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एक्कूणपण्णासमो संधि
१२७ अभय प्रदान करनेवाली, लताकी तरह अभिनव कोमल रंगवाली, पावस शोभा की तरह पयोधरों (मेघों स्तनों) को धारण करनेवाली, धरती की तरह सब कुछ सहनेवाली और अडिम, विद्युत्की तरह कान्तिसे समुज्ज्वल, समुद्रवेलाकी भांति सब ओर लावण्यसे भरपुर, रामकी कीतिकी तरह निर्मल और त्रिलोकमें स्थित शोभाकी तरह सुन्दर थीं । अठारह हजार युवतियां आकर सीतादेवीसे इस तरह मिलीं मानो सौन्दर्यके सरोवर में कमल हो खिल गये हों ॥ १८ ॥
[१३] कृशोदरी मंदोदरी, जाकर पास में बैठकर सैकड़ों चापल सियों कर, सोतासे बोली-"हला हला सीतादेवी, तुम मूद क्यों हो? तुम दुःख रूपी सागरसे छूट गईं। ला ला सीते, तुम मेरा कहा करो, यह चूड़ा कंठी और कटिसूत्र लो। हला सीते, तुम समझती हो तो ये चीजें लो और इस पानका सम्मान करो, हला सीते, मेरी बात सुनो, अपना शरीर प्रसाधित करो। आँखों में अंजन लगाओ।हला सीते, यह दर्पण लो, चोटी बाँध लो और अपने लिए संजोओ। हला सीते,अविलोकित गीले गंडस्थलवाले हाथियों पर चढ़ो। हला सीते, ऊँचे चंचल हिनहिनाते हुए घोड़ों पर चढ़ो। हला सीते, धरती का भोग करो, मनुष्य-जन्म के फल का भोग करो। प्रिय को चाहो, महादेवी-पट्ट स्वीकार करो । जो तुम सदभाव से हंसी हो तो महादेवी-पद के इन प्रसाधनों को स्वीकार करो, मैं इतनी अभ्यर्थना करती हैं।"
[१४] यह सुनकर सीता कहती है—(पुलकित बाहुओंवाली) "मैं सचमुच चाहती हूँ यदि रावण जिनशासन में मन लगाये। मैं चाहती हैं यदि वह मेरा मुख न देखे । मैं चाहती हूं कि वह मध और मांस नहीं खाये। मैं चाहती हूँ यदि वह अपने शील की रक्षा करे। चाहती हूँ यदि मैं वह डरे हुए को अभय वचन दे।