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पउमचरिउ
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'माइ मण श्राणन्दयर यि कुल ससि अ-कलङ्क | जाणइ जाणिय सयछ : जाँ कह भय-भीएं सु ॥१॥ अणु वि दहवयणु मणेण मुणे णामेण वोहि अणुवेक्ख सुर्णे ॥२॥ चिन्तेव्वउ जीव रप्ति-दिणु । " भव भव महु सामिड परम-जिणु ॥ ३॥ भ भ लभ समाहि-मरणु । भव भवें होउ मुम्बइ-गमणु ॥४॥ सण णाणेण सहुँ ||९|| म
भभत्र जिण गुण सम्पत्ति महु | भनेँ भने
भने मर्ने सम्मत होउ श स भ
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महन्त दिह्नि । भव भवें उप्पज्जउ धम्म-निहि" ॥७॥
भव भव सम्भव अणुत्रेस्ट
रावण
एयाउ । जिण सासण बारह- भैयाउ ||८|| जो पढइ सुणइ म सहहह । सो सासय सांबख सयदें लहई' ॥ ६॥
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घत्ता
सुन्दर वयणाई लभाई मणे सरहों ।
स हूँ भु व जुचलेण क्रिउ जयकार जिणेसर हों ॥१०॥
५५ पञ्चवण्णासमो संधि 1
'एक दुलह धम्मु एस विरहग्गि गरूषत । आयहँ कवणु लमि' दहवयणु दुतक्खीहू ॥ [+] 'एस जिनवर चयणुण खुक्क । एत्तहँ यम्महु वम्महों एतहँ भव-संसार बिरुव । एव
विरह- परवसिंहूअ
का ॥१॥ ||२॥