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पनवण्णासमो संधि
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[१६] मनके लिए आनन्दकर, अपने कुलका कलंकहीन चन्द्र हनुमान जानता था कि जानकी समस्त विश्वमें भय और भीतिसे मुक्त है। फिर भी उसने कहा, “हे रावण अपने मनमें गुनो, और भोधि अनुप्रेक्षा सुनो । जीवको दिनरात यही सोचना चाहिए, तानों से बनाली सम कि हों. वन्य मुझे समाधिमरण प्राप हो, जन्म-जन्ममें सुगति गमन हो, जन्म जन्ममें जिनगुणोंकी सम्पदा मिले, जन्मजन्ममें दर्शन और हानका साथ हो, भक्भवमें अचल सम्यक दर्शन हो, भवभवमें मैं कर्ममलका नाश करूं । जन्म-जन्ममें मेरा महान् सौभाग्य हो, जन्म-जन्ममें मुझे धर्मनिधि उत्पन्न हो। हे रावण, जिनशासनमें ये बारह प्रकारको अनुप्रेक्षाएँ हैं, जो इन्हें पढ़ता, सुनता और अपने मनमें श्रद्धा करता है, यह शाश्वत शतशत सुखोंको पाता है। ये सुन्दर वचन रावणके मनमें गड़ गये और उसने अपने हाथ जोड़कर जिनका जयकार किया ॥१-१०॥
पचवनी सन्धि.
रावणके सम्मुख अब बहुत बड़ी समस्या थी; एक ओर तो उसके सामने दुर्लभ धर्म था और दूसरी ओर विपुल-विरहाग्नि । इन दोनों में वह किसको ले, इस सोचमें वह व्याकुल हो उठा।
[१] एक ओर तो वह जिनवर के उपदेशसे नहीं चूकना चाहता था तो दूसरी ओर, उसके मर्मको काम भेद रहा था, एक और चिरूपित भवसंसार था, तो दूसरी ओर वह कामके पशी