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एक्कवण्यासमो संधि
हो रहा था। उनकी कृपाणे उठी हुई थी। महागज की भौति चे अत्यन्त सुब्ध थे। सूर्यको तरक्ष अनेक रूपमें वे प्रकट हो रहे थे। समुद्रकी तरह उछल रहे थे । और पर्वतोंकी भाँति चल-फिर रहे थे। दानवोंके शरीरको विदीर्ण करनेवाले, वे हथियार लिये हुए थे। किसीके पास हलि और हुलि अस्त्र थे। कोई झष और शूल लिये था। कोई गदा और दण्ड लिये था। कोई धनुष लिये था, कोई सरजाल और कोई एक करपाल लिये था । रावणके अनुचरों, की समस्त सेना, इस प्रकार सनद होकर चल पड़ी, मानो समुद्रका जल ही प्रलयकालमें अपनी मर्यादा छोड़कर उछल पड़ा हो ॥१-१४॥
[१२] इस प्रकार लङ्कानगरी चुन्ध सागरकी तरह व्याकुल हो उठी। रथवर, गजवरसमूह जम्माण विमान और घोड़ों से वह व्याप्त हो रही थी। निकलती हुई सेना कहीं भी नहीं समा रा रही थी। वह गलियोंको रौती हुई जा रही थी, ध्वज और चपल महाध्वज फहरा रहे थे । पद्ध, पटह, शक और महल बज रहे थे। उसम शस्त्र अपने हाथोंमें लिये हुए, रावणके अनुचरोंने तुरन्त उस उपवनकों से घेर लिया, मानो नये मेघोंने तारामंडलको घेर लिया हो या मानो तीन प्रकारके पवनोंने त्रिभुवनको घेर लिया हो । इस प्रकार रथवरों और गजवरांसे उसे घेरकर नरवरोंने हनुमान को ललकारा— जैसे तुमने विशाल परकोटा श्वस्त किया, कोतवाल वायुधको युद्धमें आहत किया, वनपालोंकी हत्या की और उद्यान उजाड़ा है, खल, सुन्द्र, पिशुन, उसी तरह अन मर और प्रहार झेल ।" यह सुनकर हनुमान विशाल कांपिल्य वृक्ष लेकर दौड़ा । पहली ही भिड़तमें उसने शत्रुसेनाको अनेक भागों में विभक्त कर दिया। मानों विरुद्ध होकर सिंहने हाथीके झुण्डको कई दिशाओं में तितर-बितर कर दिया हो ।।१-१०॥