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दुषणासमो संधि
१८५ कभी अप्रमाणित नहीं जाता । तुम और मैं दोनों हनुमानके हाथसे वायुधके पथपर जायेंगे इतनेपर भी यदि तुम अपना हित नहीं समझते तो युद्ध करो, मैं भी वाहनसहित मायावी सेना उत्पन्न कर एक क्षणके लिए तुम्हारी सहायता करूंगी।" ॥१-८||
[1] यह कहकर विद्याने अनंत सेना उत्पन्न कर दी जो मेघफुलकी तरह दसों दिशाओंमें फैल गई। जल, थल, आकाश और भुवनांतरमें भी वह नहीं समा पा रही थी। वह हाथमें अस्त्र लेकर हनुमान पर दौड़ी। किसीने महाकुल अग्नि ले ली, किसीने जनसंतापकारी, हुतवह ले लिया। किसीने वटका पेड़ उखाड़ लिया, किसीने अंधकार, तो किसीने पवन । किसीने जलधाराघर वारुण, तो किसीने अत्यंत भयङ्कर दिनकर अस्त्र ले लिया। किसीने नाग-पाश और किसाने मेघ ही ले लिया। इस प्रकार योधागण दौड़ पड़े । तब अभिनव सेनाका विचार करते हुए हनुमानने भी अपनी 'पण्णन्ति' प्रज्ञप्ति विद्याका चिंतन किया। यह "आज्ञा दो" यह कहती हुई आ पहुँची। वह भी विद्यामयी सेना रचकर दौड़ी। दोनों सेनाएँ आपसमें टकरा गई। जल-थल दोनों मिलकर एक हो गये । दोनोंकी ध्वजाएँ उड़ रही थीं और तूर्य बज रहे थे, मानो अति कर कलिकालके मुख ही हो। विक्रमके सारभूत हनुमान और अक्षयकुमारमें शस्त्रांसे सघन युद्ध हुआ, इन्द्रने भो उसे देवसमूहके साथ ऐसे देखा मानो इन्द्रजाल हो ॥१-१||
[] दोनों हो सेनाऑको जयश्रीके विस्तारकी चाह हो रही थी, वे युद्ध में प्राणों के लिए भयङ्कर तीरोसे प्रहार कर रही थीं। उनके अघर काँप रहे थे और योधाओंकी भौहें भयकर हो रही थीं । एक दूसरेपर बाणोंका जाल छोड़ रहे थे। कहीं