धराउ | सहाँ उप्पर गहरावन्तु नाउ ॥७॥ कप्टइय- देश | णव पाउलें णं जरू भरिय मेह ||८||
तं वययु सुर्जे वि ते भिडिय वे वि
घत्ता
असि - वाघ - गथ मोग्गरें हिं जिह सकिउ सिंह जी हवन्ते अण्णामेण सिंह अप्पड पर वि न च
[ - ]
जं विहि मि मज्य एक विणणाउ । राउ बले वि पढीच पवणजाउ || १॥ सुग्गी व पाण लपविणद्दु । जं सयगलु केसरि घाय तद्छु ॥२॥ किर पइसइ खर दूसणहँ सरणु । किंउ प्रवर कियन्ते चहु मि मरणु ॥३॥ तर्हि णिसुणिय तुम्हें तणिय चरा । जिह घदह सहसेकों समसा ॥४३॥ सो वरि सुग्गीवहाँ करें परित । वरणाइड रक्खहि परम मित' ॥५॥ जं हरि अम्भस्थित जम्बवेण । सुग्गी वृत्त पुणु राहवेण ||६॥ 'तुहुँ मइँ आस षि भाउ पासु । अक्खहि ह सरणद जामिकासु ||७|| जिह हुँ तिह इउ मि कलप्त रहिउ वर्णे हिण्डमि काम हे गहि ||८||
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घा
सुग्गीवें वह 'देव सुर्णे कुसल वत सय वणिय |
जड़ गाणमि तो ससमऍ दिर्णे पइसम सल हुआसणिय | ३ ||
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॥६॥
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[*]
जं जाणइ केरड लड्ड णामु । तं विरह विसन्धुलु भणइ रामु ॥ १ ॥ 'जड़ आणहि कन्त तणिय वच । तो वयशु महारज णिसुणि मिस ||२||
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तियालीसमो संधि सुप्रीवसे लड़ो। यदि मैं आज उसके भुजदण्डको भग्न न कर दूँ तो मैं अजनादेवीका पुत्र न कहलाऊँ ।" यह सुनकर किष्किन्धराज सुग्रीव गरजता हुआ उसपर दौड़ा । पुलकित होकर वे दोनों ऐसे भिड़ गये मानो नव वर्षाकालमें नव मेघ ही उमड़ पड़े हो । तलवार, चाप, चक्र, गदा, मुद्गर, जिससे भी सम्भव हो सका. वे लड़ने लगे | परन्तु हनुमान भी उनमेंसे असली नकली सुग्रीवकी पहचान नहीं कर सका, जिस प्रकार अज्ञानी जीव स्व-परका विवेक नहीं कर पाता ॥१-६॥
[८] हनुमान जब दोनोंमेंसे एकको भी पहचान नहीं कर सका तो वह भी वापस चला आया। तब असली मुग्रीव भी अपने प्राण लेकर इस प्रकार भागा मानो सिंहकी चपेटसे मदमाता गज ही भागा हो। वहाँसे वह खर-दूपणकी शरणमें गया । किन्तु रामने उन्हें पहले ही सगा दिया था। वहीं पर आन आप लोगोंके विषय में यह खबर सुनी कि अकेले लक्ष्मणन { खर. दृषणके ) अठारह हजार योधाओंको किस प्रकार समान कर दिया। इस लिए अच्छा हो आप ही असली सुग्रीवकी रक्षा करे | ह. परम मित्र ! आप शरणागतकी रक्षा करें ।" इस प्रकार. जाम्बवन्तके प्रार्थना करनेपर राघवने सुग्रीवसे कहा-"मित्र, तुम तो मेरे पास
आ गये, पर मैं किसके पास जाऊँ। जैसे तुम, वैसे मैं भी खीवियोगमें काममहसे गृहोत हूँ। और जङ्गल-जङ्गलमें भटक रहा हूँ 1" इसपर सुप्रीवने कहा- हे देव ! सुनिए, मैं प्रतिज्ञा करना हूँ कि यदि मैं सातवें दिन सीतादेवीका वृत्तान्त लाकर न दं ना चितामें प्रवेश का" ॥१-६॥
[ ] जब उसने जानकाका नाम लिया तो गमन विग्हम व्याकुल होकर कहा, “यदि तुम सौताको वार्ता लाकर दो तो
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पउमचरिड
सत्तमऍ दिवस एतरउ वुग्झु । करें लायमि साराएवि मुज्नु ॥३॥ भुआवमि तं किकिन्ध - जयरु । दक्खमि छत्त • धय-दण्ड-पवरु || अण्णु मिह कैरड हमि स । परिरक्खह जब वि कियम्त-मित्तु ।।५।। वम्भाणु भाणु गङ्गाहिसेट । अहारउ ससहरु राहु केउ ।।६।। बहु विहफइ सुकु रूणिच्छरो वि । जमु वरुणु कुवेरु परन्तरो नि !॥ पत्तिय मिलंधि रक्षन्ति जो वि । जीवन्तु ण छुष्टइ वहरि तो वि 115)
पत्ता
जइ पहज प पूरमि एत्तडिय जइ करमि समणहूँ दिहि । सत्तम दिवस सुग्गीव महु पत्तिय तो सण्णास-विहि' १६३
[१०] साराउहु पइशारूद्ध जं में। संचालु असेसु पि सिमिरु त ॥३॥ संचलु विराहिड दुणियारु । सुग्गीउ राम लक्षण-कुमार ।।२।। ने चलिय प्यारि वि परम-मित्त । णाचइ कलि-काल- कयम्त-मित्त ॥३॥ णं चलिय चारि विदिस-नाइन्द । णं चलिय धयारि वि खय-समुद्ध ।। पांवलिय चयारि वि सुर-णिकाय । गं चलिय धवल चउविह कसाय ||५|| णं लिय चयारि विश्वि-वेय । उपदाण-दण्ड णं साम - भेय ।।६।। अह वणिरण कि एत्तरेण । णं चलिय चयारि वि अप्परोण ।। श्रीवन्सतरल - तमाल-कृष्णु । जिण-धम्मु जेम साचय-रवष्णु ।।८।।
सुग्गीरामें लक्षणेंग गिरि किन्धुि विहाधियउ । पिहिमिएँ उचाऍवि सिर-कमल मउडणाई दरिसाबियउ ।।।।
[..] थोवन्तरें धण - कण-पउरू । लक्खिन तं किष्किन्धणयह ॥५।। गं गयल नारा - मण्डियउ । णं कच्चु कइय - चड्डिपड ।।२।।
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लियालीसमो संधि
हे मित्र, सुनो! मैं सात दिन तुम्हारी स्त्री तारादेबीको ला दंगा, यह समझ लो । तुम्हें किष्किानगर का भोग कराऊंगा और छत्र तथा सिंहासन दिखाऊँगा। इसके सिवा तुम्हारे शत्रु का नाशकर दंगा । चाहे नर अपने मित्र कतान्त द्वारा श्री रचित यो न हो । ब्रह्मा, सूर्य, ईश्वर, वह्नि, चन्द्रमा, राहु, केतु, बुध, बृहस्पति, गुरु, शनीचर, यम, वरुण, कुबेर और पुरंदर, ये भी मिलकर यदि उसकी रक्षा करें तो भी वह तुम्हारा शत्रु मुझसे जीवित नहीं बचेगा । यदि मैं इतनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं करता और सज्जनों को धीरज नहीं बंधाता तो हे सुग्रीव, विश्वास करो, मैं सातवें दिन संन्यास ले लूंगा॥ १-६|
[१०] प्रतिज्ञा पर आरूढ़ होकर जब श्रीराधन चले, तो उनका अशेष संन्यदल भी चल पड़ा। दुनिवार बिराधित भी चला । सुग्रीव, राम, कुमार, लक्ष्मण ये चारों मित्र ऐसे चले मानी कलि-काल और कृतान्तके मित्र ही चले हों। मानो चारों ही दिग्गज चल पड़े हों या मानो चारों क्षयसमुद्र ही चलित हो उठे हों, या चारों देवनिकाय ही चल पड़े हों, या चारों कषाय ही चलित हो उठे हो । या ब्रह्मा के चारों वेद ही चल पड़े हों या साम, दान, दंड और भेद जा रहे हों। अथवा इतने सब वर्णन से क्या लाभ, वे चारों अपनी ही उपमा बनकर चले । थोड़ी ही दुर चलने पर उन्होंने (सुग्रीव-राम-लक्ष्मण-विराधितने) किष्किय पर्बन देखा । तरलतमाल वृक्षों से आछन्न वह पर्वत, जिनधर्म की तरह सावयों [श्रावक और वृक्षविशेष ] से मुन्दर था, और जो ऐसा लगता था मानो भूमिके उच्च सिर-कमल पर मुकुट रखा हो
[११] थोड़ी दूर पर उन्हें धन-कंचन से भरपूर किठिकधनगर दिम्बाई दिया। वह ऐसा लगता था मानो तारों से मंडित आकाश हो या कपिध्वजों से आगढ़ काव्य हो। मानो हनु (हनुमान या चिबुक) से विभूषित मुखकमन्न हो। मानो नल
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पउमचरित
नं हथुम-विडूसिर मुहकमलु । विहसित समवतु गाई स-गलु ।।३।। णं णीलालहित आहरण । णं कुन्द- पसाहिउ विउल-वणु ॥४॥ सुम्गाव-कन्तु पं हंस - सिरु । णं झाणु मुणिन्दहुँ तणउ पिरु ॥५॥ माया - सुग्गी मोहियड । कुसलेण पाई कामिणि-हियड ॥६।। एस्यन्तरे वद्धिप - फलपलेहि । जम्बव - कुन्देन्दणील - णलेहि ।।०॥ सोमित्ति - विराहिय- राहवेहि । सबहिं णिवत - महाहहि ॥८॥
घसा सुम्गीवहाँ बिटुर समावहिए बहु-संमाण-दाण-महि । चेविजइ तं किष्किन्धपुरु णं रवि-मण्डल व-धणेहि ।।।।
[१२] वेडेप्पिणु पट्टणु णिस्वसेसु । पवविड तूर विड-भवहीं पासु ॥ सुगावें रामें लक्खणेण । सन्वेसड पेसिउ सक्खणेण ॥२॥ 'किं बहुजा कहूँ परमथु तासु । जिम भिड जिम पाण लपविणासु' ॥३॥ तं क्यणु सुरेंवि कापचन्दु । संचालु गाई खयकाल-दग्छ ।।४।। दुभाउ माया - सुम्गीउ बेस्थु । सह-मण्डव दूउ पइस तेस्थु ।।५।। जो पेसिड समें लक्सांग । सन्देसर अक्सिउ तक्खनेण ॥६॥ 'wउ णासह अज्जु वि एउ क । कहाँ सणिय तार कहाँ सणउ रज्जु ॥७॥ पहु पाण लएप्पिणु णासु णासु । जीवन्तु ण छुट्टहि अवसु तासु ॥८॥
पत्ता
सन्देसउ बिस्सुम्गीव सुणे पुणरवि सुग्गीवहाँ तण: । सहुँ सिर-कमलेण तुहारण रज्जु लएन्वउ अपण' ॥३॥
[१३] तं वयशु सुणब अयणुठभण । आर. दुहें विर - भट्टैण ॥१॥ श्राएसु दिण्णु णिय-साइणहाँ। 'विधारहाँ मारहों आहणही ॥२॥
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तियालीस मो संधि
१५.
( नाल या सरोवर ) से सहित कमल हंस रहा हो। मानो नील ( मणि या व्यक्ति विशेष ) से अलंकृत आभरण हो । मानो कुंद ( फूल और व्यक्ति) से प्रसाधित विपुल वन हो । मानो सुग्रीववान् (सुग्रीव या ग्रीवा सहित) सुन्दर हंस हो । मानो मुनीन्द्रों का स्थिर ध्यान हो । वह नगर माया-सुग्रीव के द्वारा उसी प्रकार मोहित हो रहा था जिस प्रकार कुशल व्यक्ति कामिनी के हृदय को मुग्ध कर लेता है । उसी अवसर पर कल-कल करते हुए बड़े-बड़े युद्धों में समर्थ, बहुसम्मान और दान का मन रखनेवाले जाम्बवंत, कुंद, इन्द्र, नील, नल, लक्ष्मण विराधित और रामने सुग्रीव के ऊपर घोर संकट आने पर उस किष्किंधानगरको वैसे ही घेर लिया जैसे नव धन सूर्य मंडल को घेर लेते हैं ।। १-६ ॥
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[१२] समस्त नगर का घेरा डालकर कपटी सुग्रीव के पास दूत भेजते हुए सुग्रीव, राम और लक्ष्मण ने उसी क्षण यह संदेश भेजा, "बहुत कहने से क्या उससे वास्तव बात इस प्रकार कहना कि जिससे वह लड़े और प्राणों सहित नष्ट हो जाय ।" यह वचन सुनकर द्रुत कर्पूरचंद चल पड़ा मानो क्षयकाल का दंड ही जा रहा हो । वहाँ उसने सभामंडप में प्रवेश किया जहाँ दुर्जेय माया-सुग्रीव था। राम-लक्ष्मणने जो सन्देश भेजा था उसे तत्काल सुनाते हुए उसने कहा, "आज भी तुम अपने इस काम को मत बिगाड़ो, नहीं तो कहाँ की तारा और कहाँ का राज्य । अपने प्राणों सहित नाश को प्राप्त हो जाओगे, तुम निश्चय ही जीवित नहीं छूट सकते । हे विसुग्रीव, तुम सुग्रीवका भी संदेश सुनो। उसने कहा है, "तुम्हारे सिर-कमल के साथ मैं अपना राज्य लूंगा" ॥ १-६ ॥
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[१३] यह वचन सुनते ही, उद्भट मुख, दुष्ट, कपटी सुग्रीव ने क्रुद्ध होकर अपनी सेनाको यह आदेश दिया - "फैल जाओ.
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पजमचारिउ
पावहाँ मुण्डावही सिर-कमलु । सहु णासें छिपा भुष-जुभलु ॥३॥ वूनही दूभजणु दक्खयहाँ । पाहुमउ कयन्तहाँ पट्टयहाँ ।।।। पहु मन्तिहि दुक्खु णिवारियड । सुग्गीव-दूउ गउ खारियर ।।५।। एत्तहँ वि गरिन्छ । संटियर । शिष-सन्दण - वी परिष्टियउ ॥६॥ सन्जहं वि स-साहशु णीसरिड । पचक्नु गाई जमु अवयरिउ ॥७॥ पडिवक्स - पक्ख- संस्खोहणिहि । णिमा सतहि भक्खोहमिहि ॥८॥
धत्ता
सुग्गीवहाँ रामहाँ लसणहा विड-सुगाउ गम्पि भिजिउ । हेमन्तहों गिम्भहाँ पाउसहा मं दुकालु समावडिंग ॥६॥
[१]
अभिष्टई वेणि मि साहणाई । जिह मिहुणइ तिहहरिसिय-मणा ॥१॥ जिद्द मिहुणई तिह अणुरसाई । जिह मिडणइ सिंह पर-सलाई ॥२॥ जिह मिहुणइ तिह कलबल-करह। जिह मिहुणह तिह मेखिय-सरई ॥३॥ जिह मिठुणाई सिंह बसिपाहरई । जिह मिहुपई तिह सर-जमाई ॥४॥ जिह मिहुणई तिह अम्झाउरई ॥५॥ जिह मिहुई तिह अचम्भदई । जिह मिडणई तिइ विहाफबई ॥६॥ मिह मिहुणई तिह णिस्वेवियस् । जिह मिहुणई तिह पासेड्या ॥७॥ मिह मिडणइ तिह णिकटियई । णिप्फन्दई जुझन्सई थिय ॥८॥
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तियालासमो संधि
इसको मारो, आहत करो, इस पापीका सिरकमल्ल काट लो, नाक के साथ इसके दोनों हाथ भी काट लो, इस दूतको दूतपन दिखाओ, इसे कृतांतका अतिथि बना दो ।" तत्र बड़ी कठिनाई से मंत्रियोंन, स्वामांका निवारण किया। सुग्रीवका दूत भी खारसे भरकर चला गया । यहाँ भी राजा सुमीव बैठा नहीं रहा और रथकी पीठपर चढ़कर पूरी तैयारीके साथ सेनाको लेकर निकल पड़ा, मानो साक्षात् यम ही आ गया हो, प्रतिपक्ष को चुन्ध करनेबाली सात अक्षौहिणी सेना के साथ उसने प्रयास किया। इस प्रकार कपटी सुग्रीव राम लक्ष्मण और सुग्रीवसे जाकर भिड़ गया मानो दुष्काल ही हेमंत ग्रीष्म और पावसपर टूट पड़ा हो ॥१-३॥
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[ १४ ] दोनों ही सैन्यदल आपस में टकरा गये, वैसे ही जैसे प्रसन्नचित्त मिथुन आपस में भिड़ जाते हैं, वे वैसे ही अनुरक्त ( रक्तरंजित और प्रेमपरिपूर्ण) थे जैसे मिथुन, वैसे हो परितृप्त थे जैसे मिथुन परितृप्त होते हैं। वैसे हो कलकल कर रहे थे जैसे मिथुन कलरव करते हैं, वैसे ही सर ( वाणों ) को छोड़ रहे थे जैसे मिथुन सर ( स्वरों ) को करते हैं। वैसे हो अधरीको काट रहे थे, जैसे मिथुन अधरोंको काटते हैं, वैसे ही सर्गे (बाणों ) से जर्जर हो रहे थे जैसे मिथुन स्वरों (सर) से क्षोण हो उठते हैं, युद्धके लिए वे वैसे ही आतुर थे जैसे मिथुन आतुर होते हैं । वे वैसे ही चकपका रहे थे जैसे मिथुन चकपकाते हैं, वैसे ही उनका मान भंग हो रहा था जैसे मिथुनोंका मान गलित हो जाता है। वैसे ही काँप रहे थे जैसे मिथुन काँप उठते हैं। वैसे ही पसीना पसीना हो रहे थे जैसे मिथुन पसीना-पसीना हो जाते हैं। वैसे ही निश्चेष्ट हो रहे थे जैसे मिथुन निश्चेष्ट हो उठते हैं, वैसे ही निष्पंद युद्ध कर रहे थे जैसे मिथुन निष्पंद हाकर लड़ते
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पउमचरित
पत्ता
तेहए अवसर विषिण वि वलह ओसारियई महबएँ हि । 'पर तुम्हहि खत्त-धम्मु सर विजुज्मेदवड एकमहि' ॥६॥
त्यन्तर सिमिरई परिहरेवि । खतिय खसे अभि वे वि १॥ सुग्गीव विद्वसुग्गीउ बुत्तु । 'जिह माया - कव. रज्जु भुसु ॥२॥ खल खुद्द पिसुण तिब थाहि याहि । कहि गम्मइ रहवरु बाहि वाहि' ॥३॥ नं णिसुणेवि विप्फुरियाणणेण | दोपिछड़ जलागुका . पहरणेण ॥४॥ 'किं उत्तिम-पुरिसॉ एछु मगु । मणु असइहें जिह सय चार भग्गु ॥५॥ झुज्झना ण सजहि तो वि धिट । रणे पाखिउ पाडिउ लेहि चट' ॥६॥ असहन्स परोप्पर वारम्नि । पलय-महाचण उत्थरन्ति ॥७॥ पुणु काहि पुणु तरु-गिरिवरहि । करपाल हिं सूलहिं मारगरेहि ॥८॥
यत्ता मायासुरगा। कुद्धऍण सउडि भमावि मुक्त किह । मुगावहो गम्पिणु सिर-कमलें महिहरें पष्टिय चव जिह ॥६॥
[१६] पाटिड सुग्गांउ गयासमिएँ । कुलपचउ णं जासणिरे ॥ १॥ विणिवाहर किर णिलाउ थिउ । रिउ साहण मूर-त्रमाल क्रिउ ॥२॥ गुप्तहे वि सु-तारहे पाण-पिड । उच्चावि रामहों पासु पिड ॥३॥ वहदेहि - दइट विष्णन लहु । 'पर होन्से गुहावन्म महु' ॥४॥ शहवंग युस 'हउँ कि करम | को मारमि को किर परिहरमि ॥५॥ वणि मि सभरमण अनुभ-वल । वैणि मि दुजन विहिं पवल ॥३॥ ऋषिण मि विणण-करण-कुसल । विणि वि थिर-थोर-वाहु-जुअलु ॥७॥
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तियासीसमो संधि हैं। तब उरा कठिन अवसर पर मन्त्रियोंने आकर दोनों दलोंको हटाते हुए कहा, "तुम लोग क्षात्र धर्मका अनुसरण कर, अकेले ही द्वन्द्व करो !" || १-६॥
[१५] इसी अन्तर में दोनों सेनाओं को छोड़कर वे दोनों क्षत्रिय क्षात्र भाव से लड़ने लगे। सुग्रीक्ने मायासुग्रीवसे कहा, "जिस प्रकार माया और कपट से तुमने राज्य का भोग किया, हे खलक्षुद्र, पिशुन, उसी तरह अन्न ठहर-ठहर, कहाँ जाता है, रथ आगे हाँक, हाँक ।" यह सुनकर, तमतमाते हुए, जलती हुई लूका शस्त्र के प्रहरण के साथ मायामुग्रीव ने उसकी भर्त्सना की, "क्या उत्तम पुरुष का यही मार्ग है कि जो वह असतीके मन की तरह सौ बार भग्न हो, फिर भी धृष्ट तुम लड़ते हुए लज्जित नहीं होते, पु र-
गिरकर से हो !" इस कार एक दूसरे को सहन न करते हुए वे प्रहार करने लगे। मानो प्रलय के महामेध ही उछल पड़े हों। वाणों से, वृक्षों और पहाड़ों से, करवाल, शूल और मुद्गरों से, उनमें युद्ध ठन गया। तब मायासुग्रीव ने लकुद घुमाकर ऐसा मारा कि वह जाकर सुग्रीव के सिरकमल पर गिरा मानो महीधर पर बिजली ही टूटी हो ।। १-६।।
[१६] उस गदा-अस्त्र से सुग्रीव वैसे ही धरती पर गिर पड़ा जैसे बज से कुलपर्वत गिर पड़ता है। गिरकर वह जब अचेतन हो गया तो शत्रुसेना में कल-काल शब्द होने लगा। तब यहाँ भी सुताराके प्राणप्रिय असली सुग्रीवको (लोग) उठाकर रामके पास ले आये । उसने रामसे कहा, "आपके रहते मेरी यह अवस्था ?" तत्र राम ने कहा-"मैं क्या कर, किसको मार और किसे बनाऊँ, दोनों ही रण-प्रांगण में अतुल बीर हैं। दोनों ही विद्याओं से प्रबल व अजेय हैं । दोनों ही विज्ञान करने में पल हैं। दोनों ही स्थिर
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पउभचरित
वेणि त्रि वियष्टुपणय- वस्छयल । वैणि वि पफुखिय-मुह कमल ॥
घत्ता
सयल वि सोहइ सुग्गीव तर जं वोहि अवमाणियउ । महु विहिए कुल-बहुआएँ जिह खल्लु पर-पुरिसु ा जाणियड' ॥६॥
[१ ] मणु धौरवि सुग्गीवहाँ तणज । अवलोइड अणुहरु अपणा ॥१॥ सुकलतु जेम सुपणामि [य] उ । सुकलत्तु जेम आयामियउ ॥२॥ सुकलत जेम दिद-गुण-घणउ । सुकलतु जेम कोडावणउ ॥३॥ सुकलन जेम णिचूट - भरू । मुकलसु जैम पर • णिप्पसरु ॥४॥ सुकलतु जम सइवरे गहिउ । घर जणयहाँ जणय सुभएँ साहिट ||५|| तं अनावत हत्ये बहिउ । अफालिड दिसहिं णाई रहिउ ॥६॥ णं काले पलय-काले हसिड । णं जुबखाएँ सायरेण रसिउ ॥७॥ णं परिय चक खखक-यलें । भई कम्पिय विद्यसुग्गीच-बलें ॥८॥
घसा तं भासणु चाक्सद्दु -सुर्णेवि केलि च बाएं धरहरिय । पर-पुरिसु रमेपिणु असइ जिह विज सरीरहें पासरिय ।।६।।
[ ८] मायासुट दिसालियरें । मेझिउ विजए यालियएँ ॥६॥ णं णिन्दणु मुछ विलासिणिएँ । वर - मयलम्बशु रोहिणिएँ ॥२॥ णं सुरवड परिसेसिउ सहर । * राहर सीय - महासइए ॥३॥
मरण-राउ मेलिउ रहएँ । पाव-पिण्डु सासय-गह ॥४॥
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तियालीसमो संधि और स्थूल बाहु हैं। दोनोंका ही वक्षःस्थल विशाल और उन्नत है। दोनोंका ही मुखकमल खिला हुआ है। हे सुप्रीव, नुम्हारा सब कुछ उसे भी सोहता है। जो तुम कहते हो, वह मैं मानता हूँ । जैसे कुलवधू दूसरे पुरुपको नहीं पहचानती, वैसे ही मेरी दृष्टि माया सुग्रीवको पहचानने में असफल है" !१-F||
[१७] तब रामने सुपावके मनको धीरज बँधाकर अपने धनुषकी ओर देखा । जो सुकलत्रकी तरह प्रमाणित, और उसीकी तरह समर्थ था । सुकलत्रको तरह जो दृढ़ गुण ( अच्छे गुण और डोरी) से घनीभूत था । सुकलत्रकी ही तरह आश्चर्यजनक था, सुकलत्रकी तरह भार उठानेमें समर्थ था, सुकलनकी तरह दूसरेके निकट अप्रसरणशील था, सुकलत्रकी तरह स्वयंवरसे गृहीत था, जनककी सुता सीताके साथ ही जिसे उन्होंने ग्रहण किया था। उस वावर्तको अपने हाथमें लेकर जैसे ही चढ़ाया वह दसों दिशाओं में गूंज उठा, मानो प्रलयकालमें काल ही अट्टहास कर. उठा हो, मानो युगका क्षय होनेपर सागर ही ध्वनित हो उठा हो, मानो पहाड़पर बिजली गिरी हो। उसे सुनकर माया सुमीवके सैनिक कॉप उठे । उस भीषण चाप-शब्दको सुनकर विद्या उसी तरह थरथर काँप उठी जैसे हवासे केलेका पत्ता. और वह सहस्रगतिके शरीरसे उसी प्रकार निकलकर चली गई जैसे असती स्त्री पर-पुरुषका रमण करके चली जाती है, ॥१-६||
[८] विशाल वैतालिकी विद्याने माया-मुग्रीवको छोड़ दिया, मानी बिलासिनीने निर्धन व्यक्तिको छोड़ दिया हो, मानो रोहिणीने चन्द्रमाको छोड़ दिया हो, मानो इन्द्राणीने देवेन्द्रको छोड़ दिया हो, मानो सीता महासतीने गम को छोड़ दिया हो, मानो रतिने मदनराजको छोड़ दिया हो, माना शाश्वत
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पउमचरिउ
णं विसमयणु हिमपय्वइऍ धरणेन्दु णाइँ पडमावइएँ ॥ ५॥ यि विजऍ जं अवमणिय | सहसगइ पयदु जण जाणियड़ ॥ ६ ॥ जं विहडिड सुग्गी वहाँ तप । वलु मिलिउ पडवड अप्पणउ ॥७॥ एकलउ पेक्खचि वहरि घिउ । बल
सर-सन्धाणु
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घसा
खणें खर्गे अणवरय-गुणद्विपदि तिक्खहिं राम-सिलीमुहहिं । विणिनिष्यु कक्ष्सुल र पचहरु जैम बुहहिं ॥२॥
[६]
रिट विसिहि वियारियठ । सुग्गीउ वि पुरे पसारियउ ॥१॥
करन्तु थिउ || २ || जिण-भवणु ॥३॥
जय - मङ्गल - तूर- णिघोलु किउ । सहुँ तारएँ रज्जु
YU
एस वि रामु परितुह मणु । निविसेण
I
किय बन्द सुह गई -गामियों । भावें
किंउ ॥८॥
पराइड चन्द्रष्पह सामिग्रहों ॥४॥ माथ वप्पु तुहुँ वन्धु-जणु ॥५॥ सम्बहुँ परहूँ पराहिप ॥ ६ ॥ चरिले थिउ । तुहुँ सबल-सुरासुरेहिं णमिउ ॥७॥ वापरणें समाएँ झार्णे तुहुँ तव चरणें ॥८॥
तुहुँ ।
तु
'जय तुहुँ गइ तुहुँ मइ तुहुँ सरणु तुहुँ तुहुँ परम-पस्तु परमत्ति हरु । तुहुँ
तुहुँ दंसणं णा सिद्धमम
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घत्ता
अरहन्तु बुद्ध तुहुँ हरि हरु वि तुहुँ अण्णाण तमोह- रिउ ।
तुहुँ हुरिक्षणु परमपद तुहुँ रवि वम्भु सम्भु सिउ' ॥६॥
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तियालीसमो संधि गतिने पापपिण्डको छोड़ दिया हो, पार्वतीने शिवको छोड़ दिया हो। मानो पद्मावतीने धरणेन्द्रको छोड़ दिया हो । अपनी विद्यासे अपमानित होने पर सहस्रगतिका असली रूप लोगोंने प्रगट जान लिया। और असली सुग्रीव की जो सेना पहले विघटित हो गई थी वह अब उसीकी सेनामें आकर मिल गई । शत्रु को एकाकी स्थित देखकर बलदेव रामने सरसन्धान किया। अनवरत डोरी पर चढ़े हुए रामके तीखे बाणोंसे कपट-सुग्रीव युद्ध में उसी तरह छिन्न-भिन्न हो गया जैसे विद्वानोंके द्वारा प्रत्याहार (व्याकरण के) छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।। १-६।।
[१६] इसप्रकार शत्रुको बाणोंसे विदीर्ण कर रामने मुग्रीव को नगर में प्रवेश कराया। तब जयमंगल और तूर्योका निर्घोष होने लगा। सुग्रीव तारा के साथ प्रतिष्ठित होकर राजकाज करने लगा । इधर राम भी संतुष्ट मन हो र शीघ्र हो चिन भवन में पहुँचे और वहाँ उन्होंने शुभगति-गामी चन्द्रप्रभ जिनकी स्तुति की-"जय हो, तुम्हीं मेरी गति हो । तुम्हीं मेरी बुद्धि हो । तुम्हीं मेरी शरण हो, तुम्हीं मेरे माता-पिता हो। तुम्हीं बन्धुजन हो, तुम्हीं परमपक्ष हो, तुम्हीं परमति-हरणवार्ता हो | तुम्हीं सबमें परात्पर हो। तुम दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें स्थित हो । तुम्हें सुरासुर नमन करते हैं। सिद्धान्त, मन्त्र, व्याकरण, सन्ध्या, ध्यान और तपश्चरण में तुम्ही हो । अरहन्त, बुद्ध तुम्ही हो । हरि, हर और अज्ञानरूपी तिमिर के शत्रु तुम्हीं हो। तुम सुक्मनिरंजन और परमपद हो। तुम सूर्य, ब्रह्मा, स्वयम्भू और शिव हो ।।१-६।।
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[४४. चउयालीसमो संधि] मणु जरइ आस प पूरइ खणु वि सहारणु णड करह । सो लक्खणु रामाएसें घर सुग्गीयहाँ पइसरइ ॥
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विष्टसुग्गाचें समरे सर-भिण्ण' । गएँ सत्तमएँ दिवस बोलींपएँ ॥६॥ त्रुत्तु सुमिसि - पुत्तु वलए । 'भणु सुग्गाड गम्पि विणु मेवें ॥२॥ तं दिटन्नु पिरुत्तउ जायउ । सम्बाहों सीयलु कनु परायउ ॥३॥ जं मुआविर रज्जु स - तारउ । कालहाँ फेबिउ वहरि नुहार ॥४॥ तं उवयाह किं पि लइ जाणहि । कन्तहें तणिय वत्त तो आणहि ॥५॥ गड़ सोमित्ति विसजिन रामें । सरु पञ्चमड मुकु णं का ॥३॥ गिरि-किनिन्ध-गयर मोहन्सर । कामिणि - जण-मण- संखोहन्तउ ॥७॥ जिह जिइ घरु सुग्गीवह पावह । तिह तिह जणु विहइफ धावत् ॥८॥ ज गणइ कण्ठउ कराउ गलिण्ड । णाई कुमार मोइणु विष्णउ ॥६॥
पत्ता किक्विन्ध-णराहिव-केरउ दिट्ट पुरउ पदिहार किह | थिउ मोक्स-वार पडिकूलर जीवहाँ दुप्परिणामु जिह ॥१०॥
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चवालीसवीं सन्धि
सीतादेवी के वियोग में राम का मन विसुर रहा था । उनको आशा पूरी नहीं हो रही थी। एक भी क्षण का सहारा उन्हें नहीं मिल पा रहा था। इसलिए रामके आदेशसे लक्ष्मणको सुग्रीव के घर जाना पड़ा।
[१] जब कपट-सुग्रीव युद्ध में बाणों से क्षत-विक्षत हो चुका और सात दिन भी व्यतीत हो गये, तब रामने लक्ष्मणसे कहा कि तुम बिना विलम्ब जाकर सुग्रीवसे कहो । वह तो एकदम निश्चित सा जान पड़ता है। सभी दूसरे के काम में ढील करते हैं। (उससे कना) कि तुम जो (अपनी पली) तारा सहित राज का भोग कर रहे हो और जो (हमने) तुम्हारा शत्रु काल (देवता) की भेंट चढ़ा दिया है। यदि तुम उस उपकार को थोड़ा भी जानते हो तो सीतादेवी का वृत्तान्त लाकर दो। इस प्रकार राम से विसजित होने पर लक्ष्मण (सुग्रीव के पास) इस वेग से गया मानो कामदेव ने अपना पांचवां बाण ही छोड़ा हो। वह किष्किन्ध पर्वत और नगर को मुग्ध करता तथा कामिनीजनों के मन को क्षब्ध बनाता हुआ जैसे-जैसे सुग्रीवके घरके निकट पहुँच रहा था वैसे-वैसे जनसमूह हड़बड़ाकर दौड़ा। वह अपना कण्ठा, कटक और गलिग्ण नहीं देख पा रहा था। (उस समय जन-समूह) ऐसा जान पड़ रहा या मानो लक्ष्मण ने संमोहन कर दिया हो। इतने में कुमार लक्ष्मण ने किष्किन्धराज सुग्रीवके प्रतिहारको अपने सम्मुख इस प्रकार (स्थित) देखा मानो मोक्ष के द्वार पर जीव का प्रतिकल दुष्परिणाम ही स्थित हुला हो ॥ १-१०॥
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पउभचरित
[२]
'काई परिहार गम्पि सुग्गीवहाँ । जो परमेसरु जम्बू - दविहाँ ॥१॥ अच्छह सो वण-वासें भवन्त: 1 अप्पुणु रज्जु करहि णिश्चिन्त ॥२॥ जंतुह केरउ अवसर सारिउ । चाउ पउमणाहु उपयारिड ॥३॥ तो वरि हउँ उज्यारु समारमि । घिसुगीच जेम सिंह मारमि ॥४|| अं संदेस दिन्शु कुमार । निशु कपि ३५ पटिहार ॥५॥ 'देव देव जो समर अणिविड । अछह लक्षणु पार परिहिउ ॥६॥
आउ महब्बलु रामाएसें । जमु पच्छण्णु णाई गर-बेसें ।।७।। कि पइसरट किं व मं पइसउ । गम्पिणु वत्त काई तहाँ सीसर' ॥८॥
वत्ता तं वयष्ण सुधि सुग्गीण मुहु परिहारहजोइयउ । 'कि केण वि गाहा लावणु वार महारण होइयउ ॥६॥
[३] किं लक्षणु जं लक्ख-विसुबउ । किं लक्खणु जो गेय-णिवा ॥१॥ किं लपवणु जं पाइय-कम्बहो । किं लक्वणु वापरणहाँ सम्यहाँ ॥२॥ किं लावणु जं छन्दै णिविट्टउ । किं लावणु जं भर, गविहउ ॥२॥ किं लक्खणु णर-णारी-अङ्गहुँ । किं लक्खणु माया-मुरगहुँ' ॥४॥ पभणइ पुणु एटिहारु वियक्तणु । एगहुँ म ण एक्क विलक्सणु ॥५॥ सो लपवणु जो दसरह-गन्दणु । सो लक्खणु जो पर-वल मणु ॥६॥ सो लखणु जो णिसियर-मारधु । सभ्यु - कुमार चौर • संघारणु |sti
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चपालीसमो झंधि
२७
[२] तब कुमारने कहा-"प्रतिहारी, तुम जाकर सुग्रीवरी कहना कि जो जम्बूद्वीप के स्वामी हैं, वे वनमें भटक रहे हैं और तुम निश्चिन्त होकर अपना राज कर रहे हो? जिस प्रकार तुम्हारा काम साधा गया, अच्छा है, तुम राम का उपकार करो। नहीं तो अच्छा है कि मैं उपकार कहे और जिस प्रकार कपटसुग्रीवको, उसी प्रकार तुम्हें मारता हूँ।" कुमारने जो संदेश दिया, द्वारपाल ने जाकर वह वार्ता कह दी–"हे देवदेव, जो युद्ध में अनिष्ट हैं, वह लक्ष्मण द्वार पर खड़े हैं। वह महाबली रामके आदेशसे आए हैं, मानो मनुष्यके रूपमें प्रच्छन्न यमही हैं। उन्हें प्रवेश दूं या नहीं, उनसे जाकर क्या बात कहूं ?" यह वचन सुन कर सुग्रीव प्रतिहार का मुख देखने लगा। क्या किसी ने गाथा में प्रसिद्ध को मेरे द्वार पर भेजा है ।।१६।।
[३] क्या वह लक्षण (लक्ष्मण) जो विशुद्ध लक्ष्य होता है ? क्या वह लक्षण जो गेय-निबद्ध होता है? क्या वह लक्षण जो प्राकृत काव्य में होता है ? क्या वह लक्षण जो व्याकरण में होता है ? क्या वह लक्षण जो छंदशास्त्र में निर्दिष्ट है ? क्या वह लक्षण जो भरत को गोष्ठी में काम आता है ? क्या वह लक्षण जो स्त्री-पुरुषों के अंगों में होता है ? क्या वह लक्षण जो अश्वों और गजों में होता है ?" तब प्रतिहार ने पुनः निवेदन किया, "देव-देव, इनमेंसे एक भी लक्षण नहीं है प्रत्युत यह वह लक्ष्मण है जो दशरथका पुत्र है । वह लक्ष्मण है जो निशाचरका नाशक है । वह लक्ष्मण है जो शम्बुक कुमार का वधकर्ता
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पउमचरित
सो लक्षण जो राम साहोयरु । सो लक्षणु जो सीयाँ देवरु || सो लक्षणु जो गरवर केसरि । सो लक्षणु जो खर-दूसण-भरि ॥९॥ दसरह-तगड सुमिन्तिह जायङ' । रामें सहु वण-वासहों आयउ ॥१०||
पत्ता अणुणिजन भेन पयलं जाय ग कुम्माणि-मायणा । में पम्य पई पेसेसह मागासुग्गीयहाँ सणण' ॥११॥
[५] तं णिसुणेवि बयणु परिहारहों । हियबउ भिग्णु कहड्य-सारहों ।।१।। "यहु सो लाखणु राम-कणिहर । जासु मासि हउँ सरशु पइउ' ॥२॥ सीसुध गुरु-वयप्पे हि उम्मूढउ । रवइ विणय - गहन्दारूदउ ॥३॥ स-बल्लु स-पिण्डवासु सकलत्तः । चलणेहि पडिल विसन्थुल-गत्तर ।। | पणिउ कलुण कियझलि-हस्थः । 'हउँ पाविदछु धिट्टु अक्रियत्थर |५|| तारा-णयण-सरहिं जजरियउ । सुम्हारत गाउ मि वीसरियड ५६।
अहाँ परमेसर पर उपयारा । ए-वार महु स्वमहि भडारा' ।।७।। ... ..जं पिय-चवाहि विणड पयासि । सरसह लक्खपोपर मासासिंह ।।८।। 'प्रभउ परछ छुद्ध सीय गधेसहि । लहु विभाइर इस-दिसि पेसहि ॥६॥
धत्ता सोमितिह, स्थणु सुप्पिणु सुहड़-सहास हि परियरिउ । णं सायरु समयहाँ चुकर किकिन्वाहिद गांसरिउ ॥१०॥
[५] णराहिओ बिसालयं । पराइओ जिणालयं ॥३॥ धुओ तिलोय-सामिओ । अणन्त-सोक्ख-गामिभो ।।२।।
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चउयालीसमो संधि
२६ है। वह लक्ष्मण है जो रामका सगा भाई है । वह लक्ष्मण है जो सीतादेवी का देवर है । वह लक्ष्मण है जो श्रेष्ठ मनुष्यों में श्रेष्ठ है । वह लक्ष्मण है जो खर-दूषणका हत्यारा है। वह लक्ष्मणं है जो सुमित्रासे उत्पन्न दशरथका पुत्र है और जो रामके साथ वनवासके लिए आया है । हे देव ! प्रयत्नपूर्वक उसे मना लीजिए, जिससे वह कुपित न हो। और तुम्हें मायासुग्रीव के पथ पर न भेज " ॥१-११।।
[४] प्रतिहार के उन वचनों को सुनकर कपिध्वज शिरोमणि सुग्रीव का हृदय विदोणं हो गया । (वह सोचने लगा) अरे, यह वह नक्ष्मण है [राम का अनुज]. जिसकी शरणमें मैं गया था। यह विचारते ही वह वैसे ही सचेत हो गया जैसे गुरुके उपदेशवचन से शिष्य सचेत जाता है । तब राजासुग्रीव विनयरूपी हाथी पर चढ़कर, अपनी सेना परिवार और स्त्री के साथ जाकर व्याकुल शरीर हो, लक्ष्मण के सामने गिर पड़ा। दोनों हाथ जोड़कर उसने करुण स्वरमें कहा-“हे देव, मैं बहुत ही पापात्मा, ढीठ और अकृतज्ञ हूँ। तारा के नेत्रवाणों से जर्जर होकर मैं आपका नाम तक भूल गया । अहो परोपकारी परमेश्वर, एक बार मुझे क्षमा कर दीजिए।" जब सग्रीवने इतने प्रिय वचनोंमें विनय प्रकट की तो लक्ष्मणने आश्वासन दिया और कहा, "वत्स, तुम्हें मैं अभय देता हूँ, शीघ्र जाकर अब सीतादेवी की खोज करो, हरेक दिशा में विद्याधर भेज दो।" लक्ष्मण के बचन सुनकर, सहस्र सैनिकों से परिवृत मग्रीव निकल पड़ा । मानो समुद्र ने ही अपनी मर्यादा विस्मृत कर दी हो ॥१-१०॥
[५] तब नराधिप सुग्रीव एक विशाल जिनालय में पहुंचा। यहाँ उसने अनन्त सुखगामी जिन-स्वामीकी स्तुति प्रारम्भ की;
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पदमपरित
'जयदु-कम्म - दारणा । अण्णा - सड़-वारणा ॥३॥ पसिद्ध - सिख - सामणा । तमोह-मोह - मासणा || कसाय - माय - बधिया । तिलोय-कोष - पुजिया ॥५॥ मपट - दुढ - मदन । तिसमल-बेशि-छिन्दणा' ।।९॥ शुभो एम जाहो । विहई - सणाहो ।।७।। महादेव . देवो । ण तुको म छेओ ॥८॥ ण छेभो ण मूलं । ण सावं ण सूलं पर ण कवास - माला । ण विट्ठी कराला || म. गउदी सहा । चन्दो पा पागा ॥१॥ ण पुत्तो ण कन्ता । ण डाहो ण चिन्ता ॥१२॥ ण कामो ण कोहो । म लोहो ण मोही ॥१३॥ ण माण म माय! | ण सामण्ण - छाया ॥१४॥
घत्ता
पणप्पिणु जिणबर लामिड सुइ-गइ-गामिर पहजारूद्ध गराहिला। 'जह सीयहें वत्त ण-याणमि तुम्ह पराणमि तोबल महु सणास-गह ॥१५॥
पच भणेवि अणिष्ट्रिय - वाहा । कोकाविउ विनाहर - साहणु ॥ १॥ 'जादु गवेसा जहि आसबहाँ । जल-दुग्गई थल - दुग्गई लडहाँ ॥२॥ पइसें वि दी दीड गवेसहो । गय अनय उत्तर - देसहरे ॥३॥ गवय - गवक्स वे वि पुम्बद्धे । णल - कुन्देन्द्र - णील पच्छद्रं ॥४॥ दाक्षिण सुग्गीउ स-साहणु । अण्णु वि जम्बवन्तु हरिसिय-मणु ५|| लिय विमाणारूढ महाइय । णिविसे कम्यू-दोड पराइय ॥६॥ नाव नत्थु विनाहर - केरउ । कम्पइ घलइ बलइ विवरेरउ ||७||
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चउयालीसमो संधि
"आठ कर्मों का दलन करने वाले आपकी जय हो। आप कामका संग निवारण करने वाले, प्रसिद्ध सिद्ध शासनमें रहनेवाले, मोह के धनतिमिर को नष्ट नेपाल, कषाय और नायाब रहित, त्रिलोक द्वारा पूज्य, आठ मदोंका मर्दन करनेवाले, तीन शल्योंकी लताका उच्छेद करनेवाले हैं।" इस प्रकार उसने विभुतियोंसे परिपूर्ण स्वामी महादेव जिनेन्द्र की स्तुति की। जिनका न आदि है न अन्त है। न अन्त है, न मूल है। न चाप है न त्रिशूल । न कंकाल माला है और न भयंकर दृष्टि । न गौरी है न गंगा। न चन्द्र है न सर्प । न पुत्र है न स्त्री। न ईर्ष्या है और न चिता । न काम है और न क्रोध । न लोभ है न मोह । न मान है और न माया । और न साधारण छाया ही है। इस प्रकार जिनवर स्वामी को प्रणाम करके सुगतिगामी सुग्रीव ने यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं सीतादेवी का वृत्तान्त न लाऊं और जिनदेवको नमन न करूं तो मेरी गति संन्यास को हो (अर्थात् मैं संन्यास ग्रहण कर लूंगा" || १.१५॥
[६] यह कहकर उसने अपनी अनिर्दिष्ट वाहनबाली विद्याघर सेनाको पुकारा और उसे यह आदेश दिया कि जहाँ पता लगे वहाँ जाकर वह सीतादेवी की खोज करे । इस पर अंग और अंगद उत्तर देशकी ओर गये। गवय और गवाक्ष आधे पूर्वकी ओर । नल, कुंद, इन्द्र और नील आधे पश्चिमकी ओर गये। स्वयं सुग्रीव अपनी सेना लेकर दक्षिणकी ओर गया। प्रसन्नमन जाम्बवंत भी उसके साथ था । आदरणीय वे दोनों विमान में बंटकर चल पड़े। और पल भर में कम्बू द्वीप पहुंच गये । वहाँ पर उन्होंने विद्याधर रत्नकेशी का ध्वज देखा । कपित, चलता और विपरीत दिशा में मुड़ता हुआ दीर्घ दंडवाला और पवन से आंदो
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पचमचरिउ
दीहर-दण्टु पर्वण पदिपेशिउ । णं जस-पुन्ज महण्णवे मेडिउ ॥॥
पत्ता सो राए घउ धुन्चन्तन दाखउ णयण-सुहावणउ । 'लहु एह ए8 इकारह णाई इत्थु सोयह तणउ HER
तेण वि दिइ चिन्धु सुग्गीवहाँ । उप्परि एन्ता कम्बू-दीयहरे ॥१॥ चिन्तइ रयणकसि 'लह बुझि3 । जेण समाणु आसि हउँ अजिमउ ॥२॥ सो तइलोक - चक - संतावणु । मन्छु आउ पडीवर रावष्णु ॥३॥ कहि णासमि कहाँ सरणु पहकमि । एथहाँ हउँ जीवन्तु ण चुकमि' ॥१॥ दुश्वु दुश्खु साहारिउ णिय मणु । 'जइ सयमेव पराइउ रावणु ॥५it तो कि तासु महद्धएं वाणरु । णं पं दीसह किक्किन्धेसर' ॥६॥ तहि अवसर सु-ग्गांउ पराइड । णाई पुरन्दरु सग्गहों आइउ ॥७॥ 'भो भो रयणकेसि किं भुलउ । अन्धहि काइँ पुत्थु एकाउ' ॥८॥
पत्ता
सुग्गीवहाँ क्यणु सुणेपिणु हियवए हरिसुण माइयड । पव-पाडसे सलिले सित्तउ विम्मु जेम अप्पाइयउ ॥३॥
[८] णिय का कहहुँ लामु विजाहरु । अतुल - मा भामण्डल-किresi 'सामिहें जामि जाम ओलग्गएँ । दिछु विमाणु ताम गयणग्गएँ ।।२।१ तहि कन्दम्ति साय आयण्णवि । धाइड रावणु सिण-समु मणवि ॥३॥ हड वच्छश्यले असिवर - घाएँ। गिरि व पलोटिड कब-गिहाएं ॥४॥ दुबाबु दुक्खु चेयणउ लहेपिपणु । पादिङ विजा-छेड करेपिणु II
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चउपालीसमो संधि लिन वह ऐसा लगता था मानो किसोका यशःपुंज ही समुद्र में प्रक्षन कर दिया गया हो। नेत्रांको मुहावना लगनेवाला हिलता हुआ वह ध्वज उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो सीता देवीका हाथ ही उसे यह पुकार रहा हो कि शीघ्र आओ शोध आओ ||१६||
[ ] इतनमें विद्याधर ग्लकेशीको भी द्वीपपास जाते हुए मुग्रीवका 'वज-चिह्न दिखाई दे गया। वह अपने तई सोचने लगा कि "लो. जिसके साथ मैं अभी-अभी युद्ध लड़ा था त्रिभुवनसंतापदायक बही नावण शायद फिरसे लौट आया है। अब मैं कहीं भाग . किसकी शरण जाऊ । इससे मेरे प्राश बचना अव कठिन है ।' इस तरह उसने मनमें यह सोचकर बड़े कप्से अपने आपको सम्हाला कि यदि यह गवण ही आ रहा है तो उसके ध्वज में वानरका चिह्न कैसे हो सकता है। नहीं नहीं, यह तो किष्किंध नरेश है । ठीक इसी समय सुग्रीव वहाँ आ पहुंचा। माना स्वर्गसे इन्द्र ही आ गया हो। उसने कहा, "अरे रत्नकेशी क्या तुम भूल गये | यहाँ एकाकी कैसे पड़े हुए हो" । सुग्रीवके यह वचन सुनकर विद्याधर रत्नकेशी मारे हर्पके फूला नहीं समाया वैसे ही जैसे नव-पावसके जलसे सिक्त होनपर भी विध्याचल आमायनसे नहीं अघाता॥१६
[ ] तव भामंडलका अनुचर अतुल बली विद्याधर रत्न केशीने मुनावको बताया कि जब मैं अपने स्वामीकी सेवामें जा रहा था तो मुझे गगनांगनमें एक विमान दिखाई दिया। उसमें सोना देवीका आक्रंदन मुनाई पड़ा। बस मैं गवणको तृणवत भी न ममझकर, उससे भिड़ गया। उसने अपने श्रेष्ठ खड्ग चन्द्रहास से छाती में आह्त कर दिया । तब में वससे आहत पहाड़की भाँति लोट-पोट हो गया। बड़ी कठिनाईसे जब मुझे कुछ चेतना आई
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पउमचरित
जिइ जबघु दिसाउ विभुलाउ । अमि तेण पत्थु एकाउ' ॥६॥ णिमुणवि सोपा-हरणु महागुणु । उभय-करें हिं अपगड पुणुप्पुणु ॥७॥ अण्णु वि तुइएण मण भाविणि । दिण्ण चिन तहाँ गयल-गामिणि ॥८॥
धत्ता णि रयणकेसि सुगावेग जहि अस्छइ क्लु दुम्मणउ । . जसु भण्डएँ णाई हरेपणु आणिउ दहवयणही तणउ ||६||
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उ1181
विजाहर • कुल : भवण - पईवें । रामहों बद्धानिङ सुगावें ॥१॥ 'देव देव तरु दुक्ख-महाणइ । सीयहँ तणिय वत्त ऍहु जाणाई ॥२॥ तं णिसुणेवि वाणु वलहरे । हसिट स - चिन्भमु कहकह-सढे ॥३|| 'भो भो बच्छ वच्छ दे साइड । जीविउ णवर अज्जु आसाइड' ॥४॥ पुष भणेषि तेण सम्वजिउ । णेह · महामरेण आलिबिउ ||५|| 'कहें कहें केण कन्त उहालिय । कि भुल कि जीवन्ति णिहालिय' ॥६|| तं णिसुणेवि विउ विजाहरु । गाई जिणिन्दहाँ अगएँ गणहरु ।।।। 'देव घेन कलुणई कन्दन्सी । हा लक्षण हा राम भणन्ता ||८||
- पत्ता णागिन्दि व गरुड-विहामण सारशि व. पहाणणण । महु विजा-छेउ करेप्पिणु णिय वहदेखि इसाणणण ॥१॥
[१०] सहि तहत् वि काल भयभीयहें । केश वि सीणु ण खणिष्टउ सायह ॥१॥ ,पर पुरिसेंदि उ चित्त लाइजह । बालहिं जिह वायरणु ण भिजइ' ॥२॥ तं णिसुवि विज्ञाहर • वुत्सउ । कण्टड दिण्णु काउ कडिसुतउ ।।३।।
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छयालीस संधि
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तो उसने मेरी विद्या छेड़कर मुझे यहाँ फेंक दिया | जन्मांधको तरह मैं अब दिशा भूल गया हूँ और इसीलिए यहाँ अकेला पड़ा हूँ ।" इस प्रकार सीता देवीके अपहरणको बात सुनकर महागुणो सुग्रीवने बार-बार रत्नकेशीका आलिंगन किया तथा खून संतुष्ट होकर उसे मनचाही आकाशगामिनी विद्या दे दी। फिर सुप्रीव रत्नकेशीको वहाँ ले गया जहाँ दुर्मन राम थे। इस प्रकार वह मानो बलपूर्वका यशःपुंज ण कर होगा
[६] आकर, विद्याधर-कुल- भुवन- प्रदीप सुग्रीवने रामका अभिनंदन करते हुए निवेदन किया, "देव-देव ! अब आपने दुखरूपी महासरिताका संतरण कर लिया है। यह सीता देवीका पूरा पूरा वृत्तान्त जानता है ।" उसके वचन सुनकर राम कहकहा लगाकर विभ्रमपूर्वक खूब हँसे, और फिर उन्होंने कहा, "अरे वत्स वत्स, तुम मुझे आलिङ्गन दो । आज तुमने सचमुच मेरे जीवनको आश्वासन दिया है ।" यह कहकर रामने उसका सर्वाग आलिङ्गन कर लिया और फिर पूछा, "कहो कहो, किसने सीता देवीका अपहरण किया है । तुमने उसे मृत देखा या जीवित ।" यह सुनकर विद्याधर इस प्रकार बोला मानो जिनेन्द्र के सम्मुख गणधर ही बोल रहा हो कि "हे देव-देव ! वह करुण क्रन्दन करती हुई, 'हा राम ' ' हा लक्ष्मण' कह रही थीं। रावण, मेरी विद्याको छेदकर उन्हें वैसे ही ले गया जैसे गरुड़ नागिनको या सिंह हरिणीको पकड़कर ले जाता है ॥१-||
[ १ ] परन्तु उस भयभीत कठोर कराल कालमें भी किसी तरह सीताका शील खंडित नहीं हुआ था । परपुरुष उसका चित्त नहीं पा सके वैसे ही जैसे मूर्ख व्याकरणका भेद नहीं कर पाते । " विद्याधरका कथन सुनकर रामने उसे कंठा, कंटक और कैटिसूत्र
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पउमचरित
तहिं अवसरे जे गया गवेसा । आय पडीचा से वि असेसा ॥४॥ पुत्रिय राहवेण 'वर - धीरही। जम्मच अनाय सोरहो ॥५॥ अहाँ जल-गोलहाँ गवय-गवक्खहौं । सा कि दुरै लत महु अक्सहो ॥६॥ अम्बउ कहाँ लग्गु हलहेइहे । 'रक्खस - दीयहाँ सायरबेइह ॥७॥ जोयण-सयइँ सत्त विहि अन्तरु । तहि मि समुछु रउन्दु भयारु ॥ ला - दाउ वि तेण पमाणे । कहिड जिणिन्दै केवल - णाणे | तहि तिफूह मामेण महाहरू । जोयगाह पञ्चास स - विस्था ॥१०॥ ष तुमन्तरेण तहाँ उप्परि । घिय जोयण बत्तीस काउरि ॥१॥
पत्ता एक वि परिन्दु पीसकर अणु समुई परियरिउ । एक वि केसरि दुष्पेक्सउ भण्णु पडोवउ परवरित ॥१२॥
[११] जसु सइलोक-चक्कु भासका । तेण समाणु भिडवि को सकइ ॥१॥ राहन पण काई भाला । काई । सीयह तर्णण पलाचें ॥२॥ पिण्डत्यणित लाह - लायणउ ! लइ महु तणियर सेरह कण्ण ॥३|| गुणवई हिययवम्म हिययालि । सुरबह पउमावई रयणालि || चन्दकन्त सिरिकम्ताणुवरि । चारूलच्छि मपणवाहिणि सुन्दरिं ॥५॥ सहुँ जिणवाएँ रूव-संपण्णउ । परिणि भडारा एयड कपणा' ॥६॥ ते णितुणेवि बलाएवें वुबह । आयहुँ मज्म ण एक वि रुप ॥७॥ जाइ वि रम्भ अह होइ तिलोत्तम । सीयहें पासिउ अण्ण ण उप्तिम' ॥॥
पत्ता वलगुनहों वाणु सुणेपिणु किक्किन्धाहिवेण हसिउ । 'किट रत्तहाँ तयउ कहाणउ भोयणु मुवि छाणु असिउ ॥६॥
खण खणे घोहहि णाई अयाणद । कि पई ण सुयउ लोपाहाणः ॥ १॥ जा व किं पि अश्चर" ण किजह । ता किं माणुस-मेत्तै दिजा ॥२॥
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पउयालीसमो संधि दिया। जो लोग सीता को खोजने के लिए गये थे वे भी इसी अवसर पर लौटकर आ गये। तब राम ने उनसे पूछा, "अरे वरवीर प्रचंड नल-नील और गवय-गवाक्ष, बताओ वह लकानगरी यहाँ से कितनी दूर है ?" इस पर जाम्बवंतने रामको यह उत्तर दिया कि "लवण समुद्रके धेरे में राक्षसद्वीप है जो सात सौ इक्कीस योजनका है। यह बात जिनेन्द्र ने केवलज्ञान से बताई है। उस लंका द्वीप में विकट नाम का पर्वत है जो नी योजन ऊँचा और पचास योजन विस्तृत है। उस पर बत्तीस योजनकी संकानगरी है। रावण उसका एक मात्र नि:शंक राजा है । वह दूसरे समुदों से घिरी हुई है । एक तो सिंह देखने में वैसे ही भयंकर होता है दूसरे वह कवच पहने हो।। १-१२ ।।
[११] जिस रावणसे तीनों लोक आशंकित रहते हैं उससे कौन लड़ सकता है । अत: हे राघव, इस आलापसे क्या और सीता देवीके प्रति प्रलापसे क्या। मेरी पीन स्तनोंवाली और रूप में अत्यन्त सुन्दर तेरह कन्याएं स्वीकार कर लें। इनके नाम हैंगुणवती, हृदयवर्म, हृदयावलि, स्वरवती, पद्मावती, रत्नावली, चन्द्रकान्ता, श्रीकान्ता, अनुरा, चारुलक्ष्मी, मनवाहिनी और सुन्दरी । जिनवर की साक्षी लेकर आप इनसे विवाह कर लें।" यह सुनकर राम ने कहा कि इनमें से मुझे एक भी नहीं रुचती। यदि रम्भा या तिलोत्तमा भी हो तो भी सीता की तुलना में मेरे लिए कुछ नहीं। रामके इन वचनों को सुनकर किष्किन्धानरेश सुग्रीव ने हँसते हुए निवेदन किया, "अरे तुम तो उस अनुरक्त (प्रेमी) की कहानी कह रहे हों जो भोजन छोड़कर छाँछ पसन्द करता है ।। १-६॥
[१२] तुम जो चार-बार अज्ञानीकी तरह बोल रहे हो, तो क्या तुमने यह लोक-आख्यान नहीं सुना कि जो बात एक
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श्म
पउमचरिउ
पूसमाणु जड् लीय पासिउ । सो करें वयणु महारउ भासि ॥३॥ चरि करि तिहुण-संतावणु । जइ वि णे एकेकी रावणु ||४|| सो वि जति स तेरह वरिसइँ । जाई सुरिन्द-भोग अनुसरिसहूँ ॥५॥ उप्परन्स पुणु काह मि होस । तं जिसुणेषि चयणु बलु घोसइ ॥ ६ ॥ 'मइ मारेव चरि सहाथ लाएवउ खरबूसम पन्थें ॥७॥ सिय-परिहनु सम्बह मि गरूवउ ! णं तो पहू मिस जि अणुहूअर ॥८॥
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धत्ता
-
जो महलिउ विहि-परिणामण अयस कलङ्क-प-महिं ! सो जस प पक्खालेवउ रहनुह सीस-सिलायले हिं' ॥६॥
[३]
तं णिसुमेषि वसु
एकु कुरकु पशु एक समुह ए
सुम्मीदें । 'विग्गहुं कवणु समउ दहगीवें ॥१॥ अइरावड पाहणु एवं एकु कुल-पावउ | कमलायर । एक सुसु एकु खगेसरु ॥३॥ एक मणुसु एक वि विजाहरु ] तहाँ तुम्ह हुँ वडारड अन्तरु ॥४॥
जग जस पडु जेण अफालिङ । गिरि जेण महाहवें भम्पु पुरन्दरु | जमु प्रेम समीरणो वि जिउ खन्ते । कवणु इरि घथणेण तेण आउ । णाइँ
कलासु करेंहिं संचालित ॥५॥ वसवणु वरुणु वहसावरु ॥ ६ ॥ गहणु नहीं माणुस मेसें' ॥७॥ समिर विस हुद्व ॥८॥
धत्ता
'भङ्गङ्गय • णल- सुग्गी वहीं वाहु सहेजा होहु छुड । हउँ खक्खणु एक पहुचमि जो दहगीवों जीव- खुडु ॥३॥
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जयालीसमो संधि
३६
अप्सरा नहीं कर सकती क्या वह एक मनुष्यनी कर सकती है। यदि तुम्हारा सन्तोष और तृप्ति सीतादेधीसे ही सम्भव है तो हमारी बात मानो। जब तक रावण वर्ष-वर्ष करके तेरह वर्ष निकालता है तब तक देवेन्द्र के भोगोंके सदृश तुम्हारे तेरह वर्ष बीत जाएंगे, उसके बाद कुछ तो भी होगा:" मा सुनका करने उत्तर दिया--"मैं तो शत्रु को अपने हाथ मारूँगा और उसे खरदूषण के पथ पर पहुँचाऊँगा । स्त्री का पराभव सबसे भारी होता है। क्या स्वयं तुमने इसका अनुभव नहीं किया ? भाग्य के फलोदय से जो मेरा यशरूपी बस्त्र अकीति और कलंक के पंकमल से मैला हो गया है उसे मैं रावण के सिर रूपी चट्टान पर (पछाड़कर) साफ करूँगा"॥१-६॥
[१३] यह सुनकरु सुग्रीव बोला, "अरे रावण के साथ कैसी लड़ाई ? एक हिरन है तो दूसरा ऐरावत । एक पाह्न है तो दूसरा कुलपावक । एक सरोवर है तो दूसरा समुद्र है । एक साँप है तो दूसरा गरुड़ है। एक मनुष्य है तो दूसरा विद्याधर । तुममें और उसमें बहुत बड़ा अन्तर है। जिसने दुनियामें अपने यशका डंका बजाया है, अपने हाथ से कैलाश पर्वत को उठा लिया है, जिसने महायुद्ध में इन्द्र, यम, वैश्रवण, अग्नि और वरुण को भी परास्त कर दिया है, क्षात्रत्व में जिसने पवनको भी जीत लिया, मनुष्य के द्वारा उसका ग्रहण कैसे हो सकता है ?" उसके वचनसे लक्ष्मण ऐसे कुपित हो उठा मानो शनिश्चर ही अपने मन में रूठ गया हो। उसने कहा, "अंग, अंगद, नील अपनी भुजाओं को सहेजकर बैठे रहो । जाओ । रावण के जीवन को नष्ट करनेवाला अकेला मैं लक्ष्मण ही पर्याप्त हूँ"॥१-६ ।।
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पउमरिड
E१४]
तं वयष्णु सुण चि वयणुगएण । सुग्गाउ वृत्त जवष्णएण 11 'ऐहु होहण का विसावण णरु । सञ्चउ पहिवरख विणासयर ॥२॥ * चवह सम्वु तं णिबहइ । को असिवर सूरहासु लहइ ॥३॥ जो जीविउ सम्बाहाँ हरह । जो स्वर-दूसण-कुल-स्वउ करई ॥४॥ सो र पहरन्तु केण धरिङ । खय-कालु इसासह) अश्यरिउ ॥५॥ परमागमु णीसम्बेहु थिउ । केवलिहिँ भासि आपसु किं ॥६॥ आलिवि वाहहि जिह महिल । जो संघालेसइ कोडि-सिल ॥ सो होसइ मनु साणणहो । सामिल विजाहर - साहणहों' ॥८॥
-
घत्ता
जम्ववहाँ अयशु णिसुणेप्पिणु धुणित कुमार भुभ-जुअलु । 'कि एवं पाहण-खण धमि स-सायरू धरणि-पलु' ॥६॥
[१५] तं णिसुणेषि वयणु परितुष्? । वुस जणणु वालि-कणि? ॥१॥ 'जं जं चहि देव सं सबळ । अण्णु वि एक करहि जइ पचड ॥२॥ सो हउँ निछु होमि हियाइरिङ्गाउ । सूरहों दिवसु व वेल परिसिउ' ॥३॥ संणिसुणेवि समर - दुस्सीहिं । णरवह शुश्माविउ मल-गीले हि ॥॥ 'जेण सरहिं खर-दूसण घाइय । पत्तिम कोकि-सिल वि उसाइय' ॥५॥ एम चवेवि चलिय विजाइर । य - काकाले गाई णब जलहर ॥६॥ लक्रमम-राम प्रधाविय जाणहि । घण्टा - अणि • झकार-पहाणे हि ॥७॥ कोरि-सिला - उसु पराइप । सिद्धं हि सिद्धि जेम णिमाइय ॥८॥
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उचालीसमा सोध [१४] तत्र इन बचनोंको सुनकर जाम्बवन्तने सुग्रीवसे निवेदन किया कि शत्रुपक्षके संहारकर्ता इसे आप मामूली आदमी न ममझे। यह जो कहते हैं कर दिखाते हैं । जिसने सूर्यहास खड्ग ग्रहण किया और जिसने शम्बूक कुमार के प्राण लिये, जिसने खर-दूषणके कुलका नाश कर दिया, युद्ध में प्रहार करते हुए उसे कौन पकड़ सकता है ? रावण के लिए मानो वह क्षयकाल ही अवतरित हुआ है। परमागम आज प्रमाणित हो गया है । केवलशानियोंने बहुत पहले यह आदेश कर दिया था कि जो कोटिशिला का संचालन बैसे ही कर लेगा जैसे कि कोई अपनी स्त्री को बांहों में भरकर आलिंगन कर लेता है, वही रावणका प्रतिद्वन्द्वी और विद्याधरोंकी सेना का स्वामी होगा। जाम्बवंत के इन वचनोंको सुनकर कुमार लक्ष्मणने अपना भुजकमल ठोककर कहा, "अरे एक पाषाणखण्ड से क्या, कहो तो सागर सहित धरती ही उठा लूं"॥१-६॥
१५] यह वचन सुनकर, सन्तुष्ट होकर बालिके छोटे भाई सुग्रीवने लक्ष्मण से कहा, "हे देव ! तुम जो कहते हो यदि वह सच है, तो इस बातको और सच करके दिखा दो तो मैं हृदय से तुम्हारा अनुचर हो जाऊंगा, वैसे ही जैसे सूर्यका दिन या समय अनुचर है।" यह सुनकर युद्ध में दुःशोल नल और नीलने सुग्रीव को समझाया कि जिसने बाणोंसे खरदूषणको आहत कर दिया है, विश्वास करो, वह कोटिशिला भी उठा देगा। यह कहकर विद्याधर चल पड़े। मानो नव पावस में मेघही चल पड़े हों। घंटाध्वनि और झंकारसे प्रमुख यानों पर राम-लक्ष्णको बैठाकर वे कोटिशिलाके प्रदेशमें पहुंचे वैसे ही जैसे सिद्धि सिद्धि का ध्यान करते हुए वहाँ पहुँचते हैं। वह शिला उन्हें ऐसी लगी मानो
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पउमचरित
पत्ता जा सयल-काल-हिण्डन्तहुँ हुअ वण-वास परम्मुहिम । सा एहि लक्षण-रामहुँ थिय सिय सवाम्मुहिय ॥६॥
लोयग्गहों सिक-सासय-सोखहो । जहि मुणिबरहुँ कोटि गय मोक्वहीं ॥१॥ सा कोजि-सिल सेहि परिमश्रिय । गन्ध - धूप-वलि-पुमहि अघिय ॥२॥ दिमम स-सझपवह किउ कलयलु । घोसिड सज-पथारु जिण-मनछु ॥३॥ 'जसु दुन्दुहि असोउ भामलु । सो अरहन्तु देउ सउ मालु ॥४॥ से गय तिहुअणग्गु तं णिकालु । ते सिद्धवर देन्तु सउ मालु ॥५॥ जेहि अगभग्गु जिउ कलि-मलु । ते वर-साहु देन्तु तउ मालु II जो छज्जाच-णिकायहँ वच्छलु । सो दय-धम्मु देउ तर माल' || गुम सु-माल उच्चारेपिणु । सिद्धचरहुँ णवकार करेपिणु 111 जय-जय-स? सिल संचालिय । रावण-रिद्धि णाई उहालिय ॥६॥ मुक्क पडवी करयल-ताडिय ! दहमुह-हियय-गण्ठि णं फाटिय ।।१०।।
. पत्ता परिसु. सुरवर लोण अय - सिरि-मायण-कहक्खणहों। पम्मुक स ई भु व-दप हि कुसुम-वासु सिर लक्षणहाँ ॥१॥
[४५. पञ्चचालीसमो सन्धि ] कोडि-सिलए संचालियएँ दहमुह-जीविड संचालि (4)। पाहे देवहि महियल गरेंहि आणन्द-तूर अफालि (4) ॥
रह - बिमाण • माया - सुरङ्गम- वाहणे । विजड घुटु सुम्गीवहाँ केर' साहले ||१॥
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उउयालीसमो संधि हमेशा विहार करनेदाइ हाम-लामा मलाका गित्य होकर सीता ही इस समय शिलाके रूप में सामने स्थित है ॥५-६||
[१६] जिस शिलासे करोड़ों मुनि शाश्वत सुख-स्थान मोक्षको गये थे, ऐसी उस शिलाकी उन्होंने परिक्रमा दी और गन्ध, धूप, नैवेद्य और पुष्पोंसे उसकी अर्चा की, फिर शंख और पदह बजाकर कलकल शब्द किया और चार मंगलोंका इस प्रकार उच्चारण किया--"जिसके दुन्दुभि अशोक और भामण्डल हैं वे अरहंत देव मंगल करें। जो निष्कल तीनों लोकोंके अग्रभागमें स्थित है वे सिद्धवर तुम्हें मङ्गल दे। जिन्होंने कलिमलको तरह कामको भी भङ्ग कर दिया है, वे बरसाधु तुम्हें मंगल दें, जो छह जीव निकायोंके प्रति ममता रखता है, वह दया-धर्म (जिनधर्म) तुम्हें मंगल २," इस प्रकार सुमंगलौका उच्चारयकर और सिद्धाको नमस्कारकर, जय-जय शब्दोंके साथ उन्होंने कोदिशिला ऐसे संचालित कर दी, मानो रावणको ऋद्धि ही उखाड़ दी हो। हाथसे उसे ताडितकर छोड़ दिया मानो रावणके हृदयकी गाँठ ही तोड़ दी हो। तब सुर लोकने भी सन्तुष्ट होकर जयश्री पानेवाले लक्ष्मणके ऊपर अपने हाथों से फूलोंकी वर्षा की ।।१-११।।
पैतालीसवीं सन्धि कोटिशिलाके चलित होने पर, गवणका जीवन भी डोल उठा, देवाने आकाशमें और मनुष्याने धरतीपर आनन्दकी दुंदुभि
बजाई।
[१] विद्याधरोंने हाथ जोड़कर रामका अभिनन्दन किया। योधाओं का समूह, विश्वम्भरके जिन-मन्दिरोंकी परिक्रमा और
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१४
पउमचरित एस्वन्तरें सिर लाइय करे। जोकारिउ बलु विजाहरेहिं ॥२॥ जगै जिणवर-भवण जाई जाई । परिधि मधि साइसाई ।।३।। पञ्जहु पढीवउ सुहर-पया । जिविसेण पतुः किकिन्ध-णयरु ॥४॥ प्रतिय कियई साहसई जइ वि । सुग्गीवहाँ मणे संदेहु सो वि ॥५॥ भहाँ जम्वत्र पारेउ महन्तु कासु । किं वययणही कि लक्खणासु ॥६॥ कहलासु तुलिउ एके पचण्डु । अण्णेथे पुणु पाहाण - खण्ड ।।७।। वडारड साहसु विहि मि कवणु । किं सुहगई किं संसार-गमणु॥८॥ जम्बवेण वुतु 'मा मणेण मुज्छु । किं भज्ज वि पडु सन्देहु तुम्छु ।।६॥
बहारउ वहन्तरेण परमागमु सम्बहों पासिर । जम्म-सए बि गरराहिया कि सुबह मुणिवर-भासिउ' ॥१०॥
[२] तं णिसुण धि सुग्गीवहीं हरिसिय • गत्तहो ।
फिट्ट भरित जिण-वयणे हि जिह मिच्छत्तहो ॥११॥ आगम - वलण उपलबएण । अनलोइड सेपणु कइद्धएण ॥२॥ 'किं को धि अखि एत्तिय माझे। जो खन्धु समोइ गरुम-चोझ ॥३॥ जो उज्जालइ महु तणउ वयागु । जो दरिसइ वसहाँ कलत्त-रग्रणु ।।५।। जो तारइ दुक्ख • महापई है। जो जाइ गसड़ जाणई हैं ॥५॥ तं णिसुवि जम्बर बघिउ एवं । 'हणुवन्तु मुवि को जाइ देव ॥६॥ णड जागहुँ कि आरुटु सो वि । जं णिहउ सम्मु खर दूसणो वि ॥७॥ संसेसु धरधि माझार - तणुउ । रात्रणहाँ मिलेसह णवर हणुड ॥८॥ जं जाणही चिन्तहाँ त पएस । तें मिलिए मिलियर जगु असेसु ॥६॥
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पप्रचालीसमो संधि बन्दना-भक्ति करके किष्किन्धा नगरी आधे पलमें हो चला आया। राम और लक्ष्मण यद्यपिइतने साहसका प्रदर्शन कर चुके थे फिर भी सुपोषके मनमें सन्देह बना रहा। उसने कहा, "अहो जाम्बवन्त बताओ महान चरित्र किसका हे, रावणका या लक्ष्मणका, एकने प्रचण्ड कैलाश पर्वत उठाया तो दूसरेने कोटिशिलाको उठा लिया । बताओ दोनोंमें साहसी कौन है ? कौन शुभ गतिवाला है,
और कौन संसाग्गाी है ?" तब जाम्बवन्तने कहा, "भनमें मूर्ख मत बनो, ऋया प्रभु तुम्हें आज भी सन्देह है। सबकी अपेक्षा परमागम (जिनागम ) बड़ेसे भी बड़ा है । हे राजन् , क्या सैकड़ा जन्मोंमें भी मुनिवर्गका कहा झूठ हो सकता है"।।५-६।।
[२] यह मुनकर हर्षित शरीर सुग्रीवके मनकी भ्रान्ति दूर हो गई । वैसे ही जैसे जिन वचनको सुननसे मिथ्याष्टिकी भ्रान्ति मिट जाती है । आगमके बलपर इस प्रकार ज्ञान प्राप्त हो जाने पर सुग्रीव ने अपनी सेनाका अवलोकन करते हुए पूछा, "क्या आप लोगोंके बीचमें ऐसा कोई वीर है, जो इस गुरु भारको अपने कन्धेपर उठा सकता हो, मेरा मुख उज्ज्वल कर सकता हो. नामको उसका स्त्रीरत्न दिखा सकता हो, जो इस दुख महानदीसे तार सकता हो, और जाकर सीता देवीको खोज सकता हो"। यह मुनकर जाम्बवन्त बोला, "हे देव, हनुमानको छोड़कर और कौन जा सकता है। यह मैं नहीं जानता कि वह भी आजकल हमसे रुष्ट क्यों हैं, शायद खरदृषण और शम्बूक मार जो दिये गये हैं। इस बोपको लेकर क्षीणमध्य हनुमान केवल रावणसे ही मिलेगा। जो जानते हो तो उसे लानेका उपाय सोचो। क्योंकि हनुमानके मिलनसे अशेप जग मिल जायगा। राम और रावणकी सेनामें
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४६
पउमचरित
। घत्ता विहि मि राम-रामण चलहुँ , एक वि वडिमउ ण दीसह । सहुँ जय-लरिष विजउ ताहि पर अहि इशुषन्तु मिलेसई ॥१०॥
तं णिसुर्णेवि किकिन्ध - राहिउ रशिक्षो ।
लस्छिमुन्ति हणुवन्तहाँ पासु विसजिओ ॥१॥ 'प? मुएँ वि अण्णु को चुद्धिचन्तु । जिह मिलाइ तेम करि कि पि मन्तु ॥२॥ गुण-वयनु हिं गम्पिणु पवण-पुत्तु । भणु "एस्थु काले रूसेंवि ण तु ॥३॥ खर- सण- सम्बु पसाहियात , अप्पणु दुश्चरिऍहिं मरण पत्र ॥४॥ जउ रामह िणड लक्खणही दोसु । जिह तहाँ तिह सवहाँ होररोसु ।।५।। भणु एसिएण झालेण : काई । चयहिहैं चरिपई विसुबाई ॥६॥ लक्षण- अँगा विरहास । -मा सायि बल" | सं वयणु सुर्णबि प्राणन्दु हूउ । श्रारूक विमाणे तुरन्त दूज ||८|| संचलित पुलय - विस-गसु । णिविसखे लकछीपयर पत्तु ॥।।
पट्टणु पत्रण-सुआहों तणउ थिउ इणुरुह-वी रवण्णउ । महियले केण वि कारण , समग-खानु अवइउ ॥१०॥
[४] लम्भुिति तं लच्छीणयरु पईसा।
बहरन्तु र्ज सुन्दरतं तं दीसाई ॥७॥ देउलवाड पण्णु पहिलाइ । फोप्फलु अण्णु मूलु चेडखाउ ॥२॥ जाइमन करहाड चुम्यउ । चित्तउड कड रवष्णड ३॥ रामउरङ गुलु सरु पठाणड । अइवर भुजा चह - जाणउ ॥४॥ अद्ध-वेस पिउ अन्धुम • केरर । जोवणु कण्णाइड सवियारउ ||५|| घेलर हरिकेलउ - सम्झायउ । वड्डायरउ लोणु विसायउ ॥६॥ वरायरउ बज मणि सिलु । णेवालउ फरथुरिय - परिमलु ॥७॥ मोसिय · हार-णियरु साज | खरु नसरउ तुरट केकाणउ ||८|| बर काविहि सुट्ट पउणारी । वाणि सुहासिणि णगुरवारी ॥६॥
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पश्चालीममो गमि एक भी बलवान नहीं दिखाई देता । हाँ जयलक्ष्मी के साथ विजय उसीकी होगी जिसके पक्ष में हनुमान होगा" ।।१-१०॥
[३] यह सुनकर किष्किन्धराज सुग्रीव प्रसन्न हो गया। उसने लक्ष्मीभुक्ति दूत को हनुमान के पास भेजा (यह कहते हुए) कि "तुम्हारे समान दूसरा कौन बुद्धिमान है। ऐसा कोई उपाय करो जिससे वह (पक्ष में) मिल जाए । जाकर, गुणों और वचनोंके साथ हनुमानसे कहो कि इस समय रूठना ठीक नहीं । प्रसिद्धि से रहित खर दूषण और शम्बू कुमार अपने खोटे आचरणों से मृत्यु को प्राप्त हुए । इसमें न रामका और न लक्ष्मणका दोष है। जिस प्रकार उन्हें रोष हुआ, उस प्रकार सबको रोष होता है। वाहना कि इस समय तक क्या तुमने चन्द्रनखा के आचरणों को नहीं सुना ? लक्ष्मण से अपमानित होकर, विरह से पीड़ित उस दुष्टा ने खर-दूषण को मरवा डाला।" ये वचन सुनकर दुत आनन्दित हुआ। वह तुरन्त विमान में बैठ गया। पुलकसे खिला हुआ शरीर बाला वह दूत आधे पलमें लक्ष्मीनगर पहुंच गया। हनुमान का नगर, हनुरुह द्वीप में सबसे सुन्दर था। वह ऐसा लगता था जैसे किसी कारण स्वर्ग ही धरती पर आ पड़ा हो।
[४] लक्ष्मीभुक्ति उस लक्ष्मीनगर में प्रवेश करता है, और घूमते हुए जो-जो सुन्दर है उसे देखता है। - पहला देवकुलवाट पर्ण था, दूसरा पूगफल मूल चैत्यकुल, जातिपुष्प करहाटक, चूर्णक चित्रकुटक, सुन्दर कंचुक, रामपुर, गुल सर प्रतिष्ठान, अत्यंत विशाल भुजंग बहुयान, अर्द्ध वेश्म प्रिय अर्बुद, केरक जोब्बण कर्णाटक सविकार, हरिफेल वस्त्र, सुंदर कांतिवाला, विशाल विख्यात लवण, वैदूर्यमणि, सिंहलका बज्रमणि, मोतियों के हारसमूह नेपालको कस्तुरीगंध, खर वज्जर,
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पउमचरिय
कवी-केर जयरु बिसिठ्ठड। वीणट गेरू विबहिंदि
४८
अष्णु इन्दु-वायरणु गुणि एम णथरु गढ़ विपणन्त
॥ ३० ॥
gpinang 1,29|||
भूजावड रायलु पवण-सुअों संपत ॥१२॥
धत्ता
सो परिहारिएँ णम्मयऍ सुग्गीव-दूर ण शिवारि 1
पाइँ महों णम्मएँ पिय-जलपवाहु पसारि ||१३||
ܒܙ
[4]
हि तेण दूरहों कि समीरणन्दणो । सिसिर फाल दिवस व णयणान्दणी ॥६॥
सिरिंसह गरेण निहा लियड | णं करि करिणिहि परिमालियउ ||२ || श्रीणविहाथी पाण-पिय ॥ ३ ॥
मेणाकुसुम
एकेत है एक फिडि तिय । वर सुभुन । यस सम्बुकुमारहों खरहों सुअ ||४|| अपकेह अक तिय । वर-कमल- विहत्थी नाइँ सिम ||५|| सा पयराय अभङ्गयहों । सुग्रीवहाँ सुन सस अङ्गयहाँ ॥ ६ ॥ विहिं पाहिं वे विवरण | कुवलय दल दीहर-लोयणउ ॥३॥ रेes सुन्दर भत्थु कि । विहिं सम्माहिँ परिमित दिवसु जिह ||८|| स्थन्तरें गुरुकु श रक्खियर । हणुवन्तों वृष अखि॥६॥ घत्ता
-
-
'खेमु कुसलु कलाणु जउ सुरगीयत्य-वीर हुँ ।
अकुसल मरणु बिणासु खउ खर-दूषण सच्चुकुमारहुँ' ॥१०॥
[.]
कहित सब्बु तं रूक्खण-राम-कहाण उं ।
॥19॥
दण्डया मुणि कोडि-सिला अवसा
तं सुचि अणङ्गकुसुम करिय पङ्कयराचाराय
-
भरिय ||२||
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४६
पळचालीसमो संधि केक्काणक, श्रेष्ठ कपिस्थि, पउणारी वाणी, नुभाषिणीनंदुरवारी, विशिष्ट कांची नगरी, चीनी वस्त्र, उन विदग्धोंने देखा। और भी, वहीं इन्द्रका व्याकर पढ़ा जा रहा। पास रागमें भान हो रहा था। इस प्रकार नगर को देवता हुआ, लक्ष्मीभुक्ति पवनसुतके राजकुल में पहुँचा । नर्मदा प्रतिहारीने आते हुए उस दूतको नहीं रोका। मानो नर्मदा ने महासमुद्र में सुग्रीवके अपने प्रवाहको प्रवेश कराया हो।" ॥१-१३।।
[५] उसने भी दूरले समीर-पुत्र हनुमानको देखा। मानो' शिशिरकालमें नयनानन्दकारी दिवाकरको ही देखा हो। दुतने हनुमानको ऐसे देखा, मानो हाथी हथिनियोंसे घिरा हुआ बैठा हो। एक ओर एक स्त्री वैठी थी । प्राणप्रिय उसके हाथमें बीणा थी। सुबाहुओं बाली उसका नाम अनंगकुनुम था। वह शम्बूककुमारकी बहन और बरकी लड़की थी। दूसरी ओर एक और स्त्री बैठी थी जो अपने सुन्दर करकमलोंसे ल मीकी तरह जान पड़ती थी। वह अभंग सुग्रीवकी लड़की और अंगदकी अन पंकजरागा थी। उन दोनोंके पास ही, मुन्दर अंगोंवाला, कुवलयदलकी तरह दीर्घनयन, बीच में बैठा हुआ हनुमान ऐसा मोह रहा था मानो दोनों संध्याओंके बीच में परिमित दिन हो। इसी अन्तरं में दूतने कोई बात छिपा नहीं रक्खी, हनुमान में सब कुछ कह दिया । उसने बीर सुग्नीव, अंग और अंगदके क्षेमकुशल, कल्याण और जयका (वृत्तान्त) बताया और खरदुषण तथा शम्बुककुमारका, अकुशल, अकल्याण, विनाश और क्षय बताया ॥ १-१०॥
[६] उसने राम-लक्ष्मणकी सब कहानी उन्हें सुना दी कि किस प्रकार दण्डकवनमें उन्होंने कोटिशिलाको उठा लिया। यह सुनकर अनंगकुसुम डर गई परन्तु पंकजरागा अनुराग से भर
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५.
पउमचरिउ
एकहे . पं बञ्चासणि पक्षिय । अषणेकह रोमावति चडिय ॥३॥ एक्का मणे णाई पलेवण: । अण्णेक्कहें पुणु घडावणउ || एक्क. समीर णिरचेण । भण्णेकहें अवगय - धेयप्पउ ।।५।। एकह हियबर पलु पल्लु लहसिट ! अण्णेवकहें पलु पल ओससिउ ।।६।। एक्को ओडुशिड मुह-कमल । अम्गेषकार बियलिउ अहर-दल ॥७॥ एक्कहें जल-मरियई लोगण' 1 अण्णेक्कह रहस - पलोयण ॥८ एक्क सरु घर-गेयहाँ तगड । अण्णेस्कह कलुणु रुवारणउ ||811 एक्कहें घिउ रायलु विमण-मणु । अण्णेकको वाइ पाई छणु ॥१०॥
घत्ता अड अंसु • जलोहिया अउ सरइसु रोमधिग्रड । राउल पदण-सुयहाँ तपन शं हरिस-विसाय-पणधियउ 100
[.] ग्वरहों धीय मुशाय पुणु वि पाविया ।
चन्दरोण पब्वालिय पञ्चुर्जाविया ॥१॥ अद्विय रोवन्ति अणकुसुम । णं चरण-लय उभिण्ण-कुसुम ॥२॥ 'हा साय केण विणिवाइओ सि । विजाहरु होन्तउ घाइभो सि ॥३॥ सूराण सूर जस-णिक्कर । विज्ञाहर - कुल-णहयल - मया ॥५॥ हा भाइ सहोदर देहि वाय ! विलयन्ति कासु पई मुक्क माय' ॥५॥ तं णिसुर्णेवि कुसलहि पथिएहि । सहस्य - सस्थ - परिचाएहि ॥६॥ 'किं ण सुउ जिणागमु जगें पगासु । जायहाँ जाबही सम्वहाँ विणासु ॥७॥ अल-विन्दु ओम घहले पडस्तु । जं दीसह साहसु महन्तु ॥ साहारु ण बन्धह एइ जाइ । भरत-अम्त णव परिय णाई ॥३॥
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पञ्चालीसमो संधि उठी । एक पर मानो वज्र ही टूट पड़ा हो तो दूसरी पर पुलक चढ़ आया। एकके मनमें प्रलाप उठा तो दूसरे के मन में बधाईकी बात आई। एकका शरीर निश्पनन हो गया तो दूसरीको समस्त वेदना चली गई । एकाका हृदय पल-पल में टूटने लगा, तो दूसरी पल-पल में आश्वस्त होने लगी। एकका मुखकमल कुम्हला गया, दूसरीका अधरदल हैंस उठा। एककी आँखों में पानी भर आया, दुसरी हर्ष से देख रही थी । एकका स्वर संगीतमय हो रहा था
और एक अन्य करुण विलाप कर रही थी। एकका राजकुल विमन हो उठा, दूसरीका पूर्णचन्द्रकी तरह बड़ने लगा। पवनपुत्र हनुमानके शरीरका आधा भाग आँसुओंसे आई हो रहा था और आधा हर्षसे पुलकित ॥१-११॥
[७] खरकी लड़की, बार-बार मूछित हो उठती । चन्दनका लेप करने पर उसे चेतना आई। वह विलाप करती हुई ऐसी उठी, मानो छिन्नकुसुम चन्दनको लता ही हो । "हे तात, तुम्हें किसने मार दिया। विद्याधर होकर भी तुम्हारा घात हो गया । शूरोंके भी शूर, अकलंक, यशस्वी, विद्याधरोंके कुलरूपी आकाशके चन्द्र, हे भाई, हे सहोदर, मुझसे बात.करो। हे माँ, मुन्न विलाप करती हुई को तुमने भी क्यों छोड़ दिया।" यह सुनकर शब्द-अर्थ और शास्त्र में पारंगत कुशल पंडितोंने कहा, "क्या तुमने जगमें प्रसिद्ध जिनागममें यह नहीं सुना कि जो जीव उत्पन्न होता है, उसका नाश भी अवश्य होता है ? जलबिन्दुकी तरह धुंधल में पड़े हुए जीव को जो पंछ दिखाई देता है, वहीं बहुत साहसकी बात है, उसे कोई सहाग नहीं चाँध पाता, आता और जाता है. वैसे ही जैसे
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पउमचरिड
घसा रोहि काई अकारण धीरवहि माएँ अप्पाणउ । अम्हाँ तुम्हहुँ अवाहु मि कहिबसु धि अवस-पयाणउ' ॥१०॥
[] खरही धीय परिधारविया परिवारण ।
मय-जलं च देवाविय लोयाचारणे ॥३॥ इहेरिसम्मि बेलए । परिहिए वमालए ॥२॥ समुट्टिोऽरिमणो । समीरणस्स गन्दणो ॥३॥ पलम्व-बाहु · पारी । निरङ्कुसो इन्द्र कुमरो॥४॥ महीहरस्म उपपरी । विरब व केसरी ।।५।। फुरम्त-रस . लोयणो । सणि ग्ध सावलीयणों ।।६।। दुवारसो व भक्खरो । जमो व विहि-णिट्ठुरो ।।७।। विहि म्व किञ्चिदुहिनो । ससि व अट्टमो ठिओ ॥८।। विहाफर म्व जम्मणे ! अहि स्व फर-कामणे ।।६।।
पत्ता 'मई हणुबन्ते कुएँण कहिं जीवित लावण-रामहुँ । दिवसें चउत्थएँ पहचमि पधैं खर-दूसण-मामहुँ' ॥१०॥
लच्छिभुत्ति पणिउ सुहि - सुमहुर - वायए ।
'एउ सन्धु किउ सम्बुकुमारहों मायए ॥१॥ देव गयण • गोयराएँ । कामकुसुम - मायरी ॥२॥ उबवणं पटुक्यिाएँ । सुअ - विशेष - मुकियाएँ ॥३॥ रावणस्य लहु . मसाएँ । काम · सर - परब्धसाएँ ॥४॥ लक्षणम्मि गय - मणाएँ । दिन : स्व . दात्रणाएँ ॥५॥
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पत्रचालीसम्मो संधि रहटयन्त्रमें लगी हुई नई घड़ियाँ आती जाती रहती हैं। तुम अकारण क्यों रोती हो। हे माँ अपनेको धीरज दो, हमारा तुम्हारा और दूसरोंका भी किसी-न-किसी दिन प्रयाण अवश्य होगा ||१-१०॥
[८] परिवारने भी खरकी पुनीन्हो धीरज गाया और लोकाचारके अनुसार, मृतजल भी उससे दिलवाया। इस तरहके कलकल ध्वनि बढ़नेपर शत्रुसंहारक, पवनका पुत्र हनुमान उठा, लम्बी बाहुओंसे पुष्ट ?, गजकी तरह निरङ्कुश, राजाके ऊपर सिंह की तरह ऋद्ध, फड़कते हुए नेत्रोंवाला, वह देखनेमें शनिकी तरह था । सूर्यकी तरह दुनिर्वार, यमकी तरह निष्ठुरदृष्टि, भाग्यकी तरह कुछ उठा हुआ, अष्टमीके चन्द्रकी तरह वक्र, जन्ममें बृहस्पति की तरह, कूरकर्ममै अहिकी तरह था वह । उसने घोषणा की, "मुझ हनुमानके क्रुद्ध होनेपर राम और लक्ष्मणका जीवन कैसे ( सम्भव है ) चौथे ही रोज मैं उन्हें खरदूषण मामा ( ससुर ) के पथपर भेज दूंगा ?" ||१-१०॥
[६] तब लदीभुक्ति दूतने अत्यन्त, श्रुतिमधुर वाणीमें कहा, “यह सब शम्युकुमारकी माँने किया है। हे देव, अनंगकुसुमकी माँ, विद्याधरी चन्द्रनखा, एक दिन उपवनमें पहुंची। रावणकी बहन उसका मन, वहाँ अपने पुत्र वियोगके दुखको भुलाकर, कुमार लक्ष्मणपर रीझ गया ! अपना दिव्यरूप दिखाते हुए उसने कहा, "मेरी रक्षा करो" परन्तु उन महापुरुषोंने उसकी
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पडमचरित
परहरं समझियाएँ । सुषुरिसेहिं धनिया ॥६॥ विरह - दार - भिम्भलाएँ । मण वियारिया खलाएँ ॥७॥ खरो स - दूसणो वि जेस्थु । गप रुमन्ति हुक तेल्धु ॥८॥ हे वि सम्खणम्मि कुश्य । सन्द - भक्खर ख उड्य ॥६॥ भिडिय राम - लक्षणा । जिह कुरा धारणा ॥१०॥ विपहुणा सहि भिण्ण । पडिय पायव च हिरण 11१॥ एसह वि रौँ थिरेण । णीय सोय . इससिरेण ॥१२॥ हरि वला वि वे वि सासु । गय पुरं विराहियासु 11३॥ एत्यु अवसरम्मि राउ । मिलिउ सायरस ताउ ॥१.४|| विर - भडो वि राहवेण । विणिहभो अलाइवेण ॥१५||
पत्ता तंकि कोरि-सिलुशरणु केवलिहि भासि जं भासिउ । अम्हहुँ जब रावणही खर फुड लक्षण-रामहुँ पासिउ ॥३६।।
[१०] कहिट सम्वु जं चन्दणहिहें गुण-कित्तणु ।
अनिल-पुत्तु लनाविउ घिउ हाणणु ॥१॥ जं पिमुणिउ कोडि - सिलुद्धरण ! अग्णु वि विसुग्गीवहीं मरणु ॥२॥ सं पक्षण - पुतु रोमजियउ । मडु जिह रस-भाव-पणचियउ ।।३।। कुलु मामु पसंसिड लक्षणहाँ । सुर-सुन्दरि - पायण-कडकखणहाँ ॥था 'सबउ णारायशु भहमउ । दहवयणही बन्दु व अहमउ ||५|| भायासुग्गाउ जेण वहिउ । हलहरु अट्टमउ सो वि कहिउ' ।।६।। मणु जाणवि हणुबन्तहों तणउ । अहाँ हियव वद्धावणउ ॥७॥ सिरु ण धि णिरारिउपिउ सबइ । सुगीठ देव पइँ सम्भरइ ॥८॥ अच्छह गुण-सलिल-तिसाइपड । ते हउँ हकारउ आइयउ ॥६॥
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पन्नचालीसमो संधि उपेक्षा कर दी, तब विरहसे विकल होकर उस दुष्टाने अपने स्तन विदीर्ण कर लिये और रोती-विसूरती हुई खरदूषणके पास पहुँची । वे दोनों भी तत्काल कुपित होकर, चन्द्र सूर्य की तरह प्रकट हुए । वे दोनों राम और लक्ष्मणसे उसी प्रकार भिड़े जिस प्रकार हरिणांका झुण्ड सिंहसे भिड़ता है। लक्ष्मणके तीरोंसे आहत होकर वे दोनों कटे पड़की तरह गिर पड़े। इधर रणमैं अविचल रावणने छलसे सीताका हरण कर लिया । तब वहाँ से राम और लक्ष्मण विराधितके नगरको चले गये । ठीक इसी अवसरपर अंगदके पिता सुग्रीव रामसे मिले । तब रामने शीन ही कपटी सुग्रीवको भी मार डाला | फिर उन्होंने उस कोटिशिलाको उठाया कि जिसके विषयमें केवलियोंने भविष्यवाणी की थी। अतः स्पष्ट है कि हमारी जय और रावणका क्षय राम-लक्ष्मणके पास है ।।१-१६॥
[१०] जब दूतने चन्दनखाके सब गुणोंका कीर्तन किया तो हनुमान लज्जित होकर मुख नीचा करके रह गया । और जो उसने कोटिशिलाका उद्धार तथा माया सुग्रीडका मरण सुना तो वह पुलकित हो उठा । और वह नटकी तरह रसभावोंसे भरकर नाचने लगा। उसने सुर-सुन्दरियोंसे दृष्ट लक्ष्मणके कुल नामको प्रशंसा की, राम ही वह आठवें नारायण हैं जो रावणके लिए अष्टमीके चन्द्रकी तरह वक्र हैं। माया सुपीवका जिसने वध किया, उसे ही आठवाँ नारायण कहा गया है। हनुमानके मनको बात जानकर, दूतका हदय अभिनन्दनसे भर आया । माथा नवाकर, निराकुल होकर उसने कहा, "देव, सुग्रीवने आपको स्मरण किया है । यह आपके गुणरूपी जलके प्यासे बैठे हैं,. उन्हींके कहनेपर
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पउमचरित
धत्ता पई विरहिट दुलालुल पुष्णालिई चिस व ऊणउ । ण वि सोहइ सुरगीच-बलु जिह जोधणु धम्म-विहणज' ॥१०॥
[११] गुड बोल णिसुणेवि समीरण-गन्दण ।
स-गउ स-धउ स-तुरन्मुस-भडु स-सन्दणु ॥१॥ स-विमाणु स-साणु पत्रण-सुउ । संघहिंउ पुलय - विसह-मुड || पचास हणुएँ संसजल वल । जं पास मेह-शाल स-जलु ।।३।। गं रिसह - जिणिन्द - समोसरण । णं जाण · समएँ देवागमणु | पं तारा - मण्डलु द्वामिज । णं गहें मापामर णिम्मविउ ॥॥ आणन्द - घोसु हगुवहाँ तण । णिसुणेषि दूरु कोड़ावणउ ॥६॥ पमयदया . साहणे जाय दिहि । घणे गलिए गं परितुद्ध सिहि || गस्वइ सुग्गाउ करेषि धुरै । किंय हह-सोह किकिन्ध-पुरै १८॥ कञ्चण • तोरणई णिवद्धा । परें घर मिहुणई समलखाई ॥३॥ घर घर परिहियई रवण्णाई । लोर परिपाणिय - सणाई ।।१०। लटु गहिय-पसाहण सयस गर । गिय सवडम्मुह अग्ध-कर ॥॥
पत्ता .. अम्बव-पाल-गालमाऍहि इणुबन्तु एस्तु जयकारिउ । गाण-चरितहि दलणे हि सिदा मोबा पासारित ॥१२॥
[१२] पइसरन्तु पुर पेलाइ हिम्मल-तारई।
घर पर जि मणि-काम-तोरण-घारई ॥१॥ चन्दण - पचराई सिरिम्पराई । पेक्खा पुराणाविह - भण्डाई ।।२।।
कम - करिय, - कप्पूरई । अंगक-गन्ध-सिहर • सिम्दाई ॥३॥
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पचालीसमो संधि
मैं यहाँ आया हूँ, आपके बिना सुग्रीवकी सेना उसी तरह नहीं सोहती जैसे पुंश्चलीका उछलता हुआ हृदय, आधार के बिना नहीं सोहता' और जैसे धर्म-विहीन यौवन नहीं सोहता” ॥१-११॥
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[११] तब पुल किलबाहु पवनपुत्र अपने विमान और सेना के साथ चल पड़ा। उसके चलते ही सैन्यदल भी चला। मानी पावस में सजल मेघसमूह ही उमड़ पड़ा हो, या ऋषभ भगवानका समवतरण हो, या केवलज्ञानके उत्पन्न होनेके समय देवागम हो रहा हो, या तारामण्डल उदित हुआ हो या नभ में मायामयी रचना हो । हनुमानका आनन्दघोष और कुतूहलजनक तुयं सुनकर कपिध्वजियोंकी सेना में आनन्द फैल गया, मानौ मेघके गरजनेपर मयूर सन्तुष्ट हो उठा हो । राजा सुग्रीवने आगे होकर, किष्किन्धनगरके बाजारकी कोभा करवाई। सोनेके तोरण दाँध गये, घर-घरमें मिथुन तैयार होने लगे । घर-घरमें सुन्दरियाँ रंगबिरंगे सुन्दर सुन्दर (वस्त्र) पहनने लगीं। शीघ्र ही सभी लोग सज-धजकर और हाथोंमें अर्घ्य लेकर सामने निकल आये । जाम्बवन्त, नल, नील और अंग तथा अंगदने आते हुए हनुमानका इस तरह जय-जयकार किया, मानो ज्ञान, दर्शन और चारित्रने ही सिद्धको मोक्ष में प्रविष्ट कराया हो ।। १-१२ ॥
[१२] नगर में प्रवेश करते हुए, हनुमानने घर-घर में निर्मलतार वाले मणि और सुवर्णके तोरणोंसे सजे द्वार देवे। नगर में उसने देखा कि चन्दनसे चर्चित और श्रीखंड (दही) से भरे, केशर कस्तुरी, कपूर, अगरुगन्ध, सुगंधित द्रव्य और सिंदूर से
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५८ .
पउमचरित कस्बइ कल्लरियहुँ कणिक्कर । णं सिरमन्ति तिया दिय-मुक्कड़ अइ-बष्णुजलाउ गउ मिट्टउ 1 गं वर-वेसउ वाहिर - मिट्टर ॥५॥ कधइ पृणु तम्बोलिय सन्यउ । णं मुणिवर-मई मभरघउ ॥६॥ अहवाइ सुर-महिला बहुलत्यउ । अण - मुहमुजालेचि समत्थर ||७|| कन्थइ पडियई पासा-जूभई । णहरइ पेक्षण व हह ।।।। मुणिवर इव जिण-णामु लयन्तई । वन्दिप इव सु-दाय मग्गन्तई १६॥ कथइ वर-मालाहर - माउ । णं गयरण काउ सुसस्थड ॥१०॥ कन्या लवण णिम्मल-सारइ । खल-दुजण-चयण व सु-खारई ॥1॥ कन्थह दुप्प . लेख-विमर्मालाई । णाई कुमित्तसणाई असरिसई ॥१२॥ कन्ध उम्मवन्ति पर-माणाई । जम-दूआ भाव-पमाण ।।१३।। कधइ कामिाड मय-मसउ ! णं रिह-वाहुलउ अधिय-कात्ता ॥१४॥ एम असेसु णया वणन्त ! मोत्तिय - सालि घूरन्सङ ॥१५॥ लीलाएँ पाइनु समीरण-णम्दणु । जहि हलहरु. मुग्गीउ जणदणु ॥१६६
धत्ता
. रामहों हरिह का द्वयहाँ हणुवन्तु कयअलि हत्यउ ।
कालहाँ जमहाँ सणिरछरहाँ ज मिलिर कयन्तु उस्था ॥१७॥
[१३] राहवेण वइसारिउ णिय-अखासणे । मुणिवरो व्य थिउ णिश्चलु मिणवर-सासणे ।।१।।
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पञ्चालीम संधि
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भरे घड़े रखे थे । वहीं मिठाई की दुकानों पर 'कन कन' शब्द हो रहा था, मानो प्रियों से मुक्त स्त्रियाँ ही कुन मुना रही हों। नई मिठाइयों अन्यंत उजले रंग की थीं, जो उत्तम वेश्याओंके समान बाहरसे मीठी थीं। कहीं पर तंबोलीकी दुकान थी जो मुनिवरकी मतिकी तरह मध्यस्थ ( तटस्थ और बीचोंबीच ( स्थित ) थी, अथवा अर्थ-बहुल देव महिला थी जो लोगोंका मुख उजला ( उज्ज्वल करने, रंगने) करने में समर्थ थी । कहीं जुए के पांसे पई हुए थे, जो नाट्यगृह और तमाशे के समान थे कहीं पर मुनिवरों के समान जिनेन्द्र का नाम लिया जा रहा था और कहीं पर बंदीजन के समान अपना दाय ( दांव, दाय) मांगा जा रहा था। कहीं कहीं पर उत्तम मालाओंकी दुकानें थीं मानो सूत्र और अर्थवाली व्याकरणको पुस्तक हों । कहीं-कही सुदर स्वच्छ तारक थे जो खलजनोंके शब्दोंकी तरह खारे थे। कहीं तेलसे मिले हुए घी थे मानो असमान खोटे मित्र हो । कहीं पर नरों के मान को उन्नमित किया जा रहा है, मानो आयुप्रमाण वाले यमदूत हों। कहीं पर मदमुक्त कामनियाँ थी तो कहीं अधिक रेखाओं वाली वृद्धाएँ। इस तरह समस्त नगर को देखता हुआ, मोतियों की रंगीली को चूर-चूर करता हुआ पवनपुत्र हनुमान लीलापूर्वक यहां प्रविष्ट हुआ जहाँ राम, लक्ष्मण और सुग्रीव थे । उनमें हाथ जोड़े हुए हनुमान ऐसा लग रहा था मानो काल, यम और शनिमें चौथा कृतान्त आ मिला हो ।।१- १७ ।।
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१३] रामने उसे अपने आधे आमनपर बैठाया। वह भी जिनवर शागत में मुनिवर की तरह निश्चल होकर उस पर बैठ
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पउमचरिउ
एकहिँ णिचिह्न हजुवन्त राम मण-मोहण णाएँ वसन्त-काम ॥२॥ जस्व सुग्गीच संहन्ति ते विणं इन्द्र-पविन्द व के वि ॥ ३ ॥ सोमिति - विराहिब परम मिस । शमि विणमि नाई थिर-थोर वित्त ॥४॥ अङ्गय सुइद्ध सहम्ति वे विं । णं चन्द्र सूर- प्रिय अपरेवि ॥ ५५॥ | पाल-नील-नरिन्द णिविट्ट कैम एक्कासणं जम बसवण प्रेम ॥ ६ ॥ गय-वय-गवणख वि रण-समन्य । णं वर पाणण अवर वि एक पचण्ड वीर । थिय पाहि पवर एथन्तरें जय सिरि-कुलहरेण । शृणुवन्तु पसंसिड
गिरिवरत्थ ||७||
→
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L
सरीर धार ॥ ८ ॥ इलहरेण ॥२॥
यत्ता
'अजु मणोरह अज्जु दिहि महु साहणु अशु पंचण्ड । चिन्ता-साय पडियमा दु
[ * ]
पवण- पुर्खे मिलिए मिलियड तलोक्कु वि । रिवहँ से ज्यों एग्रहों घुर धरण एकक वि' ॥१॥
सं निसुर्णे वि जयकार करतं । जाणड़-कन्तु वुसु हम ||२|| 'देव देव बहु-स्यण वसुन्धर । अस्थि एयु केसरिहि मि केसरि ॥३॥ जि अम्बव-जल-लिङ्गङ्गय गं मुक्कुस मन्त महाराय ||४|| विराहिय असुल-मक्ष जय-छन्त्रि-पसाहिब ||५|| सुहदेवकेक पहाणा ||६|| कुरमु जेह ||७||
जहिं सुम्गीवकुमार
गवय-गवख
समुण्णय माणा । अरण वि ह किर केहल | सीहहुँ म
वहिँ उ क
सों वि तुहार
अवसरु सारमि दे आसु
देव को मारमि ||
माणु मरदूद्ध कासु र भक्तड । जर्गे जस- पडछु सुहारउ वज्ज' ||६||
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पञ्चालीसमो संधि गया। एक ओर हनुमान और राम आसीन थे, मानो मनमोहन वसन्त और काम ही हों। जाम्बवन्त और सुग्रीव भी ऐसे सोह रहे थे मानो इन्द्र और प्रतीन्द्र दोनों ही बैठे हों, परममित्र लक्ष्मण और विराधित भी, स्थिर और स्थूल चित्त नमि-विनमिकी तरह लगते थे । सुभट अंग और अंगद भी ऐसे सोहते थे मानो चन्द्र और सूर्य ही अवतरित हुए हों। राजा नल नील ऐसे बैठे थे मानो एकासन पर यम और वैश्रवण बैठे हों। रणमें समर्थ गय, गवय और गवाक्ष भी ऐसे लगते थे मानो गिरिवरमें रहनेवाले मिह हों। और भी एक-से-एक विशालशरीर धीर प्रचण्ड वीर पाम बैठे थे। इसी अन्लरमें जयश्रीके कुलगृह रामने हनुमानकी प्रशंसा करते हुए कहा, "आज मेरा मनोरथ सफल है, आज मेरा भाग्य है. आज भेरी सेना प्रचण्ड है, क्योंकि आज ही चिन्तानागरमें पड़े हुए मुझे हनुमान रूपी नाव मिलो ।।१-१०।।
(१४) पवनपुरके मिलनेपर हमें त्रिलोक ही मिल गया। सत्रुकी मेना में इसका भार कोई भी धारण नहीं कर सकता।" यह सुनकर, जयकारपूर्वक, हनुमानने रामसे कहा, "देव देव ! इस
मुन्द्रगमें बहुनसे रत्न हैं। यहाँपर सिंहों में भी सिंह हैं। जहाँ जान्त्रबन्त, नान, अंग और अंगद निरंकुश मत्त और मदगजकी
रह हैं: जहाँ मुग्रीव, कुमार विराधित जैसे अतुल वीर जय. लक्ष्मीका प्रमाधन करने वाले हैं । समुन्नतमान गवय और गवाक्ष है, और भी अनेक एक से एक सुभटप्रधान हैं उनमें मेरी गिनती बनी ही है जैसी मिहों के बीच में कुरंग की। लेकिन तब भी आपके अवसरका निस्तार करूंगा। आदेश दीजिये किसे मारूँ, युद्ध में किसके नान और अहंकारको नष्टकर दुनिया में तुम्हारे यश का
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पडमचरित
पत्ता तं णिसुर्णेनि परिता कोण जम्बयण विषण सन्देसन । 'पूरै मणोरह राहवाहों वइदेहिह जाहि गसउ' ॥१०॥
[१५] तं णिसुणवि जयकारिंड सीरप्पहरणु ।
वेच देव जाएबङ केतिउ कारणु ।।१।। अण्णु वि बडारउ स-बिसेसट । राहव कि पि देहि आएसउ ॥२॥ जेण दसाणणु अम-उरि पावमि ! साय सुहारए करमल लावमि' ॥३॥ णिभुणेवि गलगजिउ हणुवन्तहाँ । हरिसु पनि जाणइ-कम्तहों ।।४।। 'भो भो साह साह पक्षमाइ । अण्णाहरे कासु चियम्भित छमाह ॥५॥ तो वि करेवउ मुणिवर -मासिउ । तहों खय-कालु कुमारहों पासित ॥६॥ ण वि पदण विमणवि सुग्गीवे । अधमेवउ समाणु दहगी ।।७॥ पवरि एक्कु सन्देसर जहि । जा जाय तो एम कहेजहि || बुखाइ "मुन्दरि तुज्म विमओए । झोणु करी व करिणि-विच्छोएं ।।१।। माणु खु-धम्मु व कलि-परिणामें । माणु सु-पुरिसु व पिसुणालावे ॥१०॥ झाणु मयनुघ वा-पक्ष क्सएँ । मीणु मुणिन्दुव सिद्धि का 111111 झागु दु-राउलेण वर-सु ब । अवह मन्में कह-कम्व-विसेसु च ॥१२|| भीष्णु सु-पन्धु च जण-परिचराउ । रामचन्दु सिह पई सुमरन्त" ॥१३॥
. घत्ता , अषण मि लाइ भरपलउ अहिणाणु समापहि मेरउ । भाणेजहि स भू सणड चूडामणि सीयाँ केरल ॥१॥
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पञ्चालीसमो संधि
डंका बजाऊँ।" यह सुनकर सन्तुष्टमन जाम्बवन्तने सन्देश देते 'हुए कहा, "राघवका मनोरथ पूरा करो, और जाकर सीताकी खोज करो" ॥१-१०।।
यह सुनकर हनुमानने राम (हलधर) का जय-जयकार किया (और कहा) "हे देव, हे देव, जाऊँगा, मह कितना-सा काम है। राघव, कोई बड़ा-सा विशेष आदेश दीजिये, जिससे रावणको यमपुरी भेज दूं और सीता तुम्हारी हथेलीपर ला दूं।" हनुमान की महगर्जना सुपर स: जीता) का हर्ष बढ़ गया। उन्होंने कहा, "भो भो हनुमान, साधु साधु, भला यह विस्मय और किसको सोहता है तो भी मुनिवरका काहा करना चाहिए। उसका (रावणका) विनाशकाल कुमार लक्ष्मण के पास है। इसलिए रावणके साथ लड़ना मेरे, तुम्हारे या सुग्रीवके लिए अनुचित है। हाँ, एक सन्देश और ले जाओ। यदि सीता जीवित हो तो उससे कह देना कि राम कहते हैं कि तुम्हारे बियोगमें बन हथिनीसे वियुक्त हाथीकी तरह क्षीण हो गये हैं। राम तुम्हारे वियोगमें उसी तरह क्षीण हो गये हैं जिस तरह चुगलखोरोंकी. बातोंसे सज्जन पुरुष, कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा, सिद्धिकी आकांक्षामें मुनि, खोटे राजास उत्तम देश, मूर्खमण्डली में कविका काव्यविशेष, मनुष्योंसे बजित सुपंथ, क्षीण हो जाता है । और भः उन्होंने अपनी पहचानके लिए अंगूठी दी है, और कहा है कि सीतादेबीका चूड़ा लेते आना ॥ १-१४ ।।'
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जं अस्थल
उचलधु राम
सन्देस |
गऊ कण्टयन्नु साथ अणुवन्तु गणेस ||
[2]
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मणि मऊ सायऍ जिणं देव णिम्मिए ।
सिखाए । रमणी चन्दे व णिम्मिए ॥१॥
घष्टा
चन्द्रसाल साला विसालए। टणटणन्त
धमालऍ ॥२॥ रणरणन्स क्रिक्किणि सुघोसए । धववयम्त घग्घर - णिघोस
||२३
धवल धववाडीय
उडण्ड
[ ४६. छापालीसमो संधि ]
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वस्त्ररे पत्रण
पण्डुरे । चारु मणि-मधारणे । मणि
"
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छत्त
मणिम
मणि पवाल मुसालि झुम्बिरे । भमिर
पड
महलुलोल तालए। जिणवरो
तर्हि विमाणे धड पण जन्दणो । चलिय जाइँ गई रवि स सन्दणो ॥ ६॥
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पेणुम्बे शियम्वरे ॥४॥
चमर पकभार भासुरे ||५||
कबाड-मणि - बार- तोरणे ।।६।।
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घत्ता
गण भिऍण बिजाहर
पवर गरिन्दों । गाइँ सरिवरेंण अवलोइड जयरु महिन्दहाँ ॥ १० ॥
[3]
चड दुवारु चउ-गोउरु चड - पायारु पण्डुरं ।
गयण
लग्ग पबणाय धय - मालाडलं पुरं ॥१॥ गिरि महिन्द सिहरे रमाउलं 1 रिद्धि विद्धि धण-धण्ण-संकुलं ॥२॥ तं निरवि इणुएण पुद्धिय रविदाम
चिन्तियं 1 'सुरपुरं - लोयनी । कइ हुँ
क्रिमिन्देण घत्तिये || ३ || लग्ग बिजावलोयणी ॥४॥
भमर परभार चुम्बरे ||७||
व सुरगिरि जिनालए ॥८॥
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छयालीसवीं सन्धि रामका सन्देश और अंगूठी पाफर, पुलकितशाहु हनुमान सीताकी खोज करने चल पड़ा।
[१] विमानमें बैठा हुआ वह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशमें रथसहित सूर्य ही जा रहा हो, उसका विमान मणि किरणांकी कांतिसे चमक रहा था, वह निशा चन्द्रके समान चन्द्रकान्त मणियोंसे जड़ा हुआ था। ऊपर, सुन्दर चन्द्रशालासे विशाल था। वह घण्टोंकी टन टन ध्वनिसे मंकृत हो रहा था । सनमुन करती हुई किंफिणियोंसे मुखर था। घर-घर और घर-घर शब्दसे गुंजित था, हषासे उड़ती हुई, ऊपर सफेद ध्वजाओंके विस्तृत आटोपसे नाच-सा रहा था। वह सनदाहसे उम्रत, सफेद सुन्दर चमरौके भारसे भारवर था । उसमें मणियोंके झरोखे, छज्जे, किवाड़ और तोरणद्वार थे, तथा मणियों और प्रवालों और मोतियोंके झूमर लटक रहे थे। महराते हुए भ्रमरों का समूह उसको चूम रहा था, मन्दराचल पहाइपर स्थित जिनालयकी जिनप्रतिमाकी तरह, वह, पटाह, मृदंग और उत्तालकसे साहित था । आकाशमें जाते हुए उसने विद्याधरोंके राजा महेन्द्रका नगर शनीचर की भाँति देखा | उसमें चार द्वार, चार गोपुर और चार परकोदे थे और वह उढ़ती हुई पताकाओंसे व्याप्त था ।।१-१०॥
[२] महेन्द्र पर्वतपर स्थित वह नगर लक्ष्मोसे भरपूर, और धनधान्य तथा ऋद्धि-वृद्धिसे व्याप्त था। उसे देखकर हनुमानको ऐसा लगा मानो इन्द्रने स्वर्गको ही नीचे गिरा दिया हो । पूछनेपर, कमलनयनी अवलोकिनी विद्याने कहा, "देव, इस नगरमें वही महासासी दुष्ट और हृदय राजा महेन्द्र रहता है, जिसने जनमनको आनन्द देनेवाले तुम्हारे प्रसवकालमें
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पउमचरित
'देव गम्भ - सामवे तुहारए । सम्ब - जण • मणाणन्छ- गारए ॥५|| जेण पहियं अण - पसूपणे ! वग्ध - सिम गय-संकुले चमे ॥६॥ सो पाइन्दु पिम्पन - हामो । बल एस्थ खल भू-माणसो ॥७॥ एह णार माहिन्द - णाममं । कामपुरि व पिम्मयि कामण' ।। तं सुणेचि बहु - भरिव - मच्छरो । मण - रासि गउ सणियारो ॥१॥
पत्ता
भमरिस · कुरण मणे चिन्सिउ 'गवणु विवजमि । भायहाँ पाहयने लइ ताम मसफर भामि ॥१०॥
तक्षणं जे पण्णति-वलेण विजिम्मिय बलं ।
रह-विमाण-माया-तुराय - जोह-संकुलं ।।१।। मेह • जाममिव विजुलुसलं । परह - मन्दलु दाम - गोन्दर्स ॥२॥ धुक्षुषन्त - सय - सङ्क- संघरं । धवल -इत्त - धुव्यम्स-धयवर ।।३।। मत्त-गिल-गिलोल - गप - घई । कष्ण • अमर - महन्त-मुहवर | हिलिहिलन्त - तुरयागणुरभई । तुष्ट - कुह - घर - सुहर-सार ।।५।। कलमालारउग्घुट . भर-घर । मसर-ससि - सम्बलि-षियावर ॥६॥ तं मिएवि पर पल-पलोहये । खोड जार माहिन्द-पडणे॥७॥ भर विल्व सण्णव दुद्धरा । परसु - चषक - मोमार -धोखरा | | वधु · परिकराकार भासुरा । कुरुर - विष्टि - दह्रोह-णिहुरा ।।६ .
घत्ता स-वल महिन्द-सुर सण, वि महा-भय-भीसशु । हशुषही मभिडिउ विम्मरिहे जेम हुआसणु ॥१०॥
मरु-महिन्द-मन्दण - पलाम जायं महाहवं । चारु-जप- सिरी-रामालिझण-पसर - लाहवं ।।५।।
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मानो विचार
र घरका
छायालीसमो संवि तुम्हारी माँ को, जनशन्य, वनगजों और सिंहोंसे संकुल जंगल में छुड़वा दिया। यह माहेन्द्र नामकी नगरी है जिस कामदेवने कामनगरी की तरह निर्मित किया है।" यह सुनकर, हनुमान बहुत भारी भत्स रसे भर उठा मानो शनीचर ही मीन राशिमें पहुंच गया हो । अमर्पसे क्रुद्ध होकर उसने विचार किया कि गमन स्थगिनकर पहले मैं युद्धम इस राजाका अहंकार चूर-चूरकर हूँ।१-१०॥
[३] उसने तत्काल विद्याके बलसे रथ, विमान, हाथी, घोड़ों और योधाओंसे संकुल सेना गढ़ ली, जो बिजली से चमकते हुए मेघजालकी तरह, परह और मृदंगोंसे अत्यन्त मुखर थी। बजते हुए सैकड़ों शंखोसे संघटित थी। धवल छत्र और उड़से हुए ध्वजपटोंसे सहित, मुख पर दानके चमरोंको डुलाते हुए, और मद झरते हाथियोंकी टासे व्याप्त, हिनहिनाते हुए अश्वमुखोंसे उत्कट, सन्तुष्ट और स्फुट शरीरवाले सुभटोंमे संकुल, और झसर, शविन तथा सव्वलसे व्याप्त उस मेनाको देखकर, शत्रुसेनाका संहार करनेवाले महेन्द्रनगर में क्षोभ फैल गया । दुर्धर कठोर योधा तैयार होने लगे । फरसा, चहा, मुदगर और धनुष लेकर, आकार में भयंकर सैनिक धेरे बनाने लगे। उनकी दृष्टि कठोर थी और वे निष्ठुर दाँतोंसे अधर काट रहे थे। महाभयसे भीषण, राजा महेन्द्रका पुत्र भी सेनाके साथ तयार होकर, हनुमानसे वैसे ही भिड़ गया मानो विध्याचल में आग लग गई हो ।।१-१०।।
[४] पवनजय और महेंद्रराजके पुत्रोंकी सेनाओंमें घमासान लड़ाई होने लगी। वे दोनों ही सुन्दर विजयलक्ष्मीका आलिगन करनेके लिए शीघ्रता कर रहे थे । आक्रमणकी हनहनाकार से युद्ध में
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परमटि
इशुव - हमहणाकार • भीसावणं । भेड़-दुग्धोध - संघE • लोहावा ॥२॥ खग्ग - खणखलाकार - गम्भीरयं । जाय-किलिविवि-गप्पन्त-घर-चारवं भिवधि-भूभाराकार • रसस्वयं । पहर-पदभार-वावार - हुप्पेयं ॥३॥ हर - मुकेश - दुधार लयं । दन्सि - दन्सग-लगाम्त-पाइयं ५५|| मिण-वत्यालुईस - विहलबलं । णीसरसम्त-मालावली - शुम्भलं ॥३॥ तेत्यु पट्टम्सए दारुणे भरणे । इणुव-माहिन्द अस्मिह समसा ॥७॥ वे वि सुण्डीर-सहाय-सकारणा । वि मायड्ग - कुम्भस्थालुहारणा || वे निणह-गामिणो वे वि विधाहरा । वे वि जस-कहिणो वे वि फुरियाहरा ।।
घत्ता
पवण-महिन्दनहुँ णिय-णिय वाहणे हि णिविद्वहुँ । गुज्झु समरिमजिउ णावह हयगीव-सिविदाहुँ॥१०॥
[५]
तहि महिन्वणन्वर्णण विरुदं परम-अभिडे । ___ यरहरम्ति सर-धोरणि लाइब हाव-श्यबजे ॥ ३१॥ पाहणा वि विउ - वाण-जालयं । णिसि-खएँ व रविणा तमालयं ॥२॥ बहुमतुल - माया - दवग्गिणा । मोह-जालमित्र परम-जोग्गिणा ॥३॥ उलइ मह-यलं अलण-दीवियं । पर-वलं असेसं पलीवियं ॥४॥ कहाँ वि बकासु वि धयग्गयं । कहाँ वि पजलिय उत्तमङ्गत्यं ॥५॥
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छायाकोसमो संधि
६३
भीषणता बढ़ रही थी। बलिष्ठ गजघटा संघर्षमें लोट-पोट हो रही थी। खतोंकी खनखनाहट भयंकरता उत्पन्न कर रही थी । किलविडी वरवीरोंके उरमें घुसेड़ी जा रही थी। उनकी भहिं और उनकी भंगिमा विकट आकार को थीं। आँखें लाल हो रही थीं। प्रहारोंके प्रकृष्ट भार और व्यापारसे वह संग्राम दुदर्शनीय हो उठा था । योधागण हलकार हुँकार और ललकार में व्यस्त थे । गजोंके दंताय पदाति सैनिकोंको लग रहे थे। वक्षःस्थल विदीर्ण होनेसे उनके अंगअंग विकल थे। निकली हुई आँतों की मालाओं से वह युद्ध व्याप्त था। ऐसे उस अत्यन्त भयंकर युद्धमें हनुमान और माहेन्द्र दोनों आपस में जा भिड़े। दोनों प्रचण्ड आघातोंसे संहार कर रहे थे । दोनों ही गज के कुम्भस्थल विदीर्ण कर रहे थे। दोनों आकाशगामी विद्याधर थे। दोनों यशके इच्छुक थे। दोनोंके अधर काँप रहे थे । इस प्रकार अपने-अपने आतंकी मालासे वह युद्ध व्याप्त हो रहा था । ऐसे उस अत्यन्त भयंकर युद्धमें हनुमान और माहेन्द्र दोनों भिड़ गये। दोनों ही प्रचण्ड आघातों से संहार करनेवाले थे, दोनों ही अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ होकर त्रिविष्टप और प्री की तरह लड़ने लगे ॥१-१०॥
[५] तब पहली ही भिन्तमें महेन्द्र पुत्रने एक दम विरुद्ध होकर हनुमानके ध्वज-पटपर तीरोंकी थर्राती बौछार छोड़ी। परन्तु हनुमानने उसके तीर जालको उसी प्रकार नष्ट कर दिया जिस प्रकार निशान्त होनेपर सूर्य अन्धकार के पटलको नष्ट कर देता है, जैसे परम योगी मोहजालको खाक कर देता है वैसे ही मायावी आगसे उसने उसके तीरोंको नष्ट कर दिया। भागसे प्रदीप्त होकर आकाशतल जल उठा । समस्त शत्रु सेना नष्ट होने लगी । कहीं किसीका छत्र था तो कहीं किसीकी पताका का अप्रभाग |
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पडमचरित्र
कहाँ वि कवड फासु कविवर्य । कहो कि कमयं संकरियायं ॥५॥ एम पवर - हुअचाह - मुलुधियं । रिउ - वलं गयं रेण - बलिय ॥un णवर एक्कु माहिन्दि थकलो । केसरि व केसरि हुम्भो ॥८॥ वाणाधु सन्धइ ण जाहि रोसिएण इणुएण साहिं ॥
घत्ता
कपण-समुज्जलं हि तिहि सरहि सरासणु तारिउ । दुञ्जण-हियउ जिह उछिन्दै वि धणुषरु पार्दिउ ।।१०।।
[६]
अवरु चार किर गेहद जाम महिन्द-णंदणो।
मरु-सुषण बिच सिउ ताव सरेहि सन्दणो ॥१॥ खण्ड-खण्ड-किए रहवरावचिए । वा-तुराम-जुम् परिम् भय-गीबए ॥२॥ मोडिए इस-दणे घए छिण्णए । लहु विमाणे समारहु वित्यिष्णए ॥३॥ तं पि हणुवेण दाणेहि णिण्णासियं । गरप-बुक्खं व सिद्धेहि विखंसियं ॥४॥ जिग्गओ विप्फुरन्तो णिरत्थो गरो। णाई जिम्गन्ध-रूमो थियो मुणिवरो।५।। पवण-पुत्रोण घेण रिउ वदओ । वर-भुयङ्गु ब्व गरुडेग उदुओ ॥६॥ पु वेहे सुए सबरवावारिओ । भणिल-पतो महिन्देण हकारिभो ॥७॥ अअप्या-पियर- पुसाण दुरिसणो । संपहारो समालम्सु भय-भासणी ॥८॥ ग्वग्ग-तिक्वा -वर-मोमारुगामणो । सेवा- वापस - मलाइ-सहावो ॥
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छापालीसमो संधि कहौंपर किसीका सिर जलने लगा, कहीं किसीका कवच और कटिसूत्र । कहीं किसीका, शृंखलासहित कवच खिसक गया । इस प्रकार आगकी प्रचण्ड ज्वालामें शत्रुसेनाकी नाक घूमने लगी? केवल महेन्द्र-पुत्र ही शेप रहा । वह पवनपुत्रके पास इस प्रकार पहुँचा मानो सिंहके पास सिंह पहुँचा हो । वह जब तक अपने वरुण तीरका संधान करता तब तक पवन-पुत्र हनुमानने रुष्ट होकर अपने स्वर्णिम तीरोंसे उसे आहत कर दिया । तथा दुर्जनके हृदयकी तरह उसके श्रेष्ठ धनुषको छिन्न-भिन्न कर गिरा दिया ॥१-१०॥
[६] और जब तक महेन्द्रपुत्र दूसरा धनुष ले, तबतक हनुमानने तीरोंसे उसका रथ छेद डाला । उसके श्रेष्ट स्थकी पीठ टुक-टूक होने पर, जुते हुए अश्व गिर पड़े। छत्र-दंड मुक गया। पताका छिन्न-भिन्न हो गई। तब महेन्द्रपुत्र दूसरे विमानपर जाकर बैठ गया । किन्तु पवनपुत्रने उसे तीरोसे उसी प्रकार नष्ट कर दिया जिस प्रकार सिद्ध पुरुष नरकके घोर दुखोंको नष्ट कर देते हैं ।।१-४॥
तब महेन्द्रपुत्र अस्त्रहीन होकर ही तमतमाता हुआ निकला, अब वह निग्रंथ मुनिको भाँति प्रतीत हो रहा था । किंतु हनुमानने उसे आहतकर बाँध लिया। उसे उसने वैसे ही उठा लिया जैसे गरुड पक्षी साँपको उठा लेता है । इस प्रकार अपने पुत्रके आहत ओर बद्ध हो जानेपर राजा महेन्द्रने युद्धरत पवनपुत्र हनुमानको ललकारा, और प्रहरणशील दुर्दर्शनीय और भयभीषण वह, अंजनाके प्रियपुत्र हनुमानसे आकर भिड़ गया। उसके हाथ में खड्ग, और नुकीले तेज मुद्गर थे। खेल बावल और मालेसे
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पहाडि
घता पदम-भिडन्तरण सर-पार मुक्कु महिन्ने । विष्णु काऍण जिह भव-संसारु जिणिन्दै on
[-] छिण्णु जं जें जर-पारु रणउहें पवण-जाऍण ।
धगधगम्नु अग्गेड विमुक्कु महिन्द-राए ||३n दुधन्तु जालसणि-घोसणो । जलजालन्तु जालोनि-भोसणी ॥२॥ दिट तु वाणु जे पवण-पुतणं । बारुणयु मेखिउ तुरन्सणं १३॥ जिह घण गलगञ्जमायणं । पसमिओ वि गिम्भो व गाए ॥३॥ वायबो महिन्देण मेलिनो । पवण-गुल सेण वि ण भेल्लिो ॥५॥ चाव-लटि पावि तुरन्तेणं । वर-महद्दुमो विप्फुरन्तैणं ॥६॥ मेशिभो महा - वहल • पसलो । कठिण - मूलु थिर • भोर-गत्तलो ॥॥ खण्ड खण्ड किउ पवन - पुतपं । कुकइ - कम्व - बन्यो न धुतणे मा पवर मुक्कु महिहरू विरुद्ध गं । लो बि छिष्णु णरउ व सिद्धणं ॥६॥
पत्ता
जं जं लेइ रिउ सं २ इणुवन्तु पिणासइ । जिह मिक्खणहाँ करें एक्कु वि अस्थुम दीसह ॥१०॥
[-] अक्षणाएँ जणणेण विलक्खीहूय- वित्तणे ।
गम विमुक भामेप्पिणु कोषागल-पलिसणं ॥१॥ तेण लडडि - दाहियाऍणं । तरूवरो यस पाडिउ दुवाणं ॥२॥ गिरि व वाजणं दुणिवारणं । अपिल - पुतु तिह गय-पहारणं ॥३॥
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वापानीसमो संधि सचमुष वह आशंका उत्पन्न कर रहा था। पहली ही भिड़तमें राजा महेन्द्रने सीरॉकी बौछार को । किन्तु कपिध्वज हनुमानने उसे वैसे ही जद दिया जिस प्रकार जिनन्द्र भष-संसारको खेद देते हैं ॥१-१०॥
E.] युद्ध-मुखमें जब हनुमानने इस प्रकार तोरीको नष्ट कर दिया तब राजा महेन्द्रने धकधक करता हुआ आग्नेय बाण छोड़ा तब हनुमानने भी लपटें उड़ाते बमघोष करते हुए ज्वालमालासे भीषण उस तीरको देखकर, सुरन्त अपना वारुण बाण छोड़ा। उसने आग्नेय वाणको वैसे ही ठंडा कर दिया जसे गरजता हुआ मेघ ग्रीष्म कालको ठंडा कर देता है। राजा महेन्द्रने वायु बाण जोड़ा, पवनपुत्र उससे भी नहीं डरा। तब उसने अपनी चापयष्टि डालकर और तमतमाकर, मज़बूत जड़वाला स्थिर तथा स्थूल आकारका प्रचुर पत्तोंवाला विशाल वट वृक्ष फेंका | किंतु हनुमानने उसके भी वैसे ही सौ टुकड़े कर दिये जैसे धूर्त कुषिके काव्यबंधके टुकड़े-टुकड़े कर देता है। तब राजा महेन्द्रने पहाड़ उछाला परन्तु हनुमानने उसे भी वैसे ही काट दिया जैसे सिद्ध नरकको काट देते हैं । इस प्रकार राजा जो भी लेता हनुमान उसे हो नष्ट कर देता उसी प्रकार जिस प्रकार लक्षणहीन व्यक्तिके हाथमें प्रत्येक अर्थ नष्ट हो जाता है ॥१-१०॥
[=] यह देखकर अंजनाका पिता राजा महेन्द्र अपने मनमें व्याकुल हो उठा। उसकी कोधाग्नि भड़क उठी। उसने घुमाकर गढ़ा मारी । उस लकुटिदंडके प्रहारसे हनुमान उसी प्रकार गिर पड़ा, जिस प्रकार दुर्वातसे वृक्ष गिर पड़ता है। उस गदाके प्रहारसे हनुमान जसी तरह गिर गया जिस प्रकार दुर्निवार वाके आघातसे पहाड़। हनुमानके इस प्रकार गिरनेपर आकाश
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पठमचरिट
णिवरिए सिरीसेले विम्भलें । जाय वोल सुरवरद णाहयले ॥ णिप्फलं गयं इणुष- गणियं । बण - समूहमिद सलिल - पबियं ॥५॥ राम · इक ण साहियं । जापई बयणं ण चाहियं ॥६॥ रावणस्स वर्ण विणासियं । विहलु आसि विलिहि भासियं ॥७॥ एव घोरल सुर-सत्य जाहिं । इणुउ हर सीड साहि ॥८॥ उडिभी सरासण - विहस्थो । सरपरेहिं किड रिट शिरस्थली ॥६॥
पत्ता मण्ड कइपण सर-पम्बरें छुवि रखा। धरिउ महिन्दु रण गं गङ्गा - बाहु समुः ॥१०॥
कुखरण सम मायः . प . इंगा।
धरिय वे वि माहिन्दि · महिन्द कइद्ध- केउणा ॥१॥ माणु मलेषि करवि कामहणु । चलोहि परिड सारण- णदणु ॥२॥ 'अहाँ माहिन्ध मात्र मरुसेनहि । जं विमुहिउ तं सपल खमेजहि ॥३॥ अहाँ अहाँ ताय ताय रिउ-भक्षण । जिय-सुथ तं वासरिय किमजण ||४|| हउँ सह तणड तुझ दाहित्तड । णिम्मल - चंसु समुज्जल- गोसउ ।।५।। भग्गु मरट्टु जेण रपों वरुणहाँ। हउँ हणुवन्तु पुस्त तहाँ पवणहाँ ५६।। पेसिड अब्भत्थें वि सुग्गी । रामहाँ हिड कलस पहनी 11७।। दूअ-काज संचल्लिड जाहिं । पट्टणु दिछु नुहारड ताहि ॥८ माया - बहरु असेसु विदुझिउ । ते तुम्हहिं समाणु मह अम्किउ' ॥६॥
घत्ता तं णिसुने वि चयण विजाहर - णयणाणन्दें। णेह - महाभण मारुइ अवगढ़ महिन्दे ।।१०।।
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भावातीसमो संधि सलमें देवतालोगोंमें बातें होने लगी-"अरे निर्जल मेघकुलके समान हनुमान फा गरजना व्यर्थ गया । रोमका न तो वह दौत्य ही साध सका, और न उन्हें सीता देवीका मुख दिखा सका। रावणके वनका नाश भी नहीं किया अतः केवलज्ञानियोंका कहा हुआ विफल हो गया। जब सुरममूहमें इस प्रकार पार्ने हो रही थीं कि इतनेमे हनुमान फिरसे तैयार हो गया। हाथमें धनुष लेकर वह उठा और तीरोंसे उसने राजा प्रवादको निरख कर दिया। रौद्र कपिध्वजी हनुमानने सहसा युद्धमें तुब्ध होकर अपने तीरोंकी बौछारसे राजा प्रह्लादको उसी प्रकार अवरुद्ध फर दिया जिस प्रकार गंगाके प्रवाहको समुद्र अवरुद्ध कर देता है ।।१-१०॥
.[] इस प्रकार माताकी शत्रुताके कारण ऋद्ध होकर हनुमानने युद्धप्रांगणमें हो राजा प्रसाद और उसके पुत्र महेन्द्रको पकड़ लिया। इस प्रकार मानमर्दनकर और संहार मचाकर हनुमान राजाके चरणों में गिर पड़ा। वह बोला, "राजन् , मनमै बुरा न मानिए । जो कुछ भी मैने बुरा किया है उसे क्षमा कर दीजिए । अरे शत्रुसंहारक तात, क्या तुम अपनी पुत्रो अंजनाको भूल गये। मैं उसीका पुत्र, तुम्हारा नावी हूँ। मेरा वंश निर्मल
और गोत्र समुज्ज्वल है। फिर मैं उसी पवनञ्जयका पुत्र हूँ जिसने युद्ध में वरुणका अहंकार नष्ट किया था। सुग्रीवने रावणसे अभ्यर्थना करने के लिए मुझे भेजा है। उसने रामकी पन्नीका हरण कर लिया है। मैं दूतकर्मके लिए जा रहा था कि मार्गमें आपका नगर दीख पड़ा । बस, मुझे माताजीके वैरका स्मरण हो आया । इसीसे आपके साथ युद्ध कर बैठा हूँ। यह सुनते ही विद्याधरीके नयनप्रिय राजा महेन्द्र ने. स्नेह-विह्वल होकर हनुमानका जीभर आलिजन किया ॥१-१०||
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पचमचारर
[..3 'साहु साहु भो सुन्दर सुउ सबउ जापवणहो ।
पईमुएवि मुहरसा मजहाँ होइ कपणहो ।।१।। जो सच - साम - सखेहि अस - मिलन ।
जो उभय-कुल- दीयको उमय- कुल-तिल ।।२।। जो उभय - बंसुज्मको ससि वयफलकु ।
जो सीइबर - विक्कमो समरें णांस ॥३॥ जो दस - दिसा - वलय - परिचस-य-णामु
जो मस - माया - कुम्मायालायाम् ॥ जो पचर - जयलग्नि - मालिसणाबासु
जो सबल - पदिवाख-दुपेक्ख-णिप्णासु ॥५॥ जो कित्ति - रबमायरो अस - जलावत
सोम - मरमाणो अतिरी - ॥६॥ जो सयण · कप्पदुमो सब · अचलेन्दु
जो पथर • पहरण - फडा-बोय-भुभाइन्दु ॥७॥ जो माण · विम्महरि अहिमाण - सप- सिहरु
धणुवेय - पश्चाणणो वाण - णड-णियर ॥८॥ ओ अरि - कुरोह - णिचण - दुग्धोट्टु पशिवाख-जलवाहिणी-सिमिर-अल-घोट्टु |
वत्ता जो केण बि ण जिउ मासा - कला - विवजित । सो हउँ आइपणे पह ए णवरि परजिउ' ॥१०॥
[1] प3 घयणु णिसुप्पिणु दुसमन्दणु-षिमणो ।
'कवण एस्थु किर परिहयु' भणइ घणारिणन्दणो ॥१॥ 'नुहुँ देव दिवायर तेय-पिण्हु । हउँ कि पि तुहारउ किरण-सण्हु ॥२॥ तहुँ वर-मयलन्छणु भुवण-तिलाउ । हउँ कि पि सुहारड जोण्ड-णिलउ ॥३॥ नुहुँ पवर - समुदु समुह-सारु । हउँ कि पि सुहारउ जल-नुसार ॥४॥ नुहुँ मेरु - महीहरु महिहरेसु । हउँ कि पि सुहारउ सिल-णियेसु ॥५॥
OFF
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छायालीसमो संधि [१०] वह बोला, "साधु-साधु, तुम पवनञ्जयके सच्चे पुत्र हो, तुम्हें छोड़कर, और किसमें इतनी वीरता हो सकती है, जो सैकड़ों शत्रु-युद्धोंमें यशका निकेवन है, जो दोनों कुलोंका दीपक और तिलक है, जो दोनों कुलोंमें उज्ज्वल और चन्द्रकी तरह अकलंक है, जो सिंहकी तरह पराक्रमी और युद्ध में निडर है, दसों दिशाओंके मण्डल में जिसका नाम विख्यात है, जो मदमाते हाथियोंके कुम्भस्थलोंका भुकानेवाला और जो प्रषर विजयलक्ष्मीके आलिशनका आवास ही है । जो सकल शत्रसमूहका दुर्दर्शनीय संहारक है, जो कीर्तिका रत्नाकर, यशकाजलावर्त, विजयलक्ष्मीका प्रिय वीरनारायण, सज्जनोंका कल्पवृक्ष, सत्यका मेरु, प्रवर प्रहार फनोंके धरणेन्द्र, मानमें विंध्याचल, जो अभिमानमें शिखर, धनुष धारियोंमें वाण-रूपी नखाँके समूहसे सहित सिंह, शत्रुरूपी मृगोंके लिए महागज, और जो शत्रुसेनाके जलका शोषक है, आशंका
और फलंकसे रहित जो तब तक किसीसे भी नहीं जीता जा सका, यह मैं भी आज तुमसे पराजित हो गया ॥१-१०॥
[११] यह वचन सुनकर, दुर्दम दानव-संहारक हनुमानने कहा, "तो इसमें पराभवकी कौन-सी बात, आप यदि तेजपिण्ड दिवाकर हैं और मैं आपका ही थोड़ा-सा किरण-समूह हूँ, भाप भुवनतिलक चन्द्र हैं, मैं भी आपका ही छोटा-सा ज्योत्स्नानिकेतन हूँ, आप श्रेष्ठ महसमुद्र है और मैं भी आपका ही एक जलकण हूँ, आप समस्त पर्वतोंमें मन्दराचल है और मैं भी एक
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७E
परमचरित
नुहुँ केसरि घोर-रउद्द - गाउ । हउँ कि पि तुहारउ ह - णिहाउ ॥६॥ नुहं मत्त - महाड दुणिक्षारु । हरें कि पि सुहारउ भय-वियारु ॥७॥ नुहुँ माणस - सरवरु सारविन्दु । हउँ कि पि तुहारउ सलिल बिन्दु ॥ तुहुँ वर तित्थयर महाणुभाउ । इउँ कि पि तुहारउ क्य-सहा ॥१॥
पत्ता
को पडिमल्लु तउ तहुँ केणश्वरेणोहउ । णिय पह परिहरइ कि मणि चामियर-णिवन्द' ॥१०॥
[१२] कह वि कह वि मणु र्धारित विज्ञाहरणरिन्दहो ।
'ताय ताय मिलि साहणे गम्पिणु रामचन्दहो ॥३॥ बारउ किन उसयार तेण । मारिउ मायासुफीड जेण ॥२॥ को सका तहाँ पेसणु कोवि । मिलु रामहाँ मस्छरु परिहरेवि ॥३॥ उक्यारु करेबउ मह मि तासु । बाएवउ लाहिवहाँ पासु' ॥५॥ हणुयहाँ एयह वयणहूँ सुणेवि । माहिन्दि- महिन्द पयट्ट वै वि ॥५॥ सुमगांव-गयरु जिविसेण पत्त । वलु पुछा 'हु को जम्बवन्त ॥६॥ किं ववि पटीवर पवण-जाऊ । असमत्त- फज्नु इणुबन्त आउ' ॥७॥ मन्तिण पषुप्त गरवर-मइन्दु । अक्षण, वप्पु पंहु सो महिन्दु' ॥८॥ वरू जम्वद वे वि चवन्ति जाम । सवधम्मुहु आठ महिन्दु ताम ||
वत्ता हलहर । सेपरहि सञ्चाहिं एकेक - पचपहिं । अगधुवाइयउ विध-कढिण स ई भु च-दयहि ॥१०॥
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छायालीसमा संधि चट्टानका टुकड़ा हूँ, आप घोर गर्जन करनेवाले सिंह हैं और मैं छोटा-सा नखनिघात हूँ | आप महागज हैं और मैं भी आपका ही थोड़ा-सा महा विकार हूँ। आप कमलोंसे शोभित मान सरोवर हैं और मैं भी आपका ही छोदा जलकण है। आप महानुभाव श्रेष्ठ तीर्थकर हैं और मैं भी आपका कुछ-कुछ ब्रत स्वभाष हूँ | आपका प्रतिमल्ल कौन हो सकता है, आप किससे पराजित हो सकते हैं । सोनेसे जड़ा हुआ मणि क्या अपनी आभा छोड़ देता है !" ॥१-१०॥
[१२] तब हनुमानने किसी तरह राजा महेन्द्रको धीरज बँधाकर कहा, "तात तात, चलकर रामचन्द्रकी सेनामें मिल जाइए | उन्होंने छमारा बहुत भारी उपकार किया है। क्योंकि उन्होंने दुष्ट मायासुप्रीषको मार डाला है । भला उनकी सेवा कौन कर सकता था । अतः आप ईया छोड़कर रामसे मिल जायें । मैं भी उनका उपकार करूँगा। मैं लंकानरेशके पास जा रहा हूँ हनुमानके इन वचनोंको सुनकर राजा महेन्द्र और माइन्हें दोनों तुरन्त बल पड़े। वे एक पलमें ही सुग्रीव राजाके नगरमें पहुँच गये । रामने (उन्हें आते देखकर) जाम्बवन्तसे पूछा कि ये कौन हैं । कहीं काम समाप्त किये बिना ही हनुमान लौटकर तो नहीं आ गया है। इसपर मन्त्रीने उत्तर दिया कि यह अंजना देवीके पिता महेन्द्र राजा हैं। जब तक राम और जाम्बवन्तमें इस प्रकार बातें हो रही थी तब सक राजा महेन्द्र उनके सम्मुख ही आ पहुँचे । रामके एकसे एक प्रचण्ड सेवकोंने अपने कठोर और दृढ़ भुजदण्डोसे राजाको (शुभागमन पर) अर्घ्यदान किया।
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[४७. ससचालीसमो संधि ]
मामह पबर-बिमाणासमा अहिणष-जयसिरि-बहु-अवगूवउ सामि का संचालु महाइउ लील' दहिमुह-दीउ पराइउ ।।
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मण - गमगेण तेण गहें जन्सें । दाहिमुहणपरु विट्ट इणुवन्सें ॥१॥ दिहारराम सीम पठ-पाहि । धरिउ गाई पुरु रिणिय सहास हि ॥२॥ अहि पकृशियाई उजाणाई । यहाई णं तिस्थपर - पुराणहूँ ॥३॥ बहिण कयाषि सलाय सुक्कई । गं सीयल सुट पर - दुक्ल था अहि वाविर विस्मय - सोचाणड । अगाइन रेहामुह - गमगर ||५|| अहि पाचार पण वि शिय । बिण-उपएस णाई गुरु संधिय ।।५।। अहि देउलाई धवल-पुष्परियई। पोस्था-वायणई व बहु-परिपाई जहि मन्दिरई स-सोरण- वायई । वं समसरणई सुमागारई ॥ जहि भुव- पेस- सुत्त- दरिसाषण । हरि -दर-सम्महि जेहा भाषण ||१|| जहि वर-वेसड तिणयण - रूबद । परर- भुभा सी अशुहमा । अहिंगबणस्य-वसह-इलहर-मह । राम- सिलोषण - बेहा गहबह ।।
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सैंतालीसवीं सन्धि
इस प्रकार अभिनव विजयलक्ष्मीका आलिंगन करनेवाले हनुमानने विशाल विमानमें बैठकर अपने स्वामीके कामके लिए प्रस्थान किया । शीघ्र हो महनीय वह दधिमुख विद्याधरके द्वीपमें लीलापूर्वक ही पहुँच गया।
[१] आकाश मार्गसे जाते हुए हनुमानको दधिमुख नगर दिखाई दिया। उस नगरके चारों ओर उद्यान और सोमाएँ इस प्रकार थी मानो उसने हजारों ऋषियोंको (बंधक) रख लिया हो । विकसित और खिले हुए विमान उसमें ऐसे लगते थे मानो बड़े-बड़े तीर्थकर-पुराण हो । वहाँ एक भी सरोवर सूखा नहीं था मानो वे परदुखकातरतासे ही शोतल थे। उनकी विस्तृ. सीढ़ियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो अधोगामी कुगति ही हो । उसका परकोटा कोई उसी प्रकार नहीं लाँघ सकता था जिस प्रकार गुरु-उदिष्ट जिनोपदेशको कोई नहीं लाँध पाता । उसमें देवकुल धवलकमलोंको तरह थे । वहाँके लोग पुस्तक वाचनाकी तरह ( स्वाध्यायकी तरह) बहुत चरितवाले थे । जहाँ तोरण-द्वारोंसे अलंकृत मंदिर ऐसे लगते थे मानो प्रातिहार्योंसे सहित समवशरण हो । वहाँके बाजार हरि, हर और ब्रह्माकी तरह क्रमशः भुव [द्रव्य
और हाथ ] नेत्र [ वस्त्र और आख ] और सुत्त ( सूत्र ) दिखा रहे थे । जहाँ वेश्याग शिवकी तरह बड़े-बड़े भुजंगों ( लंपटी और साँपोंसे) आलिंगित थीं। जहाँ गृहपति, गम और शिवकी तरह हलधर [राम हलधर कहलाते हैं, शिव बैलपर चलते हैं, और गृहस्थ बैल और हलकी इच्छा रखते हैं ] थे। इस प्रकार अनेक
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पडमचरिङ
पत्ता तहिं पहणे बहु-उपमहें भरियए णं जर्गे सुका कम्य वित्थरियएँ । सहइ स-परियण दहिमुह-राण गं सुरवई सरपुरही पहाणउ ।।२।।
वहाँ अधिगम महिसि सरजमइ । कामही रह सुरवाह सइ ।!
आमन्तएँ जन्तएं विण-णिवहें । उप्पण्णउ कपणउ सिणिण तहँ ।।२।। विशुप्पड़ चन्दलेह वाल । अण्णेक तहा तरङ्गमाल ।।३॥ तिष्णि वि कण्णउ परिवहि यउ । णं सुकाइ-कहउ रस - वढ़ियड 114 बहु-दिवसें हिं सुरय - पियारऍण । पढविड बूर अशारण ण ॥५॥ 'जह भाउ दहि मुह माम महु । तो तिणि बि कण्णत देहि बहु ॥६।। तेण वि विबाहु सङ्गरिछयउ । कल्लाणभुक्ति मुणि पुच्छियउ 116 कहाँ धीय बेमि ण देमि कहो । मुणिवरण वि तस्मों कहिउ तहों ।।।
पत्ता 'वेयालुत्तर - सेटिह रणिड साहसगइ - जामेण पहाणउ । जीविड तासु समर जो लेखइ सिणि विकण्णड सो परिणेसह ॥६॥
गुरु - वयोण हेण अइ भाविउ । मणे गधन्ध - राउ चिन्ताविउ ॥५॥ 'साहसगइ बहु - विजावन्तउ । तेफा समाणु कवणु परहन्सा ॥२॥ अहमइ एउ वि णउ बुझिाइ । गुरु - भासिएँ सन्देहु ण किलाइ ॥३॥ जम्म • सए वि पमाणहों लुकद । मुणिवर वयणु ण पलए वि चुक ॥४|| अबसे कन्दिवसु वि सो होसई 1 साहसगइहें जुज्झु जो देसाई ५|| तं णिसुणेषि लजह - लायपणे हि । णिय - जणेह आजछिड कण हि ॥६॥
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सत्तधालीसमो संधि
६३
उनमाओंसे भरपूर सुकविके कान्यकी तरह विस्तृत उस नगर में राजा दधिमुख अपने परिवारके साथ इस तरह रहता था मानो स्दर्ग का प्रधान इन्द्र हो ।।१-१२॥
[२] उसकी सबसे बड़ी रानी तरंगमती, कामदेवकी रति, या इन्द्रकी शचीकी भाँति थी। दिन आये और चले गये । इसी अन्तरमें उसकी तीन पुत्रियां उत्पन्न हुई। उनके नाम थे चन्द्रलेखा, विद्यत्प्रभा और तरंगमाला। सुकविकी रसधित कथाकी भौति वे तीनों कन्याएँ दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ने लगीं। तब बहुत दिनोंके अनन्तर, सुत्रिय राजा अंगारकने दधिमुख के पास अपना दूत भेजकर यह कहलाया, "हे माम (ससुर), यदि तुम भला चाहते हो तो शीघ्र ही तीनों कन्याएँ मुझे दे दो" ।।१-६।।
(यह सुनकर) और अपनी पुत्रियोंके विवाहकी वात मनमें रजकर राजा दधिमुबने कल्याणभुक्ति नामके मुनिसे पूछा कि "मैं अपनी लड़कियाँ किसे दं और किसे न दं ।” मुनिवरने तुरन्त राजामें कहा कि "विजयाधं पर्वतकी उत्तर श्रेणीका मुख्य राजा सहस्रगति है। युद्ध में जो उसका अन्त कर दे, तुम अपनी तीनों पुत्रियों का विवाह उमीरो करना ।
[३] गूरुके वचनों से अत्यंत भावुक वह राजा दधिमुख इस चिन्त में पड़ गया कि अनेक विद्याओं के जानकर राजा सहस्रगतिमे कौन बुद्ध कर सकता है । अथवा मुझे इन सब बातों में न पड़ना चाहिए। क्योंकि गुरुका कहा हुआ प्रलयकाल में भी नहीं चूक सकता (गलत नहीं हो सकता), वह संकड़ों जन्मोमें भी प्रमाणित होकर रहता है । अवश्य ही एक दिन वह मनुष्य उत्पन्न होगा जी सहस्रगतिके साथ युद्ध करेगा। यह पता लगनेपर अनिन्द्य सुन्दरी उन कन्याओंने अपने पिता से पूछा
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पउमचरिउ
'भो भो ताय ताय दणु-दारा कह वणवा करहुँ किं पि वरि सम्साराद्दणु । जोमावभासें
८१
धता
एव भने यिशु चक-भडहालउ मणि- कुण्डल मण्डि - गण्ड | गम्पि बिलउ वप्यन्तरे णाइँ ति गुति देहम्भन्तरें ॥२॥
पट्टड़
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-
[*]
तं पणु तिहि मिताहि अवयज्जित णं भव-गद्दणु असोय - विवज्जिड ॥१॥ मंणिति थेरि सुह मण्डल । णं णिरचूप
निष्फल कुसामि श्रलग्गिड : णं णिसालु अणं हरि घरु पुष्णाय -विवज्जिक । णं णीसुष्णु जहिं वोरादि कामिणि लीलड | समय मण्ड उब्वीरण सील ॥५॥ जहिं पाहण वलन्ति रवि-किरणे हि । णं सज्जण दुज्जण दुब्वयण हिं ॥ ६ ॥ सहि अच्छन्ति जाव वजे विस्थएँ । ताच पहुकिय दिवसें घडत्थर ॥७॥
1.
-
n
ܦ
हुँ भंडारा ||७|| विसाइणु ॥
-
2
कण्ण- उरस्थ ॥२॥ - वग्ग ॥३॥ उद्धहुँ गजिउ ॥ ४ ॥
-
घत्ता
चारण पचर महारिसि आदय भट्ट- सुभह वे वि बेराय । कोसों राणेण चडत्थं भाएँ भट्ट दिवस थिय काभोसाएँ ||5||
-
[4]
किडि किडिजन्त-मिलिम्मिलिलोयण । लम्बिय-सुख
परिवजिय भोयण ॥ १ ॥
अल-मलोह पलायि विग्गह। जाण पिण्ड परिचत परिग्गह ॥२॥ थिय रिसि पडिमा जोएं जावें हिं । अटुमु दिवसु पटुकि ताहिं ॥२॥ उहि अवसरे तिय- लोलुम-चित्तहों । केण वि गम्पि कहिउ वरसह ॥ ४॥ 'देव देव तद जाउ मणिउ । तिष्णि वि कृष्ण रण पइउ ||५॥ अष्णु ताहिं वहतु गविद्वउ । तुहुँ पुणु मुहियऍ में परितु
।
॥६॥
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ससचालीसमो संधि कि "हे दनुसंहारक तास ! क्या हमलोग वनवासके लिए जाँय । वहाँ हम किसी मंत्रकी आराधना करेंगी या योगके अभ्यास द्वारा कोई विद्या साधेगी ।" यह कहकर चंचल भौंहों और मणिमय कुंडलोंसे शोभित कपोलोयाली वे तीनों कन्याएँ विशाल वनमें इस प्रकार प्रविष्ट हुई मानो शरीरमै तीन गुप्तियाँ ही प्रविष्ट हुई हो ॥१-६॥
[४] उन्होंने उस वनको देखा, जो भवसंसारको तरह अशोकवर्जित (वृक्षविशेष, सुखसे रहित है), वृक्षके मुखमंडल की तरह, तिलक (वृक्षविशेष और टीका ) से रहित, कन्याके स्तनमण्डलकी तरह निच्चूय [ आम्र वृक्ष और चूचकसे रहित ], कुस्वामीकी सेवाकी तरह निष्फल, अनतंक समूहके समान निताल [ ताड़ वृक्ष और तालसे रहित ], स्वर्गकी तरह पुनागवर्जित [राक्षस और सुपारोका वृक्ष ], बौद्धोंके गर्जनकी तरह निशून्य था। उस वनमें सूकरी कामिनीकी लीला धारण कर रही थी। जैसे कामिनी बलातु चूर्ण विकीर्ण करती चलती है वैसे ही वह चल रही थी। उस वनमें सूर्यकी किरणोंसे पत्थर जल उठते थे मानो दुर्जनोंके वचनोंसे सज्जन ही जल उठे हों । इस प्रकारके उस विस्तृत यनमें बैठे-बैठे उन कन्याओंको चौथा दिन व्यतीत हो गया। इसी समय दो विरक्त चारण महामुनि यहाँ आये और एक कोसके चौथे भागकी दूरीपर आठ दिनके लिए कायोत्सर्गमें स्थित हो गये ॥१-
[५] किडकिड़ाती हुई भी उनकी आँखें चमक रही थीं। उनके हाथ लम्बे और उठे हुए थे। उन्होंने भोजन बोड़ रखा था । उनका शरीर ज्वाला और मल-निकरसे प्रसाधित था। इस प्रकार भानपिण्ड और परिग्रहसे हीन उन्हें प्रतिमायोगमें लीन हुए आठ
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पडमचरित
सं णिसुणेवि कुविउ भारउ । णं हवि थिएण सिम सय चारव ॥७॥ 'भामि अज्जु मडप्फरु कण्णहुँ । जेण ण होन्ति मग्ण वि अण्णाहुँ' ।।८।।
पत्ता
अमरिस कुछउ कुरुड पधाहड गम्पिणु षण पइसाणरु लाइट । धगधगमाणु समुदिउ वण-उ झत्ति पलितु णाई खल-जग-वउ ॥६॥
पढम-वचग्गि पारहीं। पाई कि मिग-सराह सपलु वि कापणु जालालीविड । रामही हियट या संदीविड ।।२।। कत्थइ दारु - बणाई पलितई । णं वइदेहि - दसाणण - चित्तई ॥३॥ सुक्केहि मि असुक्क पजलाविय । णं सुपुरिस पिसुणहि संताविय ।।।। कहि मि पणहई वणयर-मिहुणहूँ । कन्दन्तई णिय-खिम्भ-विहूणई ।।५।। गपि मुमिन्दहुँ सरणु पाई। सायव इस संसारहों तदुई ॥६॥ हि अबसरे गयणरण जस्तै । समिउ णिय-विमाणु हणुवन्त ॥७॥ मरु मरु लाइड केण हुवासणु । भाट गमणु करमि गुरु-पेसणु ॥८
पत्ता
भह सरणाहणे श्रह पन्दिग्गहें सामि-काज अह मिस-परिग्गहें। आऍहि बिहुर हि जो णउ जुमाइ सो गरु मरण-सए वि ग सुज्झइ ॥६॥
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सत्तचालीसमो संधि
दिन व्यतीत हो गये । इसी बीच में किसीने जाकर स्त्री-लोलुप वर अंगारकसे यह कह दिया कि “हे देवदेव ! तुम्हारी अभिलषित सीनी कन्याएँ बनमें चली गई है। तुम उनको खोज लो और फिर बार-बार उनसे संतुष्ट होओ।" यह सुनकर अंगारक एकदम आगबबूला हो उठा, मानो किसीने आगमें सौं बार घी डाल दिया हो । उसने यह निश्चय कर लिया कि आज मैं अवश्य उन लड़कियों का घमण्ड चूर-चूर कर दूंगा जिससे न तो दे मेरी हो सके और. न किसी दूसरेको । अत्यन्त निष्ठुर वाह, क्रोधसे भरा हुआ दौड़ा,
और उस वनमें आग लगा आया | धक धक करके आग चलने लगी और शीघ्र दुष्टजनके वचनोंको भाँति भड़क उठी ।।१-६।।
[६] सूखे तिनकोंकी वह पहली आग उसी प्रकार फैलने लगी जिस प्रकार निर्थनके शरीरमें क्लेश फैलने लगता है । ज्वालमाला से वह समूचा वन उसी प्रकार प्रदीम हो उठा जिस प्रकार रामका हृदय ( सीता के वियोगमें ) संतप्त हो रहा था। कहीं पर सूखे तिनकोंका ढेर जल रहा था, कहीं पर वनचरोंके जोड़े नष्ट हो रहे थे। कहींपर वे अपने बच्चोंसे हीन होनेके कारण चिल्ला रहे थे। संसारसे भीत भावकाकी भौति वे उन मुनिवरोंकी शरण में चले गये। इस अवसरपर आकाशमार्गसे जाते हुए हनुमानने ( उस आगको देखकर ) अपना विमान रोक लिया । वह अपने मनमें सोच रहा था कि 'मर मर' यह आग किसने लगा दी । मुझे अपना जाना स्थगित करके गुरुको सेवा करनी चाहिए। क्योंकि (नीतिविदोंका कथन है कि) शरणागतका आना, बंदीको पकड़ना, स्वामीका कार्य और मित्रका परिमह, इन कठिन प्रसंगामें जी जूझता नहीं वह शत-शत जन्मोंमें भी शुद्ध नहीं हो सकता ॥१६॥
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पउमचरिड
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मणे चिन्तेपिणु हिम्मल - भावें । मारुद - णिम्मिय - विज- पहार्वे ॥५॥ सायर-सलिल सय्युः आकरिसिउ । मुसल-पमाणे हिघार हि वरिसिउ ॥२॥ हुअबहु उल्लाविउ पजलन्त । NA - भावेण काल व वडराउ ||३|| तं टवसग्गु हरवि रिड - माणु । गउ मुणिवरहुँ पासु मरु-णन्दणु ॥४॥ कर - कमलेहि पाय पुज्जेप्पिणु । बन्दिय गुरु गुरु - भत्ति करेपिणु ॥५॥ मुणि - पुन हि समुचाए वि कर । हणुवहाँ दिण्णासीस सुहार ॥६॥ तहि अवसरे विमउ साहप्पिणु । मेरुहें पास हि भामरि देष्पिशु ॥७॥ तिणि वि कपणार सालझारउ । हिपष-रम्म गम्भ - सुकुमार ॥८॥
घत्ता
भद्द - सुभा] वलण समन्तिड हणुयहाँ साहुकारु करम्तिउ । अगएँ थियउ सहन्ति सु-सीलड णं तिहुँ कालहुँ सिणि विलोलड ॥६॥
[ ] पुणु वि पसंसिउ सो पवागाइ । 'सुहह-लील अण्णहाँ कहाँ छजह ॥१॥ चाड पई वरफुल्ल पगासिड । उपसग्गहों णाउ मि णिण्णासिड ॥२॥ प्रतिउ जइ पत्तु सुहुँ सुन्दर । तो गांव अज्नु भम्ह अविमुणियर ।।३।। तं गिसुवि मारह गओशिउ । दम्स-पन्ति दरिसन्तु पबोनिउ ॥४॥ 'तिण्णि वि दासही सुट्छ विनीयउ। कवणु थाणु कहाँ तिष्णि विधीयउ॥५॥ किं कर्ज षण - वासे पाहउ । केण दि कर उपसागु णिहउ ॥६॥ हणुवाहों केरउ क्यणु सुपिणु । पमणइ चन्दले विहसेमिणु ॥५॥ 'तिणि वि दहिमुह-रायहाँ धीयउ । खुटु छुल अकारण वि वरियड ॥८॥
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सत्तचालीसमो संधि
E [७] अपने मनमें विशुद्ध रूपसे यह विचारकर हनुमानने अपनी विद्याके प्रभावसे समुद्रका सारा पानी खींचकर मूसलाधार धाराओंमें उसे बरसा दिया जिससे जलती हुई आग शांत हो गई, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार क्षमाभावसे बढ़ता हुआ कलियुग शांत हो जाता है। इस तरह उस उपसगको दूरकर शत्रुसंहारक हनुमान उन मुनियोंके निकट पहुँचा । उसने अपने हाथोंसे पूजा और भक्तिकर उनकी खूब वंदना की। उन मुनियोंने भी हाथ उठाकर हनुमानको कल्याणकारी आशीर्वाद दिया | इसी अवसरपर विद्या सिद्धकर और मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणाकर, केलेके गाभकी तरह सुकुमार, अलंकारोंसे सहित उन कन्याओंने आकर भद्र-समुद्र मुनियोंके चरणों में प्रणाम किया। उन्हान हनुमानको खूप-खूब साधुवाद दिया। उनके सम्मुख स्थित वे तीनों सुशील कन्याएँ ऐसा मालूम हो रही थी मानो त्रिकालकी तीन सुंदर लोलाएँ ही हों ।।१-६॥
[८] उन्होंने बार-बार हनुमानकी प्रशंसा करते हुए कहा कि “इतनी सुभटळीला भला किसी दूसरेको क्या सोह सकती है। आपने बहुत अच्छा धर्मवात्सल्य प्रकट किया कि उपसर्गका नामतक मिटा दिया। हे सुंदर, यदि आप आज यहाँ न आते तो न तो हम तीनों बचती और न ये दोनों मुनिवर ।” यह सुनकर हनुमानको रोमांच हो आया । वह अपनी दंतपंक्ति दिखाते हुए बोले कि "आप तीनों बहुत ही विनयशील जान पड़ती हैं । आपकी निवास भूमि कहाँ है। और आप किसकी पुत्रियाँ हैं, वनमें आपलोग किसलिए आई, और यह अनिष्ट उपसर्ग किसने किया ?" हनुमानके ये पचन सुनकर, चंद्रलेखाने हँसकर कहा-"हम तीनों दधिमुख राजाकी पुत्रियाँ हैं, शायद अंगारफने हमारा वरण कर
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घत्ता
तर्हि अवसर केवलिहिं पगालिब " दसयगइहें मरणु जसु पासिउ । कोटि सिल बि जो संचालेसर सो घरहरुहो भाइ होस" ॥६॥
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एमवत गय अम्हुँ कणें । तें करजेण
पड्ड
३१ ॥
बारह दिवस एस् अच्छन्तिहुँ । तीहि मि पुखारम्भु करम्तिहुँ || शा वरेण रोण आहे । उचवणें दिष्णु दुडें ॥ ३ ॥
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केरउ ॥ श्रा
पउमचरिउ
ताम
हुआसणु
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तो विण चित्त जाउ विवरेस्ड एड कहाणउ अम्हहुँ तो एत्यन्त रोमजिय भुड भणड़ हसेष्पिणु पचणञ्जय सुउ ॥५॥ 'तुम्हें हिजं चिन्तितं हूअर साहसगइहें मरणु संभूअउ ॥६॥ जसु पासिङ सो अम्हहुँ सामि । तिहुअण केण वि उ आयासि ॥७॥ जाहुँ पासु पुजन्तु मणोरद्द' । बहुद्द जाम परोपरु इय कह ॥८॥
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दहिमुह - राज ताम्र स गुरु पादेवि करेवि
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धन्ता
कलत्तड पुण्फ पसंसणु इणुर्वे
[ 10 ]
संभाषणु करेषि तणु तचें । दहिमुह राउ वुत्तु पुणु हणुर्वे ॥ १॥ 'भो भो वह महिहर चिन्धहों । कण्णउ केवि जाहि किकिन्धों ॥ २ ॥ तर्हि अष्कर नारायण जेउ । जो वरु चिरु केवलिहिं गवि ॥ ३ ॥ घाउ तेण समरें साहलगइ। बेयदुत्तर सेविह ता कुमारि अहिणव- भोग्गड । तिष्णि वि राहवन्दीँ महुँ पुणु लङ्कार जाएगवड पेसणु सामिह ताठ
परवइ ॥४॥ जोगाड ॥५॥ करेग्वड' ॥६॥
तं जिसुय संच िदहिमु । जो संमाण दाणे रणें अदिमु ॥१७॥ तं किष्किन्ध यस संपाइल | जस्वव गल - गीले हिँ पोमाइड ॥८॥
M
निवेय-हृत्यु संपत्तउ ।
समउ कियद संभालणु ॥१॥
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ससचालीसमो संधि
लिया था। उसी समय एक केवलज्ञानीने यह बात प्रकट की कि जिससे सहस्रगतिका भरण होगा, और जो कोटिशिला उठायेगा, वही इनका भावी वर होगा" ॥१-६।।
[६] जब यह बात हमारे कानों तक आई, तो इसी कामसे हम लोग वनमें प्रविष्ट हुई। हम लोग यहाँ आराधना प्रारम्भ करके बारह दिनों तक बैठी रहीं। तब उसपर अंगारकने ऋद्ध होकर वनमें आग लगा दी, तब भी हमारा मन बदला नहीं, बस यही हमारी कहानी है" | तब इसके अनन्तर, पुलकितबाहु हनुमानने हँसकर कहा, "आप लोगोंने जो सोचा था वह हो गया । सहस्रगतिका मरण हो चुका है, जिससे हुआ है, हमारे स्वामी हैं। दुनिया में कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सका। उन्हींके पास आपका मनोरथ पूरा होगा" | जब उनमें इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि इतनेमें अपनी पत्नी सहित, दधिमुख राजा, पुष्प और नैवेद्य हाथमें लेकर आ पहुँचा 1 गुरुको प्रणाम और स्तवनकर उसने हनुमानके साथ संभाषण किया ॥ १-६॥
[१०] बातचीतके अनन्तर, लघुशरीर हनुमानने राजा दधिमुखसे कहा, "हे राजन् , तुम महीधरचिह्नवाले किष्किंध नगर अपनी लड़कियाँ लेकर जाओ। नारायणके बड़े भाई वहीं हैं जो केवलियों द्वारा घोषित इनके वर हैं। युद्ध में उन्होंने विजयार्धश्रेणिके राजा सहस्रगतिको मार डाला है। हे तात, अभिनय भोगवाली ये कुमारियाँ, राघवचन्दके ही योग्य हैं, मैं फिर लंका जाऊँगा जहाँ अपने स्वामीकी ही सेवा करूँगा"। यह सुनकर दधिमुख वहाँ से चल पड़ा। वह उस किष्किंध नगरमें जा पहुँचा जो सम्मान दान और युद्धमें प्रमुख था । तष सुप्रीवने जाकर,
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पडमचरित
पत्ता गम्पिणु भुवण - विजिग्गय - गामही सुग्गीय दरिसाविउ रामहाँ। सेण वि कामिणि-यण-परिवहणु विष्णु स यंभु एहि अवस्णु ॥६॥
[ ४८ अट्ठचालीसमो संधि] सविमामलों णहपल जसाहाँ छुहु लादरि पइसन्ताहाँ । निसि सूरहाँ गाहूँ समावडिय भासाली इणुषहों अभिडिय ॥
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तो एण्यन्तरे ।वह-विसालिया । जुज्य समोरति विय सामिपाल नरेन 'मरु मरु महए । मापड दरिला । मई अवगण वि ।ऍहुको पाइसइ ॥तेन तेन तेन-धित ॥२
जम्मेटिया] को सहइ हुअवहें झम्प देवि । आसीविसु भुअहिं भुगा लेवि ॥३॥ को सकाइ महि फक्खएँ छुहेवि । गिरि - मन्दर - अरुल-भावहेवि ॥४॥ को सका जम - मुहें पइसरेवि । भुभ - वलेण समुदु समुत्तरेवि ॥५॥ को सकइ असि - पारें परेवि | धरणिय - फणालिह मणि खुडेवि ॥३॥ को साह सुर-करि-कुम्भु दलेंचि । गयणकणे दिणयर - रमणु खलवि ॥७॥ को सकाइ सुरवह समर इणवि । को पइसइ मई तिण-समु गोवि' ॥॥
चत्ता तं ययण सुर्णेवि जस-लुद्धपण हणुवन्त अमरिस-कए ण । अपलोड्य विकास-मचरण मेइणि पलय - सणिकरण ॥३॥
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अचालीसमो संधि
भुवन - विख्यातनाम, रामसे उनकी भेंट कराई, उन्होंने भी उन्हें अपने हाथोंसे कामिनीस्तनों को बढ़ानेवाला आलिंगन दिया ।। १६ ।।
अड़तालीसवीं सन्धि
विधानसहित आा जाये
जैसे ही लंकानगरी में प्रवेश किया वैसे ही आसाली विद्या आकर उनसे ऐसे भिड़ गई, मानो रात ही सूर्यसे भिड़ गई हो ।
[१] इतने में विशाल देह धारणकर आसाली विद्या, हनु मानसे युद्ध करनेके लिए आकर जम गई, उसने ललकारा"मरो-मरो, जरा बलपूर्वक अपनेको दिखाओ, मेरी उपेक्षा करके कौन नगर में प्रवेश करना चाहता है, किसका है इतना हृदय ( साहस ) ? आगको कौन बुझा सकता है, आशीष सापको अपने हाथ में कौन ले सकता है, धरतीका अपनी कोख में कौन चाप सकता है, मंदराचलके भारको कौन उठा सकता है, यमके मुखमें कौन प्रवेश कर सकता है ? अपने बहुबलसे समुद्र कौन तर सकता है, तलवारकी धारपर कौन चल सकता है, धरणेद्रके फनसे मणि कौन तोड़ सकता है। ऐरावत गजके कुंभस्थलको कौन विदीर्ण कर सकता है, आकाशके प्रांगण में सूर्यके गमनको कौन रोक सकता है, इन्द्रको युद्धमें कौन मार सकता है, ( ऐसे ही ) मुझे तृणवत् समझकर कौन, इस नगरी में प्रवेशकर सकता है ।" यह वचन सुनकर पथके लोभी हनुमानने क्रुद्ध होकर आसाली विद्याको ईर्ष्यासे वैसे ही देखा जैसे प्रलय शनैश्चर धरती को देखता है ॥ १-६
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परमपरिक
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[२] पिहुभाइ-णामण । मन्ति पपुच्छिउ । 'समर-महाभर ।केण पडिपिछटातेन तेन तेन चिता काले खोइन ।को हकारह ।
जो महु सम्मुहु ।गमणु णिवारह॥तेन तेन तेन चिसाधार तं वयण सुणेषिणु मगह मन्ति । किं तुम वि मणे एक्छ भान्स ॥३॥ जइपहुँ सुरवर-संतावणेन । हिय रामही गेहिणि रामणेन ॥४॥ तड्यहुँ पर चल दुईसणेण । साहें घडविसिहि विहीसगेम ॥५॥ परिरक्ष दिण्ण जाम-पुजणिज । गामेण एह मासाल-चिन्च ॥६॥ & क्यणु सुणेपिणु पवण-पुस । रोमन • उप • काहय • गत ॥७॥ पचविउ 'मरु मलमि मरहु तुम्छु । वलु बलु भासालि देहि झुग्छु ॥८॥
जं सपल-काल-गलगजियज मं जाउ मराफर-वाजिबन । सा तुहुँ सो हउँ त एउ रणु लाइ खस जुज्महुँ एण्ड खणु' ॥१॥
[३] लउशि-विहत्वउ । समर समत्थर । कषय-सणापड । कइधय-णाहड ॥ तेन तेन तेम चित्रं ॥॥॥ रह-गय-वाहणु । खचिय-साहणु ।
साहु व रोष धाइय को वि । सेन सेन तेन चित्ते ॥२॥ परिहर वि सेष्णु खवि विमाणु । एकाउ पर लउहि समाशु ॥३॥ 'बलु वलु' मगन्तु अहिमुडुपयछ । णं घर-करिणि हें केसरि विस ॥ णं महिहर-कोधिहँ कुलिस-चाउ । गं दव-जालोलिहूँ जल-णिहाउ ॥५॥ एल्थन्तर वयण - बिसालियाएँ । हणुषन्तु गिहिड भासालियाएँ ॥६॥ रेहा मुह - कन्दर पइसरन्तु । णं णिसि - संभ- रवि माधवन्तु ॥७॥ वडढेच लग्गु पचण्ड बीरु । संचूरित गय - घाएँहि सरीह ।।८७
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अहवासीसमो संधि [२] तब उसने पृथुमति नामके मंत्रीसे 'पूछा, "समरके महाभारकी इच्छा किसने की है, ( किसका इतना साहस है ), कालसे प्रेरित होकर यह कौन ललकार रहा है, जो मेरे सम्मुख आकर मुझे जानेसे रोक रहा है।" यह बचन सुनकर मंत्रीने कहा "क्या तुम्हारे मनमें भी इतनी बड़ी भ्रांति है, जबसे रावण ने रामकी गृहिणी सीता देवीका अपहरण किया है, तभीसे परबलके लिए दुदर्शनीय विभीषणने लंकाके चारों ओर, आसाली नामकी इस जन-पूज्य आसाली विद्याको रक्षाके लिए नियुक्त कर दिया है" | यह बात सुनकर पवनपुत्र, पुलकसे कण्टकित शरीर हो उठा, और बोला "मर, तेरा भी मान चूर-चूर करूंगा, मुड़मुड़, आसाली विद्या, मुझसे युद्धकर"। जो तुमने हमेशा गलगर्जन किया है उसे अभिमानशून्य मत करो | वहीं तुम हो, और मैं भी वहीं हूँ। यह रण है, जरा क्षात्रभावसे हम लोग एक क्षण युद्ध कर लें" ॥१६॥
(३) साहसी युद्ध में समर्थ हनुमानके हाथमें गदा थी, वह कवध पहने था | रथगजका वाहन था उसके पास । वह वानर राज सेनासहित, सिंहकी तरह रुककर, गरजकर, फिर साहस पूर्वक दौड़ा, तदनंतर, सेना और विमानको छोड़कर, केवल गदा लेकर अकेला ही वह, “मुड़ो-मुड़ो" कहता हुआ विद्याके सामने आकर ऐसे खड़ा हो गया, मानो सिंह ही उत्तम इथिनी के सम्मुख आया हो । या, पहाड़की चोटीपर वनका आघात हुआ हो, या दावानलकी ज्वाल-मालापर पानीकी बौछार हुई हो। उस विशालकाय आसाली विद्याने इनुमानको निगल लिया, उसके भीतर प्रविष्ट होता हुआ हनुमान ऐसा शोभित हो रहा था मानो रात होनेपर सूर्य ही अस्त हो रहा हो। तब उस वीरने
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परमचरित
पहले अम्मन्सर पहसरवि पल्ल परिसु जीवित अवारवि । णीसरिउ पर्गवउ पणि किह माह ताधि फा घि विम्म मिह ॥३॥
[ ] परियासालिया जे समरणे : उहिउ कलयलु हणुयहाँ साहणे ॥ तेन तेन सेन चित्तें ॥ ४ ॥ ॥ दिपाई तरई विजउ पधुहउ ।
माना लीलण का पदुर ॥ सेन तेन तेन चिों ॥ ॥ २ ॥ जें दिख पहणि पइसरन्तु । वजाउछु धाइउ 'हशु' भणन्तु ॥३॥ 'आसाली ववि महाणुभाव । मरु पहरू पहरु कहि जाहि पाव ॥१॥ वयोण तेण हणुवन्तु बकित । णं सीहहाँ अहिमुडु सीहु चलिड ॥५!। अभिष्ट वै वि गय-गहिय - हत्थ । रिउ रण- भर- परियण- समन्थ ॥ बलु बलही भिरित गउ गयहाँ हुक्कातुर यहाँ नुर रह रहहों मुस्कु ।।७।। धड धयहाँ विमाणहाँ पर-विमाणु: रणु जाउ सुरग्सुर - रण - समाणु III
पत्ता रह-तुरय जोह-गय - वाहण मारूह - विझाहर - साहणई । अम्भिाई वे वि स कलयलई णं लक्षण-खर-दूसणा • बाल ६॥
वे वि परोप्पर अमरिस कुबई । वे वि रणपणे जय-सिरि लुबई । तेन तेन तेन चित्तें ॥ ४ ॥ १ ॥ घे वि हणन्तई कर-परिहस्माई।
दुमस-मुहई च अइ दुप्पेच्छाई । तेन तेन तेन विरों 11 * ॥ २ ॥ सहि तेहए रणे वन्स घोर । बहु - पहरा - को पइन्ते योरें ।।३।। णिसियर - धरण फोन्तावहेण । हकारिउ पिहुमइ हयमुहेण ।।५।।
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अहपालीसमो संधि भी बदना शुरू कर, और गढ़ाके आघातसे उस विद्याको चूर-चूर कर दिया। पेटके भीतर घुसकर, और बलपूर्षक फैलकर तथा फाड़कर वह वैसे ही बाहर निकल आया जैसे विध्याचल धरतीको ताड़ित और विदीणं कर निकल आता है ।।१-६॥
[४] इस प्रकार आसाली (आशालिका) विद्याके समरांगणमें धराशासी होनेपर, हनुमाननी मोनामें कल-कल ध्वनि होने लगी। तूर्य बजाकर विजय घोषित कर दी गई। अब हनुमानने लीला पूर्वक लंकामें प्रवेश किया । उसे इस तरह प्रवेश करते हुए देखकर वत्रायुध दौड़ा, और 'मारो मारो' कहता हुआ बोला कि "हे महानुभाव, आसाली विद्याका नाशकर कहाँ जा रहे हो, मर, प्रहार कर, प्रहार कर ।" इन वचनोंको सुनकर हनुमान मुड़कर इस तरह दौड़ा मानो सिंहके सम्मुख सिंह ही दौड़ा हो । हाथों में गदा लेकर वे दोनों योधा आपसमें भिड़ गये । वे दोनों ही शत्रुयुद्ध का भार बहन करने में समर्थ थे। सेनासे सेना टकरा गई । गज गजोंके निकट पहुँचने लगे । अश्वोंपर अश्व और स्थापर रथ छोड़ दिये गये । ध्वजपर ध्वज और स्थश्रेष्ठपर ग्थश्रेष्ठ | इस प्रकार देवासुर संग्रामकी तरह उनमें भयंकर संग्राम होने लगा | रथ, तुरग, योधा, गज और वाहनोंसे सहित हनुमान और विद्याधरों की सेनाएँ कल-कल ध्वनि करती हुई इस प्रकार भिड़ गई मानो लक्ष्मण और खरदूषणकी सेनाएं ही लड़ पड़ी हो ॥१-६॥
[५] अमर्षसे भरी हुई दोनों ही एक दूसरे पर कुपित हो रही थीं। युद्धप्रांगणमें दोनोंके लिए यशफा लोभ हो रहा था। दोनों हाथों में हथियार लेकर आक्रमण कर रही थीं । दुर्जनके मुख की तरह दोनों ही दुर्दशनीय थीं। बहु शक्षास्रोंसे सुन्ध उस वैसे घोर युद्धके होनेपर निशाचरकी ध्वजावाले बनायुधके अनुचर
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पउमचरिउ
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चल-सपमाणु ॥१५॥
'मरु थक्कु थक भिड मइ समाणु । अवशेप्परु वुडहुँ तं शिसुर्णे वि पिडुमइ बलिउ केम । मयगलहों मत्त माय जेम ||६|| ते सिद्धिय परोपरु चाय देन्त र रामण - रामहुँ णामु सेन्स || || विजार करर्णे हि वावरन्त । जिद्द विज्जु-पुअ णयले भ्रमन्त ||८||
६८
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घ
आयार्मेसि भिडि भयङ्करेण इउ हयमुद्र हणुवहों किङ्करेण । गय-घाएँहिँ पारित धरणियों किउ कलयलु देवेंहि गमय ॥ ६ ॥
[ ६ ]
जं गया
डिउ हयमुटु ।
कुइड खणलूँ म बजाउछु ॥ तेन तेन तेन चिलें ॥ ४ ॥ १ ॥ गिट् टुर पहरें हिं हणुवहाँ केर ।
गु असे विलु षिवरेश्व ॥ तेन तेन तेन विन्सें ||४|| २ || भजन्तऍ साहणे शिरवसेसें । इणुवन्तु थक्कु पर तहिँ पसें ॥३॥ पञ्चमुह लाल रणें दक्खवन्तु । 'मं भजहों' णिय-बल्लु सिपखयन्तु ॥४॥ उत्थरहुँ सम्गु जिरु विदुरेहिं । असि काय कोन्त -गय- मोग्गारेहिं ॥५॥ बचाउहो वि दणु-दारणेहिं । वरिसिङ णाप्पा-1 - विह-पहरणेहिं ॥६॥ तहि अवसरें गजोलिय भुषण आयामैजि पम्मुक्कु चक्कु र
सुण्णिचारु । दुईरिणु
पणजय सुरण ॥७॥ भीसणु णिसिम धारु ||८||
घता
अतुल चलु उचिष्णं वि पाडि लिर-कमलु |
ते चक्रण धार कम्धु अमरिसें घटित दस पयएँ गम्पि महिय
पढि ॥ ६ ॥
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अडचालीसमो संधि अश्वमुखने अपने हाथमें भाला ले लिया, और हनुमानके मन्त्री पृथुमतिसे कहा, "मर मर, ठहर ठहर, मेरे साथ युद्ध कर, आओ जरा एक दूसरेकी सेनाका प्रमाण समझ-बूझ लें ।" यह सुनकर. पृथुमति इस प्रकार मुड़ा मानो मदगजको देखकर मदगज ही मुड़ा हो। आघात करते हुए, तथा राम और रावण नाम लेकर वे दोनों युद्धमै रत हो गये । विद्याधरोके आयुधांस वे इस प्रकार प्रहार कर रहे थे मानो आकाशतलमें विद्युत्समूह ही धूम रहा हो । इतनेमें हनुमानके अनुचर पृथुमतिने समर्थ होकर, भौह टेढ़ी करके अश्वमुखको आहत कर दिया। गदाके प्रहारसे वह धरतीपर लोटपोट हो गया। [यह देखकर ] देवता आकाशमें कल-कल शब्द करने लगे ॥१-६।।
[६] इस प्रकार गदाके आघातसे अश्वमुखका पतन होनेपर वसायुद्ध आधे ही पलमें क्रुद्ध हो उठा। अपने निष्ठुर प्रहारोंसे वह हनुमानकी सेनाको भग्नप्राय करने लगा। सभी सेनाके प्रणष्ट होनेपर भी हनुमान अकेला ही वहाँ डटा रहा । सिंहलीलाका प्रदर्शन करता हुआ वह मानो अपनी सेनाको' यह पाठ पढ़ा रहा था कि भागो मत । वह कठोर. असिकर्णिक, भाला, गदा और मुद्गरोंका लेकर, वेगपूर्वक उछलने लगा । असुरसंहारक कितने आयुधोंको लेकर वायुध भी बरस पड़ा। तब पुलकितबाहु हनुमानने समर्थ होकर अपना दुर्निवार, तीक्ष्ण, दुर्दर्शनीय
और भीषण चक्र मारा | उस चक्रसे उच्छिन्न होकर बनायुधका सिर कमल युद्ध स्थलमें गिर पड़ा। फिर भी उसका धड़, अमर्षसे भरकर दौड़ा किंतु वह दस पग चलकर ही धरतीपर गिर पड़ा ॥ १-६॥
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पठमचरित
[-] अंशुवन्सेंण इउ बजाउहो। सयलु वि साइशु भग्गु परम्मुहो॥ वेन तेन तेन सित ॥४॥१॥ गट विहाफर हिँ परमेसरि ।
मच्छद सीलएँ लकासुन्दरी ॥ तेन तेन तेन विसे ॥१२॥ 'कि अच वि ण मुहि एव वत्त । भासाल-विज भाहर्षे समत्त ॥३॥ अभिटु सुहारउ जणणु जो वि । रणे व पहारें णिहउ सो वि' ॥५॥ सं णिपुणे वि अमर-मणोहरी । पाहाविउ कासुन्दरी ॥५॥ 'हा मई मुएवि कहिं गयउ साय | हा कलुणु रूमस्तिह दो वाय ॥६॥ डा ताय सयल-भुषणेक-बीर । पर-वल • पबल - गलथण सरीर In हा ताय समरै भा-थव-णिसुम्म । सप्पुरिस-रयण महिमाण-सम्म' ।।
पत्ता अबराएँ स-इत्य लुहिउ मुहु 'इल काई गहिलिग रुमहि नुहुँ । लइ धणुहरु रहबर चदहि तुहुँ बछ चुग्झहुँ जुहूं सेण सहुँ Hell
[-] तं पिसुप्पिणु कुइय किसोयरि । घटिय महारहे लासुम्दरि ॥ तेन सेन सेन चिलें ॥॥ धशुहर-हस्थिय वाणुग्गाविरि ।
सहुँ सुर-वाघणणं पाउस-सिरि ॥ तेन तेन तेन चित्तें ॥२॥ धुरै अइर परिद्विय रहु पपटु । पर-बल-विणासु अखलिय-मरटु ॥३॥ तहि चढेंवि पधाइय रणे पचण् । मायकहाँ करिरीण व उद्ध-सोण्ड ॥१॥ सूरह सण्णन व काल-रन्ति । सइहाँ थक व पठमा बिहत्ति ॥५॥ हक्कारिउ रणे हशुवन्तु तीएँ । भनाणणु जिह पञ्चागणीप ॥६॥ मुह-कुहर-विणिग्गय-कडुभ-वाय । 'बल्ल बलु दहवयण हाँ कुद्ध-पाय 1181
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अनुचालोसमी संधि
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१७] जय हनुमानने बचायुधका काम तमाम कर दिया तो उमकी समूची सेना नष्ट होकर विमुख हो गई । अभिमानहीन वह वहां पहुंची जहाँ परमेश्वरी लंकासुंदरी लीलापूर्वक विद्यमान थी। उसने कहा, "तुम यह वात आज भी न समझ पा रही हो कि बुद्ध में आसाली विद्या समाप्त हो चुकी है। तुम्हारे पिता वायुध भी चक्रके प्रहारसे मारे गये।" यह सुनते ही लंकासुंदरी विलाप करती हुई दौड़ी। "हे तात, तुम कहाँ चले गये ? रोती हुई मुझमे वात करो।सकन्न भवनों में अद्वितीय वीर हे तात! मात्र सेनारे मंहारक शरीरलाले हे तात, युद्ध में भटस महके संहारक हे तात, तत्पुरुष रत्न, अभिमानातम्भ हे तात, तुम कहाँ हो?" तब उसकी (लकादरीकी) सहेली अपिराने अपने हाथसे उसका मह पोंछकर कहा कि हला, इस प्रकार पागल की तरह होकर क्यों रो रही हो। तुम भी धनुप ले रश्रश्रेष्ठपर आरूढ़ हो सेनाको समझा-बुझाकर युद्ध करो।।१६।।
[८] यह सुनकर लंकासुन्दरी क्रोधसे भर उठी। वह महारयमें जा बैंठी । धनुष हाथमें लेकर तीर बरसाती हुई वह ऐनी जान पड़ती थी मानो पाक्स-लक्ष्मी इन्द्रधनुषको लिये हुए हो । अचिग महेली रथकी धुरापर बैठी थी। अस्खलितमान और शत्रुसेनानाशक, इसका रथ चल पड़ा। उसपर बैठकर वह भी प्रचंड होभार, युद्ध में ऐसे दौड़ी, मानो सूंड उठाकर हथिनी ही गजपर दौड़ी हो, या कालरात्रि ही सूर्यपर संनद्ध हुई हो, या मानो शब्दपर प्रथमा विभत्रित ही आरूढ़ हुई हो। उसने युद्ध में हनुमानको ललकारा वैसे ही जैसे सिंहनी सिंहको ललकारती है। उसके मुम्बपी कुहरमें कड़वी बातें निकलने लगीं, "रावणके इस पाप ! मुड़ मुड़, जो तुमने आसाली विद्या और मेरे पिताका
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पउमचरिउ
जं हय आसाहिय हिड साथ । तं जुज्भु अज्जु खय-काल आउ
धत्ता
सं पिसुर्णेवि भक्ष कडमण ब्भिन्द्रिय एवणों जन्दण । 'ओसरु म अग्गएँ थाहि महु कहें कहि भिजु
[ * ]
वहीं वहिं पवर धणुन्छ ।
हसिय स विभमु लङ्कासुन्दरि । तेन तेन तेन विसे ||४|| १३| हउँ परिमाणभितु बहु-जाणउ ।
॥४॥ २ ॥
एणालार्षेण णवरि अयाग ॥ तेन तेन तेन चि 'एड काएँ चषि पइँ दुब्बिय कि जलण- तिडिकऍ तरु ण द ॥३॥ किं मरहरु विस- दुम-छ्याएँ । किं विष्कुण खन्दिउ णम्मयाएँ ॥४॥ किं गिरि फुट्ट वज्जासणीएँ । किंण शिड्ड करि पञ्चाणणी ॥५॥ रयणीषु पच्छाएँ विरायण-मासु । किं सूरहों सूरतणु भन्गु ॥ ६॥ जइ पुति म अहिमाणु तुज्कु । तो कि आसालिहें दिष्णु जुज्छु' ॥७॥ गलग जैचि लङ्कासुन्दरी । सर-पारु मुक्कु णिलायरी ||८||
1
कण्णाएँ सहुँ' ॥ ६ ॥
घत्ता बज्जाउह-सणयऍ पेसिऍण पिन्युजलपुर बिहू सिऍण । सर-जालें छा गयणु किह जणवर मिच्छन्त बलेण जिह ||६|| [30]
तो दिण भिजाइ मारुइ वार्ष्णेहिं ।
परम जिणागमु जिह अण्णा हि ॥ तेन तेन तेन दिसें ॥ ४ ||१|| परम-सिलीमुह सेण वि मेल्लिय ।
रहें अणभव लिय । तेन तेन तेन चित्तें ॥४॥२॥ णारा हिं इणुवों केरएहिं । संघले हिँ दुविरे सर-जालु विइवि लउ तेहिं । कावेरि सलिलु जिह नरवरेहिं ॥ ४ ॥
॥३॥
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भट्टचालीसमो संधि बध किया है, उससे निश्चय ही आज तुम्हारा क्षयकाल आ गया है" | यह सुनकर भट-संहारक हनुमानने उसकी भत्सना करते हुए कहा, “भाग, मेरे सामने मत ठहर । बता, कहीं क्या कन्याके साथ भी लड़ा जाता है ?" ॥ १-६॥
[६] हनुमानके वचन सुनकर, प्रघर धनुष धारण करनेवाली वह लंकासुन्दरी, विभ्रम पूर्वक हसने लगी, और बोली, "मैं जानती हूँ कि तुम बहुर जानकार हो। परंतु इस प्रकारके प्रलापसे तुम मूर्ख ही प्रतीत होते हो, दुर्विदग्ध, तुम यह क्या कहते हो | क्या ( आगकी) चिनगारी पेड़को नहीं जला देतो । क्या विपद्रुम लतासे आदमी नहीं मरता । क्या नर्वदा नदीके द्वारा विंध्याचल खंडित नहीं होता है क्या चप्राशनिसे पहाड़ नहीं टूटता, क्या सिंहनी गजको नहीं मार देती । क्या रात गगनमार्गको नहीं ढक देती, क्या वह सूर्यका सूर्यत्वको भग्न नहीं कर देती । यदि तुम्हारे मनमें इतना अभिमान है तो तुमने आसालीके साथ युद्ध क्यों किया। इस प्रकार गरजकर निशाचरी लंकासुन्दरीने तीरसमूह छोड़ दिया। वहायुधको लड़की लंका सुन्दरीके द्वारा प्रेषित, पंखकी तरह उजले पुंखोंसे विभूषित तोरीके जालसे आकाश इस तरह छा गया जिस तरह मिथ्यात्वके बलसे लोगोंका मन आछन्न हो उठता है ।।१-६॥
[१०] लेकिन हनुमान तब भी चाणोंसे छिन्न-भिन्न नहीं हुआ, वैसे ही जैसे परमागम अझानियोंसे छिन्न नहीं होता। तदनन्तर उसने भी पहला तीर मारा मानो कामदेवने ही रातके लिए अपना दूत भेजा हो । हनुमानके दुर्निवार और चलते हुए बाणाने लंकासुन्दरीके तीर समूहको उसी प्रकार छिन्न-भिन्न करके ले लिया जिस प्रकार लोग काबेरीके जलको भग्न करके ले लेते
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पउमरिस
बोको बा हिन्षु च । णं अखिड मराले सासवत्तु ॥५।। पं वहाँ मम्सही विसालु । तिमलिद कराज ककहोग-धालु ।।६।। संगित मशियल परसु । मेडिकट खरुपपु परयातु संभ कि ण सक्किा सुन्दरेण । सवलिताणु गाई उणिवरेज |
घसा ते तिवस-रुपै दुग्जऍण परिववख-मडफ्फर-माएँण । . गुशु विष्णु विणासिज चाउ किह मिया मिणिग्दागर्म बिह ।।॥
था विष्णए कुविउ पहामि । पम्ति पतीविय मुक सरासणि ।। तेन तेन तेन चितें || लकासुन्दरि मागण-जालेण ।
बाइस मेहणि जिह दुकाण ॥ तेन तेन सेन चिलें ||२| . सं इणुयहाँ केरड वाण-जालु । छायन्तु असेसु दिगन्तरालु ॥३॥ बीसहि सर हि परिषिष्णु सयलु । णं परम-बिगिन्हें मोह-पालु ॥३॥ अण्णेको वाणे कवर हिष्णु । उरु रक्सिड कह वि ण इणुउभिष्णु।५ बिज्जन्त कदएँ हरिसिप-रणेग । किउ कलयलु गहें सुरवर-जमेण ॥३॥ दिणधरण पहाणु बुतु एम । 'महिलाएँ जि जिउ हशुषन्तु केम' ॥७॥ 'सं स्थणु सुणे वि पुलाम मुरण । सम्बरि पदोधित मरु-सुएन ॥८॥
घत्ता 'बट काई धुत्त पई दिवसथर जिण-धवल मुगुप्पिशु एक पर । जगें जो जो गरुयड गजियड मणु महिलएँ को ज परणियउ' ॥
[१२] जाम पडत्तर देह पहजाण । साम विसचिट उपका-पहरण ॥ तेन तेन तेन चिर्स ॥1
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अचालीसमो संधि
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हैं। एक और तीरसे उसका छत्र छिन्न भिन्न हो गया मानो हंसने कमलको ही छिन्न-भिन्न कर दिया हो । या मानो वह भोजन करते हुए सूरवीरका खंडित कराल सुवर्णथाल ही हो। उस छत्रको धरती पर गिरता हुआ देखकर लंकासुन्दरीने थर्राता हुआ अपना खुरपा फेंका। किंतु हनुमान उसे उसी प्रकार नहीं झेल सका जैसे कुमुनि तपस्या नहीं झेल पाते। शत्रुपक्ष के मानका भंजन करनेवाले दुर्गे दस पीले खुसे इटुफान धनुष्की चोरी कट गई । उसकी कमान भी वैसे ही टूट गई जैसे जिनेन्द्रके आगमसे मिथ्यात्व हट जाता है ॥२-६॥
[ ११ ] धनुष टूटनेपर हनुमान सहसा खिन्न हो उठा। उलटकर उसने [ दूसरा ] धनुष ले लिया और तीरोंके आलसे उसने लंकासुंदरीको उसी प्रकार ढक दिया जिस प्रकार दुष्काल धरती को आच्छन्न कर लेता है । किन्तु लंकासुन्दरीने अपने नागसे दिशाओंके अन्तराल ढँक लेनेवाले हनुमान के तौर समूहको ऐसे काट दिया मानो परमजिनेन्द्र ने मोहपटलको ही नए कर दिया हो। एक और तीरसे उसने हनुमानका कवचभेदन कर दिया। किसी प्रकार वक्षःस्थल बच गया, और हनुमान आहत नहीं हुआ । कवचके छिन्नभिन्न हो जानेपर देवसमूहमें कलकल ध्वनि होने लगी । दिनकरने हनुमानसे कहा कि अरे तुम महिलाके द्वारा किस प्रकार जीत लिये गये। यह वचन सुनकर पुलकितबाहु हनुमानने सूर्यको भर्त्सना करते हुए कहा- "अरे दिनकर, तुम यह क्या कह रहे हो । एक जिनयरको छोड़कर दूसरा कौन है जो गरजा हो और साथ ही महिलासे पराजित न हुआ हो" ||१६||
[ २ ] जबतक हनुमान कुछ और उत्तर दे, तबतक लंकासुन्दरीने उल्का अब छोड़ा। किन्तु हनुमानने एक ही तीरमें उसके
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पवमचरित्र तिहहणुवम्ण एक पण ।
किड सप-सक्कर दुरिट पणाणेण ॥ तेन सेन तेन चितं ॥४॥२ पुण मा गगासणि जिस्पिरोप । णं गवाह रे गा बसुन्धरी ॥३॥ स सपा-माष्ट किय तिहिं सरेहिं । णं दुम्मा संवर-णिजहि ॥ध्य एग्थन्तर विकुरियाहरीए । पम्मुख पा विज्जाहरीएँ |५|| विद्यसिउ सं पि सिलीमुहेहिं । इकाणु वर-बुशेहि ॥६॥ लिल मुक पडीवी ताएँ सामु । णं कुहिल गय पर-परहाँ पासु ॥७॥ वधिय पवणअय-णन्दणेण । णं मसइ सु-पुरिसे दिड-मणेण ॥८॥
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घत्ता
सर मुझ गयासणि चक्कु सिल अण्णु विजं कि पि मुभह महिल । सं सयलु वि जाइ पिरस्यु किह घर किविणहाँ सस्कुव-विन्दु जिह ॥६॥
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जिह जिह मारुइ समरें ॥ भनाइ । तिह तिह फण्ण णिरारिउ रज्जाइ॥ तेन तेन तेन चित्त ॥ वम्मह - वाणे हि विद्ध उरस्थले ।
कह वि तुलग्गहि पडिय ण महियले ॥ तेन तेन . सेन चित्ते ॥४॥२॥ 'भो साहु साहु भुवणेकवीर । जयलपिड - वच्छ • लम्छिप-सरीर ॥३॥ मो साहु साहु अखलिय-मर । भक-भक्षण पर - पल - मइयवाद ॥४॥ भी साहु साहु पथक्स-मयण । सोहग्ग - रासि सपुरिस- रपण ||५|| भो साहु साहु कइकेय-तिलय । कन्दप - दप-माहप्प - णिलय ।।६।। भो साहु साहु सण-तेय-पिण्ड । दिव-वियत-बच्छ भुव-वपद्ध-चार || भो साहु साहु रिज-गन्धहथि । उवमिज्जइ जइ उधमाणु मयि ।।।
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चालीसमो संधि साटुकड़े कर दिये। इसपर उस निशाचरीने गदा मारा मानो धरतीने समुद्र में गंगा ही प्रक्षिप्त की हो । हनुमानने अपने बाणोंसे उसी प्रकार उस खण्ड-खण्ड कर दिया जिस प्रकार संवर और निर्जरा दुर्मतिको नष्ट कर देती हैं। तब वह निशाचरी तमतमा उठी और उसने चक्र फका, परंतु हनुमानने से भी अपने तीरों से इसी प्रकार नष्ट कर दिया जिस प्रकार मनीषी आलोचक कुकवित्वको खण्डित कर देते हैं। इसफर निशाचरीने हनुमानके ऊपर शिला फेंकी, किन्तु वह भी पवनपुत्रके हाथमें उसी प्रकार आ गई जिस प्रकार खोटी स्त्री पर-पुरुषके आलिंगनमें आ जाती है । इस प्रकार लंका-सुन्दरी पवनपुत्रसे उसी प्रकार बंचित हुई जिस प्रकार किसी असती स्त्रीको दृढ़मन पुरुषसे वंचित होना पड़ता है। इस प्रकार नीर, गहा, अगानि. जियानो कुछ भी उम महिलाने छोड़ा, वह सब हनुमान ऊपर उसी प्रकार असफल हो गये जिस प्रकार कृषकके घर से यात्र असफल लौट जाते हैं ।।१-६॥
[१६ | जैसे-जैस हनुमान युद्ध में अजेय होता जा रहा था वसे. वैसे वह कन्या ब्याकुल होने लगी। कामके बाणोंने वह अपने उरमें पीड़ित हो उठी। किसी तरह दह संयोगसे धरतीपर नहीं गिरी। वह अपने मन में सोचने लगी कि हे भुवनेक-वीर हनुमान ! साधु-साधु ! तुम्हारा शरीर और वक्ष विजयलक्ष्मी से अंकित है। शत्रुसंहारक और शत्रुसेनाका ध्वंस करनेवाले, अस्खलित मान, साधु-साधु ! सौभाग्य की राशि, सत्पुरुषरत्न, साक्षात् कामदेव, साधु-साधु! कामके दर्प और बड़प्पनके निकेतन कपिकेतुतिलक साधु साधु ! दृढ़ विशाल वक्षःस्थल, प्रचंडबाहृदंड ततुतेजपिंड, साधु साधु ! यदिकोई उपमा न हो तब तुम्हारी
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पदमचरित
पत्ता पर गाह परमिय हउँ समरें वरें एवहि पाणिग्गहण करें। णिय-णाम लिहेप्पिणु मुक सरु मं दूउ विसजिद पियहाँ परु ॥६॥
[१४] झाष पहाणि वायह अक्सर । ताम णिसरिउ हिय सुहार । तेन तेन तेन चित्तं ॥॥३॥ तेण वि गरुअउ गेड करेपिणु ।
वाणु विसजिड़ णामु लिहेप्पिणु ।। सेम सेन सेम चित्तें ॥॥२॥ सरु जोएँ चि पचर-धणुचरीएँ । परिमोस लकासुग्दरी ।।३।। अवगूहु पणि थिरथोर-चाहु । परिहमउ विनाहर - विवाहु ।। रेहइ सुन्दरि सहुँ सुन्दरेण । वर-करिणि णाई सहुँ कारेण ॥५॥ ण रस सम्म सहुँ विणयरेण । णं सुरसरि सहुँ रयणापरेण ॥६॥ पं. सीहिणि सहुँ पञ्चाणणेण । जियपउम गाई सहुँ लक्षणेण ||७|| अह खणे खणे वणिज्यन्ति काई । पं पुणु वि पुष्प वि ताई ताई ।।।
घता पुरथम्तर हणुवं सुरिच बलु हिम्मोहॅषि थम्मवि किट अचलु । सुरवहु-जण -मण-संतारणहाँ में को वि कहेसह रावगहों ।।६।।
[१५] थम्भत्रि पर-चल परिवि णिय-बलु । उच्चारेपिण जिणवर - मालु ॥ तेन तेन सेन विते || पनडु समीरणि सुट्छ रमाउले ।
लझासुन्दरि- ओरएँ राउले ॥ तेन तेन तेन चित्त ॥४॥२॥ राहिं मागेप्पिणु भुस्य-सोक्नु । संघल्ल बिहाणएं दुषले दुक्ख ।।३।। आरच्छिय सुन्दरि सुन्दरेण । वनमाल लाई ललीहरेण ||
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अचालीसमो संधि
१०६ उपमा दी जाय ! हे नाथ, युद्धमें मैं तुमसे पराजित हुई। अच्छा हो यदि आप सुझसे पाणिग्रहण कर ले। अपने मनमें यह विचार कर तीरपर अपना नाम अंकित कर इस प्रकार छोड़ा मानो प्रिय के पास अपना दूत भेजा हो ॥१-६।।
[१४] जब हनुमानने अक्षर पढ़े तो शुभंकर वह हृदयमें निराकुल हो उठा। उसने भी भारी स्नेह जतानेके लिए अपना नाम लिखकर बाण भेजा। बाण देखते ही प्रवर धनुप ग्रहण करनेवाली लंकासुन्दरीने परितोषके साथ प्रवर स्थूलबाहु हनुमानका आलिङ्गन कर लिया। उन दोनोंका वहीं पर विवाह हो गया। सुन्दरके साथ सुन्दरी ऐसे सोह रही थी मानो सुन्दर गज के साथ हथिनी ही हो । मानो दिनकरके साथ संध्या हो, या मानो रत्नाकरके साथ गंगा हो, या मानो सिंहके साथ सिंहनी हो, या मानो लक्ष्मणके साथ जितपद्मा हो । अब क्षण-क्षण कितना और वर्णन किया जाय, बार बार. यही कहना पड़ता है कि उनके समान वे ही थे । इसी बीच में हनुमानने समस्त सेनाको स्तम्भित और मोहित कर अचल बना दिया, इस आशंकासे कि कहीं कोई सुरवर जनोंके मनको सतानेवाले रावणसे जाकर कह न दे॥१-६
[१५] इस तरह शत्रुसेनाको मोहित कर और अपनी सेनाको धीरज देकर और जिनवर मंगलका उच्चारणकर हनुमानने उस लंकासुन्दरीके भषनमें प्रवेश किया। और उसने उसके राजकुल में रातभर रतिसुखका आनन्द उठाया । प्रातःकाल होते ही वह बड़ी कठिनाईसे वहाँ से चला, उस सुन्दरने सुन्दरीसे प्रस्थानके समय उसी तरह पूछा जिस तरह लक्ष्मणने बनमालासे
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पउमचरिड
'लइ जामि कन्त रावणहाँ पासु । सहुँ चलेंण करेवी सन्धि तासु ॥५|| किं भनइ विहीसणु भागकण् । घणवाहणु मउ मारीचि अण्णु ॥६॥ कि इन्दद्द किं अक्खयकुमारू । किं पनामुद रणे दुण्णिवार ॥७॥ पुस्तियाँ मा का बुद्धि कासु 1 को बलहाँ मिच्चु को रावणासु ।
पत्ता पुणु पुशु वि भणेब्बर इचयणु लहु अप्पि परायउ तिय-रयणु । अप्पणउ करेपिणु दासरहि स ई भुहि गोसावण महि' ॥६॥
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[४६. एक्कूणपण्णासमो. सन्धि ] परिणेपिण लडासुन्दरि समरें महाभय-भीसगहों। सो मारुई रामापुसण वरु पाइसरह विहीसंगहों ।
सुरवहु - यणान्दयरु।
(स-स - रामा - ग-म-नि-नि-नि-स-स-नि-धा) समर-सएहि णिज्यूध-भरू।
(म-म-गा-म-गा-म-म-धा-स-नी स-धा-स-नी-स-धा)॥ पबर - सरीरू पलम्ब-भुड।
(स-स-स-स-ग-ग-म-म-नि-नि-स-नि-धा) लापईसाह पक्षण-सुउ।
(म-म-मा-म-गा-म-धा-स-नी धा-स-नी-स-धा) | चम्न्में वि भवणई रावण-मिबहुँ । इन्दा - भाशुकण - मारिबाहु ॥२॥ जण- मण - णयमाणन्द - जणेरठ । बरु पइसरह विहीसण - केरठ ॥३॥ तेण वि अभुत्थाणु करेंप्पिणु । सरहनु गाहालिस वेप्पिणु 141 मारुड पइसारित उपासणे । णं सु-परिहर जिणु जिण-सासणें ||५!! कासि - जन्मेण परिपूविधा । 'मित्तेचब्ड कालु कहिं अपिल ।।६।।
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एकूणपण्णासमो संधि
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पूछा था । उसने कहा, "प्रिये, मैं रावणके पास जाता हूँ, रामसे उसकी सन्धि करवा दूंगा। विभीषण, भानुकर्ण, मेघवाहन, भय, मारीच और दूसरे लोग क्या कहते हैं; इन्द्रजीत, अक्षयकुमार और रंगमेंदुनिवार पंचमुख क्या कहते हैं। इतनोंमें किसकी क्या बुद्धि है, कौन रामका अनुचर है, और कौन रावणका 1 बार-बार मैं रावणसे यही कहूँगा कि तुम शीघ्र दूसरेके स्त्रीरत्नको वापिस कर दो। रामके लिए सीतादेवी अर्पित कर अपनी धरतीका निर्द्वन्द्व रूपसे उपभोग करो ।।१-६॥
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उनचासत्र संधि
इस लंकासुन्दरीसे विवाह कर, रामके आदेशानुसार हनुमान ने महाभयभीषण विभीषणके घर प्रवेश किया ।
1
[१] सुरवधुओंके लिए आनन्ददायक शतशत युद्धभार उठाने में समर्थ प्रवल शरीर प्रलम्बबाहु हनुमानने लंकानगरीमें प्रवेश किया। वह इन्द्रजीत, भानुकर्ण और मारीच आदि, रावणके अनुचरोके भवनों को छोड़कर सीधा जन्-मन और जननेत्रोंके लिए आनन्ददायक विभीषणके घर जा पहुँचा। उसने भी उठकर हनुमानका खूब आलिंगन किया। फिर उसने उसे ऊँचे आसन पर बैठा दिया मानो जिन ही जिनशासन पर प्रतिष्ठित हुए हों। ( इसके बाद ) कैकशी के पुत्र विभीषणने पूछा, "मित्र, इतने समय तक कहाँ थे आप? क्या आपके कुल और द्वीप में क्षेम
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पउमचरित
बेमु कुसलु कि णिय-कुल-नीचहुँ । गल - गालकाय - सुग्गीवहुँ ।। कुन्दिन्द हुँ माहिन्द - महिन्दहुँ । ब्रम्पध - गषय- गमक्ख-णरिन्दहुँ ।।।। अङ्गण - पत्रणञ्जयहुँ सु - खेउ' । पुणु वि पुणु वि जे पुछिन एड ॥६॥
पसः विहसेवि घुस हणुवन्तण 'खेमु कुसलु सम्यहाँ अणहो । पर कुर्धहि लक्षण-रामेंहि अकुसलु एक्कु दसाणणहाँ ॥१०॥
[२] पुणु वि पुणु नि कपड्य-भुउ । भणइ पडोवड पवण - सुर । 'गुड बिहासण थाउ मण । तुजय हरि बल होन्ति रणे ।।
सुमण- दुअइ सुमरन्सिया
__सहुँ छलेण सहरिस पश्चिया ।।१।। अच्छइ रामचन्दु भारुटुउ । पवागणु चिों मुट्ठल ॥२॥ 'अच्छा अजु कल्ले संचलमि । पलय - समुद्ध जेम उरथामि ||३|| अइ अन्जु कल्ले आसमि । गोपउ जिह रयणासरु लमि ।।४।। अच्छइ अन्हु कल्ले बलु वुझिमि । हरिहि समउ रणों जुज्झमि ।।५॥ अच्छाइ अज्जु कल्ले अब्भिमि । दहमुद्द-वल - समुटु ओहमि ॥६॥ अच्छह अज्ज़ कल्ले पुरै पइसमि । रावण-सिरि-साहासणे वहसमि ।।७।। अच्छा भज्नु करलें. रिउ - केरउ । वाणे हि करमि सेफ्णु विवरेरउ ।।६।। श्रम्छह अज्जु कतले पीसेसई । लेमि छत्त-धय- चिन्ध- सहासई ॥६॥
घता ते कज्ज आउ गनेसउ हउँ सुग्गीवहाँ सध्यण । मं लकाहिष कप्पब्दुमो उज्झउ राम हुवासणेण ॥१०॥
अपणु विहीसण एउ मुणे जम्वव - केरउ क्यणु सुणे । "प होन्तेण वि चल-मणहो बुद्धि ण हुआ इसापणहाँ।
सुमण-दुअई सुमरन्तिया ॥१॥
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एस्कूणपण्णासमो संधि
११३ और कुशल तो है ! नल, नील, माहेन्द्र, महेन्द्र, जाम्बवन्त, गवय, गवाक्षादि राजा, अंजना और पवनञ्जय ये सब क्षेमसे तो हैं ?" तब हनुमानने हँसकर विभीषणसे कहा कि "सब लोग कुशल-क्षेम से हैं। किन्तु राम-लक्ष्मणके क्रुद्ध होनेपर केवल रावणकी कुशलता नहीं है" ।।१-१०||
[२[ पुलकितबाहु हनुमानने बार-बार दुहराकर यही बात कही कि विभीषण ! तुम तो अपने मन में इस बातको अच्छी तरह तौल लो कि रामके कुपित होने पर उसकी सेना अजेय है। और तब सुमन द्विपदी छन्दको याद करके सेना सहित हनुमान नाच उठा। फिर उसने कहा कि यदि रामचन्द्र थोडा भी रुष्ट हैं तो मानो सिंह ही कुपित हो उठा है। वह (अभी) रहें, मैं ही
आजकलमें प्रस्थान कर रहा हूं। मैं प्रलय-समुद्रकी तरह उछल पगा। आजकल ही में मैं समर्थ हो उडूंगा, और गोखुरकी भाँति समुद्र लाँघ जाऊंगा । वह रहें, मैं ही आजकल में सारी सेनाको समझ लूंगा, और बेरीसे जूडा जाऊंगा। वह रहें, मैं ही आजकल में भिड़ जाऊँगा और शत्रु-सेना रूपी समुद्रको मथ डालूँगा । आजकलमें मैं ही नगर में प्रवेश कालंगा और रावणके लक्ष्मी-सिंहासन पर बैठूगा। बह रहें, मैं ही आजकलमें तीरोंसे शत्रुकी सेनाको विमुख कर दंगा। वह रहें, आजकल में, मैं निशेष संकड़ों छत्र-ध्वज और चिह्नोंको ले लूंगा। इसी कारण मैं सुग्रीवके आदेशसे खोज करनेके लिए आया हूँ, कि कहीं रामरूपी आगसे रावणरूपी कल्पद्रुम दग्ध न हो जाय ॥१-१०॥
[३] और भी विभीषण ! जाम्बवन्तका भी यह वचन सुनो और विचार करो। उसने कहा है-"तुम्हारे होते हुए भी चंचल
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११४
पउमचरित
पई होन्तेण वि गारि पराइय ! वाहें हरिणि व रुन्द्र पराइय ॥२॥ पईं होन्तेण वि रावणु मूढउ । अस्छह मापा - गइन्दारूढउ ॥३|| पई होन्तण वि घोर - रउहाँ । गमु सजिउ संसार • समुहहीं ॥४॥ पर होन्तेण वि धम्मु ण जाणिउ । रयीयर - वंसहाँ खड आणिड ||५|| पई होन्तेण वि णिय-कुलु मलिउ । उ चारिस सीलु गाउ पालिउ ॥६॥ पई होन्तेण वि ला विणा सिम । सम्पय रिद्धि विद्धि विद्वंसिय ॥७॥ पई होन्तेण वि लागुम्माएँ हि । चउविहेहिं उबद्ध - कसाहि ॥८॥ पई होन्तेण वि किड णिवारिउ ! एड कम्मु लज्जप्पड णिरारित ॥६॥
घन्ता
जस-हाणि खाणि दुह-अयसहुँ इह-पर-लोयहाँ जम्पणउ । अपिज्जउ गेष्ठिणि रामहों कि लज्जावहाँ अप्पणउ ॥१०॥
[५] अण्णु पर विजय- पर- वलही सुणि सन्देसउ तहाँ मलहों। "अरावय-कर-करयल हिँ कवण केलि सहुँ हरि-वले हि ॥
सुमण - दुइ सुमम्तिया ॥१॥ सम्युकुमारू जेहिं विणिवाइउ । तिसिरउ जेहिं रणगण घाइड ॥२॥ जहिं विरोलिउ पहरण • जलयरु । खर- दूसण - साहण-यणायर ||३|| रहबर - णक - रगाह - भयङ्कर । पवा - तुरा - तर# - गिरन्तर ॥१ वर- गय- भा- थड- वेला-भीसणु । धय- कलोल- बोल - संदरिसणु ॥५॥ तेहड रिउ - समुदु रणे घोहिउ । साहसग्गा कप्पयरु पलोहिउ ॥६॥ कोडि- सिल वि संचालिय जेहिं । किन किज्जाई पिग्गहु सहुँ तेहिं ॥७॥
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एक्कूणपण्णासमो संधि मन रावणको बुद्धि नहीं आई। तुम्हारे होते हए परस्त्रीको उसने वैसे ही अवरुद्ध कर लिया जैसे व्याध वेचारी हरिणीको रुरकर लेता है । तुम्हारे रहते हुए भी रावण भही कारः, और मन रूपी गजपर बैठा हुआ है । तुम्हारे होते हुए भी उसने केवल रौद्र नरक और घोर संसार-समुद्रका साज सजा। तुम्हारे होते भी धर्म नहीं जाना और राक्षसर्वशका नाश निकट ला दिया । तुम्हारे होते हुए भी उसने अपना कुल मला किया। बत, चारित्र्य और शील का पालन नहीं किया। तुम्हारे होते हुए भी उसने लंकाका विनाश किया और संपदा, ऋद्धि-वृद्धि भी ध्वस्त कर दी। तुम्हारे होते हुए भी वह उन्मादक चार प्रकारको उद्धत कषायों में फंस गया । अपने होते हुए भी तुमने इसका निवारण नहीं किया। यह कर्म अत्यन्त लज्जाजनक है, इसमें यशकी हानि है, दुःख और अपयशकी खान है। इस लोक और परलोक में निन्दाजनक है। इसलिए रामश्री पत्नी सपि दो। अपनेको क्यों लज्जित करते हो? ||१-१०॥
[४] और भी, परबलको जीतनेवाले उस नलका भी सन्देश सुन लो । (उसने कहा है) ऐरावतकी सूंडकी तरह प्रचंड यशवाले राम-लक्ष्मण के साथ यह कैसी लीडा ? जिसने शम्बुककुमारका अन्त कर दिया, जिसने रण-प्रांगण में त्रिशिरका पात किया, जिसने शस्त्रोंके जल-जंतुओंसे भरे खरदुषणके उस सेनासमद्रको विलोडित कर डाला, जो रथवरोंरूपी मगर व ग्राहों से भयंकर, बड़े-बड़े आश्वोंकी तरंगोंसे भरा, उत्तम हाथियों और ध्वजारूपी कल्लोल-समूहसे च्याप्त था, ऐसे समुद्रको जिसने घोंट डाला, जिसने सहस्रगतिकी खोपड़ी लोट-पोट कर दी, जिसने कोटिशिलाको भी उठा लिया, उसके साथ विग्रह कैसा ? तबतक तुम
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पउमचरित
'घत्ता भप्पिाड सीय पयसैण आयष्ट्रिय-कोवण-कर । जाम ण पावन्ति रणगणं दुजय दुद्धर राम-सर" !!!
आणु विहीसण गुण-धणउ सन्देसर गालहों तणउ ।
गम्पि दसाप्पणु एम भाणु "विरुआरड पर-सिय-गमणु l जो पर-दार रमह णरु मूहउ । अच्छद जरय-महष्णव छूढ उ ॥२॥ पर-दारेण ति-अकलु विषहउ । जयहुँ चिर दारु-वणे पइट्टर' ॥६॥ परदारहाँ फलेण कमलासणु । तश्रवणेण थिउ सो चउराणशु || परदारही फलेण सुर-सुन्दरु । सहस-णयणु किंउ गबर पुरन्दरु ॥५॥ परदारहों फलेय णिलम्छणु । किउ स-कला, णवर मयसम्मणु ॥६॥ परदारहों फलेण वइसाणर । वर-चाहिए उदृधु गिरन्तर ॥७॥ परदारहों फलेण कुल-दोषहाँ जीविउ हिउ मायासुग्गीवहाँ ।।। अपणु वि करि जिह जो उम्मेहउ । भणु परदारे को ण चि गहउ ||६||
पत्ता श्रप्पाहिउ लक्खण-राम हि णिय-परिहव-पड-धोवएँ हि । पेक्खेसहि रावणु पडियउ अण्णे हि दिवस हि थोत्रएँ हि" ॥१०॥
[६] तं शिसुणे वि होलिय-मण माझइ वुत्त विहीमणेण ।
'ण गवेसह ज अधिड पई सयधारउ सिक्वधिड़ मई ॥१॥ तो वि महारउ ण किउ णिवारिड । पजलियउ मयणगि पिरारिउ ॥२॥ ण गण जिण-भासिय-गुण-त्रयण । ण गणा इन्दणील-मणि-रयण ॥३॥ ण गणइ धरु परियणु णासन्सउ । ण गणइ पणु पलयहाँ जन्तउ.॥४ ग गम रिद्धि विदि लिम सम्पय । प. गणइ गलगजात महागय ॥५॥
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एक्कूणपणासमो संधि
प्रयमसे सीता उन्हें अर्पित कर दो, कि जबतक उन्होंने धनुष नहीं चढ़ाया और जब तक तुमसे रामके दुर्धर अजेय वीर नहीं लड़े ।।१-८॥
[५] और भी विभीषण ! नीलका भी यह गुणधन संदेश है कि जाकर उस रावणसे यह कहो कि परस्त्री-गमन बहुत बुरा है, जो मूर्ख परस्त्रीका रमण करता है वह नरकरूपी महासमुद्र में पड़ता है। परस्त्रीसे शिवजी नष्ट हो गये, उन्हें स्त्रीरूप धारण करना पड़ा ?? परस्त्रीके फलसे ब्रह्माके तत्काल चार मुख हो गये, सुर-सुन्दर इन्द्र के परस्त्रीसे हजार आँखें हो गई। परस्त्रीके कारण ही लांछन रहित चन्द्रमाको सफलंक होना पड़ा । परस्त्रीके फलसे बेचारी आगको निरंतर जलना पड़ रहा है। परस्त्रीके फलसे ही कुलदीपक मायासुप्रीय ( सहस्रगति) को अपने जीवनसे हाथ धोना पड़ा। और भी जो महावतसे होन मदगजकी तरह है, अताओ ऐसा कौन परस्त्रीसे नष्ट नहीं हुआ। तुम भोड़े ही दिनों में देखोगे कि अपने पराभवरूपी पटको धोनेवाले राम-लक्ष्मणसे आहत होकर रावण पड़ा है।
[६] यह सुनकर विभीषणका मन डोल उठा। उसने हनुमान को बताया कि रावण कुछ समझता ही नहीं। जो कुछ आप कह रहे हैं, उसकी मैंने उसे सौ बार शिक्षा दी। तो भी महासक्त वह इस बातका निवारण नहीं करना चाहता । कामाग्निसे वह अत्यन्त जल रहा है। यह जिनभाषित गुण-वचनोंको भी कुछ नहीं गिनता | इन्द्रनील मणि-रनोंको भी वह कुछ नहीं समझता । नष्ट होते हुए घर और परिजनको भी वह कुछ नहीं गिनता । वह नहीं देख पा रहा है कि उसकी (लंका) नगरी प्रलयमें जा रही है। यह ऋद्धि-वृद्धि श्रीसंपदाको भी कुछ नहीं समझता ।
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पउमचरिउ
ण गण हि लिहिलन्त हय पश्चल । ण गणइ रहवर कणय-समुजल ॥६॥ सगणई सालङ्कार स-गेउरु । मणहरु पिण्डवासु भन्तेउरु ॥७॥ ण गणइ जल-कालउ उजाणइ । जाणई जम्पाणई स-विमाण ॥८॥ सोयह वयणु एक्कु पर मण्णइ । भणमि पीवर जा आयण्णा ॥१॥
वत्ता जइ एम विपा किउ णिवारिक तो आयामिय-आइवहीं । रण हणुव तुमु पेक्खन्तहरे होमि सहमउ रामबही' :.
[ ] तं णिसुणेप्पिणु पवण-सुउ स-रहसु पुलय-विसह-भुत ।
पडिणियत्त विवरम्मुहाउ गउ उज्वापाहाँ सम्मुहउ ।।१।। पट्टणु गिरवसेसु परिसेस चि । अवलोयणियह बलेंट गवेस वि ॥२॥ रबि-अत्यवणे सुहृल-चूडामगि । पवरुनाशु पहिउ पावणि ॥३॥ जं सुरवरतरूहि संकृण्ण ! मचिय-कलोहि रवण्णा था लबलीलय - सवा - णार हिं । चम्पय-वउस - तिलय पुण्णग्गहि ॥५॥ तरल - तमाल - ताल-तालरें हिं । मालइ - माहुलिश - मालरहि ।।६।। भुअ-एउमक्ख - दक्ख-खधरहि । काम - देवदार • कपरहि ॥७॥ वर - कामर - करीर-करवन्त हि । एला-ककोलेहि सुमन्दहि । पम्दण-वन्दहिं साहारहि । एव सरूहि अणेय पयारहि ॥६॥
पत्ता सहाँ वहाँ म हणुवम्सण सीय गिहालिय धुम्मणिय । मं गयण-मागें उम्मिझिय चन्द लेह वीयह तणिय ॥१०॥
[८] सहिय सहालहि परिपरिप णं व-देवय अवयरिय । शिल-मित्तु गऽवलास जा गिणिजइ काई वहें ॥॥
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एवणवणासमो संधि
वह गरजते हुए मदगजोंको कुछ नहीं समझता और न सुवर्ण समज्ज्वल सुन्दर रथको । अलंकारों और नूपुरोंसे युक्त अपने संबंधियों और अन्तःपुर को भी कुछ नहीं गिनता। उद्यान-जलकीडाको कुछ नहीं गिनता और न यान जम्पाण और विमानोंको ही कुछ समझता है। केवल एक सीतादेवीके मुखकमलको सब कुछ मानता है। यदि मैं कुछ भी कहता हूँ तो उसे वह विपरीत लेता है। यह सब होने पर भी वह अपने आपको इस कमसे विरत नहीं करता तो देखना हनुमान तुम्हारे सम्मुख ही मैं युद्ध प्रारम्भ होते ही रामका सहायक बन जाऊँगा ॥१-१०॥
[७] यह सुनकर पवनपुत्र हर्षसे भर उठा। उसकी बाहुओं में पुलक हो रहा था। वहाँ से लौटकर विशालमुख हनुमान फिर उद्यानकी ओर गया । अवलोकिनी विद्यासे समस्त नगरकी खोज समाप्त कर, सूर्यास्त होते-होते 'उसने विशाल नन्दनवन में प्रवेश किया । वह वन सुन्दर कल्पवृक्षोंसे आच्छन्न और मल्लिका तथा ककेली वृक्षोंसे सुन्दर था । लवलीलता, लवंग, नारंग, चंपा, बकुल तिलक, पुन्नाग, नरल, तमाल, ताल, तालूर, मालती, मातुलिंग, मालूर, भूर्ज, पद्माक्ष, दाख, खजूर, बुन्द, देवदारु, कपूर, वट, करमर, करीर, करवंद, एला, कक्कोल, सुमन्द, चन्दन, वंदन
और साहार ऐसे ही अनेक वृक्षोंसे वह सहित था। उस वनके मध्यमें हनुमानको उन्मन सीतादेवी ऐसी दीख पड़ी मानो आकाश-पथमें दोजकी चन्द्रलेख ही उदित हुई हो ॥१-१०॥
[-] हजारों सखियोंसे घिरी हुई सीता ऐसी लगती थी मानो वनदेवी ही अवतरित हुई हो। (भला) जिसमें तिल बराबर भी खोट न हो फिर उसका वर्णन किस प्रकार किया जाय ।
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१२.
पटमचरित्र घर-पाय-नले पडणारएदि । सिाल-गहेहिं विहि-मार हिंपा। उबलिए हि घेलिएहि । बट्टुलिए हि गुप्फहि गोल्लिएहि ॥३।। घर-पोहरि हि मायन्विएहि । सिरि-पवय-तणिऍहि मणि हि ॥४॥ ऊरुअ-जुगुणणिप्पालएण । कडिमण्डलेश करहारएण ॥५॥ वर-सो णि कशा केरियाएँ । तणु-णाहिएण गम्भीरियाएँ ।।६॥ सुललिय - पुहिएँ सिङ्गारियाएँ । पिपरणियएँ पुलवरियाएँ | घरछपले मनिममएसएण ! भुभ-सिहर हिँ पच्छिम-देसएण ॥८॥ वारमई - केरै हिं पाहुलेहि । सिन्धव - मणिवन्धहि बाटुकाई | माणुग्गीव कच्छायणेण । उसडर गोगडियाँ तगेण ॥१०॥ इसगावलियएँ कपाडियएँ । जीह कारोहण - बाविया ॥११॥ णासउहि तुम-विसय-तणेहि । गम्भीरहि वर - लोगणेहि ।।१२॥ भउहा - जुपुण उमेणगुण । भालेण चि चिसाऊदएण ॥१३॥ कासिएहि कवीलहिं पुजएहि । कपणेहि मि फग्णाजहि ॥१४॥ काभोलिहि केस-विसेसएण । त्रिणएग वि दाहिणएसएण ॥१४॥
धत्ता
अब किं वहुणा विस्था श्र-णिविणण सुन्दर-महण । एकेकाउ वस्धु लएप्पिणु णावइ पदिय पथावण ॥१६॥
राम-विलोप दुस्मणिय अंसु-जलोक्षिय-लोणिय । मोकल-केस कवोल-भुन बिष्ट विलटुल जणय सुभ ॥१॥
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एमकूणपणासमो संधि
कमलनालों की तरह उत्तम पादतलों से, सौभाग्यशाली सिंहली नखोसे, विकार उत्पन्न करनेवाली ऊँची अंगुलियों व सुडौल गोल एडियोंसे, अलंकृतथीपर्वत जैसी विस्तृत मायावी उदर-पेशियोंसे, ढलानयुक्त जांघोंसे, करभ (कैट) के समान कटिंप्रदेशसे, कांचीपुर की उत्तम करधनीसे, पेटकी गम्भीर नाभिसे, शृगारयुक्त सन्दर पीठसे, एलपुरी गोल स्तनोंसे, मझोले वक्षस्थलसे, पश्चिम देशक भुजशिखरोंसे, द्वारावतीके (कड़ों) बाहुलोंसे, सिंधुदेश के गोल मणिबंधोंसे, अगर देश की सरह मन से लतपीया, विदा आनन, ओष्ठपुट (गोग्गाडिका के समान ??)से, कर्णाटक देशकी सुन्दर दशनावलिसे, कारोहण की नारियों जैसी जीभसे, उज्जैन वासिनियों की तरह दोनों भौंहोंसे, चित्तको आकर्षित करनेवाले भालसे, काशी के पूज्य कपोलोंसे, कन्यकुब्ज की स्त्रियों के समान कानोंसे, पंक्तिबद्ध विनत दाहिनी बोर मुके हुए केश विशेषसे, उसकी रचना की गई थी।
घत्ता-अथवा बहुत विस्तार से क्या, सुदर बुद्धिवाले, खेद रहित विधाता ने एक-एक वस्तु लेकर उसकी रचना की है, उसे गढ़ा हे ॥१-१६।।
[8] (हनुमानने देखा कि) रामके वियोग से दुमंन सीता देवीकी आँखें भरी हुई हैं। उनके बाल खुले हुए और अस्त-व्यस्त व्यस्त हैं। उनके हाथ गालों पर हैं।
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१२२
पसमवस्टि
जाणइ वयण कमलु अलहन्तिड । सुहु ण देन्ति फुलन्धुप-पन्तिउ ॥२॥ हणइ तो वि ण करन्ति णिशरिउ । कर कमलहि लग्गम्ति णिरारिउ ॥३॥ एव सिलीमुह - सासिजन्ती । अण्णु विनोअ - सोय - संतती ॥४॥ वणं अरन्ति दिः परमेसरि । सेस-सरीहि ममें गं सुर-सरि ।।५।। हरिसिउ अणेउ पत्थरतरें । धण्याड एक्कु रामु भुवणन्तरे ॥६॥ जो तिय एह आसि माणन्तड । रावणु सह मरद अलहन्तउ ॥७॥ गिरलकार वि होन्ती सोहइ । जइ मण्डिय तो तिहुअणु मोहइ ॥८॥ सोयह तगड रूर वणेपिणु । अप्पड गहें पच्छष्णु करेप्पिणु ॥६॥
पत्ता जो पेसिउ राहवचन्ने सो पत्तिउ अगुत्थलउ । उच्छङ्ग पडिड वइदेहिह जावद हरिसह) पोट्टलउ ॥१०॥
[१०] पेका वि राम रघलड सरहसु हसिउ सुकोमलउ ।
दिहि परिवद्धिय सहि-जणही तियटएँ कहिउ दसाणणहाँ ॥३॥ 'जीविड सहलु तुहारउ अजु । अज्जु गबर शिकण्टउ रज्जु ॥२॥ जोभइ अज्जु देव दह वयणइ । लाई अजु पउदह रयगई ॥३॥ उम्भहि अजु वृत्त-ध्रय-दण्ड । भुलहि अाजु पिहिमि छक्खपणा ॥४॥ अन मत्त-गय-यह पसाहहि । मज तुङ्ग तुझम बाहहि ॥५|| मुन्नउ अजु पहज नुहारी । पत्तिय-कालो हसिय भडारी ॥६॥ लहु देवावहि गिह-गारउ ! बजा मझलु तुरु नुहारत ||७||
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एकूणपण्णासमो संधि
१२३
सीतादेवी का मुखकमल नहीं पानेवाली अमरपंक्ति सुख नहीं दे रही है। वह उन पर आक्रमण करती है परन्तु वे उसको नहीं हटातीं। वह करकमलोंसे एकदम लग जाती है। इस प्रकार एक तोमरों द्वारा जारी और दूसरे दुःख से संतप्त परमेश्वरी देवीको वन में बैठे हुए देखा, मानो समस्त नदियोंके बीच गंगानदी हो। इस बीच हनुमान एकदम प्रसन्न हो उठा कि इस विश्व में एकमात्र वह धन्य हैं कि जो इस स्त्रीको मानते हैं (सीता जिनकी स्त्री है) और जिसे न परकर रावण मर रहा है । अलंकारों से रहित होकर भी यह सुन्दर है, यदि इसे अलंकृत कर दिया जाए तो तीनों लोकों को मोह ले। इस प्रकार सीताकी प्रशंसाकर और अपनेको आकाशमें छिपाकर जो अंगूठी राम ने भेजी थी, उसे उसने नीचे गिरा दिया। हर्षको पोटलीकी भाँति वह जानकी की गोद में आ गिरी ॥॥१-१० ॥
[१०] रामको अंगूठी देखकर सीतादेवी हर्षाभिभूत होकर कोमल-कोमल हँसने लगीं। (यह देखकर ) उनकी सहेलियोंका भाग्य बढ़ने लगा । ( बस ) त्रिजटाने तुरन्त जाकर रावणसे कहा, "आज तुम्हारा जीवन सफल है, आज तुम्हारा राज्य निष्कंटक हो गया। आज तुम्हारे दस मुख सार्थक हैं । आज तुमने, हे देव, चौदह रत्न प्राप्त कर लिये। आज आप अपने छत्र और ध्वज-दंड ऊँचा कर दें। आज छहों खण्ड भूमि का भोग कीजिये। आज मत्त गजघटका प्रसाधन किया जाय। आज ऊंचे अश्वोंपर सवारी कीजिये । देव, आज आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, क्योंकि भट्टारिका सीतादेवी आज हँस रही हैं। शीघ्र ही अपना सुखद मांगलिक
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पउमचरिख
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एतिउ ममि संदेहें । जह भालिमणु देह सगैहें | सं णिमुणेवि दसाणणु हरिसिउ । सम्बगिड रोमन परिसिङ ॥6॥
घत्ता जो वधि चप्पधि भरियउ सयल भुवण-संतावणहाँ। सो हरिसु धरन्त-धरम्हों अ ण माइउ रावणहाँ ॥३०॥
[१ ] जोहउ मन्दोमरिह मुहु 'कन्तें पडीची जाहि सुहुँ।
अब्भरहि धयरटु-भाइ महु आलिजणु देइ जइ ॥१॥ तं णिसुणेवि अणागय - जाणी। संचलिय मन्दोरि राणी ॥२॥ ताएँ समाणु स-दोर स-णेउह । संचलिउ सयलु वि असेउरु ॥३॥ # पप्फुग्लिय-पय-अयणा । * कुंबलय - इल-दाहरणियाउ ॥४॥ जं सुरकरि-कर-मन्थर-गमपाउ । जे पर-परवर- मण-जरवणउ ||५||
सुन्दरु सोहरगुग्धवियर । जे पीणग्यण · भारोणमिया ॥६॥ मणहरु तणु-मझ-सरीरउ । जे उरयड - णियम्ब - गम्भीरउ ॥७॥ पय-णेवरूधण-झकारउ । जं रलोलिर-मोसिय-हारउ ॥८॥ कच्ची कलाव-पम्भारउ । जं विम्भम-भूभा-वियारउ ॥॥
घत्ता त हाउ रावण-केरउ अन्तेउरू संचलिया । णं स.भमरु माणस-सरवर कमलिणि-वणु परफुल्लियउ ।। १०॥
[१२] उण्णय-पीण-पओहरिहि रावण-णयग-सुरिहि ।
लभिखय सीयाएवि किह सरियहि सायर-सोह जिह ॥१॥ पिम्मियलम्यण ससि-जोहा इव । तिति-विरहिय अमिय-तण्हा इव ॥२॥ णिध्वियार जिणवर-परिमा इव । रइ-विहि विपणाणिय घडिया इव ॥३॥ अभयकर जीव-दया इष । अहिणव-कोमाल-वपण लया इव ॥४॥
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एमकूणपणासमी संधि
१२५ तूर्य बजवाइए। मैं तो निश्चय ही यह समझती हूँ कि वह आज आपको स्नेहपूर्वक आलिंगन देंगी।" यह सुनकर रावण हर्षित हो उठा । उसको अंग-अंगमें पुलक हो आया। हर्ष अंग-प्रत्यंगमें कूट-कूटकर इतना भर गया कि त्रिभुवनसन्तापकारी रावणके धारण करने पर भी वह समा नहीं पा रहा था ॥१-१०॥
[११] तब उसने देवी मन्दोदरीका मुख देखकर उससे कहा, 'तुम जाओ । शीलनिष्ठ उसकी अभ्यर्थना करना जिससे वह मुझे आलिंगन दे।" यह सुनकर भविष्य को जाननेवाली मन्दोदरी चली। उसके साथ सडोर और सनूपुर समस्त अन्तःपुर भी था। अन्तःपुरकी उन स्त्रियोंके मुखकमल खिले हुए थे। उनके नेत्र कुवलयदलकी भांति आयत थे। उनकी चाल ऐरावतकी तरह मदमाती और मन्थर, को को सत्तालेवासी भी। सौभाग्यसे भरी हुई वे पीन स्सनोंके भारसे झुकी जा रही थीं। उनका सुन्दर शरीर मध्यमें कृश हो रहा था। उरस्थल और नितम्ब गम्भीर थे। पैर नूपुरोंसे झंकृत थे। वे झिलमिलाते हुए मोतियोंके हार पहने थीं। करधनीके भारसे लदी हुई विभ्रम ध्र भंग और विकारोंसे युक्तं थीं। इस प्रकार रावणका अन्तःपुर चला । (वह ऐसा लगता था) मानो मानसरोवरमें भ्रमरसहित कमलिनी-वन ही खिला हो ॥१-१०॥ । [१२] रावणके नेत्रोंको शुभ लगनेबाली, उन्नत और पीनपयोघरोंवाली उन स्त्रियोंके बीचमें सीतादेवी इस प्रकार दिखाई दी मानो नदियोंके बीच में समुद्रकी शोभा दृष्टिगत,हुई हो। सीता देवी चन्द्रज्योत्स्नाकी तरह अकलंक, अमृतकी तृष्णाकी तरह तृप्ति रहित, जिनप्रतिमाकी तरह निर्विकार, रतिविधिकी तरह विज्ञान-कौशलसे निर्मित, छहों जीवनिकायोंको जीव-दयाकी भांति
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पडमचरित
स-पओहर पाउस-सोहा इव 1 अविचल सर्वसह वसुहा इव ॥५॥ कन्ति-समुबल तढि-माला इव । सब-सलोण उवहि-बेला इव ॥६॥ णिम्मल कित्ति व रामहों केरी । सिहुअणु भौषि परिद्विय सेरी ॥७॥
यत्ता अट्टारह मुबह-सहासह सीयह पासु समलियई। ण सरवर सियह णिसणई स्यवत्तई पप्फुल्लियई ॥८॥
[१३] गम्पिणु पास वईसरवि कबड़े गड-सयर करें वि ।
राहव-धरिणि किसोयरिए संवाहिय मन्दोयरिएँ ॥१॥ 'हले हल मा सीप किं मूढी । अरहि दुक्ष-महष्णवे छूढी ॥२॥ हले हले सीएँ साप करि बुत्ता । लह चुडर कण्डङ कडिसुत्तउ ॥३॥ हले हलें सीएँ सा जइ जाणहि । लइ घस्थ तम्बोलु समायहि ॥४॥ हल हलें सोए साए सुणु . वयणई ! अङ्ग पसाहाह अहि जयण ॥५|| इलें हलै मा सी' लइ दप्पण । घूति णिबद्धहि जाहि अपणु ॥६॥ हले हले सार साएँ अविभोलें हिं। चढ गयवरें हि गिन-गिलोले हि ॥७॥ हले हल सोएँ सीएँ उत्तॉ हि । चहु बहुलैहि हिंसन्स-तुरमहि ॥ हले हले सी सी महि भुजहि । माणुस-जम्महाँ फलु अणुहि ॥६॥
घत्ता पिउ इच्छहि पटु पडिग्छहि जइ सम्भावं हसिड पईं । तो लइ महएवि-पसाहाणु अमरिथम एसडउ मई ॥१०॥
[१४] सं णिसुणेवि विदेह-सुअ पभणह पुलय-विसह-भु।
'सच्चऊ इमि दावयणु अइ जिण-सासणे करइ मणु ॥३॥ इच्छमि जइ मह मुह ण णिहालइ । इण्डमि अणुवयाई जइ पालइ ॥२॥ इमि जइ मा मासु ण भसइ । इरमि णियय-सील जइ रक्खा ॥३॥ इच्छामि जह भीयउ मम्भीसह । इन्धमि जह पर-दम्बु ण हिसह ॥४॥
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एक्कूणपण्णासमो संधि
१२७ अभय प्रदान करनेवाली, लताकी तरह अभिनव कोमल रंगवाली, पावस शोभा की तरह पयोधरों (मेघों स्तनों) को धारण करनेवाली, धरती की तरह सब कुछ सहनेवाली और अडिम, विद्युत्की तरह कान्तिसे समुज्ज्वल, समुद्रवेलाकी भांति सब ओर लावण्यसे भरपुर, रामकी कीतिकी तरह निर्मल और त्रिलोकमें स्थित शोभाकी तरह सुन्दर थीं । अठारह हजार युवतियां आकर सीतादेवीसे इस तरह मिलीं मानो सौन्दर्यके सरोवर में कमल हो खिल गये हों ॥ १८ ॥
[१३] कृशोदरी मंदोदरी, जाकर पास में बैठकर सैकड़ों चापल सियों कर, सोतासे बोली-"हला हला सीतादेवी, तुम मूद क्यों हो? तुम दुःख रूपी सागरसे छूट गईं। ला ला सीते, तुम मेरा कहा करो, यह चूड़ा कंठी और कटिसूत्र लो। हला सीते, तुम समझती हो तो ये चीजें लो और इस पानका सम्मान करो, हला सीते, मेरी बात सुनो, अपना शरीर प्रसाधित करो। आँखों में अंजन लगाओ।हला सीते, यह दर्पण लो, चोटी बाँध लो और अपने लिए संजोओ। हला सीते,अविलोकित गीले गंडस्थलवाले हाथियों पर चढ़ो। हला सीते, ऊँचे चंचल हिनहिनाते हुए घोड़ों पर चढ़ो। हला सीते, धरती का भोग करो, मनुष्य-जन्म के फल का भोग करो। प्रिय को चाहो, महादेवी-पट्ट स्वीकार करो । जो तुम सदभाव से हंसी हो तो महादेवी-पद के इन प्रसाधनों को स्वीकार करो, मैं इतनी अभ्यर्थना करती हैं।"
[१४] यह सुनकर सीता कहती है—(पुलकित बाहुओंवाली) "मैं सचमुच चाहती हूँ यदि रावण जिनशासन में मन लगाये। मैं चाहती हैं यदि वह मेरा मुख न देखे । मैं चाहती हूं कि वह मध और मांस नहीं खाये। मैं चाहती हूँ यदि वह अपने शील की रक्षा करे। चाहती हूँ यदि मैं वह डरे हुए को अभय वचन दे।
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पउमचरिउ
जइ त्रञ्च । इच्छमि ज़ह अणुदिणु जिणु अञ्च ॥ ५॥ परिसेसइ । इच्छमि जह परमत्थु गवेसइ ॥ ६ ॥
इच्छमि पर कलन्तु इच्छमि जडू कस्य इच्छमि जह पडिमा समारह | इक्छमि जइ पुनउ णीसार ॥७॥ इच्छमि अभय द्राणु जइ देस इच्छमि जइ तत्र चरणु लघुसड् ||८|| इच्छमि ज ति कालु जिणु वन्दइ । इच्छमि सद् मणु गरह जिन्दइ ॥१॥
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धत्ता
अणु मि इच्छमि मन्दोयरि आयामिय-पवराहवहीँ । सिरसा चलहिं विद्वेष्पिणु जड़ भई अप्पइ राहवहाँ ॥ १० ॥
[१५]
जइ पुणु पाषाणन्दणों ण समप्रिय रहु-पन्द्रहों ।
णन्दणवणु
तो हउँ इच्छमि उ हले पुरि विपन्ती उहि जले ||१|| इच्छसि भजन्त । इच्छमि पट्टणु पलग्रहों जन्तर ॥२॥ इच्छमि णिसियर पल अत्यन्त | इच्छमि घर पायालहों जन्तर ||३॥ इच्छमि दहमुह-सरु छिन्त । तिलु निलु राम-सरे हि भिनन्तर ॥४॥ इच्छाम इस वि सिरहूँ विदन्तहूँ । सरं इंसाहब व सयवत ||५ इच्छमि अन्तेरु रोवन्तर केस विसन्थुलु घाहावन्त ॥ ६ ॥ इच्छमि द्विजन्त वय- चिन्ध । इच्छमि णचन्ताइँ कबन्ध ॥७॥ इच्छमि धूमन्धा रिजन्त । चड- दिसु सुहड- चियाइँ वलन्त हूँ जं जं इच्छमि तं तं सचाउ । णं [ सो] करमि अज्जु हरु पचड ॥ १ ॥
L
||
.
धत्ता
जो आइड राहत्र केरड एहु अरबद्द अस्थउ ।
महु सद्दल-मणोरह- गारज तुम्हहँ मुक्खहूँ पोउ || १० ||
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एक्कूणपण्णासमो संधि
F
मैं चाहती हूँ यदि वह परस्री सेवनसे बचता है। मैं चाहती यदि वह प्रतिदिन जिनदेवकी अर्चा करता है । मैं चाहती हूँ यदि वह कषायों को नष्ट करता है। मैं चाहती हूं यदि वह अपने परमार्थकी खोज करता है। मैं चाहती हैं यदि वह प्रतिमाओंका आदर करता । मैं चाहती हूँ यदि वह जिनकी पूजा करवाता है । मैं चाहती यदि वह अभयदान देता है | चाहती हूँ वह पश्चरण करता है। मैं चाहती हूँ यदि वह तीन बार ( दिनमें ) जिनदेवकी वंदना करें। * चाहती हूं यदि वह अपने मनकी निन्दा करता । हे मन्दोदरी, मैं यह भी चाहती हूं कि विशाल युद्धों में समर्थ, रामके चरणों में गिरकर वह (रावण) मुझे (सीता को ) उन्हें सौंप दे ।। १-१०॥
[१५] यदि वह मुझे रघुनन्दन रामको नहीं सौंपना चाहता, तो हला, मैं यही चाहती हूँ कि वह मुझे समुद्र में फेंक दे। मैं चाहती हूँ कि यह नन्दन वन नष्टभ्रष्ट हो जाय। मैं चाहती हूँ कि यह लंकानगरी आगमें भस्मसात हो जाय। मैं चाहती हूं कि निशाचर सेनाका अन्त हो । मैं चाहती हूँ कि यह भवन पाताल में
स जाय । चाहती हूं कि दशानन रूपी यह वृक्ष नष्ट-भ्रष्ट हो जाय । चाहती हूँ कि रामके तीर उसे तिल-तिल काट डालें । चाहती हूँ कि रावणके दसों सिर वैसे ही कट कर गिर जायें जैसे हंसोंसे कुलरे कमल सरोवर में गिर पड़ते हैं । चाहती हैं कि उसका अंतःपुर क्रन्दन करे, उसकी केशराशि बिखरी हो और दहाड़ मार कर रोये । चाहती हूँ कि उसका ध्वज चिह्न छिन्न-भिन्न हो जाय । चाहती हूँ कि धड़ नाच उठें और चाहती हूँ कि चारों ओर सुभटों की धुआंधार चिताएँ जल उठें। हला, जो जो मैं कहती हूँ वह सब सच है। मैं तो विश्वास करती हैं। देखो यह रामकी अंगूठी आई है । यह मेरे सब मनोरथोंको पूरा करनेवाली है, और तुम्हारे लिए दुखकी पोटली है ॥१- १० ॥
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पउमचरिड
_ [१६] तं णिसुणेषि विरुद्ध - मण सुरवर-करि-कुम्भयल-यण ।
. लखण-राम-पसंखणंण पजलिय - कोव - हुवासमेज ॥१॥ 'मरु कहि तणउ रामु कहि लक्खणु । अज्नु पाई तउ ऊधु इसाणणु ॥२॥ सम्भर सम्भल इदा - देवउ । मंसु विहोंषि भूभई देवड ॥३॥ लाह लुमि तुह तणयहाँ णाम । जिह ण होहि रामण रामहाँ ॥४॥ एउ भणेपिणु रिड - पतिकूलें । थाइय मन्दोमरि सहूं सूखे ॥५॥ मालामालिणी घिसहुँ जालें । कहाली कराल - करवालें ॥६॥ विजुप्पह विजुजल - या दसणालि सतुप्पा . सी li७ii हृयमुहि हिलिहिलन्ति उचाइय । गयमुहि गुलगुलन्ति संपाइय ८॥ तं वल णिऍवि तियॉ भीसाणहुँ । कालु कियन्तु वि मुबह पाणहुँ ॥३॥
घत्ता तेहएँ घि कालें पटिवण्ण' विणु रामें बिणु लक्खणण । वइदेहिहे चित्त ण कम्पिड दिव-यलेण सीलहाँ तणेण ॥१०॥
[.] तं उश्वसागु भयायणउ अण्णु विसीय दिवसणड । - पखंवि पुलय-विसह-भुड अग्गु पसंसहुँ पक्षण सुरु॥३॥ 'धार धीरउ होइ णियाण वि । हुमन्तऐ जीविय · श्रवसा वि ॥२॥ तिमहं होई जं सीय, साहसु । तं तेहउ पुरिसहों विग बसु ॥३॥ पहा बिहुर • काल वहन्त । सामि तणएँ कलने मरन्तएँ ॥४॥ जह मई अप्पउ गाहि पगासिउ । तो अहिमाणु मरटु विणासिउ ॥५॥ गुम भणेपिणु लडशि - विहाधउ । अहिणव- पिलर- बस्य- णियस्थउ ॥६॥ ण कणियारि - णिवहु पाफुझिउ । णं कलहोय - पुम्नु संचलिक ॥७॥
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एक्कूणपण्णासमो संधि
[१६] यह सुनकर ऐरावतके कुंभस्थलकी तरह पीन स्तनोंवाली मंदोदरीका मन विरुद्ध हो उठा। राम और लक्ष्मण की प्रशंसासे उसकी क्रोधाग्नि भड़क उठी । वह बोली, “मर-मर, कहाँ राम और कहाँ लक्ष्मण, तू आज ही रावणको क्रुद्ध पायेगी। अपने इष्टदेव का स्मरण कर ले। तेरा मांस काटकर भूतों को दे दिया जायगा। तुम्हारे नामतककी रेखा पोंछ दी जायगी, जिससे तू न तो रावणकी होगी और न रामकी।" यह कहकर मन्दोदरी शत्रुविरोधी शुलं लेकर दौड़ी। ज्वालमालिनी विषकी ज्वाला और कंकाली कराल करवाल लेकर दौड़ी। विजलीकी तरह उज्ज्वल रंगकी विद्युत्प्रभा, रक्तकमलकी तरह नेत्रवाली दशनावली और अश्य छ; हिनाहिगा कर उठी : गमयुद्धी गरजती हुई आई। उन भीषण स्त्रियोंकी उस भयंकर सेनाको देखकर काल और कृतान्तने भी अपने प्राण छोड़ दिये। परन्तु उस घोर संकटकाल में, राम और लक्ष्मणके बिना भी, दृढ़ शीलके बलसे सीताका हृदय जरा भी नहीं कांपा ॥१.१०॥
[१७] तब उस भयंकर उपसर्ग और सीता देवीकी दृढ़ताको देखकर हनुमानकी भुजाएं पुलकित हो उठीं। वह उनकी प्रशंसा करने लगा कि "संकट में जीवनका अन्त आ. पहुँचनेपर भी इस धीराने धीरज रक्खा । स्त्री होकर भी सीतादेवीं में जितना साहस है, उतना पुरुषों में भी नहीं होता। इस अत्यन्त विधुर समयमें भी जब कि स्वामी रामकी पत्नी मर रही है, यदि मैं अपने आपको प्रकट नहीं करूँ तो मेरा अहंकार और अभिमान नष्ट हो जायगा", यह सोचकर हनुमानने अपने हाथमें गदा ले लिया और नये पीत वस्त्र पहनकर वह चल पड़ा। वह ऐसा लग रहा था मानो खिले हुए कनेर-पुष्पोंका समूह हो या फिर स्वर्ण-पुंज
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पडमचरित
धत्ता
मन्दोपरिसीयामविहि कलह पद्धि भुवण-सिरि । पं उत्तर-दाहिण-भूमिहि मज्म परिडिड विधमहरि ॥८॥
[१८] 'ओसरू भोसरु दिव-माह पासहों सीय - महासइह ।
हउँ श्राथामिय-पर- धलं हि र विसजिड़ हरि-बहिं ॥१॥ हउँ सो राम • दृट संपाइन । अङ्गस्थलङ लएक्षिण भाइउ ॥२॥ पहरहाँ मई समाणु अहसकहाँ । सीया - एविह पासु म हुबहौं ॥३॥ तं णिसुणेत्रि वषणु णिसिंगोभरि । चषिय विख्ख कुछ मन्दोअरि ॥॥ 'चाउ पुरिस-विसेसु गवेसिउ । साशु लएवि साहु परिसेसिड ||५|| खरु संगहें वि तुमु वजिट । जिणु परिहर वि कु देवड अधिड ॥६॥ छालड धरवि गहन्दु विमुक्छ । अन्तरेण मिस सुहे चुकाउ ॥७॥ एक वि उचयार ण सम्भरियर । रावणु मुवि रामु जं वरियड MER जसु णामेण जि हासड विजह । तासु केम दूअत्तणु किज्जइ ॥६॥
घत्ता
जो सथल-कालु पुज्जेष्वउ कडय-मउ - कडिसुत्तएँ हिँ । सो एयहि तुहुँ बन्धेश्वर धोरु व मिलवि बहुत्तएँ हि ॥१०॥
ने णिसुवि हणुबन्नु किह झसि पलिस दवग्गि जिह ।
'पद् रामही णिन्द कय किह सय-खण्ड ण जोह गय ॥३॥ जो धगधगधगन्तु वइसाणरु । रखस - वण - तिण-रुक्ख-भयङ्करु ॥२॥ अण्णु वि जसु सहाउ भड़-भक्षणु । झलझाडन्ति (?) सौमित्ति-पहल ।।३।।
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एक्कूणपण्णासमोसंधि
१३३ हो। (इस प्रकार) मन्दोदरी और सीतादेवी में कलह बढ़नेपर, भुवन-सौन्दर्य हनुमान उनके बीच में जाकर उसी प्रकार खड़ा हो गया जिस प्रकार उत्तर और दक्षिण भूमियोंके मध्य में विन्ध्याचल खड़ा हो ॥१-१
[१८] हनुमानने (मरजकर) कहा, "मन्दोदरी, तू दृढ़बुद्धि महासती देवीके पाससे दूर हट । मैं शत्रुसेनाके लिए समर्थ राम और लक्ष्मणका भेजा दूत हूँ । मैं उन्हीं रामका दूत हूं और हाथकी अंगूठी लेकर आया हूँ। बन सके तो मुझपर प्रहारकर, पर सीता देवीके पाससे दूर हट।" यह सुनते ही निशाचरी मन्दोदरी एकदम क्रुद्ध हो उठी। वह बोली, "खूब अच्छा विशेष पुरुष तुमने खोजा हनुमान ! कुत्ता लेकर (वास्तवमें) तुमने सिंह छोड़ दिया, गधेको ग्रहणकर उत्तम अश्वका त्याग कर दिया । जिनवरको छोड़कर कुदेवकी पूजा की। बकरा लेकर गजवर छोड़ दिया। मित्र, तुमने बहुत बड़ी भूल की है । तुम्हें हमारा एक भी उपकार याव नहीं रहा जो इस प्रकार रावणको छोड़कर समसे मिल गये (मित्रता कर ली)। (उस रामके साथ) कि जिसका नाम सुनकर भी लोग मजाक उड़ाते हैं, उसका दूतपन कैसा? जो तुम कटक मुकुट और कटिसूत्रोंसे सदैव सम्मानित होते रहे, वहीं तुम्हें इस समय राजपुत्र मिलकर चोरोंकी तरह बाँध लेंगे।"॥१-१०॥ __ [१६] यह सुनकर हनुमान दावानलकी तरह (सहसा) प्रदीप्त हो उठा। उसने कहा, "तुमने जो रामकी निंदा की, सो तुम्हारी जीभके सौ-सौ टुकड़े क्यों नहीं हो गये ! निशाचररूपी वन-तृण और वृक्षोंके लिए अत्यन्त भयंकर जो धक-धक करता हुआ दावानल है, और झरझर करता हुआ लक्ष्मण रूपी पवन
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पसमचरिड सई विरुखएहि को मुहह । आई णिणापं अम्बर पुन । कन्हहाँ किरण परकम बुद्धिमउ । खर-चूसहि समउ जें अमिउ ॥५॥ पालिय कोरिसिस वि अविभोलें । लच्छि व गऍण गिल्ल-गिएलोलें ॥६॥ साहसगइ वि वियारिड रामें । को जगें अपणु सेए आयामें ॥७n भावह रावणो वि बस-लखाउ । णवर पाह-सीलेण न लबूड पदा चोरहों परयारियहाँ अज्जोगवि(१) । तासु सहाउ होइ कि कोह वि ॥६॥
घसा
अनु वि जव-कोमल-बाहि जसु विजह आलिङ्गणउ । मन्दीवार तहाँस्य-कन्तहा किह किमाई दूअत्तणउ'१०॥
[२०] जं पोमाइड दासरहि णिन्दिउ रावण-चल-उघहि ।
तं मन्दोअरि कुइय मनं विज्नु पगजिय जिह गयणें ॥ ३५५ 'अरे अरे इणुव हणुब वल-गावहुँ । दिद्ध होजाहि एयहुँ आलावहुँ ।।२।। जइ ण विहाणए पई बन्धामि । तो णिय-गोस कलाउ लावमि ॥३॥ अण्णु मि घरिणि न होमि णिसिन्दहों । उ पणिवाद करेमि जिणिन्दही ॥४॥ एम भगेवि मुरिट संचल्लिय । बेल समुहहाँ जिह उत्थरिलय ||५|| परिचारिय लकाहिब-पत्तिहि । पढम विहन्ति व सेस-विहतिहि ॥६॥ जेडर - हार - दोर - पालम्वहि । सुरधागु - तारायण-पढिवि हि ॥७॥ पसलन्यि णिवन्ति किसोयरि । गय णिय-णिलर पत मन्दोयरि ॥८॥
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एक्कूणपण्णासमोसंधि
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जिसका सहायक है, जिसके निनाद से आश फरसा है. भता उसके विरुद्ध होने पर कौन बच सकता है ? जिस समय खरदूषणसे लड़ाई हुई थी क्या उस समय उसका पराक्रम समझ में नहीं आया? जिन्होंने अविचल कोटिशिलाको उसी प्रकार विचलित कर दिया जिस प्रकार मद-झरता गज लक्ष्मी को । रामने सहस्रगतिको हरा दिया है । दूसरा कौन उनके सम्मुख विश्वमें समर्थ है ? यद्यपि रावण भी यशका लोभी है परन्तु उसने सुन्दर शील प्राप्त नहीं किया। फिर दूसरे की स्त्रियोंको उड़ानेवाले रावणकी शरणमें जाकर कौन उसका सहायक बनना चाहेगा? और भी, तुम जिस रावणको नव कोमल वापसे पूरित आलिंगन देती हो उस अपने पतिका यह दूतीपन कैसा ?" ||१-१०॥
[२०] इस प्रकार जब हनुमानने रामकी प्रशंसा और रावण रूपी समुद्रको निन्दा की तो निशाचरी मन्दोदरी उसी प्रकार कुपित हो उठी मानो आकाणमें बिजली ही चमकी हो । वह चिल्लाकर बोली, "अरे अरे, बलसे गर्विष्ठ इसे मारो मारो। अपने शब्दोंपर दृढ़ रह, यदि कल ही तुझे न बंधवा दिया तो अपने गोत्रको कलंक लगाऊँ और रावणकी पत्नी न कहलाऊं, तथा जिनेन्द्र देवको नमन न करूं।" यह कहकर मन्दोदरी फुदककर ऐसे चली मानो समुद्रकी बेला ही उछल पड़ी हो । जिस प्रकार प्रथमा विभक्ति शेष विभक्तियोंसे घिरी रहती है, उसी तरह वह रावणकी दूसरी पत्नियोंसे घिरी हुई थी । इन्द्रधनुष और तारागणके अनुरूप नपुर और हार डोरसे स्खलित होती गिरती पढ़ती वह अपने भवन में पहुंच गई ॥१-८।।
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पउमचरित
पत्ता हणुन । रहमुशासिमग नः णे जिणबर-एटिम सुरिन्देश पमिय सीम स यं भुहि ॥३॥
_ [ ५० पण्णासमो संधि] गय मन्दोपरि भिय-परहों हणुवन्तु वि सीयहे सम्मुहड । भग्गएँ थिउ अहिसेय-करु णं सुरवर-लनिक मतभाउ ॥
[ 1 मालूर-पवर-पीयर-थणाएं कुवलय-दल-दाहर-लोयणाएं । पप्फुल्लिय-वर-कमलाणणाएँ हणुवन्तु पपुखिउ दिर-मणाएँ ॥१॥
(पद्धलिया-दुबई ) 'कह कहूँ वच्छ बरखा बहु-गामहो । कुसल-वत्त किं भकुसल रामहाँ ।।२।। कह कई वच्छ वच्छ कमसेक्षणु । किं विणिहउ किं जीवह लक्षणु' ॥३|| तं गिसुणेवि सिरसा पणमन्ते । अविखम कुसल-बत्त इणुवन्ते ॥४॥ 'भार मार कर धीरउ णिप-मणु । जीवह रामचन्दु स-अजहणु ॥५॥ भावरि परिहिट लोह-मिसेसर ! तवसि व सम्व-सा-परिलेसर ।।६।। चन्दु व बहुल-पक्स-खाय-खीण। णियह ३ रज्ज-विहोष-बिहीण ॥७॥ रुक्षु व पत्त-रिवि-परिचतउ । सुकर व दुकर कह चिन्तनत ॥८॥ तरणि वणिय-किरणेहि परिव बिउ । जसणु व तोय-तुसार-पररिजउ ॥६॥
घत्ता इन्दु व चवण-काल सहसिर दसमि बागमण जेम अहहि । खाम सामु परिमीण-तणु तिह तुम विभओए वासरहि ।।१०॥
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पणास संधि
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इधर हनुमानने भी, हर्षसे उछलते हुए दुर्दम दानवोंका दमन करने वाली भुजाओं से सीतादेवीको उसी प्रकार प्रणाम किया जिस प्रकार देवेन्द्र जिन प्रतिमाको नमन करता है ॥ ६ ॥
पचासवीं संधि
मन्दोदरीके चले जानेपर हनुमान सीतादेवीके सम्मुख ऐसे बैठ गया मानो अभिषेक करनेवाला महागज ही देवलक्ष्मीके सम्मुख बैठ गया हो ।
[१] तदनन्तर विकसित मुखकमलवाली एवं कुवलयदलके समान नेत्र और बेलफलकी तरह पीन स्तनवाली दृढमना सीतादेवीने हनुमानसे पूछा, "हे वत्स, कहो कहो, अनेक नामवाले रामकी कुशलवार्ता है या अकुशल । हे वत्स ! बताओ बताओ, कमलनयन लक्ष्मण जीवित हैं या मारे गये।" यह सुनकर हनुमानते सिरसे प्रणाम करते हुए रामकी कुशल वार्ता कहना आरम्भ किया । "हे माँ, अपने मनमें धीरज रखिए । लक्ष्मणसहित राम जीवित हैं परन्तु वे रेखाकी तरह ही अवशिष्ट हैं । तपस्वीकी भाँति उनके अंग-अंग सूख गये हैं। कृष्णपक्षके चन्द्रकी तरह वह अत्यन्त क्षीण हो चुके हैं। निवृत्ति ( मागियों) के समान राज्योपभोगसे रहित हैं। वृक्षकी तरह पत्तों (प्राप्ति और पत्र ) को ऋद्धिसे परित्यक्त हैं । दुष्कर-कथाका विचार करते हुए कविकी तरह अत्यन्त चिन्ताशील हैं। सूर्यकी तरह अपनी ही किरणों से वर्जित है । आगकी भाँति तोय और तुषारसे ( आँसू और प्रस्वेदसे) वर्जित हैं । तुम्हारे वियोग में राम क्षयकालके इन्दुकी तरह ह्रासोन्मुख हो रहे हैं, या दसमीके इन्दुकी भाँति अत्यन्त दुर्बल और अशक्त शरीर है ।११-१० ॥
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१३८
पउमचरिड
। [२] अण्णु वि मयरहराबत्त-धरु सिर-सिहर-चढाविय-उभय-करु । णिय जणि वि पुच ण अणुसरइ सोमिति जेम पई संभरइ ॥१॥
( पद्धडिया-दुवई) सुमरह णिय गन्दणु माया इस सुमरइ सिहि पाउस छाया इव ॥२।।
सुमरइ जणु पहु-मजाया इव ॥३॥ सुझाव भिन्नु शुसाभिदा । सुमरह करहु करार-लया इव ॥४॥ सुमरह मन-हस्थि घणराह व । सुमरइ मुणिवरु गइ-पेवरा इव ॥५॥ मुमरह णिन्द्णु थण-सम्पत्ति च । सुमरइ सुरवर अम्मुप्पत्ति व ॥६॥ सुमरह भविउ जिणेसर-मति छ । सुमरइ वड्याकरणु विहन्ति व १७॥ सुमरइ ससि संपुण्ण पहा इव । सुमरइ बुहयणु सुका-कहा इव II सिह पइँ सुमरइ देवि जणझणु । रामहों पासिउ सो वृमिय-मण ६॥
घसा एक्कु तुहारउ परम-दुहु अगेक्कु वि रह-तणयहाँ तणउ । एक्कु रत्ति अण्णेषकु दिणु सोमित्तिहँ सोक्नु कहि तणड' ॥३०॥
तो गुण-सलिल-महाणइहें रोमञ्च पवहिर जाणा । काउ फु वि संय-खण्ड गउ पं खलु भलहन्तु विसिह-मड |
(पद्धडिया-दुवई) पदम् सरीरु ताह रोमचिउ । पच्छएँ णवर विसाएँ सचिउ ॥२॥ 'दुक्कर राम-दूउ एहु आइउ । मम्छुड अण्णु को वि संपाइस ॥३॥ अस्थि अपोय पुरथु . विजाहर । जे णाणाविह · रूव-अधार ॥३॥ सवाँ मई सब्भाव णिरिक्खिय । चम्दणहि वि चिरुणाहि परिक्खिय ।। गं घण-देवय माणहाँ चुक्की । "मई परिणहाँ"पभणन्ति पटुकी ६॥
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पण्णासमो संधि
१३६
[२] आपके वियोग में लक्ष्मण भी अपने दोनों हाथ सिर से लगाकर जितनी याद आपकी करता है, उतनी अपनी माँकी भी नहीं करता । वह आपको उसी तरह याद करता है जिस प्रकार बच्चा अपनी माँकी याद करता है। मयूर जिस तरह पावस छायाकी याद करता है, जिस प्रकार सेवक अपनी प्रभुकी मर्यादा की याद करता है, जिस प्रकार अच्छा किंकर अपने स्वामीकी दयाकी याद करता है, जिस प्रकार करभ करीरलताकी याद करता है, जिस प्रकार मदगज बनराजिकी याद करता है, जिस प्रकार मुनि उत्तम गतिकी याद करता है, जिस प्रकार इन्द्र जिनजन्मकी याद करता है, जिस प्रकार भव्य जीव जिन भक्ति की याद करता है, जिस प्रकार वैयाकरण विविकी याद करता हैं, जिस प्रकार चन्द्रमा सम्पूर्ण महाप्रभाकी याद करता है, वैसे है देवी लक्ष्मण आपकी याद करते रहते हैं। रामकी अपेक्षा कुमार लक्ष्मण को एक तुम्हारा ही परम दुःख है। दूसरा दुख है रामका । चाहे रात हो या दिन लक्ष्मणको सुख कहाँ ? ॥१-१०१२
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[३] तब ( यह सुनकर ) गुणगणके जल की महानदी सीतादेवी का रोमांच बढ़ गया। उनकी चोली फटकर सो टुकड़े हो गई, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार विशिष्ट भदको न पाकर खल सौ-सौ खंड हो जाता है। पहले तो उनका शरीर पुलकित हुआ । किन्तु बाद में वह विषादसे भर उठीं। वह सोचने लगीं कि यह दुष्कर रामका दूत आया है, या शायद कोई दूसरा ही आया हो । यहाँ तो बहुतसे विद्याधर हैं जो नाना रूपों में भयंकर हैं, मैं तो सभी में सद्भाव देख लेती हूं। जैसे मैं बहुत समय तक चन्द्रनखाको नहीं पहचान सकी थी। वह ( चन्द्रनखा ) किसी स्थानभ्रष्ट देवी की तरह आई और उनसे कहने लगी कि मुझसे विवाह कर लो ।
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१४०
पडमचरित णवर णियाणे हुआ विवाहरि । किलिकिसन्ति घिय सम्हाई अमरि ॥७॥ लक्षण-खग्गु गिएवि पणही । हरिणि वाह-सिलोमुह-तही || अण्णाएं किड गाउ मयारू । उ मि छलिय विच्छोइउ इलाहरु ।।६।।
पत्ता कहि लक्खणु कहिं दासरहि भायहाँ दूभतणु का तणउ । माणा-रूबै पिड करें वि मणु जोह को वि महु तण son
आठवमि खेदडु बरि एण सहुँ पेक्लहु कवणुत्तर देइ महु ।
माणवेण होवि आसकियउ किउ लवण-महोवहि लरियड' ॥३॥ पचारिउ णिय-मणे चिन्तन्तिएँ । जा तुहँ राम-चूड विणु भन्तिएँ ॥२॥ तो किड कमिड बगह पहुँ सायरु । ओ लो णक-गाह • भयहरु ॥३॥ काछव - मस्छ - दच्छ - पुछाउ । मुंसुमार करि -मयर-सणाहत ॥१॥ जोयण-सय सत जक विथर । णिच णिगोउ जेम भइ दुत्ता ॥५॥ एक्कु महोवहि दुप्पइसारो । अण्णु वि भासाली-पापारो ॥६॥ सो सम्बहुँ दुलघु संसार व । अनुहहुँ विसमा पश्चाहारू व ॥७॥ सहाँ पवित्रलु परिवखिए-इरिसउ । बजाउहु वजाउह • सरिसउ ॥८॥ अण्णु महाहवें विष्फुरिताहरि । कम परजिय लासुम्परि ।
पत्ता आगई सब्याह परिहर वि गहुँ लका-गपरि पइड किह । भट्ट वि कम्पह निहले दि वर-सिद्धि-महापुरि सिद्ध जिह' ॥१०॥
सं जिसुणे वि वयष्णु महन्धविउ विसहेप्पिणु अंगणेश विक। 'परमेसरि भस वि मन्त्रि तउ जाहि वसाह समर हट ॥३॥
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पण्णासमो संधि पर वास्तव में वह विद्याधरी थी। बादमें वह किलकारी मारकर हमारे ऊपर ही दौड़ी। परन्तु (कुमार लक्ष्मणकी) तलवार सूर्यहास देखकर वह बैसे ही एकदम त्रस्त हो उठी मानो व्याध के तीरोंसे आहत कुरंगी हो । एक और विद्याधरन सिंहनाद किया,
और इस प्रकार मेरा अपहरणकर मुझे रामसे अलग कर दिया। फिर लक्ष्मण कहाँ राम कहाँ, और कहाँ यह दूतकार्य ! जान पड़ता है, कोई छलसे मेरा प्रियकर मेरा मन थाहना चाहता है ।। १.१०।।
[४] अच्छा, मैं तबतक इससे कुछ कौतुक करती हूं। देखू, यह क्या उत्तर देता है। (अपने मनमें यह सोचकर) सीतादेवी ने पूछा-"अरे मनुष्य होकर भी तुम इतने समर्थ हो ? आखिर तुमने लवण-समुद्र कैमे पार किया ? यदि तुम निःसन्देह रामके दूत हो तो तुमने समुद्र कैसे पार किया।हे वत्स ! वह (समुद्र) मगर और ग्राहों से भयंकर है, कच्छप, मच्छ और दक्षसे युक्त है। शिशुमारों, हाथियों और और मगरोंसे भरा हुआ है, सात सौ योजनके विस्तारवाला नित्य निगोदकी भाँति दुस्तर है। एक तो उसमें प्रवेश करना वैसे ही कठिन है, और फिर उसपर आसाली विद्या का परकोटा है। सचमुच ही, वह सारे संसारको तरह. या अपंडितके लिए विषम प्रत्याहारकी तरह अलंध्य है। इतनेपर भी उसका रक्षक, इन्द्र के समान, हर्षोत्फुल्ल वायुध है।
और तुमने युद्ध में कम्पिताधरा लेकासुन्दरीको किस प्रकार पराजित किया? इन सबसे बचकर, तुम उसी प्रकार लंकानगरी में प्रविष्ट हो गये, जिस प्रकार सिद्ध सिद्धपुरी में प्रवेश करते हैं ।।१-१०॥
[५] इन बहुमूल्य वचनोंको सुनकर हनुमानने हँसकर कहा, "हे परमेश्वरी! क्या अब भी आपको सन्देह है ? मैंने युद्ध में वज्रा
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१४२
पडमचरित
जावेहि वसिकिय लकासुन्दरि । लइम सा वि कुरण व कुअरि ॥२॥ णियासालि महोवहि लहिउ ! एवहिं राधणो वि भासविउ ॥३॥ एवं वि जहण देवि पतिजहि । तो राहव-सनेउ सुणेज हि ॥४॥ जाइयहुँ वण-बासहाँ गोसरियइँ । दसउर - कुम्वर-पुर पइसरियह ॥५॥ णम्मय विझु तावि अहिणाणहूँ । अरुणगाम - रामउरि - पयाण ॥६॥ जयउर - पन्दावस - शिक्षाणई । खेमञ्जलि - सत्थल - थाणई ॥७॥ गुत्त - सुगुप्त - जढाइ - णिवेसई । खम्गु सम्वु चन्दयहि पएसई ॥८॥ खर - दूसण - सलाम - एकाई । सिसिरय-रण - परियाई दहबई ।।६।।
घत्ता
एयइँ चिन्धई पायबई अवराह मि कियई जाई बला। काई ण पई अशुहूआई श्रषसोयणि सीहणाय-फलस् ॥१०॥
[६] सुणि जिह जडाइ संधारियउ रणे रयणकेसि विस्थारियउ ।
सहसग सरेहि पियारियड सुग्गीउ रज वाइसारियउ' ॥३॥ तं णिसुणेवि सीय परिभोसिय । 'साहु साहु भो' एम पोसिय ॥२॥ 'सुहा-सरीर-धीर-चल-मदहो ।सद भिधु होहि वलइयही ॥३॥ पुणु पुणु एम पसंस करन्ति । परिहिए अगुस्थलड तुरन्तिए ।।४।। रेहह करयल समसाइबर 1 णं महुअरू मयरम्द-पइन्छउ ॥५॥ ताव सदस्यड पहरू समाहउ । लाहि विष्णु जाई जम-पबह ॥६॥
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पण्णासमो संधि
१४३ युधको मार गिराया है। लंकासुन्दरी भी मेरे वशमें है, उसी प्रकार जिस प्रकार हथिनी हाथीके वशमें हो जाती है। आसाली (आसालिका) विद्याको भी मैंने नष्ट कर दिया है। और इस समय मैं रावणका सामना करने में समर्थ हूँ। इतने पर भी आपको विश्वास न हो रहा हो तो मैं राघवके दूसरे-दूसरे संकेतोंको बताता हूँ आप सुनिएँ। जब राम वननासके लिए निकले तो वे दशपुर और नलकबरके नगरमें प्रविष्ट हुए। नर्मदा विध्याचल (होते हुए) और ताप्ती नदीमें स्नान करके उन्होंने सबेरे रामपुरी नगरीके लिए प्रस्थान किया। जयपुर और नद्यावर्त नगरको उन्होंने नष्ट किया। क्षेमजलि और वंशस्थल स्थानोंका अबलोकन किया। फिर गुप्त-सुगुप्त और जटायुका संनिवेश, सूर्यहास खंग, मद्रा कुमार और वाखमा सोश, खंदुरम संयमकी प्रवंचना, त्रिशिराका रण-चरित्र, तथा दूसरे दसरे दैत्योंके भी। ये तो उनकी पहचान की स्वाभाविक बात हैं । निशाचरोंने और भी दूसरे-दुसरे छल किये हैं। क्या आपको अवलोकिनी विद्या, और सिंहनादके फलोंका पता नहीं है ? ॥१-१०।।
[६] सुनिए, जिस प्रकार जटायुका संहार हुआ और विद्याधर रत्नकेशी पराजित हुआ। सहस्रगति तीरोंसे छिन्न-भिन्न हो गया। सुग्रीव राजगद्दीपर बैठाया गया।" यह सुनकर सीतादेवी को संतोष और विश्वास हो गया। उन्होंने कहा, "साधु-साधु, निश्चय ही तुम सुभट-शरीर वीर रामके अनुचर हो ।” बार-बार इस प्रकार हनुमानकी प्रशंसा करके सीतादेवीने वह अंगूठी अपनी उँगली में पहन ली। करकमलमें लिपटी हुई वह ऐसी जान पड़ रही थी मानो मधुकर ही परागमें प्रविष्ट हो गया हो। इतने में चौथे पहरका इस प्रकार अन्त हो गया कि मानो लंकामें यमका
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१४४
पउमचरिट
गाई पोसइ 'अहाँ अहाँ लोयहाँ । धम्मु करहों धण-रिद्धि म जोयहाँ ॥७॥ सधु चवहीं पर-वधु म हिंसहाँ । में चुकहाँ तहाँ वइवस-महिसहाँ ।।८॥ पर-तिय मनु महु महु वजहौं । जे चुकहाँ संसार-पवनहीं ॥६॥
घत्ता
मं जाणेजहों पहरु गड़ जमरायहाँ कैरड आण करु । तिवं हि णाडि कुवारहि विवंदिव छिन्देवउ भाउ-तरु' ||१०
[ ] णं पुणु वि पोसइ घझिम-सरु 'हउँ तुम्हहुँ गुरु उचएस करु ।
जग्गहों जगहों के सिर सुअहो माछरु अहिमाणु माणु मुभहीं ॥१॥ किगण णिग्रच्छहों आउ गलन्ताउ । णादि-पमाहिं परिमिवन्तः ॥२॥ अद्वारह-सय-सङ्ग-पगा हि । सिद्धहि सहसिएहिं उसासें हिं ॥३॥ पाडि-पमाणु पगासिद एहउ । तिहि णाडिदि मुहुन त केहउ ॥४॥ सत्त-सयाहिएहि ति-सहासें वि । अण्णु वि तेहत्तरि-उसासें हिं ॥५॥ गुख मुहुस-पमाणु णिवउ । दुःमुहुरोहिं पहरड पसिबउ ॥६॥ पहरद्ध वि सचद्ध-सहासहि । अण्णु वि छाया हिं उसासहि १७॥ विहिं अहिं दिख ही अद्धड । चाणवई उसासे हिं वनउ ॥८॥ अण्णु वि पपणारहहिं सहासहि । पहरू पगासिउ सोक्ष-णिवासे हि ॥९॥
घत्ता
जाहि गाडिहें कुम्भु गउ चरसहिहि कुम्भई रति-दिणु' । एसिड छिज्जइ आउ-बलु त क युवइ परम-जिणु' nou
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पणासमो संधि
१४५
डंका पिट गया हो, मानो वह यह घोषणा कर रहा था कि अरे लोगो, धर्मका अनुष्ठान करो, दूसरोंकी ऋद्धिका विचार मत करो, सत्य बोलो, दूसरेके धनका अपहरण मत करो। यदि तुम यममहिषसे बचना चाहते हो तो मद्य, मांस और मधुसे बचते रहो। यदि तुम संसारकी प्रवंचनासे छूटना चाहते हो तो यह मत समझो कि यमराजका आज्ञाकारी एक प्रहर चला गया, अगित तीम्सी नाड़ी रूपी कुठारोंसे दिन-प्रतिदिन आयु रूपी वृक्ष छिन्न हो रहा है ।।१-१०॥
[७] मानो घटिका बार-बार अपने स्वरमें यही कहती है कि मैं तुम्हें उपदेश कर रही हूँ। जागोजागो कितना सोते हो ! मत्सर, अभिमान और मानको छोड़ो। अपनी गलती हुई आयुको नहीं देख रहे हो ! आयु इन नाड़ियोंके प्रमाणमें परिमित कर दी गई है। एक हजार आठसौ छियासी उच्छ्वासोंके बराबर एक नाड़ी होती है। नाडीका यही प्रमाण है। फिर दो नाड़ियाँ एक मुहर्त जितने प्रमाण होती हैं। तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छवासोंका प्रमाण होता है। एक मुहूर्तका परिमाण बता दिया। दो मुहूतोंका आधा प्रहर प्रसिद्ध है । वह भी सात हजार पांचसौ छयालीस उच्छ्वासोंके बराबर होता है। दो आधे प्रहरों से दिनके आधेके आधा भाग होता है । सुखनिवास रूप वह पन्द्रह हजार बानबे उच्छ्वासोंके बराबर होता है। इस प्रकार हमने एक प्रहर प्रकट किया । और इसी तरह नाड़ी-नाड़ीसे घड़ी बनती है।
और चौसठ घड़ियोंसे एक दिनरात बनता है । आयुकी शक्ति इसी तरह क्षीण होती रहती है इसीलिए जिन-भगवान् की स्तुति की जाती है।
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पढमचरिङ
[5]
निसि-पहरें चउरथ तानियऍ णं जग कवाडे उघाडियएँ । तहिँ तेहऍ काल पगासियड तियडऍ सिविणड विष्णासियत ॥ १ ॥ 'इ ह लबलिए लहऍ बजिए। सुमनें सुबुद्धिए तार तर ि॥२॥ इलें कहो लिए कुवलय- लोयणें । इसे गन्धारि गोरि गोरोय ॥३॥ हलै विजय जाम मयाणि ॥४॥ सिविण्ड अज्जु मा तह तह सम्वु तेज सो विणिव
।
भई विउ एकु जोहु उज्जाण पडूवर || ५१ आकरिसिउ । वजें जिह वण भङ्गु पदरिसिङ ॥ ६ ॥ इन्दह-राए । पाव-पिण्डु णं गरुन कसा ॥७॥ वेडेपणु | गउ दस सिर सिरे पाउ वेपिशु ॥ हरि सिय-ग किड घर-भ नाइँ दु-कलसें ॥१॥
पट्टण पसा पुशु थोवन्स
1
१३६
धता
तावन्ने गरवरेण सुरबहुअ- सुहालय खोरणिय । उप्पादेपिशु बहि-जलै आवट्टिय लङ्क स-तोरणिय ||१०||
[ x ]
जणु सुर्णेदिति
त
सहिँ एक मर्णे व वण ।
.
'ह चक्रउ सिविणउ दिट्ठ पई रावणहाँ कहेव गम्पि मई ॥१॥ घुड जं दिह मणोहरु उववणु तं वइदेहि केरड योग्य ॥२॥ जिवरम लिड जेण सो रावणु । जो णिवद्ध सो सस भयावणु ॥ ३ ॥
ु
जो दहगीवहाँ उयरि पधाइड 1 सो णिस्मलु जसुकद्दिमि ण माइ ॥४॥
जं पुहई जयधरु विसि तं पर-बलु दहमुहण दिणासि ॥५॥ जं परिचित लङ्क रचणायरें । सा मिद्दिलिय पसारिम सिरिहरें १६॥
A
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एग्णालमो संधि
१४.
[] रातका चौथा प्रहर ताड़ित होनेपर (ऐसा लगा) मानो जगके किवाड़ खुल गये हों। तब, इसी प्रभातलामें त्रिजटाने रातमें देखा हुआ अपना सपना बताया । उसने कहा कि हला हला, सखि लवली, लता, लवंगी, सुमना, सुबुद्धि, तारा, तरंगी हला, कक्कोली, कुवलयलोचना, गन्धारी, गौरी, गोरोचना, विद्युत्प्रभा, ज्वालामालिनी, इला अश्वमुखी, राजमुखी, कंकालिनी, । आज मैंने एक सपना देखा है कि एक योधा अपने उद्यान में घुस
आया है और उसने ( उसके ) एक-एक पेड़को नष्ट कर दिया है। वनकी भाँति उसने वन-विनाशका प्रदर्शन किया है । तब इन्द्रजीतने उसे उसी प्रकार पकड़कर वाँध लिया जिस प्रकार गुरुतर कषायें पापपिण्ड जीवको बाँध लेती हैं । उसे घेरकर नगरमें प्रविष्ट किया। परन्तु वह दशाननके मस्तकपर पैर रखकर चला गया । थोड़ी ही देरके बाद हर्षितशरीर उसने कुकलन की तरह घरका नाश कर डाला। इतनेमें एक और नरश्रेष्ठने सुरवधुओंकी शोभाका अपहरण करनेवाली लकानगरीको तोरणसहित उखाड़कर समुद्र में फेंक दिया ।।१-१०॥ - [६] ब्रिजटाके वचन सुनकर एक, ( सखी) के मनमें बधाई की बात उठी और उसने कहा, "हला सखी ! तुमने बहुत बढ़िया सपना देखा है, मैं जाकर रावणको बताऊँगी। यह जो तुमने सुन्दर उद्यान देखा है वह सीताका यौवन है और जिसने उसका दलन किया है वह रावण है, जो बौधा गया वह भयानक शत्रु है, और जो रावणके ऊपर दौड़ा वह ऐसा निर्मल यश है कि जो कहीं भी नहीं समा सका । और जो पृथ्वीका जयघर ध्वस्त हुआ वह रावणने ही शत्रु सेनाका संहार किया । और जो लङ्कानगरीको समुद्र में प्रक्षिप्त किया गया, वह सीताको हो श्रीगृहमें प्रवेश कराया .
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परमपरित
तं मिसुर्णेवि भज्योक पोलिय । गग्गर - वयणी अंसु- जलोक्किम ॥७॥ 'अवसें सिविणउ होइ असुन्दरु । बहिं पठिवक्याहों पक्खिड सुम्हरू ॥८॥ मुणिवर-भासिर हुक्कु पमाणहाँ । जिह लङ्कहे विणासु उज्जाणहाँ ।।६।।
घत्ता पहु सिविणउ सीयाँ सहलु जसु रामहों वि अउ जणणहाँ । सहुँ परिवारै सहुँ चलेग खप - कालु पहुक्कु दसाणणहों' ॥३०॥
[.] सहि अवसर पाण - पओहरिए अरुणुम्गमें लङ्कासुन्दरिएँ ।
हर - अहरउ विणि मि पेसियउ हणुवम्तहाँ पातु गवेसियङ ॥१॥ जा उज्जाण परिटिउ पाणि | सयलु- गरिन्द- विम्द-चूडामणि ॥२॥ तहि संपत्सउ विणि वि जुवहर 1 सिव-सासा ससिरि सुगइड ॥३॥ पं खम दयउ जिणागमें दिदउ । जयकारेप्पिणु पास णिविटउ ॥४॥ सेगा वि साहिं समउ पिड अम्पधि । कण्टर काली-दामु समप्पवि ॥५॥ पुशु विष्णत हलीस मणोहरि ! भोभणु तुम्ह केम परमेसरि ॥६॥ अवसह सीय . समारण-पुत्तहाँ । 'वासर एकवीस मइँ भुत्तहाँ ॥७॥ जाम ण पत्त घन भसारहों । साम णिविक्ति मामु आहारहों ॥६॥ अज णवर परिपुष्ण मणोरह । तं जें भोज्जु जे सुभ रामही कई' ॥१॥
पत्ता तं णिसुणे वि पवणहाँ सुपण अवलोइड मुहु भइरहे सण । 'गम्पिणु भक्णु विहीलणहाँ बुबह सीयहें करि पारणउ ॥१०॥
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पपणासमो संधि
गया है।" यह सब सुनकर एक और दूसरी सखी अपनी आँखोंमें आँसू भरकर गद्गद स्वरमें बोली, "अवश्य ही यह सपना असुन्दर होगा। इसमें प्रतिपक्षका पक्ष ही सुन्दर होगा। मुनिवर का कहा सच होना चाहता है । उद्यानके विनाशकी तरह लंकाका विनाश होगा। यह सपना सीतादेवीके लिए सफल है क्योंकि इसमें सम का यश और लक्ष्मणकी विजय निश्चित है। अब रावणका, अपने परिवार और सेनासहित क्षयकाल ही आ. पहुंचा है ।।१-१०॥
[१०] ठीक इसी अवसरपर पीनपयोधरोंवाली लंकासुन्दरीने हनुमानका पता लगानेके लिए इरा और अचिराको भेजा ! समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ हनुमान जिस उद्यान में घुसा हुआ था वे दोनों भी इस प्रकार वहाँ पहुँची मानो शिवस्थानमें सुगति और तपश्री पहुँच गई हों, या मानो जिनागममें क्षमा दया देखी गई हों। हनुमानने उन दोनोंके साथ प्रिय आलापकर उन्हें कण्ठा और कांचीदाम दिया । और फिर उसने रामकी पत्नी सीतादेवी से पूछा, "हे परमेश्वरी! आपका भोजन किस प्रकार होगा।" यह सुनकर सीतादेवीने हनुमानको बताया कि मुझे भोजन किये हुए इक्कीस दिन व्यतीत हो गये। मेरी भोजनसे तब तकके लिए निवृत्ति है कि अब तक मुझे अपने पतिके समाचार नहीं मिलते। किन्तु केवल आज मेरा मनोरथ पूरा हुआ। और यही मेरा भोजन हैं कि मैंने रामकथा सुन ली।
पत्ता—यह सुनकर हनुमान ने अचिरा का मुख देखा और (कहा), “जाकर विभीषण से सीता के भोजन के लिए कहो।"
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१५०
पतमच रिट
[1]
इरे तुहु मि जाहि परमेसरिहं तं मन्दिर लङ्कासुन्दरिहें । लहु भोषण आहार जंस-रस-मेह जिह सुरउ ॥१॥
उत्पति ॥ २५ विक्खाय ॥२॥
तं णिसुबि वे वि संचलित मं सुरसरि जण रखु भन्छु लहु लेविशु आयड | णं सरसइ - लडि वड्डड भोयणु भोयण- सेआएँ । अच्छऍ पर सकर-खण्ड
खण्डऍ पे ॥४॥ पायस पयसेंहिं । लड्डुव-लावण-गुरु- इन्सुरसँ हिं ॥५॥ मण्डा सोयवति घियकरें हिं । मुमा सूत्र णाणानिह करें हिं ॥ ६ ॥ सालण हं बहु विधि-विचित्तर्हि माहणि-मायन्देहिं विधिहिँ ॥७॥ अलय पिप्पलि मिरियालऍहि । लावण-माल र हिँ कोमल हि ॥८॥ चिभिटिया कचोर बासुतर्हि पेडल पप्पडेहिं सु-पहुहिं ॥३॥ केल्य नालिकेर जम्बीरे हिं । करमर करवन्देहिं करीरे हिं ॥१०॥ तिम्मणेहिं जाणाविह चप हिं । साविच मजिय स्वहाव हिं ॥। ११ ॥ अष्णु मि खण्ड सोल-गुदसोल्लेहिं । वढाइहिँ कारसहिं ॥१२॥ विक्षणेहिं स-महिय दहि-खीरें हिं। सिंहरिणि धूमवन्ति सोवीरें हिं ॥ १३॥
पत्ता
अच्छउ एड (?) मुहरसिउ अवियन्हद उल्हाचजउ किह । यहिं में लम्ब सहिँ जे तर्हि गुलियार जिनवर वषणु सिंह ॥११४॥ २ [ २ ]
I
तं ते भुवि भोयण पुणु करेंवि वयण-पश्खालणड | समलहैं कि अनु वर-चन्द्रणेण विष्णन्त देवि मरु णन्वर्णे ||१|| 'बद्ध महु सणएँ व परमेसरि । नेमि सेत्धु जहिँ राइव केसरि ||२|| मिलों वे विपरन्तु मणोरह । फिट जणवएँ रामायण- कार * ॥२॥ सं जिसुमेचि देवि गओशिन साहुकार कति पयोय ॥४॥ा 'सुन्दर भिय-धरु गम-गुण-बहुएँ (1) एहन जित्ति हो कुछ बहुम ||५||
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पण्णासमो संधि [११] इरा, तु भी शीघ्र परमेश्वरी लंकासुंदरी के घर जा और वहाँमै सुन्दर भोजन ले आ, ऐसा कि जो सुरतिके समान सरस और सस्नेह, और सुन्दर हो। यह सुनकर वे दोनों इस प्रकार चलीं मानो गंगा और यमुना ही उछल पड़ी हों। रंधा हुआ भात्त लेकर, वे आयीं। वे विख्यात सरस्वती और लक्ष्मीके समान जान पड़ती थीं। उन्होंने भोजनकी थाली में सुन्दर चिकने पेयके साथ भोजन परोसा। शक्कर, खीर, दूध, लड्डू, नमक, गुड़, इक्षरस, मिठाई, रस, सोयवत्ती (?), घेवर, मूंगकी दाल, तरहतरहके कर, विविध और विचित्र कढ़ी, विचित्र माइंद और माइण फल, चिरमटा, कचोर, वासुत, पेउअ, पापड, केला, नारियल, जम्बीर, करमर, करौंदा, करीर, तरह-तरहकी कढ़ी, खटमिठी साडिव भाजी तथा और भी खांड़ और खांड़का सोरबा, बडवाइंगण, कारल्ल, मही, दही और दूध सहित व्यञ्जन तथा बधारे हुए कांजीर और सौवीर उस भोजनमें थे। इस प्रकार, वह उल्लसित और मुंहमें मीठा लगने वाला भोजन था। जो भी जहाँ उसे खाता, वह जिनवरके वचनोंकी भांति मधुरतम मालूत होता था॥१-१४॥
[१२] उस वैसे भोजनको कर सीता देवीने अपने मुखका प्रक्षालन किया। और उत्तम चन्दनके अवलेपके बाद हनुमानने सीतादेवीसे कहा, "माँ, मिरे कन्धेपर चढ़ जाओ। मैं वहाँ ले जाऊंगा जहाँ श्री राघसिंह हैं। वहीं मिलनेसे दोनोंके मनोरथ पूरे हो जायेंगे, और जनपदमें रामायणकी कथा भी फैल जायगी।" यह सुनकर सीतादेवी पुलकित हो उठीं। साधुवाद देकर उन्होंने हनुमानसे कहा, “गतगुण बहके लिए इस तरह अपने घर जाना चाहे ठीक हो परन्तु कुलवधूके लिए यह नीति ठीक
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१५२
पठमचरिउ गम्मइ वच्छ बइ बि णिव कुमारक । विष्णु भत्तारें गमषु असुरु ॥६|| अणवत होह दुगुम्बण-सोलाउ । खल-सहार णिय-चिरों माइलउ ॥७॥ अहिजै अनुषु सहि ज भासद । मणु रक्षाविसको विप सका ।।। णिहए दसाणणे उप-जय-सएँ । मई जाएषड सहुँ वलहरें ॥
घत्ता जाहि वच्छ अच्छामि इ. णिम्माल-दसरह-सुम्भवा । लइ चूडामणि महु तणउ अहिणाणु समपहि राहवहाँ ॥३०॥
- [३] अणु वि पालि वि गण-घणड लन्तेसउ अम्बु महु तणउ ।
वल तुल्य विभोए जणय सुष थिय लाह-विसेस ण का वि मुभ ॥३॥ .. कोण मय-लेह गह-हिप व । झीण सुरिम्न-रिद्धि तवरहिय व ॥२॥ मीण कुवेस-मग्न वासाणि छ । झीणावुछ-मुहें सुबह-सुवाणि व ॥३॥ मीण दिवायर-इंसणे ति व । झीण -जणव जिणवर-भतिव॥४॥ झोण दुभिक्स अस्थ-संपति व । झोण बुदत्तणन वल-सत्ति व ॥५|| मीण परिस-विहूणहाँ किक्ति व । झीण कु-कुलहरें कुलबहु-णित्ति व ६॥ श्रणु चि दसरा-वंस-पगासहों । पश्यत्यले जय-लपि-शिवासहौं ७।। रणे दुम्बार-बहरि - विणिवारहाँ । सहाँ सन्देसर गोहि कुमारही ।।।। बुबह "पई होम्सेण पि लक्षण । अच्छा सीप स्यन्ति अलक्षण I16||
जउ देवहि भाउ दाणहि गउ रामें वहरि-वियारऍण । पर मारेम्बउ वनपणु स हैं भु भजुभलेण तुहारऍण" ॥१०॥
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पण्णासमो संधि
१५३ नहीं। हे वत्स, अपने कुलघर भी जाना हो तो भी पतिके बिना जाना ठीक नहीं। फिर जनपदके लोग निन्दाशील होते हैं उनका स्वभाव दुष्ट और मन मलिन होता है। जहाँ जो बात अयुक्त होती है वे वहीं आशंका करने लगते हैं । उनके मनका रंजन इन्द्र भी नहीं कर सकता। इसलिए निशाचर दशाननका वध होनेपर 'जय जय शब्द' पूर्वक श्रीरामके साथ अपने जनपद जाऊँगी। हे वत्स ! तुम जाओ मैं यही हूँ। लो, यह मेरा चूडामणि । निर्मल दशरथकुल उत्पन्न श्रीरामको पहचान (प्रतीक) रूप में यह अपित कर देना ॥१-१०॥
[१३] और भी गुणधन, उनका आलिंगनकर मेरा यह संदेश कह देना, 'हे राम, तुम्हारे वियोगमें सीता देवी रेख भर रह गई है। किसी प्रकार वह मरी भरं नहीं, यही बहुत है। वह (मैं) राहुनस्त चन्द्रलेखाकी तरह क्षीण हो गई है। तपसे हीन इन्द्रकी ऋद्धिकी तरह क्षीण है। कुदेशमें निवास की तरह वह क्षीण है। मूर्खके मुंहमें कविकी सुवाणीकी तरह क्षीण है। सूर्यदर्शन होनेपर निशाफी तरह क्षीण है। कुजनपदमें जिनभक्तिकी तरह क्षीण है । दुभिक्षमें अर्थसम्पदाकी भाँति क्षीण है। वह चरित्रहीनकी कीर्तिकी तरह क्षीण है । खोटे घरमें कुलवधूकी तरह क्षीण है। युसमें दुरि वैरियोंको पराजित करनेवाले कुमार लक्ष्मण से भी मेरा यह सन्देश कह देना कि लक्ष्मण, तुम्हारे रहते हुए भी सीता देवी रो रही है। न तो देवोंसे, न दानवोंसे, और न चैरीविदारक रामसे रावणका का वध होगा। केवल तुम्हारे भुजयुगल से रावणका वध होगा ॥१-१०॥
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[५१ एकवण्णासमो संधि ] सं घडामणि लेवि गउ लरिच-णिवासहरे भवलिय-माणहो । र्ण सुर-करि कमलिणि-वणही मारह वलिउ समुहु उमाणहाँ ।
[ ]
दुबई
विधि वाहु-दण्ड परिचिन्तइ रिउ-जयलधि-महालो ।
'ताम ण डामि अज्नु बाम ण रोसाविउ म दसाणको ॥१॥ वणु भामि रसमसकसमसन्तु । महिनीठ-गाहु बिरसोरसन्तु ॥२॥ णायउल - विउल -घुम्भल - वलन्तु । रुक्खुक्सय-खर-खोमिए खलन्तु ॥३॥ णीसेस - दियन्तर - परिमलनातु । कलि - वेलिरुबली-लालन्तु ॥२॥ सुमन - भिङ्ग - गुमुगुमुगुमन्तु । तरुलमा-भग्ग-दुमुमुदुमन्तु ॥५॥ एला - कोलय - कश्यन्तु । वड-विटव-ताड-सस्तासरन्तु ।।३॥ करमर . करीर • करकरपरन्तु । आसस्थागरिथ्य - थरहरन्तु ॥७॥ मड-मछ सय-खण्ड जन्तु । सप्तश्य-कुसुमामोष दिन्तु ॥८॥
वत्ता उम्मूलन्तु असेस तर एक मुहुरु एत्यु परिसकमि ।। जोवणु जेम विलासिणि वणु दस्मलमि अमु जिह समि' ॥३॥
[२]
दुवई
पुणरवि पारकार परिमन्त्रवि णियय-मणेन सुन्दरो।
णपण-वण पडद णं माणस-सरवर अमर भरो ॥१॥ णवरि उवणालए तेल्थु णिजमाइयासोग-णार-पुण्यागणागा लवका
पिया-विडमा समुहा सत्तलया ॥२॥ करमर-करवन्व-रतन्दना दारिमी-देवदारूलिही-भुभा दमख-रुक्स-पड
मक्ख-भइमुत्तया ॥ तरु तरल-तमाल-शालेलककोल-साला विसालाणा पक्षाला णिम्-सिन्दार
सिन्दूर-मन्दम्र-कृपये सबजुषा ll
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इक्यावनी सन्धि लक्ष्मी-निकेतन, अस्खलितमान हनुमान, सीतादेवीसे वह चूड़ामणि लेकर उस उद्यानसे वैसे ही चले जैसे कमल-दनसे ऐरावत हाथी जाता है।
[१] अपना बाहुदंड ठोकता हुबा, शत्रु को विजयलक्ष्मी का मर्दन करनेवाला वह सोचता है कि, मैं आज तब तक नहीं जाऊँगा कि अब तक रावण को क्रूस नहीं करता । रसमसाता कसमसाता, विरस शब्द उत्पन्न करता हुआ, नागकुल विपुल शिरोमणियों को मोड़ता हुआं, पड़ों के उखने से हुए खड्डों में स्खलित होता हुआ. समस्त दिशांतरों को दलता हुआ, अशोक लता और लवलीलता से क्रीड़ा करता हुआ, ऊँचे आकारवाले, भौरों से गुंजायमान, वृक्षों से लगे हुए भग्न द्रुमों को नष्ट करता हुआ. इलायची कक्केल लताओं को कड़कड़ाता हुआ, वटवृक्षों और ताइवृक्षोंको तड़-तड़ तोड़ता हुआ, करमर करीर वृक्षों को कड़कड़ाता हुआ, अश्वत्थ और अगस्त वृक्षों को थरथराता हुआ, बलपूर्वक सौ-सौ टुकड़े करता हुआ, सप्तपर्णी पुष्पों का सौरभ लुटाता हुआ, कठोर महीरूपी पीठवाले वन को भग्न करूंगा। समस्त पेड़ों को उखाड़ता हुआ मैं एक मुहूर्त के लिए परिभ्रमण करता हूँ। विलासिनी के यौवन की तरह आज मैं इस वन का दलन करूंगा।"
[२] अपने मन में बार-बार यह विचार करके सुन्दर हनुमाम उस उपवन में घुस गया। मानो ऐरावत महागज ही मान-सरोवर में घुसा हो । उपवनालयमें निध्यात, अशोक, नारंग, नाग, नाग, लवंग, प्रियंगु, विडंग, समुत्तुंग सप्तच्छद, करमर, करवन्द, रक्तचन्दन, दाडिम, देवदारु, हल्दी, भूर्ज, दाख, रुद्राक्ष, पद्माक्ष, अतिमुक्त, तरल-तमाल, तालेल, कक्कोल, शाल, विशालांजन, वंजुल, निंब, सिंदीक, सिंदूर, मन्वार, कुन्देद, ससर्ज, अर्जुन, सुरतरु, कदली
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पडमचरित
सुरतरू-कयली कयम्बम्ब-अम्बीर अम्बुम्बरा लिम्ब-कोसम्व-कावर कापूर-तारूर.
माशा-भासत्थ-णगोहपा ।।५।। तिलय-वउल-चम्मवा जागबेशी-चया पिप्पली पुप्फली पाडली केयई
माही मल्लिया माहुलिङ्गी-सरू ॥३॥ स-फणस लवली-सिरीखण्ड-मन्दागरू-सिन्हया पुतीवा सिरोसेस्थियारि
हया कोडया हिया णालिकोब्बई ॥७॥ हरिद-हरिया-एकरचाललावक्षया शिक-वन्दुक-कोरण्ट चाणिक्ख-वेणू-तिस
का-मिरी-अझया उउम-चित्रा-महू II कणहर-कणियारि सेस्ल करारा करक्षामला ककुणी-काणा एबमाइति अणे वि जे पामवा केण ते बुझिया ।।
धत्ता आयहुँ पपर-महद्दुमहुँ पहिल3 पारियाउ आयामिउ । मं धरणिह जेमणउ करु उप्पादेपिणु पाहयले भामिङ ॥10॥
[३]
दुवई सुरतरु परिधिवेवि उम्मूलिउ पुणु पारगोह-तरुवरी।
भायामें वि भुएहिं दहवयणे जिह काहलास-गिरिधरी ॥१॥ कलिउ चर पाय थररन्तु । गं बहरि रसायलें पइसरन्नु ।।२।। गं शन्दण-वणही रसन्तु साउ । गं धरणिहें वाहा-दण्ड वीज ॥३॥ गं दहावयणहों अहिमाण-स्वम्भु । णं पुहइ-पस्यम् पवर गम्भु ॥४॥ नुहन्त सयल-घण-मूल-जालु । पारोह-ललम्सु बिसाल-डालु ||५|| भारत - पत्त - परिघोलमाणु । तुण्डर - वर - परियम्विनमाणु ।।३।। कलयण्डि - कलायाराव - मुहल्लु । पिम्मउरु वि सप्पुरिसो व सुहल ॥७॥
घत्सा सो सोहह जग्गोह-तरु मारुप सुय-भुगल विहिं लड़यड । जावइ गाहें जउण वि मम पयागु परिहिउ तइपड ॥८॥
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एक्वण्णासो संधि
कदम्ब, जम्बीर, जम्बुम्बर, लिम्ब, कोशम्भ, खजूर, कयूर, तारूर, मालूर, अश्वत्थ, न्यग्रोध, तिलक, बकुल, चम्पक, नागचेल्ली, वया, पिप्पली, पुफ्फली, पाटली, केतकी, माधवी, सफनस, लवली, श्रीखण्ड, मन्दागुरु, सिह्निका, पुत्रजीव, सीरीष, इत्थिक, अरिष्ट, कोजय, जूही, नारिकेल, वई, हरड़, हरिताल, कबाल, लावञ्जय, पिक्क, बन्धूक, कोरन्ट, वाणिक्ष, वेणु, तिसञ्झा, मिरी, अल्लका, ढोक, चिवा, मधू, कनेर, कणियारी, सेल्लू, करीर, करञ्ज, अमली, कंगुनी, कंचना इत्यादि तथा और भी बहुतसे वृक्ष थे जिन्हें कौन समझ गिना सकता है। उन सब बड़े-बड़े वृक्षों में सबसे पहले पारिजात वृक्ष था । उसने उसको, धरती के यौवनकी तरह, उखाड़कर आकाशमें घुमा दिया ॥१- १०॥
१५७
[ ३ ] पारिजातको फेंककर उसने उस वृक्षको उखाड़ा, और अपने बाहुओं से उसे वैसे ही झुका दिया जैसे रावणने कैलाश पर्वतको झुका दिया था। थर्राते हुए उस वट वृक्ष को उसने इस प्रकार ( धरती से ) खींचा मानो पातालमें कोई शत्रु प्रवेश कर रहा हो या मानो वह, नंदनवनकी मुखर जिह्वा हो, या मानो धरतीका दूसरा बाहुदंड हो, मानो रावण का अभिमानस्तंभ हो या मानो प्रसूतवती धरती का विशाल गर्भ हो । ( आघातसे) उस महावृत्तकी जड़ोंका समूचा घनीभूत जाल छिन्न-भिन्न हो गया। प्रारोह टूट-फूट गये। विशाल शाखाएँ भग्न हो उठीं । लाल-लाल पत्तियों बिखर गई । ढँदर (राक्षस) और पक्षी कलरव करने लगे । कोयलोंके आलापसे वह गूँज उठा | झुका हुआ वह वट वृक्ष सज्जन की भाँति सुखद प्रतीत हो रहा था। हनुमानकी भुजलताओंसे गृहीत वह वदवृक्ष ऐसा मालूम हो रहा था मानो गंगा और यमुनाके बीचमें यह तीसरा प्रयाग ही हो ॥१८॥
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१५८
व-पाय विवेवि उम्मूलिउ पुणु कलि-तल्बरो । उभय-करेहिं लेवि णं बाहुबलिन्दे भरह णरवरो ||१||
आरत
पत
पल्लव-ललन्तु । कामिणि करकमलहुँ अनुहरन्तु || २ || उभिण्ण-कुसुम गीरच्छन्तु । णं महिई अणि चचि देन्तु ॥५॥ चञ्चरिय चारु चुम्बिज्जमाणु बहुविह विहङ्ग कङ्क ेल्लि बच्छु इय-गुण-विचित्तु । णं दहमुह-माशु पुणु लड्ड नाय-चम्पड करेण । णं दिस पाबवु उम्मूलित गयणहों अणुहरन्तु | अलि जोइस
चक्र
M
परमचरित
[*]
दुबई
-
1
-
-
-
सेविनमाणु || मलेषि षिषु ||
णक्षसer-forge 11511
-पहल- गहू- विक्विण्ण-पय । उग्भिण्ण- कुसुम सो चम्पड गयणण समग्गु । इहवयण-मढप्फरु पाइँ भग्गु ||१||
दिस- कुकुरेण ॥ ६ ॥ परिय्भमन्तु ॥७॥
बता
चम्पय- पायव परिषियोंकि कड्डिय उल-तिलय महि तार्दैवि । गजइ मत- गइन्दु जिह वे आहाण खरंभ उप्पादेषि ॥११०॥
[ ५ ]
दुबई चम्पय-तिलप-बदल-ढपायव सुस्तर भग्ग जायेंहिं ।
वाणपाल संपाइ गलगअन्त सा हि ॥ १॥
इकार कि जो उत्तर-वारों
पर-बल-बल-गधु । दावावकि धाइट लउडि- मृत्यु ||२|| क्वालु । जो पसरिम-अस-भुवणन्तरालु ॥३॥
जो गिलगण्ड-गय- -वरटु । एडिबक्स-सलणु अखकिय मरह ||al
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एवणासमो संधि
१५३ [४] क्टवृक्षको फेंककर, तब हनुमानने ककेली वृक्ष उखाड़ लिया, और उसे अपने दोनों हाथोंमें इस प्रकार ले लिया मानो बाहुबलिने भरतको ही उठा लिया हो। लाल-लाल पल्लव और पत्तोंसे शोभित वह वृक्ष कामिनीफे करकमलोको भाँति दिखाई दे रहा था, लिखे हुए फूलोंके गुच्छोंसे वह ऐसा लग रहा था मानो धरतीको केशरका अवलेप किया जा रहा हो, वह अशोक वृक्ष तरह-तरहके पक्षियोंसे सेवित हो रहा था। ऐसे गुणांसे सहित उस अशोक वृक्षको हनुमानने मानो रात्रणका मान दलन करनेके लिए ही उखाड़कर फेंक दिया। फिर उसने नाग चम्पक वृक्ष अपने हाथ में लिया, वैसे ही जैसे दिग्गजने दिशावृक्षको ले लिया हो । वह वृक्ष आकाशके अनुरूप प्रतीत हो रहा था। ( आकाश की भाँति ) वह भ्रमर रूपी ज्योतिषचक्रसे गतिशील था, और नये पल्लवोंके ग्रहसमूहसे व्याप्त था। खिले हुए सुमन ही उसका नक्षत्र मंडल था । गगनांगणमें व्याप्त उस वृक्षको रावणके अभिमान की भाँति भग्न कर दिया। इसी प्रकार चंपक वृक्षको फककर, बकुल और तिलक वृक्षाको खींचकर उसने धरतीको ताडित किया । ( उस समय ) वह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मदोन्मत्त महागजने अपने दोनों आलानस्तंभोंको उखाड़ दिया हो ।।१-१०॥
[५] चम्पक, तिलक, वकुल, वटपादप और पारिजानको जब हनुमानने भग्न कर दिया तो चार उद्यानपाल गरजते हुए सहसा उसकी ओर दौड़े । सबसे पहले शत्रुसेनाके बलको चूर करनेशला दंष्ट्रालि हाथमें गढ़ा लेकर दौड़ा । वह उत्तर द्वारका रक्षक था, और उसका यश भुवन भरमें प्रसिद्ध था । मदमाते गजोंको मसल देनेवाला और शत्रुपक्षमें हलचल उत्पन्न करनेवाला
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पउमचरित
सो हणुवहाँ मिरिउ पलम्व-बाहु ! गङ्गा-बाही अडण बाहु ॥५॥ जो तेण पर्मेल्लिज लडडि-दण्ड । सो भवि गढ सय खण्ड-खप्यु ! सिरिसइलु वि पहलिउ पुलइया । ३. मगहों पीपा पुह II ::ll दरिसावमि' एम चवन्तरण । उम्मूलिड तालु तुरन्तएण III कु-जणु च सुर-भायणु थङ्ग-भाउ । दूर-हलड भन्णु वि दुष्पणाउ |
घत्ता
तेण णिसायरू आहयणे आयामेषि समाहड तालें । पडिउ धुलेप्पिणु धणियल घाइड देसु णाई दुकाः ॥१०॥
[६]
.. दुबई जं हणवण णिहर समरगण दाठावलि स-मच्छरो।
धाइज एकदन्तु गलगजे विणं गयबरही गपत्ररो ॥३॥ जो पुण्ण-बार वण-रक्सवाल । संपाइल णं खय-कालें कालु. 11२।। दिद-काठण-देहु थिर-थोर-हत्थु । पर-वल-पोलि- भेल्लय- समथु ॥३।। आयाम वि सति पमुक तेण । शं सरि सायरहों महाहरेण ।।३॥ सा सामीरणिहूँ परायणस्थ । असइ व सप्पुरिसहाँ श्रकियस्थ 114।। हणुवेण वि रणउहें दुणिरिक्खु । उपाहिउ घर-साहारु रुक्व ।।६।। कामिणि-मुह-कुहरहाँ अणुहरन्तु 1 परिपक - फलाहरु कुसुम-दन्तु ॥७॥ णव - पल्लव - जीहा - लवलवन्तु । कलयण्ठि - कण्ठ • महुरुजवन्तु ।।८।। यहकम्त्र - वियाह व दल-णिवेसु । पच्छष्ण - परिट्टिय- रसविसेसु ॥६
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एकवणासमी संधि
वह स्वयं अस्खलितमान था । विशालबाहु वह आकर, हनुमानसे इस प्रकार भिड़ गया मानो गंगाके प्रवाहसे यमुनाका प्रवाह टकरा गया हो । परंतु उसने हनुमान पर जो गदा फेंकी, वह टूटकर सौ-सौ टुकड़े हो गयी । ( यह देखकर ) हनुमान पुलकपूर्वक हँस पड़ा और यह कहकर कि वनभंगके बाद अब सुभट-विनाश दिखाऊँगा, उसने तुरन्त तालवृक्षको उखाड़ लिया । बहु वृक्ष कुजनकी तरह 'सुर-भाजन ( मदिरा और देवत्वका पात्र ) भाव, दूरफल ( दुष्टसे कोई फल नहीं मिलता और तालवृक्षका भी फल नहीं होता ) और बड़े कष्टसे झुकाने योग्य था। ऐसे उस तादृवृक्षसे हनुमानने उस राक्षसको भी युद्ध में आहत कर दिया। धरतीपर गिरकर वह वैसे ही बिखर गया जैसे दुष्कालसे ग्रस्त देश नष्ट-भ्रष्ट हो उठता है ॥ १-१०॥
१६
[ ६ ] जब हनुमानने मत्सरसे भरे दंष्ट्रावलिको इस प्रकार युद्धमें नष्ट कर दिया, तो एकदंत गरजकर उठा और उसपर ऐसे दौड़ा मानो गजवर के ऊपर गजवर ही दौड़ा हो। वह पूर्वद्वारका रक्षक था । ( वह ऐसा आया ) मानो क्षयकाल ही आया हो । उसकी देह दृढ़ और कठिन थी। वह शत्रुसेनाका प्राचीर तोड़ने में समर्थ था। उसने अपनी शक्तिको निमितकर उसे हनुमानपर ऐसे छोड़ा मानी पर्वतने समुद्र में नदी प्रक्षिप्त की हो। तब बुद्धमुख और दुर्दर्शनीय हनुमानने उत्तम साहार वृक्ष उखाड़ लिया । वह वृक्ष कामिनीके मुखकुहर के समान था, खूब पके हुए फल ही उसके अधर थे, कुसुम दाँत थे, नवपल्लव ही लपलपाती जिल्ला थी, कोकिल कलरव ही उसकी मधुर तान थी | महाकविके काव्यकी तरह वह वृक्ष दलविशेष ( शब्दरचना और पत्तियों) से युक्त तथा प्रच्छन्न रसविशेषसे पूर्ण था। हनुमानके करसे मुक्त उस
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६३
पडमचरित
पत्ता मारुइ-कर-पम्मु ण तेण · पवर-कप्पडुम-बाए । एकदन्तु घुम्मन्तु रणे पाखिड रुस्खु बेम दुम्चाएं ॥१॥
.]
दुबई
ताम कयन्सका आहवं असक सहक-सम-वलो।
इस्थि व गिल-गण्ड तिथसहुँ पचपदु कोदण्ड-करयलो ।।३।। जो दाहिण - वारहों रक्खघालु । कोकन्तु पधाइड मुह - कराल ।।२।। 'वणु भगा वि कदि इणुवन्त जाहि । लइ एहरणु अहिमुहु थाहि पाहि ||३|| जिह हउ दादावलि उत्थरन्तु । अण्णु वि विणियाइज एकदन्तु ।।५।। तिह पहरु पहरु भो पवणजाय । दायणही केरा कुछ पाय' ॥५॥ पचार दि पावणि धणुधरेण ! घिहि सरेंहि बिन्द्र रणे दुखरेण ॥६॥ परिअवि णिवडिय पुरउ तासु । पामि-विणमि व पढम-जिणेसरासु ॥७॥ प्रत्यन्तर रण णीसन्दणे । आरु? पवाहों णन्दणेय || आयामधि उम्मूलिउ तमाल ! णं दिणयरेण तम-तिमिर-जालु ॥॥
घता उभय-कर हि मामेवि तह पहब कयन्तवक्कु दणु-दारें । विहलहुलु घुम्मन्त-तणु गिरि व पलोष्टिंउ कुलिस-पहारें ॥१०॥
[ ]
दुवई णिहाँ कयन्तवकै अणे णिसायरु भय-विवज्जि 1
घर-करवाल-हत्थु कोकन्तु पधाइड मेहगजिभो॥ सो पस्छिम-धारहों रखवालु । उमड़-भिउडी - भार - करालु ।।२।। रत्न प्पल - दल - संकास- जयणु । अझ - हास - मेसन्त - वयणु ॥३॥
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एकमवण्णासमो संधि
साहारवृक्षके प्रबल आघातसे एकदंत चक्कर खाने लगा। दुर्वात से आहत पेड़की नाई वह धरतीपर गिर पड़ा ।।१-१०॥
[७] (इसके बाद) शक्र और सूर्य की तरह शक्ति सम्पन्न युद्ध में अशक्य कृतान्तवक्त्र आया। वह मद झरते हाथीकी तरह था । त्रिशिरकी तरह अपने हाथ में धनुष लिये हुए प्रचंड वह दक्षिण द्वारका रक्षक था। मुखसे कराल और गरजता हुआ बह आया और बोला—“हे हनुमान, वनको उजाड़कर तूं कहीं जा रहा है, सामने आ। उछलते हुए दंष्ट्रावलीको जिस तरह तुमने मारा है और एकदंतको मार गिराया है उसी प्रकार हे पवनकुमार, ओ रावणके दुष्पाप, मेरे ऊपर प्रहार कर।" तब दुर्धर हनुमानने सस्ते, उसे दो हो तारों जिस्कार दिया । वह उसी के आगे चक्कर खाता हुआ वैसे ही गिर पड़ा जैसे नमि और विनमि दोनों, आदिजिन ऋषभके सम्मुख गिर पड़े थे। इतने में युद्ध में रथरहित हनुमानने आरुष्ट होकर तमाल वृक्षको इस प्रकार उखाड़ लिया मानो सूर्यने अंधकारके जालको उच्छिन्न कर दिया हो । निशाचरोंका संहार करनेवाले हनुमानने अपने दोनों हाथोंसे पेड़ घुमाया और कृतांतवक्त्रको आहत कर दिया । तब अपने घूमने हुए और विकलांग शरीरसे वह कृतान्तवक उसी प्रकार लोट-पोट होने लगा जिस प्रकार वजूके प्रहारसे पर्वत चूर-चूर हो उठता है॥१-१०॥
[-] कृतान्तवक्त्रके आहत होनेर, दूसरा निशाचर मेघनाद, भयरहित होकर और हाथमेंधेष्ठ कृपाण लेकर, गरजता हुआ दौड़ा। वह पश्चिम दिशा का द्वारपाल था। उभरी हुई टेढ़ी भौंहोंसे वह अत्यन्त कराल था। उसकी आँखें रक्तकमल की तरह थीं। मुख से वह अट्टहास कर रहा था। वह नये जल
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१५४
पउमचरिउ
॥५॥
|
सणेण २१६ ||
एव जलहर झील - समुष्वहन्तु । खग्गुअल वर बिजुल लवन्तु ||४|| भउद्दावलि किय धणुहर पवड | हणुवहों अभिडिउ बिसु रथन्तरें अणिलहों णन्दणेण उप्पादिउ चन्दणु दिन सम्पुरिसु जेम बहु-खम-सरीरु । सप्पुरिसु जेम छेए वि सम्पुरिए जेम लीगल महांउ | सम्पुरिस जेए सामण्ण सप्पुरिसु जेम जणवऍ महग्घु । सप्पुरिसु जेम सम्बड़े
धीरु ||७
J
-
-
-
-
घसा
तेण पवर-चन्दन-दुर्मेण आहउ मेहजाउ बस्छत्थले । लउड पहारें बाइयउ पढिड फणिन्दु णाएँ महि-मण्डलें ॥१०॥
-
[ * ]
दुबई
पत्ररुआणवाल खसारि वि हय हणुवेण जायँहि । सेसारक्खिपूर्हि दहवयजहाँ गम्पिणु कहिउ तायें हिं ॥१॥
-
·
-
'भो भो भू-भूसण भुचण पाल । आरुटु पवरामर डामर रणे रउड । परवर व इन्द-विन्द्र महण सहाव सम्गग्ग कामिणि-प्रण-पण चकुण-विबडु । लङ्कालङ्कार निविभ्र अच्छाई काई वेव । वणु भम्पु एक्केण नरेण विरुद्धएण | परन्ते
महागुणडु ||५||
कुन्मुनिवर हियउ जेव ॥ ६ ॥ अमरिस-कुद्रण ॥७॥
उप्पा वि सरल - तमाल- खाल | चेयारि षि हय उज्जाण पाल ||६|| वहिँ अवसरे भायोक्क वरा । वजाउछु
आसाली समत ॥ ६ ॥
-
4
-
-
भाउ ॥८॥
सलघु ॥
दुइ शिवण काल ||२सा
चूडामणि जय
मग्गणिग्गय
-
समुह ॥३॥
पयाव ॥ ४ ॥
घत्ता
तं जिसुनेपणु दवयणु कुविउ दवग्ग व सिन्तु विष । 'को जम-राएं सम्मरिउ उबवणु भग्गु महारड जेण ॥१०॥
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एक्कवण्णासमो संधि
धरों के समान था। करवाल रूपी उज्ज्वल विद्युत उसके पास यो । टेढ़ी भौंहें इन्द्रधनुष की भांति थीं। तब शंकामुक्त होकर वह हनुमान से आकर भिड़ गया। हनुमानने तब दृढ़मनसे चन्दनका वृक्ष उखाड़ा । वह वृक्ष, सत्पुरुष की भाँति क्षमाशील शरीरबाला था, छेदन होने पर भी वह (सत्पुरुषकी भाँति) धीरज रखता था। उसका स्वभाव सत्पुरुषकी तरह शीतल था। सत्पुरुषकी भांति वह अपने जनपदमें आदरणीय हो रहा था। सत्पुरुषकी भौति ही वह सब लोगोंसे प्रशंसनीय था। उस प्रबर वृक्षके आघात से मेघनाद वक्षस्थल में आहत हो उठा। लाठी से आहत सर्प की तरह वह धरती पर लोबोट हो गया ।। १-१०॥
E] इस प्रकार जब हनुमानने चारों ही बड़े-बड़े उद्यानपालोंको मार गिराया तो शेष रक्षकोंने दौड़कर सब वृत्तान्त रावणको सुनाया। (वे बोले) "अरे अरे भूमिभूषण, भुवनपाल, आरुष्ट दुष्टोंके लिए काल, प्रबल भयंकर, देवयुद्धमें अत्यन्त रौद्र, नरश्रेष्ठ, जयसागर दानवों और इन्द्रका दमन करनेवाले, स्वर्गपथमें प्रथितप्रताप, कामिनी-स्तन-मण्डलोंके मर्दनमें विदग्ध, लकाके अलंकार, महान् गुणोंसे परिपूर्ण, हे देव, ! आप निश्चिन्त क्यों बैठे हैं ? अमर्षसे कुपित्त और प्रहारशील एक मनुष्यने कुमुनि के हृदयकी भाँति समूचा उद्यान उजाड़ डाला । उसने ताल तमाल
और ताइवृक्षोंको उखाड़कर चारों ही उद्यानपालोंको मार डाला है।" ठीक इसी समय रावणके निकट यह खबर भी पहुंची विा उसने आसाली विद्याको समाप्त कर दिया है। यह सुनकर रावण बहुत ही क्रुद्ध हुआ । मानो किसीने आग में घी डाल दिया हो । उसने कहा, "किसने यमराजका स्मरण किया है, किसने मेरा उद्यान उजाड़ डाला है ?"||१-१०।।
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१६६
पउमचरित
[39] दुबई
तंगिसुमेवि घराणु मन्दोपरि पिसुणइ मिसियो ।
'किन्न कमणि देव पई बुझिट जसु तणिय जणणि चढणक्षण | बारह
क्षेत्रम
धीमा सुड महिन्दहाँ ॥ १ ॥
वरिसš परि ||२|| सुधारिदुर्गेषि ॥३॥
पण गम्मू कुलहरों विसब्जिया गय वहि मि। वणवास पसूय गम्पि कहि मि ॥४॥ विबाहर हिँ चउदिसु गविद्व । गिरि-कुहररुभम्त जवर दिइ ||५| किउ इणुरु- शेवन्तरे निवासु । हजुवन्तु पासिउ नामु तासु ॥ ६ ॥ परिणावि पहूँ वि अणकुसुम । कलि-लय च उम्भिण्ण-कुसुम ॥७॥ इय उपचार पक्कु त्रिनाउ । अष्णु वि हरिहिँ पाइकु जाउ ||८|| जं आइङ अङ्गुत्थलउ लेवि । भहु उडिउ गलगज्जिड करेषि ॥१॥ घत्ता
एक वि उबवणे दरमलिएँ दहमुह- हुवहु फसि पतित । अष्णु ি पुणु मन्वोयरिंएँ लेदि पलाल भारु णं विवउ ॥१०॥ ॥
[19]
दुबई
तं णिसुणेवि वयणु दहववर्णे पवराणस किरा । अबक-मि-संक- वर विक्कम पहरण कर भयङ्करा ||१|| सो वर पणवेवि । आपसु मोवि ॥२॥ पाइक सान्द्र । दिद परिकरराव ॥३॥
सीह स्व संकुद्ध रिउ जय-सिरी
लुद्ध ॥४॥
"
जलिय-मणि-मडड | विस्फुरिय
णिड्डूरियण पण जुल । कण्टइये भाल | उग्गिण
भू-भहुरा
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उद्घउ ॥५॥
एवर भुअ || ६ ॥
करवाल ॥७॥
-
-
-
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१६०
पणासमो शोध [१०] यह सुनकर, रानी मन्दोदरीने भी हनुमानकी चुगली करते हुए कहा, "हे देव, क्या आप किसी भी तरह यह नहीं समझ पाये । राजा महेन्द्रकी पुत्रीका पुत्र वहीं हनुमान है जिसको मांको पवनञ्जयने बारह बरसके लिए छोड़ दिया था। सास केतुमतीने भी गुप्त गर्भकी बात सुनकर और दुश्चरित्र समझकर अपने कुलगृहसे उसे निकाल दिया था । वह अपने घर (मायके) भी नहीं गई और वनमें कहीं जाकर उसको जन्म दिया | तय विद्याधरोंने इसके लिए चारों ओर खोजा किन्तु यह पहाड़की गुफामें मिला, किसी दूसरी जगह नहीं । फिर हनुरुह द्वीपमें इसका लालन-पालन हुआ, इसीसे इसका नाम हनुमान पड़ गया । आपने भी अनंगकुसुमसे उसका उसी प्रकार विवाह किया है जिस प्रकार अशोकलतासे खिले हुए सुमनका सम्बन्ध होता है। परन्तु इसने ( हनुमान ने) इन उपकारों से एकको नहीं माना । प्रत्युत वह हमारे शत्रुओका अनुचर बन बैठा है । जब यह सीता देवीके पास अंगूठी लेकर पहुँचा तो मेरे ऊपर भी गरज उठा |" एक तो उद्यानके विनाशसे दशाननकी क्रोधाम्नि प्रदीप्त हो रही थी, दूसरे मन्दोदरीने मानो यह सब कहकर उसमें सूखी घास और डाल दी॥१-१०॥
[११] यह सुनकर (प्रचण्ड) रावण ने हाथियोंसे भयङ्कर और पराक्रमी अर्क, मृगाङ्क और शक आदि, बड़े-बड़े, अनुचरों को आज्ञा दी। प्रणामपूर्वक आज्ञा लेकर और दृढ परिकरसे आबद्ध होकर, वे (निशाचर ) अपनी तैयारी करने लगे। सिंहकी तरह क्रुद्ध वे शत्रु-विजयके लालची थे । मणिमय मुकुट चमक रहे थे। और ऊँचे ऊँचे ओंठ फड़क रहे थे। उनके दोनों नेत्र भयानक थे और बाहुए पुलकित हो रही थीं । उनका भाल भ्रभंगसे कुटिल
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पडमचरित
हत्यि व संखुहिय । सूर व बहु-उदय ॥८॥ जलहि व उग्याल । सेल व्द संचल ॥३॥ वणु-देह - वारणई । गहियाई पहरणह ॥१०॥ अण्णेण हुलि-लु । अण्णेण झस-सूल || अन्णेण गय-दण्ड । अफ्ण कोवण्डु ॥१२॥ अण्णेण सर-जालु । अपण करवालु ॥१३॥
पत्ता एवं दस्ाप्पण-किरहुँ वलु सपणचि सयलु संचझिउ । पलय-कालें उचहि-जलु पिय-मनाय मुअन्सुरथस्लिउ ।।१५॥
[२]
. दुबई
खोहिउ सायरो व लङ्का-णयरी जाया समाउला ।
रहबर-गयवरोह-जम्पाण-विमाण- तुरा - सकुला ॥१॥ वल कहि मि ण माइउ णांसरन्तु । संचल्लु पोलिय दरमलन्तु ॥२॥ धय - चवल - महन्द्रय - थरहरन्तु । पशु-पढ़ह - सङ्ग-महल - रसन्तु ॥३॥ विणु खेत्रे पहरग-वर-कोहि । वणु वेडिट रावण-किधरेहि ॥२॥ णं सारा मालुं पव-षणेहि । तिहअणु तिहि मि पहनगेहि ॥५॥ 'तिह घेवि रहवरनायवरहि । पञ्चारिउ मारुद परवरहि ॥६॥ 'पायारु पलोहिउ जिह विसालु । बजाउहु हउ रण कोधालु ॥७॥ वण-पाल वहिय वणु भग्गु जेम । सल खुद्द पिसुण मरु पहर तेम' ॥८ तं णिसुर्णवि धाइड पवण-जाउ । कम्पिल्ल-पवर - पायव - सहा ॥६॥
पत्ता
पदम-भिमन्ते मारुण रिउ साहणु बटु-भाय-समारिउ । णं साहेण विरुद्धऍण मयगल-जहु दिसहि ओसारित ।।३०॥
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एक्कवण्यासमो संधि
हो रहा था। उनकी कृपाणे उठी हुई थी। महागज की भौति चे अत्यन्त सुब्ध थे। सूर्यको तरक्ष अनेक रूपमें वे प्रकट हो रहे थे। समुद्रकी तरह उछल रहे थे । और पर्वतोंकी भाँति चल-फिर रहे थे। दानवोंके शरीरको विदीर्ण करनेवाले, वे हथियार लिये हुए थे। किसीके पास हलि और हुलि अस्त्र थे। कोई झष और शूल लिये था। कोई गदा और दण्ड लिये था। कोई धनुष लिये था, कोई सरजाल और कोई एक करपाल लिये था । रावणके अनुचरों, की समस्त सेना, इस प्रकार सनद होकर चल पड़ी, मानो समुद्रका जल ही प्रलयकालमें अपनी मर्यादा छोड़कर उछल पड़ा हो ॥१-१४॥
[१२] इस प्रकार लङ्कानगरी चुन्ध सागरकी तरह व्याकुल हो उठी। रथवर, गजवरसमूह जम्माण विमान और घोड़ों से वह व्याप्त हो रही थी। निकलती हुई सेना कहीं भी नहीं समा रा रही थी। वह गलियोंको रौती हुई जा रही थी, ध्वज और चपल महाध्वज फहरा रहे थे । पद्ध, पटह, शक और महल बज रहे थे। उसम शस्त्र अपने हाथोंमें लिये हुए, रावणके अनुचरोंने तुरन्त उस उपवनकों से घेर लिया, मानो नये मेघोंने तारामंडलको घेर लिया हो या मानो तीन प्रकारके पवनोंने त्रिभुवनको घेर लिया हो । इस प्रकार रथवरों और गजवरांसे उसे घेरकर नरवरोंने हनुमान को ललकारा— जैसे तुमने विशाल परकोटा श्वस्त किया, कोतवाल वायुधको युद्धमें आहत किया, वनपालोंकी हत्या की और उद्यान उजाड़ा है, खल, सुन्द्र, पिशुन, उसी तरह अन मर और प्रहार झेल ।" यह सुनकर हनुमान विशाल कांपिल्य वृक्ष लेकर दौड़ा । पहली ही भिड़तमें उसने शत्रुसेनाको अनेक भागों में विभक्त कर दिया। मानों विरुद्ध होकर सिंहने हाथीके झुण्डको कई दिशाओं में तितर-बितर कर दिया हो ।।१-१०॥
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१७०
पश्मचरित
[१३]
दुवई जड जड एवणपुत् परिसराई तर तउ बलु ण थाई।
कुन्दप गियय कन्ते सुकलस व गड़ जासह य दुबई ॥१॥ सुकलसु जेम अड्डु जाइ । सु-कलतु जेम भिउबिहिं ग थाइ ॥२॥ मु-कलतु जेम विवरिउ ॥ होइ । सु-कलत्त जेम वयणु वि ण जोइ ॥३॥ सु-कलातु जेम टूरिउ मगेण सु-कलन्तु जेम तुक्क खणेण ॥४॥ सु-कलत्त जेम ओसार दे । सुकलतु जेम करयल धुणेह ॥५॥ सु-कलत्तु न सिंहकन्तु जाई । सुकत जम पासेउ लेह ॥६॥ सु-कलम जेम रोसेण वलई । सुकलतु जैम सम्पस खलइ ॥७॥ सु-कलस जेम संकुह्य वयणु । मु-कलतु जेम भडलन्त-णयणु ||८|| सु-कलतु जेम किय बर-भमुहु । मुकलत जैम धारन्तु समुहु ॥६॥
धत्ता रोकाई कोका दुक्का वि वेढइ वलइ धाइ परिपेल्लङ् । इणुवाँ वलु सु-कलस जिह पिट्टिजना वि मग्गु ण मेशलह ||३०||
[१४]
दुवई हुलि-हल - मुसल-सूल - सर-सन्चल-पहिस-फलिह-कोन्त हि । गय-मोग्गर-मुसुषिद्ध - मस - कोन्तहि सूलेहि परसु-चहि ॥१॥
हड पयण पुस्तु 1 रणे उत्थरन्नु ॥२॥ तेण वि चलेण । दिढ-भु - वलेण ॥३॥ गिद्दलिउ सिमिरु | चमरेण धमरु ॥५॥ छत्तण छत्तु | कोन्तेण कोन्तु || खग्येण खग्गु । धाउ धएँग भागु ॥६॥
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१७१
एक्कवण्णासमो सन्धि [१३] जहाँ-जहाँ पवनसुत घूमता, वहाँ-वहाँ सेना ठहर नहीं पाती। अपने कांतके क्रुद्ध होनेपर सुकलत्रकी तरह (वह सेना) न नष्ट ही होती और न पास ही पहुंच पाती । सुकलन की तरह वह आई-आई जाती थीं । सुकलत्रकी तरह भृकुटि के सम्मुख नहीं ठहरती थी। सुकलत्रकी तरह विपरीत नहीं देखती थी। सुकल की तरह वह मन ही मन पीड़ित थी। सुकलत्र की तरह हट जाती थी। सुकल की तरह हाथ धुनती थी । सुकलत्रकी तरह छिपती हुई जाती थी। सुफल की तरह पसीना-पसीना हो जाती । सुकल की तरह रोषसे मुड़ पड़ती थी। सुकलत्रकी तरह निकट आते ही स्खलित हो जाती थी। सुकल की तरह वह अत्यंत संकुचित हो रही थी। सुकलत्रकी भांति उसके नेत्र मुकुलित थे । सुकलत्रकी तरह उसकी 'कुटी टेढ़ी मेढ़ीहो रही थी । सुकल की भांति ही वह सेना सामने-सामने ही दौड़ रही थी। हनुमान उसे रोकता, बुलाता और पास पहुँच जाता। कभी उसे घेर लेता, मुड़ता, दौड़ता और उसे पीड़ित करता। किन्तु वह सेना पोटी जाकर भी सुयाल सकी भांति अपना रास्ता नहीं छोड़ रही थी।।१-१०॥
[१४] हुलि, हल, मूसल, शूल, सर, सबल, पट्टिश, फलिहा भाला, गदा, मुद्गर, भुसुंडि, शस, कोत, शूली और परशु चक्रसे सेनाने जब युद्ध में उछन्नते हुए हनुमानको आहत कर दिया, तब दृतभुज उसने भी रावणकी सेनाको चपेट डाला । चमरसे चमर, छबसे छत्र, कोतसे कोत, खंगसे खंग, ध्वजसे ध्वज,
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परमचरित
चिन्धेण चिन्धु । सह सरण विवक्षु ॥३॥ रहु रावरेण । गउ गयवरेण ॥८॥ हउ हयवरेण । पर परवरेण ॥६॥ हत्थेण अण्णु । पाएण अण्णु ॥१॥ पपिहयएँ अण्णु । जयए अन्णु ||१|| दिहाएँ भण्मु । मुट्टीएँ अन्णु ॥१२॥ उरसा वि अनु। सिरसाधिप तालेण अण्णु । तरलेष भण्णु ॥१३॥ साष्ण अण्णु । सरलेण अण्णु ॥१५॥ चम्दर्णण अणु । बन्दणण अण्णु ॥१६॥ जागेण अण्णु । चम्पएण अण्णु ॥७॥ णिग्वेण अण्ण । पक्रण अण्णु ॥1॥ सओण अण्णु । अणण अण्णु ||१|| पाइलिए अण्णु । पुष्फलिए अण्णु ॥२०॥ केअइएँ अण्णु । मालेहए अण्णु ॥२॥ अणेपण अण्ण । इ एम सेन्णु ॥२२॥
धत्ता पवण - सुआहाँ पहरन्ताहाँ पाणायाम - थाम-परिचत्त । रिउसाहण-जन्दणवणई वेणि दि रज सरिसाइ समाई ॥२३॥
[५]
पाडिय वर-तुरा रह मोदिय जूनिय मस कुआरा ।
वेस ६ गह-विलुक थिय केवल उक्लम-दुम-वसुन्धरा ॥1॥ वण - वलहूँ बसाणण - कराई। सुरह मि आणन्द - जमेराई ॥२॥ महियल सोइन्ति पढन्ताई। जिण-पतिम] पणमम्ताई ॥३॥ हण-चलई णिसण्णई घरणियल । अलमरई व सुकर उपाहि-जलें ॥ पण-चलाई सु-संतावियाई किह । बुपुते हि उभय-कुलाई बिह १५॥ वण-चलाई परोप्पर मीसिपाई। वर-मिहुणाई पदीसियई । सामीरणि - णिहए मुताई । रण रमणि मिळषि पसुताई ॥
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एक्कवण्णासमो संधि
चिह्नसे चिह्न और सरसे सर विद्ध हो उठे। रथसे रथ, गजसे गज, अश्वसे अश्व और नस्वसे नख, टकरा गये। कोई हाथ, कोई पैरसे, कोई पिंडरी ? से, कोई जानसे, कोई दृष्टिसे, कोई मुट्ठीसे, कोई उरसे, कोई सिरसे, कोई तालसे, कोई तरलसे, कोई सालसे, कोई चन्दनसे, कोई अन्धनसे, कोई नागसे, कोई चम्पकसे, कोई नींबसे, कोई लक्षसे, कोई सर्जसे, कोई अर्जुनसे,कोई पाटलासे कोई पुम्फलीसे, कोई केतकीसे, कोई मालवीसे, हनुमान द्वारा आहत हो उठा। इस प्रकार उसने समस्त सेनाको ध्वस्त कर दिया। प्रहार करते हुए हनुमानने उच्छास रहित रिपुसेना और नन्दनवनको समान रूपसे नष्ट कर दिया ॥२-२३।।
[१५] उत्तम अश्व गिर पड़े। रथ मुड़ गये। मत्त कुञ्जर चूर-चूर हो उठे। केवल उच्छिन्न वृक्षोंकी धरती, नकटी वेश्याके समान बाकी बची थी । देवताओंको भी आनन्द प्रदान करनेवाला रावणका उद्यान और सैन्य दोनों ही धरतीपर पड़े हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो वे जिनप्रतिमा को प्रणाम कर रहे हों। धराशायी नन्दनवन और सैन्य, ऐसे लगते थे मानो समुद्रका जल सूख जानेपर जलचर ही निकल आये हों । उद्यान और सैन्य उसी तरह संतप्त थे जैसे कुपुत्रके कारण अन्य कुल दुःखी होते हैं । उद्यान और सैन्य आपसमें मिले हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो उत्तम मिथुन ही दिखाई पड़ रहे हो। सामीरणी ( हनुमान और
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'डमचरिड
वण-वलइ हणुव - पहराइयहँ । णं कालहो पाहुणाई गयई ।।८।। आहवह गं वलही हियत्तणेण । वणु भग्गु भग्गिहें कारणेण ॥६॥
धत्ता समर महासरें रुहिर-जलें गर-सिरकमलई दिसहिं पढोम वि । मारुह मत्त-गइन्दु जिह बग्गइ स ई भव-जुअल पजोएँ वि ॥३०॥
[ ५२. दुवण्णासमो संधि] विणिवाइ साहणे भग्गएँ उवणे णं हरि हरिह समावडिउ । स-तुरन स सन्दणु दहमुह-गन्दशु अक्खड इणुषहाँ अभिजित
दुरियाणा विहुणिय · वाहुबपडओ । णं गयवरउ णिम्भर-गिह गण्डओ॥ तं दहचयणु जयकारेवि अक्खयो।
पीसरिउ गरुडहाँसमुहु तक्खओ ॥१॥ संचालन्त रह-गय · वाहणें । रणे पडहर देवाविउ साहणं ॥२॥ कडिय-हय - संजोत्तिय - सन्द[ । लीलए परिउ दसाणपाणन्दणु ॥३॥ धूमकेउ धय-दपडे थवेप्पिणु । कालदिष्टि सारस्थि करेपिणु ॥४॥ परिहिंउ माया-कबउ कुमारे । रहु संचलिउ पच्छिम - दारे ॥५॥ ताव समुट्टियाई दुणिमित्तई । जाई विश्रीय-मरण-भयइत्त ॥६॥ सिव फेवात करन्ति पदुकाई । सुक्कए पायवे वुण्ड बुकह ॥५॥ पहु छिन्दन्तु सप्पु संघमा । पुशु पदिकूलु पषणु पदिपेल्लई ॥८॥ रासहु रसइ कुमारहों पच्छ । णावई सजणु लग्गु कहा ॥६॥
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दुवण्यासमो संधि
१७५ हवा ) के कारण मानो वे युद्ध और गतमें एकाकार हो उठे हो । पवनसुत हनुमानके प्रहारोंसे आहत चन और बल ऐसे जान पड़ते थे मानो दोनों ही यम के अतिथि जा बने हो । रुधिर जलसे पूर्ण उस युद्धरूपी महासमरमें दिशाओंको नरोंके सिरकमल उपहारमें चढ़ाकर और अपनी भुजाओंका प्रयोगकर गर्वीला हनुमान मत्तगजकी तरह गरज रहा था ॥१-१०॥
बावनवीं संधि सेनाका विनाश और नन्दनवनका पतन होनपर रावणका पुत्र अक्षयकुमार अश्व और थके साथ आकर हनुमानसे भिड़ गया, वैसे ही जैसे सिंहसे सिंह भिड़ जाता है।
[१] उसका चेहरा तम-तमा रहा था, अपने दोनों हाथ मलते हुए वह ऐसा लगता था मानो, मद भरता हुआ महागज हो । रावणकी जय घोलकर अक्षयकुमार निकल पड़ा, मानो गरुड़ के सम्मुख तक्षक ही निकला हो। रथ और गजवाहनोंके साथ, सेनाके प्रस्थान करनेपर दुंदुभि बजवा दी गई। अश्व निकल पड़े। रथ स्वींचे जाने लगे और रावणपुत्र लीलापूर्वक उसपर चढ़ गया । ध्वजदंडपर धूमकेतु स्थापितकर, अक्षयकुमारने कालदृष्टिको अपना सारथि अनाया। कुमारने मायाकवच पहन लिया। पश्चिम-द्वारसे रथ चल पड़ा। ठीक इसी समय, वियोग और मरणसे पूरित दुनिमित्त होने लगे। श्रृंगाल फेछार करता हुआ आया । कौआ सूखे पेड़पर बैठकर कांव-काँव फरने लगा | सौंप रास्ता काटकर निकल गया। हवा उल्दी बहने लगी । कुमारके पीछे गधा बोल रहा था, वैसे ही जैसे सजनके पीछे दुर्जन हो ?
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पउमचरिउ
घत्ता अवगण वि ताइ मि सउण-समाइ मि दुप्परिणामें छायउ । णट्यूल-पईडहाँ साहु व सीहहाँ हणुत्रहों समुदु पधाइयउ ६६०॥
पुस्धन्तरे पभणइ पवर-सारहि । समरङ्गणएँ केण समड पहारहि ॥ जातिमा निर्वाः ।
सवहम्मुहर रइवर कासु वाहमि ॥१॥ तं णिसुणेधि पम्पिउ अखाउ । 'जो गासेस-णिहय-पविवक्त्रउ ॥२॥ सारहि समर सहि जसवन्तहों । रहवर वाहि बाहि हणुवन्तहाँ ॥३॥ रहवर वाहि वाहि जहि रहबर । संचूरिय · सतुरा - सणरवर ॥१॥ रहवा वाहि वाहि जहि कुअर । दलिय-सिरग 'भग्ग-भुव-पार ॥५॥ रहबरु वाहि वाहि जहिं छाएँ । पडियई महिहिं णाई सयवसई ॥६॥ रहवरू वाहि वाहि अहि चिन्धई । अण्णु पणयावियई कवन्नई ॥७॥ रहकरु वाहि वाहि जहिं गिई । परिषमंति वस-मंस - पहाई ॥८॥ रहबरु वाहि वाहि जहि उववणु । णं दरमलिउ वियड्. जोवणु ॥३॥
धत्ता सारहि एह पावणि हउँ सो रावणि विहि मि भिडन्तहूँ एउ दल । जिम हणुवहाँ मारि जिम मन्दोपरि मुभह सुष्टुपखउ अंसु-जलु' ॥१०॥
जं जानियउ अक्सर रण-रसाहिउ । रहु सारहिण हगुवहाँ सम्म बाहिउ ॥
छन्तु रणे तेण वि विट्टु केहउ । रयणापरेण गमा-बाहु जेहउ ॥१॥
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दुवण्णासमो संधि
अभाग्य मानो उसपर छाया हुआ था। इसलिए उन सैकड़ों अपशकुनोंकी उपेक्षाकर वह हनुमानके सम्मुख इस तरह दौड़ा मानो दीर्घ पूँवाले सिंहके पीछे सिंह दौड़ा हो ॥१-१
१७७
[२] इसी बीच में उसके प्रवर सारथीने पूछा कि युद्धके प्रांगण में आप किससे लड़ेंगे। मैं तो अश्व, गज और ध्वज-चिह्न कुछ भी नहीं देख रहा हूँ फिर रथ किसके सम्मुख हाँकेँ । यह सुनकर, समस्त प्रतिपक्षका संहार करनेवाले अक्षयकुमारने उत्तर में सारथी से कहा कि सैकड़ों युद्धोंमें यशस्वी हनुमानके सम्मुख मेरा रथ हाँक ले चलो। तुम रथ वहाँ हाँककर ले चलो जहाँ चूर-चूर हुए अश्वों और नरवरोंके साथ रथबर हैं। रथबरको हाँककर रथ तुम वहाँ ले चलो जहाँ फूट सिर और भग्न शरीवाले गज हैं। तुम रथ वहाँ हाँक ले चलो जहाँ छत्र, कमलकी तरह धरती पर बिखरे हैं, तुम रथवरको वहाँ पर हाँक ले चलो जहाँ पर घड़ लोट-पोट रहे हैं। तुम रथको वहाँ हाँक ले चलो जहाँ मज्जा और माँसके लोभी गीध मँडरा रहे हो। तुम रथवर वहाँ हाँक ले चलो जहाँ नन्दनवन इस प्रकार ध्वस्त कर दिया गया है मानो विदग्धने (किसी का) यौवन हो मसल दिया हो । सारथिपुत्र यह है हनुमान और यह है रावणपुत्र अक्षय कुमार । युद्धरत दोनोंकी यह सेना है । जिस प्रकार हनुमानको माँ उसी प्रकार मन्दोदरी ( अक्षय की माँ ) दुख के आंसू गिरायेगी ॥१- १० ॥
[३] जब सारथीने यह देखा कि कुमार अक्षय रणरस (वीरता) से भरा हुआ है तो उसने हनुमानके सम्मुख रथ बढ़ा दिया | रणस्थल में पहुँचते ही हनुमानने उसे इस प्रकार देखा मानो समुद्रने गंगा के प्रवाहको देखा हो । रथ देखकर हनुमान
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१७
पउमरिड
जं णिज्झाइड णिसियर-सन्दणु । मणे आटु समोरण - गन्दषु ॥२॥ वलिउ दिवायर-चकहाँ राहु व । रइ-भत्तारहाँ तिहुवण-णाहु व ॥३॥ बलिद तिविद् टु व अस्सग्गोवहाँ । राहवो ख मायासुगाकहाँ ॥।॥ दहवययो व्य बलिउ सहसखहाँ । तिह हणुवन्तु समुहुरण अक्खहाँ ॥५॥ दहमुह - पन्दणेण हवकारिउ । गि-ट्ठुर-का-आलावहिं खारिउ ।।६।। 'चाड पवन-पुत्त पई जुनिझउ । जिणधर-वरणु कयावि ग वुज्मिउ ॥७॥ अणुषउ गुणवड पर सिक्खावउ । परधण-वउ सुणामु जिह सावउ ॥८॥ पुत्तिय जीष जेण संघारिय । ण वि जाणहुँ कहि यत्ति समारिय ||
पत्ता
मई घई सुकु-लीचहाँ सही जीवहीं किय शिवित्ति मारेवाहों'। पर एक्कु परिमाहु गाहिं अवग्गडु पई समाणु पहरेवाही ॥३०॥
[५] अक्षसहो वयणु सुणेवि तणुर्वेण । पश्य-मुहण सरहसु हसिउ छणुषण ॥ 'मिह एसियतुं तु वि भिडन्तहो ।
जाविउ हरमि एत्तिज रणे रसन्सहो ॥१॥ एव चवन्त. सुहाड-चूडामणि । भिडिय परोपरु रावणि-पाणि ॥२॥ को घिणि मि आििवस विसहर । णं विपिण मि मुकछकुस कुअर ।।३।। णं विषिण मि सरहस पञ्चाणण 1 णं विणि वि कुलिसहर-दसाणण ॥४॥ णं चिणि मि गलगलिय अलहर । णे वैषिण वि उस्थनिय सापर ॥५॥ विपिण वि रावण-राइव-किकर। चिणि वि वियर-वह विहुणिय-कर ॥६॥ विष्णि वि रत्त-णेत्त इसिपाहर । त्रिणि वि बहुपरिबडिय-रण-भर ॥७॥
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दुवणासमो संधि
१७६
मन ही मन उमड़ पड़ा। सूर्यमण्डलपर राहुकी तरह या कामदेव पर शिवकी तरह, उसकी ओर मुड़ा। रणमुख में पवनपुत्र कुमार अक्षयपर उसी प्रकार झपटा जिस प्रकार, अश्वग्रीवपर त्रिविष्ट, माया सुग्रीवपर राम या सहस्राक्षपर रावण झपटा था । तब रावणपुत्र कुमार अक्षयने निष्ठुर और कठोर शब्दीमें पवनपुत्रको ललकारकर उसे क्षुब्ध कर दिया । उसने कहा, "अरे हनुमान् ! तुमने भला युद्ध किया ! जिनवरके वचनको तुमने कुछ भी नहीं समझा ! अणुव्रत, गुणव्रत और परधन व्रतमेंसे तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, जिनसे कि श्रावकका सुनाम होता है । जिसने इतने इतने जीवोंका संहार किया है कि पता नहीं वह कहीं जाकर विश्राम पायेगा । मैंने इस समय सभी छोटे छोटे जीव-जन्तुओंको मारनेसे निवृत्ति ग्रहण कर ली है, केवल एक बात को अभी तक ग्रहण नहीं किया और वह यह कि तुम्हारे जैसे लोगोंके साथ युद्ध करना नहीं छोड़ा ॥१-१०।।
[४] कुमार अक्षयके बचन सुनकर, हनुमानके हर्षपूर्ण मुखकमलपर हंसी आ गई। बह बोला, "जैसे इतने लोगोंका वैसे ही लड़ते बोलते हुए तुम्हारा भी जीवनहरण कर लूंगा।" यह कहने पर सुभटश्रेष्ठ कुमार अक्षय और हनुमान दोनों आपस में ऐसे टकरा गये, मानो दोनों ही आशीविष सर्पराज हों। मानो . दोनों ही अंकुशविहीन गज हों, मानो दोनों ही वेगशील सिंह हों, मानो दोनों ही गरजते हुए महामेघ हां, मानो दोनों ही उछलते हुए समुद्र हों। दोनों राम और रावणके अनुचर थे। विशाल वक्षःस्थलवाले वे दोनों ही अपने हाथ धुन रहे थे । दोनोंके नेत्र आरक्त थे और वे अपने ओंठ चबा रहे थे। दोनों ही, बढ़ते हुए युद्धभारसे दबे थे। दोनों ही अरहंत नाम.
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पडमचरित
विपिण विजामु लिन्ति मरहम्तहाँ। तर णिसियरण मुहहणुवन्तहाँ ॥८॥ सेण वि तिक्स-वरुप हि खण्डिउ । बलि जिह दिसिहि बिहा वि पण्डित ।
धत्ता . पुणं मुश्क महीहरु स-सा स-कन्दरु लो वि पडीपड विष्णु किह । जण-गपणाणन्दै परम-जिन्दै भासणु भव-संसार सिंह ॥१०॥
अषणेक्कु किर गिरिवर मुभा जाहि । बामा ३६५ - सुएण ॥ णिय-भुन-वलंण मावि जहरफन्सरे ।
सहु रहारेण पत्तिउ पुथ्व-सायरे । सारहि णिहत तुराम पाइप । श्रासालियाँ महाप? लाइम ॥२॥ अक्साट गया मगरों उप्पाले वि । भाउ खणखें सिल संचालें वि ॥३॥ किर परिघिवह विपरचम्छ-त्थलें । हणुवें अवर भमावि पाहयले ॥॥ अतिउ दाहिण-लवण-महष्णवे । भाउ पडीवउ भिडिउ महाये ॥५॥ पुमरवि घसिड पच्छिम-सायर । सहि मि पराइड णिविसम्मन्तरें ॥६॥ पुण आवादिर उत्सर-वासें 1 पर परीवउ सहुँ पीसा ।।७॥ पुणु सहयलहों पितु भामेपिनु । मेरुहें पास हि भामरि देपिणु मा पच झणस्तरे पर गज्जन्तड । 'मारुइ पारु पहरू' पभणन्तउ ।।६।।
धत्ता (स) मिसुमेवि पवोशिय सुर मण होशिय 'महाँ कह दूभाओं वणिय ।। दुबरु जीवेसह रामहतसह कुसळ-वस सीयाँ तषिय ॥१०॥
जोगण-सऍण जो घल्लिड प्रावइ (1)। भइ-मनमाड मणु कामिनि गाए ।।
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दुवण्यासमों संधि
१८ ले रहे थे। कुमार अक्षयने मामले पर एक वृक्ष का । हनुमानने उसे अपने तीखे खुरपेसे वैसे ही खण्ड-खण्ड कर दिया जैसे वलिको विभक्तकर दिशाओंमें छिटक देते हैं। तब कुमार अक्षयने गुफाओंसे सहित पहाड़ फेका, यह भी छिन्न-भिन्न होकर उसी प्रकार गिर पड़ा जिस प्रकार जननेत्रीको आनन्द देनेवाले जिनसे छिन्न-भिन्न होकर भीषण भव-संसार गिर पड़ता है।।१-१०॥
[५] इतनेमें कुमार अक्षय एक और पहाड़ उठाकर फेंकने लगा । परन्तु पवनपुत्र हनुमानने अपने भुजबलसे उसे आकाशमें उछालकर रथसहित पूर्व समुद्र में फेंक दिया । सारथी मारा गया। और दोनों अश्वोंने आशाली विद्याका अनुसरण किया। किन्तु कुमार अक्षय आघे ही क्षणमें शिला उठाकर मारने आया । तब विशाल वक्षस्थलवाले हनुमानने उसे घुमाकर लवण समुद्र में फैक दिया । फिर भी वह लौटकर लड़ने लगा । तब हनुमानने उसे पश्चिम समुद्र में फेंक दिया । वह वहाँसे भी पलभरमें लौट
आया । तब हनुमानने उसे उत्तर दिशामें फेंका, वहाँसे भो एक निश्वासमें लौटकर आ गया । हनुमानने उसे आकाशमें फेक दिया, वह भी मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा देकर आधे ही क्षणमैं आकाशमें गर्जन करता हुआ आ गया। उसने कहा, "प्रहार करो, प्रहार करो ।" यह सुनकर देवता मन ही मन डर कर बोले, "अरे, अब तो हनुमानके दौत्यकी गाथा ही समाप्त हुई, अब इसका जीवित रहना और रामके पास सीतादेवीका कुशल-सन्देश ले जाना दुष्कर ही है ।" ॥१-१०॥ .
[६] सौ सौ योजन दूर फेंके जानेपर भी यह वापस आ जाता था, इस प्रकार वह कामिनीके मनको तरह चंचल हो रहा
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पउमरित जं भाइयण निणेवि ण सहिउ भरी ।
विम्भाविओ मणे हवन्त केसरी ॥१॥ रावण-तणयहाँ फुरणु पसंसिउ । 'वलु बढन्तरेण महु पासिर ।।२।। जसु सनारू मुरेहि ण भिउ । तेण समाणु केम हउँ जुजिकद ॥३॥ किह जसु लधु णिहउ मई आहवें । कुसल-वत्त किह पाविय राह' ॥क्षा मारुइ मर्णण वियप्पइ जाहिं । मन्दोरि - सुएण रण ता हि ॥५।। सावट्ठम्भ भदु वोलाविउ । 'किं भो पवण-पुत्त चिन्ताविउ ।।६।। णासु णासु जइ पाणहूँ भीया । इन्दइ जाम आवइ वीयर्ड' ||७|| सं णिसुणेवि पहाण-जाए। रिउ वच्छल विक्षु णाराण मा तेण पहारें णिसियरु मुन्छि । पहिवउ दुक्ख दुक्खु ओमुछिउ |
घत्ता तहि अवसर माझ्य पासु पराय अबावहाँ अपवय-विज किह । देवसणं लन्दा केवलि-सिद्धएँ परम-जिणिन्दहो रिद्धि जिह ।।१०॥
[ ] पणिय भडण 'चिन्तिउ किण्ण बुज्झहि । गुत्तर करें एण समाणु जुल्महि । . पहसिय - मुहर गर - सुर-पुज्न शिजाए।
संबोहियउ अक्रबाउ भक्खय-विजए (1) 1|१|| 'अहो मन्दोअरिणयणाणन्दण । लङ्का - गरि - णराहिव-णन्दण ॥२॥ जं पभाह में काई या इम्ममि । सिरसा बजासणि वि पदिच्छमि ॥३॥ जइ हउँ अस्वय-विज्जा रूसमि । सो णिविसद्धे सायरू सोसमि ॥१॥ इन्दो इन्दत्तणु उहालमि । मेरु वि वाम-करमों टालमि ॥५॥ णवरि एक्कु गुरु सम्वहुँ पासिङ । णउ भ-पमाणु होइ मुणि-मासिट ॥६॥
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दुषण्णासमो संधि था । जब हनुमान उसे युद्धमें जीत नहीं पाया तो वह अपने में आश्चर्यचकित रह गया। वह रावणके पुत्र कुमार अक्षयकी स्फूर्ति की यह प्रशंसा करने लगा कि यह मेरी अपेक्षा अधिक बलवान है । देवता भी जिसकी गतिका पार नहीं पा सकते, उसके साथ मैं कैसे युद्ध करूँ ? यशके लोभो इसे मैं किस प्रकार आहत करूँ
और राम तक सीता देवीकी कुशलवार्ता कैसे ले जाऊँ । इस प्रकार हनुमान अपने मनमें संकल्प-विकल्प कर ही रहा था कि कुमार अक्षयने अपने मंत्री अवष्टंभ द्वारा यह कहलवाया, "अरे पवनपुत्र, क्या चिंता कर रहे हो, यदि अपने प्राणोंसे भयभीत नहीं हो, और दूसरे, जबतक इन्द्रजीत आता है, उसके पहले ही मैं तुम्हें नष्ट कर देता हूँ।" यह सुनकर हनुमान कुद्ध हो उठा। उसने शत्रुकी छातीमें तीर मारा। उसके प्रहारसे राक्षस मूर्छित हो गया। बड़ी कठिनाईसे जिस किसी तरह जब उसकी मूर्छा दूर हुई तो उसने अपनी अक्षय विद्याका चिंतन किया । वह उसके पास उसी तरह आ गई जिस प्रकार ऋद्धि, देवत्व प्राप्त होनेपर केवलज्ञानी परम सिद्धके पास आ जाती है. ।।१-१०॥ - [७] सुभटकुमार अक्षयने कहा, "चिंतन करनेपर भी तुम नहीं समझ पा रही हो, लो इसके साथ लड़ो" | तब नर और देवताओंमें पूज्य उस विद्याने हँसमुख होकर कहा, "अरे मंदोदरीके नेत्रप्रिय लंकानरेशके पुत्र कुमार अक्षय, तुमने जो कुछ कहा है उसे करनेकी मेरी इच्छा क्यों नहीं है । मैं अपने सिरपर चत्रको भी झेल सकती हूँ। कुमार अक्षयके कुपित होनेपर मैं आधे ही पलमें समुद्रका शोषण कर लें। इन्द्रके इन्द्रत्वको दल दूँ और मेरु पर्वतको हाथकी अंगुलीसे टाल दूँ । परन्तु इन सबकी अपेक्षा एक बात सबसे बड़ी है, और वह यह कि गुरुका कहा
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'पटमचरित
पद मि मह मिस्शुवम्तहाँ हाये । जाएषड
बज्जाडा . पन्धे ॥७॥
एम वि बइ सुम्माहि काजु ण उमहि तो परिवारउ करहि रणु । णिम्पवेवि सचाहणु माया-माहणु होमि सहेज्जी एक्कु खणु ||
हो जिम्मविउ माया-चलु भणन्सङ । मेहउलु जिह दस-दिसि-बहु भरन्तउ ॥ जलं थले गयण भुवणस्तर कमाइलो ।
अक्षर-सुआ) पहरण कर [] धाइयो | || केण पि लइड महाकुल-पावउ । केण वि हुबहु जग-संतावउ ॥२॥ केण वि उम्मूलिउ वा-पायवु 1 केण वि तामसु के वि वायषु ॥३॥ केण वि जल-धारा-हरु वारुणु । केण वि दिपायरयु अइ-दारुणु ॥१॥ केण विणाग-पासु केण वि धणु । एम पधाइड सप्लु वि साहणु ॥५॥ तो पत्ति-विन हवन्ते । चिन्तिप अहिणन चलु चिन्तन्ते ॥६॥ 'दइ पेसणु पभणन्ति पराइय । माया - साइणु करें वि पधाय ||७|| वष्णि वि वलई परापरु भिडियई । जल-थलाई गं एकहि मिलियह ॥८॥ उरिभय-धयई समाय-तूरई । णं कलि-काल-मुहाई अइ-कूरई ॥६॥
पत्ता हष्णु-अखिकुमारहुँ विष्मसार हुँ जाउ जुज्झु पहरण-धणउ । जोइना इन्हें सहुँ सुर-बिन्दे णावह छाया पेक्वणउ ॥५०॥
वेष्णि वि वलई जय-सिरि-लद्ध-पसरई । पाहरन्ति रण जीव-भयाव-सरइ ।। फुरियाहरई भई - भिउडी • करालाई । ए (के लमकहाँ पेसिय-वाण-जालई ॥३॥
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दुषणासमो संधि
१८५ कभी अप्रमाणित नहीं जाता । तुम और मैं दोनों हनुमानके हाथसे वायुधके पथपर जायेंगे इतनेपर भी यदि तुम अपना हित नहीं समझते तो युद्ध करो, मैं भी वाहनसहित मायावी सेना उत्पन्न कर एक क्षणके लिए तुम्हारी सहायता करूंगी।" ॥१-८||
[1] यह कहकर विद्याने अनंत सेना उत्पन्न कर दी जो मेघफुलकी तरह दसों दिशाओंमें फैल गई। जल, थल, आकाश और भुवनांतरमें भी वह नहीं समा पा रही थी। वह हाथमें अस्त्र लेकर हनुमान पर दौड़ी। किसीने महाकुल अग्नि ले ली, किसीने जनसंतापकारी, हुतवह ले लिया। किसीने वटका पेड़ उखाड़ लिया, किसीने अंधकार, तो किसीने पवन । किसीने जलधाराघर वारुण, तो किसीने अत्यंत भयङ्कर दिनकर अस्त्र ले लिया। किसीने नाग-पाश और किसाने मेघ ही ले लिया। इस प्रकार योधागण दौड़ पड़े । तब अभिनव सेनाका विचार करते हुए हनुमानने भी अपनी 'पण्णन्ति' प्रज्ञप्ति विद्याका चिंतन किया। यह "आज्ञा दो" यह कहती हुई आ पहुँची। वह भी विद्यामयी सेना रचकर दौड़ी। दोनों सेनाएँ आपसमें टकरा गई। जल-थल दोनों मिलकर एक हो गये । दोनोंकी ध्वजाएँ उड़ रही थीं और तूर्य बज रहे थे, मानो अति कर कलिकालके मुख ही हो। विक्रमके सारभूत हनुमान और अक्षयकुमारमें शस्त्रांसे सघन युद्ध हुआ, इन्द्रने भो उसे देवसमूहके साथ ऐसे देखा मानो इन्द्रजाल हो ॥१-१||
[] दोनों हो सेनाऑको जयश्रीके विस्तारकी चाह हो रही थी, वे युद्ध में प्राणों के लिए भयङ्कर तीरोसे प्रहार कर रही थीं। उनके अघर काँप रहे थे और योधाओंकी भौहें भयकर हो रही थीं । एक दूसरेपर बाणोंका जाल छोड़ रहे थे। कहीं
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1E
पउमचरित
मरबह योहाबोलि बसवरि । यह दुचाक घराधरि ॥२॥ कत्याइ हुलाइलि मरामरि । कत्थाइ कण्याकणि सरासरि ॥३॥ करयइ दमादणि पणापणि । कपइ केसाकेसि हणाहणि meil कापड विन्दाहिन्दि लुणाणि । कथइ कहाकनि धुणाघुणि ॥५॥ कत्थाइ भिन्दाभिन्दि दलालि | स्थाइ मुसलामुसलि इलाइलि ॥६॥ कल्यइ सेवासेनि पारिद । कामह पेशोपेल्लि गइन्दहुँ ॥७॥ कत्थह पाहापाडि तुरगहुँ । कन्यइ मोडामोडि रहाहुँ ||८|| कायह लोट्टालोटि विमाण हुँ । आहर - जाहर गरवर पाणहुँ ।।६॥
पत्ता विणि वि अ-णिविष्णई माया-सेण्णहूँ ताव परोप्पर अभियई । कहिं गम्मि पहुई कहि
मिया के बुनिया
[१०] उम्बरिय पर दुहमवणु-बिमहणा । संगर-सम-गय रावण-पवण-णन्दणा ।। णं मन गय धाइय एष्मेकहो ।
सहसोस्थरिय रण-धव देत सकहो ।।१।। तो भाट्टु समीरण-गन्दणु । चूरिउ रण स्पायर सन्दणु ॥२॥ सारहि णिहउ नुराम घाइय । वहवस-पुरबर-पन्थें लाइयं ॥३॥ अक्खकुमार-हणुव घिय केवल । वाहा-जुश्म भिडिय महा-वल || तो मारुख-सुएण भायामिड । स्वलहिलेवि णिसायरु भामिउ ॥५॥ ताम जाम आमेशिर पाणहिं । कह वि कह वि णिय-भिव-समाणेहि।। लोयणइ मि उच्छलियाँ फुट वि । विणि वाहु-वाह गय नुहवि ।।७।।
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बासम संधि
योद्धाओं में बराबरीकी कहासुनी हो रही थी। धक्का-मुक्की हो रही थी। कहीं हलाहल हो रही थी और कहीं मारामारी हो रही थी। कहीं, तोरन्दाजी, कहीं लट्ठबाजी, कहीं घनवाजी, कहीं केशा केशी और कहीं मारकाट हो रही थी। कहीं छेदन-भेदन, कहीं लोचालोंची कहीं खींचतान, और कहीं मारचपेट हो रही थी। कहीं भेदाभेदन, कहीं दलना-पीटना, कहीं मुसळबाजी, कहीं हलबाजी, कहीं राजाओं में सेलबाजी और कहीं हाथियोंमें रेलपेल मची हुई थी। कहीं विमान गिर पड़ रहे थे, कहीं खोंगांमें मोड़ा मोड़ मची। कहीं घोड़ोंमें पड़ापड़ी हो रही थी। कहीं, विमान लोटपोट हो रहे थे, कहीं नरवरोंके प्राण आ जा रहे थे ? इस तरह जमकर दोनों मायावी सेनाएँ लड़ते-लड़ते कहीं भी जाकर नष्ट हो गई । न तो कोई उन्हें देख सका और न समझ ही सका ।। १-१०॥
१८०
[१०] तब दुर्दम दानबका मर्दन करनेवाले हनुमान और अक्षयकुमार युद्ध में समान रूपसे लड़ने लगे । पनवपुत्रने रुष्ट होकर रजनीचरके रथको चूर-चूर कर दिया, सारथीको मार डाला, और अश्वको आहत कर दिया। उसे वैश्रवणके पथपर भेज दिया | अब अकेले हनुमान और अक्षयकुमार बचे । दोनों महाबलियोंका बाहुयुद्ध होने लगा । तदनन्तर हनुमानने झुककर अक्षयकुमारको पैरोंसे पकड़कर तब तक घुमाया जब तक कि अपने अनुचरोंके तुल्य प्राणोंने उसे मुक्त नहीं कर दिया। उसके नेत्र फूटकर उछल पड़े, दोनों हाथ टूटकर गिर गये, नीलकमलकी
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परिट
खिरु पिरिद गोलुप्पल-कोमछु । कित सरीक स हाई पोलु II एह का गम मय-मारिवहुँ । अन्तेउरई असेस भिचहुँ ।
घता तो णिसिमर-गाहे कोव-सणा हिमउ हणेवर डोइपट । रण-रस-सण्णधुभ पिएवि स मंभुव चन्दहासु अवलोइपर 111011
[५३. तिवण्णासमो संधि मण विहीसणु 'लह भजु कि कजुग णासह । राम रामहाँ अप्पियर सोप-महासह ॥
भो भुषणेकसीह अज वि विगय-णामणं अज विणिय जाणइ आज दि सिय माणहि भस विसं-सा-रएँ wor वि उबाणहि अज वितुहुँ रावणु अझ वि सम्बोधरि मन वि से सम्वण अब वि साहणु बम वि करें खान भज विभा-सायह मा विपपराइट
बीस-जीर तड थाड पह बुरी। समर राम कुणहि गम्पि 'संधी को विस जाणइ धरणिमल । कुल-खड़ माऽऽणहि मियय-वल ॥२॥ मा संसार' पइसरहि । सिविया-जाहि संचरहि ॥३॥ जग-जूरावणु सा में सिय। सा मन्योभरि पाण-पिय ॥२॥ गरवस्सन्दण हे सुरप । गहिय-पसाहशु तेजि गय ॥५॥ करि-सिरसापट संजितट। सा-जासायक रण अजज ॥३॥ बाम ग सार भोपाल।
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तिवण्णासमो संधि तरह कोमल सिर गिर पड़ा। उसका शरीर हड़ियोंकी पोटली बन गया । यह खबर, शीत्र ही, मय, मारीच और अन्तःपुरके दूसरे अनुचरोंके पास पहुँची। तब, अपने मनमें पवनसुतको मारनेका संकल्पकर निशाचरनाथ रावणने क्रुद्ध होकर, रणरस लुब्ध चन्द्रहास खनको अपने हाथमें ले लिया ॥१-१०॥
अपनी सन्धि विभीषणने रावणसे कहा, "लो, आज भी अपना काम भव बिगाड़ो, महासती सीता देवी रामको सौंप दो।
[१] हे भुवनैकसिंह, विश्रब्ध जीव ! तुम्हारी यह क्या मति हो गई है। आज भी, प्रसिद्धनाम रामके पास जाकर सन्धि कर लो। आज भी जानकीको ले जाओ। दुनियामें कोई भी इस बातको नहीं जानेगा । आज भी सीताका सम्मान करो, और अपनी सेनामें कुलक्षय मत करो । आज भो सन्देह भरे संसारमें मत घूमो । आज भी तुम शिविका यानमें बैठकर अपने उद्यानोंमें विहार करो । आज भी, तुम विश्वको सतानेवाले वहीं राषण हो,
और सीता देवी भी वहीं हैं। आज भी तुम्हारी बड़ी कुशोदरी मन्दोदरी प्राणप्रिय है । आज भी वे ही रय हैं, यही नरवरीका आगमन है । चे हो. अश्य हैं, वही सेना है। वे ही प्रसाधन हैं। और वे ही गज है। आज भी तुम्हारे हाथमें, गजसिरोंको स्वण्डित करनेवाला खड्न हैं। आज भी भटसमुद्र, यशके आकरको प्राप्त करनेवाले तुम रणमें अजेय हो। आज भी तुम प्रवर असवाले हो । तब तक, अबतक कि राम नहीं आते, और आज जब तक
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18.
पवमचरित
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भज वि बहु-लक्स जाम न लामाणु भम्भिव ॥७॥ वरि साम दसाणण पवर-वसणण पवर-भुभ। शपिपाउ रामह अण-अहिरामही जणय-सुथ ॥८॥ परयार रमन्तहों कहों वि जियन्तहाँ णाहि सुद्ध। अन्धहि सम छूहउ णिय-मणे मूडा का मुहुँ ॥३॥
पत्ता जाम विहीसणु दहचयणहाँ हिपउ ण भिम्बइ। महि अफालेवि भडु साव समुहिड इन्दजइ ॥१०॥
"भो दणुइन्द-महणा पर विहीसणा काइँ एष बुतं ।
अक्स-कुमार घाइए हणुएँ आइए बिहावित ण झुस १॥ एचर्हि काई मन्तु मन्तिइ । जहें विस किं वरशु रहम्बइ ॥२॥ पित्तिय गासु णामु जइ भीयउ । उत्तर सक्खि समर महु वीयर ॥३॥ एक्कु पहुचा सोपदवाहणु । थमाउ माणुकष्णु पत्राणणु ॥४॥ अच्छड मउ मारिषि सहोमरु | मम्बा अण्णु मि जो जो कायरु ॥५॥ महु पुणु चार अवसरु वइ । यो किर अक्श काले अम्भिाइ ।।३।। जेणाऽसाल-विज किणिवाइम | पशु मगर अण-पाल विघाइप ॥७॥ किार - साधावार पलोहिउ । भखउ माफ जेन पलवष्टि ॥८॥ सोमहु का विकह विभरिभरियड । सीहहाँ हरिण अम में परिषर ॥
दूउ भणेप्पिा समरहाले जइ वि.ण मारमि। तो वि घरेपिणु तुम्हह समन्खु वित्यारमि ॥
[ ] पुणरषि रिउ-णिसुम्म महिमान-सम्म सुषि क्मणु वाय वाप। जण धरेमि सनु र उत्परम् ता हित सम्ब पाय ॥१॥
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तिक्षणासमो संधि
हुन ननणोंसे पुरु लमाण भामा नहीं लगता। तबतक, हे रावण, श्रेष्धनायक और विशालबाहु, तुम 'जन-अभिराम रामको जनकसुता सीता सौंप दो । परस्त्रीका रमण करते हुए तुम्हें जीते जी कहीं भी सुख नहीं मिल सकता । तमसे मुक्त होओ। अपने मनमें मूर्ख क्यों बनते हो।" इस तरह विभीषण रावणके हृदयका भेद कर ही रहा था कि इतनेमें धरतीपर धमकता हुआ सुभद इन्द्रजीत उठा ||१-१०॥
[२] वह बोला, "दानव और इन्द्रका दलन करनेवाले विभीपण, तुमने यह क्या कहा ! अक्षयकुमारके मारे जाने और हनुमानके आनेपर अब पलायन करना ठीक नहीं । अब मन्त्रणा करनेसे क्या होगा, पानी निकल जाने पर, अब चौंध बाँधना क्या शोभा देगा। पितृव्य ! यदि विनाशसे आप भयभीत हैं तो मुझे युद्धमें दूसरा उत्तर साक्षी समझना ! एक तोयदवाहन ( मेघवाहन) ही पर्याप्त है । भानुकर्ण और पंचानन यही रहें। भय, मारीच और सहोदर भी रहे, और भी जो जो कायर हैं, यह भी रहें। यह मेरे लिए तो बहुत ही भला अवसर है । मैं आजकल ही में युद्ध करूँगा । जिसने आसाली विद्याका पतन किया, जिसने उद्यान उजाड़कर वनपालोंको भी मार डाला, अनुचरीको
भी आहत कर दिया और जिसने अक्षयकुमारको भी समाप्त कर दिया, उसे भाज सिंहके पैरों में पड़े मृगकी तरह मैं किसी न किसी तरह नष्ट कर दूंगा । दूत समझकर युद्ध-स्थलमें यदि मैंने उसे न मारा तो कमसे कम पकड़कर तुम्हारे सामने लाकर रख दूंगा" ॥१-१०॥
[३]"और मी, शत्रुनाशक, अभिमानस्तम्भ हे तात ! मेरे वचन सुनो, यदि मैं रणमें उछलते हुए शत्रुको न पाहूँ तो
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पउमचरित
अइया लसर कि परमेसर यांसरिउ । अइगहुँ सुरसुन्दर गांम पुरन्दरें . उत्थरिउ ॥२॥ तहगहुँ तेरयस्तर कस-णिरन्तर धवल-धएँ । सिन्दूरुप्परि गिजाहिर मत्तगएँ ॥३॥ संजोत्तिय रहबरें हिंसिय-हयबरें पवर-था। धण-गुण-रकार कालपालनजर कुइय-भा भामेशिलय-परिपर
कविय सरवरें .
गांव-फरें। पडु-पारमा लिए सह-समालि गहिर-सरे ॥५॥ रिव-जय-सिरि लुखए अमरिस कुन्द झुज्म-मरें। सम्बल-हुलि हलहि सत्ति-तिसूल हिं वापरणे ॥६॥ ताहि तेइए साहण इव-गप-पाहण अभिधि। साहेम ववर-करि धरिउ पुरन्दार रहे परवि ॥७॥ तहि इम्बइ घोसित मामु पगासिट सुरवर हिं। विजाहर-अक्साहि गन्धव-सखें हि विष्णरहि ॥८॥ तो एक हणुवं अणु वि मणुबै को गहणु' । राँ चरिड सुरन्तर अप-कारन्तड परम-जिणु ॥
पत्ता हरि धुर देप्पिणु धऍ विजउ जहाँ पेक्वन्तहाँ। जिग्गउ इम्बा - बन्धमारू हणुवन्तहों ॥१०॥
पम्ऍ मोहवाहणो गहिय-पहरणो पिगमो सुरम्तो।
जुभ-सएँ सणिरुचरो भरिय-मथरो अहर-विष्फुरन्सो ॥१॥ सो वि पधाइड रहबरें घडिपड । ण केसरि-किसोरु पिरियड ॥२॥ संचालन्तएँ तोपदवाहण । सूरह इय असेस वि साहणे ॥३॥ सष्णजमम्ति वि रसनीयर । पर • सोगर - पाण-धणुवर-कर ॥शा
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तिवण्णासमो संधि
१६३ देखना ? मैं तुम्हारे चरण छूता हूँ। हे लंकेश्वर परमेश्वर ! क्या तुम वह बात भूल गये जब सुरसुन्दर इन्द्रपर आपने आक्रमण किया था। उस युद्धमें छत्र और धवल-वजांकी नो कोई गिनती ही नहीं थी। हाथी सिंदर और गीतासे मंकृत हो रहे थे, रथ जुते हुए थे । घोड़ें हींस रहे थे। सैन्यघटा प्रवल हो रही थी । धनुषकी डोरका दंकार हो रही थी । कलकल शब्द हो रहा था। सैनिक कुपित थे। परिकर छोड़कर, और उनम तीर लेकर सैनिक तमतमा रहे थे । विजयश्रीके लालची और अमपसे भरे हुए उनका मन युद्ध के लिए हो रहा था। सब्बल, हूलि, हलि, शक्ति और त्रिशूलसे सेना आक्रमग कर रही थी, वह अश्व, गज और वाहनोंसे भरपूर थी, ऐसे उस भयंकर युद्ध में स्थपर आरूढ़ लड़ते हुए मैने इन्द्रको उसी तरह पकड़ लिया था जैसे सिंहवर गजको पकड़ लेता है । और तबे, सुरवरों, विद्याधर, यक्ष, गंधर्व, राक्षस और किन्नरोंने मेरा नाम इन्द्रजीत घोषित किया था ? तो एक हनुमान और अन्य मनुष्योंको ग्रहण करनमें कौन-सी बात है।" यह कहकर, वह मनमें जिनकी जय बोलना हुआ तुरंत रथपर चढ़ गया। रथकी धुरामें घोड़े जोतकर, विजयश्वज लेकर लोगोंके देखते-देखते इन्द्रजात ऐसे निकल पड़ा माना हनुमानको पकड़नेवाला ही हो ॥१-१०||
[४] उसके पीछे, अस्त्र लेकर मेघवाहन भी तुरंत निकल पड़ा मानो युगका क्षय होनेपर मत्सरसे भरा कम्पिताधर शनैश्चर ही हो। वह भी रथपर चढ़कर दौड़ा मानी सिंहशावक ही निकल पड़ा हो । मेघवाहनके चलते ही सेनामें तूर्य बना दिय गये । कितने ही निशाचर संनद्ध होने लगे, उनके हाथमें बदिया तूणीर, बाण और धनुष थे । उनके हाथों में खुली हुई पैनी तलवार
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पउमचरिउ
त्रि तिक्ख स्वग्गुषस्य हत्था के वि गुरुहों विडिय हिंसन्त-तुर हिँ के 1 त्रि के विरहेहि के विसिदिया-जाणेंहि । के चि परिहिय आउच्छन्ति के विशिय कन्त को वि णिवारि कंण विकतुभिरिङ । 'एक्कु सु- सामि-काजु पर्छे इच्छिउ ॥ ६
I
र पसन्त ||८||
2
घत्ता
१३४
जामिय-मया ॥५॥ रसन्त-मन्त-मायंहिं ॥६॥ पवर-विमार्गे हि ॥७॥
अग्गएँ इन्दह पच्छऍ रमणीयर साह | श्रीया-यन्त्रों अलग्गु णाई तारायणु ||१०| [ ५ ]
पुउि यिय-सार'ने सहाराही दिलाई ज कहि केसिय अन्यई रणहाँ सत्य रहे चढावया ॥1॥ तो पान्वरें पभाड़ सारहि । 'अत्यइँ अस्थि देव छु पहरहि ||२|| कई पञ्च सत्त दर- चावई । इस असवर अणियि गांव ॥ ३ ॥ बारह झस पष्णारह मोग्गर | सोलह लउडि-दण्ड र सुन्दर ॥५ बीम पर चडवांस तिमूल कोन्त तीस सत्तु पडिकूल ॥५॥ aण पणतीस चाल वसुन्दावावनास तिक्ख अर्द्धन्दा ॥१६॥ लई सद्वि स्वरुप्प सतरि । अष्णु विष्णय च जिय चडहतरि ॥७॥ असी तिस व सुसुण्डि । जाउ दिवें नि रण-रस- यदि ॥ सराय जं परिमाणमि । अहँ पुणु परिमाणु ण जाणमि ॥६॥
धत्ता
w
बारह पियलाई सोलह विजय रहूँ वडिय । जहिँ धरिजड़ समरण इन्दु वि भिडियव ॥१०॥
[६]
लं णिसुणेवि रावणी जेथु पावणी तत्धु रहें पयट्टो | णं मज्जाय भेल्लो पुहइ-रेल्लो सातरो विसो ॥१॥
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तिवण्णासमो संधि थीं। कोई भारसे मस्तक झुकाये हुए थे, काई हींसते हुए घोड़ीपर .और कोई मद भरते हुए उन्मत्त हाथियोंपर, कोई रथ और शिविका यानपर, और कोई प्रवर विमानोंपर आरूढ़ हुए । कोई अपनी पनियोंसे मिल रहे थे, कोई रणमें जानेसे रोक लिया गया। किसाने अपना पको यह कहकर डाँट दिया, "केवल एक स्वामी के कार्यकी इच्छा करो।' आगे इन्द्रजीत था और पीछे निशाचर की सेना । मानो दोजके चन्द्र के पीछे तारागण लगे हीं ॥१-१०॥
E५] मासे पाया, “अरे मामी दद हो गये ? कहो कितने अस्त्र हैं, रणके सब हथियार स्थपर चढ़ा लिये हैं न ? इसपर सारथीने उत्तर दिया "देव ! शीघ्र प्रहार कीजिये, पाँच चक्र और सात उत्तम धनुष हैं। अनिर्दिष्ट गर्ववाली, दस सुन्दर तलवार हैं। बारह झस और पन्द्रह मुद्गर हैं। रणमं दुर्धर सोलह गदा है। बीस गढ़ा और चौबीस त्रिशूल हैं, शत्रु-विरोधी तीस भाले हैं । पैंतीस घन फारुक, बावन तीखे अर्धेन्दु, साठ सेले, ससर खुरुपा और चौदह कणप चढ़े हुए हैं । अस्सी त्रिशक्ति, नब्बे भुसुंढि सौ-सौ बाणोंके परिमाणको जानता हूँ । और किसीका परिमाण मैं नहीं जानता : बारह निगड और सोलह विद्याएँ भी रथमें हैं, ये वे ही विद्याएँ थी जो युद्ध में इन्द्रसे जा भिड़ी थीं ।।१-१०॥
[६] यह सुनकर इन्द्रजीतने उस ओर रथ बढ़वाया जहाँ हनुमान था। (वह रथ ऐसा लग रहा था) मानो धरतीको
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११६
पामचरि
परिधेविउ माह दुमहि । केबलु र मवहि मणपज्जऍहिं ॥२॥ जम्बू-दीव ५ रयणायरहि । पाणणो व कुक्षर-चरहिं ॥३॥ लोयन्तउ व ति-पहाणेहिं । दिवसाहिर व णहें णव-धणेहि ॥४॥ एकलड सुहडु अणन्तु वलु । पपुल्लु तो वि तहाँ मुह-कमलु ॥५|| परिसक्कद यह उल्ललइ । हक्कारह पहाइ दणु दलइ ॥॥ आरोक्का तुक्कई उत्थरह । पवियम्भइ रुम्भा विस्थरइ ॥७॥ ण वि छिज्जइ भिजा पहरण हिं। जिह जिणु संसारहों कारणहि ॥८॥ हणुवहीं पास हिं परिभमह वलु । मन्दर-कोडिहिं उपहि-जल ॥६॥
घप्ता
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धरवि सक्का बलु सयलु वि उक्लय-पहरण । मेरुहे पासहि परिभमइ माई तारायणु ॥१०॥
[.] घाइउ पवण-गन्दणो दशु विमडयो बलहाँ पुलझ्यही ।
इउ रहु रहवरेण गड गपवरेण तुरऍण व तुरको ।। 111 सुरई सुहहु कबन्धु कवन्धे 1 घसे घन चिन्य हउ चिम्धे ॥२॥ वाणे वाणु चाड वर - चाये । खग्में खग्गु अणिद्विय - गगावें ॥३॥ च चा तिसूलु तिसूलें । मुग्गर भुग्गरेण हुलि हुलें ॥४॥ काणएँ कगड मुसलु वर-मुसलें । कोन्ते कोम्सु रणपणे कुसलें ॥५॥ सेठे सेल्ल खुरुप्पु खुरुप्प । फलिहे फलिहु मम पि गय-हाये ॥६॥ जन्त जन्तु ग्रन्तु पहिस्खलियउ । बलु उजाणु जेम दरमलियउ ॥७॥ मासद लयलोणामिय - मत्पङ । गिग्गइन्दु मिसरत णिस्था ॥ विषरामुहु बोहुलिसम - अयण । भग्ग-मसफर मउलिय-णयण ॥॥
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तिवष्णासमो संधि
ठेलता हुआ मर्यादासे हीन समुद्र हो । दुर्जेय उनसे हनुमान उसी प्रकार घिर गया जिस प्रकार केवली अवधि और मनःपर्यय झानसे, जम्यूद्वीप समुद्रोंसे, सिंह गोंसे, लोकांत तीन प्रकारके पवनोंसे, दिनकर नये जलधरीसे घिरे रहते हैं । यद्यपि वह सुभट अकेला था, और शत्रुसेना अनंत थी, फिर भी उसका मुखकमल खिला हुआ था । वह कभी चलता, ठहरता, छलांग मारता, हुँकारता, प्रहार करता, कुचला, अम्हाई लेता, अस होता, फैलता, दिखाई दे रहा था । प्रहारोंसे वह वैसे ही छिम-भिन्न नहीं हो रहा था जैसे सांसारिक कारणोंसे जिन छिन्न-भिन्न नहीं होते। हनुमानके चारों ओर सेना ऐसी घूम रही थी मानो मंदराचलके आस-पास समुद्रका जल हो । शस्त्र उठाये हुए भी वह सैन्यसमूह हनुमानको पकड़नेमें असमर्थ था । मानो मेरुके चारों ओर तारा गण घूम रहे हो ॥१-१०॥
[७] तब राक्षससंहारक पवनपुत्र पुलकित होकर, सेनापर झपटा । रथवरसे रथको उसने आहत कर दिया, गजवरसे गजको, अश्वसे अश्वको, सुभटसे सुभटको, कबंधसे कबंधको, छत्रसे छत्रको, चिह्नसे चिह्नको, बाणसे बाणको, वरचापसे वरचापको, अनिर्दिष्ट गर्ववाली ? तलवारसे तलवारको, चकसे चक्र को, त्रिशूलसे त्रिशूलको, मुद्गरसे मुद्गरको, हुलिसे हुलिको कनकसे कनकको, मुसलसे मुसलको, रणके आंगनमें कुशल कांत से कोतको, सेलसे सेलको, खुरुपासे खुरुपाको, फलिहसे फलिहको और गदासे गदाको और यंत्रसे आते हुए यंत्रको म्खलित कर दिया । सेनाको उसने उद्यानकी तरह ध्वस्त कर दिया । स्थ और अश्वोंसे होन, वे माथा मुकाये हुए थे। उनका मुख
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पउमचरिउ
घत्ता
विलिय-पहरणु णासन्तु णिऍवि णिय - साहणु । रहवर वाहवि विड़ अग्गएँ तोयदवाहणु ॥१०॥
[ ] रावण राम-किका रण भयभरा भिडिय विप्फुरन्त।।
विडसुग्गीवाहवा विजय-लाहवा गाई 'इणु' भणन्ता ॥ ॥ वे वि पयण्ट चे वि विनाहर । वेष्णि वि अस्वय-तोण धणुधर ॥२॥ वेणि वि वियत-वच्छ पुलइय-भुभ । वेण्णि वि भजण-मन्दोयरि सुभ ॥३॥ वेषिण वि पक्षण-इसाणण-जन्दण । वेति यि दुहम - दाणव- महण ॥४॥ वेणि वि पर • वल-पहरण-पहिय ! वेणि वि जय-सिरि-बहु-अवरुण्डिय॥५॥ वेणि वि राहव-रावण- पक्खिय । चेणि वि सुरवहु-णयण कवक्सिया॥६॥ वेणि वि समर-साहि जसवन्ता । वेणि वि पहु-सम्माणु सरन्ता ॥७॥ वेणि वि परम-जिणिन्दहाँ भत्ता । वेणि वि धीर दार भय - चत्ता HIt वेणि वि अतुल महल रग दुद्धर । वेणि वि रस्स-णेस फुरियाहर ॥६॥
घत्ता विहि मि महाहवु जो असुर-सुरेन्दं हि दोसइ । रावण - रामहें सो तेहउ दुकरु होसइ ॥१०॥
अमरिस-कुद्धरण जस-लुद्धएण जयसिरि-पसाहणेणं ।
पेसिय विश हणुवहो महवाही मेहवाहणेणं ॥१॥ 'गम्पिणु णिणय-परचम दरिसहि । जिह सइ तिह उप्परि परिसहि ॥२॥ तं णिसुणेप्पिणु विम चियम्भिय ! माया - पाउस - लोलारम्भिय ॥३॥
कहि जि मेह-दुग्गयं । सुराउहं समुग्गयं ॥४॥ कहिं जि विग्जु-गज्जियं । धणेहि कं विसज्जियं ॥५॥
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विकासमो.संधि पीला, और. नेत्र मलिन थे । समूची सेना नष्ट हो रही थी । अपनी सेनाको इस प्रकार प्रहारोंसे खंडित होते देखकर, मेघवाहन सबसे आगे बढ़ा । वह बढ़िया रथपर आरूढ़ था ।१-१०|
[८] तब युद्ध में भीषण, समतमाते हुए, राम और रावणके वे दोनों अनुचर भिड़ गये। मानो विजयके लिए शीघ्रता करनेवाले मायासुमोव और राम ही 'मारो मारो' कह रहे हों। दोनों ही प्रचंड थे, दोनों ही विद्याधर थे, दोनों ही अक्षय तूणीर और धनुष धारण किये हुए थे। दोनोंके वक्षःस्थल विशाल थे और भुजाएँ पुलकित थीं । दोनों ही अंजना और मंदोदरीके पुत्र थे । दोनों ही पवनंजय और रावणके लड़के थे। दोनों ही दुर्दम दानवों का मर्दन करनेवाले थे। दोनों ही शत्रसेनापर विजयलक्ष्मी रूपी वधूको बलात् लानेवाले थे। दोनों ही क्रमशः राम और रावणके पक्षके थे। दोनोंको हा सुर-बालाएँ देख रही थीं। दोनों ही सैकड़ों युद्धोंमें यशस्वी थे। दोनों ही प्रभुके सम्मानको निबाहनेवाले थे। दोनों ही परम जिनेन्द्रके भक्त थे। दोनों ही धीर-वीर और भयसे रहित थे। दोनों ही अतुल मल्ल, रणमें दुर्धर थे। दोनों ही आरक्त नेत्र और स्फुरिताधर थे 1 देव और असुरोंमें जो महायुद्ध देखा जाता है, राम और रावणमें वह बैसा ही दुष्कर युद्ध होगा ॥१-१०|
[ ] अमर्षसे ऋद्ध, यशके लोभी जयश्रीका. प्रसाधन करनवाले मेघवाहनने हनुमानके ऊपर मेघवानी विद्या छोड़ी और कहा-"जाकर अपना पराक्रम बताओ, जैसे संभव हो वैसे उसके ऊपर बरसो।" यह सुनकर विद्या बढ़ने लगी, और मायावी मेघों को लोला उसने प्रारंभ कर दी | कहीं मेघोंसे दुर्गमता थी, कहीं इन्द्रधनुष निकल आया, कहीं बिजली तड़क रही थी, कहीं मेघों
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जनपरिष समnt :मानियल
काहिं मोर केहयं । बलाब - पम्ति - सइयं ॥७॥ इस सब-पाउस-सील परिसिय । यिर-भोरहिं जल-बारह परिसिय ॥६॥ बाय-सुएण वि वायवु पेसिड । तेण पणामु पयलु विणासिउ ||३||
पत्ता स-धज ससारहि स-तुरखा मोडिज सन्दषु । पर एन्ज गउ पावि बहमुह-गम्बणु 1100
[1 ] भमाएं मेहवाहणे णिय-साहणे इन्दई बिल्यो ।
मस गइन्द-गन्धर्ण मय समिद्रण केसरि म दो ॥१॥ मकई याहि पाहि कहिं गम्मइ । सिरई समावि रण-पतु सम्मइ १२॥ रहचर नुरय-सारि - संघरण हि । मत - महम्गय - पासा बहण हिं ॥३॥ कर-सिर-छेद पहरण-द्राएँ हि । मरण-गम हि खग-पर-संघाएहि ॥४॥ सुरवडण-सहिं . परिचहिड । अम्बर एउ मुग्म-पतु मण्डिर ॥५॥ जो घिहि जिणह तासु लिइ दिनई ! जाणइ - धरणउ मेहाविना ॥३॥ जिम रामणहाँ होउ जिम रामह) । हउँ पुणु कुई लग्गउ णिय रामहीं ॥७॥ जिह उमाणु भग्न हड अस्वउ । पारु पहरु सिह आउ कुल-पखाउ' ॥८॥ एम मणेत्रि समीरण-पुसहो । इन्दह भिडिउ समर हणुवन्सहो ॥६
. पत्ता गणि-पार्वाण सकाम परोप्पर भिरिया । उत्तर-आहिण गं दिस-गहन्द अम्मिडिया ||10il
[1] पडम भिडन्तगण असहन्तण दहवषण-गन्दगेणं ।
सर चयारि मुक अहि विलुछ उमाण-महगेणं ।।१।। जं वाहिँ वाण विखंसिय । भाषि भीम गयासणि पेसिय ॥२॥ धाइय युवन्ति हवन्तहों। करपलं लग्म सुकन्त । कन्तहों ॥३॥
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तिवण्णासमो संधि
से पानी गिर रहा था । कहीं पानीस धूलरहिीं भूसल यहां जा रहा था। कहींपर मोर शब्द कर रहे थे और कहीं पर बगुलाका वेग दिखाई दे रहा था । इस तरह उसने नई पावस लीलाका प्रदर्शन किया, स्थिर और स्थूल जलधाराएँ धरसीं। तब पवनसुतने भी, चायन्य तीर भेजा । उससे समस्त धनागम नष्ट हो गया । ध्वज सारथी और तुरंगसहित रथ मुड़ गया, परंतु एक अकेला गवणपुत्र ही मारा गया ।।१-१०॥
[..] मेघवान और अपनी सेनाके इस प्रकार नष्ट होने पर इन्द्रजीत एकदम विरुद्ध हो उठा मानो मत्त गजराजकी मदःभरी गंधसे सिंह ही क्रुद्ध हो उठा हो । उसने कहा, "हनुमान, ठहरो-लहगे, कहाँ जाते हो । अपना सिर सजाकर रथपट सजाओ। बड़े-बड़े रथ और घोड़े ही उसमें पास होंगे। महागजांका चलना ही पासोंका चलना होगा। हाथ और सिरका छेदन, प्रहार, मरण, गमन और पक्षि संघात ही उसमें फूटबूत होगे। यह युद्धपट इस प्रकार मंडित है । भाग्यसे जो इसमें जीते, सीता
और भूमि उसके लिए ही प्रदान की जाय। जिस तरह तुमन उद्यान उजाड़ा, कुमार अक्षयको मारा, से ही मुझपर प्रहार करी, प्रहार करो, मैं तुम्हाग कुलक्षय आ गया हूँ"। यह कहकर इन्द्रजीत युद्धमें हनुमानसे भिड़ गया। पवनपुत्र और रावणपुत्र इस तरह आपसमें भिड़ गये माना उत्तर और दक्षिणके दिमाज ही लड़ पड़े हो ॥१-१०॥
[११] असहनशील गवणपुत्रने पहली ही भिडन्तमें चार बाण छोड़े, परंतु उद्यानको उजाड़नेवाले हनुमानने आठ वाणांसे उन्हें लुप्त कर दिया। जब बाणासे बाग विश्वस्त हो गये तो उसने भीषण गदा घुमाकर फेंकी। चू-धू करतो वह दौड़कर हनुमानके
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. पउमधरिउ पुणु वि पडिझाउ भेलिउ मोग्गरु । किउ हणुवेण सो वि सय-सकरु Hen पुणु वि णिसिन्दै चाकु विप्लजिउ । बं सजाम-सऍहिं अ-पर्सजउ ॥५॥ कह बिण लग्गु पद्धिय-हरिसहाँ । दुजण-बयणु जेम सप्युरिसहो ॥६॥ जं में इन्दा पहरणु पत्तइ । तं तं गं सयवर पवसइ ।।७।। रहमुह - सुऍण णिरत्याहूए । हसिउ स-विम्भमु रामही दूर चक्रउ भइँ समाणु मोलगड । पहहि * उववासहिं भग्गउ' ॥६॥
पत्ता हणुवहीं वयहि सो इन्दइ झति पलिता । भय-भीसावणु सिहि णाई सिणिन्हें सिसड ॥१०॥
[१२] मरु मह काई एण रण णिप्फलेण सयवार-गजिएणं ।
किं लग्गूल-दाहण पवर-साहेण णह - विवजिएणं ॥१॥ णिस्विसेण किं पवर-भुभो । किमदन्तेण मत . मायले ॥२॥ कि जल-विरहिएण पहें महें। किं णासभावेण सणेहे ॥३॥ कि धुक्त-यण · मज्में दुविथई । कवणु महणु किर कु-पुरिस-सपढें ।।। जइ पहरमि तो घाए मारमि । किर तुई दुड सेण ण बियारमि' ||५|| एव भणेचि भुवणे जसवन्तहाँ । मेलिउ गाग-पासु हणुवन्तहों ।।६।। तेहएँ अघसरे तेण वि चिन्तड । 'अनमि रिउ संघारमि केनिउ ॥७॥ तो बरि घन्धावमि अपाणड । जे बोलाम रावणेश समाण ॥८॥ एम भणेवि पडिमिछड एन्तउ । णाई सहोयर साइड देन्तड ॥३॥
घत्ता रण रसियडेण कउसल्लु करेप्पिगु श्रुतें । सइ मु व-पारु वेढाविउ परणहीं पुत्ते ॥१०॥
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सिवण्णासमो संधि करतलमें ऐसे लगी मानो सुकांता अपने कांतसे ही जा लगी हो । तब उसने मुद्गर मारा, हनुमानने उसके भी सौ टुकड़े कर दिये । तब निशाचरने यह चक्र छाड़ा, जो सैकड़ों युद्धोंमें अजेय था। अत्यन्त हर्षित हनुमानको वह कहीं भी नहीं लगा वैसे ही जैसे दुर्जनके वचन सजनको नहीं लगते। इन्द्रजीत जो-जो अस्त्र छोड़ता, वह सौ-सौ टुकड़ों में हो जाता। रावणपुत्रके अंत में निरल होनपर रामके दूत हनुमानने विलासपूर्वक हँसते हुए कहा-"अच्छा हुआ जो तुम मुझसे लड़े, प्रहार करो, मानो उपवासोंसे भग्न हो गये हो ?" उसके वचनोंसे इन्द्रजीत शीघ्र भड़क उठा मानो आगमें धी पड़ गया हो ।।१-१०||
[१२] उसने कहा, "मर-मर, युद्धमें इस तरह व्यर्थ बारसगरमा गा; नरनिन हावी मने प्रवर सिंहसे क्या । बिना विषके विशाल सर्पसे क्या, बिना दौतके हाथीसे क्या, विना सद्भाबके नहसे क्या, आकाशमै निर्जल मेघसे क्या, धूर्तजनांके बीच दुर्विदग्ध से क्या. कुपुरुषसमूहके द्वारा किसी बातके अहणसे क्या, यदि प्रहार कर तो एक हो आघातमें मार डालू परन्तु तुम दृत हो इसलिए विदीर्ण नहीं करता।' यह कहकर उसने भुवनम यशस्वी हनुमानके ऊपर नागपाश फका । इसी अवसरपर हनुमानने अपने मनमें सोचा कि मैं कितना और शत्रुसंहार करु । तो उचित यही है कि मैं अपने आपको बँधवा हूं। जिससे रावणके साथ बातचीत कर सकें ।" यह विचारकर उसने आते हुए उस नागपाशका सगे भाईकी तरह आलिङ्गन कर लिया । रणरससे भरपूर कुशल हनुमानने कौशलपूर्वक अपने आपको विरवा लिया ॥१-१०||
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[५४. चउवष्णासमो संघि] हणुषन्त · कुमारु पयर - भुअङ्गोमालिया । दहवयणहों पासु मलयगिरि घ संचालिपउ ॥
[ ] णव-गालप्पल-जयण-जुय सोएं णिरु संतस ।
'पवण-पुत्त पई विरहियउ कवणु पराणइ वत्त ॥१॥ सो अक्षण - पत्रणझयह सुउ । अइरावय - कर - सारिन्छ - भुउ ॥२॥ संचालित लपहें सम्मुहउ । णं णियल - णिवदउ मत्त - गड ॥३॥ णिविसद्ध पुरै पहसारियउ । णिय • णासु गाई हकारियउ ||१|| गुस्धन्तर पाण - पोहरिहि । चलगेहिणि - लङ्कासुन्दरिहि ||५|| इर-एरउ जाउ पवेसियउ । हणुवन्नहों वक्त .. गसियउ ॥६॥
आयाउ ताउ ससि - वयणियइ । कुवलय- दल- दोहर- पाणिग्रउ ॥७॥ जाणाविउ रियउ इर- इरें हिं । पगलन्त- अंसु - गग्गर - गिर हिँ ॥८॥ 'सुणु माएँ काई द्वाटण किउ । ज मिसियर - णाहहाँ पाण-पिड ॥६॥ तं गन्नण - वणु संचरियड । किक्कर - साहणु गुसुमूरियउ ॥१०॥ अक्षयहाँ जोड विधंसियउ । घणवाण - बलु संतासियउ ॥११॥ इन्दइण गवर अत्रमाणु किंद । बन्धेवि दहवयणहाँ पासु गिउ' ॥३२
पत्ता तं वयणु मुवि गीलुपपलई व डोरिलयह। मीय जयगाइ विणि मि असु-जलोल्लिया ॥१३॥
[२] जं जसु दिउ अण्ण-भवे जीवहाँ कहि मि थियासु । नासु कि गासवि सकियह कामहों पुल - कियासु ॥१॥
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चौवनवीं संधि कुमार हनुमान, मलयपर्वतकी तरह प्रवर भुजंगोसे मालित (नाग-पाशसे बँधा हुआ और नागोंसे लिपटा हुआ) रावणके पास चला।
[१] यह देखकर नवनील कमलकी तरह नेत्रवालो शोकसे संतप्त सीतादेवी अपने मनमें सोचने लगी कि "पवनपुत्र, तुम्हें छोड़कर अब कौन मेरी कुशलवार्ता ले जा सकता है ।" उधर वह ऐरावतको तरह सूइघाला हनुमान लंकाके सम्मुख ऐसे ले जाया गया मानो साँकलोंसे बँधा हुआ मत्तगज ही हो । आधे ही पलमै उसे लंकानगरीमें प्रविष्ट कराया गया। इस तरह मानो उन्होंने अपने विनाशका ही ललकारा हो। इसी बीचमें पीनपयोधरा सीतादेवी और लंकासुन्दरीने जो इरा और अचिराको हनुमानकी खबर लेनेके लिए भेजा था, वे दोनों लौटकर आ गई । शीघ्र ही उन दोनोंने आकर झरते हुए आँसुओं और गद्गद स्वरमें चंद्रमुखी और कमलनयनी उन लोगोंको तुरंत कहा, "माँ, सुनो । उस दूतने क्या-क्या किया । लंकानरेशका जो प्राणप्रिय उद्यान था वह उसने उजाड़ दिया है, और समस्त अनुचरसेनाको मसल दिया है । कुमार अक्षयके प्राण हरण कर लिये और घनबाहनकी सेनाको संत्रस्त कर दिया है। केवल इन्द्रजीत ही उसे अपमानित कर सका है । वह उसे बाँधकर रावणके पास ले गया है।" यह सुनकर सीतादेवीके नेत्र नीलकमलको भाँति हिल उठे और उनसे आँसुओंकी धारा प्रवाहित होने लगा ।।१-१३||
[२] वह अपने मनमें विचार करने लगी कि जीव चाह कहीं ही, उसने पूर्वभवमें जो किया है, उसके पूर्वभवमें किये गये
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पउमचरित
पुणु रुषइ स-दुक्खउ जणय-सुभ । मालइ - माला - सारिच्छ- भुभ ॥२॥ 'खल खुद्द पिसुण ह्य दा विहि । पूरन्तु मण्यारह होउ दिहि ॥३॥ दसरह - कुडुम्बु जं छत्तरिउ । वलि जिह इस-दिसाह जायखारेज अण्णहिँ हउँ अपहिं दासरहि । अण्णहि लावणु अन्तर उहि ॥५॥ एहए वि कालें वसणावतिएँ । बहु- इट्स- विओम- साय- भरिए ॥६॥ जो किर णिचूद्ध - महाइवहाँ । सन्देसउ सइ राहवहीं ॥७॥ पई समरें सो वि वधावियः । वलहहो पासु ण पाविय ll अहवह किं तुहु मि कहि छलई । यह दुकिय - कम्मो फलई ॥६॥
पत्ता असल - क्यणेहिँ सीय वि लङ्कासुन्दरि वि। णं रवि-किरणेहि तप्पइ जउण वि सुर-सरि वि॥१०॥
[३] मारुइ-पान्दण भणमि पह कुल-वल जाइ-विहीण ।
ताबस जे फल - भोयणा ते पई सेविय दीण' ||६|| पुत्तहें वि मुहर - पाणणहाँ । गित मारुइ पासु दसाणणहाँ ॥२॥ वइसारै वि कजालाव किय । 'हे सुन्दर काई दु-बुद्धि थिय ॥३॥ चङ्गा कुसलसणु सिम्बियउ । अह उत्तम कुलु ण परिक्खियउ ॥४॥ सुर-डामरु रावणु मुएँ चि मई । परियरिउ बरायउ रामु पई । पञ्चाणणु मेस्लवि धरिउ गउ 1 जिणु मुऍधि पसंसिउ पर-समऊ ।।६।। जो जसु भायणु सो मं धरह । कह गालियरेण काइँ करइ ।।६।। जो सयल-काल सुपहुत्तहि । मणि काय - मउठ-कष्ठिमुत्तहि ।।८।। पुजिनहि सो एअहि धरिउ । लम्पिक जेम जण - परिवरिउ ।।६।।
. पत्ता मई मुए चि सु-सामि मारुइ कियइँ जाई छलइँ । इह-लोग ज ताई पतु कु.सामि-सत्र-फलइ ।।१०।।
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३०७
चउवणासमो संधि कर्मका नाश कौन कर सकता है ? जनकसुता इस प्रकार फूटफूटकर रोने लगी । उनकी भुजाएँ मालती मालाकी तरह थीं । वह बोली, "हे खल क्षुद्र पिशुन कटारविधि, तुम भाग्यवश अपना मनोरथ पूरा कर लो। दशरथ-कुटुम्बको तुमने तितर-बितर कर दिया है,। बलिकी तरह तुमने उसे दशौ दिशाओंमें बिखर दिया है। मैं कहीं हूँ, गम कहीं हैं। बीच में ( इतना बड़ा समुद्र) है। अपने इष्ट लोगोंके बियोग और शोधसे पूर्ण आपत्तिकालमें जी महायुद्धांमें समर्थ गमके पास मेरा संदेश ले जाता, तुमने युद्ध में उसे भी बँधघा दिया । अथवा क्या तुम भी छल कर सकते हो, नहीं कदापि नहीं, यह मेरे पापकर्माका फल है।
[३] इधर, वे लोग ( इन्द्रजीत आदि ) हनुमानको सुभटश्रेन रावणके पास ले गये । उसने बैठाकर उससे वार्तालाप किया । और कहा, “हे हनुमान, मैं तुमसे कहता हूँ कि जो कुल, बल, जातिसे विहीन है, जो फलभोजी दीन-हीन तापस है, तुमने उसकी सेवा की। हे मुंदर, आखिर तुम्हें यह दुर्बुद्धि क्यों हुई । तुमने अच्छा दूतपन सीखा यह । अथवा अरे तुमने कुल सककी परीक्षा नहीं की । देवभयंकर मुझ रावणको छोड़कर तुमने उस अभागे रामकी शरण ग्रहण की । ( सचमुच ) तुमने सिंह छोड़कर गधेको पकड़ा । जिनवरको छोड़कर तुमने पर-सिद्धान्तकी प्रशंसा की । फिर जो जिसके पात्र होता है, उसमें वही वस्तु रखी जाती है। बताओ, नारियल ( इसकी खोपड़ी )का क्या होता है। जो ( तुम ) सदैव प्रभुताके गुणों चूड़ामणि, कदक, मुकुट और कटिसूत्रोंसे सम्मानित किये जाते थे वही तुम घेरकर लोगोंके द्वारा चोरकी भाँति पकड़ लिये गये । मुझ जैसे उत्तम स्वामीको छोड़कर हे हनुमान, तुमने जो कुछ किया है । तुमने कुस्वामीको सेवाफे उस कलका यहीं प्राप्त कर लिया है ।।१-१२॥
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पजमचरित
रावण मुहु भुञ्जन्ताह लकाउरि जिह णारि ।
आणिय साय ग ह प. णिय-कुल-वंसही मारि' ।।१|| अव मि जो दुग्गइ-गामिग हि । कुशलस - कुमन्ति कुमामिएँ हि ।।२।। परियण कुन्ति कुसेवाएँ हिँ । कुनिथ · कुथम्म • कुदेवाएँ हिं ॥३॥ आपमें असहि भावियद । सो कवष्णु ण आवइ पाश्रियर' ।।४।। नं वयणु सुणेवि कइन् ण । णिमच्छिउ बहाविद्धान ।।५।। 'किर काई इमाणण हसहि मई । अप्पणु सलाधु किट काई प ।।६।। परमाह होइ चिलिसावणउ । णाणाविह - भय - दरिपावणा ||७|| दुबहु पाहल कुल लड़छणउ । इहलोड - परत्त · त्रिणासणड IIEI दुजण - विकार - पहिच्छणउ । घर अयसही जम्महाँ लम्छणउ ||९
घत्ता संसारहो बारु दि कवाड सासय-घरहों। लह वि विणामु अकुसल अण्ण-भवन्तरहों ॥३०॥
जोठवाणु जीविउ धणिय घरु सम्पय-रिद्धि गरिन्छ ।
भावत्रि गुह णिच नुहुँ पट्टवि सीय णिसिन्द ।।१।। पर-धणु पर-नारु मनवमणु । आयरइ को त्रि जो मूढ-मणु ॥२॥ नहुँ घई सयालागम कल-कुसलु । मुणि-सुब्बय • घसण-कमल-मसलु ॥३ जाणन्तु ण अप्पहि जणय सुअ । अवधुव अणुनेम्व काइँ सुभ ||४|| को कामु सन्बु माया निमिरु । जल बिन्दु जेम जीविउ अ-धिरु ||५|| सम्पत्ति समुह - तरङ्ग - मिह । सिय चचल विजुल-लह जिह ॥६॥ जोवणु गिरि-पाइ पवाद-सरिमु । पेम्मु वि सुविणय-इंसण-सरिसु ॥३॥ धणु सुर-धणु-रिद्धि] अणुहरइ । खाणे होइ खणद्ध ओसरइ ॥८॥ झिसह सरीरु आउसु गलइ । जिह गउ जल-णिचहु ण संभवद ॥६॥
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चडवण्णासो संधि
[ ४ ] हनुमानने तब उत्तरमें कहा, “तुम लंका नगरीका नारीकी तरह सुन्दर भोग करो। किन्तु यह तुम सोता देवी नहीं, किन्तु साक्षात अपने कुलको मारो ( विनाश ) लाये हो ।" यह सुनकर रावणने कहा, "और जो दुर्गतिगामी, कुकलन, कुमंत्री, कुस्वामी और कुपॉरंजन, कुमंत्री, कुसेवक, कुतीर्थ कुधर्म, और कुदेव इन सबको भावना करनेवाला होता है, कहो उसे कौनसी आपत्ति नहीं होती ।" तब क्रुद्ध हनुमानने उसकी निंदा करते हुए कहा, "परस्त्री घृणाजनक और नाना प्रकार के भयों को दिखाने वाली होती है । वह दुखकी पोटली और कुलकी कलंक है । इहलोक और परलोकका नाश करने वाली है। वह दुर्जनों के धिक्कारसे भरी हुई होती है. वह अयशका घर, जीवनका लांछन है । वह संसारका द्वार और मोक्षका किवाड़ है। वह लंकाका विनाश और जन्मान्तरका अकल्याण है ।।१-१
[ ५ ] हे राजन् यौवन, जीवन, धन, घर, सम्पदा और ऋद्धि इन सबको तुम अनित्य समझ कर सीताको वापस भेज दो। कोई मूर्ख जन भी पर धन, परद्वारा और मद्य व्यसनका आदर नहीं करता । नुम तो फिर सकल आगम और कलाओं में निपुण हो । मुनिसुव्रत भगवानके चरणकमलों के भ्रमर हो । जानते हुए भी सीताका अर्पण नहीं कर रहे हो। क्या तुमने अनित्य उत्प्रेक्षा को नहीं सुना । कौन किसका है, यह सब मायाका अंधकार है । जीवन जलकी बूँदको तरह अस्थिर है। सम्पत्ति समुद्रको लहरको तरह है । लक्ष्मी बिजलोकी रेखाकी तरह चंचला है। यौवन पहाड़ी नदींके प्रवाहके समान है। प्रेम भी स्वप्रदर्शनकी तरह है। धन इंद्रधनुपके समान है । वह क्षण में होता है और क्षण में विलीन हो जाता है | शरीर कौन रहा है और आयु गल रही है ।
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बत्ता
घरु परियणु रुजु सम्पय जोवित सिय पवर । एवई अ-थिराइँ एक्कु सुपुष्पिणु धम्मु पर ॥ १० ॥ [६]
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'रावण अ-सरणु सम्भवि पवि रामहों सीय । पणं तो सम्पइ सयल सुब पईं तम्बारहों गांव ॥ ६ ॥ अहो केकसि रयणास सुय | असरण अणुत्रेव का ण सुय ॥२ जावेंहिं जीवों दुक्कड़ मरणु । ताहिं जग नाहिं को वि सरणु ॥३ क्विज जर वि भयङ्करेंहिँ । असि लडकि बित्यहि किङ्करहिं ॥ सहि । कमलाण
·
माय तुरङ्गम
जम-वरुण कुबेर पुरन्दरेहिं गण-जय महारंग
पइसरह जइ रण वर्णे लिणे
वि पायालय | गिरि-गुहिले हुआ
हयले सुर-भवणं । रयणप्पहाड़
मजूस कूव
घर पाएँ । कहिन
घत्ता
·
-
पउमचरिउ
T
तर्हि असरण - पर रक्ख
-
-
·
-
वजन ॥५
-
छिपण रहि ॥ ६
उनहिं जलें ॥७
V
गमण |
-
दुग्गई
तो वि स्वणन्तरएँ ॥६
काले जाबो अवण ण का किधर । एक्कु अहिंसा- लक्खणु धम्मु पर ||१०१३ [ ]
रावण गम घड भड- णिवहु घरु परियणु खुहि रज्जु ।
म
एसिड बजा तुहुँ पर सुहु दुक्खु सहेज्जु || १ ||
अहीं रावण णव कुवलय-दलक्ख । किं ण सुइय एकतायुक्ख ॥ २ जगे जीवों पास्थि सहाउ को विरह वन्धइ मोह-यसेण तो वि ॥३ " घरु इड परिक्षणु इउ कलत" । गाउ वुज्झहि जिह सयलेहिं चत्त ॥ एक्के कग्य बिदुर कार्ले एक्केण वसेम्वर जल-बमाले ॥५ एक्केण वसेण्ड सहिँ णिगोएँ । एक्केण रुपग्वड पिय-बिओऍ ॥
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चउवण्णासमो संघि
गत जल-समूहकी तरह बहू, तुम्हारा नहीं होता । घर, परिजन. राज्य, सम्पदा, जीवन और प्रवर लक्ष्मी ये सब अस्थिर हैं । केवल एक धमकी छोड़कर । -१)
[६] है रावण, तुम अशरण उत्प्रेक्षाका चिंतन कर सीताको भेज दो। नहीं तो तुम्हारी संपदा और समस्त सुख नाशको प्राम हो जायेंगे | अरे कैकशी और रत्नाश्रवके पुत्र, क्या तुमने अशरण अनुप्रेक्षा नहीं सुनी । जब जीवको मृत्यु पास आ जाती है. तंत्र उसे कोई शरण नहीं मिलती चाहे तलवार और गदा हाथ में लेकर बड़े-बड़े भीषण किंकर, गज, अश्व, रथ, अम: विष्णु, महेश, चम. वरुण, कुबेर, पुरन्दर, गण, यन्न, नागराज और किन्नर भी इसकी रक्षा करें। चाहे वह पातालतल, गिरि-गुफा, आग, समुद्रजल, रणवन तृण नभतल,सुरभवन, दुर्गतिगामी रत्नाभ नरक.मजूपा कुआ या घररूपी पिंजड़े में प्रवेश करे, एक क्षणमें उसे निकाल लिया जाता है। अशरण कालमै जीवका और कोई नहीं होता है। केवल एक अहिंसामूलक धर्म (जिन) ही रक्षा करता है।।१-१०||
[७] रावण, गजघटा, भद समूह, घर-परिजन, पंडित और राज्य ये सब तुझे छोड़ देंगे। केवल एक न हो सुख-दुख सहना । ओ नवनीलकमलनयन रावण, क्या तुमने एकत्व अनुभाको नहीं सुना। मोहके वशसे कोई कितनी भी रति करे, परन्तु इस संसार, जीवका कोई भी सहायक नहीं हैं। यह घर, ये परिजन यह स्त्री, नहीं देखते, इनको सबन छोड़ दिया। विधुरकालमै अकेले क्रन्दन करोगे, वालमालामें अकेले बसोगे । निमांद में अकेले रहोगे, प्रिय वियोगमें अकेले ही रोओगे, कर्मसमूह और माइके
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पउमचरित
प्रश्केण भवेन्चउ भव- समुह 1 कम्मोह- मोह - जलयर - रउ ॥७॥ एकहीं ज दुवाखु एकहीं ज सुक्खु । एकही ज वन्धु एकहो ज मोक्नु मा! एकहो जै पाउ एकही ज धम्मु । एक्कहाँ जें मरणु एकहों में जम्मु ।।६।।
घत्ता तहि नेहा विहुरे सयण-सया ॥ दुक्कियई । पर वेपिण सया इ जीवहाँ दुलिय-सुक्कियई ॥१०॥
'रावण जुलाजुत्त तुहँ चिन्तें त्रि णियय - मणेण ।
अण्णु सरीरु वि अण्णु जिउ बिहड एड खणेण' ।।१।। पुणु वि पड़ीबड उबवण महणु । कहा हियत्तगण मरु - गन्दणुः ।।२।। अण्णसाणुवैक्स दहगीवहाँ । अण्णु सरीरु 'अण्णु गुणु जीवहाँ ।।३।। अण्णहि तणउ धष्णु धणु जोन्वगु । अण्णहि तणउ सयणु घरु परियण ।।४।। अध्यहिं तगड ऋलस लइज्जइ । अण्णहि तणउ तण उप्पज्जड़ ॥५ का वि दिवस गय मेलाव । पुणु विहन्ति मरन्ते एक्के ॥६॥ अगणहि जीउ सरीरु वि अयणहि । अहिंघरु धरिणि वि अण्णण्णहिं ।।७।। अण्णहि नुस्य महग्गय रहवर । अण्णहि आण - पहिच्छा गरवर ।।८11 पहए अग्ण - भवन्तर - बन्तर। अत्थ - विडावि होइ स्वणन्तर 11611
घत्ता जणु काजवसेण मुह - रसियउ पिय - जम्पणउ । जिण धम्मु मुपति जीवहीं को वि ण अप्पणः ।।१०।।
[३] साउ-गइ-सायर दुह-पउर जम्मण- मरण- रउ ।
अप्पहि सिय म गाउँ करि म पनि णरय-समुन्द ।।१।। भो भुवण - भयङ्कर दुण्णिरिक्स । सुशु चउगइ संसाराणुवेक्ख ॥२॥
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ण्णासो संधि
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7
जलचरोंसे भयंकर भवसागर में अकेले ही भटकोगे । जीवको अकेले हो दुख, अकेले ही सुख भोगना पड़ता है, अकेले ही उसे बन्ध और मोन होता है। अकेले ही उसको पाप धर्मका बन्ध होता है। अकेले उसीका ही मरण और जन्म होता है । उस संकट के समय में कोई भी स्वजन नहीं आते, केवल दो ही पहुँचते हैं, वे हैं जीवके सुकृत और दुष्कृत ॥१-१०।
[ ८ ] है रावण, तुम अपने मनमें उचित और अनुचितका विचार करो, यह शरीर अलग है और जीच अलग | यह एक क्षण में नष्ट हो जायगा। बार-बार उपवनको उजाड़नेवाले हन्मानने हृदयसे रावणको अन्यत्व-अनुप्रेक्षा बताते हुए कहा --- “शरीर अन्य है और जीवका स्वभाव अन्य है, धन-धान्य, यौवन दूसरेके हैं। स्वजन, घर, परिजन भी दूसरेके हैं। स्त्री भी दूसरेकी सममना | तनय भी दूसरेका उत्पन्न होता है। यह सब कुछ हो दिनांका मिलाप है, फिर मरकर सब एकाकी भटकते फिरते हैं । जीब और शरीर भी अन्यके हो रहते हैं, घर भी दूसरेका, गृहिणी भी दूसरे की तुरंग, महागज और रथवर भी अन्यके हो जाते हैं । आज्ञाकारी नरवर भी दूसरेके ही रहते हैं। इस दूसरे जन्मांतर में जीवका अर्थनाश एक क्षण में ही हो जाता है। लोग कार्यके यशसे ( अपने मतलचसे ) मुँह मीठे और प्रिय बोलनेवाले होते हैं, परंतु जिनधर्मको छोड़कर, इस जीवका और कोई भी अपना नहीं है ||१-११ ॥
[ ६ ] सीताको अर्पित कर दो। उसे ग्रहय मत करो, नहीं तो, दुखसे भरपूर, जन्म और मरणसे भयंकर चार गतियोंके समुद्र, और नरक-सागरमें पड़ोगे । हे भुवनभयंकर और दुर्दर्शनीय
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राजद
जल - थल • पायाल - णहङ्गणेहिं । सुर-गरय- तिरय - मणुअसणेहि ॥३॥ पपर - गारि - पुंसय - रूपएहि । विस-मेसें हिं महिस- पसूआएहि ॥ माया - तुरन - विहममेहिं । पञ्चागण - मोर - भुमहिं ।।५।। किमि कांड - पयक्रेन्दिन्दिरहि । विस-बहस- गहन्द (1) मजहि ।।६।। हम्मन्तु हणन्तु मरन्तु जन्तु । कलुण रुभन्तु खज्जन्तु खन्नु ।।७|| गेण्हन्तु मुअन्तु कलेवराई । अगुहवइ जाउ पाकहाँ फलाई ।।। धरिणा वि माय माया वि धर्तिण 1 भइणी वि धाय धीया वि मणि It !! पुत्तो त्रि पु बप्पो वि पुत्त । सत्तो वि मित्त मित्तो वि सत्तु ||10!!
घत्ता एहएँ संसारे रावण सोक्वु कहि तणउ । अरिएजसीय सीलु म खण्डहि अप्पणउ' ॥१॥
[१०] चउदह रज्जुग दहवयण भुवि सोक्ख- सयाई ।
तो इ ण वइय तित्ति तर अप्पहि सीय पण काइँ ॥१॥ अहाँ सुर-समर सहि सवढम्मुह । तइलोकागुवेक्ष सुणि दहमुह ॥२॥ ॐ तं गिरवसेसु आयासु वि 1 तिहुवणु सम्झे परिट्टिउ नासु वि ॥३॥ भाइ णिहणु गाउ केण विधरियउ । अच्छा सयलु वि जीव भरियउ ॥४॥ पहिला वेशासण-अणुमाणे । थियट सत्त-रजुअ-परिमाणे ।।५|| वायउ महरि-रुवामारें । थियउ एक रज्जुब-विस्थाएँ ।६।। तयउ भुवणु मुरव-अणुमाणे । धियउ पत्र-रज्जुअ परिमाणे ।।७।। मोक्नु वि विचरिय-बनाया थियउ एक रज्जुअ-चिथारें इय चउदह-रज्जर हि गिवडर । तिहुअणु तिहिं पक्षणे हिं उहा ॥॥
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वडवणासो संधि
रावण, तुम चारगतिवाला संसार अनुप्रेक्षा सुनो। जल-थल पाताल और आकाशतल में स्वर्ग नरक तियंच और मनुष्य ये चारगतियाँ हैं, नर-नारी और नपुंसक आदिरूप, वृषभ, मेप, महिप पशु, गज, अश्व और पक्षी सिंह, मोर और साँप, कृमि, कीट, पतंग और जुगुनू, वृप, वायस, गयंद और मंजरी ( इन सब प ) जीव उत्पन्न होता है। वह मारता है, पिटता है, मरता है, जाता है, करुण रोता है, खाता है, खाया जाता है, शरीरोंको छोड़ता है, महण करता है। इस प्रकार जीव अपने पापका फल भोगता है। कभी स्त्री माँ बनता है, और माँ स्त्री, बहन लड़की बनती है, और लड़की बहन । पुत्र बाप बनता है और बाप पुत्र बनता है। शत्रु भी मित्र बनता है और मित्र शत्रु । इस संसार में, 'हे रावण' सुख कहाँ है। सीता सौंप दी. अपना शील खंडित मत करो || १ - १४॥
११
२१५
[ १ ] हे रावण, चौदहराजू इस विश्व में तुमने सैकड़ों भोगों का अनुभव किया है। फिर भी तुम्हे तृति नहीं हुई । सांता क्यों नहीं सौंप देते ? अहो सैकड़ों देवयुद्धों में अभिमुख रहनेवाले रावण, त्रिलोक-अनुप्रेक्षा सुनो। यह जो निरवशेष आकाश हैं, उसके बीच में त्रिभुवन प्रतिष्ठित है, अनादिनिधन वह किसी भी वस्तुपर आधारित नहीं है। सबका सब जीवराशिसे भरा हुआ है, पहला, वेत्रासनके समान सात राजू प्रमाण है, दूसरा लोक भारीके आकारका एक राजू विस्तारवाला है, और तीसरा लोक, पाँचराजू प्रमाण मृदंगके आकारका है, मोक्ष भी छल और आकारसे रहित, एक राजू विस्तारवाला है। इस प्रकार चौदहराजुआंसे निवद्ध, तीनों लोक तीन पवनोंसे घिरे हुए हैं। उसीके
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पउमचरित
पत्ता तही माझे असेसु जल थल्लु अयण-कक्खियउ । तं कवणु पएसु जं ण वि जाधे भक्खियउ ।।१०।।
[१] क्स वि फिलिदिल देह-घर खणे भडगुरम् असार ।
रावण सीयहें सुधु तु जिह भाउ चार ।। अहो अहाँ सयल-भुवण-संतावण । असुइसाणुवेक्ष सुणि रावण ।।२।। मागुस-देहु होइ घिणि-विट्टल 1 सिरेहि णिवउ हह पोहलु ॥३॥ चलु क-जन्तु मायमा कुद्ध उ । मलहों पुजु किमि-कीहुँ मूडउ ॥४॥ पुअगन्धि गहिरामिस-भण्डउ | चम्म रुक्नु दुग्गन्ध-करण्डउ ।।५।। अन्तई पोद्दल पक्खिहि भोयणु । बाहिहिं भवणु मसाणही भायणु ॥६॥ आयएहिं कलुसिड जर्जाई अङ्गाउ । कत्रणु पपसु सररहो वाउ ।।७।। सुण्णाय सुण्णाहरु व दुप्पेछउ । कलियलु पन्छाहर-सारिच्छउ ।।८।। जोरवणु गण्डहीं अणुहरमाणउ । सिरु णालियर-फरक-समापड ||६||
पत्ता एह असुइते अहाँ लयाहिप भुवण-रवि । सायहें चरि तो वि हउ विरतांभाउ ण वि ।। १०॥
[१२] पश्च-पयारे हि दहवयण जीवहाँ हुकर पाउ ।
सुहु दुःखई ज मेम ठिय तं भुजेवउ साउ ॥१॥ भो सुरकरि कर-संकास-भुन । आसव-अणुवेक्स काई ण सुभ ॥२॥ वेटिजह जाउ मोह-मएँ हि । पञ्चाणणु जेम मल-गएँ हि ॥३॥ रयणायरु जिह सरि-वाणि हि । पञ्च-विहें हिं पाणावरणिएँ हि ॥४॥ शव-ईसणेहि विहिं वेयहि । अट्ठावीसहि चामोहहिं ५॥
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२१.
चउपपणासमो संधि बीच में समस्त जल-थल दिखाई देते हैं, इसमें ऐसा कौन-सा प्रदेश है जिसका जोबने भक्षण न किया हो ।।१-१०॥
[११] इस घिनौने क्षणभंगुर और असार सीताके देह रूपी घरमें तुम उसी तरह लुब्ध हो जिस तरह कुत्ता मांसमें लुब्ध होता है ? अरे अरे सकल भुवनसंतापकारी रावण, तुम अशुचि-अनुप्रेक्षा सुनो, यह मनुष्यदेह घृणाकी गठरी है | हड्डियों और नसाँसे यह पोटली बंधी हुई है। चंचल कुजन्तुओंसे भरी, कुत्सित मांसपिंडवाली, नश्वर मलका ढेर, कृमि और कीड़ासे व्याप्त, पोपसे दुर्गन्धित, रुधिर और मांसक पात्र, रूखे चमड़ेवाली और दुर्गन्धकी समूह है। अन्तम यह पोटली, पक्षियोंका भोजन, व्याधियोंका घर और प्रमशानका पात्र बनती है । पापसे इसका एक-एक अंग कलुषित है, भला बताओ शरीरका कौन-प्रदेश अमर है। सूने घरको तरह वह सूना और अदर्शनीय है । इसका कटितल पच्छाहर' ? के समान है, यौवन ऋणके अनुरूप है,
और सिर नारियलको खोपड़ी की तरह है । अरे विश्वरवि लंकानरेश, शरीरके इतना अपवित्र होने पर भी, सीताके ऊपर तुम्हारा विरक्तिभाव नहीं हो रहा है ।।१-१०॥
[१२] हे दसमुख ! जीवको पाँच प्रकारके पाप लगते हैं। जो जिस तरह सुख-दुख में होता है, उसे वैसा भोग सहन करना पड़ता है । अरे ऐरावतकी गुंड़की तरह प्रचंडवाढु गवण, क्या तुमने आसव-अनुप्रेक्षा नहीं सुनी । यह जीव, मोह-मदसे वैसे ही घेर लिया जाता है, जैसे मत्त गज सिंहको घेर लेते हैं, या नदियोंकी धाराएँ समुद्रको घेर लेतो हैं, । पाँच प्रकारका ज्ञानावरणीय, नौ प्रकारका दर्शनावरणीय, दो प्रकारका वेदनीय, अट्ठाईस
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२१८
पउमचरिड
चउ-विहि आउ-परिमाणएँ हि । ते गडइ-पयार हिं गामहि ॥६॥ विहिं गात्ती महल-समुझलहिं । पञ्चहि मि अन्सराइय-खले हि ॥७॥ छाइजइ हिजइ भिउजइ वि ! मारिजइ वजह पिज्जइ बि ॥८॥ पिष्टिज्जा वामद मुबह वि । जन्तेहि दलिसह मनइ वि ।।१।।
पत्ता प्रिय कम्म-बसेण . जम्मण-मरणोद्वद्धएं ग । विसहेवउ दुक्खं जेम गइवें वडाण ||१०||
[१३ भणमि सहें दहशयण जाणेवि एउ असार ।
संवरु मा वि णियय-मजिजउ परयार ॥१॥ भो सयल-भुअण-लघमी-णिवास 1 संवर-अणुवेक्षा सुणि दसास ॥२॥ रविवजाइ जीड सरागु केम । इ हुकर अयस-काला जेम ||३।। दिनई रक्खणु जो जासु मल्ल । कामहाँ अ-कामु सल्लहाँ अ-सालु ॥३॥ दम्भहो अ-दम्भु दोसह) अ-दोसु ! पावहाँ अ-पाव रोखही अ-रोसु ॥५॥ हिंसहो अहिंस मोहहाँ भ-मोहु । माणहाँ अ-माणु लोहहाँ अ-लोड ॥६॥ णाणु त्रि अण्णाणही विठ-कशाहु । मच्छरहों अ-मच्छरु दप्प साहु ॥७॥ अ-विओउ वियह दुणिवार । जमु अय सहाँ दुप्पइसारु वारु III मिच्छ्त्तहों दिढ-सम्मत्त-पयरु । भेस्लिाइ जेम प - दह-अरु ।।।
पत्ता परियाणवि एड णव-लुप्पल- जयण-जुय । परि रामही गम्पि कर लाइजड़ जणय-सुय ॥१०॥
रावण पिजर भावि नहुँ ना दय-धम्म मूलु।
तो परि जाणवि परिहरहि किजा तहाँ भणुकूलु ॥१॥ लाहिव दणु - दुग्गाह · गाह 1 हिजर - अणुचेक्खा णिसुणि माह ॥२॥
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चडवण्णासमो मंधि
२१६
प्रकारका मोहनीय, चार प्रकारका आयुकर्म, नौ प्रकारका नामकर्म, दो प्रकारका गोत्रकर्म और शुभ-अशुभ पाँच प्रकारका अन्तराय कर्म । इन सब कर्मों से जीव आनन्न हाता, छोजता, मिटता, मारा, खाया और पिया जाता है। जन्म-मरणसे बचे हुए इस जीवको अपने कर्मों के वशीभूत होकर उसी प्रकार दुख उठाना पड़ता है जिस प्रकार बंधनमें पड़ा हुआ गज उठाता है ॥१-१०।।
[१३] रावण ! मैं स्नेहपूर्वक कह रहा हूँ। तुम इसे असार समझी। अपने मन में संघर-तत्वका ध्यान करो, और परखास बचो सो विभुषाललायो नि एक-1, दुल संबर-अनु. नंज्ञा सुनी। रागरहित होकर इस जीवको इस तरह रखना चाहिए कि इसे किसी तरहका कला न लगे । जो जिसका प्रतिद्वंद्वी है उसकी उससे रक्षा करो, कामसे अकामको, शल्यसे अशल्यका, दम्भसे अदम्भको, दोषसे अदोषको, पापसे अपापको, रोपसे अगेपको. हिंसासे अहिंसाको, मोहसे अमोहको, मानसे अमान का, लाभसे अलोभको, अज्ञानसे दृढ़ ज्ञानको, मत्सरसे दर्षनाशक अमत्सरको, वियोगसे दुर्निवार अवियोगको, अपथसे दुष्प्रवेश द्वार पथका, और मिथ्यात्वसे बढ़ सम्यकत्वके समूहको बचाओ जिससे देहरूपी नगर नष्ट न ही जाय, हं नवनील कमलनयन रावण, यह सब जानकर, तुम जाकर रामको जनकसुता अपिन कर दो" ।।१-१०॥
[११] रावण, तुम निर्जरा-तत्वका ध्यान करो जो दयाधर्मकी जड़ है । अच्छा हो तुम सीताको छोड़ दो और उसके अनुसार आचरण करो। हे दानवरूपी ग्राहीसे अग्राम लंकाधिप रावण 'तुम निरा अनुप्रेक्षा सुनो । घण्टो, अष्टमी, दशमी, द्वादशीको
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पचमचरित
छहदम - दसम - तुवारसेहिं । बहु - पाणाहारहिणीरसेहि १२॥ घउहिँ तिरत्ता - तोरणेहि । पक्खेकचार किय - पारणेहि ॥ मासोवास - चन्दायहि । अपरेहि मि दण्डण - मुण्डणेहिं ॥५॥ बाहिर सयणे हि असावणेहि । तरु - मूल हि घर · वीरासहि ॥६॥ सामाय - माण-म-खञ्चहि । वन्दण - पुजण · देवशहिँ ॥७॥ संजम-तव-णिय में हिं दृसहहिं । घोर हि घावीस • परीसह हि ॥८॥ चारिस-णाण - वय - दसणेहि । अचरेहि मि दण्डण - खण्डणे हि ॥६॥
घत्ता जो जम्म-णाएण सचिट दुख्यि-कम्म-मलु । । सो गलइ असेसु बरण दु-
वर्षे जेम जलु ॥१०॥
[१५] धम्मु अहिंसा दहवयण जाणहि मुहुँ दह-भेउ ।
तो वि ण जाणइ परिहरहि काह मि कारणु एउ |॥१॥ अहाँ जिणवर-कम-कमलिन्विन्दिर । दसधम्माणुवेक्ख सुर्णे दस-सिर ॥२॥ एहिसउ एउ ताम चुभेब्बउ । जीष - दया - घरेण होएल्वड ॥३॥ वीयड महवत दरिसेन्चउ । तझ्यउ उजय : चित करवा ॥१॥ चउथउ पुणु लाहचेंण जिदेम्बर 1 पञ्चमड वि तव-चरणु चरेबउ ॥५॥ छउ संजम - चड़ पालेल्वउ । सत्तमु किम्पि णाहि मागेवर ॥६॥ भटम बम्भचेर स्वस्खेम्बउ । णयमउ सच-वयष्णु बोल्लेब्वा ॥७॥ दसमउ मण परिचाड करण्यउ । मछु इस-भेउ धम्मु जाणेब्वर ॥८॥ धम्म होन्तएण सुहु केवल । धम्में होन्तरण चिन्तिय-फलु ॥६॥
घत्ता
धम्मेण दसास घर परियणु सबडम्मुहट । विणु म तेण सबलु वि थाइ परम्मुहड ॥१०॥
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पउवाणासमो संधि
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नीरस उपवास करना चाहिए । पक्षमें चार तीन ? या एक बार पारणा करनी चाहिए। एक माहके उपवास वाला चान्द्रायण व्रत, तथा और भी दण्डन-मुण्डन करना चाहिए ! बाहर सोना या पेड़ोंके मूलमें या आतापिनी शिलापर वीरासन लगाना चाहिए | सुध्यात ध्यानसे मनको वशमें करना, वन्दना, पूजन और देवार्चा करना, दुःसह संयम, तप और नियमको पाहा: नेर पाईस परीषह सहन करना, चारित्र ज्ञान, प्रत और दर्शनका अनुष्ठान तथा अन्य दण्डन-खण्डन करना चाहिए । इस प्रकार जो सैकड़ों जन्मोंसे पापरूपी कर्ममल संचित हैं, वे सब वैसे ही गल जाते हैं जैसे बाँध खोल देनेसे पानी बह जाता है ।।१-१०॥
[१५] हे रावण ! तुम अहिंसा धर्मके दस अंगोंको जानते हो । फिर भी सीताका परित्याग नहीं करते । आखिर इसका क्या कारण है। जिनवरके चरणकमलोंके भ्रमर दर्शाशर रावण, दसधर्म-अनुप्रेक्षा मुनो । पहली तो यह बात समझो कि तुम्हें जीवदयामें तत्पर होना चाहिए । दूसरे मार्दव दिखाना चाहिए। तीसरे सरलचित्त होना चाहिए । चौथे अत्यन्त लाघवसे जीना चाहिए । पाँचव तपश्चरण करना चाहिए । छठे संयम धर्मका पालन करना चाहिए । सातवें किसीसे याचना नहीं करनी चाहिए | आठवे ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिए । नवे सत्य व्रतका आचरण करना चाहिए । दसवें मनमें सब बातका परित्याग करना चाहिए। तुम इन धर्मोको जानो। धर्म होनेसे ही केवल सुखकी प्राप्ति होती है, और धर्मसे ही चिन्तित फल मिलता है। हे रावण ! धर्मसे ही गृह, परिजन सब अभिमुख ( अनुकूल ) होते है, और एक उसके बिना सब विमुख हो जाते हैं ।।१-१३॥
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२२२
पउमचरिउ
* ]
[
|
'माइ मण श्राणन्दयर यि कुल ससि अ-कलङ्क | जाणइ जाणिय सयछ : जाँ कह भय-भीएं सु ॥१॥ अणु वि दहवयणु मणेण मुणे णामेण वोहि अणुवेक्ख सुर्णे ॥२॥ चिन्तेव्वउ जीव रप्ति-दिणु । " भव भव महु सामिड परम-जिणु ॥ ३॥ भ भ लभ समाहि-मरणु । भव भवें होउ मुम्बइ-गमणु ॥४॥ सण णाणेण सहुँ ||९|| म
भभत्र जिण गुण सम्पत्ति महु | भनेँ भने
भने मर्ने सम्मत होउ श स भ
10
महन्त दिह्नि । भव भवें उप्पज्जउ धम्म-निहि" ॥७॥
भव भव सम्भव अणुत्रेस्ट
रावण
एयाउ । जिण सासण बारह- भैयाउ ||८|| जो पढइ सुणइ म सहहह । सो सासय सांबख सयदें लहई' ॥ ६॥
·
.
-
घत्ता
सुन्दर वयणाई लभाई मणे सरहों ।
स हूँ भु व जुचलेण क्रिउ जयकार जिणेसर हों ॥१०॥
५५ पञ्चवण्णासमो संधि 1
'एक दुलह धम्मु एस विरहग्गि गरूषत । आयहँ कवणु लमि' दहवयणु दुतक्खीहू ॥ [+] 'एस जिनवर चयणुण खुक्क । एत्तहँ यम्महु वम्महों एतहँ भव-संसार बिरुव । एव
विरह- परवसिंहूअ
का ॥१॥ ||२॥
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पनवण्णासमो संधि
२२३
[१६] मनके लिए आनन्दकर, अपने कुलका कलंकहीन चन्द्र हनुमान जानता था कि जानकी समस्त विश्वमें भय और भीतिसे मुक्त है। फिर भी उसने कहा, “हे रावण अपने मनमें गुनो, और भोधि अनुप्रेक्षा सुनो । जीवको दिनरात यही सोचना चाहिए, तानों से बनाली सम कि हों. वन्य मुझे समाधिमरण प्राप हो, जन्म-जन्ममें सुगति गमन हो, जन्म जन्ममें जिनगुणोंकी सम्पदा मिले, जन्मजन्ममें दर्शन और हानका साथ हो, भक्भवमें अचल सम्यक दर्शन हो, भवभवमें मैं कर्ममलका नाश करूं । जन्म-जन्ममें मेरा महान् सौभाग्य हो, जन्म-जन्ममें मुझे धर्मनिधि उत्पन्न हो। हे रावण, जिनशासनमें ये बारह प्रकारको अनुप्रेक्षाएँ हैं, जो इन्हें पढ़ता, सुनता और अपने मनमें श्रद्धा करता है, यह शाश्वत शतशत सुखोंको पाता है। ये सुन्दर वचन रावणके मनमें गड़ गये और उसने अपने हाथ जोड़कर जिनका जयकार किया ॥१-१०॥
पचवनी सन्धि.
रावणके सम्मुख अब बहुत बड़ी समस्या थी; एक ओर तो उसके सामने दुर्लभ धर्म था और दूसरी ओर विपुल-विरहाग्नि । इन दोनों में वह किसको ले, इस सोचमें वह व्याकुल हो उठा।
[१] एक ओर तो वह जिनवर के उपदेशसे नहीं चूकना चाहता था तो दूसरी ओर, उसके मर्मको काम भेद रहा था, एक और चिरूपित भवसंसार था, तो दूसरी ओर वह कामके पशी
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२२४
पडमचरित
एसह णर' पडेम्बउ पाणे हिं 1 एतह भिण्णु अणाहाँ वाहिं ॥३॥ एत्तहँ जाउ कसाएँ हि रुम्मा । एत्तहँ सुरय-सोक्स्यु कहि लब्भा ॥१॥ एसह दुक्खु टुकम्मही पासिड । एत्तहे जाणइ-क्यणु सुदासिउ ॥५॥ एत इय-सरारु चिलिमायणु । एतह सुन्दरु सीयह जोब्धणु ।। ६॥ एप्तहें दुलहई जिण-गुण-वयणई । एतह मुद्धई सीयह पयगई ॥७॥ एतहे जिणवर-सासणु सुन्दरु । एसह जाणइ-वयणु मगाहरु ॥८॥ एसह असुई कम्मु णिरु भावः । एत्तरं सांय-भहरू को पावह ॥६॥ एत्तहे णिन्दिउ उत्तम-जाहों । पुतहें केस भार वरु सोयह ॥१०॥ एस. गरड रउन्दु दुरुत्तरु । एसह सीयह कन्तु सु-सुन्दर ॥३१॥ एतह गारइयहुँ गिर मरु मरु' । एतह सामहे मणहरु थणहरु ॥१२॥ गुप्तहें जम-गिर लइ लइ धरि धरि'। एसह जागा लाह-किसोयरि ॥१३॥ एत्त दुक्खु अणन्नु दुणियरु । एत्सहें सीयह रमणु स-विधरु ॥१४|| पसहें जम्मन्तरें सुहु घिरलउ । एसह सुललिय-ऊरुन-जुवलउ ॥१५|| एत्तहें मणुब-जम्मु अड्-विरल3 । एतह बंधा-जुअलग सरल उ ।।१६।। एतह एड कम्मु ण वि विमलउ 1 एतह सीयह वरु कम-जुअल ॥१७॥ एत्तहँ पाउ अणोत्रमु पउझइ । एतह विस हि मणु परिरुझिह ॥ १८॥ एत्तहें कुविउ कयन्न सु-भासणु । एत्तहे दुसरु मयणहाँ सासणु ॥१६॥ कवणु लएमि कवणु परिसंसमि । तो वरि वहिँ गरए पडेसमि ॥२०॥
पत्ता जाणमि जिहण घि सोक्नु पर-तिय पर-दव लयन्तहाँ । जं रुपा त होउ तहाँ रामहाँ सीय अ-देन्तहाँ ॥२१॥
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पत्रवणासमो संधि भूत था, इधर यदि प्राण नरकमें पड़ेंगे तो उधर काम के बाणोसे अंग छिन्न हो जायेंगे, इधर कषायोंसे वह अवरुद्ध हो जायगा तो उधर सुरतसुख उसे कहाँ मिलेगा, इधर टुष्काका टुम्न ना है, तो उधर हँसता हुआ जानकीका मुख है। इधर घिनौना आइत शरीर है. उधर सीताका सुन्दर यौवन है, इधर दुर्लभ जिन गुण और वचन हैं, उधर सीताके मुन्ध नयन हैं. इधर सुन्दर जिनवर शासन है और उधर, मनोहर सीताका मुख है। यहाँ अत्यन्त अशुभ कर्म मनको अच्छा लग रहा है और उधर सीताके अधरोंको कौन पा सकता है, इधर उत्तम जातिको निन्दा है, उधर सीताका उत्तम केशभार है, इधर दुस्तर रौद्र नरक है,
और उधर सीताका सुन्दर कण्ठ है, इधर नारकियोंकी 'मारो मारो" वाणी है और इधर सीताके सुन्दर स्तन हैं । इधर यमकी "ला लो पकड़ा-पकड़ो" वाणी है और उधर सुन्दरिया में सुन्दरी सीता है । इधर अनन्त दुस्तर दुख है और उधर सीताका सविस्तार रमण है | यहाँ जन्मान्तरमें भी सुख विरल है और वहाँ सुन्दर ऊरु युगल हैं । इधर विरल मानव-जन्म है, और उधर सरल सुन्दर जंघा युगल है। इधर यह कर्म मिलकुल ही पवित्र नहीं है उधर सीता का उत्तम चरण-युगल' है, यहाँ अनुपम पापका बन्ध होगा उधर त्रिपोंमें मन अवरुद्ध हो जायगा । इधर सुभीषण कृतान्त कुपित हो जायगा और उधर मदनका दुस्तर शासन है । किसे स्वीकार करूँ और किसे छोड़ दूँ। अच्छा, इस समय नरकमें पड़ना ही ठीक है। मैं जानता हूँ कि परस्त्री और परगव्य लेममें किसी भी तरह सुख नहीं है, फिर भी उस रामको सीता नहीं दूंगा, फिर चाहे जो रुचं वह हो ।।१-२१॥
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२६
पामचरित
[२]
जई अपाम तो लन्छणु णामहौँ । जणु वोसलेसह "सकिउ रामहो" ॥१॥ मणे परिचित जय-सिरि-माणगु। हणुचहा सम्मुह पलित दसाणणु ||२|| 'अरे गोवाल वाल धी-वञ्जिय । वद्धउ झसहि काइँ अलज्जिय ॥३॥ लवणु समुहहाँ पाहुद्ध पेसहि ! सासय - पाणे सुहाई गसहि ॥४॥ मेरुह कणय - दण्ड दरिसावहि । दिणयर - मण्डल दीवउ लावहि ॥५॥ जोपहावइहें जोण्ड संपाढहि । लोह • पिण्ड सण्णाहु ममाडहि ॥६॥ इन्दहाँ देव - लोउ अष्फालाई । महु अगए' कहाउ संचालहि ॥७॥ सं णिसुणेवि पयोक्लिउ सुन्दरु । पपर- भुभङ्ग- घच- मुझ - पअरु |८|
पत्ता
'रावण तुझु ण दोसु लब दुकाउ मुणियर - भासिर । अण्णहि काहि दिछि खड दीसह सीयहें पासिउ' ॥६॥
[३] दुन्वयणहि बहवयणु पलितउ । केसरि केसरण णं वित्तड ॥१॥ 'मरु मरु लेहु लेहु सिरु पाउहाँ णं तो लहु विच्छोउँ वि धावहाँ ॥२॥ खरै वहसारही सिरु मुण्डावहाँ । वेल्लएँ बन्धवि धरै घर दावहीं ॥३॥ सं णिसुणेवि पधाइय णिसियर । असि-मस-परसु-सत्ति-पहरण कर ॥१॥ तहि अवसरे सरीरू बिहुगेप्पिणु । पवर - मुअन - बन्ध तोडेप्पिणु ॥५॥ मारह भड भास्तु समुहिउ । समि अवलोयणे णा परिहिउ ॥६॥ जउ जउ दे दिहि परिसकाइ । तड तर अहिमुहु को बि यह ॥७॥ भगइ बसाणणु 'सई संघारमि ! बेसह जाइ तं जे मरु मारमि' ॥८॥
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पञ्चषण्णासमो संधि
२२७ [२] यदि मैं अर्पित कर दूंगा तो नामको कल लगेगा, लोग कहेंगे कि रामके डरसे ऐसा किया !" जयश्रीके अभिमानी गवण अपने मनमें यह सब विचार करके हनुमानके सम्मुख मुड़ा, और चोला, “अरे बुद्धिहीन बाल गोपाल, बँधा हुआ भी व्यर्थ क्या बक रहा है । लवण-समुद्र में पत्थर फेंकना चाहता है। शाश्वत स्थान में सुख खोजना चाहता है । मेरुका लोनेका दण्डा दिवाना चाहता है। सूर्यमण्डलको दीपक दिखाना चाहता है। चन्द्रमामें चाँदनी मिलाना चाहता है । लोपिण्डपर निहाईको घुमाना चाहता है । इन्द्रसे देवलोक श्रीनना चाहता है। मेरे कानो कनानी पादप पाहत है." यह गुना गुदर पवनपुत्र ( नागपाशसे दोनों हाथ जकड़े हुए थे) ने कहा, "रावण, इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, असलमें मुनिवर का कहा सत्य होना चाहता है, कुछ ही दिनोंमें सीतासे तुम्हारा नाश दिखाई देता है ।।१-६॥
[३] इन दुर्वचनासे रावण भड़क उठा, मानो सिंह सिंहको शुन्ध कर दिया हो । उसने कहा, "मारो-मारो, पकड़ी या सिर गिग दो, नहीं तो इसका धड़ अलग कर दो । इसे गधेपर बैठाओ, सिर मुड़वा दो, रस्मीसे बांधकर घर-घर दिखाओ”। यह सुनकर राक्षस दौड़े, उनके हाथ में तलवार, झस, फरसा और शक्ति शस्त्र थे । उस अवसरपर हनुमान भी अपने शरीरको हिलाकर नागपाशको तोड़कर और भटोंका संहार करता हुआ उठा | देखने में वह ऐसा लगता मानो शनीचर ही प्रतिष्ठित हुआ हो, जहाँजहाँ उसकी दृष्टि जाती वहाँ-वहाँ सम्मुख आनेमें और कोई समर्थ नहीं पा रहा था । तब रावणने कहा, "मैं स्वयं मारूंगा, जहाँ जायगा, वहीं इसे मारूँगा। इस प्रकार हनुमान, उस विद्याधर
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२२म
पउमचारेउ
घत्ता ववि सेम्णु असेसु विग्जाहर-भवण- पईवहाँ । मुह मसि-कुबड देषि गउ उपरि दहीवहाँ ॥६॥
[] थिङ बलु सपल मडप्फर-मुकर । जोइस · चक्कु व थाणहाँ चुकाउ ॥१॥ कमल-बणु व हिम-वाएं दवउ । दुविलासिणि- क्यणु व दुचिय[उ ॥२॥ रणिहि वर-भवणु व पिछीवउ । किर उवणु को पीवउ ॥३॥ भणइ सहोअरु 'जाउ कु-दृशर । एसडेण किं उत्तिमु हुअउ ॥४॥ गिरिवर उपरि बिहामु जन्ता । तो किं सो में कोई बलवन्तउ ||५॥ एम भणेवि णिवारिउ रावणु । सणझन्तु भुवण-संतावणु ॥६॥ तासह वि तेण हणुवन्ते । णाई विहरे णहयल अन्ते ॥७॥ चिन्तिउ एषकु वणन्तर थाऍवि । कोब • दवग्गि मुहसुपपाएँ वि ॥८॥
घत्ता 'लक्षण-रामा? किति जगणीसावण्ण भमाडमि ।
दहमुह-जीविउ जेम वरि यमहि घरु उम्पादमि' ॥६॥ चिन्तिण सुन्दरण सुन्दरं । भुभबलेण दहवरण - मन्दिरं ॥३॥ स - सिहरं स - मूलं समुक्खयं । स-वलियं (१) स-जाला-गक्षयं ॥२॥ स - कुसुम स - वारं स - सोरण । मणि- कबाड - मणि - मनवारणं ॥३॥ मणि - तवा - समन - सुन्दरं । पलहि - चन्दसाला . मोहरं ॥४॥ होर- गहण- सल- उन्म- खम्भयं 1 गुमगुमन्स - रुण्टन्त · छप्पयं ॥५॥ विष्फुरन्त - णासेस - मणिमयं । सूरकन्त - ससिकन्त - भूमयं ॥६॥ इन्वील - वेरुलिय - पिम्मलं । पोमराय - मरगय - समुजलं ॥७॥ घर - पवाल • माला - पलम्बिरं । मोतिएक , भुम्बुक - अम्बिरं ॥८॥
घसा सं घर पवर-भुएहिं रसकसमसम्तु मिलिया। अणुव-बिया पाला जोग्वणु वरमझियड ।।।
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पवनासमो संधि
द्वीपकी समस्त सेनाको वंचितकर, और उनके मुखपर स्याहीको कूची फेरनेके लिए रावणके ऊपर झपटा ॥१-||
[४] सारी सेना अहंकारशून्य होकर ऐसे रह गई, मानो ज्योतिषचक्र ही अपने स्थानसे च्युत हो गया हो, या कमलवन हिमसे ध्वस्त हो उठा हो या दुर्विलासिनीका मुख ही फलक्ति हो गया हो या रत्नोंसे उत्तम भवन ही उद्दीप्त नहीं हो रहा हो। वह बार-बार उठना चाह रही थी। इतनेमें विभीषणने रावणसे कहा, "यह कुदूत है, इतनेसे क्या यह उत्तम हो जायगा। पहाड़के ऊपरसे पनी निकल जाता है, तो क्या इससे वह उसको अपेक्षा बलवान हो जाता है, यह कहकर उसने रावणका निवारण किया। इतनेपर भी, हनुमानने आकाशमें जाते हुए पक्षीकी भौति, एक क्षण रुकमा पर क्रोधाग्निसे भड़ककर अपने मनम सोचा कि मैं राम-लक्ष्मणकी असाधारण कीर्तिको संसारमें घुमाऊँ, और दशमुखके जीवनकी तरह इस घरको ही उखाड़ दूं ॥१-६||
[५] तत्र हनुमानने अपने भुजबलसे शिखर और नींव सहित उसके प्रासादको कसमसाते हुए दलित कर दिया। मानो हनुमानने लंकाका यौवनही मसल दिया था। वह राजप्रासाद, जालगोखों, कुसुमद्वार, तोरण, मणिभय फिवाड़ और छनोसे सहित था । मणियोंके तवांग ? से सुन्दर तथा बलमी और चन्द्रशाला से मनोहर था। उसका सल हीरोंसे जड़ा था। और दोनों ओर खम्भे थे। जिनपर भ्रमर गुनगुना रहे थे। समस्त भूमि चमकते हुए मणियों तथा सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंसे जडिस थी। इन्द्रनील और वैदूर्यसे निर्मल पद्मराग और मरकत भणियोंसे उसम मूगोंकी मालासे लम्बमान और मोतियोंके मूमरोंसे मुम्बिर था वह भवन ॥१--।।
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२३०
पडमचरित
तहाँ सरिसाई आई अणुलागई। पत्र सहासई गहुँ भग्गई ॥१॥ किउ कामहणु पवणाणन्दै । सरपर पइसरवि गइन्हें ॥२॥ पुणु वि स - इच्छए परिसकन्ने । पाडिय पुर - पओहि णिग्गन्तें ॥३॥ सह समारणि णहयले जन्ताउ । लकह जीउ पाई उहतउ ॥४॥ सहि अवसर सुरवर - पवाणणु । बन्दहासु किर लेह दसाणणु ॥५॥ मन्तिाह वर करछाएँ धरिथउ । 'कि पहु-णिसि देव वीसरियउ ॥६॥ जह पासइ सियालु विवरायणु । तो कि तहाँ रूसइ वञ्चाणणु' १७॥ एवं भणेषि णिवारिउ आवे हि । जाणह मणे परिओसिय ता हि ॥
घत्ता
जे घर-सिहरु दलेवि हणुवन्तु पावड आहह । सीयहें राहड जेम परिभोसे अंजण माइज |18 ।।
[.] जं जै पयट्टु समुह किक्किन्धही 1 पवरासीस दिष्ण कचिन्धहाँ ॥१॥ 'होहि वस्छ जयवन्तु पिराउसु । सूर- पयाय- हारि जिह पाउसु ॥२॥ लम्की. सय- सहाणु- बिह सरवर । सिय-तरवण-अमुक्कु जिह हलहरु॥३॥ तेण वि दूरत्येण समिच्छ्यि । सिरु णामें सि आसीस पउिमिश्य ॥४॥ पुणु पुछल्ल - वीर जग केसरि । राहु आउच्छषि लडासुन्दरि ॥५॥ मिलिउ गम्पि णिय- खन्धाधारण । थिउ विमाण धण्टा • कारणे ॥६॥ तुरई हयई समुट्ठिर कलयलु । सारावह - पुरु पत्र महाबलु १७॥ णिगय अजय सहुँ पप्पं । अपण वि णिव णिय-णिय-माहप्पे HEE
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पचवण्णासमो संधि
२३०
[६] उसीके साथ लगे हुए पाँच सौ मकान और भी ध्वस्त हो गये । पवनके आनन्द हनुमानने उन सबको ऐसे दल-मल कर दिया मानो गजेन्द्रने घुसकर सरोवरको ही रौंद डाला हो । फिर भी स्वेच्छासे घूमते हुए उसने जाते- जाते, पुरप्रतोलीको गिरा दिया। आकाशतलमें उड़ता हुआ हनुमान ऐसा सोह रहा था मानो लंकाका 'जीव' ही उड़कर जा रहा हो। उस अवसरपर, सुरवर सिंह रावण अपने हाथमें चन्द्रहास तलवार लेकर दौड़ा | परन्तु मन्त्रियोंने बड़े कष्टसे उसे रोकवाया। उन्होंने कहा, "देव ! क्या आप राजाकी मर्यादाको भूल गये । यदि शृगाल गुफाका मुख नष्ट कर दे, तो क्या उससे सिंह रूठ जाता है" । जब उसे यह कहकर रोका तो हुई शिखरको दलकर हनुमान जब लौटकर आया तो सीता ही की तरह राम आनन्द से अपने अङ्गों में फूले नहीं समाये ॥ १-६ ॥
[ ७ ] जैसे हो हनुमान किष्किंधनगरके सम्मुख आया तो वानरोंने उसे प्रवर आशीर्वाद दिया, "हे वत्स ! तुम चिरायु और जयशील बनो, पावसकी तरह सूर्यके प्रतापको हरण करो, सरोवर की तरह लक्ष्मी और शचीसे सहित बनो । बलभद्रकी तरह लक्खण ( लक्ष्मण और गुण ) तथा प्रिय ( सीता और शोभा ) से अमुक्त रहो ।” उसने भी दूरसे आदरपूर्वक उन सब आशीर्वादों को ग्रहण किया। उसके अनन्तर जगसिंह अद्वितीय वीर वह, लंका सुन्दरी से पूछकर अपने स्कन्धावारमें घंटाध्वनिसे मुखरित अपने विमानमें स्थित हो गया। तब तूर्य बज उठे और कल-कल शब्द होने लगा, जब वह महाबली सुमीवके नगरमें पहुँचा तो कुमार अन और अङ्गद अपने पिता के साथ निकले । अन्य राजे भी अपने अपने अमात्यों के साथ बाहर आये । वे सब मिलकर उसे भीतर
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२१२
पठमचरिउ
तेहिं मिलें घि पइसारिजातः । लक्खिड़ लावण-समें हिं एन्तः ||६|
पत्ता हिपरन्त हि वण-बाल ओ विहि-परिणामें पदउ । • सो पुण्णोदय-काल जसु णाई पट्टीबड़ विवउ ॥१०॥
तहाँ तइलोक - चक - मम्भीसहों। मारुङ चलहि पडिउ हलीसही ॥ १॥ सिरु कम-कमल-णिसण्णु पदासिङ | णं णीलुप्पल परय - मीसिउ ॥२॥ चलेग समुहाविड सह हाथें । कुसलासीस दिण्ण परमार्थे ॥३॥ कपठउ कडद मउड्डु कडिसुखड़ । सयप्लु समप्पवि मण पजलन्सउ ॥४॥ सासम वसा नाय । जो पंसिड साबर्ष सूडामणि ॥५| ने अहिणाणु समुज्जल - गामहों । वाहिण - करअल असिड रामहाँ ॥६॥ मणि पेक्खवि सम्बर गु पहरिसिउ । उरण मन्तु रोमन्यु परिसिउ ॥७॥ जो परिमोसु तेश्रु संभूभस । दुक्कर सीय - विषाहँ वि हूयउ HII
छत्ता पभणइ राहश्चन्दु 'महु अज वि हियउ ग गीवइ । मारुइ अक्खि इति किं मुइन कन्स किं जीवई ॥६॥
[ ] जिण-चलणारविन्द - बल-सेवहाँ । मारुड् कहर बत बलवहाँ ।। 'जाणइ दिदु देव जीवन्सी । अणुदिषु नुम्हर णामु लयन्ती ॥२॥ जहि अवसरै णिसियर हि गिलिज्जइ। तहि तेहएँ वि का परित्रच ॥३॥ इह-लोयहाँ तुहुँ सामि पियारउ । पर-लोयहाँ अरहन्तु महारउ ।।४।। मायइ साहु जेम परमप्पड । उववासेहि सहसापड अप्पड ॥५॥ मई पुणु गम्पि गिपन्तहुँ तियसहुँ । पाराविय वावसई दिवस? ॥६॥ अरियलउ णवेवि समप्पिर । ताहि महु चूडामणि अप्पिउ ॥७॥ अणु वि व एर अहिणाणु । जं लिउ गुस-सुगुरुहँ दाणु ॥६॥
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पनवण्णासमो संघि
२३५ ले गये । तब राम लक्ष्मणने भी आते हुए उसे देखा। वनवासमें घूमते हुए, दैवके परिणामसे उनका जो यश नष्ट हो गया था अब पुण्योदयकालसे वह फिरसे उन्हें लौटता हुआ दिखाई दिया ।।१-१०॥
[८] तब त्रिलोकचक्रको अभय देनेवाले रामके चरणोपर हनुमान गिर पड़ा। उनके चरणकमलोपर उसका सिर ऐसा जान पष्ट रहा था मानो नीलकमलमें मधुकर ही बैठा हो। रामने उसे अपने हाथोंसे उठाकर, कुशल आशीर्वाद दिया । कण्ठा, कटक, मुकुट और कटिसूत्र सब कुछ देकर, राम अपने मनमें उद्दी हो उठे । हनुमानको उन्होंने अपने आधे आसनपर बैठाया । सीताने जो चूड़ामणि भेजा था, वह हनुमानने पहचानके लिए उज्ज्वलनाम रामको दाई हथेलीपर रख दिया। उस समय जो परितोप रामको हुआ वह शायद सीताके विवाहमें भी कठिनाईसे हुआ होगा । तब रामने कहा-"आज भी मेरा हृदय शान्तिको प्राप्त नहीं हो रहा है, हनुमान तुम शीघ्र कहो कि वह मर गई या जीवित है ॥१-६॥
[.] तब, जिन-चरणकमलके सेवक रामसे हनुमानने कहा-“हे देव, जानकीको मैंने प्रतिदिन तुम्हारा नाम लेते हुए.जीवित देखा है। जिस समय निशाचर उन्हें सताते, उस प्रतिकूल अवसरपर मी, तुम्ही उसके इस लोकके स्वामी हो और परलोक के भट्टारक अरहंत साधुकी तरह वह परमात्माका ध्यान करती है, उपवास आदिसे आत्मक्लेश करती रहती है । मैंने जाकर खियाके बीचमें बाईस दिन में उन्हें पारणा कराई। जब मैंने प्रणाम करके अँगूठी दी तो उन्होंने मुझे यह चूड़ामणि अर्पित किया । और भी देव, यह पहचान है कि आपने गुप्त और सुगुप्त मुनियोंको दान
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परामचरित
घत्ता णिवद्रिय धरै पसु-हार णिसुपिउ भक्खाण जखाइ । . अण्णु मि तं अहिणाणु कु लम्गु देव जं भाइह ॥६॥
[१०] नं प्णिमुर्णं चि वलु इरिसिय-मत्तउ । 'कह हणुवन्त केम सहि पत्तत' ॥१॥ एहा भवसर गयणाणन्दें । हसिउ णियासों थिएन महिन्दं ॥२॥ 'एयहाँ केरउ बहुउ ढङ्गसु । णिसुणे भडारा जं कि साइमु ॥३॥ णा णामेण अन्धि पवणाउ । पहलाययहाँ पुशु र दुजः ॥५।। सासु दिण्ण मई अक्षणसुन्दरि । गउ उखन्धे वरुणहों उपरि ॥५॥ वारह-बरिसाह(है) एक्कार वारएँ । वासउ देवि मिलिउ खन्धारए ॥६॥
पा-जणे गरे ए मजा का लाड लाऍवि ||७॥ मइँ वि ता पइसारु ण दिगणउ । वणे पसविय तहिँ ऐंहु उप्पण्णड || नं जि वइरु सुमरेवि हणुवन्ते । तर आयुसे दूर्ण जने ॥६॥ णयर महारऍ किड कडमट्टणु । हउ मि धरिउ स-कलत्तु स-गन्दणु ॥१०॥
पत्ता भग्गर सुहद-सया गय-जूहहूँ दिसंहि पप्पट । एयहाँ रण-चरियाई पुतिया देव मह दिहाई ॥११॥
[] सं णिसुणेवि ति-कण सहाएं । पुणु पोमाइड दहिमुह-राएं ॥१॥ 'अ'पुणु जइ वि पुरन्दरु आबइ । एयहाँ तणउ परिउ को पावइ ॥२॥ वेणि महारिसि पडिमा-जोएं । अव दिवस थिय णियय-णिओए ॥३॥ अण्णेकना अचासणउ । महु धायउ इमाउ ति-कष्ण ॥॥ ताम हुआसणेग संदीविड । वणु चाउदिसु जालालो विउ ॥५॥ धगधगधगधगन्त • धूमन्तप । छह अड' गरुढ़े पास दुकान्त ॥॥
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पत्रवण्णासमो संधि
किया था। घरपर वसुहार बरसे और आपने जटायुका आल्यान सुना था । और एक पहचान यह भी है कि देव, आप भाईके पीछे गये थे" ||१-६।।
[१०] यह सुनकर, राम हर्षित शरीर हो उठे, उन्होंने पूछा, "अरे हनुमान, बताओ तुम वहाँ कैसे पहुँचे। इस अवसरपर अपने आसनपर बैठे हुए, नेत्रानन्ददायक महेन्द्रने हसकर कहा, "अरे इसका नादास पछुत भारी है. आदरणीय आप सुनें. इसने जो-जो साहस किया है। राजा महादका पुत्र, रणमें अजेय पयनञ्जय है, उसे मैंने अपनी लड़की अंजनीसुन्दरी दी थी, वह वरुणके ऊपर चढ़ाई करने के लिए गया था, वह बारह बरसमें एक बार, स्कन्धावारसे वास देकर उससे मिला । परन्तु पवनका माताने ईर्ष्या के कारण कलंक लगाकर अंजनाको घरसे निकाल दिया, मैंने भी उसे प्रवेश नहीं दिया, वह वनमें चली गई । वहीं यह उत्पन्न हुआ । उसी वैरका स्मरणकर, आपके दूत कार्यके लिए आकाशमार्गसे जाते हुए इसने हमारे नगरको ध्वस्त कर दिया
और मुझे भी इसने स्त्री और पुनके साथ पकड़ लिया। सैकड़ों सुभट भग्न हो गये और हाथियों का झुण्ड दिशाओंमें भाग गया। इसका इतना रणचरित्र, हे देव मैंने देखा" ||१-१०॥
[११] यह सुनकर, तीन कन्याओंके साथ, दधिमुख राजाने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा-"स्वयं यदि पुरन्दर भी आये, परन्तु इसके चरित्रको कौन पा सकता है। दो महामुनि प्रतिमा योगसे अपने ध्यानमें आठ दिनसे स्थित थे । अत्यन्त निकट, एक और स्थानपर ये मेरी तीनों लड़कियां बैठी हुई थी। इतने में वनमें आग लग गई, और वह चारों ओरसे आगकी लपटीमें आ गया । धक-धक करती और धुआती हुई, धीरे-धीरे वह आग गुरुओं के
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पदमचरिक
तहि अवसर हणुवन्तें चाएं वि । मामा - पालुं पाहे उप्पाएँ वि ॥७॥ सो हावाणलु पसमिट जाय। हर मि तेल्धु संपाइ ताहिँ ॥
घत्ता तहि कण्णाएँ समा-षु मई सुम्हहु पासे बिसजें वि । अप्पुणु ला समुहु गउ सीहु अम गलगनें वि ॥६॥
[२] दहिमुह-वयशु सुणे वि गोलिउ । पिहुमह हणुवहीं मम्ति पवोनिउ ॥१॥ णिसुण भवारा महयले जन्ते । पढमासाली हय इणुवन् ॥२॥ पुणु बनाउहु णरवर-केसरि । कलावि परिणिय लङ्कासुन्वरि ॥३॥ गरुव-सणेई विडु बिहीसणु । तेण समाणु करेंवि संभासणु ॥३॥ कदुधालाव • काल श्रवणीयहुँ । अन्तर थिउ मन्दोभरि-सीय ॥५॥ णन्दण-बणु मि मग्गु हउ अक्खाउ । इन्दह किड पहरन्तु विलक्खउ ॥६॥ पण वि बन्धाविड श्रप्पाणउ । किर उसमइ बसाणण-राण ॥७॥ परि बिरुद्धे कह विन घाइउ । सहाँ घर सिहरु दलेपिणु आइउ ॥८॥
पत्ता इय परियाई सुमेवि घर-दुम-पारोह-विसालहिं । अवरुण्डिर हणुवस्तु राहवेण स ई भुषालहि ॥६॥
[५६ छप्पण्णासमो सन्धि] हणुवागम विषसयरुग्गमें दसरह-वंस-जसुम्भवेण । गाज वि वहथणों उपरि दिनु पयाणउ राहवेण ।।
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इप्पच्चासमो संत्रि
पास पहुँचने लगी। उस अवसरपर हनुमानने आकाशमें मायाके गादल उत्पन्नकर, बाया कर दी । जब चफ वह दावानल शान्त हुआ तबतक हम लोग भी वहाँ पहुँचे । यहींपर कन्याओंके साथ मुझे आपके पास भेज दिया, और स्वयं सिंहकी तरह गरजकर लंकाकी ओर गया ।।१-६॥
[१२] दधिमुखके वचन सुनकर, पुलकित होकर, हनुमानके मन्त्री पृथुमतिने कहा, "सुनिये देव, सबसे पहले आकाश मार्गसे जाते हुए हनुमानने आसाली विद्या नष्ट कर दी, फिर नरवरसिंह वायुधको मार दिया। तदनन्तर युद्ध करके लंकासुन्दरीसे विवाह किया, भारी स्नेहसे विभीषणसे भेंट की और उसके साथ बात-चीत की । अविनीत मन्दोदरी और सीता देवाकी कटु बातोंके प्रसङ्गमें वह बीचमें जा खड़ा हो गया । नन्दन वन उजाड़ डाला
और अक्षयकुमारको भी मार दिया। प्रहार करते हुए इन्द्रजीतको व्याकुल कर दिया । फिर अपने आपको बंधवा दिया। राषण राजाको उपदेश दिया । विरुद्ध होने पर उसे किसी तरह मारा भर नहीं। उसका गृहशिखर नष्ट करके ये चले आये ।" यह सब चरित्र सुनकर रामने, वट-पेड़के बरोहकी तरह विशाल अपनी भुजाओंसे हनुमानका आलिङ्गन कर लिया ।।१६।।
छप्पनवीं संधि
हनुमानके आने और सूर्योदय होनेपर दशरथ-कुल उत्पन्न रामने गरजकर रावणके ऊपर अभियान किया।
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पउमचरिट
[.] हयाणन्द-भेरी दही दिण्ण लढा । कर फालियाणेय-तूराण लक्खा | अर्य गन्दणं णन्दिधोसं सुलो र सुन्दरं मोहर्ण देवघोस ।।२।। चरम परिह गहीरं पहार्म । अजाणन्द्र-सूरं सिरीयलमा ॥३॥ सिघं सन्तियत्थं सुकमाण-धेयं । महामझालरथं परिन्दाहिसेयं ॥३॥ पसपणज्सुणी दुम्दुही मन्दिसई । पवित्र पसत्यं च भई सुभई ।।५।। विवाहप्पियं पस्थिवं पायरीय । पयाणुतमं वक्षणं पुण्डरीयं ॥६॥ माल-सूरा गामें हिं एहि । पुणु अण्णण्णा अपहि भेएँ हिं॥७॥ उउँदउँ-उँउउँ-उमा - साईहि । तरडक - सरहक-तरडा -जहि ॥८॥ धुम्मुकु-धुम्मुकु-शुम्भुकु - ताहि । रु-रु- - अन्त - बमाले हि ॥ सकिस-तक्सि-सरे हि मणोहि । दुणिकिटि चुनिकिटि-धरिमदि - वहि ॥ गेग्ग-गेग्गदु - गेम्गदु-धाएँ हि । एमाणेय - भेय - संधाएँ हि ॥
पत्ता तं तूरहूँ सदु सुप्पिणु राहब-साहण संमिला । सरि-सोहि मावि आदि सलिलु समुह जिह मिकइ ।१२।।
[२] सण्णधु काव्य-पवर-राङ । सम्पादन भई अजयन्सहाउ ॥१॥ सण्णधु हणुउ पइरिस-चिसट्टु । रावण - णन्दणवण - मायबट्टु ॥२॥ सण्णधु गवर भाणु वि गवख्खु । जम्चुण्णउ दहिमुड दुणिरिकसु ॥३॥ खण्णा विराहिड सीहणाउ । सम्णधु कुन्दु कुमुए सहाउ || सम्णधु गोलु जलु परिमियनु । सण्णधु सुसेणु इ रणे श्रम ॥4॥ सण्णधु सीहरहु रयणकेसि । सम्पादक्षु वालि-सुर चन्दरासि ।।६।। सपणा स-सणड महिन्दसउ । मन्टु लरिषभुति पिडुमह-सहाउ ।।७।। चन्दप्पहुं बदरीथि अण्णु । लण्णन असेसु वि राम-सेण्णु ॥८।।
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पप्पण्यासमो संधि
२३॥ : हण्डोंने जनम का ओख राजने लगे और लाखौं तूर्य हाथोंसे आस्फालित हो उठे। उनमें मङ्गल तू के नाम थे-जय, नन्दन, नन्दिघोष,सुघोष,शुभ, सुन्दर, सोहन, देवघोष, वरज, वरिष्ठ, गम्भीर, प्रधान, जनानन्द, श्रीवर्धमान, शिव,शान्ति, अर्थ, ?? सुकल्याण, महामङ्गलार्थ, नरेन्द्राभिषेक, प्रसन्नध्वनि, दुन्दुभि नन्दीघोष, पवित्र, प्रशस्त, भद्र-सुभद्र, विवाह प्रिय, पार्थिव नागरीक प्रयाणोत्तम, वर्धन और पुण्डरीक । इनके सिवा और भी सरह-तरहके तूर्य थे। डउँ-डउँ-डउँ, डमरु शब्द, तरडक-तरडक नाद, घुम्मुक धुम्मुक ताल, रु-म- कल-कल, किससकिस मनोहर स्वर, दुणिकटि, दुणिकिदि, वाद्य और गेग्गदुगेग्गदु-घात इत्यादि अनेक भेद संघातोंसे युक्त तूयं बज उठे। उन तूर्योके शब्दको सुनकर राघषकी सेना वैसे ही इकट्ठी होने लगी, जैसे नदियोंके स्रोत आकर समुद्र में मिलते हैं ॥१-१२॥
[२] कपिध्वज नरेश सुग्रीव तैयार होने लगा। अगदके साथ अङ्ग भी सनद्ध हो गया। विशेष हर्षसे रावणके नन्दन वनको उजाड़नेवाला हनुमान भी तैयारी करने लगा, गवय और गवाक्ष सन्नद्ध होने लगे, जाम्बवंत और दुदर्शनीय दधिमुख भी तैयार होने लगे । विराधित और सिंहनाद भी तैयार होने लगे। कुमुद सहाय कुंद तैयार होने लगे, परिमिता नल और नील तैयार होने लगे। सिंह रथ और रलकेशि तैयार होने लगे । बालि पुत्र भी तैयार होने लगा। अपने पुत्रके साथ राजा महेंद्र तैयार होने लगा। लक्ष्मीभुक्ति और पृथुमति भी तैयार होने लगे, और भी चन्द्रप्रभ, चन्दमरांची आदि तैयार होने लगे। इस तरह रामकी अशेष सेना समद्ध हो उठी। एक ओर तैयार
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परमपरिर
पत्ता मावि सम्णमासट उप्परि अप-सिरि-माणहो। रूक्लिइ लसणु कार णं खव-कालु दसाणणहाँ In
भागेरक सुहण सण्णव के वि । णिय करतह मालिङ्गणड देवि ॥१ अण्मेकहो पण तम्बोलु देह । मष्णेषकु समप्पियउ विप लेई ।।२।। 'मई कन्त समाणेम्बड बलेहि । गय-पणे हिं रहवर-पोष्फलेहि ॥३॥ गरवर - संचूरिय - चुम्णएण । रिउ-जय-सिरि-बहुअए विष्णएम' ॥३॥ भष्पोकहीं जाएँ स-सन्त देह । बोहराई फुलह जरु , लेई ।।५।। "ण समिच्छमि हउँ हु लैहि भनें ! एसिड सिरु णिवइमाम कम्जे ॥५॥ भण्णेकहाँ धण भूसपउ देह । अण्णेषतं पि सिण-समु गोह ॥७॥ 'कि गन्धे किं चन्दण रसेण । मई अगु पसाहेबड उसे ॥८॥
धत्ता अण्णेकहाँ वण अध्याहइ 'हिम-ससि-सासमुज्जला । करि कुम्भई गाइ दलेप्पिणु भाणेजहि मुत्ताफलई ll
[५] अन्यक्केसह वि सुहारा । सनियर विमाणह सुन्दराई ॥१॥ घन्टा - कार - मणोहराई । हटन्त - मस - महुभर-सराई ॥२॥ ससि - सूरकन्त- कर• णिब्भराई । बहु- इन्दील- किय- सेहराई ॥३॥ पवलय - माला - रजोतिराई । मरगय- रिझोक्ति- पसोहिराई ॥॥ मणि - पउमराय - वष्णुजलाई । वडुम - बज - पह- हिम्मलाई ।।५।। मुसाहल - माला - धवलियाई । किरिणि-धम्पर-सर- मुइलियाई ni धूवत - धवल - धुभ - धयबहराई । बसन्त - सा- सय- साहाई ॥
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छप्पण्णासमोसंधि
होता हुआ कुछ लक्ष्मण ऐसा जान पड़ता था, मानो जयश्रीके भभिमानी राषणके ऊपर जयकाल ही आ रहा हो ॥१-६।।
[३] कोई-कोई सुभट अपनी पत्नियोंको आलिङ्गन देकर सनद्ध हो गये। किसी एकको उसको धन्या पान दे रही थी, कोई एक अर्पित भी उसे प्रहण नहीं कर रहा था। उसका कहना था कि आज मैं सैन्यदलों, गजवरी, रथवरों, पोफलों और विजय लक्ष्मीरूपी वधू द्वारा दिये गये, नरवरोंसे सञ्चूर्णित चूर्णकसे अपने आपको सम्मानित करूंगा। किसी एकको उसकी पत्नी खिले हुए फूलोंकी मालती माला दे रही थी, परन्तु वह यह कहकर नहीं ले रहा था, कि मैं इसको नहीं चाहता । आर्ये, तुम्ही इसे ले लो, मेरा यह सिर तो आज स्वामीके काममें ही निपट जायगा। किसी एकको उसकी पत्नी आभूषण दे रही थी, परन्तु वह उसे तृणके समान समझ रहा था । उसने कहा, 'क्या गंधसे और क्या रससे ? मैं यशसे अपने तनको मण्हित करूंगा।' किसी एककी पनीने यह इच्छा प्रकट की कि हे नाथ, तुम गज-कुम्भोंको फाड़कर हिम, चन्द्र और शखकी तरह उज्ज्वल मोतियोंको अवश्य लाना ॥१-६॥
[४] एक ओर शुभकर सुन्दर विमान सजने लगे, जो घण्टाका टंकारसे सुन्दर, रन-मुन करते हुए भौराकी झंकारसे युक्त थे। चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणियोंकी किरणोंसे व्यात थे। उनके शिखर इन्द्रनाल मणियोंके बने थे। लटकती हुई मालाओंसे जो आन्दोलित, हारोंकी पंक्तियोंसे शोभित, पद्मराग मणियासे उज्ज्वल, बैदूर्य और वन मणियोंको प्रभासे निमल, मोतियोंकी मालासे धवल, किंकिणियोंकी घर-घर ध्वनिसे मुखरित थे। कम्पित पताकाएँ उनके ऊपर फहरा रही थी । सैकड़ों
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२४२
पबमचरित
सुग्गीरयशुम्जोविनाई। विहि विणि विमाणाई दोहगाई।।
घत्ता धन्दिण-जण-अय - जयकारण सपखण - रामारूव किह । सुर-परिमिय-पवर-विमाणहि वेणि वि इन्द-पदिन्द जिहा
[५] . अणेक - पासे किय सारि - सम्म । सुविसाला सुघण्टा-सुवाल-गेज ॥१॥ अलि - मारिय गय - घर पयड । विहलारू णिम्भर-मय-विसष्ट ।।२।। सिन्दूर - पङ्क - पश्यि - सरीर । सिकार - फार- गजण - गहीर ॥३॥ उम्मेह गिरस जाइ थाह । महस्ति भणोहर बेस पाई ॥४॥ अण्णेक - पासे रह रहिम - थट्ट । चुरन्त परोपफरू पहें पबह ॥५|| स-तुरङ्ग ससारहि स-कचिन्ध । णाणाबिह-वर- पहरण- समि ॥६॥ श्रणेछ - पास बल · दरिसगाई। जन्त - सूर - सर - मीरयाई ॥७॥ 'आयडिय - चाव - महासराई । उग्गामिय-भामिय - असिवराई ।।
घत्ता श्रणेपासें हिंसन्तड हपवर साहणु णीसरह। . - सुकलत्तु जेम्ब मुकुलोणउ पय-संचारु ण वीसरइ ॥६॥
[६] मण्णेक्ोत्तर अण्णेय वीर । गजन्ति समर - संघष्ट - धीर ॥१॥ एक्केण वुन 'सोसमि समुद्हु' । अण्णेवक मणइ 'महु णिसियरिन्दु ॥२॥ अण्णोक्कु भगइ 'हउँ धरमि सेफ्णु' । अमरकु भणइ 'महु कुम्भयण्णु ॥३॥ अण्णेशकु भणइ 'महु मेहणा' । अण्णेशकुममा 'महुभव-णिहाउ ॥५॥ भण्णेक्कु भणह 'भो णिसुणि मित्त ! हउँ चलहों स-इत्थं पेमि कम्त' ॥५॥ अक्कु भगह "किं गजिषण ! भज वि सलाम - विस्मिएम ॥५॥
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छप्पण्णासमो संधि
२४३ शंख बज रहे थे। इस तरह सुग्रीव .रत्नासे दीप्त दो विमानोंमें राम और लक्ष्मणको ले गया। बन्दियोंके जय-जयकार शब्दके साथ, विमानमें बैठे हुए राम और लक्ष्मण ऐसे मालूम होते थे मानो देवोंसे घिरे हुए प्रवर विमानोंके साथ, इन्द्र और प्रतीन्द्र हा ।।?-६||
[1] कितने ही के पास, अंबारीसे सजी हुई, सुविशाल सुन्दर घण्टायुगलसे गाती हुई वटा ! : जो नौरोज मंडप. विकलांग और परिपूर्ण मदसे विशिष्ट थी । सिंदूरके पंखसे उसका शरीर पंकिल था और जो शीत्कारके स्फार और गर्जनसे गम्भीर थी । महावतसे रहित और निरंकुश वह वेश्याकी भॉति सुन्दर रूपसे मल्हाती हुई जा रही थी। कईके पास रथ और रथियोंके समूह एक दूसरेको चूर-चूर करते हुए चल पड़े। वे अश्वों, सारथी कपिध्वज और तरह-तरह के अस्त्रोंसे समृद्ध थे । कईके पास पैदल सेना थी, जो बजते हुए तूणीरों और बाणोंसे भयङ्कर थी। महा धनुषोंसे सहित थी । वह, उसम खगोंको निकालकर घुमा रही थी | कईके पाससे हींसती हुई उत्तम अश्वोंकी सेना निकली। वह सुकलत्रकी तरह सुकुलीन और पदसंचारको नहीं भूल • रही थीं ||१-६॥
[६] एक ओर, समरकी भिडन्तमें धीर, वीर योधा गरज रहे थे । एकने कहा "मैं समुद्र सोख लूँगा।" एक और ने कहा, "मैं निशाचरराजका शोषण करूँगा ।" एक औरने कहा, "मैं सेनाको पकड़ लूँगा ।" एक औरने कहा, "मैं कुम्भकर्णको पकड़ेगा।" एक औरने कहा, "मैं मेघनादको"। एक औरने कहा"मैं भटसमूहको पकड्गा " एक औरने कहा, "हे मित्र! सुनो। मैं अपने हायसे सीता समके हाथमें दूंगा।" एक औरने कहा,
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पउमरिट सपलु वि जाणिजह तहि जि कालें । पर चल ओषदियऍ सामि-साले' !!! अण्णेक्कु वीर णिय-मणे विसणु । 'महं सामिह अवसर काई दिष्णु ॥८॥
पत्ता अयमेवकु सुहहु ओवग्गइ अम्गम् गाएँ वि हलहरहाँ । "जं वूदउ मह सिरु सन् ण त होसह पहु अवसरहो' ॥॥
अण्णेक - पासें सुविसालिया3 1 विजउ विज्ञाहर - पालिया ॥१॥ पणती बहुव - विरूविणी । वेयाली गयल • गामिणी १२॥
___ अम्भणियाकरिसभि मोहणी ॥१॥ सामुदी रुड़ी केसी । भुवइन्दी खन्दी वासवी पा पम्भाणी रडरव - वारुणी । रिसी चायव - वारुणी ॥५॥ चन्दी सूरी बहसाणरी । मायनि मयन्दी वाणरी ॥६॥ हरिणी बाराहि सुरतमी। बस - सोसणि गरुड - बिहामी ॥७॥ पवइ मयरदय - रूविणी । श्रासाल - विज बहु- रूपिणी ॥८॥
घसा सण असेसु वि साहणु रामही सुग्गीयहाँ सणउ । णं जम्बूदीउ पयष्टड लवादीयहाँ पाहुणड ॥६॥
[-] संचों णिय . सुरुभवेण । विद्या सु-णिमित्तई राहवेण ॥2 गन्धोबड धम्वशु सिद्ध - सेस । जिण पु वि बाहु सुवेस वेश ॥२॥ दप्पणड सु-सखु सु - सहसबसु । णिग्गन्थ - रूट पण्डुरङ बसु ॥३॥ पप्पुरउ हस्थि पण्डरठ ममह । पण्दुरउ सुरउ पण्डरउ चमरु ॥३॥
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छप्पण्णासो संधि
RA
“अरे अभी से संग्रामके बिना ही गरजने से क्या, यह सब उसी समय जाना जायगा, जब स्वामिश्र ेष्ठ राम शत्रु सेनाको विघटित करेंगे ।" एक और वीर यह सोचकर अपने मन में खिन्न हो गया, कि मैंने स्वामीके लिए अवसर क्यों दिया । एक और सुभट, रामके आगे खड़ा होकर गरज उठा, "जब मेरा सिर युद्धमें उड़ जायगा, तभी प्रभुका अवसर पूरा होगा" || १-६॥
[७] एक और सुभटके पास विद्याधरों द्वारा साधित विद्याएँ थीं । पण्णत्ती, बहुरूपिणी, वैताळी, आकाशतलगामिनी, स्तम्भिनी, आकर्षण, मोहिनी, सामुद्री, रुद्री, केशधी, भोगेन्द्री, खन्दी, वासवी, ब्रह्माणी, रौग्वदारिणी, नैर्ऋति, वायवी, वारुणी, चन्द्री, सूरी, वैश्वानरी, मातंगी, मृगेन्द्री, वानरी, हरिणी, वाराही, तुरंगमी, बलशोषणी, गारूड़ी, पञ्चई ??, कामरूपिणी, बहुरूपकारिणी और आशाली विद्या । इस प्रकार राम और सुग्रीवको सेना सम्रद्ध हो गई। मानो जम्बूद्वीप ही लंकाद्वीपका अतिथि होना चाह रहा था ॥१-६॥
[] अपने कुलमें उत्पन्न होनेवाले रामके चलते ही, शुभ शकुन दिखाई दिये । जैसे गन्धोदक, चन्दन, सिद्ध, शेष ( . नाग ), जिनपूजा करके व्याध ? और उत्तम वैशवाला दर्पण, शंख, सुन्दर कमल, नम्न साधु, सफेद छत्र, सफेद गज, सफेद भ्रमर, सफेद अश्व और सफेद चमर सब अलंकारोंको पहने
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पवमचरि
सम्बाधर पवित णारि । दहि-कुम्भ- विहस्थी वर- कुमारि ॥५॥ णिधूमु जलणु अणुकूल वाउ । पियमेलाबउ कुलगुरु काउ ॥६॥ सुणिमिस गिऍटि जसुष्णपुण । बलपु वृत्त 'घणोऽसि देव त सहस्र गमणु । आय सु-निमित्त
२१३
[*]
साहणेण । संघि
रहवरेण । इसेण
तुसामु जरु नरेण । चलगेण
संच शहब चिन्भेण बिन्धु रहू
-
.
धत्ता
1
सेपिणुबुवा रामेण सह सु-निमि
अन्साई ।
1
जग- लग्गुण-खम्भु भारउ जिणवरु हियएँ बहन्ताहुँ ॥ ६ ॥
-
-
सुरपूण
बलु रण रहसडिड गर्हेण माह । संचलि
9
थोवन्तरे दिडु महा समुद्दु । सुंसुअर भयर - जलयर - रउछु || मच्छोहर पक गाइ घोरु | कल्लोळावन्तु तरक
थोरु ॥६॥
वेला
वडन्तु पवहणस्तु | फेणुजल तोय तहाँ उबारे पयउ रामसेज्णु । पां मेह-जालु
सुसार देन्तु ॥ ७ ॥ हयले निलम्णु ॥८॥
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-
-
जम्बुष्णपूर्ण ॥७॥ लहइ कवणु ॥८॥
-
चादणु
छत उ चलणु करयतु करेण ॥ ३ ॥
देवगणु णा ॥४
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वाइज ॥ १॥ गयवरेण ॥२॥
-
घसा
विभाणारू हि लङ्गिड हषण समुषु किए ।
सिद्ध हिं सिद्धाउ जस हि चउगड़-भव-संसारु जिह ॥ ६॥
[to]
योवन्तर नहीं सायरों मज्झें । बेलम्बर-पुरें तियसह असज् ||१
दारुणु जुज्नु देवि ||२||
विवाहर सेउ समुह वे वि । थिय भग्गएँ 'मरु तुम्ह कुइड कयन्तु अञ्जु । को सकइ को पहह भीसणे जळण जालें । को जीव
सकड़ों इविर || ३ || तुएँ पलय का
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छप्पण्जासमो संधि
हुए पवित्र नारी। हाथमें दहीका घड़ा लिये हुए उत्तम कन्या, निर्धूम आग, अनुकूल पवन, और प्रियसे मिलाने वाला, कोएका काँव-काँव शब्द । इन्हें देखकर यशसे उन्नत जाम्बवन्तने रामसे कहा, "हे देव ! आप धन्य हैं, आपका यह गमन सफल है, भला इतने सुनिमित्त किसे मिलते हैं। तब रामने हँसकर कहा, "विश्रके आधार स्ता महारक जिनको हमें भागकर यात्रा कानसे ही ये सुनिमित्त अपने आप हुए" ||१-६।।
[६] गमको सेनाके प्रस्थान करते ही, वाहनसे वाहन टकराने लगे, चिह्नसे चिह्न, रथवरसे रथ, छन्नसे छत्र, गजवरसे गजवर, तुरगसे तुरग, नरसे नर, चरणसे चरण, करतलसे करतल भिड़ने लगे । रण-ससे भरी हुई सेना आकाशमें नहीं समा सकी, वह देवागमनके समान जा रही थी ! थोड़ी दूरपर उन्हें महासमुद्र दीख पड़ा । वह शिशुमार, मगर और जलचरोंसे रौद्र था । मच्छधर, नक और ग्राहसे घोर, और स्थूल तरंगोंसे तरंगित था । फेनसे उज्ज्वल तोय और तुषारसे युक्त उसका बहुत बड़ा तट था ?? रामकी सेना उसपर ठहर गई मानो मेघ जाल ही नभतलमें ठहर गया हो। विमानोंपर आरूढ़ राजाओंने लवण समुद्र उसी तरह लाँघ लिया जैसे सिद्धालयको जाते हुए सिद्ध पार गतियों वाले भव-संसारका अतिक्रमण कर जाते हैं ॥१-६।।
[१०] उस सागरके मध्यमें थोड़ो दूरपर, देवोंको भी असाध्य वेलंधर नगर था, उसमें रहने वाले सेतु और समुद्र नामके दोनों विद्याधर भयंकर युद्ध करनेके लिए आगे आकर स्थित हो गये। उन्होंने कहा, "मरो, तुमपर आज कृतांत क्रुद्ध हुआ है। इन्द्रका राज्य कौन हरण कर सकता है, भीषण ज्यालमालामें कौन
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पउमचरित
को सेस फणा-मणि - रमणु लेह । को लाह महिमुहु पर विदेह' ॥५॥ चचारिय समय वि अमरिसेण ! 'सात किहिन्धाहिव भहाँ सुसेण ।।६।। अहाँ कुमुअ कुम्द सुणि मेहणाय । गल गील विराहिय पवण-जाय ॥५॥ दहिमुह माहिद महिन्द-राय । अवर वि जे गरवर के विभाय ॥८॥
यत्ता
लइ क्लहाँ बलहाँ जा सकहीं देवाइय पारहि । कहिं ला-उवार पयाणउ सेउ-समुइहि थएँ हि ॥६॥
[1] मुस्यन्तरे दयसिरि - लाहवेण । सुग्गीउ पपुस्लिड राहवेन ॥१॥ 'पए जे दणु दीसम्ति के वि । कसु केरा थिय पहरण लेवि ॥२॥ तं वषणु सुणेवि पमिय-सिरेण । पुशु पुणु थोतुगीरिय - गिरेण ॥३॥ सुगीचे पणिट रामचन्छ । हु सेउ भडारा ऍहु समुन्दु ।। दइवयणहाँ केरउ णामु लेखि । पाइकाबारें या वे वि॥५॥ आय? पहिम को वि समरें । मइ दिन्ति जुज्ज ल-णील णवर॥६॥ तं णिसुणेवि रामहो हियउ भिष्णु । णिबिसेण विहि मि मापसु विष्णु ॥७॥ पणियाउ कोप्पिणु ते पयह । रोमञ्च - उच्च - काम - विसद |
पत्ता लु धाइड समुहु समुदड़ो सेउहालु समावरिख । गउ गयहाँ महम्दु महन्महाँ जिह ओरालवि अभिडिउ ॥६॥
[१२] ते मिहिय परोप्पर रण रउह । विजाहर वेणि वि णल-समुह || विष्णाहिँ करणेहि कररहेहिं । अभ्यहिं मसेसेंहि भारहिं ॥२॥
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छपण्णासमो संधि
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प्रवेश कर सकता है। प्रलयके आनेपर कौन बच सकता है। शेषनागके फनसे मणि कौन तोड़ सकता है । लंकाके सम्मुख कौन पग बढ़ा सकता है।" अमर्षसे भरकर सब लोगोंको सम्बोधित करते हुए उन्होंने और भी कहा-"अरे किष्किधा-नरेश, अरे सुषेण, अरे कुमुद, कुन्द, मेघनाद, नल, नील, विराधित, पवनजात, दधिमुख, महेन्द्र, माहेन्द्रराज, सुनो, और भी जो-जो नरपति हैं ये भी सुनें । यदि सम्भव हो तो शत्रुजनोंसे नम्र होकर आप लौट जाय । सेतु और समुद्र के रहते हुए आपका लंकाके प्रति प्रस्थान कैसा?" ||१६||
[११] इसी अन्तरमें जयश्रीके लिए शीघ्रता करनेवाले रामने सुग्रीवसे पूछा-"ये जो राक्षस हथियार लिये हुए दिखाई दे रहे हैं, वे किसके अनुचर हैं ?" यह सुनकर नतमस्तक सुग्रीवन स्तुति-वचन पूर्वक रामसे कहा--"आदरणीय, ये सेतु और समुद्र विद्याधर हैं, ये यहां रावणका नाम लेकर, सेवावृत्ति में नियुक्त हैं। युद्ध में इनका प्रतिद्वंद्वी कोई नहीं है। केवल नल और नील इनके प्रति युद्ध कर सकते हैं।" यह सुनकर रामका हृदय खिन्न हो गया। उन्होंने तत्काल उन दोनोंको आदेश दिया। वे भी रामको नमस्कार करके, पुलकके कारण ऊंचे कंचुकोंसे विशिष्ट होकर लड़ने लगे। नल समुद्र के सम्मुख दौड़ा और नील सेतुसे जा भिड़ा, बसे ही जैसे गजराज गजराजसं गरज कर भिड़ते हैं ।।१-६।।
[१२] रणमें भयंकर वे आपस में भिड़ गये, दोनों विद्याधर और दोनों नल तथा समुद्र । विज्ञानकरण कररुह तथा और भी दूसरे समस्त आयुधोंसे वे प्रहार करने लगे। दोनोंके चेहरे
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पउमचरिख पहरम्ति धरित विष्फुरिय-चयण । रसुम्पल-दल - सारिन्छ - णयण ॥३॥ पुस्थन्तरें रावण-किकरण । मेरिलय मयरहरी विग्ज तेण ॥४॥ धाइय गन्ति पगुलगुलन्ति । वेला कसलोलुस्लोल देन्ति ॥५।। एसह घि गलेग विरुद्धएण । समाज जयसिरि-लुपुण ॥६॥ आयामवि महिहर-विग्ज मुक । अलु सबलु घि पडिपरन्ति हुा ।।। तं मामा-सायरु दरमलेवि । विउजाहर-करणे उसललेवि मा
धत्ता पालु उपरि डीणु समुहहाँ पालु वि सेउ सिर-कमलें। विहिं वेनिस मि मण्ड घरेप्पिा घनिय रामही पय-जुमलें ॥१॥
[३] सेड-समुह मे वि सं भाणिय । णल-गोल हि समाणु सम्माणिय ॥१॥ तेहि मि पवर पसाइवि कभणड । तहाँ छक्खणहाँ स-हत्य दिउ ॥२॥ सबसिरी कमलरिछ विसाला । अण्ण वि रयणसूल गुणमाला ।।३।। पत्र बिकाउ देवि कुमारहों। थिय पादक सीय-भत्तारहीं ॥४॥ एक रयषि गय का वि विहाणउ । मुशु भरुणुभगमें दिण्णु एमाण ॥५५॥ साहणु पसु सुवेलु महीहरु । सहि मि सुबेलु मवर विजाहरु ।।६।। धाइड जिह गहन्दु ओरालंधि । भोसणु करें धणुहरु अप्फावि ॥७॥ भिजन भिड रणने जाहि । सेउ-समुहाहि पारिउ ताहि ॥
घचा एएँ हि समाणु झुम्भन्त बह पर-जणषएँ जम्पणउ । पड पाएँ हि राहव चन्दहाँ मं मारायहि अप्पणउ ॥३॥
[1] बलएवहाँ पमिउ सा सुवेल्लु । णं परम-शिणहाँ सेमंस-धवलु ॥१॥ णिसि एकक बसवि संचालु सेक्षु । पाप-वणु शुनगाय-अण्णु ॥२॥
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छप्पण्णासमी सधि
. २५१ तमतमा रहे थे और नेत्र रक्त कमलकी तरह आरक्त थे। इसी बीचमें रावणके अनुचरने मकरहरी (सामुद्री) विद्या छोड़ी। वह गरजती, गुल-गुल करती और तटपर नरगोंका समूह उछालती हुई दौड़ी, तत्र इधर युद्धके प्रांगणमें जयश्रीके लोभी, नलने विरुद्ध होकर, सामर्थ्य के साथ नहीधर विद्याका प्रयोग किया। वह समस्त जलको समाप्त करती हुई पहुँची । इस प्रकार उस माया समुद्रको नष्टकर और विद्याधरकरणसे उसे उन्मूलन कर नलने समुद्रके ऊपर और नीलने सेतुके ऊपर उड़कर, उनके सिर-कमलको बलपूर्वक पकड़कर, रामके चरणों में रख दिया ॥१-६॥
[१३] जब उन्होंने सेतु और समुद्रको ला दिया तो रामने उन दोनोंका समान रूपसे आदर किया। उन्होंने भी प्रसन्न होकर अपने हाथसे कुमार लक्ष्मणको अपनी सत्यश्री, कमलाक्षी, विशाला, रत्नचूला और गुणमाला, ये पाँच कन्याएं देकर सीतापति रामकी सेवा स्वीकार कर ली । एक रात बीतनेपर जैसे ही प्रभात हुआ, सूर्योदय होने पर रामने कूच कर दिया । तब उनकी सेनाको सुबेल पहाड़ मिला। उस पर भी सुबेल नामक एक विद्याधर था। वह गजकी तरह गरजकर, अपने भयंकर धनुषको टेकारकर दौड़ा। लेकिन जब तक वह युद्ध-प्रांगण में लड़े या न लड़े, तब तक सेतु और समुद्रने उसका निवारण कर दिया। उन्होंने कहा, "जो दूसरे जनपदमें जाकर इस प्रकार युद्ध कर रहे हैं, उन रामके पैरों में गिर पड़ो । अपना बात मत करो" ||१-६॥
[१४] सब सुबेल रामके सम्मुख झुक गया मानो प्रथमजिन (आदिनाथ) के सामने श्रेष्ठ श्रेयांस झुक गया हो। एक रात ठहरकर सेना चल दी, मानो भ्रमरोंसे आच्छन्न कमलवन हो, मानो
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२५२
पउमरिस
गं लीलए जिण-समसरणु जाइ । पुणुरुत्तहि देवागमणु णा ॥३॥ थोवन्तरु बलु चिक्कमह जाम । लक्खिाइ लाणपरि ताम || आरामहि सीमहि सरबरहि । बहु-णग्वणवाह मणोहि ।।५।। पायार-बार · गोडर - धरेहि । रह-सिक्क-चउकहिं परेहि ॥६॥ शामिणि-मन्दिरहिं सुहावमेहि । चउहाँहि टेण्टहिं भाषणेहि ।। दीहिंग-विहार - चेय - इरेहिं । धुम्वन्तेहि चिन्हं दोहरेkि ॥८॥
पत्ता धय-णिवा पवण-पतिकूलट दरत्येहि विहाधियउ । णं लक्षण-रामामणण रामण-मणु डोकलावियट ॥६॥
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जं दिह ला विजाहरेहिं । किट हंसीवे आवासु तेहिं ॥॥ हंसरहु रणाणे णिज्जिनेवि । णं थिय रिउ-सिर असि णिक्खणेवि ॥२॥ आवासिय भर पासे इगा: । रह भेक्लिय उज्जोसिय तुरा ।।३।। वधिपई विभाग व गोण । सण्णाह विमुक्क स-कवय-तोण ॥४॥ जाणाविह-विजाहर • समूहु । णं हंसदीय थिउ हंस-जूहु ॥५॥ सहुँ बम्भ को केसण । पं मुक्कु पयापार घासवेण ।।६॥ तहि सुरके वि पभणन्ति एव । 'अपभेम्बर सुन्दर अज्जु देव ॥७॥ अन्कु भणइ 'भो भीरु-पिस । उतावलिहून काढू मिस ॥
‘লা अरोक के विणिय-भधणेहि समउ कहतहि सुहु स्महि । भाराहषि अधि पुजवि जिणु पणमन्ति सई भु ऍहि ॥
सुन्दर कण्डं समत्तं
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________________ छप्पण्णासमो संधि 253 लीलापूर्वक जिनेन्द्र का समवसरण जा रहा हो और उसमें बारबार देवागमन हो रहा हो, जसही थोड़ी दूर सैन्य चला है कि इतने में लकानगरी दिखाई दी है जो आरामों, सीमाओं, सरोवरों, अनेक सुन्दर नंदनवनों, प्रकाशद्वारों, गोपुरी, घरों, रथ्याओं, तिगड्डों, चौकों-चौराहों, सुहावने नारीनिवासों, चार तरह के रास्तों, द्यूतों, बाजारों, लम्चे बिसारों, चैत्यघरों और उड़ते हुए दीर्घ चिन्हों के द्वारा जो (शोभित था)। हवा से प्रतिकूल उड़ते हुए ध्वजसमूह दूर से ऐसे मालूम होते थे मानो राम और लक्ष्मण ने रावणके मनको डगमगा दिया हो // 6 // [15] जब विद्याधरों ने लंकाद्वीपको देखा तो उन्होंने हंसद्वीप में अपना डेरा डाला। हंसरथ को युद्धके आंगनमें जीतकर और मानो शत्रु के सिरपर तलवार रखकर वे लोग स्थित हो गए। पसीनेसे लथपथ सैनिक ठहरा दिए गए। रथ छोड़ दिए गए और घोड़े खोल दिए गए। विमान ठहरा दिए गए, बैल बाँध दिए गए। कवच सहित तूणीर और युद्ध सज्जा छोड़ दी गई। नाना विद्याधर समूह ऐसे मालूम हो रहे थे मानो हंसद्धीप पर हंसोंका समूह ठहरा हो / मानो ब्रह्मा, रुद्र, और केशवके साथ इन्द्र ने अपना प्रयाण स्थगित कर दिया हो। इस अवसर पर कोई सुभट इस प्रकार कहते हैं "हे देव, आज मैं सुंदरयुद्ध करूँगा।" एक और सुभट कहता है-“हे भीरुहृदय मित्र, उतावली क्यों कर रहे हो ?" / पत्ता-कितने ही दूसरे अपने भवनों और स्त्रियों के साथ सुख से रमण करते हैं तथा आराधना-पूजा और अर्चाकर, अपनी बाहुओं से प्रणाम करते हैं।