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लियालीसमो संधि
हे मित्र, सुनो! मैं सात दिन तुम्हारी स्त्री तारादेबीको ला दंगा, यह समझ लो । तुम्हें किष्किानगर का भोग कराऊंगा और छत्र तथा सिंहासन दिखाऊँगा। इसके सिवा तुम्हारे शत्रु का नाशकर दंगा । चाहे नर अपने मित्र कतान्त द्वारा श्री रचित यो न हो । ब्रह्मा, सूर्य, ईश्वर, वह्नि, चन्द्रमा, राहु, केतु, बुध, बृहस्पति, गुरु, शनीचर, यम, वरुण, कुबेर और पुरंदर, ये भी मिलकर यदि उसकी रक्षा करें तो भी वह तुम्हारा शत्रु मुझसे जीवित नहीं बचेगा । यदि मैं इतनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं करता और सज्जनों को धीरज नहीं बंधाता तो हे सुग्रीव, विश्वास करो, मैं सातवें दिन संन्यास ले लूंगा॥ १-६|
[१०] प्रतिज्ञा पर आरूढ़ होकर जब श्रीराधन चले, तो उनका अशेष संन्यदल भी चल पड़ा। दुनिवार बिराधित भी चला । सुग्रीव, राम, कुमार, लक्ष्मण ये चारों मित्र ऐसे चले मानी कलि-काल और कृतान्तके मित्र ही चले हों। मानो चारों ही दिग्गज चल पड़े हों या मानो चारों क्षयसमुद्र ही चलित हो उठे हों, या चारों देवनिकाय ही चल पड़े हों, या चारों कषाय ही चलित हो उठे हो । या ब्रह्मा के चारों वेद ही चल पड़े हों या साम, दान, दंड और भेद जा रहे हों। अथवा इतने सब वर्णन से क्या लाभ, वे चारों अपनी ही उपमा बनकर चले । थोड़ी ही दुर चलने पर उन्होंने (सुग्रीव-राम-लक्ष्मण-विराधितने) किष्किय पर्बन देखा । तरलतमाल वृक्षों से आछन्न वह पर्वत, जिनधर्म की तरह सावयों [श्रावक और वृक्षविशेष ] से मुन्दर था, और जो ऐसा लगता था मानो भूमिके उच्च सिर-कमल पर मुकुट रखा हो
[११] थोड़ी दूर पर उन्हें धन-कंचन से भरपूर किठिकधनगर दिम्बाई दिया। वह ऐसा लगता था मानो तारों से मंडित आकाश हो या कपिध्वजों से आगढ़ काव्य हो। मानो हनु (हनुमान या चिबुक) से विभूषित मुखकमन्न हो। मानो नल