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तियालीसमो संधि [४] यह सुनकर विराघितने हर्षपूर्वक कहा, "भीतर ले आओ। सचमुच मैं धन्य हुआ कि जो किष्किंधानरेश, स्वयं अभिमान छोड़कर मेरी शरणमें आये |" तब सम्मानित होकर दूत वापस गया और आनन्दके साथ अपने स्वामीको लेकर फिर आया । इतनेमें तूर्य-ध्वनि मुनकर राघबने विराधितसे पूछा, "सेना लेकर यह कौन रोमांचित होकर आता हुआ दीख पड़ रहा है।" यह सुनकर, नेत्रांनददायक चन्द्रोदर पुत्र विराधितने कहा, कि सुप्रीव और बालि ये दो भाई-भाई हैं। उनमेंसे बड़ा भाई संन्यास लेकर चला गया है। और इसको किसी दुष्टने पराजय देकर वनवासमें डाल दिया है । यह, सररवका पुत्र, बिमळमति ताराका स्वामा और वानरध्वजी, वही सुप्रीव है जिसका नाम कथा-कहानियों में सुना जाता है ।।१-६॥
[५] इस प्रकार राम-लक्ष्मण और विराधित, बातें हो ही रही थीं कि इतनेमें उन्होंने सुग्रीवको वैसे ही देखा जैसे आगम त्रिलोक और त्रिकाल को देखते हैं । आते हुए वे ऐसे लगे मानो चारों दिग्गज एक साथ मिल गये हो । जाम्बवन्सने उन्हें बैठाया। तदनन्तर आदर पूर्वक लक्ष्मणने सुग्रीवसे पूछा कि तुम्हारी पत्नी का अपहरण किसने किया । यह सुनकर जाम्बवन्त अपना माथा मुकाकर सारा वृत्तान्त सुनाने लगा । ( उसने कहा कि जब सुपीव वनक्रीड़ा करने के लिए गया था तो माया सुपीव उसके घरमें घुस. कर बैठ गया | बालिका अनुज सुग्रीव जब अपने मन्त्रियोंके साथ घर लौटा तो कोई भी यह पहचान नहीं कर सका कि उन दोनोंमें असली राजा कौन है । सबके मनमें आश्चय हो रहा था । इतने में कुतूहलजनक दो सुग्रीव देखकर, असली सुमीवकी सेना हर्षसे