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तियासीसमो संधि हैं। तब उरा कठिन अवसर पर मन्त्रियोंने आकर दोनों दलोंको हटाते हुए कहा, "तुम लोग क्षात्र धर्मका अनुसरण कर, अकेले ही द्वन्द्व करो !" || १-६॥
[१५] इसी अन्तर में दोनों सेनाओं को छोड़कर वे दोनों क्षत्रिय क्षात्र भाव से लड़ने लगे। सुग्रीक्ने मायासुग्रीवसे कहा, "जिस प्रकार माया और कपट से तुमने राज्य का भोग किया, हे खलक्षुद्र, पिशुन, उसी तरह अन्न ठहर-ठहर, कहाँ जाता है, रथ आगे हाँक, हाँक ।" यह सुनकर, तमतमाते हुए, जलती हुई लूका शस्त्र के प्रहरण के साथ मायामुग्रीव ने उसकी भर्त्सना की, "क्या उत्तम पुरुष का यही मार्ग है कि जो वह असतीके मन की तरह सौ बार भग्न हो, फिर भी धृष्ट तुम लड़ते हुए लज्जित नहीं होते, पु र-
गिरकर से हो !" इस कार एक दूसरे को सहन न करते हुए वे प्रहार करने लगे। मानो प्रलय के महामेध ही उछल पड़े हों। वाणों से, वृक्षों और पहाड़ों से, करवाल, शूल और मुद्गरों से, उनमें युद्ध ठन गया। तब मायासुग्रीव ने लकुद घुमाकर ऐसा मारा कि वह जाकर सुग्रीव के सिरकमल पर गिरा मानो महीधर पर बिजली ही टूटी हो ।। १-६।।
[१६] उस गदा-अस्त्र से सुग्रीव वैसे ही धरती पर गिर पड़ा जैसे बज से कुलपर्वत गिर पड़ता है। गिरकर वह जब अचेतन हो गया तो शत्रुसेना में कल-काल शब्द होने लगा। तब यहाँ भी सुताराके प्राणप्रिय असली सुग्रीवको (लोग) उठाकर रामके पास ले आये । उसने रामसे कहा, "आपके रहते मेरी यह अवस्था ?" तत्र राम ने कहा-"मैं क्या कर, किसको मार और किसे बनाऊँ, दोनों ही रण-प्रांगण में अतुल बीर हैं। दोनों ही विद्याओं से प्रबल व अजेय हैं । दोनों ही विज्ञान करने में पल हैं। दोनों ही स्थिर