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सैंतालीसवीं सन्धि
इस प्रकार अभिनव विजयलक्ष्मीका आलिंगन करनेवाले हनुमानने विशाल विमानमें बैठकर अपने स्वामीके कामके लिए प्रस्थान किया । शीघ्र हो महनीय वह दधिमुख विद्याधरके द्वीपमें लीलापूर्वक ही पहुँच गया।
[१] आकाश मार्गसे जाते हुए हनुमानको दधिमुख नगर दिखाई दिया। उस नगरके चारों ओर उद्यान और सोमाएँ इस प्रकार थी मानो उसने हजारों ऋषियोंको (बंधक) रख लिया हो । विकसित और खिले हुए विमान उसमें ऐसे लगते थे मानो बड़े-बड़े तीर्थकर-पुराण हो । वहाँ एक भी सरोवर सूखा नहीं था मानो वे परदुखकातरतासे ही शोतल थे। उनकी विस्तृ. सीढ़ियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो अधोगामी कुगति ही हो । उसका परकोटा कोई उसी प्रकार नहीं लाँघ सकता था जिस प्रकार गुरु-उदिष्ट जिनोपदेशको कोई नहीं लाँध पाता । उसमें देवकुल धवलकमलोंको तरह थे । वहाँके लोग पुस्तक वाचनाकी तरह ( स्वाध्यायकी तरह) बहुत चरितवाले थे । जहाँ तोरण-द्वारोंसे अलंकृत मंदिर ऐसे लगते थे मानो प्रातिहार्योंसे सहित समवशरण हो । वहाँके बाजार हरि, हर और ब्रह्माकी तरह क्रमशः भुव [द्रव्य
और हाथ ] नेत्र [ वस्त्र और आख ] और सुत्त ( सूत्र ) दिखा रहे थे । जहाँ वेश्याग शिवकी तरह बड़े-बड़े भुजंगों ( लंपटी और साँपोंसे) आलिंगित थीं। जहाँ गृहपति, गम और शिवकी तरह हलधर [राम हलधर कहलाते हैं, शिव बैलपर चलते हैं, और गृहस्थ बैल और हलकी इच्छा रखते हैं ] थे। इस प्रकार अनेक