________________
चउयालीसमो संधि
"आठ कर्मों का दलन करने वाले आपकी जय हो। आप कामका संग निवारण करने वाले, प्रसिद्ध सिद्ध शासनमें रहनेवाले, मोह के धनतिमिर को नष्ट नेपाल, कषाय और नायाब रहित, त्रिलोक द्वारा पूज्य, आठ मदोंका मर्दन करनेवाले, तीन शल्योंकी लताका उच्छेद करनेवाले हैं।" इस प्रकार उसने विभुतियोंसे परिपूर्ण स्वामी महादेव जिनेन्द्र की स्तुति की। जिनका न आदि है न अन्त है। न अन्त है, न मूल है। न चाप है न त्रिशूल । न कंकाल माला है और न भयंकर दृष्टि । न गौरी है न गंगा। न चन्द्र है न सर्प । न पुत्र है न स्त्री। न ईर्ष्या है और न चिता । न काम है और न क्रोध । न लोभ है न मोह । न मान है और न माया । और न साधारण छाया ही है। इस प्रकार जिनवर स्वामी को प्रणाम करके सुगतिगामी सुग्रीव ने यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं सीतादेवी का वृत्तान्त न लाऊं और जिनदेवको नमन न करूं तो मेरी गति संन्यास को हो (अर्थात् मैं संन्यास ग्रहण कर लूंगा" || १.१५॥
[६] यह कहकर उसने अपनी अनिर्दिष्ट वाहनबाली विद्याघर सेनाको पुकारा और उसे यह आदेश दिया कि जहाँ पता लगे वहाँ जाकर वह सीतादेवी की खोज करे । इस पर अंग और अंगद उत्तर देशकी ओर गये। गवय और गवाक्ष आधे पूर्वकी ओर । नल, कुंद, इन्द्र और नील आधे पश्चिमकी ओर गये। स्वयं सुग्रीव अपनी सेना लेकर दक्षिणकी ओर गया। प्रसन्नमन जाम्बवंत भी उसके साथ था । आदरणीय वे दोनों विमान में बंटकर चल पड़े। और पल भर में कम्बू द्वीप पहुंच गये । वहाँ पर उन्होंने विद्याधर रत्नकेशी का ध्वज देखा । कपित, चलता और विपरीत दिशा में मुड़ता हुआ दीर्घ दंडवाला और पवन से आंदो