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तियालीसमो संधि सुप्रीवसे लड़ो। यदि मैं आज उसके भुजदण्डको भग्न न कर दूँ तो मैं अजनादेवीका पुत्र न कहलाऊँ ।" यह सुनकर किष्किन्धराज सुग्रीव गरजता हुआ उसपर दौड़ा । पुलकित होकर वे दोनों ऐसे भिड़ गये मानो नव वर्षाकालमें नव मेघ ही उमड़ पड़े हो । तलवार, चाप, चक्र, गदा, मुद्गर, जिससे भी सम्भव हो सका. वे लड़ने लगे | परन्तु हनुमान भी उनमेंसे असली नकली सुग्रीवकी पहचान नहीं कर सका, जिस प्रकार अज्ञानी जीव स्व-परका विवेक नहीं कर पाता ॥१-६॥
[८] हनुमान जब दोनोंमेंसे एकको भी पहचान नहीं कर सका तो वह भी वापस चला आया। तब असली मुग्रीव भी अपने प्राण लेकर इस प्रकार भागा मानो सिंहकी चपेटसे मदमाता गज ही भागा हो। वहाँसे वह खर-दूपणकी शरणमें गया । किन्तु रामने उन्हें पहले ही सगा दिया था। वहीं पर आन आप लोगोंके विषय में यह खबर सुनी कि अकेले लक्ष्मणन { खर. दृषणके ) अठारह हजार योधाओंको किस प्रकार समान कर दिया। इस लिए अच्छा हो आप ही असली सुग्रीवकी रक्षा करे | ह. परम मित्र ! आप शरणागतकी रक्षा करें ।" इस प्रकार. जाम्बवन्तके प्रार्थना करनेपर राघवने सुग्रीवसे कहा-"मित्र, तुम तो मेरे पास
आ गये, पर मैं किसके पास जाऊँ। जैसे तुम, वैसे मैं भी खीवियोगमें काममहसे गृहोत हूँ। और जङ्गल-जङ्गलमें भटक रहा हूँ 1" इसपर सुप्रीवने कहा- हे देव ! सुनिए, मैं प्रतिज्ञा करना हूँ कि यदि मैं सातवें दिन सीतादेवीका वृत्तान्त लाकर न दं ना चितामें प्रवेश का" ॥१-६॥
[ ] जब उसने जानकाका नाम लिया तो गमन विग्हम व्याकुल होकर कहा, “यदि तुम सौताको वार्ता लाकर दो तो