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छयालीसवीं सन्धि रामका सन्देश और अंगूठी पाफर, पुलकितशाहु हनुमान सीताकी खोज करने चल पड़ा।
[१] विमानमें बैठा हुआ वह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशमें रथसहित सूर्य ही जा रहा हो, उसका विमान मणि किरणांकी कांतिसे चमक रहा था, वह निशा चन्द्रके समान चन्द्रकान्त मणियोंसे जड़ा हुआ था। ऊपर, सुन्दर चन्द्रशालासे विशाल था। वह घण्टोंकी टन टन ध्वनिसे मंकृत हो रहा था । सनमुन करती हुई किंफिणियोंसे मुखर था। घर-घर और घर-घर शब्दसे गुंजित था, हषासे उड़ती हुई, ऊपर सफेद ध्वजाओंके विस्तृत आटोपसे नाच-सा रहा था। वह सनदाहसे उम्रत, सफेद सुन्दर चमरौके भारसे भारवर था । उसमें मणियोंके झरोखे, छज्जे, किवाड़ और तोरणद्वार थे, तथा मणियों और प्रवालों और मोतियोंके झूमर लटक रहे थे। महराते हुए भ्रमरों का समूह उसको चूम रहा था, मन्दराचल पहाइपर स्थित जिनालयकी जिनप्रतिमाकी तरह, वह, पटाह, मृदंग और उत्तालकसे साहित था । आकाशमें जाते हुए उसने विद्याधरोंके राजा महेन्द्रका नगर शनीचर की भाँति देखा | उसमें चार द्वार, चार गोपुर और चार परकोदे थे और वह उढ़ती हुई पताकाओंसे व्याप्त था ।।१-१०॥
[२] महेन्द्र पर्वतपर स्थित वह नगर लक्ष्मोसे भरपूर, और धनधान्य तथा ऋद्धि-वृद्धिसे व्याप्त था। उसे देखकर हनुमानको ऐसा लगा मानो इन्द्रने स्वर्गको ही नीचे गिरा दिया हो । पूछनेपर, कमलनयनी अवलोकिनी विद्याने कहा, "देव, इस नगरमें वही महासासी दुष्ट और हृदय राजा महेन्द्र रहता है, जिसने जनमनको आनन्द देनेवाले तुम्हारे प्रसवकालमें