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छप्पण्जासमो संधि
हुए पवित्र नारी। हाथमें दहीका घड़ा लिये हुए उत्तम कन्या, निर्धूम आग, अनुकूल पवन, और प्रियसे मिलाने वाला, कोएका काँव-काँव शब्द । इन्हें देखकर यशसे उन्नत जाम्बवन्तने रामसे कहा, "हे देव ! आप धन्य हैं, आपका यह गमन सफल है, भला इतने सुनिमित्त किसे मिलते हैं। तब रामने हँसकर कहा, "विश्रके आधार स्ता महारक जिनको हमें भागकर यात्रा कानसे ही ये सुनिमित्त अपने आप हुए" ||१-६।।
[६] गमको सेनाके प्रस्थान करते ही, वाहनसे वाहन टकराने लगे, चिह्नसे चिह्न, रथवरसे रथ, छन्नसे छत्र, गजवरसे गजवर, तुरगसे तुरग, नरसे नर, चरणसे चरण, करतलसे करतल भिड़ने लगे । रण-ससे भरी हुई सेना आकाशमें नहीं समा सकी, वह देवागमनके समान जा रही थी ! थोड़ी दूरपर उन्हें महासमुद्र दीख पड़ा । वह शिशुमार, मगर और जलचरोंसे रौद्र था । मच्छधर, नक और ग्राहसे घोर, और स्थूल तरंगोंसे तरंगित था । फेनसे उज्ज्वल तोय और तुषारसे युक्त उसका बहुत बड़ा तट था ?? रामकी सेना उसपर ठहर गई मानो मेघ जाल ही नभतलमें ठहर गया हो। विमानोंपर आरूढ़ राजाओंने लवण समुद्र उसी तरह लाँघ लिया जैसे सिद्धालयको जाते हुए सिद्ध पार गतियों वाले भव-संसारका अतिक्रमण कर जाते हैं ॥१-६।।
[१०] उस सागरके मध्यमें थोड़ो दूरपर, देवोंको भी असाध्य वेलंधर नगर था, उसमें रहने वाले सेतु और समुद्र नामके दोनों विद्याधर भयंकर युद्ध करनेके लिए आगे आकर स्थित हो गये। उन्होंने कहा, "मरो, तुमपर आज कृतांत क्रुद्ध हुआ है। इन्द्रका राज्य कौन हरण कर सकता है, भीषण ज्यालमालामें कौन