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यदि जननी कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इसके अध्ययन मनन के बिना हिन्दी, गुजराती आदि आज की इन भाषाओं का विकासक्रम भलीभांति नहीं सममा जा सकता है। इस क्षेत्र में शोध-खोज कर रहे विद्वानों का कहना है कि उत्तर भारत के प्रायः सभी राज्यों में, राजकीय एवं सार्वजनिक ग्रन्थागारों में, अपभ्रंश की कई-कई सो हस्तलिखित पाण्डुलिपियों जगह'जगह सुरक्षित हैं जिन्हें प्रकास जान, यसश्यक । बात है कि इधर पिछले कुछेक वर्षों से विद्वानों का ध्यान इस ओर गया है। उनके सत्यस्नों के फलस्वहा अपभ्रंप की कई महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाण में भी आई हैं । भारतीय ज्ञानपीठ का भी इस क्षेत्र में अपना विशेष योगदान. रहा है। मूर्तिदेवी अन्यमाला के अन्तर्गत ज्ञानपीठ अब तक अपनं पा की लगभग २५ कृतियां विभिन्न अधिकृत विद्वानों के महयोग से सुसम्पादित रूप में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित कर चुका है। प्रस्तुत कृति 'मपरिउ' उनमें से एक है।' ____ मर्यादापुरुषोत्तम राम के चरित्र से सम्बद्ध पउमरिउ के मूल-पाठ के सम्पादक हैं डॉ० एच. सी. भायाणी, जिन्हें इस ग्रन्थ को प्रकाग में लाने का श्रेप तो है ही, साथ ही अपभ्रंश की व्यापक सेवा का भी श्रेय प्राप्त है। पांच भागों में निबद्ध इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादक रहे हैं : देवेन्द्र कुमार जैन। जन्होंने इस भाग के संस्करण का संशोधन भी स्वयं कर दिया था । फिर भी विद्वानों के सुझाव सादर आमन्वित हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ के पथ-प्रदर्शक ऐसे शुभ कामों में, आशातीत धनराशि अपेक्षित होने पर भी, सदा ही तत्परता दिवाते रहे हैं । उनकी तत्परता को कार्य रूप में परिण करते हैं हमारे सभी महकर्मी । इन सबका आभार मानना अपना ही आभार मानना जैसा होगा। ,
श्रुतपंचमी, ८ जून, १९८६
गोकुल प्रसाद न
उपनिवेशक • भारतीय ज्ञानपीठ