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तियालीस मो संधि
१५.
( नाल या सरोवर ) से सहित कमल हंस रहा हो। मानो नील ( मणि या व्यक्ति विशेष ) से अलंकृत आभरण हो । मानो कुंद ( फूल और व्यक्ति) से प्रसाधित विपुल वन हो । मानो सुग्रीववान् (सुग्रीव या ग्रीवा सहित) सुन्दर हंस हो । मानो मुनीन्द्रों का स्थिर ध्यान हो । वह नगर माया-सुग्रीव के द्वारा उसी प्रकार मोहित हो रहा था जिस प्रकार कुशल व्यक्ति कामिनी के हृदय को मुग्ध कर लेता है । उसी अवसर पर कल-कल करते हुए बड़े-बड़े युद्धों में समर्थ, बहुसम्मान और दान का मन रखनेवाले जाम्बवंत, कुंद, इन्द्र, नील, नल, लक्ष्मण विराधित और रामने सुग्रीव के ऊपर घोर संकट आने पर उस किष्किंधानगरको वैसे ही घेर लिया जैसे नव धन सूर्य मंडल को घेर लेते हैं ।। १-६ ॥
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[१२] समस्त नगर का घेरा डालकर कपटी सुग्रीव के पास दूत भेजते हुए सुग्रीव, राम और लक्ष्मण ने उसी क्षण यह संदेश भेजा, "बहुत कहने से क्या उससे वास्तव बात इस प्रकार कहना कि जिससे वह लड़े और प्राणों सहित नष्ट हो जाय ।" यह वचन सुनकर द्रुत कर्पूरचंद चल पड़ा मानो क्षयकाल का दंड ही जा रहा हो । वहाँ उसने सभामंडप में प्रवेश किया जहाँ दुर्जेय माया-सुग्रीव था। राम-लक्ष्मणने जो सन्देश भेजा था उसे तत्काल सुनाते हुए उसने कहा, "आज भी तुम अपने इस काम को मत बिगाड़ो, नहीं तो कहाँ की तारा और कहाँ का राज्य । अपने प्राणों सहित नाश को प्राप्त हो जाओगे, तुम निश्चय ही जीवित नहीं छूट सकते । हे विसुग्रीव, तुम सुग्रीवका भी संदेश सुनो। उसने कहा है, "तुम्हारे सिर-कमल के साथ मैं अपना राज्य लूंगा" ॥ १-६ ॥
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[१३] यह वचन सुनते ही, उद्भट मुख, दुष्ट, कपटी सुग्रीव ने क्रुद्ध होकर अपनी सेनाको यह आदेश दिया - "फैल जाओ.