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तियालीसमो संधि
उसने शम्बुककुमारका सिर काट डाला है और बलपूर्वक उसने देवोंका सूर्यहास खड्ग छीन लिया है। उसीने चन्द्रनखाका यौवन दलित किया है जिससे रोती-विसूरती हुई वह, जय-सक्ष्मी से विभूषित खर और दूपण के पास आयी। तब वे दोनों आकर लक्ष्मण से भिड़ गए। परन्तु उसने तत्काल इनके दो टुकड़े कर दिये । इतने में अमर्षसे भरकर किसीने राम की परनी सीता देवी का अपहरण कर लिया और पीछा करते हुए जटायु को मार गिराया। युद्ध का यही कारण है। ।।१-६॥ _ [३] युद्धकी यह हालत सुनकर मुग्रीव इस चिन्तामें पड़ गया कि क्या मैं उनकी (राम-लक्ष्मण को) शरण में चला जाऊँ। हाय विधाता ! तुने केवल मुझे मौत नहीं दी। इस अवसर पर मैं किसे स्मरण करूं ? क्या हनुमानकी शरणमें जाऊँ ? परन्तु वह भी शत्रुको नहीं जीत सकता । उल्टा मैं निरस्त्र कर दिया जाऊँगा। क्या रावण से अभ्यर्थना कह ? नहीं नहीं। वह मनका लोभी और स्त्री का लंपट है । वह हम दोनों (असली और नकली) को मारकर राज्यसहित स्त्रीको भी ग्रहण कर लेगा। अतः खर-दूषण का मान-मर्दन करनेवान्ने राम और लक्ष्मण की शरण में जाना ही ठीक है। यह सब सोच-विचार वार किष्किन्धापुरनरेश सुग्रीवने मेघनाद दूतको पुकारा, और यह कहा, "जाकर विराधितसे काही कि सुग्रीव शरणमें आ गया है। इस प्रकार प्रिय वचनोंसे उसने दूतको विसजित किया। वह दूत भी मान और मत्सर से रहित होकर गया । पाताल-लंका नगर में प्रवेश कर, उसने अभिवादन के साथ, विराधितसे पूछा, "सुतारा को लेकर मायासुग्रीव से पराजिल असली सुग्रीव आपकी शरण में आया है । उसे प्रवेश दूं या नहीं ?" ॥१-१२॥