________________
चवालीसवीं सन्धि
सीतादेवी के वियोग में राम का मन विसुर रहा था । उनको आशा पूरी नहीं हो रही थी। एक भी क्षण का सहारा उन्हें नहीं मिल पा रहा था। इसलिए रामके आदेशसे लक्ष्मणको सुग्रीव के घर जाना पड़ा।
[१] जब कपट-सुग्रीव युद्ध में बाणों से क्षत-विक्षत हो चुका और सात दिन भी व्यतीत हो गये, तब रामने लक्ष्मणसे कहा कि तुम बिना विलम्ब जाकर सुग्रीवसे कहो । वह तो एकदम निश्चित सा जान पड़ता है। सभी दूसरे के काम में ढील करते हैं। (उससे कना) कि तुम जो (अपनी पली) तारा सहित राज का भोग कर रहे हो और जो (हमने) तुम्हारा शत्रु काल (देवता) की भेंट चढ़ा दिया है। यदि तुम उस उपकार को थोड़ा भी जानते हो तो सीतादेवी का वृत्तान्त लाकर दो। इस प्रकार राम से विसजित होने पर लक्ष्मण (सुग्रीव के पास) इस वेग से गया मानो कामदेव ने अपना पांचवां बाण ही छोड़ा हो। वह किष्किन्ध पर्वत और नगर को मुग्ध करता तथा कामिनीजनों के मन को क्षब्ध बनाता हुआ जैसे-जैसे सुग्रीवके घरके निकट पहुँच रहा था वैसे-वैसे जनसमूह हड़बड़ाकर दौड़ा। वह अपना कण्ठा, कटक और गलिग्ण नहीं देख पा रहा था। (उस समय जन-समूह) ऐसा जान पड़ रहा या मानो लक्ष्मण ने संमोहन कर दिया हो। इतने में कुमार लक्ष्मण ने किष्किन्धराज सुग्रीवके प्रतिहारको अपने सम्मुख इस प्रकार (स्थित) देखा मानो मोक्ष के द्वार पर जीव का प्रतिकल दुष्परिणाम ही स्थित हुला हो ॥ १-१०॥