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अनुचालोसमी संधि
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१७] जय हनुमानने बचायुधका काम तमाम कर दिया तो उमकी समूची सेना नष्ट होकर विमुख हो गई । अभिमानहीन वह वहां पहुंची जहाँ परमेश्वरी लंकासुंदरी लीलापूर्वक विद्यमान थी। उसने कहा, "तुम यह वात आज भी न समझ पा रही हो कि बुद्ध में आसाली विद्या समाप्त हो चुकी है। तुम्हारे पिता वायुध भी चक्रके प्रहारसे मारे गये।" यह सुनते ही लंकासुंदरी विलाप करती हुई दौड़ी। "हे तात, तुम कहाँ चले गये ? रोती हुई मुझमे वात करो।सकन्न भवनों में अद्वितीय वीर हे तात! मात्र सेनारे मंहारक शरीरलाले हे तात, युद्ध में भटस महके संहारक हे तात, तत्पुरुष रत्न, अभिमानातम्भ हे तात, तुम कहाँ हो?" तब उसकी (लकादरीकी) सहेली अपिराने अपने हाथसे उसका मह पोंछकर कहा कि हला, इस प्रकार पागल की तरह होकर क्यों रो रही हो। तुम भी धनुप ले रश्रश्रेष्ठपर आरूढ़ हो सेनाको समझा-बुझाकर युद्ध करो।।१६।।
[८] यह सुनकर लंकासुन्दरी क्रोधसे भर उठी। वह महारयमें जा बैंठी । धनुष हाथमें लेकर तीर बरसाती हुई वह ऐनी जान पड़ती थी मानो पाक्स-लक्ष्मी इन्द्रधनुषको लिये हुए हो । अचिग महेली रथकी धुरापर बैठी थी। अस्खलितमान और शत्रुसेनानाशक, इसका रथ चल पड़ा। उसपर बैठकर वह भी प्रचंड होभार, युद्ध में ऐसे दौड़ी, मानो सूंड उठाकर हथिनी ही गजपर दौड़ी हो, या कालरात्रि ही सूर्यपर संनद्ध हुई हो, या मानो शब्दपर प्रथमा विभत्रित ही आरूढ़ हुई हो। उसने युद्ध में हनुमानको ललकारा वैसे ही जैसे सिंहनी सिंहको ललकारती है। उसके मुम्बपी कुहरमें कड़वी बातें निकलने लगीं, "रावणके इस पाप ! मुड़ मुड़, जो तुमने आसाली विद्या और मेरे पिताका