________________
एक्कूणपण्णासमो संधि
F
मैं चाहती हूँ यदि वह परस्री सेवनसे बचता है। मैं चाहती यदि वह प्रतिदिन जिनदेवकी अर्चा करता है । मैं चाहती हूँ यदि वह कषायों को नष्ट करता है। मैं चाहती हूं यदि वह अपने परमार्थकी खोज करता है। मैं चाहती हैं यदि वह प्रतिमाओंका आदर करता । मैं चाहती हूँ यदि वह जिनकी पूजा करवाता है । मैं चाहती यदि वह अभयदान देता है | चाहती हूँ वह पश्चरण करता है। मैं चाहती हूँ यदि वह तीन बार ( दिनमें ) जिनदेवकी वंदना करें। * चाहती हूं यदि वह अपने मनकी निन्दा करता । हे मन्दोदरी, मैं यह भी चाहती हूं कि विशाल युद्धों में समर्थ, रामके चरणों में गिरकर वह (रावण) मुझे (सीता को ) उन्हें सौंप दे ।। १-१०॥
[१५] यदि वह मुझे रघुनन्दन रामको नहीं सौंपना चाहता, तो हला, मैं यही चाहती हूँ कि वह मुझे समुद्र में फेंक दे। मैं चाहती हूँ कि यह नन्दन वन नष्टभ्रष्ट हो जाय। मैं चाहती हूँ कि यह लंकानगरी आगमें भस्मसात हो जाय। मैं चाहती हूं कि निशाचर सेनाका अन्त हो । मैं चाहती हूँ कि यह भवन पाताल में
स जाय । चाहती हूं कि दशानन रूपी यह वृक्ष नष्ट-भ्रष्ट हो जाय । चाहती हूँ कि रामके तीर उसे तिल-तिल काट डालें । चाहती हूँ कि रावणके दसों सिर वैसे ही कट कर गिर जायें जैसे हंसोंसे कुलरे कमल सरोवर में गिर पड़ते हैं । चाहती हैं कि उसका अंतःपुर क्रन्दन करे, उसकी केशराशि बिखरी हो और दहाड़ मार कर रोये । चाहती हूँ कि उसका ध्वज चिह्न छिन्न-भिन्न हो जाय । चाहती हूँ कि धड़ नाच उठें और चाहती हूँ कि चारों ओर सुभटों की धुआंधार चिताएँ जल उठें। हला, जो जो मैं कहती हूँ वह सब सच है। मैं तो विश्वास करती हैं। देखो यह रामकी अंगूठी आई है । यह मेरे सब मनोरथोंको पूरा करनेवाली है, और तुम्हारे लिए दुखकी पोटली है ॥१- १० ॥