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दुवण्णासमो संधि
अभाग्य मानो उसपर छाया हुआ था। इसलिए उन सैकड़ों अपशकुनोंकी उपेक्षाकर वह हनुमानके सम्मुख इस तरह दौड़ा मानो दीर्घ पूँवाले सिंहके पीछे सिंह दौड़ा हो ॥१-१
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[२] इसी बीच में उसके प्रवर सारथीने पूछा कि युद्धके प्रांगण में आप किससे लड़ेंगे। मैं तो अश्व, गज और ध्वज-चिह्न कुछ भी नहीं देख रहा हूँ फिर रथ किसके सम्मुख हाँकेँ । यह सुनकर, समस्त प्रतिपक्षका संहार करनेवाले अक्षयकुमारने उत्तर में सारथी से कहा कि सैकड़ों युद्धोंमें यशस्वी हनुमानके सम्मुख मेरा रथ हाँक ले चलो। तुम रथ वहाँ हाँककर ले चलो जहाँ चूर-चूर हुए अश्वों और नरवरोंके साथ रथबर हैं। रथबरको हाँककर रथ तुम वहाँ ले चलो जहाँ फूट सिर और भग्न शरीवाले गज हैं। तुम रथ वहाँ हाँक ले चलो जहाँ छत्र, कमलकी तरह धरती पर बिखरे हैं, तुम रथवरको वहाँ पर हाँक ले चलो जहाँ पर घड़ लोट-पोट रहे हैं। तुम रथको वहाँ हाँक ले चलो जहाँ मज्जा और माँसके लोभी गीध मँडरा रहे हो। तुम रथवर वहाँ हाँक ले चलो जहाँ नन्दनवन इस प्रकार ध्वस्त कर दिया गया है मानो विदग्धने (किसी का) यौवन हो मसल दिया हो । सारथिपुत्र यह है हनुमान और यह है रावणपुत्र अक्षय कुमार । युद्धरत दोनोंकी यह सेना है । जिस प्रकार हनुमानको माँ उसी प्रकार मन्दोदरी ( अक्षय की माँ ) दुख के आंसू गिरायेगी ॥१- १० ॥
[३] जब सारथीने यह देखा कि कुमार अक्षय रणरस (वीरता) से भरा हुआ है तो उसने हनुमानके सम्मुख रथ बढ़ा दिया | रणस्थल में पहुँचते ही हनुमानने उसे इस प्रकार देखा मानो समुद्रने गंगा के प्रवाहको देखा हो । रथ देखकर हनुमान
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