________________
तिवण्णासमो संधि तरह कोमल सिर गिर पड़ा। उसका शरीर हड़ियोंकी पोटली बन गया । यह खबर, शीत्र ही, मय, मारीच और अन्तःपुरके दूसरे अनुचरोंके पास पहुँची। तब, अपने मनमें पवनसुतको मारनेका संकल्पकर निशाचरनाथ रावणने क्रुद्ध होकर, रणरस लुब्ध चन्द्रहास खनको अपने हाथमें ले लिया ॥१-१०॥
अपनी सन्धि विभीषणने रावणसे कहा, "लो, आज भी अपना काम भव बिगाड़ो, महासती सीता देवी रामको सौंप दो।
[१] हे भुवनैकसिंह, विश्रब्ध जीव ! तुम्हारी यह क्या मति हो गई है। आज भी, प्रसिद्धनाम रामके पास जाकर सन्धि कर लो। आज भी जानकीको ले जाओ। दुनियामें कोई भी इस बातको नहीं जानेगा । आज भी सीताका सम्मान करो, और अपनी सेनामें कुलक्षय मत करो । आज भो सन्देह भरे संसारमें मत घूमो । आज भी तुम शिविका यानमें बैठकर अपने उद्यानोंमें विहार करो । आज भी, तुम विश्वको सतानेवाले वहीं राषण हो,
और सीता देवी भी वहीं हैं। आज भी तुम्हारी बड़ी कुशोदरी मन्दोदरी प्राणप्रिय है । आज भी वे ही रय हैं, यही नरवरीका आगमन है । चे हो. अश्य हैं, वही सेना है। वे ही प्रसाधन हैं। और वे ही गज है। आज भी तुम्हारे हाथमें, गजसिरोंको स्वण्डित करनेवाला खड्न हैं। आज भी भटसमुद्र, यशके आकरको प्राप्त करनेवाले तुम रणमें अजेय हो। आज भी तुम प्रवर असवाले हो । तब तक, अबतक कि राम नहीं आते, और आज जब तक