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एक्कवण्णासमो सन्धि [१३] जहाँ-जहाँ पवनसुत घूमता, वहाँ-वहाँ सेना ठहर नहीं पाती। अपने कांतके क्रुद्ध होनेपर सुकलत्रकी तरह (वह सेना) न नष्ट ही होती और न पास ही पहुंच पाती । सुकलन की तरह वह आई-आई जाती थीं । सुकलत्रकी तरह भृकुटि के सम्मुख नहीं ठहरती थी। सुकलत्रकी तरह विपरीत नहीं देखती थी। सुकल की तरह वह मन ही मन पीड़ित थी। सुकलत्र की तरह हट जाती थी। सुकल की तरह हाथ धुनती थी । सुकलत्रकी तरह छिपती हुई जाती थी। सुफल की तरह पसीना-पसीना हो जाती । सुकल की तरह रोषसे मुड़ पड़ती थी। सुकलत्रकी तरह निकट आते ही स्खलित हो जाती थी। सुकल की तरह वह अत्यंत संकुचित हो रही थी। सुकलत्रकी भांति उसके नेत्र मुकुलित थे । सुकलत्रकी तरह उसकी 'कुटी टेढ़ी मेढ़ीहो रही थी । सुकल की भांति ही वह सेना सामने-सामने ही दौड़ रही थी। हनुमान उसे रोकता, बुलाता और पास पहुँच जाता। कभी उसे घेर लेता, मुड़ता, दौड़ता और उसे पीड़ित करता। किन्तु वह सेना पोटी जाकर भी सुयाल सकी भांति अपना रास्ता नहीं छोड़ रही थी।।१-१०॥
[१४] हुलि, हल, मूसल, शूल, सर, सबल, पट्टिश, फलिहा भाला, गदा, मुद्गर, भुसुंडि, शस, कोत, शूली और परशु चक्रसे सेनाने जब युद्ध में उछन्नते हुए हनुमानको आहत कर दिया, तब दृतभुज उसने भी रावणकी सेनाको चपेट डाला । चमरसे चमर, छबसे छत्र, कोतसे कोत, खंगसे खंग, ध्वजसे ध्वज,