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पद्मचरित
तैतालीसवीं सन्धि ठीक इसी अवसरपर किष्किंधपुर में राजा सहस्रगति बनावटी सुग्रीव बनकर असली सुग्रीवपर उसी प्रकार टूट पड़ा जैसे एक हाथी दूसरे हागा दूर पड़ता है।
(१) असली सुपीव अपने प्रतियोगी (नकली सुग्रीव ) को नहीं जीत पाया । अपना मान कलंकित होनेसे वह म्लान हो रहा था । माया सुग्रीवका पराभव उसके हृदयमें काँटे जैसा चुभ रहा था । वनौवन भटकता हुआ वह खर-दूषणके युद्ध में पहुँच गया । उसने बहाँ देखा कि सारी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गई है। वह तीरों
और खुरपोंसे तिल-तिल काटी जा चुकी है। कहीं रोंके सैकड़ों टुकड़े पड़े थे, कहींपर निर्जीव अश्व थे, कहींपर गजघटा लोटपोट हो रही थी, कहींपर पक्षिसमूह योधाओंके शव खा रहे थे, कहींपर ध्वजचिह्न छिन्न-भिन्न पड़े हुए थे, कहींपर धड़ नृत्य कर रहे थे और कहींपर रथ, अश्व और गजोंके आसन शून्यासनको • तरह घूम रहे थे। किष्किंधराज सुग्रीवन जब उस भयभीषण युद्धको देखा तो उसे ऐसा लगा मानो लक्ष्मण रूपी महागजने ( घुसकर ) कमलवनको ही ध्वस्त कर दिया हो ॥५-६।
[२] उस भीषण रणको देखकर उसने खर-दूषणके सगे सम्बन्धियोंसे पूछा, "यह कैसा आश्चर्य, किसने सेनाको इस तरह जर्जर कर दिया ।" यह सुनकर खर-दूषणके एक सम्बन्धीने भारी हृदयसे कहा कि "राम और लक्ष्मण नामक, दशरथके दो पुत्र वनवासके लिए आये हैं । उनमें लक्ष्मण अत्यन्त दृढ़ मनका है और