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पढमचरित
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जण विमामि भुजदण्ड तासु । सभ होमि तु वसु ॥५॥ किष्किन्धराउ | सहाँ उप्पर गहरावन्तु नाउ ॥७॥ कप्टइय- देश | णव पाउलें णं जरू भरिय मेह ||८||
तं वययु सुर्जे वि ते भिडिय वे वि
घत्ता
असि - वाघ - गथ मोग्गरें हिं जिह सकिउ सिंह जी हवन्ते अण्णामेण सिंह अप्पड पर वि न च
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जं विहि मि मज्य एक विणणाउ । राउ बले वि पढीच पवणजाउ || १॥ सुग्गी व पाण लपविणद्दु । जं सयगलु केसरि घाय तद्छु ॥२॥ किर पइसइ खर दूसणहँ सरणु । किंउ प्रवर कियन्ते चहु मि मरणु ॥३॥ तर्हि णिसुणिय तुम्हें तणिय चरा । जिह घदह सहसेकों समसा ॥४३॥ सो वरि सुग्गीवहाँ करें परित । वरणाइड रक्खहि परम मित' ॥५॥ जं हरि अम्भस्थित जम्बवेण । सुग्गी वृत्त पुणु राहवेण ||६॥ 'तुहुँ मइँ आस षि भाउ पासु । अक्खहि ह सरणद जामिकासु ||७|| जिह हुँ तिह इउ मि कलप्त रहिउ वर्णे हिण्डमि काम हे गहि ||८||
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सुग्गीवें वह 'देव सुर्णे कुसल वत सय वणिय |
जड़ गाणमि तो ससमऍ दिर्णे पइसम सल हुआसणिय | ३ ||
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॥६॥
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जं जाणइ केरड लड्ड णामु । तं विरह विसन्धुलु भणइ रामु ॥ १ ॥ 'जड़ आणहि कन्त तणिय वच । तो वयशु महारज णिसुणि मिस ||२||
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