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वडवणासो संधि
रावण, तुम चारगतिवाला संसार अनुप्रेक्षा सुनो। जल-थल पाताल और आकाशतल में स्वर्ग नरक तियंच और मनुष्य ये चारगतियाँ हैं, नर-नारी और नपुंसक आदिरूप, वृषभ, मेप, महिप पशु, गज, अश्व और पक्षी सिंह, मोर और साँप, कृमि, कीट, पतंग और जुगुनू, वृप, वायस, गयंद और मंजरी ( इन सब प ) जीव उत्पन्न होता है। वह मारता है, पिटता है, मरता है, जाता है, करुण रोता है, खाता है, खाया जाता है, शरीरोंको छोड़ता है, महण करता है। इस प्रकार जीव अपने पापका फल भोगता है। कभी स्त्री माँ बनता है, और माँ स्त्री, बहन लड़की बनती है, और लड़की बहन । पुत्र बाप बनता है और बाप पुत्र बनता है। शत्रु भी मित्र बनता है और मित्र शत्रु । इस संसार में, 'हे रावण' सुख कहाँ है। सीता सौंप दी. अपना शील खंडित मत करो || १ - १४॥
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[ १ ] हे रावण, चौदहराजू इस विश्व में तुमने सैकड़ों भोगों का अनुभव किया है। फिर भी तुम्हे तृति नहीं हुई । सांता क्यों नहीं सौंप देते ? अहो सैकड़ों देवयुद्धों में अभिमुख रहनेवाले रावण, त्रिलोक-अनुप्रेक्षा सुनो। यह जो निरवशेष आकाश हैं, उसके बीच में त्रिभुवन प्रतिष्ठित है, अनादिनिधन वह किसी भी वस्तुपर आधारित नहीं है। सबका सब जीवराशिसे भरा हुआ है, पहला, वेत्रासनके समान सात राजू प्रमाण है, दूसरा लोक भारीके आकारका एक राजू विस्तारवाला है, और तीसरा लोक, पाँचराजू प्रमाण मृदंगके आकारका है, मोक्ष भी छल और आकारसे रहित, एक राजू विस्तारवाला है। इस प्रकार चौदहराजुआंसे निवद्ध, तीनों लोक तीन पवनोंसे घिरे हुए हैं। उसीके