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एक्कूणपणासमो संधि
प्रयमसे सीता उन्हें अर्पित कर दो, कि जबतक उन्होंने धनुष नहीं चढ़ाया और जब तक तुमसे रामके दुर्धर अजेय वीर नहीं लड़े ।।१-८॥
[५] और भी विभीषण ! नीलका भी यह गुणधन संदेश है कि जाकर उस रावणसे यह कहो कि परस्त्री-गमन बहुत बुरा है, जो मूर्ख परस्त्रीका रमण करता है वह नरकरूपी महासमुद्र में पड़ता है। परस्त्रीसे शिवजी नष्ट हो गये, उन्हें स्त्रीरूप धारण करना पड़ा ?? परस्त्रीके फलसे ब्रह्माके तत्काल चार मुख हो गये, सुर-सुन्दर इन्द्र के परस्त्रीसे हजार आँखें हो गई। परस्त्रीके कारण ही लांछन रहित चन्द्रमाको सफलंक होना पड़ा । परस्त्रीके फलसे बेचारी आगको निरंतर जलना पड़ रहा है। परस्त्रीके फलसे ही कुलदीपक मायासुप्रीय ( सहस्रगति) को अपने जीवनसे हाथ धोना पड़ा। और भी जो महावतसे होन मदगजकी तरह है, अताओ ऐसा कौन परस्त्रीसे नष्ट नहीं हुआ। तुम भोड़े ही दिनों में देखोगे कि अपने पराभवरूपी पटको धोनेवाले राम-लक्ष्मणसे आहत होकर रावण पड़ा है।
[६] यह सुनकर विभीषणका मन डोल उठा। उसने हनुमान को बताया कि रावण कुछ समझता ही नहीं। जो कुछ आप कह रहे हैं, उसकी मैंने उसे सौ बार शिक्षा दी। तो भी महासक्त वह इस बातका निवारण नहीं करना चाहता । कामाग्निसे वह अत्यन्त जल रहा है। यह जिनभाषित गुण-वचनोंको भी कुछ नहीं गिनता | इन्द्रनील मणि-रनोंको भी वह कुछ नहीं समझता । नष्ट होते हुए घर और परिजनको भी वह कुछ नहीं गिनता । वह नहीं देख पा रहा है कि उसकी (लंका) नगरी प्रलयमें जा रही है। यह ऋद्धि-वृद्धि श्रीसंपदाको भी कुछ नहीं समझता ।