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पनवण्णासमो संघि
२३५ ले गये । तब राम लक्ष्मणने भी आते हुए उसे देखा। वनवासमें घूमते हुए, दैवके परिणामसे उनका जो यश नष्ट हो गया था अब पुण्योदयकालसे वह फिरसे उन्हें लौटता हुआ दिखाई दिया ।।१-१०॥
[८] तब त्रिलोकचक्रको अभय देनेवाले रामके चरणोपर हनुमान गिर पड़ा। उनके चरणकमलोपर उसका सिर ऐसा जान पष्ट रहा था मानो नीलकमलमें मधुकर ही बैठा हो। रामने उसे अपने हाथोंसे उठाकर, कुशल आशीर्वाद दिया । कण्ठा, कटक, मुकुट और कटिसूत्र सब कुछ देकर, राम अपने मनमें उद्दी हो उठे । हनुमानको उन्होंने अपने आधे आसनपर बैठाया । सीताने जो चूड़ामणि भेजा था, वह हनुमानने पहचानके लिए उज्ज्वलनाम रामको दाई हथेलीपर रख दिया। उस समय जो परितोप रामको हुआ वह शायद सीताके विवाहमें भी कठिनाईसे हुआ होगा । तब रामने कहा-"आज भी मेरा हृदय शान्तिको प्राप्त नहीं हो रहा है, हनुमान तुम शीघ्र कहो कि वह मर गई या जीवित है ॥१-६॥
[.] तब, जिन-चरणकमलके सेवक रामसे हनुमानने कहा-“हे देव, जानकीको मैंने प्रतिदिन तुम्हारा नाम लेते हुए.जीवित देखा है। जिस समय निशाचर उन्हें सताते, उस प्रतिकूल अवसरपर मी, तुम्ही उसके इस लोकके स्वामी हो और परलोक के भट्टारक अरहंत साधुकी तरह वह परमात्माका ध्यान करती है, उपवास आदिसे आत्मक्लेश करती रहती है । मैंने जाकर खियाके बीचमें बाईस दिन में उन्हें पारणा कराई। जब मैंने प्रणाम करके अँगूठी दी तो उन्होंने मुझे यह चूड़ामणि अर्पित किया । और भी देव, यह पहचान है कि आपने गुप्त और सुगुप्त मुनियोंको दान