________________
पउवाणासमो संधि
२२१
नीरस उपवास करना चाहिए । पक्षमें चार तीन ? या एक बार पारणा करनी चाहिए। एक माहके उपवास वाला चान्द्रायण व्रत, तथा और भी दण्डन-मुण्डन करना चाहिए ! बाहर सोना या पेड़ोंके मूलमें या आतापिनी शिलापर वीरासन लगाना चाहिए | सुध्यात ध्यानसे मनको वशमें करना, वन्दना, पूजन और देवार्चा करना, दुःसह संयम, तप और नियमको पाहा: नेर पाईस परीषह सहन करना, चारित्र ज्ञान, प्रत और दर्शनका अनुष्ठान तथा अन्य दण्डन-खण्डन करना चाहिए । इस प्रकार जो सैकड़ों जन्मोंसे पापरूपी कर्ममल संचित हैं, वे सब वैसे ही गल जाते हैं जैसे बाँध खोल देनेसे पानी बह जाता है ।।१-१०॥
[१५] हे रावण ! तुम अहिंसा धर्मके दस अंगोंको जानते हो । फिर भी सीताका परित्याग नहीं करते । आखिर इसका क्या कारण है। जिनवरके चरणकमलोंके भ्रमर दर्शाशर रावण, दसधर्म-अनुप्रेक्षा मुनो । पहली तो यह बात समझो कि तुम्हें जीवदयामें तत्पर होना चाहिए । दूसरे मार्दव दिखाना चाहिए। तीसरे सरलचित्त होना चाहिए । चौथे अत्यन्त लाघवसे जीना चाहिए । पाँचव तपश्चरण करना चाहिए । छठे संयम धर्मका पालन करना चाहिए । सातवें किसीसे याचना नहीं करनी चाहिए | आठवे ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिए । नवे सत्य व्रतका आचरण करना चाहिए । दसवें मनमें सब बातका परित्याग करना चाहिए। तुम इन धर्मोको जानो। धर्म होनेसे ही केवल सुखकी प्राप्ति होती है, और धर्मसे ही चिन्तित फल मिलता है। हे रावण ! धर्मसे ही गृह, परिजन सब अभिमुख ( अनुकूल ) होते है, और एक उसके बिना सब विमुख हो जाते हैं ।।१-१३॥