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अहपालीसमो संधि भी बदना शुरू कर, और गढ़ाके आघातसे उस विद्याको चूर-चूर कर दिया। पेटके भीतर घुसकर, और बलपूर्षक फैलकर तथा फाड़कर वह वैसे ही बाहर निकल आया जैसे विध्याचल धरतीको ताड़ित और विदीणं कर निकल आता है ।।१-६॥
[४] इस प्रकार आसाली (आशालिका) विद्याके समरांगणमें धराशासी होनेपर, हनुमाननी मोनामें कल-कल ध्वनि होने लगी। तूर्य बजाकर विजय घोषित कर दी गई। अब हनुमानने लीला पूर्वक लंकामें प्रवेश किया । उसे इस तरह प्रवेश करते हुए देखकर वत्रायुध दौड़ा, और 'मारो मारो' कहता हुआ बोला कि "हे महानुभाव, आसाली विद्याका नाशकर कहाँ जा रहे हो, मर, प्रहार कर, प्रहार कर ।" इन वचनोंको सुनकर हनुमान मुड़कर इस तरह दौड़ा मानो सिंहके सम्मुख सिंह ही दौड़ा हो । हाथों में गदा लेकर वे दोनों योधा आपसमें भिड़ गये । वे दोनों ही शत्रुयुद्ध का भार बहन करने में समर्थ थे। सेनासे सेना टकरा गई । गज गजोंके निकट पहुँचने लगे । अश्वोंपर अश्व और स्थापर रथ छोड़ दिये गये । ध्वजपर ध्वज और स्थश्रेष्ठपर ग्थश्रेष्ठ | इस प्रकार देवासुर संग्रामकी तरह उनमें भयंकर संग्राम होने लगा | रथ, तुरग, योधा, गज और वाहनोंसे सहित हनुमान और विद्याधरों की सेनाएँ कल-कल ध्वनि करती हुई इस प्रकार भिड़ गई मानो लक्ष्मण और खरदूषणकी सेनाएं ही लड़ पड़ी हो ॥१-६॥
[५] अमर्षसे भरी हुई दोनों ही एक दूसरे पर कुपित हो रही थीं। युद्धप्रांगणमें दोनोंके लिए यशफा लोभ हो रहा था। दोनों हाथों में हथियार लेकर आक्रमण कर रही थीं । दुर्जनके मुख की तरह दोनों ही दुर्दशनीय थीं। बहु शक्षास्रोंसे सुन्ध उस वैसे घोर युद्धके होनेपर निशाचरकी ध्वजावाले बनायुधके अनुचर
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