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पळचालीसमो संधि केक्काणक, श्रेष्ठ कपिस्थि, पउणारी वाणी, नुभाषिणीनंदुरवारी, विशिष्ट कांची नगरी, चीनी वस्त्र, उन विदग्धोंने देखा। और भी, वहीं इन्द्रका व्याकर पढ़ा जा रहा। पास रागमें भान हो रहा था। इस प्रकार नगर को देवता हुआ, लक्ष्मीभुक्ति पवनसुतके राजकुल में पहुँचा । नर्मदा प्रतिहारीने आते हुए उस दूतको नहीं रोका। मानो नर्मदा ने महासमुद्र में सुग्रीवके अपने प्रवाहको प्रवेश कराया हो।" ॥१-१३।।
[५] उसने भी दूरले समीर-पुत्र हनुमानको देखा। मानो' शिशिरकालमें नयनानन्दकारी दिवाकरको ही देखा हो। दुतने हनुमानको ऐसे देखा, मानो हाथी हथिनियोंसे घिरा हुआ बैठा हो। एक ओर एक स्त्री वैठी थी । प्राणप्रिय उसके हाथमें बीणा थी। सुबाहुओं बाली उसका नाम अनंगकुनुम था। वह शम्बूककुमारकी बहन और बरकी लड़की थी। दूसरी ओर एक और स्त्री बैठी थी जो अपने सुन्दर करकमलोंसे ल मीकी तरह जान पड़ती थी। वह अभंग सुग्रीवकी लड़की और अंगदकी अन पंकजरागा थी। उन दोनोंके पास ही, मुन्दर अंगोंवाला, कुवलयदलकी तरह दीर्घनयन, बीच में बैठा हुआ हनुमान ऐसा मोह रहा था मानो दोनों संध्याओंके बीच में परिमित दिन हो। इसी अन्तरं में दूतने कोई बात छिपा नहीं रक्खी, हनुमान में सब कुछ कह दिया । उसने बीर सुग्नीव, अंग और अंगदके क्षेमकुशल, कल्याण और जयका (वृत्तान्त) बताया और खरदुषण तथा शम्बुककुमारका, अकुशल, अकल्याण, विनाश और क्षय बताया ॥ १-१०॥
[६] उसने राम-लक्ष्मणकी सब कहानी उन्हें सुना दी कि किस प्रकार दण्डकवनमें उन्होंने कोटिशिलाको उठा लिया। यह सुनकर अनंगकुसुम डर गई परन्तु पंकजरागा अनुराग से भर