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चौवनवीं संधि कुमार हनुमान, मलयपर्वतकी तरह प्रवर भुजंगोसे मालित (नाग-पाशसे बँधा हुआ और नागोंसे लिपटा हुआ) रावणके पास चला।
[१] यह देखकर नवनील कमलकी तरह नेत्रवालो शोकसे संतप्त सीतादेवी अपने मनमें सोचने लगी कि "पवनपुत्र, तुम्हें छोड़कर अब कौन मेरी कुशलवार्ता ले जा सकता है ।" उधर वह ऐरावतको तरह सूइघाला हनुमान लंकाके सम्मुख ऐसे ले जाया गया मानो साँकलोंसे बँधा हुआ मत्तगज ही हो । आधे ही पलमै उसे लंकानगरीमें प्रविष्ट कराया गया। इस तरह मानो उन्होंने अपने विनाशका ही ललकारा हो। इसी बीचमें पीनपयोधरा सीतादेवी और लंकासुन्दरीने जो इरा और अचिराको हनुमानकी खबर लेनेके लिए भेजा था, वे दोनों लौटकर आ गई । शीघ्र ही उन दोनोंने आकर झरते हुए आँसुओं और गद्गद स्वरमें चंद्रमुखी और कमलनयनी उन लोगोंको तुरंत कहा, "माँ, सुनो । उस दूतने क्या-क्या किया । लंकानरेशका जो प्राणप्रिय उद्यान था वह उसने उजाड़ दिया है, और समस्त अनुचरसेनाको मसल दिया है । कुमार अक्षयके प्राण हरण कर लिये और घनबाहनकी सेनाको संत्रस्त कर दिया है। केवल इन्द्रजीत ही उसे अपमानित कर सका है । वह उसे बाँधकर रावणके पास ले गया है।" यह सुनकर सीतादेवीके नेत्र नीलकमलको भाँति हिल उठे और उनसे आँसुओंकी धारा प्रवाहित होने लगा ।।१-१३||
[२] वह अपने मनमें विचार करने लगी कि जीव चाह कहीं ही, उसने पूर्वभवमें जो किया है, उसके पूर्वभवमें किये गये