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पवनासमो संधि
द्वीपकी समस्त सेनाको वंचितकर, और उनके मुखपर स्याहीको कूची फेरनेके लिए रावणके ऊपर झपटा ॥१-||
[४] सारी सेना अहंकारशून्य होकर ऐसे रह गई, मानो ज्योतिषचक्र ही अपने स्थानसे च्युत हो गया हो, या कमलवन हिमसे ध्वस्त हो उठा हो या दुर्विलासिनीका मुख ही फलक्ति हो गया हो या रत्नोंसे उत्तम भवन ही उद्दीप्त नहीं हो रहा हो। वह बार-बार उठना चाह रही थी। इतनेमें विभीषणने रावणसे कहा, "यह कुदूत है, इतनेसे क्या यह उत्तम हो जायगा। पहाड़के ऊपरसे पनी निकल जाता है, तो क्या इससे वह उसको अपेक्षा बलवान हो जाता है, यह कहकर उसने रावणका निवारण किया। इतनेपर भी, हनुमानने आकाशमें जाते हुए पक्षीकी भौति, एक क्षण रुकमा पर क्रोधाग्निसे भड़ककर अपने मनम सोचा कि मैं राम-लक्ष्मणकी असाधारण कीर्तिको संसारमें घुमाऊँ, और दशमुखके जीवनकी तरह इस घरको ही उखाड़ दूं ॥१-६||
[५] तत्र हनुमानने अपने भुजबलसे शिखर और नींव सहित उसके प्रासादको कसमसाते हुए दलित कर दिया। मानो हनुमानने लंकाका यौवनही मसल दिया था। वह राजप्रासाद, जालगोखों, कुसुमद्वार, तोरण, मणिभय फिवाड़ और छनोसे सहित था । मणियोंके तवांग ? से सुन्दर तथा बलमी और चन्द्रशाला से मनोहर था। उसका सल हीरोंसे जड़ा था। और दोनों ओर खम्भे थे। जिनपर भ्रमर गुनगुना रहे थे। समस्त भूमि चमकते हुए मणियों तथा सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंसे जडिस थी। इन्द्रनील और वैदूर्यसे निर्मल पद्मराग और मरकत भणियोंसे उसम मूगोंकी मालासे लम्बमान और मोतियोंके मूमरोंसे मुम्बिर था वह भवन ॥१--।।