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तिवष्णासमो संधि
ठेलता हुआ मर्यादासे हीन समुद्र हो । दुर्जेय उनसे हनुमान उसी प्रकार घिर गया जिस प्रकार केवली अवधि और मनःपर्यय झानसे, जम्यूद्वीप समुद्रोंसे, सिंह गोंसे, लोकांत तीन प्रकारके पवनोंसे, दिनकर नये जलधरीसे घिरे रहते हैं । यद्यपि वह सुभट अकेला था, और शत्रुसेना अनंत थी, फिर भी उसका मुखकमल खिला हुआ था । वह कभी चलता, ठहरता, छलांग मारता, हुँकारता, प्रहार करता, कुचला, अम्हाई लेता, अस होता, फैलता, दिखाई दे रहा था । प्रहारोंसे वह वैसे ही छिम-भिन्न नहीं हो रहा था जैसे सांसारिक कारणोंसे जिन छिन्न-भिन्न नहीं होते। हनुमानके चारों ओर सेना ऐसी घूम रही थी मानो मंदराचलके आस-पास समुद्रका जल हो । शस्त्र उठाये हुए भी वह सैन्यसमूह हनुमानको पकड़नेमें असमर्थ था । मानो मेरुके चारों ओर तारा गण घूम रहे हो ॥१-१०॥
[७] तब राक्षससंहारक पवनपुत्र पुलकित होकर, सेनापर झपटा । रथवरसे रथको उसने आहत कर दिया, गजवरसे गजको, अश्वसे अश्वको, सुभटसे सुभटको, कबंधसे कबंधको, छत्रसे छत्रको, चिह्नसे चिह्नको, बाणसे बाणको, वरचापसे वरचापको, अनिर्दिष्ट गर्ववाली ? तलवारसे तलवारको, चकसे चक्र को, त्रिशूलसे त्रिशूलको, मुद्गरसे मुद्गरको, हुलिसे हुलिको कनकसे कनकको, मुसलसे मुसलको, रणके आंगनमें कुशल कांत से कोतको, सेलसे सेलको, खुरुपासे खुरुपाको, फलिहसे फलिहको और गदासे गदाको और यंत्रसे आते हुए यंत्रको म्खलित कर दिया । सेनाको उसने उद्यानकी तरह ध्वस्त कर दिया । स्थ और अश्वोंसे होन, वे माथा मुकाये हुए थे। उनका मुख