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छप्पण्णासमोसंधि
होता हुआ कुछ लक्ष्मण ऐसा जान पड़ता था, मानो जयश्रीके भभिमानी राषणके ऊपर जयकाल ही आ रहा हो ॥१-६।।
[३] कोई-कोई सुभट अपनी पत्नियोंको आलिङ्गन देकर सनद्ध हो गये। किसी एकको उसको धन्या पान दे रही थी, कोई एक अर्पित भी उसे प्रहण नहीं कर रहा था। उसका कहना था कि आज मैं सैन्यदलों, गजवरी, रथवरों, पोफलों और विजय लक्ष्मीरूपी वधू द्वारा दिये गये, नरवरोंसे सञ्चूर्णित चूर्णकसे अपने आपको सम्मानित करूंगा। किसी एकको उसकी पत्नी खिले हुए फूलोंकी मालती माला दे रही थी, परन्तु वह यह कहकर नहीं ले रहा था, कि मैं इसको नहीं चाहता । आर्ये, तुम्ही इसे ले लो, मेरा यह सिर तो आज स्वामीके काममें ही निपट जायगा। किसी एकको उसकी पत्नी आभूषण दे रही थी, परन्तु वह उसे तृणके समान समझ रहा था । उसने कहा, 'क्या गंधसे और क्या रससे ? मैं यशसे अपने तनको मण्हित करूंगा।' किसी एककी पनीने यह इच्छा प्रकट की कि हे नाथ, तुम गज-कुम्भोंको फाड़कर हिम, चन्द्र और शखकी तरह उज्ज्वल मोतियोंको अवश्य लाना ॥१-६॥
[४] एक ओर शुभकर सुन्दर विमान सजने लगे, जो घण्टाका टंकारसे सुन्दर, रन-मुन करते हुए भौराकी झंकारसे युक्त थे। चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणियोंकी किरणोंसे व्यात थे। उनके शिखर इन्द्रनाल मणियोंके बने थे। लटकती हुई मालाओंसे जो आन्दोलित, हारोंकी पंक्तियोंसे शोभित, पद्मराग मणियासे उज्ज्वल, बैदूर्य और वन मणियोंको प्रभासे निमल, मोतियोंकी मालासे धवल, किंकिणियोंकी घर-घर ध्वनिसे मुखरित थे। कम्पित पताकाएँ उनके ऊपर फहरा रही थी । सैकड़ों