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सत्तचालीसमो संधि
E [७] अपने मनमें विशुद्ध रूपसे यह विचारकर हनुमानने अपनी विद्याके प्रभावसे समुद्रका सारा पानी खींचकर मूसलाधार धाराओंमें उसे बरसा दिया जिससे जलती हुई आग शांत हो गई, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार क्षमाभावसे बढ़ता हुआ कलियुग शांत हो जाता है। इस तरह उस उपसगको दूरकर शत्रुसंहारक हनुमान उन मुनियोंके निकट पहुँचा । उसने अपने हाथोंसे पूजा और भक्तिकर उनकी खूब वंदना की। उन मुनियोंने भी हाथ उठाकर हनुमानको कल्याणकारी आशीर्वाद दिया | इसी अवसरपर विद्या सिद्धकर और मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणाकर, केलेके गाभकी तरह सुकुमार, अलंकारोंसे सहित उन कन्याओंने आकर भद्र-समुद्र मुनियोंके चरणों में प्रणाम किया। उन्हान हनुमानको खूप-खूब साधुवाद दिया। उनके सम्मुख स्थित वे तीनों सुशील कन्याएँ ऐसा मालूम हो रही थी मानो त्रिकालकी तीन सुंदर लोलाएँ ही हों ।।१-६॥
[८] उन्होंने बार-बार हनुमानकी प्रशंसा करते हुए कहा कि “इतनी सुभटळीला भला किसी दूसरेको क्या सोह सकती है। आपने बहुत अच्छा धर्मवात्सल्य प्रकट किया कि उपसर्गका नामतक मिटा दिया। हे सुंदर, यदि आप आज यहाँ न आते तो न तो हम तीनों बचती और न ये दोनों मुनिवर ।” यह सुनकर हनुमानको रोमांच हो आया । वह अपनी दंतपंक्ति दिखाते हुए बोले कि "आप तीनों बहुत ही विनयशील जान पड़ती हैं । आपकी निवास भूमि कहाँ है। और आप किसकी पुत्रियाँ हैं, वनमें आपलोग किसलिए आई, और यह अनिष्ट उपसर्ग किसने किया ?" हनुमानके ये पचन सुनकर, चंद्रलेखाने हँसकर कहा-"हम तीनों दधिमुख राजाकी पुत्रियाँ हैं, शायद अंगारफने हमारा वरण कर