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उउयालीसमो संधि हमेशा विहार करनेदाइ हाम-लामा मलाका गित्य होकर सीता ही इस समय शिलाके रूप में सामने स्थित है ॥५-६||
[१६] जिस शिलासे करोड़ों मुनि शाश्वत सुख-स्थान मोक्षको गये थे, ऐसी उस शिलाकी उन्होंने परिक्रमा दी और गन्ध, धूप, नैवेद्य और पुष्पोंसे उसकी अर्चा की, फिर शंख और पदह बजाकर कलकल शब्द किया और चार मंगलोंका इस प्रकार उच्चारण किया--"जिसके दुन्दुभि अशोक और भामण्डल हैं वे अरहंत देव मंगल करें। जो निष्कल तीनों लोकोंके अग्रभागमें स्थित है वे सिद्धवर तुम्हें मङ्गल दे। जिन्होंने कलिमलको तरह कामको भी भङ्ग कर दिया है, वे बरसाधु तुम्हें मंगल दें, जो छह जीव निकायोंके प्रति ममता रखता है, वह दया-धर्म (जिनधर्म) तुम्हें मंगल २," इस प्रकार सुमंगलौका उच्चारयकर और सिद्धाको नमस्कारकर, जय-जय शब्दोंके साथ उन्होंने कोदिशिला ऐसे संचालित कर दी, मानो रावणको ऋद्धि ही उखाड़ दी हो। हाथसे उसे ताडितकर छोड़ दिया मानो रावणके हृदयकी गाँठ ही तोड़ दी हो। तब सुर लोकने भी सन्तुष्ट होकर जयश्री पानेवाले लक्ष्मणके ऊपर अपने हाथों से फूलोंकी वर्षा की ।।१-११।।
पैतालीसवीं सन्धि कोटिशिलाके चलित होने पर, गवणका जीवन भी डोल उठा, देवाने आकाशमें और मनुष्याने धरतीपर आनन्दकी दुंदुभि
बजाई।
[१] विद्याधरोंने हाथ जोड़कर रामका अभिनन्दन किया। योधाओं का समूह, विश्वम्भरके जिन-मन्दिरोंकी परिक्रमा और