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चउयालीसमो संधि
२६ है। वह लक्ष्मण है जो रामका सगा भाई है । वह लक्ष्मण है जो सीतादेवी का देवर है । वह लक्ष्मण है जो श्रेष्ठ मनुष्यों में श्रेष्ठ है । वह लक्ष्मण है जो खर-दूषणका हत्यारा है। वह लक्ष्मणं है जो सुमित्रासे उत्पन्न दशरथका पुत्र है और जो रामके साथ वनवासके लिए आया है । हे देव ! प्रयत्नपूर्वक उसे मना लीजिए, जिससे वह कुपित न हो। और तुम्हें मायासुग्रीव के पथ पर न भेज " ॥१-११।।
[४] प्रतिहार के उन वचनों को सुनकर कपिध्वज शिरोमणि सुग्रीव का हृदय विदोणं हो गया । (वह सोचने लगा) अरे, यह वह नक्ष्मण है [राम का अनुज]. जिसकी शरणमें मैं गया था। यह विचारते ही वह वैसे ही सचेत हो गया जैसे गुरुके उपदेशवचन से शिष्य सचेत जाता है । तब राजासुग्रीव विनयरूपी हाथी पर चढ़कर, अपनी सेना परिवार और स्त्री के साथ जाकर व्याकुल शरीर हो, लक्ष्मण के सामने गिर पड़ा। दोनों हाथ जोड़कर उसने करुण स्वरमें कहा-“हे देव, मैं बहुत ही पापात्मा, ढीठ और अकृतज्ञ हूँ। तारा के नेत्रवाणों से जर्जर होकर मैं आपका नाम तक भूल गया । अहो परोपकारी परमेश्वर, एक बार मुझे क्षमा कर दीजिए।" जब सग्रीवने इतने प्रिय वचनोंमें विनय प्रकट की तो लक्ष्मणने आश्वासन दिया और कहा, "वत्स, तुम्हें मैं अभय देता हूँ, शीघ्र जाकर अब सीतादेवी की खोज करो, हरेक दिशा में विद्याधर भेज दो।" लक्ष्मण के बचन सुनकर, सहस्र सैनिकों से परिवृत मग्रीव निकल पड़ा । मानो समुद्र ने ही अपनी मर्यादा विस्मृत कर दी हो ॥१-१०॥
[५] तब नराधिप सुग्रीव एक विशाल जिनालय में पहुंचा। यहाँ उसने अनन्त सुखगामी जिन-स्वामीकी स्तुति प्रारम्भ की;