________________
चउपालीसमो संधि लिन वह ऐसा लगता था मानो किसोका यशःपुंज ही समुद्र में प्रक्षन कर दिया गया हो। नेत्रांको मुहावना लगनेवाला हिलता हुआ वह ध्वज उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो सीता देवीका हाथ ही उसे यह पुकार रहा हो कि शीघ्र आओ शोध आओ ||१६||
[ ] इतनमें विद्याधर ग्लकेशीको भी द्वीपपास जाते हुए मुग्रीवका 'वज-चिह्न दिखाई दे गया। वह अपने तई सोचने लगा कि "लो. जिसके साथ मैं अभी-अभी युद्ध लड़ा था त्रिभुवनसंतापदायक बही नावण शायद फिरसे लौट आया है। अब मैं कहीं भाग . किसकी शरण जाऊ । इससे मेरे प्राश बचना अव कठिन है ।' इस तरह उसने मनमें यह सोचकर बड़े कप्से अपने आपको सम्हाला कि यदि यह गवण ही आ रहा है तो उसके ध्वज में वानरका चिह्न कैसे हो सकता है। नहीं नहीं, यह तो किष्किंध नरेश है । ठीक इसी समय सुग्रीव वहाँ आ पहुंचा। माना स्वर्गसे इन्द्र ही आ गया हो। उसने कहा, "अरे रत्नकेशी क्या तुम भूल गये | यहाँ एकाकी कैसे पड़े हुए हो" । सुग्रीवके यह वचन सुनकर विद्याधर रत्नकेशी मारे हर्पके फूला नहीं समाया वैसे ही जैसे नव-पावसके जलसे सिक्त होनपर भी विध्याचल आमायनसे नहीं अघाता॥१६
[ ] तव भामंडलका अनुचर अतुल बली विद्याधर रत्न केशीने मुनावको बताया कि जब मैं अपने स्वामीकी सेवामें जा रहा था तो मुझे गगनांगनमें एक विमान दिखाई दिया। उसमें सोना देवीका आक्रंदन मुनाई पड़ा। बस मैं गवणको तृणवत भी न ममझकर, उससे भिड़ गया। उसने अपने श्रेष्ठ खड्ग चन्द्रहास से छाती में आह्त कर दिया । तब में वससे आहत पहाड़की भाँति लोट-पोट हो गया। बड़ी कठिनाईसे जब मुझे कुछ चेतना आई