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ससचालीसमो संधि
लिया था। उसी समय एक केवलज्ञानीने यह बात प्रकट की कि जिससे सहस्रगतिका भरण होगा, और जो कोटिशिला उठायेगा, वही इनका भावी वर होगा" ॥१-६।।
[६] जब यह बात हमारे कानों तक आई, तो इसी कामसे हम लोग वनमें प्रविष्ट हुई। हम लोग यहाँ आराधना प्रारम्भ करके बारह दिनों तक बैठी रहीं। तब उसपर अंगारकने ऋद्ध होकर वनमें आग लगा दी, तब भी हमारा मन बदला नहीं, बस यही हमारी कहानी है" | तब इसके अनन्तर, पुलकितबाहु हनुमानने हँसकर कहा, "आप लोगोंने जो सोचा था वह हो गया । सहस्रगतिका मरण हो चुका है, जिससे हुआ है, हमारे स्वामी हैं। दुनिया में कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सका। उन्हींके पास आपका मनोरथ पूरा होगा" | जब उनमें इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि इतनेमें अपनी पत्नी सहित, दधिमुख राजा, पुष्प और नैवेद्य हाथमें लेकर आ पहुँचा 1 गुरुको प्रणाम और स्तवनकर उसने हनुमानके साथ संभाषण किया ॥ १-६॥
[१०] बातचीतके अनन्तर, लघुशरीर हनुमानने राजा दधिमुखसे कहा, "हे राजन् , तुम महीधरचिह्नवाले किष्किंध नगर अपनी लड़कियाँ लेकर जाओ। नारायणके बड़े भाई वहीं हैं जो केवलियों द्वारा घोषित इनके वर हैं। युद्ध में उन्होंने विजयार्धश्रेणिके राजा सहस्रगतिको मार डाला है। हे तात, अभिनय भोगवाली ये कुमारियाँ, राघवचन्दके ही योग्य हैं, मैं फिर लंका जाऊँगा जहाँ अपने स्वामीकी ही सेवा करूँगा"। यह सुनकर दधिमुख वहाँ से चल पड़ा। वह उस किष्किंध नगरमें जा पहुँचा जो सम्मान दान और युद्धमें प्रमुख था । तष सुप्रीवने जाकर,