________________
दुवणासमो संधि
१७६
मन ही मन उमड़ पड़ा। सूर्यमण्डलपर राहुकी तरह या कामदेव पर शिवकी तरह, उसकी ओर मुड़ा। रणमुख में पवनपुत्र कुमार अक्षयपर उसी प्रकार झपटा जिस प्रकार, अश्वग्रीवपर त्रिविष्ट, माया सुग्रीवपर राम या सहस्राक्षपर रावण झपटा था । तब रावणपुत्र कुमार अक्षयने निष्ठुर और कठोर शब्दीमें पवनपुत्रको ललकारकर उसे क्षुब्ध कर दिया । उसने कहा, "अरे हनुमान् ! तुमने भला युद्ध किया ! जिनवरके वचनको तुमने कुछ भी नहीं समझा ! अणुव्रत, गुणव्रत और परधन व्रतमेंसे तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, जिनसे कि श्रावकका सुनाम होता है । जिसने इतने इतने जीवोंका संहार किया है कि पता नहीं वह कहीं जाकर विश्राम पायेगा । मैंने इस समय सभी छोटे छोटे जीव-जन्तुओंको मारनेसे निवृत्ति ग्रहण कर ली है, केवल एक बात को अभी तक ग्रहण नहीं किया और वह यह कि तुम्हारे जैसे लोगोंके साथ युद्ध करना नहीं छोड़ा ॥१-१०।।
[४] कुमार अक्षयके बचन सुनकर, हनुमानके हर्षपूर्ण मुखकमलपर हंसी आ गई। बह बोला, "जैसे इतने लोगोंका वैसे ही लड़ते बोलते हुए तुम्हारा भी जीवनहरण कर लूंगा।" यह कहने पर सुभटश्रेष्ठ कुमार अक्षय और हनुमान दोनों आपस में ऐसे टकरा गये, मानो दोनों ही आशीविष सर्पराज हों। मानो . दोनों ही अंकुशविहीन गज हों, मानो दोनों ही वेगशील सिंह हों, मानो दोनों ही गरजते हुए महामेघ हां, मानो दोनों ही उछलते हुए समुद्र हों। दोनों राम और रावणके अनुचर थे। विशाल वक्षःस्थलवाले वे दोनों ही अपने हाथ धुन रहे थे । दोनोंके नेत्र आरक्त थे और वे अपने ओंठ चबा रहे थे। दोनों ही, बढ़ते हुए युद्धभारसे दबे थे। दोनों ही अरहंत नाम.