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चडवण्णासमो मंधि
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प्रकारका मोहनीय, चार प्रकारका आयुकर्म, नौ प्रकारका नामकर्म, दो प्रकारका गोत्रकर्म और शुभ-अशुभ पाँच प्रकारका अन्तराय कर्म । इन सब कर्मों से जीव आनन्न हाता, छोजता, मिटता, मारा, खाया और पिया जाता है। जन्म-मरणसे बचे हुए इस जीवको अपने कर्मों के वशीभूत होकर उसी प्रकार दुख उठाना पड़ता है जिस प्रकार बंधनमें पड़ा हुआ गज उठाता है ॥१-१०।।
[१३] रावण ! मैं स्नेहपूर्वक कह रहा हूँ। तुम इसे असार समझी। अपने मन में संघर-तत्वका ध्यान करो, और परखास बचो सो विभुषाललायो नि एक-1, दुल संबर-अनु. नंज्ञा सुनी। रागरहित होकर इस जीवको इस तरह रखना चाहिए कि इसे किसी तरहका कला न लगे । जो जिसका प्रतिद्वंद्वी है उसकी उससे रक्षा करो, कामसे अकामको, शल्यसे अशल्यका, दम्भसे अदम्भको, दोषसे अदोषको, पापसे अपापको, रोपसे अगेपको. हिंसासे अहिंसाको, मोहसे अमोहको, मानसे अमान का, लाभसे अलोभको, अज्ञानसे दृढ़ ज्ञानको, मत्सरसे दर्षनाशक अमत्सरको, वियोगसे दुर्निवार अवियोगको, अपथसे दुष्प्रवेश द्वार पथका, और मिथ्यात्वसे बढ़ सम्यकत्वके समूहको बचाओ जिससे देहरूपी नगर नष्ट न ही जाय, हं नवनील कमलनयन रावण, यह सब जानकर, तुम जाकर रामको जनकसुता अपिन कर दो" ।।१-१०॥
[११] रावण, तुम निर्जरा-तत्वका ध्यान करो जो दयाधर्मकी जड़ है । अच्छा हो तुम सीताको छोड़ दो और उसके अनुसार आचरण करो। हे दानवरूपी ग्राहीसे अग्राम लंकाधिप रावण 'तुम निरा अनुप्रेक्षा सुनो । घण्टो, अष्टमी, दशमी, द्वादशीको