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छप्पण्णासमी सधि
. २५१ तमतमा रहे थे और नेत्र रक्त कमलकी तरह आरक्त थे। इसी बीचमें रावणके अनुचरने मकरहरी (सामुद्री) विद्या छोड़ी। वह गरजती, गुल-गुल करती और तटपर नरगोंका समूह उछालती हुई दौड़ी, तत्र इधर युद्धके प्रांगणमें जयश्रीके लोभी, नलने विरुद्ध होकर, सामर्थ्य के साथ नहीधर विद्याका प्रयोग किया। वह समस्त जलको समाप्त करती हुई पहुँची । इस प्रकार उस माया समुद्रको नष्टकर और विद्याधरकरणसे उसे उन्मूलन कर नलने समुद्रके ऊपर और नीलने सेतुके ऊपर उड़कर, उनके सिर-कमलको बलपूर्वक पकड़कर, रामके चरणों में रख दिया ॥१-६॥
[१३] जब उन्होंने सेतु और समुद्रको ला दिया तो रामने उन दोनोंका समान रूपसे आदर किया। उन्होंने भी प्रसन्न होकर अपने हाथसे कुमार लक्ष्मणको अपनी सत्यश्री, कमलाक्षी, विशाला, रत्नचूला और गुणमाला, ये पाँच कन्याएं देकर सीतापति रामकी सेवा स्वीकार कर ली । एक रात बीतनेपर जैसे ही प्रभात हुआ, सूर्योदय होने पर रामने कूच कर दिया । तब उनकी सेनाको सुबेल पहाड़ मिला। उस पर भी सुबेल नामक एक विद्याधर था। वह गजकी तरह गरजकर, अपने भयंकर धनुषको टेकारकर दौड़ा। लेकिन जब तक वह युद्ध-प्रांगण में लड़े या न लड़े, तब तक सेतु और समुद्रने उसका निवारण कर दिया। उन्होंने कहा, "जो दूसरे जनपदमें जाकर इस प्रकार युद्ध कर रहे हैं, उन रामके पैरों में गिर पड़ो । अपना बात मत करो" ||१-६॥
[१४] सब सुबेल रामके सम्मुख झुक गया मानो प्रथमजिन (आदिनाथ) के सामने श्रेष्ठ श्रेयांस झुक गया हो। एक रात ठहरकर सेना चल दी, मानो भ्रमरोंसे आच्छन्न कमलवन हो, मानो