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पञ्चषण्णासमो संधि
२२७ [२] यदि मैं अर्पित कर दूंगा तो नामको कल लगेगा, लोग कहेंगे कि रामके डरसे ऐसा किया !" जयश्रीके अभिमानी गवण अपने मनमें यह सब विचार करके हनुमानके सम्मुख मुड़ा, और चोला, “अरे बुद्धिहीन बाल गोपाल, बँधा हुआ भी व्यर्थ क्या बक रहा है । लवण-समुद्र में पत्थर फेंकना चाहता है। शाश्वत स्थान में सुख खोजना चाहता है । मेरुका लोनेका दण्डा दिवाना चाहता है। सूर्यमण्डलको दीपक दिखाना चाहता है। चन्द्रमामें चाँदनी मिलाना चाहता है । लोपिण्डपर निहाईको घुमाना चाहता है । इन्द्रसे देवलोक श्रीनना चाहता है। मेरे कानो कनानी पादप पाहत है." यह गुना गुदर पवनपुत्र ( नागपाशसे दोनों हाथ जकड़े हुए थे) ने कहा, "रावण, इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, असलमें मुनिवर का कहा सत्य होना चाहता है, कुछ ही दिनोंमें सीतासे तुम्हारा नाश दिखाई देता है ।।१-६॥
[३] इन दुर्वचनासे रावण भड़क उठा, मानो सिंह सिंहको शुन्ध कर दिया हो । उसने कहा, "मारो-मारो, पकड़ी या सिर गिग दो, नहीं तो इसका धड़ अलग कर दो । इसे गधेपर बैठाओ, सिर मुड़वा दो, रस्मीसे बांधकर घर-घर दिखाओ”। यह सुनकर राक्षस दौड़े, उनके हाथ में तलवार, झस, फरसा और शक्ति शस्त्र थे । उस अवसरपर हनुमान भी अपने शरीरको हिलाकर नागपाशको तोड़कर और भटोंका संहार करता हुआ उठा | देखने में वह ऐसा लगता मानो शनीचर ही प्रतिष्ठित हुआ हो, जहाँजहाँ उसकी दृष्टि जाती वहाँ-वहाँ सम्मुख आनेमें और कोई समर्थ नहीं पा रहा था । तब रावणने कहा, "मैं स्वयं मारूंगा, जहाँ जायगा, वहीं इसे मारूँगा। इस प्रकार हनुमान, उस विद्याधर