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पण्णासमो संधि
१५३ नहीं। हे वत्स, अपने कुलघर भी जाना हो तो भी पतिके बिना जाना ठीक नहीं। फिर जनपदके लोग निन्दाशील होते हैं उनका स्वभाव दुष्ट और मन मलिन होता है। जहाँ जो बात अयुक्त होती है वे वहीं आशंका करने लगते हैं । उनके मनका रंजन इन्द्र भी नहीं कर सकता। इसलिए निशाचर दशाननका वध होनेपर 'जय जय शब्द' पूर्वक श्रीरामके साथ अपने जनपद जाऊँगी। हे वत्स ! तुम जाओ मैं यही हूँ। लो, यह मेरा चूडामणि । निर्मल दशरथकुल उत्पन्न श्रीरामको पहचान (प्रतीक) रूप में यह अपित कर देना ॥१-१०॥
[१३] और भी गुणधन, उनका आलिंगनकर मेरा यह संदेश कह देना, 'हे राम, तुम्हारे वियोगमें सीता देवी रेख भर रह गई है। किसी प्रकार वह मरी भरं नहीं, यही बहुत है। वह (मैं) राहुनस्त चन्द्रलेखाकी तरह क्षीण हो गई है। तपसे हीन इन्द्रकी ऋद्धिकी तरह क्षीण है। कुदेशमें निवास की तरह वह क्षीण है। मूर्खके मुंहमें कविकी सुवाणीकी तरह क्षीण है। सूर्यदर्शन होनेपर निशाफी तरह क्षीण है। कुजनपदमें जिनभक्तिकी तरह क्षीण है । दुभिक्षमें अर्थसम्पदाकी भाँति क्षीण है। वह चरित्रहीनकी कीर्तिकी तरह क्षीण है । खोटे घरमें कुलवधूकी तरह क्षीण है। युसमें दुरि वैरियोंको पराजित करनेवाले कुमार लक्ष्मण से भी मेरा यह सन्देश कह देना कि लक्ष्मण, तुम्हारे रहते हुए भी सीता देवी रो रही है। न तो देवोंसे, न दानवोंसे, और न चैरीविदारक रामसे रावणका का वध होगा। केवल तुम्हारे भुजयुगल से रावणका वध होगा ॥१-१०॥