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एक्कूणपण्णासमोसंधि
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जिसका सहायक है, जिसके निनाद से आश फरसा है. भता उसके विरुद्ध होने पर कौन बच सकता है ? जिस समय खरदूषणसे लड़ाई हुई थी क्या उस समय उसका पराक्रम समझ में नहीं आया? जिन्होंने अविचल कोटिशिलाको उसी प्रकार विचलित कर दिया जिस प्रकार मद-झरता गज लक्ष्मी को । रामने सहस्रगतिको हरा दिया है । दूसरा कौन उनके सम्मुख विश्वमें समर्थ है ? यद्यपि रावण भी यशका लोभी है परन्तु उसने सुन्दर शील प्राप्त नहीं किया। फिर दूसरे की स्त्रियोंको उड़ानेवाले रावणकी शरणमें जाकर कौन उसका सहायक बनना चाहेगा? और भी, तुम जिस रावणको नव कोमल वापसे पूरित आलिंगन देती हो उस अपने पतिका यह दूतीपन कैसा ?" ||१-१०॥
[२०] इस प्रकार जब हनुमानने रामकी प्रशंसा और रावण रूपी समुद्रको निन्दा की तो निशाचरी मन्दोदरी उसी प्रकार कुपित हो उठी मानो आकाणमें बिजली ही चमकी हो । वह चिल्लाकर बोली, "अरे अरे, बलसे गर्विष्ठ इसे मारो मारो। अपने शब्दोंपर दृढ़ रह, यदि कल ही तुझे न बंधवा दिया तो अपने गोत्रको कलंक लगाऊँ और रावणकी पत्नी न कहलाऊं, तथा जिनेन्द्र देवको नमन न करूं।" यह कहकर मन्दोदरी फुदककर ऐसे चली मानो समुद्रकी बेला ही उछल पड़ी हो । जिस प्रकार प्रथमा विभक्ति शेष विभक्तियोंसे घिरी रहती है, उसी तरह वह रावणकी दूसरी पत्नियोंसे घिरी हुई थी । इन्द्रधनुष और तारागणके अनुरूप नपुर और हार डोरसे स्खलित होती गिरती पढ़ती वह अपने भवन में पहुंच गई ॥१-८।।