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एक्कूणपण्णासमो संधि मन रावणको बुद्धि नहीं आई। तुम्हारे होते हए परस्त्रीको उसने वैसे ही अवरुद्ध कर लिया जैसे व्याध वेचारी हरिणीको रुरकर लेता है । तुम्हारे रहते हुए भी रावण भही कारः, और मन रूपी गजपर बैठा हुआ है । तुम्हारे होते हुए भी उसने केवल रौद्र नरक और घोर संसार-समुद्रका साज सजा। तुम्हारे होते भी धर्म नहीं जाना और राक्षसर्वशका नाश निकट ला दिया । तुम्हारे होते हुए भी उसने अपना कुल मला किया। बत, चारित्र्य और शील का पालन नहीं किया। तुम्हारे होते हुए भी उसने लंकाका विनाश किया और संपदा, ऋद्धि-वृद्धि भी ध्वस्त कर दी। तुम्हारे होते हुए भी वह उन्मादक चार प्रकारको उद्धत कषायों में फंस गया । अपने होते हुए भी तुमने इसका निवारण नहीं किया। यह कर्म अत्यन्त लज्जाजनक है, इसमें यशकी हानि है, दुःख और अपयशकी खान है। इस लोक और परलोक में निन्दाजनक है। इसलिए रामश्री पत्नी सपि दो। अपनेको क्यों लज्जित करते हो? ||१-१०॥
[४] और भी, परबलको जीतनेवाले उस नलका भी सन्देश सुन लो । (उसने कहा है) ऐरावतकी सूंडकी तरह प्रचंड यशवाले राम-लक्ष्मण के साथ यह कैसी लीडा ? जिसने शम्बुककुमारका अन्त कर दिया, जिसने रण-प्रांगण में त्रिशिरका पात किया, जिसने शस्त्रोंके जल-जंतुओंसे भरे खरदुषणके उस सेनासमद्रको विलोडित कर डाला, जो रथवरोंरूपी मगर व ग्राहों से भयंकर, बड़े-बड़े आश्वोंकी तरंगोंसे भरा, उत्तम हाथियों और ध्वजारूपी कल्लोल-समूहसे च्याप्त था, ऐसे समुद्रको जिसने घोंट डाला, जिसने सहस्रगतिकी खोपड़ी लोट-पोट कर दी, जिसने कोटिशिलाको भी उठा लिया, उसके साथ विग्रह कैसा ? तबतक तुम